(खंड-ग)अपनी माटी विशेष:हिन्दी सिनेमा में दलित आदिवासी @भारतीय सिनेमा में दलित आदिवासी विमर्श

चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-20,(अक्टूबर,2015 )
अपनी माटी विशेष:भारतीय सिनेमा में दलित आदिवासी विमर्श
सम्पादन:पुखराज जांगिड़ और प्रमोद मीणा , चित्रांकन:डिम्पल चंडात
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खण्ड:
हिन्दी सिनेमा में दलित आदिवासी
अनिता सिंह अछूतकन्या’ से क्वीन’ तक का सफर
अभिलाषा सिंह दलित-आदिवासी साहित्य के सिने रूपान्तरण की समस्याएँ
अभिषेक त्रिपाठी बाज़ार के खेल के बीच सिनेमा में विमर्श
अशोक निमेष हिंदी सिनेमा में स्‍त्री और दलित स्‍त्री (अनुवाद – प्रमोद मीणा)
आरती कुमारी एकलव्य ग्रन्थि और फिल्म एकलव्य
आरती सिंह बैंडिट क्वीन का यथार्थ
आशुतोष प्रताप सिंह सांस्कृतिक विकास के हंड्रेड करोड़ क्लब’ में तलाशना दलित-आदिवासी यथार्थ
ऋतिका गुप्ता सिनेमा के दलित आदिवासी पात्रों का मनोविज्ञान
कृष्ण कुमार पासवान शूद्रा द राइजिंग : मनुवादी व्यवस्था पर अम्बेडकरवादी प्रहार
कृष्णा कुमारी नक्सलवादी आंदोलन और हजार चौरासी की माँ
कुलदीप हिन्दी सिनेमा और दलित मुक्ति का यथार्थ
गंगा सहाय मीणा आदिवासियों का सिनेमा और सिनेमा के आदिवासी
गोपाल लाल मीणा मृगया’: आदिवासी जीवन का यथार्थ
चौधरी राजेन्द्र कुमार रोटी’ फिल्म में आदिवासी अस्मिता का सवाल
जयराम पासवान जातिवादी चेहरे को बेनकाब करता सिनेमा
डीअंसवेणी मुरली सद्गति’ में दलित विमर्श
दीपक कुमार पाण्डेय हिंदी सिनेमा के पर्दे पर आदिवासी जीवन का स्वरुप
देशराज सक्करवाल छत्तीसगढ़ में लाल आतंक और आदिवासियों का दमन
निशान्त मिश्रा चक्रव्यूह’:आदिवासी प्रतिरोध की सशक्त दस्तक
नीलम जाँगिड़ आक्रोश : मौन भी अभिव्यंजना है!
पारुल ख्रीस्टीना खलखो दलित-आदिवासी स्त्री की त्रासदी और बड़ा पर्दा
प्रवीण बसंती हिंदी सिनेमा और आदिवासी जीवन से जुड़े विविध प्रश्न
प्रियंका सोनकर हिन्दी सिनेमा और दलित-आदिवासी स्त्री के प्रश्न
पुखराज जाँगिड आदिवासी सिनेमा पर्यावरणीय चेतना का सिनेमा
बृजेश कुमार त्रिपाठी अछूत कन्या में दलित विमर्श
रामधन मीणा :‘आक्रोश और पहाड़ा में चित्रित आदिवासी जीवन
रेखा कुर्रे दलित-आदिवासी स्त्री की त्रासदी और बड़ा पर्दा
लया शशिधरण मलयालम सिनेमा में दलित सन्दर्भ (विशेष सन्दर्भ पापिलियो बुद्धा’)
लिंगम चिरंजीव राव दलित-आदिवासी दमन और स्‍त्री की त्रासदी
विजयलक्ष्मी सिंह दलित आदिवासी समाज का सिनेमार्इ हाशिया
वी.जयलक्ष्मी : फिल्मों में आदिवासी विमर्श
विधु खरे दास माँझी सिनेमा में दलित स्त्री की प्रस्तुति!
विवेक पाठक हिन्दी सिनेमा में दलित कलाकार
श्यौराजसिंह बेचैन हिंदी फिल्मों में दलित आदिवासी जीवन
सगीर अहमद दलित-आदिवासी स्त्री की त्रासदी और बड़ा पर्दा
सरदार मुजावर हिन्दी सिनेमा में दलित-आदिवासी जीवन के यथार्थ की गैरमौजूदगी
सविता खान आदिवासी स्त्री हिन्दी सिनेमा का 'अजायबघर'
सुचिस्मिता जेना हिंदी सिनेमा में दलित एवं आदिवासी स्त्री-अस्मिता
सुरेश कुमार दलित विमर्श और हिन्दी सिनेमा
हीरा मीणा :अमर प्रेम की गजब कहानी
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अछूतकन्यासे क्वीनतक का सफर
अनिता सिंह 

अपने प्रारंभिक काल में सिनेमा की कहानियाँ पौराणिक, ऐतिहासिक हुआ करती थीं। समय के साथ विषय बदले। समाज के प्रति प्रतिबद्ध कलाकारों ने तो मनोरंजन के साथ-साथ समाज के यथार्थ पक्ष को प्रदर्शित किया परन्तु इस माध्यम को शुद्ध व्यवसाय समझने वाले तथा समाज के प्रति किसी भी प्रकार के नैतिक दायित्व से मुँह मोड़ने वाले लोगों ने इसका दुरूपयोग ही अधिक किया। कुलमिलाकर वैसे हिन्दी सिनेमा अपने सामाजिक सरोकारों से कभी विलग नहीं हुआ बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि अपने उद्भव काल में पौराणिक, धार्मिक तथा ऐतिहासिक विषयों तक सीमित रहने वाले हिन्दी सिनेमा ने अपने को शीघ्र ही इस दायरे से बाहर किया तथा समाज के प्रति ज्यादा सचेत एंव संवेदनशील बन कर उभरा। और उसी के साथ सिनेमा में स्त्री चरित्र के विविध आयाम हमारे सामने आये।

स्त्रियों की पारंपरिक छवि अर्थात प्रेम, दया, स्नेह, करूणा के साथ-साथ उस छवि को चुनौती देती सशक्त महिला की छवि भी सामने आती रही। मगर क्या कारण है कि पारंपरिक छवि वाली नायिका के मुकाबले आधुनिक और सशक्त स्त्री-चरित्रों वाली फिल्मों को हम केवल ऊँगलियों पर गिन सकते हैं। आखिर हमारे पास कितनी फिल्में हैं, जहाँ औरतें अपने मायने तलाश करती नजर आती है? कितनी फिल्में हैं जो औरतों को उनके मायनों के साथ जीने की ख्वाहिश देती हैं? ऐसी फिल्में कम बनती है और कम दर्शकों तक पहुँच पाती है, खासकर वहाँ तो नहीं ही पहुँचती, जहाँ समस्याएँ हैं। अगर फिल्मों को समाज का आईना मानें तो समझ में आता है कि क्यों उस समय की ज्यादातर फिल्मों की महिला किरदार पारंपरिक होती थीं। अगर कहीं कोई स्त्री-चरित्र आधुनिक दिखी भी तो वह नायिका नहीं, खलनायिका की श्रेणी में आती थी।

प्रश्‍न यह है कि जब सिनेमा स्त्रीको लेकर इस तरह की संकुचित दृष्टि रखता है तो उसके अन्दर दलित स्त्री-सवर्ण स्त्री के सांचे को कैसे फिट किया जाय? देश, भाषा, परंपराएं अलग होती हैं। धर्म और जाति-बिरादरी अलग होती है पर स्त्री मन के सुख-दुख एक ही होते हैं। देखा जाय तो सिनेमा ने स्त्री को बस देहके आधार पर ही आंका है। और ऐसे में जो फिल्मकार नारी विषयक मुद्दों पर फिल्में बनाने का साहस करते हैं तो उन्हें नारीवादी करार दे दिया जाता है। उन फिल्मों को भी स्त्रीकेन्द्रितफिल्में कहकर प्रचारित किया जाता है। ऐसी फिल्में बहुत सफल भी नहीं होती। यह जरूर है कि हिन्दी सिनेमा में अछूतकन्यासे लेकर क्वीनतक का सफर आसान नहीं रहा है। प्रतिवर्ष 1000 से ज्यादा फिल्में बनाने वाले इस देश में अगर दो-चार फिल्में स्त्री केंद्रित बनायी जा रही हैं, तो ये बहुत इतराने वाली बात नहीं है पर मायूस होने की भी जरूरत नहीं। युवा पीढ़ी ने हर दौर में पहले से बेहतर किया है। प्रचलित मान्यताओं को तोड़ा है। नये का निर्माण किया है, तो सिनेमा के इस हाइवेपर हमें ऐसी अनगिनत क्वीनमिलती रहेंगी, ऐसा हमारा पूरा विश्‍वास है।

(संपर्क डॉ. अनिता सिहं, पुदुच्चेरी, ईमेल - pranitashambhu2003@gmail.com )
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दलित-आदिवासी साहित्य के सिने रूपान्तरण की समस्याएँ
अभिलाषा सिंह

दलित-आदिवासी चूँकि सभ्यता के विकास में प्रारंभ से ही हाशिये पर फेंक दिए गए इसलिए साहित्यकारों का ध्यान इस ओर देर से गया और हाशिये के साहित्य की रचनाएँ देर से होनी प्रारंभ हुईं। 20वीं. सदी के मध्य से आमजन के बीच अभिव्यक्ति के नये माध्यम के रूप में सिनेमा आया, पर आज 21वीं सदी के दूसरे दशक के मध्य में पहुँचकर भी हम इस हाशिये के समाज को पर्दे पर कम ही चित्रित होते देखते हैं। इसके पीछे अत्यंत ही व्यावहारिक कारण विद्यमान रहे हैं जिनमें प्रमुख हैं साहित्य में रचे-दिखाए दलित-आदिवासी समाज को अनुभूत न कर पाना जिसके विषय में स्वानुभूति और परानुभूति का विवाद उठता रहा है।

दलित-आदिवासियों के क्षेत्र-स्थान, भाषा-बोली, प्रथा-परंपरा, रीति-रिवाज आदि की जानकारी इकट्ठी करना और उनके दुःख और वस्तुस्थिति से स्वयं को जोड़ पाना न सिर्फ निर्देशक बल्कि नायक-नायिका के लिए भी एक चुनौती है। इन तथ्यों के बारीकी से अध्ययन की आवश्यकता होगी। तभी दलितों-आदिवासियों की वास्तविक स्थिति को पर्दे पर संजीदे ढंग से फिल्माया जा सकता है। इसके साथ एक और बड़ी समस्या है- दर्शक वर्ग। भारतीय संदर्भ में यदि बात की जाय तो मध्यवर्ग ही सबसे अधिक फिल्में देखता है और उनसे प्रभावित भी होता है। पर मध्यवर्ग के फिल्म देखने का प्रमुख उद्देश्य मनोरंजन होता है, फिल्म से कोई शिक्षा या प्रेरणा मिल जाये तो वो बाई-प्रोडक्ट के रूप में ही देखी जाती है।

दलित-आदिवासियों पर आधारित जो थोड़ी फिल्में आई भी हैं, तो उन्हें समझने के लिए पाठक उतना तैयार नहीं होता क्योंकि वह उनकी स्थिती और परंपराओं से परिचित नहीं होता। वह फिल्म देख के भले ही द्रवित हो, सहानुभूति रखे पर उनसे खुद को जोड़ नहीं पाता। और यथार्थ यही है कि मसाला फिल्में ही बाजार में अधिक चलती हैं, न की आर्ट या क्लासिक फिल्में क्योंकि इनका एक खास दर्शक वर्ग होता है। इसलिए यदि हाशिये के इस समाज को पर्दे पर उतारना होगा तो अवश्य ही कुछ चीजों से समझौता करना पड़ेगा जिससे संभव है कि सत्य प्रभावित हो।

एक और व्यावहारिक कारण है कि ऐसी फिल्मों को प्रायोजक भी जल्दी नहीं मिलते क्योंकि उन्हें भारतीय बाजार में इनके न चल पाने का संशय रहता है और बिना आर्थिक मदद के फिल्म बनाना संभव नहीं। इन्हीं प्राथमिक चुनौतियों के कारण निर्देशक ऐसी फिल्में बनाने का जोखिम उठाना पसंद नहीं करते और वो भारतीय दर्शक जो दलित साहित्य कभी पढ़ते ही नहीं, वे हाशिये की इस दुनिया के सिनेमाई मंचन से भी वंचित रह जाते हैं। परिणामतः वे भावनात्मक स्तर पर दलित-आदिवासी की वस्तुस्थिति से हमेशा अपरिचित ही बने रहते हैं।

(संपर्क - अभिलाषा सिंह, वाराणसी (उत्तर प्रदेश), ईमेल - singh.abhilasha39@gmail.com )
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बाज़ार के खेल के बीच सिनेमा में विमर्श
अभिषेक त्रिपाठी

भारत में सिनेमा एक अतिशय महत्व की जगह पर विराजित है। सिनेमा के पास संप्रेषण की जो सशक्त ताकत है, वह उसे अपेक्षाओं की भारी-भरकम सूची थमा देती है। यही कारण है कि सिनेमा से बस मनोरंजन की आशा नहीं की जाती, बल्कि तमाम विमर्शों, सामाजिक- राजनीतिक यथार्थों के प्रतिबिंबों को ढ़ूढ़ने की चेष्टा भी उसमें अक्सर होती रहती है। कहा भी जाता है कि सिनेमा समाज का प्रतिबिंब है, ऐसे में यह लाजिमी हो जाता है कि सिनेमा समाज में मौजूद हर पक्ष को स्वर देने की कोशिश करे। बात जब शोषण की हो, हाशिये पर खड़े वर्ग की हो, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विद्रूपताओं की हो और समाज इनकी आंच को महसूस करने लगे तो फिर समाज के जाग्रत लोग मनोरंजन के रूप में ख्यात सिनेमा से भी इनसे जुड़ने और अपनी सशक्तता के सार्थक उपयोग की आशा कर बैठते हैं। यद्यपि बहुत से फिल्मकार लोगों की इस अपेक्षाओं से वास्ता नहीं रखते और सिनेमा को विशुद्ध मनोरंजन की विधा मानते हुए इससे अपना पल्ला झाड़ लेते हैं फिर भी सिनेमा को सिर्फ मनोरंजन और कला का माध्‍यम मानकर छोड़ा नहीं जा सकता, वह भी विमर्शों और सक्रियता के इस दौर में जब विचार, बहस विषयों की दीवारें लांघकर सार्वभौमिक हो रहे हैं।

सिनेमा को विशुद्ध मनोरंजन की विधा मानने वाले लोगों के अपने तर्क हैं। सिनेमा अभिव्यक्ति की अन्य विधाओं यथा- कथा, कविता, उपन्यास, चित्रकारी आदि से भिन्न है और तकनीकी से लैस एक अतिशय खर्चीली विधा है जिसमें हजारों लोगों का श्रम और समय संयुक्त होकर इसे साकार करता है। बाज़ार और अर्थतंत्र से इसका घनिष्ठ नाता है फलतः बाज़ारवाद के प्रतिस्‍पर्धा भरे दौर में बने रहने का दबाव झेलते फिल्‍मकारों से सिर्फ ऐक्टिविज्म की आशा निरी बेवकूफी ही कही जायेगी।  इस तर्क में दम भी है। दूसरी बात सिनेमा में बहुत से विषय सिर्फ इस नाते नहीं उकेरे जाते क्योंकि फिल्मकार उस विषय का मर्मज्ञ है या उस विषय को स्वर देना उसकी प्राथमिकता में है, अपितु बहुधा ऐसा होता है कि कोई मुद्दा बस फिल्मकार को रूचिकर लग जाता है और वह उसे रजतपट पर उकेरने के लिए दिलचस्पी दिखा बैठता है। फिल्म निर्माण के दौरान ही बस वह मुद्दा उसकी प्राथमिकता में रहता है। ऐसी स्थिति में यह बिल्कुल जरूरी नहीं कि फिल्मकार मुद्दे के विमर्श रूप में गहराई तक घुसे ही। और ऐसा करने के लिए उसे बाध्य भी नहीं किया जा सकता। हाँ, यह आशा जरूर की जा सकती है कि वह अपनी फिल्म से भ्रांतियां न फैलाए और देश, समाज के लिए कोई समस्या न पैदा करे।

सिनेमा की ताकत उसके मनोरंजक स्वरूप की वजह से ही है इसलिए वह उसी सीमा तक या उसी रूप में किसी विमर्श को स्थान दे सकता है, जिस सीमा तक या जिस रूप में उस विमर्श का चित्रण उस फिल्म को कोई बोझिल ग्रंथ न बनाये और उसके मनोरंजक रूप को अक्षुण्ण रखे और उसके सभी तरह के दर्शक सहजता के साथ उसका आस्वादन कर सकें। बाज़ारवाद के इस दौर में तो एक फिल्मकार के लिए यह अपरिहार्य ही हो जाता है कि वह फिल्म निर्माण के वक्त फिल्म के उक्त मिज़ाज का ख्याल रखे। जिस अनुपात में पूँजी फिल्म निर्माण में झोंकी जा रही है, कोई भी फिल्मकार विमर्शों के जीवन के लिए अपने फिल्मी जीवन को खतरे में डालना शायद ही पसंद करे!

(संपर्क- अभिषेक त्रिपाठी, वर्धा (महाराष्ट्र), ईमेल - pingaakshaa@gmail.com )
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हिंदी सिनेमा में स्‍त्री और दलित स्‍त्री
अशोक निमेष
(अनुवाद प्रमोद मीणा)

अपनी प्रासंगिकता के साथ-साथ सामाजिक मूल्‍यों के संदर्भ में भारतीय हिंदी सिनेमा की जड़ों में ही एक प्रकार का द्वैत परंपरा से आबद्ध मिलता है। क्‍या हिंदी सिनेमा में भारतीय सामाजिक मूल्‍य अपनी अभिव्‍यक्ति पाते हैं अथवा सिनेमा स्‍वयं में एक प्रबल शक्ति है जो सामाजिक मूल्‍यों को अपनी रणनीति के तहत ढालता रहा? भारतीय सिनेमा के संपूर्ण इतिहास में यह प्रश्‍न शोधार्थियों और विद्वानों के लिए एक अनसुलझी गुत्‍थी की तरह रहा है। किसी भी निष्‍कर्ष पर पहुंचने से पूर्व प्रत्‍येक सिने विद्यार्थी को रजतपर्दे पर स्‍त्री के प्रतिनिधान को लेकर भारतीय सिनेमा विशेषत: हिंदी सिनेमा के योगदान का आलोचनात्‍मक विश्‍लेषण करना ही पड़ता है। हिंदी सिनेमा में स्‍त्री की उपस्थिति सतत् परिवर्तनशील रही है। सामान्‍यत: यह स्‍त्री की स्थिति के प्रतिनिधान के संदर्भ में छिद्रान्‍वेषी अधिगम को लेकर चलता है। भारतीय समाज में स्‍त्री की स्थिति को ज्‍यों का त्‍यों दिखाने से लेकर यह लैंगिक संबंधों और स्‍त्री की आत्‍मपरकता विषयक सामाजिक मूल्‍यों और पैमानों को एक निश्चित दिशा में ढालता रहा है।

अपने प्रारंभिक दौर में हिंदी सिनेमा और शेष भारतीय सिनेमा में भी चले आ रहे सामाजिक पूर्वाग्रहों के साथ स्‍त्री को कमतर दर्जे पर रखकर प्रस्‍तुत किया गया। उस दौर के सिनेमा में आई स्‍त्री को आधी-अधूरी स्‍त्री कहकर स्‍त्री के सिनेमाई प्रतिनिधान की आलोचना की गई है क्‍योंकि इस‍ सिनेमा में आपको वे स्त्रियां कहीं नजर नहीं आती जो अपनी और अपने पूरे समाज की उन्‍नति हेतु युद्धरत स्‍तर पर सक्रिय रही हैं। तथ्‍य यह है कि वे क्रांतिकारी महिलाएं जिन्‍होंने यथास्थिति को आमूलचूल ढंग से बदलने के अपरिमित प्रयास किये, वे सब या तो सिनेमा में आ ही न सकीं या उन पर सिनेमा के कैमरे का प्रकाश बहुत ही कम पड़ा। लोकप्रिय हिंदी सिनेमा में तो विशेषत: उन्‍हें हाशिये पर डाल दिया गया था और संभावनाशीलता से भरी उनकी भूमिका रूपांतरकारी सिनेमा से बहिष्‍कृत कर दी गई। यह लैंगिकता पर आधारित सचेतन भेदभाव था जो हिंदी सिनेमा ने उनके साथ किया। लोकप्रिय सिनेमा से इतर एक दूसरा सिनेमा भी था जिसे दस्‍तावेजी सिनेमा कहा जाता है। इस सिनेमा ने हर युग में स्त्रियों के शोषण को अपना विषय बनाया है।

दस्‍तावेजी सिनेमा की इस स्‍त्री मैत्री की अति आवश्‍यकता लोकप्रिय सिनेमा के क्षेत्र में रेखांकित की गई है। वैसे दस्‍तावेजी सिनेमा के साथ-साथ मुख्‍यधारा का हिंदी सिनेमा भी समाज निर्माण और सामाजिक मूल्‍यों में बदलाव के संदर्भ में स्‍त्री और उसकी भूमिका के प्रति संवेदनशील हुआ है ताकि लैंगिक समता और न्‍याय की प्राप्ति सिनेमा और समाज में सुनिश्चित की जा सके। समाज में स्‍त्री की रूढ़ भूमिकाओं को प्रदर्शित करने वाली स्‍त्री छवियों के सचेतन निर्माण वाले दौर को पीछे छोड़कर सिनेमा और विशेषत: हिंदी सिनेमा समाज को बदल डालने के लिए सभी सीमाओं को पारकर सक्रिय हस्‍तक्षेपकारी भूमिका में आता जा रहा है, किंतु जब स्‍त्री की बात की जाती है तो दलित और आदिवासी स्‍त्री की जानबूझकर आ अनजाने उपेक्षा कर दी जाती है।

(संपर्क डॉ. अशोक निमेष, रांची (झारखण्ड), चलभाष – 7631097575)
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एकलव्य ग्रंथि और फिल्म एकलव्य
आरती कुमारी

विधु विनोद चोपड़ा के निर्देंशित फिल्म एकलव्य: द रॉयल गार्ड (2007) एकलव्य ग्रंथि (कॉम्प्लेक्स) पर केंद्रित है, और फिल्म इस कॉम्प्लेक्स को धर्म और अधर्म के प्रश्न से जोड़ती है। लेकिन फिल्म में एकलव्य के पात्र की कई परतें हैं जो उसके ज्ञानशास्त्रीय और सन्निहित अनुभवों द्वारा गढ़ी गई हैं। कहीं-कहीं उसके अनुभव और पौराणिक एकलव्य के अनुभव इन दो पात्रों को एक दूसरे से जोड़ते हैं। हालांकि फिल्म एकलव्यआज के संदर्भ में है। समाज में उभर रहे वैकल्पिक विचारधाराओं के बीच एक दूसरे एकलव्यकी एक दूसरी कहानीहै। किंतु कुछ है जो धागे की तरह बाँधता है फिल्म के पात्र एकलव्यको पौराणिक एकलव्य के साथ। यह है नाम, यह नाम जो प्रतीकों और रूपकों से लबालब भरा है। चाहे हम पौराणिक एकलव्य की बात करें या फिल्म के किरदार एकलव्य की। मैं यहाँ प्रतीकों और रूपकों के पीछे छिपे व्यक्ति को चर्चा का बिंदु बनाना चाहती हूँ।

मीनी के. दस्तुरी अपने लेख मनोवैश्लेषिक सिद्धान्तों और व्यवहार में प्रतिबिम्बित मिथकों का सार्वभौमिक सत्य“(The universal truth of myths reflected in psychoanalytic theory and practice) जो कि पुस्तक एशिया में मनोवैज्ञानिक विश्लेषणमें प्रकाशित हुआ था, मनोवैज्ञानिक हार्टमान को उद्धृत करती हैं, जो मानते हैं कि अगर किसी घटना या व्यक्ति को विश्लेषणात्मक स्थितिमें डालें तो, उस व्यक्ति, उस घटना से सांस्कृतिक मतभेदकम हो जाता है। सांस्कृतिक मतभेद कम हो तो समाज में खुलापन आता है, एक दूसरे के लिए सम्मान की भावना बढ़ती है और इससे सामाजिक समानता के आंदोलन को गति मिलती है। इस शोधपत्र में मैं एकलव्य के पात्र को केन्द्र में रखते हुए, उसके जीवन मूल्यों को छूने वाले समाज एवं सांस्कृतिक मूल्यों का भी विश्लेषण कर रही हूँ। साथ ही साथ मैं मानती हूँ कि दलित पहचान का प्रश्न’, ‘पौराणिक एकलव्य की कहानी की आज के संदर्भ में प्रासंगकिताऔर सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहचान की लड़ाई में मनोविज्ञान की भूमिका’, इन बिंदुओं पर चर्चा किए बिना हम एकलव्य पात्र की मानसिक जटिलता का विश्लेषण नहीं कर सकते हैं।

दलित पहचान, दलित प्रश्न, और उनसे संबद्ध विमर्श दलित की एक वैश्विक अवधारणा विकसित करते हैं और भारत के संदर्भ में एक अखिल भारतीय दलित पहचान की। एकलव्य की कहानी, जहाँ एक ओर अखिल भारतीय दलित पहचान के निर्माण में योगदान देती है, वहीं दूसरी ओर विश्व स्तर पर, शैक्षणिक स्तर पर हो रहे भेदभाव को दर्शाने के लिए भी एक संदर्भ बिंदु की तरह काम करती है। कारण यह है कि एकलव्य की कहानी एक जाति विशेष, समूह विशेष को संबोधित नहीं करती है, बल्कि एक बड़े तबके के लोग, जो अपने को व्यक्ति, समूह, संस्था द्वारा उत्पीडि़त महसूस करते हैं, क्योंकि वह समूह, वह व्यक्ति, वह संस्था एक मुख्य प्रभाव, एक प्रभावी विचारधारा के अंतर्गत काम करता है, उन सबको संबोधित करती है। मैं मानती हूँ कि एकलव्य की कहानी में एक मनोवैज्ञानिक आधुनिकता है और जिसकी वजह से यह कहानी दोनों प्रकार के लोगों को छूती है, चाहे वे परम्परावादी हों या फिर आधुनिक जीवनशैली को अपनाते हों।  

(संपर्क - आरती कुमारी, पुदुच्चेरी-605014, चलभाष – 9095189842)
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बैंडिट क्वीन का यथार्थ
आरती सिंह

शेखर कपूर निर्देशित बैंडिट क्वीन’ (1994) हिन्दी सिनेमा की चन्द उन फिल्मों में शामिल है, जहाँ स्त्री अपनी असहाय नियति को स्वीकारने के बदले उसके खिलाफ हिंसक संघर्ष करती है। जिस समाज (मल्लाह) से फूलन आती है, उसका इतिहास (ठाकुरों जैसी सशक्त सवर्ण जाति द्वारा) छले जाने का रहा है। फूलन पहले तो गाँवभर की वहशी नजरों का शिकार होती है। बालविवाह के बाद अपने से दुगुने सी अधिक उम्र के पति द्वारा शरीरी ज्यादतियों का शिकार बनती है। भारतीय समाज में ऐसे अनमेल विवाह स्त्री की देह पर प्रतिहिंसा के जिस महाकाव्य का सृजन करते हैं, उसमें फूलन को वहाँ से वापस अपने घर की ओर भागना ही था। फिर जब वह अपने पैरों पर खड़े होने योग्य होती है तो सवर्णों द्वारा बलत्कृत होती है।

फूलन का दोष इतना भर है कि वह सवर्णों की ज्यादतियों का, उनकी हवस का शिकार बनने से इनकार कर देती है, लेकिन वह चाहकर भी खुद को पितृसत्ता, जातीय हिंसा और शरीरी हिंसा के तिहरे शोषण से बचा नहीं पाती। वह सवर्णों की जातीय पंचायत द्वारा सरेगाँव छलना की शिकार बनती है। उसे गाँवनिकाला मिलता है। चारों और से रास्ते बन्द होने पर वह डाकूओं के गिरोह में शामिल होकर दुर्दान्त डाकू फूलन बन जाती है। डाकू बनना उसकी पसन्द नहीं, मजबूरी है। परिस्थितियाँ निरन्तर उसे उस ओर धकेलती जाती है पर वहाँ भी वह छली जाती है। पितृसत्ता, जातिव्यवस्था, पुलिसव्यवस्था और न्यायव्यवस्था से घोर निराशा के बाद अपने भाग्य का निर्माण वह खुद करने का फैसला लेती है।

ऐसे में जिन लोगों की हिंसा का शिकार वह बनी, प्रतिहिंसा की आग में झुलसी फूलन उनसे (अपने पति सहित) चुन-चुनकर बदला लेती है। ध्यान रखने वाली बात यह है कि इस प्रतिहिंसा में वह और भी अधिक हिंसा का शिकार होती है। इस हिंसा में वह अपने एकमात्र प्रेमी को भी खो देती है। अपने परिवार को तो वह पहले ही खो चुकी थी। अन्ततः जब उसकी प्रतिहिंसा की आग ठण्डी हो जाती है और अन्य सभी रास्ते बन्द हो जाते हैं तो वह वापस समाज की ओर रूख करना चाहती है। आत्मसमर्पण के बाद उसे जनता का भरपूर प्यार मिलता है, लेकिन जिस हिंसा की लपटों में उसका जीवन घिरा रहा, अन्ततः उसकी समाप्ति भी उसी उसी प्रतिहिंसा में होती है।

(सम्पर्क – डॉ. आरती सिंह, रोहिणी (दिल्ली), ईमेल - artirambinodray@yahoo.com )
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सांस्कृतिक विकास के हंड्रेड करोड़ क्लबमें तलाशना दलित-आदिवासी यथार्थ
आशुतोष प्रताप सिंह

सिनेमा एक कला है और एक कला होने के कारण सिनेमा पर भी वही शर्तें, वही कसौटियाँ लागू होती हैं जो किसी भी कला पर लागू होती हैं। पर सिनेमा को हू-ब-हू स्थापत्य, औज़ार बनाने, सिलाई-कढ़ाई, संगीत, साहित्य या रंगमंच आदि की शर्तों/कसौटियों पर कसना सिनेमा के साथ अन्याय होगा। ऐसे में निश्चित रूप से ये शर्तें शिल्प और विधान की बनिस्पत ज़रूरत और उद्देश्य की कसौटियाँ होंगी। बहरहाल सिनेमा को इटैलियन फिल्म समीक्षक रिचार्तो कैनूदो (Ricciotto Canudo) ने चित्रकला, स्थापत्य, संगीत, कविता, मूर्तिकला, नृत्य के बाद, इन सबका संश्लिष्ट रूप मानते हुए सातवीं कलाकहा। भारतीय संदर्भ में कामसूत्रमें वात्स्यायन ने चौंसठ कलाओंका उल्लेख किया है। इस दृष्टि से सिनेमा को पैसठवींकला के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि रिचार्तो वाले नज़रिये से इसे वात्स्यायन द्वारा वर्णित चौंसठ कलाओं के संश्लिष्ट रूप में नहीं देखा जा सकता क्योंकि कामसूत्रमें वर्णित सभी कलाएँ इसमें समाहित नहीं है, वैसे चौर्य कर्मऔर द्यूत कर्मआदि के लक्षण विशेष रूप से बॉलीवुड में प्रायः दिख जाते हैं।

यह निर्विवाद है कि सिनेमा ने अपने उद्भव से लेकर वर्तमान स्वरूप तक के विकास की पूरी प्रक्रिया में पूर्ववर्ती कला-माध्यमों के साथ ही समकालीन कला-माध्यमों को अपनाते हुए अपनी भाषा को समृद्ध किया है, परिष्कृत किया है। इस दृष्टि से सिनेमा एक संश्लिष्ट, सम्प्रेषण की दृष्टि से बहुस्तरीय और आधुनिक होने की असीम संभावनाओं से लबरेज़ कला-माध्यम के रूप में हमारे सामने आता है। इस से पहले कि हम हिंदी सिनेमा की ओर चलें, आइये एक बार फिर वापस पीछे चलते हैं और कला की पड़ताल करते हैं।

कला निश्चित रूप से आकाश से अवतरित चीज़ नहीं है जैसा कि प्रायः विभिन्न धर्मों के ग्रंथ दावा करते हैं। कला एक पूरी तरह से भौतिक एवं मनुष्य द्वारा पैदा की गयी चीज़ है। जिज्ञासा ने मनुष्य को अन्वेषक बनाया, आवश्यकता ने आविष्कारक और ज्ञात को, पायी गई चीज़ को, अनुभूत सत्य को एक-दूसरे से कहने-सुनने की इच्छा ने उसे कलाकार बना दिया। एकांत में आने वाले विचार भी सामाजिक जीवन का प्रतिबिंब, उसकी प्रतिध्वनि होते हैं। इसी कारण उस विचार से मूर्त रूप लेती कला में भी सामाजिक जीवन के विभिन्न संकेत साफ दिखाई देते हैं। कलाकार जिस तरह अपने इर्द-गिर्द घटते परिवेश को देखता-परखता-महसूसता है, उसकी रचना में उसका परिवेश, उसका समाज वैसे ही दिखाई देता है। ऐसे में हिंदी सिनेमा के संदर्भ में यह प्रश्न उठना लाज़मी है कि वो कौन से तत्व हैं जिनकी वज़ह से हिंदी सिनेमा के पर्दे से भारत की एक बहुत बड़ी आबादी, जिनमें दलित और आदिवासी समाज का एक बड़ा प्रतिशत है, या तो नदारद रहती है या तो बज़ूका की तरह पेश की जाती है? कलाकार अपनी दुनिया का सच कहने से क्यों कतरा रहा है? क्या इसकी वज़ह स्वानुभूति और सहानुभूति का अंतर है? या अर्थ की सत्ता से दूर रहना इसका प्रमुख कारण है?

वो कौन सी वज़ूहात हैं जो हिंदी सिनेमा के निर्माताओं, निर्देशकों, पटकथा लेखकों, अभिनेताओं और दर्शकों को भी इतना अशक्त, इतना असहाय या फिर इतना घाघ, इतना निर्मम बना रही हैं कि उसके लिए सांस्कृतिक विकासके अश्लील नारों के बीच कला की सारी ज़रूरत 'हंड्रेड करोड़ क्लबतक सिमट गयी है? भारत के एक हिस्से का कठोरतम सच, उसका दुख-सुख, उसका राग-विराग, सौंदर्यबोध, उसके जीवन का सुंदरतम स्वप्न इक्कीसवीं सदी के विकासशील भारत में भी हिंदी सिनेमा के पर्दे तक क्यों नहीं पहुँच पाया है ? निश्चित रूप से न तो ये प्रश्न एकांगी हैं न ही इनके उत्तर एकांगी हो सकते हैं। इसलिए मैं अपने शोध-पत्र को फिल्म-निर्माण की प्रक्रिया और वर्तमान हिंदी सिनेमा की गतिकी को देखते-परखते हुए उपर्युक्त प्रश्नों की मार्फ़त पिछले दशक (2005-2015) के हिंदी सिनेमा के पर्दे पर उकेरे गए (?) दलित और आदिवासी जीवन के यथार्थ पर केन्द्रित करने की कोशिश करूंगा।

(संपर्क - आशुतोष प्रताप सिंह, गाज़ियाबाद (उत्तर प्रदेश), ईमेल -  rangkarm@gmail.com )
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सिनेमा के दलित आदिवासी पात्रों का मनोविज्ञान
ऋतिका गुप्ता

भारतीय सिनेमा, भारतीय संस्कृति की ही तरह समृद्ध, जटिल और विविधता का विषय रहा है। अपने प्रारंभिक दौर से अब तक भारतीय सिनेमा ने कई विरोधों और समस्याओं का सामना किया है। विषय चयन हो या प्रस्तुतिकरण को लेकर इसने सदा ही सुर्खियाँ बटोरी हैं। सच या फ़साना, हिंदी या हिंदीतर भारतीय सिनेमा में समाज से जुड़े कई विषयों पर फ़िल्में बनायी गयी हैं । समाज में व्यक्तियों का होना जितना सच है, उतना ही सच है समाज के इन घटकों को जोड़ने या तोड़ने वाली संरचनाओं का होना। भारतीय समाज के पास अपनी सामाजिक सरंचना पर चर्चा करने के लिए एक बहुत ही दिलचस्प विषय है इसकी जातिगत संरचना, जिसका प्रभाव कहीं न कहीं इसके साहित्य और सिनेमा पर भी परिलक्षित होता है।

भारतीय साहित्य की ही भांति भारतीय सिनेमा में भी जातिगत विषयों को उठाया गया है। एक ओर तो मुख्य रूप से दलित और आदिवासी समाज को ही केंद्र में रख कर कुछ फिल्में बनायी गयी हैं, जिनमें दलित और आदिवासी समाज की समस्याओं और उनके संघर्षपूर्ण जीवन का चित्रण मिलता है।  दूसरी ओर मुख्यधारा की फिल्मों में भी यदाकदा इनकी समस्याओं को प्रासंगिक कथा के रूप में रेखांकित किया गया है। जैसे - फिल्म आरक्षणमें एक ओर आरक्षण की माँग को उठाया गया है और उसके विभिन्न पक्षों की चर्चा की गयी है तो फिल्म एकलव्यमें एक अछूत इंस्पेक्टर के चरित्र के माध्‍यम से ही आरक्षण के महत्व को व्यक्त किया गया है। किंतु कुछ फिल्‍मों में आदिवासी समाज को नकारात्‍मक ढंग से भी दिखाया जाता है, जैसे फिल्म सरफ़रोशमें राजनीतिक/स्थानीय लूटपाट का दोषारोपण आदिवासी समुदाय पर लगाया जाता है। इस प्रकार कई फिल्मों में दलित और आदिवासी समुदायों का चित्रांकन किया गया है।

उत्पीड़ित समुदायों की दुर्दशा तब अधिक हो जाती है जब इन पर गरीबी की मार पड़ती है। फिल्म स्वदेशमें इनकी अज्ञानता, गरीबी और सम्पूर्ण जीवन भर पिछड़ापन ढोने के लिए पैदा होने की विवशता को दर्शाया गया है।  इन्हें शिक्षा तो दूर मतदान तक का अधिकार नहीं दिया गया है। 1997 में दक्षिण भारत के एक गाँव के 7 लोगों को केवल इसलिए जिंदा जला दिया जाता है क्योंकि उन्होंने मतदाता के संविधान प्रदत्‍त अधिकार का प्रयोग किया था, लघुफिल्म अनटचेबल कंट्रीमें इसका ज़िक्र किया गया है।  इसी तरह यथार्थ फिल्म में अंतिम संस्कार करने वाली एक डोम जाति के मनोभावों का वर्णन किया गया है। इन फिल्मों के दलित या आदिवासी किरदारों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करने से ज्ञात होता है की इनमें मुख्य रूप से दो भावों की प्रधानता है ग्लानि और आक्रोश। ग्लानि इन्हें आगे बढ़ने, विरोध करने और नया सोचने का साहस नहीं करने देती और उस स्थिति में मर जाने को नियति समझती है। आक्रोश पुराना सब कुछ तोड़ देने, नेस्तनाबूत कर देने और नवनिर्माण को प्रोत्साहित करता है, जिसमें सबकुछ सबके लिए समान होगा, जिसमें कोई भेदभाव नहीं होगा।

(संपर्क - ऋतिका गुप्ता, पुदुच्चेरी, चलभाष – 7598643501)
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शूद्रा द राइजिंग : मनुवादी व्यवस्था पर अम्बेडकरवादी प्रहार
कृष्ण कुमार पासवान

सिनेमा एक दृश्यात्मक एवं बिंब प्रधान साहित्यिक विधा है। यह अपने निहितार्थ को अभिव्यक्ति के अनेक रूप मसलन दृश्य, चित्र, ध्वनि, मौन आदि दृश्य-श्रव्य माध्यमों से अभिव्यक्त करता है। यहाँ साहित्य की अन्य विधाओं की तुलना में साधारणीकरण की संभावना ज्यादा आसान होती है। भावक सहज ही पाठ से अपने को जोड़ने में सफल हो पता है। निर्माता, लेखक और निर्देशक संजीव जैसवाल की फिल्म शूद्रा द राइजिंगहिंदी की पहली फिल्म है जिसमें अंबेडकर के विचार सीधे-सीधे अभिव्यक्त हुए हैं। हिन्दी में महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू के विचारों को आगे बढाने वाली फिल्मों की कमी नहीं है, लेकिन बाबासहब अम्बेडकर के विचारों को सरल और सहज रूप में सम्प्रेषित करने वाली फिल्मों का सर्वथा अभाव है। संजीव जैसवाल की फिल्म शूद्रा द राइजिंग इस कमी को पूरा करती है।

यह फिल्म हिंदी की पहली फिल्म है जो दलितों की समस्या को सीधे-सीधे ब्राहमणवाद से जोड़ती है। भाग्यवाद और पुनर्जन्म को नकारते हुए दलितों एवं शूद्रों की दुर्दशा को ब्राहमणवादी व्यवस्था की राजनीति से जोड़ती है। एक दलित के द्वारा निर्देशित यह फिल्म कई मायने में हिंदी सिनेमा में महत्वपूर्ण है। इस फिल्म में पहली बार मनु की आलोचना सीधे और तीखे प्रतिरोध और प्रतिशोध के साथ की गई है। फिल्म का प्रारंभिक और अंतिम दृश्य भारत के दलित समाज की मजबूरियों को अत्यंत मार्मिक एवं यथार्थ रूप में चित्रित करता है। इस फिल्म के प्रदर्शन को लेकर भी कई समस्याएं आयीं। बहुत कम शहरों और सिनेमाघरों में लगाने की इजाजत मिली। इस दृष्टि से यह फिल्म काफी महत्वपूर्ण है। इस फिल्म में अभिव्यक्त अम्बेडकरवादी विचारों के आधार पर फिल्म के सामाजिक आधार की भी खोज की जा सकती है।

(संपर्क - डॉ. कृष्ण कुमार पासवान, तिरुवरुर (तमिलनाडू), ईमेल - krishnasoni.bhu@gmail.com )
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नक्सलवादी आंदोलन और हजार चौरासी की माँ
कृष्णा कुमारी

नक्सलवादी आंदोलन आदिवासियों व वंचित जमातों में पनप रहे असंतोष का परिणाम है। इस असंतोष का मुख्य कारण सरकार के भूमि संबंधी कानून में सुधार की बजाय जमींदारों और दलालों को जमीन के स्वामित्व का अधिकार देना है। आदिवासी संबंधी नीतियों को लागू करने में इच्छाशक्ति की कमी तथा आदिवासियों की जल-जंगल-जमीन से बेदखली, विस्थापन, पलायन, घुसपैठ और उपेक्षा ने इस अन्तोष को और अधिक गहरा कर दिया है। पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव से शुरू होने के कारण इस आंदोलन को नक्सलवादी आंदोलन और इसके कार्यकर्त्ता को नक्सली कहा गया। शुरू में इसका केंद्र पश्चिम बंगाल रहा परंतु धीरे-धीरे यह छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, झारखंड, बिहार आदि राज्यों में फैल गया।

सरकार ने नक्सलवाद को खत्म करने के लिए भूमि सम्बन्धी कानूनों में सुधार करके आदिवासियों की मूल समस्याओं को समाप्त करने की बजाय सलवाजुडूम को खड़ा कर दिया। सलवाजुडूम बनाने का उद्देश्य था - आदिवासी को आदिवासी के खिलाफ लड़वाना। नक्सलवाद को खत्म करके शान्ति स्थापित करने के नाम सरकार आदिवासियों को ही ख़त्म कर रही है। नक्सलवादी किसी भी तरह क शोषण से मुक्त आजादी का राज चाहते हैं, इसके लिए वे बंदूक की नली से परिवर्तन की उम्मीद में यकीन रखते हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि हिंसा से किसी समस्या का समाधान सम्भव नहीं है, वरन् इससे समस्याएँ और अधिक भयावह हो उठती है।

1970 ई. के समय प्रशासन ने जिस बेदर्दी से एक नयी सोच, नयी पीढ़ी, नये वातावरण, नयी क्रांति को कुचला था, उसी को आधार बनाकर महाश्वेता देवी ने बाँग्ला में हजार चौरासी की माँकृति की रचना की। इसी औपन्यासिक रचना पर निर्देशक गोविंद निहलानी ने हजार चौरासी की माँ (1998) फिल्म का निर्माण किया। यह फिल्म बलपूर्वक क्रांति को कुचले जाने की सत्ता की पाश्विक रणनीति के परिणाम का साक्षात् दर्शन कराती है। हजार चौरासी की माँ की कहानी एक ऐसी माँ की कहानी है जो 1970 ई. में पुलिस द्वारा नक्सलियों के खिलाफ चलाए अभियान में अपने बेटे को खो देती है। वह अपने बेटे की मृत्यु पर प्रश्न उठाती है- क्यों आस्थाहीनता पर ही व्रती की असीम आस्था हो चली थी?” इसी प्रश्न का जबाव वह पूरे उपन्यास में खोजती है। उसे अपने बेटे की विचाधारा का पता चलता है और अंत में उसका प्रश्न होता है- व्रती चैटर्जी की फाइल तो बंद हो गयी, लेकिन उसकी हत्या करके क्या इस आस्थाहीनता की ज्वलंत आस्था को हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया गया?” और इस प्रश्न का उत्तर देती है फिल्म। इस तरह फिल्म इसी निष्कर्ष पर पहुँचती है कि क्रांति की समाप्ति तभी सम्भव है जब सरकार गरीब, शोषित, पीड़ितों को अधिकार देगी।

(सम्पर्क - कृष्णा कुमारी, चेन्नई (तमिलनाडू), ईमेल - krishna.0214@yahoo.co.in )
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हिन्दी सिनेमा और दलित मुक्ति का यथार्थ
कुलदीप

भारतीय सिनेमा अपने प्रारंभ से ही सामाजिक विषयों का चादर ओढ़कर अपना पाँव पसारता रहा है, फिर चाहे वह पहली मूक फिल्म हरिश्चंद्रहो, पहली बोलती फिल्म आलमआराहो या फिर कोई और। सिनेमा का मुख्य उद्देश्य हर वर्ग के लोगों का मात्र मनोरंजन करना होता है किंतु इस मनोरंजन के साथ यदि कोई सामाजिक संदेश जुड़ जाए तो वो फिल्म कालजयी बन जाती है। अपने सौ वर्ष के इतिहास में हिंदी और भारतीय सिनेमा जगत ने कई विषयों को केन्द्र बनाकर समाज को नयी दिशा प्रदान की है किंतु बात जब दलित उत्‍थान की आती है तो हमें अपना चेहरा शर्म से नीचा कर लेना पड़ता है । वर्तमान समय में, साहित्य की भांति सिनेमा में भी दलित चेतना नदारद है। ज्यादातर फिल्मों में दलितों को फिल्म का अंग न मानकर उन्हें खानापूर्ति के रूप में स्थान दिया जाता है ।

दलित महिलाओं को प्रायः झाड़ू-पोछा लगाने वाली, बर्तन माँजने वाली या फिर वेश्यावृत्ति में लिप्त ही दिखाया जाता रहा है और दलित पुरूषों को गंवार, किसान, मजदूर, कूड़ा-कर्कट ढोने वाला, मलीन बस्ती में रहने वाला आदि रूपों में ही दिखाया जाता रहा है । यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि यदि किसी को हमेशा एक ही रुप में दिखाया जाता रहे तो समाज में उन के प्रति एक अलग तरह की मानसिकता पनपने लगती है जिसका नयी पीढ़ी पर बहुत बुरा प्रभाव पडता है। सवर्ण बच्‍चे बडे़ उनसे कन्नी काटने लगते हैं। और इस तरह शुरू होता है ऊँच-नीच का खेल। हालांकि कई फिल्मों  में दलितों को बतौर नायक-नायिका भी प्रतिष्ठित किया गया है किंतु सामाजिक ऊँचनीच के चक्रव्‍यूह में या तो उनका कत्ल करवा दिया जाता है या फिर हवालात में डलवा दिया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि उनमें चेतना पनपने से पहले ही दब जाती है।

अतः समय आ गया है कि भारत की सामाजिक एकता के नासूर को जड़ से उखाड़ने के लिए कुछ ऐसी फिल्में बनाई जायें जो अछूत’, ‘सद्गतितथा बूट पालिशसे अगले दौर की हो। अब दनित जान गए हैं कि इस यथास्थिति का मुख्य कारण अशिक्षा है।  शिक्षा के अभाव में आज भी दलित वर्ग को, उसकी बेचारगी का भय दिखाकर सताया जा रहा है। और वे भी इस ज्यादती को केवल इसलिए सहते है क्योंकि वे सोचते हैं कि न्याय के दरवाजे तक पहुँचने में जो खर्चा आएगा वे उसे वहन कर सकने में सक्षम नहीं हैं, जो कीमत आयेगी, वे उसे नहीं उठा पायेंगे। सिनेमा के माध्यम से हमें उनके इस डर को तोड़ना होगा और उनमें शिक्षा का संचार करना होगा। और सच मानिए जिस दिन, समाज में इस तरह की फिल्में आने लगी, मात्र दस साल के भीतर, भारत का एक नया चेहरा देखने को मिलेगा जिसमें व्यक्ति की पहचान उसके धर्म तथा जाति के आधार पर नहीं बल्कि उसके कर्मों के आधार पर होगी।

(संपर्क कुलदीप, ईमेल - kuldp85@gmail.com )
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आदिवासियों का सिनेमा और सिनेमा के आदिवासी
गंगा सहाय मीणा

भारत में सिनेमा की मनोरंजन से लेकर मुनाफा कमाने तक की विभिन्‍न भूमिकाएं रही हैं। सामाजिक बदलाव के लिए भी सिनेमा का उपयोग हुआ है लेकिन समाज के वंचित तबकों द्वारा सिनेमा को अपनी समस्‍याओं की अभिव्‍यक्ति के एक माध्‍यम के रूप में अपनाये जाने के उदाहरण गिने-चुने हैं। जिस तरह साहित्‍य की दुनिया में बाहर के लोग ही दलितों और आदिवासियों के बारे में लिखते रहे और दलित साहित्‍य और आदिवासी साहित्‍य पिछले वर्षों में मुश्किल से जगह बना पाये हैं उसी तरह सिनेमा की दुनिया में समाँतर सिनेमा के आंदोलन के बावजूद दलित-आदिवासी फिल्‍मकारों की संख्‍या न के बराबर है। दलित-प्रश्‍नों पर फिल्‍में मिल जाएंगी लेकिन आदिवासियों पर तो बहुत ही कम फिल्‍में हैं।

फिल्‍मों में आदिवासियों को या तो बहुत भोला-भाला दिखाया गया है या बर्बर। दोनों अतिवादों में लगभग असभ्‍य दिखाने की कोशिश हुई है। बाहरी समाज के फिल्‍मकारों द्वारा आदिवासियों पर बनी फिल्‍में एक तरह की सुधारवादी दृष्टि से आगे नहीं बढ़ पातीं। कुछ फिल्‍मकारों के प्रयास सराहनीय हैं लेकिन आदिवासी समाज से अपरिचय के कारण वे भी आदिवासी समाज के सच को सामने नहीं ला पाये हैं। ऐसे में आदिवासी फिल्‍मकारों की कोशिशों पर बात करना जरूरी हो जाता है। साथ ही जरूरी है गैर-आदिवासी और आदिवासी फिल्‍मकारों के प्रयासों की तुलना।

इस प्रसंग में बीर बुरू ओम्‍पाय मीडिया, रांची द्वारा बन रही 'सोनचांद' और मलयालम की 'अम्‍मा अरियन' फिल्म खासी महत्त्वपूर्ण है। ये फिल्में हमें समझाने की कोशिश करती है कि संवाद के सबसे सशक्‍त माध्‍यम सिनेमा की सामाजिक बदलाव में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती हैं! यानी अगर आदिवासी सिनेमा की अवधारणा विकसित होती है तो इससे सिनेमा के स्‍वरूप में सकारात्मक बदलाव आएंगे? इसलिए आज सिनेमा को आदिवासी नजरिए देखना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गया है।

(संपर्क - डॉ. गंगा सहाय मीणा, नयी दिल्‍ली, ईमेल - gsmeena.jnu@gmail.com )
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मृगया : आदिवासी जीवन का यथार्थ
गोपाल लाल मीणा

आज सभी लोग यह तो महसूस कर ही रहे हैं कि सिनेमा का जब आगमन हुआ था उस समय मूक फिल्में ही थी लेकिन उनको लोगों ने हाथों हाथ लिया और लोगों के इस रूझान को भांपकर सिनेमा जगत के लोगों ने सिनेमा के क्षेत्र में लंबी दौड़ के लिए कमर कस ली। हिन्दी सिनेमा के शुरूआती दौर को यदि देखें तो उसमें धार्मिकता की भावना से प्रेरित होकर पौराणिक कथा, आख्यानों आधारित फिल्मों का निर्माण अधिक देखने को मिलता है। उसके बाद सिने जगत में सामाजिकता विषयक फिल्मों चलन अधिक रहा। कुछ समय तक समाज में सामाजिक-आर्थिक शोषण आधारित फिल्मों का प्रचलन रहा।

कालान्तर में आधुनिक मूल्यों तथा भारतीय पाश्चात्य मूल्यों की नैतिकता के अंतर्विरोध आधारित फिल्मों का चलन रहा। सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक संदर्भों में अपराध के विविध कारकों को लेकर भी सिनेमा में बहुत काम हुआ। आठवें दशक के बाद वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण के मामलात बढ़ते गये और उसके बाद के हिन्दी सिनेमा में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक संदर्भों में वैश्विक संस्कृति के असर के साथ मनोरंजन के स्तर पर हल्कापन आता गया। विषय से अधिक मनोरंजन और प्रदर्शन पर अधिक जोर दिया जाने लगा। गंभीरता की जगह हल्कापन मनोरंजन के नाम पर खूब चल निकला। किंतु इन सब के बावजूद इसमें कोई दो राय नहीं कि सिनेमा एक ऐसा संचार माध्यम है जो लोक के अवचेतन को झकझोर कर रखने में ज्यादा प्रभावी है।

इस संदर्भ में भारतीय आदिवासी समाज के लिए सिनेमा एक उपयुक्त हथियार भी हो सकता है। लेकिन इसके लिए सिनेमा जगत के लोगों को आदिवासी समाज के प्रति संवेदनशील होकर विषय को समझना होगा और गंभीरता से विषय पर काम करने की जरूरत है। देखने में अक्सर यह आता है कि सिनेमा में आदिवासी लोक की समस्याओं को समझनें की बजाए उन्हें मनोरंजन के नाम पर वस्तु के रूप में प्रदर्शित किया जाता है जबकि आदिवासी समाज को, उनकी समस्याओं को, उनकी जरूरतों को और उनकी भावनाओं को समझकर हमें उन पर आधारित फिल्में बनाने की जरूरत है। किंतु सभ्य समाज के लोगों के द्वारा आदिवासी जन को नकारात्मनक ढंग से ही लिया जाता है। आदिवासी लोगों के पास अपनी जबान, संस्कार और कलाएँ हैं लेकिन सभ्य समाज के लोग उन्हें बेजुबान, बर्बर, भयानक, असभ्य आदि नामों से इंगित कर संबोधित करते हैं।

समाज में समावेशी विकास के लिए उपेक्षितों को भी साथ लेकर चलना सभ्य समाज के लिए आवश्यक है तभी उत्पींड़ित-शोषित मानवता का कल्याण हो सकता है। आदिवासी विषयों को संवेदनशीलता से फिल्माने वाली मृगयाफिल्म में यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि वास्‍तविक शिकारी धूर्त साहूकार है, लेकिन जिस तरह भारतीय सामाजिक संरचना रही है, उसमें आदिवासी का शोषण उनकी नियति बन गयी है। यह सब तक है जब तक आदिवासी चेतनशीन न हो जाए। फिल्म का उद्देश्य आदिवासियों को चेतनासम्पन्न बनाना है, ताकि वह परिस्थितियों से लड़े, उसे बदले और अपनी राह खुद चुने।

(सम्पर्क – डॉ. गोपाल लाल मीणा, नरेला (दिल्ली), ईमेल – glmeena08@gmail.com )
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 ‘रोटी फिल्म में आदिवासी अस्मिता का सवाल
चौधरी राजेन्द्र कुमार

हमारी सामाजिक संरचना कुछ ढंग की है कि आज भी जब हम आदिवासी शब्द सुनते हैं तो हमारी आँखों के सामने, मन में एक अजीबसा घृणा का भाव पैदा हो जाता है। इसका कारण हमारे मन में पैठी वह छवि है जिसमें हमने उन्हें जंगली, अर्धनंगे, माँसाहारी, मदिरा के लत्ती, असुर, धनुषधारी, गरीबी और अभाव की जिन्दगी जीने वाले लोगों के रूप में देखने-दिखाने की कोशिश की है। यह भाव हमारी इन्हीं शर्मनाक कोशिशों के परिणाम है। इसके पीछे सबसे मुख्य बात भारत के पवित्रतम ग्रंथों रामायण और महाभारत में प्रस्तुत उनकी छवि। इसके साथ-साथ हिंदी सिनेमा ने भी उनके जीवन की नकारात्‍मक तस्‍वीर पेश की है। हिंदी सिनेमा ने आदिवासियों को मनोरंजन बाजार में लाकर खड़ा कर दिया है। आदिवासियों के सवालों और समस्याओं पर कोई ठोस फिल्म अभी बनी ही नहीं है। ज्यादात्तर फिल्मकारों ने आदिवासियों को अर्धनंगे नाचवाले गानों के लिए ही उपयोग किया है।

आदिवासियों पर शुरूआती फिल्मों में एक महबूब खान निर्देशित हिंदी फिल्म रोटी (1942) भी आदिवासियों के अर्द्धनंगे गानों के मामले में पीछे नहीं है। इस फिल्म के तीन-तीन गीतों में आदिवासियों की नग्‍न देहों की प्रदर्शनी लगाकर दर्शकों को बटोरने का कार्य किया गया है। इसलिए यह कहना उचित होगा कि इस फिल्म के निर्माण के मूल में निर्देशक का उद्देश्य आदिवासी जीवन को केन्द्र में रखना नहीं रहा है। इस फिल्म में आदिवासी जीवन की छवि तब नजर आती है, जब सेठ लक्ष्मीदास का हवाईज़हाज तकनीकी खराबी के कारण एक जंगल में जा गिरता है। और यहाँ से शुरु होती है आदिवासियों की असल जीवनगाथा। तब हमारे सामने कई मुद्दे उठ खड़े होते हैं, जैसे - विस्थापन से त्रस्त आदिवासी, शोषण का शिकार होते आदिवासी, आदिवासी स्त्रियों  का शोषण, मशीनीकरण और आदिवासी आदि।

वास्तव में इस भूमि का मूल मालिक है आदिवासी, जो दिनभर भोजन के इंतजाम के लिए खेत में काम करता है या जंगल में घूमकर कंदमूल खोदता है या जंगली जानवरों का शिकार करता है, चाहे चिलचिलाती धूप हो, घनघोर बारिश हो या कड़कड़कती ठंड, वह अपने कार्य के लिए निकलता है और शाम को थका हारा जो कुछ मिला वह पीठ पर लादे घर लौटता है। लेकिन आज का पूँजीवादी युग आदिवासियों की सभ्यता, संस्कृति एवं अस्मिता के लिए खतरा बन गया है। उनके पास पहनने के लिए वस्त्र नहीं है, खाने के लिए भोजन नहीं है, रहने के लिए घर नहीं है, यहाँ तक की पानी पीने के नदी नाले भी प्रदूषित हो गये है। इन प्राथमिक जरूरतों की पूर्ति के अभाव में आज कई आदिवासी समुदाय विलुप्त हो गये हैं और कई विलुप्त होने के कगार पर हैं। आदिवासी मुद्दों पर बनी फिल्में हमारा ध्यान इस ओर दिलाती है, मगर तब जब उनके केन्द्र में ये मुद्दे आएं?

(संपर्क -चौधरी राजेन्द्र कुमार, पुदुच्चेरी-605014, ईमेल - rchaudhiry@gmail.com )
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जातिवादी चेहरे को बेनकाब करता सिनेमा
जयराम पासवान

हिंदी सिनेमा में दलित विमर्श की बात करना काफी आगे की बात हो जायेगी, परंतु किसी भी कला माध्यम को देश-काल से अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। आज भारतीय साहित्य में दलित अपना स्थान खोज रहे हैं तब हिंदी सिनेमा को भी दलित दृष्टिकोण से परखना गलत नहीं है। जब हम हिंदी सिनेमा में दलित विषयक हिंदी फिल्मों को ढूंढने का प्रयास करते है तो हमें निराशा ही हाथ लगती है। हर वर्ष हजार के आस-पास फिल्में प्रस्तुत करने वाला हिंदी सिनेमा उद्घोग साल भर में इस विषय पर ढ़ंग की एक फिल्म भी मुश्किल से बनाता हो। प्रकाश झा की फिल्म दामुल और गौतम घोष की फिल्म पार (1984) में इन निर्देशकों ने भारत की जातिवादी राजनीति की नंगी तस्वीरें हमारे सामने रखने का प्रयास किया है।

दामुल और पारफिल्मों में भारतीय राजनीति के क्रूर जातिवादी चेहरे को बेनकाब किया है। ये फिल्में बिहार के उस दौर की सच्चाई बयान करती हैं, जब दलितों ने पहली बार लोकतंत्र में अपना हक माँगना आरंभ किया। बिहार और उत्तरप्रदेश में आज पिछड़ों- दलितों को सत्ता में बैठे देखकर जो सवर्ण लोग सत्ता की राजनीति को गाली देते नहीं थकते, उनके लिए ये फिल्में दर्पण दिखाने का काम कर सकती है। आज जब जातिवाद के चलते ब्राह्राणबादी राजनीति दलों को नुकसान उठाना पड़ रहा है, तब नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को जाना चाहती है। इन सवर्णों को आज जातिवाद बुरा ऩजर आ रहा है, किन्तु कल तक जब वे इसी जातिवादी की दुहाई देकर सत्ता की मलाई चाट रहे थे, तब तक उन्हें वर्णाश्रम व्यवस्था के मनुवादी विधान में कोई खामी नज़र नहीं आई, तो इसका कारण घनघोर वैयक्तिक स्वार्थ पर आधारित उनकी संकीर्ण जातिवादी मानसिकता है?

स्वाधीनता के बाद हम पाते हैं कि जैसे-जैसे दलितों-पिछड़ों में जागृति आती गयी है, और वे इन तमाम ब्राह्मणवादी, जातिवादी शोषण तंत्र के विरूद्ध आवाज़ उठाना शुरू करते हैं, वैसे-वैसे उनके विरूद्ध सवर्ण अत्याचारों में बेतहाशा वृद्धि होती गयी है। बिहार जैसे ब्राह्मणबादी सामंती राज्य में दलितों-पिछड़ों के उभार को रोकने के लिए उनके सामूहिक नरसंहार किये गये, उनकी बस्तियां जला दी गयीं, उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटी गयी। पारफिल्म में जब एक दलित लोकतांत्रिक ढंग से सामंतवाद को चुनौती देता हुआ सरपंच बन जाता है तो दलितों को सबक सिखाने के लिए हिंसा का खुला खेल खेला जाता है। पार और दामुलजहां दलित विरोधी जातिवादी राजनीति को नंगा कर देती हैं, वही दूसरी ओर ये फिल्में ब्राह्राणबादी राज्य में विघामान शोषण तंत्र की जटिलता के विविध पहलुओं को सामने लाती हैं।

(संपर्क - जयराम कुमार पासवान, पुदुच्चेरी, ईमेल- jairamkrpaswan@gmail.com )
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 ‘सद्गतिमें दलित विमर्श
डी. अंसवेणी मुरली

कला और विज्ञान का अद्भुत संगम और बीसवीं सदी के कुछ विशिष्ट आविष्कारों में से एक सिनेमा ने अपने शैशव काल से ही व्यक्ति और समाज को अपने सम्मोहन में बाँधे हुए है।  कहते है 1857 के विद्रोह के कुछ कारणों में से एक देश में अंग्रेज़ों द्वारा रेलगाड़ी का लाना भी था, जो अपने आप में सभी जातियों और धर्मों के लोगों को बिठाकर एक मार्ग पर आगे बढ़ती हैं। इससे ब्राह्मणों का धर्म भ्रष्ट होता था और तथाकथित उच्चजातियों के अहंकार को ठेस लगती कि इसमें अछूत और निम्नजातियों के लोगों के साथ ही ब्राह्मण को भी बगल में बैठकर यात्रा करनी पड़ती थी। इसप्रकार अर्थलोभी कंपनी सरकार अनजाने ही सबको एक करने की दिशा में कदम उठा चुकी थी।

भारत में सिनेमा के आगमन के साथ भी ऐसा ही संयोग बना क्योंकि रेल की तरह ही सिनेमा का विकास भी अनचाजे ही भारत में लोकतांत्रिकता की ओर बढ़ा एक कदम था। यह दलितों और अस्पृश्यों को टिकट खरीदकर उच्चजातियों के साथ बैठकर भगवत् दर्शन का लाभ देता था। आगे चलकर यह दलित दर्शक स्‍वयं फिल्‍म की कहानी का मुख्‍य लक्ष्‍य भी बना, जैसे सद्गतिफिल्‍म में। 1981 में बनी सत्यजित राय की सद्गति’ ‘शतरंज के खिलाड़ीके बाद उनकी दूसरी हिंदी फिल्‍म थी। दोनों प्रेमचन्द की समान शीर्षक वाली कहानियों पर आधारित हैं। और इन दोनों फिल्मों को मुख्यधारा के सिनेमा के जिस विरोध का सामना करना पड़ा, वह हिन्दी फिल्मों के इतिहास का सबसे घृणित रूप माना जा सकता है। अन्ततः हिन्दी फिल्मनिर्माताओं की प्रतिक्रियावादी मानसिकता के चलते सत्यजीत राय ने हिन्दी में फिल्मों का निर्माण ही बन्द कर दिया और वे वापस अपनी दुनिया में लौट चले।

प्रेमचन्द की कहानी सद्गति चमारजाति से आनेवाली दुखी नाम के एक व्यक्ति के बारे में है जो अपने बेटी की शादी की सगाई के लिए शुभ मुहूर्त हेतु ब्राह्मण का आशीर्वाद चाहता है। पंडित जी के इसी आशीवार्द के चक्‍कर में उसकी यह दुर्गति होती है कि पंडित जी की सेवा में बेगार करते-करते उसके प्राण पखेरू निकल जाते हैं किंतु पंडित जी का दिल नहीं पसीजता। फिल्म प्रेमचन्द की कहानी के बहुत नज़दीक है। कहानी और फिल्‍म, दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। पंडित जी की बेगार करते-करते बेचारा दुखी मर जाता है। दुखी तो जीते जी पुरोहितवाद के अत्‍याचारों का किंचित भी विरोध नहीं कर पाया किंतु दुखी के समुदाय के लोग मृत दुखी की लाश नहीं उठाने का फैसला कर एक तरह से ब्राह्मणवाद द्वारा हुए अत्याचार का विरोध करते हैं। इसप्रकार फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे मानसिक रूप से गुलाम व्यक्ति ब्राह्मणवाद से अपना शोषण होने देता है  और शोषण सहते सहते मर जाता है। यह मानसिक गुलामी ही है, जो कि मर जाने से भी बुरी है।

(संपर्क - डी. अंसवेणी मुरली, कोयम्बत्तूर (तमिलनाडू), ईमेल - amsavenihindi@srcw.org )
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हिंदी सिनेमा के पर्दे पर आदिवासी जीवन का स्वरुप
दीपक कुमार पाण्डेय

सन् 1912-13 से शुरू हुए हिंदी सिनेमा के इस सुनहरे सफ़र के प्रति भारतीयों का गहरा आकर्षण रहा है। इसीलिए सिनेमा को मनुष्य जाति का सबसे बड़ा सम्मोहन माना जाता है। साथ ही इसे अपने समय के समाज के तमाम परिवर्तनों का दर्पण भी माना जाता है। हिंदी सिनेमा का हर दशक अपने साथ तमाम परिवर्तनों को लेकर आता है। आज के समय के समाज का रेखांकन हम इस समय की फिल्मों में बखूबी देख सकते हैं। चाहे वो धार्मिक आडम्बरों और सामाजिक रूढ़ियों पर केंद्रित पीकेहो या फिर ओएमजी’, चाहे वो लिव-इन-रिलेशनशिप पर बनने वाली शुद्ध देसी रोमाँसहो या फिर कॉकटेल। कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि हिंदी सिनेमा ने अपनी समाज की प्रतिध्वनिकी भूमिका का भी निर्वहन बखूबी किया है। ऐसा कोई भी विमर्श नहीं है जिसकी पगध्वनि को हिंदी सिनेमा में रेखांकित न किया जा सकता हो। चाहे वो स्त्री विमर्श हो, दलित विमर्श हो या फिर आदिवासी विमर्श।

आदिवासी सन्दर्भ में देखें तो राही (1952), सगीना महतो (1970), मृगया (1976), आक्रोश (1980), द नक्सलाइट (1980), तरंग (1984), मैसी साहब (1986), हजार चौरासी की माँ (1998), लाल सलाम (2002), हजारों ख्वाहिशें ऐसी (2005), चमकू (2008), रेड अलर्ट (2009), रावण (2010), चक्रव्यूह (2012) इत्यादि ऐसी फिल्में हैं जो हिंदी सिनेमा के क्षितिज पर आदिवासी जनजीवन को बखूबी से उकेरती हैं। औपनिवेशिक काल में साहूकारी दमन की समस्या को केंद्र में रखकर सन 1976 में फिल्म मृगयाप्रदर्शित होती है। आक्रोशमें स्‍वातंत्र्योत्‍तर भारतीय राज्‍य में पुलिस, प्रशासन और ठेकेदारी तंत्र के नीचे पिसते आदिवासियों की त्रासदी दिखाई गई है। इसी प्रकार मैसी साहब(1986) में आदिवासी समाज की गोनोंग प्रथापर प्रकाश डाला गया है। दरअसल आदिवासी समुदाय होमें दहेज युवती को नहीं, युवक को देना पड़ता है और यही प्रथा ही गोनोंगप्रथा कहलाती है। हजार चौरासी की माँ(1998) और लाल सलाम (2002) नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर बनी है। ये फिल्‍में नक्सलवाद की जड़ तक जाती है और उन कारणों की पड़ताल करती हैं जो नक्सलवादी बनने के आधार रहे हैं। इस संदर्भ में चक्रव्यूह(2012) नक्सलवादी आंदोलन की कड़ी में एक कदम आगे की फिल्म है।

इस प्रकार हिंदी सिनेमा के क्षितिज पर आदिवासी जीवन के पदचिह्न स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। आदिवासी जीवन के हर एक पहलू को हिंदी सिनेमा ने प्रस्तुत करने की श्रमसाध्य कोशिश की है। ये बहुत ही हर्ष का विषय है कि इस बढ़ते हुए अर्थपक्ष के दौर में भी उपेक्षित अस्मिताओं के प्रति सिनेमा का रुझान बना हुआ है और वह इस क्षेत्र में अत्यंत ही परिश्रम के साथ संलग्न है। लेकिन सवाल यह है कि हिंदी सिनेमा के पर्दे पर आने वाला आदिवासी यथार्थ कितना यथार्थ है और कितना फतांसी? ऐसे में आदिवासी जीवन के वास्तविक प्रस्तुतिकरण को लेकर आश्वास्ति का भाव निर्मित हो नहीं पाता। जीवन जीवन के विविध पहलूओं के निर्माता-निर्देशक-अभिनेता की अनभिज्ञता इसमें सबसे बड़ी बाधा के रूप में सामने आता है। इसलिए स्वयं आदिवासी कलाकारों का सीधा हस्तक्षेप महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

(संपर्क - दीपक कुमार पाण्डेय, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश), ईमेल - deepakpandeypcb29@gmail.com )
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छत्तीसगढ़िया लाल-आतंक और आदिवासी-दमन
देशराज सक्करवाल

आदिवासी मुद्दों पर बनी फिल्मों में द नक्‍सलाइट’ (1980), ‘रेड अलर्ट’ (2010) औरचक्रव्‍यूह (2012) फिल्में सीधे-सीधे उन आदिवासी क्षेत्रों के वृत्तान्त प्रस्तुत करती है, जहाँ नक्‍सली समस्‍या अपने पाँव पसार चुकी है और उसके खात्मे को लेकर सरकार भी सलवाजुडुम के रूप में राजकीय हिंसा से अपना सम्बन्ध बना चुकी है। हिंसा के इन दोनों रूपों के बीच के सम्बन्धों के निहितार्थ अन्ततः आदिवासियों के अस्तित्व के सवाल से जुड़ जाते हैं। ध्यान रहे कि आदिवासियों की संस्कृति पाश्चात्य प्रभावित नगरीय और ग्रामीण संस्कृति से बिलकुल भिन्न प्रकार की है। जहाँ मुख्‍यधारा की संस्कृति में हिंदू जातियां ब्राह्मणवादी विचार की पोषक हैं वहीं आदिवासी अपने लोक देवताओं में आस्‍था के साथ लोक संस्कृति से अपना जीवन जीते है। इस संस्‍कृति में स्त्री पुरुष की समानता देखी जा सकती है। आदिवासी समाज पर आज एक ओर नक्‍सलवादी-माओवादी आतंक छाया है, तो दूसरी ओर वे राजकीय हिंसा से ग्रसित हैं।

भारत में वामपंथी आंदोलन के संचालक ब्राह्मण रहे हैं जो अपनी ब्राह्मणवादी मानसिकता को समाप्त नहीं कर पाये हैं, इसके कारण बढते अन्तर्विरोधों का सीधा शिकार बनाता है निर्दोष आदिवासी। दूसरी ओर सरकार और CRPF के जवान भी ब्राह्मणवादी ग्रामीण और शहरी संस्कृति से आते हैं। ये दोनों ही प्रकार की ताकतें गैरआदिवासी ताकतें हैं जो सीधे आदिवासियों की संस्कृति और उनके जीवन पर हमला कर रही हैं। आजकल छत्तीसगढ़ में माओवादी विचारधारा और पूँजीवादी सरकार के मध्य एक जंग छिड़ी हुई है। लेकिन समस्या यह है कि आदिवासियों को जबरन इस जंग के कटघरे में खड़ा कर दिया गया है। इसके कारण एक ओर तो वह सरकारी सलमाजडूम के सिपाही के रूप में माओवादियों की गोलियों का शिकार बन रहा है तो दूसरी ओर उधर वह CRPF के जवानों के भ्रष्ट आचरण और उनके अत्याचारों का शिकार हो रहा है। अपने पौरूष से हताश CRPF के जवान अपना सारा गुस्सा आदिवासी स्त्रियों पर उतारते हैं। ध्यान रखें, हमारे पास सोनी शोरी जैसे अनेकों उदहारण मौजूद हैं। छत्तीसगढ़ में महिलाओं के साथ यौन शोषण तथा अपराधिक बलात्कार की घटनाएं आम बात है। इसी प्रकार आदिवासी पुरुष वर्ग को आँकडे़ इकट्ठे करने के लिये फर्जी नक्सली बनाकर पेश किया जाता है। इन सबके चलते आदिवासियों की जिंदगी बद से बदतर हो गई है, होती जा रही है|

सरकार लाल आतंक का हवाला देकर आदिवासियों की मूलभूत समस्याओं को दरकिनार कर उन्हें भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा मानकर उनके सामूहिक दमन और शोषण को बढ़ावा दे रही है। एक ओर तो सरकार उनकी जल, जंगल और जमीन से जुड़ी मूल समस्याओं का हल नहीं कर रही है, वहीं दूसरी ओर तेंदू पत्ते के व्यापारी के रूप में पुलिस के मुखबिर आदिवासी महिलाओं से कम-से-कम मजदूरी में पत्ते एकत्रित करवा उनके श्रम का शोषण कर रहे हैं। जब ये गरीब महिलायें अपने श्रम के मुताबिक पैसों की माँग करती हैं तो ये लोग पुलिस को उक्त महिला के नक्सलियों से लिप्त होने की झूठी जानकारी देकर राजकीय आतंक के साथ हाथ मिला लेते हैं। साथ ही आदिवासी स्त्रियों के दैहिक-आर्थिक शोषण में ये सवर्ण व्यापारी भी पीछे नहीं है।

(संपर्क - देशराज सक्करवाल, वाराणसी, ईमेल - deshraj15891@gmail.com )
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चक्रव्यूह : आदिवासी प्रतिरोध की सशक्त दस्तक
निशान्त मिश्रा

प्रकाश झा निर्देशित फिल्म चक्रव्यूह (2012) हिंदी सिनेमा में आदिवासी प्रतिरोध के स्वर को लेकर उपस्थित होती है। फिल्म आदिवासी जीवन से अनिवार्यतः संबद्ध नक्सलवादकी पृष्ठभूमि, उसके क्षेत्र और कारण पर प्रकाश डालती है। फिल्म में आज तककी महिला पत्रकार बताती है कि आज से लगभग 45 साल पहले बंगाल के नक्सलवाड़ी गाँव में गरीब मजदूर-किसानों ने जमीन के हक़ में लड़ाई के लिए जमींदार को मार डालने की घटना से इसका जन्म हुआ। आज यह नक्सलवाद देश के 200 से अधिक जिलों में फैल चुका है। फिल्म इसके मूल कारण को चिह्नित करते हुए बताती है कि नक्सलवाद आदिवासी असंतोष का परिणाम है जो विकास और पुनर्वास के नाम पर चलने वाली लूट की देन है।

फिल्म के एक दृश्य में प्रदेश के मुख्यमंत्री कहते हैं कि उस जमीन में दबे प्रकृतिक संसाधनों का जब तक हम इस्तेमाल नही करेंगे, तो विकास कैसे हो पायेगा?” यही महान्ता जैसे बड़े ग्रुप के साथ ये 15000 करोड़ के प्रोजेक्ट के करारनामा का लक्ष्य है और फिर पुनर्वास की योजना बनकर पूरी तरह तैयार है। लेकिन, क्या सच में विकास और पुनर्वास की योजनाएँ लागू होती हैं? विकास के इस लंगड़े स्वरुप पर प्रश्नचिह्न लगाती और भावी भविष्य के लिए सचेत करती फिल्म की अंतिम पंक्तियाँ में कहा गया है कि देश की 25% आमदनी पर बस कुल 100 परिवारों का कब्ज़ा है जबकि हमारी 75% आबादी रोजाना 20 रुपये से भी कम पर बसर करने को मजबूर है।

दरअसल इस अंतर से जन्मा अविश्वास बढ़ता जा रहा है और शायद वक़्त हमारे हाथ से निकलता जा रहा है। ऐसे में हमें इस समस्या पर गंभीर चिंतन कर ठोस कदम उठाना होगा और वो ठोस कदम कम-से-कम बंदूक तो नहीं होना चाहिए। फिल्म बताती है कि नक्सलवाद को बन्दूक की नोंक पर नहीं ख़त्म किया जा सकता। इसका हल आपसी संवाद से ही सम्भव है। नक्सलवाद की जड़ आदिवासी समस्याएं हैं, इसलिए उन पर यथाशीघ्र अपेक्षित कदम उठाने की जरूरत है। आदिवासी समस्याएँ खत्म तो आदिवासियों में व्याप्त असंतोष खत्म। ऐसे में नक्सलवाद स्वयं ही काल के गाल में समा जायेगा। अन्यथा जिस तरह की नीतियाँ बन रही है, उसमें तो आदिवासी को ही आदिवासी के खिलाफ खड़ा कर, उसे उसी के हाथों समाप्त करवाने की साजिशें तो जारी है ही।

(संपर्क - निशान्त मिश्रा, वर्धा (महाराष्ट्र), ईमेल - mishranishant10@gmail.com )
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आक्रोश : मौन भी अभिव्यंजना है!
नीलम जाँगिड़

सवर्णों का वर्चस्व आदिवासियों के भीतर किस तरह का अपराधबोध पैदा करता है, विजय तेंदुलकर लिखित और गोविन्द निहलाणी निर्देशित फिल्म 'आक्रोश' (1980) उसका सटीक उदाहरण है। फिल्म में सवर्णों की सामूहिक साजिश का शिकार बने लहानिया पर अपनी उस पत्नी की हत्या का आरोप है जिसे वह बेहद प्यार करता है। छोटी-छोटी लालासाओं की पूर्ति के बहाने वह सवर्णों द्वारा बलत्कृत होकर मारी जाती है और उसकी हत्या का इल्जाम उसके निर्दोष पति पर मढ लिया जाता है। लाहनिया के वृद्ध पिता और बहिन ही नहीं, पूरा गाँव इसे जानता हैं, लेकिन वे सब इसे घटित होते देखने के लिए अभिशप्त हैं! कोई कुछ नहीं कर सकता।

ऐसा समाज जहाँ स्त्रियों के चरित्र का निर्धारण हेड या टेल करके किया जाता हो, वहाँ एक सरकारी एडवोकेट भास्कर कुलकर्णी का प्रथमतया लाहनिया से यह पूछना किसी को क्यों अखरेगा कि पहले ये बताओ कि पहला खून किया है तुमने? या पहला जुर्म? क्या पहले कभी हवालात आये हो? तुमने अपनी घरवाली का खून क्यों किया? बदचलन थी?” पहला सवाल ही भारतीय न्यायिक व्यवस्था को कटघरे में ला खड़ा करता है। लाहनिया जानता है कि आदिवासी होने के कारण इस व्यवस्था से न्याय की उम्मीद करना बेकार है, वह उसे कभी नहीं मिलेगा! इसलिए वह मौन साध लेता है। सिनेमैटोग्राकी की दृष्टि से इसके संवादहीन दृश्य इसके सबसे सशक्त दृश्य है। अजीत वर्मन का संगीत उसके भीतर पनपते इस निस्सहायताबोध और आक्रोश को धीरे-धीरे साधता है और जब वह फटता है तो उसकी ध्वनि दर्शक को भीतर तक चीर जाती है।

मध्यवर्गीय भास्कर कुलकर्णी और उनके गुरू आदिवासी धसाने के लिए वकालात अन्य धन्धों की तरह ही एक धन्धा है, लेकिन भास्कर कुलकर्णी की दिक्कत यह है कि उसका ग्राहक उससे संवाद ही नहीं करना चाहता। ऐसे में वह अपने भविष्य को लेकर आशंकित है। कचहरी के बाहर के एक दृश्य में सरकारी गुर्गे लाहनिया की बहिन के साथ छेड़खानी कर रहे हैं तो दूसरे में वे उसके बुजुर्ग पिता लाठी छिनने में जुटे हैं। इन परिस्थितियों में वे जैसे-तैसे वे पेड़ काटकर अपना, अपनी बेटी और अपने पोते का पेट पाल रहे हैं। असल में निस्सहायता का यह वह पाठ है जिसपर उनका भविष्य लिखा जाना है। ऐसी स्थिति में उनसे जीवन से मोह की अपेक्षा करना ज्यादती है।

आजादी के बाद हमने जिस तरह की समाज व्यवस्था निर्मित की, यह उसकी एक बानगी है। फिल्म में इसके समानान्तर चलने वाले दृश्यों में हत्यारे बाइज्जत बरी हो रहे हैं। अपने-अपने हितों के लिए वे अन्य सबलों (डीएसपी, नेता, वकील, चिकित्सक, उद्दमी और बुद्धिजीवी) से सांठगाँठ कर रहे हैं। निष्कर्ष स्पष्ट है, जो इनके खिलाफ है, वह शान्तिपूर्वक जीने का अधिकारी तो नहीं ही हैं। फिर भले वह अखबार का सम्पादक हो या सरकारी वकील या फिर सामाजिक कार्यकर्ता! आदिवासी वकील धसाने को तो गालियाँ पड़नी ही है कि कहीं उसके मन में अपने बिरादर लाहनिया के प्रति दया भाव न उभर आए! ऐसे में तमाम परिस्थितियाँ लाहनिया को एक ही निष्कर्ष की ओर ले जाती है - अपनी बहन की हत्या। अपनी पत्नी और पिता को तो वह बचा न सका पर वह अपनी बहिन को इस जिल्लत भरे जीवन से निजात दिलाना चाहता है। इस तरह भारतीय समाज-न्यायव्यवस्था को भी अपना मनमाफिक जवाब मिल जाता है आदिवासी आदतन हत्यारे होते हैं!

(सम्पर्क – नीलम जाँगिड़, नयी दिल्ली, ईमेल – neelamjamgidindia@gmail.com )
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दलित-आदिवासी स्त्री की त्रासदी और बड़ा पर्दा
पारुल ख्रीस्टीना खलखो

आज सिनेमा बहुत आसानी से हमारे जीवन का हिस्सा बन गया है। प्रारंभ में सिनेमा की दृष्टिकोण आदर्शोन्मुख थी परंतु बाद में वह यथार्थोंन्मुख होती गई और सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ व्यक्ति के आक्रोश और संघर्षों के सिनेमा से समाज में जागृति आयी। परंतु प्रश्न यह उठता है कि हिंदी सिनेमा के पर्दे पर जो यथार्थोन्मुख विषय दिखाया जा रहा है, वह किस वर्ग, जाति-समूह के यथार्थ को प्रस्तुत कर रहा है? और क्या सही मायनों में उस जाति समूह के यथार्थ को पेश किया जा रहा है? या फिर एक खास जाति समूह के यथार्थ को ही सिनेमा में फिल्माया जा रहा है। इस दृष्टिकोण से अगर इन फिल्मों को देखा जाए तो हिंदी सिनेमा के पर्दे पर आज भी दलित-आदिवासी यथार्थ अनुपस्थित है।

अधिकतर फिल्में बाजार के लिए बनायी जाती है और बाजार में दलित-आदिवासी की कीमत कौड़ी के भाव की भी नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सवर्ण वर्ग दलित-आदिवासी की कीमत नहीं लगाता, बल्कि लूटता है, उनका शोषण करता है। इस परिपेक्ष्य में अगर कोई फिल्म दलित-आदिवासी पर बन भी जाए तो जाहिर-सी बात है कि फ्लॉप हो जाएगी। निर्माताओं की नजर से देखें तो सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक कारणों से दलित पर फिल्‍म बनाना फायदेमंद नहीं माना जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इससे उनके अपने हित प्रभावित होते है। ऐसे में दलित-आदिवासी स्त्री के संघर्ष को बड़े पर्दे में उपस्थित देखना मुश्किल है। बड़े पर्दे में स्त्री को वस्तु के रुप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। मुख्यधारा समाज में स्त्रियों को इसी रूप में देखा जाता है। उसकी माँसल देह, यौन उत्तेजकपूर्ण हाव-भाव, अबला मूर्ति या गुड़िया के रुप में ही स्त्री को देखा जाता है। और अधिकांश फिल्मों में प्रदर्शन के लिए यह आसान तरीका ही अपनाया जाता है।

स्पष्ट है कि सिनेमा के बड़े पर्दे पर दलित आदिवासी स्त्री की छवि सवर्ण समाज की मानसिकता के आधार पर गढ़ी गयी है। सिनेमा में आदिवासी औरत को असभ्य, जाहिल और फूहड़ तथा दलित औरत को काली-बदसूरत दिखाया जाता है। ज्यादातर फिल्मों में दलित या आदिवासी स्त्री के साथ बलात्कार ही देखने को मिलता है। इस आमानुषिक अपराध के पीछे कारण यह है कि उच्चजाति द्वारा अपनी श्रेष्टता सिद्ध करने और निम्नजाति को नीचा दिखाने के लिए दलित-आदिवासी स्त्री का बलात्कार किया जाता है और सिनेमा में दिखाए जाने वाले कुत्सित दृश्य इसी मानसिकता को पुष्ट करते हैं। 

(संपर्क - पारुल ख्रीस्टीना खलखो, हैदराबाद, ईमेल-prlxalxo@gmail.com )
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हिंदी सिनेमा और आदिवासी जीवन से जुड़े विविध प्रश्न
प्रवीण बसंती

टैकनॉलाजी, कम्यूनिकेशन एण्ड चेंज नामक पुस्तक में डैनियल लर्नर ने बताया है कि संचार माध्यम सामाजिक परिवर्तन के बड़े औजार हैं। आधुनिक संचार प्रणाली के सबसे सशक्त माध्यमों में से एक के कारण सिनेमा को व्यापक लोकप्रियता हासिल हुई। यह एक ऐसा माध्यम सिद्ध हुआ जिसने संचार माध्यमों के स्वरुप और भूमिका में क्रांतिकारी परिवर्तन ही ला दी है। पहले जहाँ संदेश ही माध्यम था, आज वहाँ माध्यम ही संदेश बन गया है। इसी संदेश-प्रक्रिया में भारतीय समाज और फिल्म एक दूसरे को प्रभावित करते आ रहे हैं।

दुर्भाग्य से हिंदी सिनेमा ने अपनी विराट लोकप्रियता के सौ साला लंबे सफर के बावजूद आदिवासी समाज को हाशिये पर डाल रखा है। आदिवासी जीवन को लेकर जो फिल्में बनाई गई है, उनमें इनके जीवन से जुड़े विविध तथ्यों को कितनी गंभीरता से लिया गया है, इस पर गहन विचार किया जाना चाहिए। इस मामले में हिंदी सिनेमा प्राय: एक पक्षीय रहा है। यहाँ पूँजीवादी व कॉरपोरेट घरानों का अबाध वर्चस्व है। जिनकी संस्कृति ही लूट-खसोट की रही है, भला वे फिल्मों के माध्यम से ऐसे जीवन को क्यों पेश करेंगे या करने देंगे, जिसका सर्वस्व वे हथियाते चले आ रहे हैं। यही कारण है कि आज भी मुख्यधारा का समाज आदिवासी समाज और उनके जीवन से भलीभांति परिचित नहीं हो पाया है।

आज की पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजिपतियों की गिद्ध नजर आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन पर टिकी है। सरकार के सहयोग से वे उनके संसाधनों को लूट रहे हैं। इस लूट में कोई बाधा उत्पन्न न हो इसके लिए उन्होंने आदिवासियों को लेकर में बहुत से पूर्वग्रह निर्मित किए और सिनेमा के माध्यम से उसे बहुसंख्यकों के अनुभव का हिस्सा बनाया। मुख्यधारा आदिवासी जीवन के खिलाफ जो पूर्वग्रह पाले हुए है, वास्तविक जीवन में उनका कोई अस्तित्व ही नहीं है। इन सबके बावजूद भरी-पूरी संस्कृति और जीवनशैली के बावजूद उनके लिए आदिवासी आज एक अजूबा ही है। अतः यहाँ बदलाव की आवश्यकता को महसूस किया जा रहा है, अगर अब बदलाव नहीं हुआ तो आने वाले दो सौ वर्षों में भी आदिवासियों की स्थिति यूं ही मूक बनी रहेगी। इसके लिए जरूरी है कि इसमें स्वयं आदिवासियों की सीधी भागीदारी हो। फिल्मनिर्माण के सभी क्षेत्रों से वे जुड़े और अपना सिनेमा स्वयं अपने तरीके से निर्मित करें।

(संपर्क - प्रवीण बसंती, मोतीझरान-संबलपुर (ओडिशा), ईमेल - ppp.bvxess@gmail.com )
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हिन्दी सिनेमा और दलित-आदिवासी स्त्री-प्रश्न
प्रियंका सोनकर

भारत जैसा देश, जिसकी विविधता में हमें सदैव एकता के सुदृढ़ पहलू को देखने के लिए कहा जाता है, क्या यह विविधता में एकताजैसे आदर्श को पूरी तरह से गौरवान्वित करता है? जिस भारत देश में धर्म, जाति, रंग, वर्ग, भाषा, क्षेत्र के नाम पर लोग बँटे हों, वहाँ हम किस एकता की बात करते हैं? भारत में यही कुछ विषय हैं जिनके आधार पर उच्च और गैर-दलितों का तो मान-सम्मान होता है किंतु दलितों और आदिवासियों तथा स्त्रियों का उतना ही उत्पीड़न। हिन्दी सिनेमा को एक खास वर्ग का संरक्षण प्राप्त रहा है। पृथ्वीराज कपूर से लेकर आज भी हिन्दी सिनेमा पर गैर-दलितों का पूरी तरीके से वर्चस्व है। हिन्दी सिनेमा को सिर्फ एक वर्ण और वर्ग द्वारा हड़प लिया जाना और उसमें सिर्फ उनके मनोरंजन की बातें करना, भारत जैसे देश की वैसी छवि को रेखांकित करता है - जहाँ यह सिद्ध हो जाता है कि यह न्याय का देश नहीं है और न ही यहाँ किसी दलित को सामाजिक बराबरी को दर्जा दिया जाता है।

दलित और आदिवासी स्त्री भारतीय सामाजिक व्यवस्था के आखिरी पायदान पर अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। उसकी स्थिति बद से भी बदतर है। प्रश्न यह उठता है कि अभी तक कितने ऐसी हिन्दी फिल्‍में हैं जिन्‍हें पर दलित जीवन से जुड़ी फिल्में कहा जा सकता है? दूसरा प्रश्न यह है कि क्या दलित-आदिवासी स्त्री को केंद्र में रखकर फिल्में बनायी गयी हैं, यदि हाँ तो उसमें दलित-आदिवासी स्त्री का चित्रण कैसा है? प्रश्न यह भी है कि यदि दलित-आदिवासी स्त्री को हिन्दी सिनेमा में जगह मिली है तो कौन से पात्रों की भूमिका उन्हें मिली है? उन्हें लीड रोल दिया गया है या कोई छोटा-मोटा रोल? जैसा कि भारत के पितृसत्तावादी और मनुवादी सामाजिक व्यवस्था में दलितों और आदिवासियों के लिए ऐसे सभी कार्य निषेध थे जिससे उनको सामाजिक प्रतिष्ठा मिले! उन्हें नौकर-नौकरानी, कार-ड्राईवर, बावर्ची आदि का रोल ही मिलता है। क्या फिल्‍मों में भी दलितों को ऐसी ही भूमिका दी जाती है?

हिन्दी सिनेमा में दलित-आदिवासी स्त्री की छवि को बहुत ही निकृष्ट तरीके से दर्शाया जाता है। बंवडरजैसी फिल्में दलित स्त्री के शोषण की विद्रूपता का एक कच्चा-चिट्ठा खोलती हैं। किंतु ऐसी फिल्में संख्या में कितनी हैं? दलित-आदिवासी स्त्री की प्रतिभा, उनके अभिनय और उनके कौशल को क्यों अनदेखा किया जाता है? देवदासी जैसे मुद्दे, पानी की समस्या, जल-जंगल-जमीन की लड़ाई इन मुद्दों पर मुख्यधारा के लोगों का ध्यान क्यों नहीं जाता? आज भी दलित-आदिवासी स्त्री अपने अधिकारों के लिए क्यों जला दी जाती हैं? उन्हें वर्चस्ववादी व्यवस्था का अत्याचार सहने पर हमेशा क्यों मजबूर किया जाता है? हिन्दी सिनेमा क्या भारत के किसी एक खास तबके जो खाये पीये अघाये लोग हैं, जिनका अपना बाजार है, जिनकी अपनी पूँजी है, उन्हीं का बनकर रह जायेगा या परिवर्तन आयेगा और दलितों और आदिवासी स्त्रियों के दिन भी बहुरेंगे? आखिर कब वो दिन आयेगा, जब हिन्दी सिनेमा के इतिहास में दलित-आदिवासी स्त्री के संघर्ष और उनकी प्रतिभा का सही मूल्यांकन किया जा सकेगा।

(संपर्क - प्रियंका सोनकर, नयी दिल्ली, ईमेल - priyankasonkar@yahoo.co.in )
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आदिवासी सिनेमा : पर्यावरणीय चेतना का सिनेमा
पुखराज जांगिड़

हमारे समकालीन परिदृश्य की भयावहता रेखांकित करते हुए आदिवासी कवयित्री जसिन्ता केरकेट्टा जब यह लिखती हैं कि – “कोका-कोला बनाकर/ तुमने उसे 'ठण्डा का मतलब' बताया/ तो अब दुनियां को यह बताओ/ सारण्डा के नदी-नालों में बहते/ लाल पानी का मतलब क्या है?” तो समझ जाना चाहिए कि सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। इसके बरक्स लोकचेता कवि त्रिलोचन ने बहुत पहले जब यह लिखा कि – “ पृथ्वी मेरा घर है/ अपने इस घर को/ अच्छी तरह मैं ही नहीं जानता।तब उन्होंने यह रेखांकित तो कर ही दिया था कि हमारी सर्वे भवन्तु सुखिन:वाली संस्कृतिदृष्टि में सुखिनमुट्ठीभर लोगों का ही क्यों होता है? दोनों कविताओं को विकासपरक योजनाओं से जोड़ने पर जो निष्कर्ष सामने आते हैं, उसमें हमारे घर (देश) के मुखिया’ (मूलनिवासी आदिवासी) ही नदारद हैं। यही बातें जब मृणाल सेन, गोविन्द निहलानी, श्रीप्रकाश, जब्बार पटेल, आनन्द पटवर्धन, बीजू टोप्पो द्वारा रूपहले परदे पर दृश्यश्रव्य रूपों में उकेरी जाती है तो वह और अधिक प्रभावशाली हो उठती हैं।

भारतीय सिनेमा में पूर्णतः पर्यावरणीय मुद्दों पर केन्द्रित भोपाल एक्सप्रेसजैसी फिल्मों का प्रायः अभाव रहा है (महेश मथाई निर्देशित भोपाल एक्सप्रेसजहरीली गैसों या रसायनों के कारण मनुष्यों और जानवरों पर पड़ते उसके बुरे प्रभाव को लेकर चिन्तित है), लेकिन हमारे पास ऐसी बहुतेरी फिल्में हैं, जो इसे एक बड़े संकट के रूप चिह्नित करती है। इन फिल्मों में बड़ा हिस्सा उन फिल्मों का है जो दलित-आदिवासी मुद्दों पर केन्द्रित है। यह सिनेमा हमें बताता है कि सामूहिक कोशिशों से बिगड़ते पर्यावरण को ठीक किया जा सकता है क्योंकि इनकी चिन्ताएं सिर्फ वर्तमान मात्र की नहीं बल्कि भविष्य की है। ये फिल्में सरकारी स्तर पर की गयी दिखावटी कोशिशों को नाकाफी ठहराती है। ये फिल्में मुट्ठीभर लोगों के वैयक्तिक हितों को साधने वाले उनके सेफ्टी वॉल्व सरीखे रूप को दिखाते हुए हमें चेताती हैं कि आदिवासियों की जल, जंगल और जमीन से बेदखली अन्ततः हमें बर्बादी की ओर ही ले जाएगी। जेम्स कैमरून निर्देशित अवतारकी मूल पृष्ठभूमि ओडिशा की नियमगिरि की पहाड़ियों में बसे कौंध आदिवासियों के 162 गाँवों द्वारा संयुक्त रूप से ओडिशा सरकार समर्थित ब्रिटिश कम्पनी वेदान्ताकी बॉक्साइट खनन की योजना का विरोध है।

आनन्द पटवर्धन, श्रीप्रकाश, मेघनाथ और बीजू टोप्पो की फिल्मों के आदिवासी अपनी अस्मिता और अस्तित्व को बचाने के लिए अनवरत संघर्षरत है क्योंकि वे जानते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों की लूट असल में हमारी सांस्कृतिक विरासत या पहचान को खत्म कर देगी पर उनकी दिक्कत यह है कि आजाद भारत में यह काम विदेशी कम्पनियाँ भारत सरकार/ओडिशा सरकार के समर्थन में कर रही हैं। यही कारण है कि मृणाल सेन निर्देशित मृगयाऔर गोविन्द निहलाणी निर्देशित आक्रोशमें तेजी से कटते पेड़, राष्ट्र-राज्य और मानवीय रिश्तों की नयी परिभाषा गढते नजर आते हैं। आक्रोशमें तो नायक अपने परिवार के भविष्य के प्रति सभी आशाएं छोड़, अपनी ही एकमात्र बहिन को मौत के घाट उतार देने पर मजबूर हो जाता है। यही स्थिति मणि कौल निर्देशित रावणके नायक की है। यह मजबूरी असल में दो संस्कृतिदृष्टियों के बीच की संवादहीनता की उपज है। शहर और गाँव के बीच की संवादहीनता अब संवेदनहीनता में बदल गयी है। ये फिल्में देशी/विदेशी पूँजीवादियों द्वारा अधिकतम लाभ कमाने की प्रवृत्ति और उनके दिनोंदिन अमानवीय होने को दिखाती है। प्रकृति और मनुष्य के रिश्ते को व्याख्यायित करती ये फिल्में मूलतः हमारे मूलनिवासियों के आश्रयस्थलों से सम्बद्ध संसाधनों की अँधी लूट के विरोध पर आधारित है। विकास की एकतरफा दौड़ तथा हाशिए की अस्मिताओं की अनवरत बेदखली पर सवालिया निशान खड़े करती ये फिल्में हमें आगाह करती है कि प्रकृति और मनुष्य का आपसी साझा हमारे समय की अनिवार्य जरूरत भी है और विभिन्न पर्यावरणीय संकटों से बचाव का एकमात्र रास्ता भी।

(सम्पर्क – डॉ. पुखराज जाँगिड़, बाड़मेर (राजस्थान), ईमेल- pukhraj.jnu@gmail.com )
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अछूत कन्या में दलित विमर्श
बृजेश कुमार त्रिपाठी

भारत एक बहुसांस्कृतिक एवं बहुभाषी देश है, इस कारण से कई फिल्मकारों ने भारत की विभिन्न जातीय और सांस्कृतिक परंपराओं को अपनी फिल्मों में समाहित करने का प्रयास किया तथा उसमें काफी हद तक सफलता भी पाई है। पिछले सौ वर्षों के सिनेमाई इतिहास में हमने विश्व सिनेमा के पटल पर अपनी विशिष्ट पहचान तो बनाई किंतु साहित्य के समान हिन्दी सिनेमा ने भी समाज के पिछड़े, दलित और शोषित वर्ग को वह स्थान नहीं दिया जिसका वो हकदार था। अगर कहीं दिया भी तो पिछड़ेपन के प्रतीक के रूप में। इसका कारण भारतीय जनमानस में गहरे तक धँसी जातिवादी मानसिकता में निहित है। आजादी के आन्दोलन के बहाने सारा भारत कहने को तो एक सूत्र में बँधा, लेकिन यह सब अन्ततः छलावा भर सिद्ध हुआ। आजादी के छः दशक बाद भी दलितों की स्थिति में बहुत अधिक बदलाव दिखाई नहीं पड़ते। बदलाव तो दिखे पर उनकी गति इतनी धीमी रही कि वह अपने समय के सबसे लोकप्रिय माध्यमों तक में स्थान न सके।

आजादी के आन्दोलन के समय सामाजिक विषमताओं, कुरीतियों, अस्पृश्यता, विधवा विवाह, अनमेल विवाह, बाल विवाह, वेश्यावृत्ति और दलित-आदिवासी समस्याओं पर साहसपूर्ण फिल्में भी बनी। महात्मा गांधी के बढ़ते दलित आंदोलन से प्रेरित होकर फिल्मकारों ने 1923-1924 में फिल्म जगत में कुछ सार्थक प्रयोग किये, जैसे - पुणे के पांडुरंग तालगिरी ने गांधी जी के जनसहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर अछूतअछूतोद्धारनामक दो मूक फिल्में बनाईं। किसानों के शोषण के खिलाफ महाराष्ट्रियन फिल्म कंपनी ने सावकरी पाशव मदन ने असहयोग आंदोलननामक कॉमेडी फिल्में बनाई। कई साहित्यिक रचनाओं का फिल्मांतरण हुआ।

नितिन बोस कृत न्यू थियेटर्स की चंडीदास (1934) ने फिल्म निर्माण को एक नयी दिशा दी, जिसमें उन्होंने जाति-प्रथा की बुराइयों को पहली बार परदे पर पेश करने की हिम्मत दिखाई। बॉम्बे टॉकीज़ के बैनर तले बनी फिल्म अछूत कन्या’ (1936) को हिन्दी सिनेमा की एक कालजयी रचना है। आजादी के लगभग दस वर्ष पहले बनी इस फिल्म में देश की तत्कालीन सामाजिक समस्याओं में प्रधान समस्या छुआछूत के मुद्दे को, भारतीय समाज के एक काले पक्ष को बड़ी शिद्दत के साथ उठाया गया है। फिल्म ब्राह्मण लड़के प्रताप और कस्तूरी नाम की अछूत कन्या की एक दारूण प्रेमकहानी है। कस्तूरी के पिता रेलवे में गेटकीपर तथा लड़के के पिता मोहन किरानाव्यापारी हैं। दुखिया ने एक बार प्रताप के पिता की जिंदगी बचायी थी और इस घटना से उन दोनों में बहुत अच्छी दोस्ती हो गई। उनका अपने बच्चों की दोस्ती से कोई विरोध नहीं है लेकिन जब प्रताप और कस्तूरी की दोस्ती से प्रेम उत्पन्न होता है तो अचानक ही उन दोनों की जातियों में टकराव दिखाई देने लगता है।

(संपर्क - बृजेश कुमार त्रिपाठी, रीवा (मध्य प्रदेश), ईमेल - brij_ayush2006@yahoo.co.in )
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आक्रोश और पहाड़ा में चित्रित आदिवासी जीवन
रामधन मीणा

डॉ. राही मासूम रजा सिनेमा को सम्पूर्ण कला मानते थे। आदिवासी जीवन विविध कलाओं का मूल संगमन माना जाता है। पुरखों से प्राप्त विभिन्न कलारूप उनकी संस्कृति को प्रकृति से जोड़े रखते हैं। इसीलिए उनकी संस्कृति मुख्यधारा की नगरीय संस्कृति से बिलकुल भिन्न पुरखा संस्कृति में ही रसी-बसी होती है। दोनों संस्कृतियों के बीच हुए आदान-प्रदान दोनों पर गहरा प्रभाव डाला। यह प्रभाव विविध कलारूपों में दिखाई पड़ा। फिल्में भी इससे अछूती न रही। आजादी के बाद और विशेष रूप से भूमण्डलीकरण के दौर में आदिवासियों या आदिवासी मुद्दों पर निर्मित बहुत सी फिल्में सामने आयी, लेकिन ये तमाम फिल्में अपने फिल्मांकन को लेकर पर्याप्त विवादों में भी रही।

विवाद का मुख्य कारण अक्सर आदिवासियों या आदिवासी मुद्दों का प्रस्तुतिकरण रहा है (यह अलग बात है कि फिल्मकारों को ऐसे विवादों सीधा व्यावसायिक लाभ भी मिलता रहा है।) जो हो, इससे फिल्मकार की सामाजिक या व्यावसायिक प्रतिबद्धता के साथ-साथ उसके वैचारिक पूर्वग्रह या दुराग्रह भी सामने आते हैं। आदिवासी मुद्दों पर केन्द्रित फिल्मों में तो ये और गहरे होते हैं। फिल्मकारों के वैचारिक पूर्वग्रहों या दुराग्रहों के कारण ऐसी फिल्मों का अध्ययन अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। यहाँ यह भी ध्यान में रखना जरूरी होता है कि जब एक आदिवासी फिल्मकार अपने समुदाय पर फिल्म बनाता है तो वह उसे किस प्रकार दिखाता है और उन्हीं विषयों जब एक गैरआदिवासी फिल्मकार फिल्माता है वह उसे किस प्रकार दिखाएगा? दोनों की दृष्टियों में अन्तर क्या होगा? इसे गोविन्द निहलाणी निर्देशित आक्रोश और निरंजन कुजूर निर्देशित पहाड़ा की तुलना से अध्ययन से समझा सकता है।

युवा आदिवासी फ़िल्मकार निरंजन कुजूर द्वारा निर्देशित लघुफिल्म पहाड़ा में आदिवासी कवि महादेव टोप्पो बड़े ही सजीव ढंग से अपने वजूद को परिभाषित और प्रदर्शित करते हैं। आदिवासी संस्कृति की यह जीवटता गैरआदिवासी फिल्मकार की फिल्म में नामुमकिन हैं क्योंकि वह उसके अपने अनुभव जगत का कभी हिस्सा ही नहीं रही है। चूंकि वह उसके अनुभव जगत से अनभिज्ञ है, इसलिए उसके महत्त्व को समझना और उसे समग्रता में परदे पर रूपायित करना मुश्किल हो जाता है। इसके विपरित एक आदिवासी फिल्मकार चूँकि उसी आदिवासी संस्कृति में रचा-बसा होता है, इसलिए उसके लिए उनका प्रामाणिक फिल्मांकन उतना मुश्किल नहीं होता।

गैरआदिवासी फिल्मकार गोविन्द निहलाणी द्वारा निर्देशित आक्रोश आक्रोश फिल्म में सरकारी वकील भास्कर कुलकर्णी द्वारा आदिवासी लहनिया से पूछे गए सवाल सवाल कम और इल्जाम ज्यादा लगते हैं, जैसे- “...पहले ये बताओ कि पहला खून किया है तूने?...या पहला जुर्म ?...तुमने अपनी घरवाली का खून क्यों किया? बदचलन थी?... पहली ही मुलाकात में हुए ये सवाल एक गैरआदिवासी निर्देशक के आदिवासियों के प्रति रूखेपन को दिखाते हैं। हिन्दी फिल्मों में दिखाई देने वाले आदिवासी चरित्र अक्सर फिल्मकारों के इस पूर्वग्रही नजरिए का शिकार हुये है। गैरआदिवासी फिल्मकारों द्वारा निर्देशित अधिकांश फिल्मों में आदिवासी प्रायः मनोरंजन या हास्यपूर्ति का माध्यम बने हैं। अपनी स्वतन्त्र अस्मिता और गरिमा से पूरी तरह अनजान। अगर कोई चरित्र इसके खिलाफ जाता दिखाई पड़ता है तो उसका नायकत्व खतरे में पड़ जाता है और मजबूरन उसे खलनायक  का चोला धारण करना पड़ता है।

(संपर्क : रामधन मीणा, पुदुच्चेरी, advrdmeena2012@gmail.com )
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दलित-आदिवासी स्त्री की त्रासदी और बड़ा पर्दा
रेखा कुर्रे

भारतीय समाज का ढांचा जटिल जातिवादी दृष्टिकोण पर आधारित है और इसके आधार पर स्त्री और पुरुष दोनों का उत्पीड़न होता रहा है किंतु इनमें भी स्त्रियों का उत्पीड़न अधिक होता है। दलित और आदिवासी स्त्रियों की त्रासदी के विविध रूपों को सहज रूप में आमजन तक सम्प्रेषित करना सिनेमाई परदे की विशेषता रही है। विमल राय, सत्यजीत राय, गोविंद निहलानी, प्रकाश झा, शेखर कपूर, गौतम घोष उनके जीवन को बड़े परदे पर लाने वाले महत्त्वपूर्ण फिल्मकार है।

फिल्म हमारे लिए सामाजिक और सांस्कृतिक उत्पाद का कार्य करती है। ऐसे में उसे अपने समय और परिवेश के अनुसार समझने में ही फिल्म की सार्थकता है। फिल्म में किसी भी किरदार को समझने के लिए उसकी परिस्थितियों और दृश्यों को समझना आवश्यक होता है। दलित-आदिवासी स्त्री का उत्‍पीड़न पहला जाति के आधार पर, दूसरा स्त्री होने के आधार पर और तीसरा आर्थिक स्थिति कमजोर होने के आधार पर होता है और फिल्मों में इनके यथार्थ का प्रस्तुतिकरण बड़ा ही जोखिमभरा होता है।

अछूत कन्या, सुजाता, अंकुर, दामुल, पार, आक्रोश, मृगया, मैमी साहब, बैडिंट क्वीन, बवंडर, लाल सलाम, लज्जा, पीपली लाइव, मृत्युदंड, शुद्रः द राइजिंग और चक्रव्यूह जैसी फिल्में दलित- आदिवासी स्त्री की पीड़ा को उजागर करती महत्त्वपूर्ण फिल्में हैं। इनमें उनके सवाल को व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्‍य में रखकर देखा गया है। आर्थिक शोषण के साथ सामाजिक उत्पीड़न के सवाल को भी गहराई से देखा गया है। ऐसे में दलित-आदिवासी स्त्रियों की त्रासदी को फिल्मों में जिन दृश्यों, बिंबों, गीत, संगीत और संवादों के माध्यम से निरूपित किया गया है, उनका आलोचनात्मक मूल्‍यांकन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

(संपर्क डॉ. रेखा कुर्रे, नयी दिल्लीईमेल- rkurre1705@gmail.com )
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मलयालम सिनेमा में दलित सन्दर्भ (विशेष सन्दर्भ : पापिलियो बुद्धा)
लया शशिधरण

भारतीय सिनेमा में मलयालम सिनेमा का महत्त्वपूर्ण स्थान है और यह सिनेमा भारत के केरल क्षेत्र से सम्बद्ध है। इसीलिए इसे मॉलीवुड या केरल सिनेमा भी कहा जाता है। मलयालम सिनेमा की पहली मूक फिल्म विगात्कुमारन (1928) के निर्माता-निर्देशक जे.सी.डेनियल थे, इसलिए उन्हें को मलयालम फिल्म का जनक माना जाता है। मलयालम सिनेमा अपने शुरूआती दौर से ही सवर्ण-दलित जैसी मानसिकता से ग्रसित रहा है। मलयालम सिनेमा का पहली फिल्म विगतकुमारनकी नायिका पी.के. रोसी दलित समुदाय की थी। इस फिल्म में उसने नायर जाति (ब्राह्मण समुदाय) की महिला का किरदार निभाया। रोसी को अपने इस दुस्‍साहस के लिए नायर समाज के कोप का भाजन बनना पड़ा।

19 दिनों में निर्मित और 15 मार्च 2013 को प्रदर्शित पापिलियो बुद्धा फिल्म के कहानीकार और निर्देशक जयन के.चेरियन है। इस फिल्म में 150 आदिवासियों ने अभिनय किया है। फिल्म में गाँधी व बुद्ध के कुछ आपत्तिजनक सन्दर्भों के कारण सेंसर ने इसके प्रदर्शन पर रोक लगा थी, परन्तु दलित, पारिस्थितिकी और स्त्री विमर्श जैसे मुद्दों की सशक्त अभिव्यक्ति के कारण इस काफी सराहा गया। पापिलियो बुद्धा फिल्म केरल के पश्चिमी घाट के पास रहने वाले दलितों के संघर्ष को मार्मिकता के साथ प्रस्तुत करती है। पूरी फिल्म दलित नेता करियन, उसके बेटे शंकरन और ऑटो चालिका मंजुश्री के इर्द-गिर्द घूमती है। करियन अपने समाज के लोगों के सामने दलितों की मूलभूत समस्या रखता करता है और इसके लिए सरकार के सामने अहिंसात्मक आंदोलन की बात करता है तथा इस सन्दर्भ में वह मुख्यधारा के उदासीन रवैये को भी वह सबके सामने रखता है।

फिल्म में मीडिया के दोहरे चरित्र का उद्घाटन हुआ है। जब सवर्णों द्वारा मंजुश्री का सामूहिक बलात्कार होता है तो मीडिया नहीं आता जबकि रामदास जैसे दिखावेबाज़ गाँधीवादी के साथ पूरा प्रशासन और मीडिया खड़ा है। फिल्म का अंत हिंसात्मक संघर्ष से होता है, जिसमें सनातन धर्म का विरोध, गाँधीजी के पुतले को जलाना, बुद्ध को स्थापित करना जैसे दृश्यों के फिल्मांकन से दलितों के आक्रोश को प्रदर्शित करने के साथ-साथ यह भी दिखाया गया है कि मुख्यधारा किस तरह से दलित आंदोलन को दलित आतंकवाद के नाम पर दबाने की कोशिश करते हैं। पुलिस बुद्ध की प्रतिमा को गिरा देती है और सभी आन्दोलनकारियों को को वहाँ से चले जाने के लिए विवश कर देती है और अन्ततः पूरी दलित बस्ती किसी अनजानी मंजिल की ओर चल देती है।

(संपर्क लया शशिधरण, पुदुच्चेरी – 605014, ईमेल - layasasidharan93@gmail.com )
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दलित-आदिवासी दमन और स्‍त्री की त्रासदी
लिंगम चिरंजीव राव

21 वीं सदी का हमारा सिनेमा तकनीकी रूप से जितना समृद्ध है, वैचारिक रूप से उतना ही खोखला या घृणित है। क्या हमें यही सिनेमा चाहिए था? क्या दादा फाल्के, विमल राय और गुरूदत्त की परिकल्पना की पराकाष्ठा यही थी? हमारे समाज का एक वर्ग दलित-आदिवासी सिनेमा का हिस्सा तो बना पर जिस रूप में उसके जीवन को रूपहले पर्दे पर प्रस्तुत किया गया, वह पूरी तरह से उसके जीवन के यथार्थ से परे लगता है। जिस प्रकार उच्चवर्णों ने दलित-आदिवासी स्त्री को उत्‍पीडि़त किया है, उसके कई आयाम हमने अपने जीवन में देखे और देख रहे हैं, लेकिन बड़े परदे पर वह उस रूप में कतई दिखाई नहीं देता। अगर हमारी तथाकथित उच्चजातियों का दमनचक्र इसी तरह चलता रहा, तो हम उस लोकतांत्रिक राष्‍ट्र का स्‍वप्‍न कभी साकार नहीं कर पायेंगे जो अंबेडकर और गाँधी ने देखा था।

नारी जीवन की विडंबनाओं और दलितों के प्रति करूणा दिखा कर हिंदी सिनेमा अछूत कन्या’, ‘आदमी’, ‘अछूत’, ‘सुजाता’, ‘बूटपालिश’, ‘अंकुर’, ‘दुनिया न माने’, ‘देवदास’, ‘इंदिरा एम ए’, ‘बाल योगिनीऔर सद्गतिजैसी फिल्मों का निर्माण तो करता रहा, परंतु जिस जूनून से जाति के प्रश्न को उठाया जाना चाहिए, वह कहीं नहीं नज़र आता। हिंदी सिनेमा के इस पक्षपात को सामने रखकर हम इस बात को कैसे इनकार सकते हैं कि जातिप्रथा भारतीय समाज का एक कड़वा सच नहीं है? संविधान चाहे अपने सभी नागरिकों को समान मानता हो किंतु इसे अपनाने के लगभग 65 सालों बाद भी जातिप्रथा हमारे समाज में व्‍याप्‍त है। इसके प्रमाण के तौर राष्ट्रीय व क्षेत्रीय अखबारों में आने वाले तमाम वैवाहिक विज्ञापनों के उदाहरण हम दे सकते हैं।

ऐसी कई फिल्में हैं जिसमें रूपहले पर्दे पर दलित-जीवन को संबोधित किया गया है पर उनमें भी निर्माता-निर्देशक अपने इस मोह को न भुला सके कि फिल्म पर किया गया खर्च उन्हें वापस मिलेगा या नहीं? क्योंकि सिनेमा उनके लिए व्यापार का माध्यम रहा है न कि समाजसुधार का। यही कारण है कि दलितों से संबंधित जो फिल्‍में बनी, वे या तो अधूरी हैं या जानबूझकर यथार्थ को परे रखती हैं।  हिंदी सिनेमा में दलित प्रश्न की उपेक्षा का मूल कारण सिनेमा का महंगा कला का माध्‍यम होना है और निर्माता-निर्देशक को पूँजी लगाने वाले के वर्गीय हितों का ख्याल रखना होता है। और फिर हिंदुस्‍तान में पूँजीपति वर्ग सवर्ण है जो अब भी जातीय श्रेष्ठता की भावना से पीड़ित है। जेबखर्च करके सिनेमा देखने जाने वाला समाज का सवर्ण हिस्‍सा यह कभी नहीं चाहेगा कि दलित-जीवन पर सिनेमा बनाया जाये, जबकि सिनेमा में काम करने वाले प्रायः सभी निर्माता, निर्देशक, लेखक, कलाकार सवर्ण जातियों से आते हैं।

(संपर्क - लिंगम चिरंजीव राव, बालांगीर (ओडिशा), ईमेल - lchiranjiv@gmail.com )
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दलित आदिवासी समाज का सिनेमार्इ हाशिया
विजयलक्ष्मी सिंह

हिंदी सिनेमा के सौ साल के इतिहास में हाशिए के समाज पर अधिक फिल्में नहीं बनी हैं। आजादी के पहले शुरुआत में ऐसा लगा कि गांधीजी और उनकी तरह हाशिए के लोगों के विषय में सोचने वाले अन्य समाजसुधारकों की मदद से दलितों की स्थिति में सुधार होगा। उनकी आवाज सुनी जायेगी। लेकिन यह समाज हिंदी सिनेमा के परदे से सदा उपेक्षित रहा। हमारे शुरुआती निर्देशकों को प्रचारात्मक सिनेमा सही नहीं लगता था, जबकि फिल्म को प्रचार का एक सशक्त माध्यम माना जाता है। उस समय के फिल्मकार समाजसुधारकों के साथ काम नहीं करना चाहते थे, फिर उनके उद्देश्य उनसे अलहदा थे।

गाँधीजी जिनके लिए काम कर रहे थे, सिनेमा उनके लिए कभी अच्छी चीज नहीं मानी गयी। फिल्म उनके लिए या तो पतनशील पश्चिमी सभ्यता का उदाहरण थी या फिर मनोरंजन का ऐसा साधन जिसका उनके जीवन में कोर्इ महत्त्व नहीं था। इन सबके बावजूद दलितों के सवाल पर अभिनव प्रयोग हिंदी सिनेमा में हुए। अस्पृश्यता को लेकर गाँधीजी के सुधार-आन्दोलन से प्रेरित होकर फ्रांज ऑस्टेन ने ब्राह्मण लड़के और अछूत लड़की की प्रेमकथा परअछूत कन्या’ (1936) बनायी, लेकिन इस फिल्म में भी जीवन की ही तरह नियमों को तोड़ने की सजा अछूत लड़की को ही मिलती है। शायद इसकी वजह हमारे समाज की वह संरचना रही होगी जिसमें एक जाति से दूसरी जाति के बीच किसी भी तरह के अतिक्रमण की सजा उसको मिलती है जिसकी जाति नीची होती है।

आजादी से पहले ही आरंभ हो चुकी दलित सिनेमा की यह यात्रा अब तक विभिन्‍न पड़ावों से होकर गुजर चुकी हैं, उनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण फिल्‍में हैं, - सुजाता (1959), सद्गति (1981), दीक्षा (1991) औरशुद्रा : द राइजिंग’ (2012)। हिंदी फिल्मों में दलितों को लेकर बनी फिल्मों की बहुत कम संख्‍या हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश के सिनेमा में बहुजन-जीवन के स्वाभाविक जीवन के चित्रण का भाव चिंताजनक है। दलित न सिर्फ जाति के वरीयता क्रम से बल्कि सिनेमा से भी बाहर हैं । कमोबेश यही स्थिति आदिवासी समाज की है। आदिवासी अगर कहीं दिखा है तो केवल मनोरंजन करते हुए। पूँजी के इस खेल में बाजार पूँजी की ही सुनता है और वर्तमान में पूँजीवाद आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन को कब्जाने के लिए सत्ता तंत्र को प्रभावित कर रहा है। इसलिए फिल्मकार भी आदिवासी विषयों पर फिल्म-निर्माण से कतराते हैं।            

(संपर्क - विजयलक्ष्मी सिंह, वर्धा (महाराष्ट्र), ईमेल - vijaylakshmi2010@gmail.com )
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फिल्मों में आदिवासी विमर्श
वी.जयलक्ष्मी

भारत में लगभग चार सौ आदिवासी समुदाय हैं। आदिवासी से तात्पर्य है - एक प्रकार की प्रारंभिक ‘होमो सेपियन’ नस्ल के लोग। अतः ऐसे लोग जो भारत में प्रारंभिक काल से रहते आ रहे हैं और वे ही वास्तव में भारत की मूल संतति और मूल निवासी हैं। जहाँ तक हमारी हिंदी फिल्मों का सवाल है, आदिवासियों के यथार्थ को चित्रित करने वाली फिल्में गिनी-चुनी ही हैं। आदिवासियों पर केन्द्रित ‘लाल सलाम’ नामक फिल्म करीब एक दशक पहले आई, लेकिन उसमें नक्सलवाद ही प्रमुख है और आदिवासी बाद में। मृणाल सेन की ‘मृगया’ फिल्म में आदिवासियों के शोषण को काफी आधिकारिकता के साथ दिखाया गया है। महबूब की फिल्म ‘रोटी’ में पूर्वोत्तर के आदिवासी जीवन का चित्रण शामिल है। बांगला भाषा में सत्यजीत रे ने आदिवासी जीवन को लेकर एक दमदार फिल्म बनाई। इस फिल्म का नाम ‘अरण्येर दिन रात’ है जिसका हिंदी संस्करण ‘जंगल में एक दिन-रात’ के रूप में आया।

गिने-चुने दृष्टांतों को छोड़कर सिनेमा में आदिवासियों का चित्रण रोमाँटिक या जंगली सिद्ध करने जैसे नजरिये से ही किया गया है । अतः फिल्मों में आदिवासी जीवन को दिया जाने वाला स्पेस नगण्य है और जो स्पेस दिया जा रह है उसमें रोमाँटिक दृष्टिकोण अधिक नजर आता है यथा 1960-1970 के दशकों की काफी फिल्मों में ‘आइटम डांस’ के रूप में आदिवासियों को प्रदर्शित किये जाने की एक प्रवृत्ति देखी जा सकती है । यह वैसा ही है जैसा कि गणतंत्र दिवस की झांकियों में आदिवासी। जहाँ तक दस्‍तावेजी फिल्‍मों का सवाल है, इस क्षेत्र में बीजू टोप्पो, श्रीप्रकाश, अश्वनी पंकज, मेघराज आदि ने आदिवासियों पर महत्वपूर्ण दस्‍तावेजी फिल्‍में बनाई हैं ।

कई फिल्मों में आदिवासियों की भूमिका को हास्‍य प्रसंग की पूर्ति के रूप में दिखाया जाता है। जैसे कॉमेडियन का जंगल में भटक जाना और फिर आदिवासियों का उसे घेर लेना, उसे बलि चढ़ाने की कोशिश करना और उनसे बचकर कॉमेडियन का भाग उठना। इस प्रकार के फिल्‍मी दृश्‍यों का असर गैर-आदिवासी समुदाय पर नकारात्‍मक पड़ता है और वे वास्तव में आदिवासियों को ऐसे ही समझने लगते हैं। अतः आधुनिक सभ्यता की चकाचौंध में अधिकतर लोग मानने लगे हैं कि जो कुछ भी वनों या पहाड़ों में है वह पिछड़ा, जंगली, असभ्य और पशुवत है। इस गलत मानसिकता के कारण वनों में रहने वाले हमारे आदिवासी भाईयों के शौर्य, पराक्रम, कला अर्थात् उनके संपूर्ण जीवन और व्यक्तित्व को नकारा जा रहा है।

हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि आदिवासियों की भूमिका को ध्यान में रखते हुए ऐसी फ़िल्में भी बननी चाहिए जिनसे आदिवासियों के जीवन, शोषण, संघर्ष, विद्रोह, पीड़ा, वेदना, शौर्य, पराक्रम, कला, अस्मिता की पहचान, अस्तित्व संकट आदि सब से गैर-आदिवासी परिचित हों। इतना ही नहीं उनके द्वारा गाए जाने वाले श्रम-गीत, देवी-देवताओं के सामने रात भर चलने वाला कथा-कथन, विविध प्रकार के समूह-गीत, सामूहिक-नृत्य आदि सब का भी प्रदर्शन हो । फिल्मों में आदिवासी जीवन के तीखे अनुभवों को उसी प्रकार प्रस्तुत किया जाय जिस रूप में आदिवासी ने जिया है। अतः आदिवासियों द्वारा भोगे हुए खुरदरे यथार्थ की सच्चाई को बिना लाग-लपेट किये फिल्मों में प्रस्तुत किया जाय । इस प्रकार आदिवासियों पर फ़िल्में बनेंगीं तो आदिवासियों के साथ बड़े पर्दे पर कुछ न्‍याय हो सकेगा।

(सम्पर्क : वी.जयलक्ष्मी, चेन्नई (तमिलनाडू), ईमेल: mathurajaya@gmal.com )
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सिनेमा में दलित स्त्री की प्रस्तुति!
विधु खरे दास

केतन मेहता निर्देशित हिन्दी फिल्म माँझी : द माउंटेन मैन (2015) मुसहर जाति के दशरथ माँझी की अदम्‍य जिजीविषा पर आधारित है। दलित श्रम के सौंदर्य पर केंद्रित इस फिल्म की मुख्य प्रेरणास्त्रोत दलित स्त्री है, यह स्त्री पात्र फिल्म मूल कथ्य में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज़ नहीं करा पाती। कृति की अंतर्वस्तु उसका कथ्य नहीं बल्कि वे मूल्य होते हैं, जिन्हें कृति रचना की पूरी प्रक्रिया में अर्जित करती है। इस फिल्म में मुख्य दलित स्त्री पात्र की भूमिका, कथ्य तथा अंतर्वस्तु के निर्माण में उसका प्रयोग तथा उसके बिंब का स्‍वरूप इसके मुख्य पुरुष पात्र तथा रचनाकार के दृष्टिकोण से तय हुई है। यह स्त्री पात्र परंपरागत हिंदी सिनेमा में छाई पुरुषवादी मानसिकता को रेखांकित करती है।

दरअसल स्त्री पात्र इस फिल्‍म की ही तरह मात्र प्रेरणा के रूप में पना स्थान बना पाते रहे हैं। एक गर्भवती पत्नी जो पहाड़ के कठोर रास्ते पर संतुलन खो देती है, वह मृत्यु के बाद पुरुष श्रम की सफलता निश्चित करने हेतु कोमल प्रेरणा में परिवर्तित हो जाती है। प्रेरणा का यह बिंब अत्यन्त कारुणिक है। स्त्री पात्र जब तक वह जीवित है, तब तक कोमल, असहाय, सुंदर तथा घरेलू स्त्री के रूप में रेखांकित है तथा मृत्यु के बाद कोमल पौरुषिक प्रेरणा के रूप में।  यही भारतीय स्त्री की नियति है।

दूसरी ओर दलित पात्र माँझी का बिंब पुरुष बल का बिंब है, जो लोहे का हथौड़ा लेकर बंजर पहाड़ को तोड़ता है। फिल्म इस कठोरतम सौंदर्य को स्थापित करने हेतु स्त्री छवि का सहारा लेती है। माँझीकी स्त्री पात्र अमर प्रेम के प्रतीक के रूप में चित्रांकित की गई है और फिल्म में वह अमर प्रेम का बिंब बनने में सहायक सिद्ध होती है। यहाँ प्रेम भी हिंदी सिनेमाई रूढ़ी अनुसार एक नज़र का प्रेम ही है परंतु उसे सामाजिक मान्यता के फ्रेम में स्थापित करने हेतु उसे उसी प्रेमी की बालिका वधू के रूप में स्थापित करता है। अतः दलित स्त्री-पुरुष का प्रेम वैवाहिक दायरे में ही घटित होता है।

फिल्म में स्त्री पात्र की साहसिक छवि को भी गढ़ने का प्रयास किया गया है। उसका अपने पति के साथ भागना उसके विद्रोही रूप को सामने लाता है, लेकिन इस विद्रोह के नीचे भी वही परंपरागत संस्कारी, परंपराशील पत्नी का धर्म निभाने वाली भारतीय स्त्री की छवि है। इसप्रकार एक विशिष्ट क्रांतिकारी की भूमिका वाले दलित पुरुष का प्रेम प्रतीक भी परंपरागत स्त्री की छवि ही गढ़ता है और दलित विमर्श आधारित सिनेमा का स्त्री बिंब साधारण बिंब ही रह जाता है। यह अपने पुरुष की फंतासी में एक सेक्सुअल वस्तु के रूप में ही निरूपित होता है। अतः सवर्णवादी मानसिकता (रचनाकार की) तथा पुरुषवादी मानसिकता (पात्र की) एक दलित/स्त्री पात्र को विशिष्ट तथा पावरफुल छवि के रूप में स्थापित न करने का पूरा प्रयास करती है।

(संपर्क - डॉ. विधु खरे दास, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश), ईमेल v.kharedas@gmail.com )
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हिन्दी सिनेमा में दलित कलाकार
विवेक पाठक

अपने प्रारंभिक समय में ही भारतीय सिनेमा पर कुलीनवर्ग का प्रभुत्व स्‍थापित हो गया था। उस समय न्यू थियेटर, प्रभात फ़िल्म, आदि कंपनियाँ फिल्मों का निर्माण करती थीं। उस दौर के निर्देशक वी.शाताराम, बाबुराव पेटर, प्रशांत दामले, नितिन बोस, हिमाँशु राय, पीसी. बरुवा, ए.आर.कारदार आदि समाज की उच्‍चजातियों से आते थे। संगीत निर्देशक सी.रामचंद्र, सलिल चौधरी, अनिल बिस्वास, एस.डी. बर्मन भी इसी पृष्‍ठभूमि के थे। फिल्म अभिनेताओं में भी यही दोहराव मिलता है, जैसे - पृथ्वीराज कपूर, राजकपूर, अशोक कुमार, चन्द्रमोहन, साहू भोजक, अजित आदि। देविकारानी, दुर्गा खोटे, कानन देवी, उमा शशि, श्यामा आदि सभी फिल्म अभिनेत्रियाँ भी उच्चजातियों के कुलीनवर्ग से थीं।

हिन्दी सिनेमा में दलित समुदाय से आने वालों कलाकारों को फिल्मजगत में जगह बनाने के लिए खासी जद्दोजहद करनी पड़ी। लाइट ऑफ एशिया : इंडिया साइलेंट सिनेमा के लेखक वीरधर्मासे के अनुसार दलित परिवार से आने वाले कांजीभाई राठौड़ (जिन्होंने आजादी से पहले कई महत्त्वपूर्ण फिल्में बनाई) प्रथम सफल दलित निर्देशक हैं। दलित वर्ग के जिन कुछेक कलाकारों ने भारतीय सिनेमा के द्वार पर दस्तक दी, जिनमें प्रमुख थे, हिन्दी फ़िल्म अलबेला’ (1951) के हीरो भगवान दादा। दलित परिवार (मेहतर ईसाई परिवार) से आई उमा देवी उर्फ टुनटुन की फिल्म दर्द (1947) का गीत अफसाना लिख रही हूँ, दिल बेक़रार का…’ काफी लोकप्रिय हुआ था। वर्तमान में जानी लीवर आंध्र प्रदेश के दलित (माला) ईसाई परिवार से सम्बद्ध हैं। पीपली लाईव के हीरो ओमकार दास माणिकपुरी बुनकर (दलित) समाज से रिश्ता रखते है। राजनीतिक परिवार से आनेवाले चिराग पासवान (रामविलास पासवान के पुत्र) व दलित लेखक एच.आर.हरनोट के पुत्र गिरीश हरनोट भी फ़िल्मों में सक्रिय हैं।

पॉलीवुड (पंजाब सिनेमा) में गायक हंसराज हंस के पुत्र नवराज हंस मजहबी सिख (मेहतर) समुदाय से आते हैं। पूर्व सांसद महेश कुमार कानोड़िया गायक और उनके छोटे भाई नरेश कनोड़िया अभिनेता हैं। मलयाली सिनेमा के जनक पिछड़ी जाति (नाडर) से आने वाले जे.सी. डेनियल ने प्रथम मलयालम फिल्मविगाताकुमारन (खोया हुआ बच्चा) का सफल निर्माण किया था जिसकी नायिका पी.के.रोज़ी एक दलित ईसाई थी। भोजपुरी सिनेमा में पूनम सागर व ज्योति जाटव नाम की दो दलित नायिकाएँ सक्रिय हैं। कोलावेरी डी... के गायक धनुष दलित समुदाय से आते हैं। इसके अलावा पॉपगायक अमर सिंह चमक़िला, लालचंद यमला जट, रवि जाकू भी दलित समाज का ही प्रतिनिधित्‍व करते हैं। एक और जहाँ सिनेमा पर कपूर खानदान से लेकर खान की तिकड़ी का राज़ है, वहीं दलित कलाकारों ने सिनेमा में अपनी प्रतिभा के बल पर अपनी जगह तो बनाई है, लेकिन विभिन्‍न कारणों से इन दलित कलाकारों में हम दलित चेतना नहीं देख पाते।

(संपर्क - विवेक पाठक, वर्धा (महाराष्ट्र), ईमेल -  vivek.pathak371@gmail.com )
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फिल्मों में दलित आदिवासी जीवन
श्यौराजसिंह बेचैन

हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में फिल्मों को पहले से ही संदेह की दृष्टि से देखा जाता रहा है। कइयों को यह पश्चिमी संस्कृति की वाहक लगी हैं और इस नाते कथित भारतीय सांस्कृतिक शुद्धता को खतरा लगती रही हैं। विशेषकर स्त्रियों की चारित्रिक पवित्रता और एकनिष्ठता को भंग करने का आरोप तो इन पर लगता ही रहा है। हिंदी पत्रिकाओं के पुराने अंकों देखने से ऐसी ही कुछ चिंताएं पढ़ने को मिलती हैं। फिल्में शिक्षा, समझ और संदेश फैलाने का अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी माध्यम है। हिंदी फिल्मों में दलित और आदिवासियों का जीवन बहुत कम चित्रित हुआ है। जबकि शिक्षाप्रद श्रम और साहस की गाथाओं पर आधारित सामाजिक फिल्मों की भारी आवश्यकता है। दलित-आदिवासी समाज आज भी पूर्ण साक्षर तक नहीं है। दृश्य माध्यम होने के कारण फिल्म की कहानी का लाभ अनपढ़ या कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी उठा सकता है। इस दिशा में जो काम हुआ है, वह सामाजिक यथार्थ से परे काल्पनिक अधिक है। उसमें सच्‍चाई नजर नहीं आती। इस स्थिति की वजह क्या हैं? हमें यह जानने की कोशिशें करनी चाहिए।

एक तो फिल्मों पर चमक-दमक का इतना आग्रह हावी रहता है कि गाँव के गरीब दलित-आदिवासी को चित्रित करते हुए भी उन पर इतना व्यवसायिक दबाव या जोर रहता है कि फिल्में क्या, धारावाहिकों के गाँव भी गाँव नहीं लगते। पात्र आम व्यवहार में ऐसे लगते हैं कि चौबीसों घंटे शादी के लिए ही राजा की तरह सजे हुए बैठे हैं। जीवनीपरक फिल्मों (बायोपिक पिक्चरों) में अवश्‍य दलित आदिवासियों का जीवन चित्रित होता रहा है। इनमें कुछ यथार्थपरक कथाएं भी आई हैं। हाल ही में आई माँझी : द माउंटेन मैनको एक अच्छा उदाहरण बताया जा रहा है। किंतु इस फिल्म में कितना सच, कितनी कल्पना और कितना फिल्मीकरण हुआ है, वह ध्‍यातव्‍य है। दुर्भाग्य से दलित आदिवासी विषयक फिल्में एक तो बहुत ही कम बजट की होती हैं और दूसरे -  नामी निर्देशक, सुलझे हुए बड़े कलाकार और अभिनेता ऐसी फिल्मों में काम नहीं करना चाहते।

हिंदी के दलित-आदिवासी सिनेमा के संदर्भ में अगर हम वैश्विक परिदृश्य पर दृष्टिपात करें तो हम दलित-आदिवासियों की तरह ही अफ्रीकी-अमेरिकी अश्वेतों समुदायों को पाते हैं। इन्‍हें भी कला-संस्कृति, सिनेमा और साहित्य में उपेक्षित और वंचित रखा गया है। वैसे इन अश्वेतों की हॉलीवुड की फिल्मों में भागीदारी और इनका प्रतिनिधान का स्‍तर कहीं बेहतर है। आजादी से पहले भारत में फिल्मों की जब शुरुआत हुई तब फिल्में मूक होती थीं। किंतु आजादी के बाद भी फिल्मों में दलित आदिवासी मूक है। उनकी ओर से कोई और बोल रहा है। यही स्थिति अश्वेतों को लेकर अमेरिकन-अफ्रीकन फिल्मों की भी थी लेकिन अब वहाँ विविधता (डाइवर्सिटी) है। वहाँ अगर फिल्म में अभिनेता-अभिनेत्री गोरों के साथ काले नहीं होंगे तो बॉक्‍सऑफिस पर फिल्म चलने ही नहीं दी जाएगी। जबकि हमारे यहाँ दलित-आदिवासी फिल्म उद्योग के इलाके में पाँव नहीं रख सकते।   

(संपर्क – प्रो. श्यौराजसिंह बेचैन, दिल्ली, ईमेल - sheorajsinghbechain@gmail.com )
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दलित-आदिवासी स्त्री की त्रासदी और बड़ा पर्दा
सगीर अहमद

फिल्म सामाजिक जीवन के चित्रण का एक सशक्‍त माध्यम है। लगभग सौ साल के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा समुदाय, वर्ग आदि उसकी निगाहों से छूटा हो। सामाजिक संदर्भों के साथ-साथ अगर हम उस समय के समकालीन परिदृश्य की बात करें तो पाते हैं कि गाँधीजी के दक्षिण अफ्रीका के आगमन के साथ हमारे देश में स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु एक नया जागरण शुरू हो गया था, जिसमें स्त्री समता, अछूतोद्धार आदि की प्रक्रिया तेज हो गयी थी। इसका असर इतना व्यापक हुआ कि हिंदी सिनेमा जो अभी अपने पैरों पर खड़ा होना सीख ही रहा था, उससे बच न सका। इन परिस्थितियों ने हमें ऐसी फिल्में दी जिसने सदियों से समाज में फैली विडंबनाओं को खोलकर रख दिया। इसी समय ऐसी फिल्में बनाने की ओर प्रबुद्ध लोगों का ध्यान गया जो तथाकथित सामाजिक रूप से बहिष्कृत और हाशिए पर खड़ी जातियों को केंद्र में रखती हों। 'अछूत कन्या' (1936) और अछूत (1940) में भारतीय जातिव्यवस्था का चित्रण बेबाकी से दिखाया गया है। 'अछूत' फिल्म वास्तव में 'अछूत कन्या' का थोड़ा सा परिष्कृत रूप था। 'अछूत कन्या' में उच्चजाति का लड़का और निम्नजाति की लड़की का प्रेमसंबंध दर्शया गया है। दोनों फिल्मों में नायक-नायिका सामाजिक रूढ़ियों से लड़ते हुए अन्ततः अपने प्राणों को न्‍यौछावर कर देते हैं। यह उस समय के समाज की हकीकत थी, जो सिनेमा में उसी रूप में अभिव्यक्त हुई।

स्वातंत्र्योत्तर भारत में भी कई फिल्में आयी हैं जो दलित-आदिवासी स्त्री की जीवन गाथा को बड़े पर्दे पर दिखाती हैं, जैसे - गंगा जमुनामें दलित लड़की की शादी से पंडितजी द्वारा इसलिए इंकार कर दिया जाता है कि वह जिस व्यक्ति से प्रेम करती है उसकी जाति इसकी जाति से छोटी है। अंकुरफिल्म में एक ऐसी दलित युवती की कहानी है जो जमींदार की हवस का शिकार बनती है। मृगया में उड़ीसा के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों की कहानी है जिसमें घिनुआ (फिल्म का नायक) के समाज की स्त्रियां संभ्रांत वर्ग द्वारा हवस की शिकार बनती हैं। दामुलमें बिहार में रहने वाली दलित जातियों को राजनीतिक भ्रष्टाचार का मोहरा बनाकर पेश किया जाता है, जहाँ उन्हें अनवरत उपहास व उत्‍पीड़न का शिकार बनना पड़ता है। रुदालीराजस्थान की दलित स्त्री 'सनीचरी' के जातीय-धार्मिक उत्‍पीड़न के विविध पक्षों को सामने लाती है। बैंडिट क्वीनमें दलित स्त्री 'फूलन देवी' गाँव के ठाकुरों की पाश्‍विकता का शिकार बनती है और बाद में बंदूक उठाकर डाकू रूप में बदला लेती है। इस प्रकार सिनेमा के सौ साल के दौर में दलित और आदिवासी स्त्रियों को लेकर बनाई गयी फिल्मों को देखा जा सकता है जिनमें इनके जीवन से संबद्ध उत्‍पीड़न के विविध रूपों को देखा जा सकता है।

(संपर्क - सगीर अहमद, नयी दिल्ली, ईमेल - sageerahmadf90@gmail.com )
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हिन्दी सिनेमा में दलित-आदिवासी जीवन के यथार्थ की गैरमौजूदगी
सरदार मुजावर

हिन्दी सिनेमा में दलित किसी न किसी रुप में मौजूद रहा है क्योंकि दलित हमारे समाज का एक हिस्सा है, लेकिन उसकी प्रस्‍तुति प्रश्‍नों के दायरे में रही है। आदिवासी समाज हमारे समाज की मुख्यधारा से कभी जुड़ ही नहीं पाया, इसलिए हिन्दी सिनेमा में उसकी गैरमौजूदगी बरकरार रही। दूसरी बात यह भी है कि हिन्दी फिल्मकारों का जितना ध्यान दलितों और आदिवासियों की समस्याओं की ओर जाना चाहिए था, उस अनुपात में जा नहीं पाया। इसकी एक खास वजह यह है कि हिन्दी फिल्मकार जो फिल्में बनाते हैं, उनका प्रमुख लक्ष्य जनता का मनोरंजन होता है। ये तमाम फिल्मकार मनोरंजनके नाम पर देश की जनता से खूब पैसा बटोरते हैं। उनके लिए जीवन का यथार्थ अथवा जीवन की समस्याएँ कोई मायने नहीं रखती हैं।

आम-आदमी शुद्ध मनोरंजन चाहता है, पर देश का बुद्धिजीवी वर्ग उसमें जीवन का यथार्थ देखना चाहता है। वह सिनेमा के माध्यम से अपने समय के समाज को समझना चाहता है। जीवन की असल समस्याओं से रूबरू होना चाहता है। दिक्कत यह है कि चूँकि हिन्दी फिल्मकारों का सारा ध्यान मुनाफा कमाने और फिल्म बनाने के लिए करोड़ों रुपयों का जुगाड़ करने पर होता है, ऐसे में उसका ध्यान जीवन की समस्याओं की ओर कैसे जा पाएगा? उसका ध्यान मनोरंजन की ओर ही रहता है। ऐसे में उसमें दलित-आदिवासी जीवन का यथार्थ खोजना बेमानी हो जाता है। हिन्दी सिनेमा में दलित आदिवासी-जीवन के यथार्थ की गैरमौजूदगी की यही वजह रही है।

फिर भी हिन्दी सिनेमा में कमोबेश दलित-आदिवासी जीवन का यथार्थ देखने को मिलता है तो इसलिए कि हिन्दी सिनेमा और समाज का बड़ा गहरा संबंध रहा है। तभी तो निरंजन पाल, विमल राय, सरदार चंदूलाल शाह, राज कपूर, ओ.पी. रल्हण, तपन सिन्हा, गौतम घोष, के. विश्‍वनाथ, श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, सत्यजीत राय, सुलतान अहमद, केतन मेहता, गोविन्द निहलानी, विजय तेन्दुलकर, महबूब, उत्पलेन्द्र चक्रवर्ती, प्रदीप कृष्णा, अरुण कौल, कल्पना लाजमी, कमाल हसन, जगमोहन मूंदड़ा, विजय पवार, विधु विनोद चोपड़ा, अनुजा रिज़वी, मणि रत्नम, प्रकाश झा, आनंद पटवर्धन, आशुतोष गोवरीकर आदि फिल्मकारों ने दलितों एवं आदिवासियों की पीड़ा और शोषण को आधार बना कर जो फिल्में बनायी हैं, वे महज फिल्में न होकर अपने अपने समय का प्रामाणिक दस्तावेज बन गयी हैं।

(संपर्क - डॉ. सरदार मुजावर, सतारा (महाराष्ट्र), ईमेल - hindigazal@gmail.com )
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आदिवासी स्त्री :  हिन्दी सिनेमा का 'अजायबघर'
सविता खान

सिनेमा एक कलात्मक प्रक्रिया के तौर पर संस्कृति, व्यावसायिकता और तकनीकी उपलब्धियों का सम्मिश्रण माना जाता है। ऐसे में उससे सामाजिक अपेक्षाएँ बन ही जाती हैं। सिनेमा के इतिहास को देखते हुए यह कहना भी व्यर्थ नहीं होगा कि इसे ज़रिया, प्रोपोगैंडा और एजेंडा तीनों के ही के तौर पर भरपूर खंगाला जा चुका है और यह अब भी जारी हैं। देशभक्ति, धार्मिक संप्रेषण, सांप्रदायिकता, से लेकर इस माध्यम को अनेक सामाजिक परिवर्तनों का भी एक स्तंभ माना जा सकता है। सामाजिक परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में समानता और आधुनिकता की चेतना अहम घटकों के तौर पर उभरते हैं, यही नहीं उत्तर-औपनिवेशिक काल में समानता और पहचान की राजनीति क़रीब-क़रीब समानांतर होकर एक रोचक सी तस्वीर बनाते हैं। आज जब वैश्विक समानता और स्वतंत्र पहचान, दोनों ही राष्ट्र-राज्य के लिए ज़रूरी अवयव के तौर पर एक समस्या बनते जा रहे हैं तो ऐसे में हिंदी सिनेमा के इतिहास में आदिवासी स्त्री के चित्रण सम्बंधी मुद्दों पर बहस जरुरी हो जाती है।

क्या आदिवासी स्त्री सिर्फ़ कौतुक, अजूबे और अलग पहचान की द्योतक है या फिर बदलते राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक युग में वह भी एकल सांस्कृतिक पहचान के प्रतिबंधों से निकल पायेगी? क्या हिंदी सिनेमा उसके रंग-रुप और आरोपित मासूमियत से उसे निकलने देगा या फिर वह तक़रीबन प्रत्येक चित्रण में सिर्फ़ एक शिकार नज़र आयेगी? वास्‍तव में क्‍या 1936 की इज़्ज़त से 2013 की लायर्स डाइस तक के स्त्री किरदारों ने हिंदी व हिन्दीतर भाषाओं के सिनेमा को अपनी कोई अलग पहचान प्रदान की है जिसे सोचकर महाश्वेता देवी ने गणगौर जैसी कहानी लिखी थी? या फिर सिर्फ़ अपनी चुप्पी (मैसीसाहब की सैला) और शरीर को अलग-अलग एजेंडा के भेंट चढ़ाती रहेगी? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो आज के नवउदारवादी युग में न सिर्फ़ आदिवासी स्त्रियों के जंगलों से शहर की तरफ़ पलायन और फलस्वरूप श्रम के तौर पर एक ऐसे स्त्री मुक्ति आंदोलन का हिस्सा बन जाना भर है जिसे रेखांकित तक कर पाने में पापुलर कल्चर नाकाम और प्रतिगामी रहा है, और जिसे बनाने में हिंदी सिनेमा का बहुत बड़ा योगदान है।

आदिवासी स्त्री छोटे, तंग वस्त्र पहन या फिर वस्त्रहीन नंगे पीठ दिखाती महज़ बलात्कार की शिकार होने को बाध्य है। आख़िरकार कितने फ़िल्मकारों ने गनगौर के चोली के पीछे की त्रासदी को विभिन्न स्तरों में संदर्भित कर एक रैडिकल आंदोलन की छवि बनाने का साहस दिखाया है (गनगौर का आख़िरी दृश्य) या फिर हम इसके लिये भी आयात पर निर्भर रहेंगे? हमने अब तक हिंदी सिनेमा के माध्यम से आदिवासी स्त्री की एक स्वतंत्र चेतना की जगह गहनों, कपड़ों और शरीर का सिर्फ़ एक अजायबघर खड़ा किया है जो सिर्फ़ परदेशी को अपना दिल दे सकती है या फिर उलूल-जुलुल तरीके से हेलेन ( शोले की महबूबा क़बीलाई कामुक डांसर) से डिंपल ( बाबी की तंग कपड़ों में कौवा कटवाती) के रुप में यौन उत्तेजना, लिप्सा को जगाने का माध्यम बन सकती है या फिर एपपरोपियेट की जा सकती है।

(संपर्क सविता खान, दिल्‍ली, ईमेल savita.khan@gmail.com )
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हिंदी सिनेमा में दलित एवं आदिवासी स्त्री-अस्मिता
सुचिस्मिता जेना

सिनेमा एक ऐसी विधा है जिसके माध्यम से हमें हमारे समाज की वास्तविक छवि देखने को मिलती है। भारतीय सिनेमा की अवधि सौ वर्ष को पूरा कर चुकी है और इन सौ वर्षों के दौरान सिनेमा समय और समाज के साथ-साथ परिवर्तित होता रहा है। आज हम अत्याधुनिकता की दहलीज पर खड़े हैं पर कुछ चीजें है जिनमें विशेष परिवर्तन नहीं आये हैं और उनमें सर्वप्रमुख हैं - वर्णव्यवस्था और जातिगत भेदभाव। आज भी हमारा अतिआधुनिक शिक्षित समाज जातिव्यवस्था को मान रहा हैं। बहुत कम लोग हैं जो इसकी जकड़न से बच पाये हैं।

गाँवों के 80% लोग तो अभी भी जातिव्यवस्था को लेकर चल रहे हैं, इसके सीधे शिकार होते हैं दलित-आदिवासी। दलित- आदिवासी समाज के पुरुष, महिला और बच्चे सभी अत्याचार के शिकार होते हैं, इनमें भी ज्यादा शोषण की शिकार होती हैं दलित-आदिवासी स्त्रियाँ। और शोषण करने वाले हैं उच्चजाति के लोग, जिसे हम दलित-आदिवासी स्त्री केन्द्रित फिल्‍मों में देख सकते हैं, जैसे जगमोहन मुंधरा निर्देशित कमला’ (1984) में आदिवासी स्त्री की जार-जार होती अस्मिता को केंद्र में रखा गया है। इसमें प्रेस कॉफ्रेंस के दौरान एक रिपोर्टर के मुँह से आदिवासी महिलाओं  की शोचनीय स्थिति को प्रकट किया गया है कि आदिवासी समाज में सेक्स मुफ्त में मिलता है और आज भी स्त्री को एक जोड़ी बैल से भी कम दाम में ख़रीदा और बेचा जा सकता है।फिल्म में कमलानामक आदिवासी स्त्री को सिर्फ 250 रुपये में ही ख़रीदा और बेचा जाता है।

शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन’(1994) में दलित परिवार में जन्म लेने वाली फूलन का पूरा जीवन ठाकुरों के आतंक और अत्याचारों से गुजरता है। स्त्री होने के साथ-साथ दलित होने के कारण उसे बार-बार ठाकुरों की हवस का शिकार होना पड़ा है। जगमोहन मुंधरा की एक अन्‍य फिल्‍म बवंडर’ (2000) राजस्‍थान की एक दलित स्‍त्री भंवरी देवी पर हुए उच्‍चजातीय पुंसवादी बलात्‍कार और न्‍याय के लिए इस दलित स्‍त्री के संघर्ष को सामने लाती है। इस फिल्म में सिर्फ पुरुष ही नहीं पुलिस विभाग में काम करने वाली स्त्रियाँ भी दलित साँवरी देवी (वास्‍तविक जीवन की भँवरी देवी) का मानसिक उत्‍पीड़न करती हैं। ये तीनों फिल्‍में सत्य घटनाओं पर आधारित हैं और दलित स्त्रियों पर समाज में होने वाले अन्‍यायों का प्रत्‍यक्ष प्रमाण हैं।

(संपर्क - सुचिस्मिता जेना, पुदुच्चेरी, ईमेल- suchismitajena2012@gmail.com )
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दलित विमर्श और हिन्दी सिनेमा
सुरेश कुमार

हिन्दी सिनेमा के 100 वर्ष के इतिहास में दलितों पर ज्यादा फिल्में नहीं बनी हैं और आगे भी ऐसा नहीं लगता कि स्थिति में कोई आमूलचूल बदलाव होने जा रहा है। लेकिन आज के आधुनिक सिनेमा में वो सबकुछ दिखाया जाता है, जो कल तक आभिजात्‍य रंगमंच पर निषेध रहा था। इसलिए हिंदी सिनेमा का दलित विषयक हौव्‍वा अजीब लगता है। जब हम बॉलीवुड फिल्मों की संख्या के बारे सोचते है तो पाते है कि दलित न सिर्फ जाति के वरीयता क्रम से बाहर है अपितु सवा सौ करोड़ की जनसंख्या वाले देश के हिंदी सिनेमा में बहुजन जीवन के स्वाभाविक चित्रण तक का अभाव सचमुच चिंतनीय है। इसका एक कारण दलित समाज का सिनेमा के उपभोक्ता समुदाय में तब्दील नहीं होना भी है।

हिन्दी सिनेमा दलितों के नाम पर जो कुछ दिखाता है, उसे देखकर सिर धुनने को जी चाहता है। अगर हमारा हिंदी सिनेमा दलितों की समस्याओं को परंपरागत ढंग से लेता रहेगा और अगर अभ भी उसका नजरिया सिर्फ सुधार बना रहेगा तो सिनेमाई परदे पर दिखने वाले दलित पात्र और दलित समाज कभी भी समाज के स्वाभाविक हिस्से की तरह नहीं दिखेंगा। पुरानी फिल्मों में दलितों का जैसा चित्रण हुआ है, आज के समय में भी उनका वैसा ही चित्रण समय के साथ आगे बढ़ना तो नहीं ही होगा। आज के दौर में सवर्ण और दलित के बदलते रिश्‍तों को परखते हुए हिंदी सिनेमा द्वारा दलितों की यथार्थ स्थिति दर्शकों के सामने लाई जानी चाहिए।

हिंदी सिनेमा को इस दिशा में अपेक्षित बदलाव का माध्यम बनना होगा क्योंकि अब भी सिनेमा के माध्यम से जनता में बदलाव लाया जा सकता है और लाया भी गया है। कहा जाता है कि हिंदी सिनेमा जाति और धर्म की संकीर्णताओं से बहुत ऊपर उठ चुका है किंतु वर्तमान समय में दलित समाज के जितने भी अभिनेता/अभिनेत्री फिल्म जगत में कार्य कर रहे हैं, वे आज भी अपनी जातीय पहचान छुपाकर कार्य करते हैं। दलित समाज को आज भी हिंदी फिल्‍मों में अपने संख्‍याबल के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है। वह जिस स्‍थान का हकदार है, वह स्‍थान उसे आज भी हिंदी सिनेमा देने को तैयार नहीं दिखता। राजनीति और अर्थव्‍यवस्‍था में दलितों की बढ़ती भागीदारी के वर्तमान दौर में यह देखना दिलचस्‍प होगा कि आज का हिंदी सिनेमा इस भागीदारी का सम्‍मान कर रहा है या नहीं?

(संपर्क - सुरेश कुमार, उदयपुर (राजस्थान), ईमेल suresh169144@gmail.com )
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अमर प्रेम की गजब कहानी
हीरा मीणा

केतन मेहता निर्देशित ‘मॉंझी : द माउंटेन मैंन’ (2015) फिल्‍म में बिहार के गहलोर गॉंव का दलित वर्ग आजादी के बाद भी सूचना, शिक्षा एवं स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाओं से वंचित और उपेक्षित है। गॉंव में सेठ-साहुकारों और महाजनों के स्‍वर्णवर्गों का वर्चस्‍व है। फिल्‍म में शोषण और दयनकारी अमानवीयता से बदहाल दलित समाज के जीवन सत्‍यों का उद्घाटन किया गया है। फिल्‍म के शुरूआती दृश्यों में खून से सना हुआ नायक दशरथ पहाड़ को ललकारता हुए उसे काटकर रास्ता बनाने की कठोर प्रतिज्ञा करता है। पहाड़ को तोड़ते हुए दशरथ पुराने विचारों और ख्‍यालों में डूबता-उतरता दिखाई देता है। यहाँ से फिल्‍म फ्लैश बैक में चलती है। दशरथ खेत-मजदूरी कर अपने परिवार की रोजी-रोटी जुटाता है तो उसकी पत्नी फगुनिया घर का सारा काम-काज निपटाकर दशरथ के लिए खाना-पानी लेकर पहाड़ चढ़ती-उतरती है। एक दिन पहाड़ की उँचाई पर पैर फिसलकर गिरने से वह गम्भीर रूप से घायल हो जाती है। दशरथ 8 मील की पहाड़ी दूरी तय कर उसे अस्पताल पहुँचाता है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और वह बेटी को जन्‍म देकर मर जाती है। ऐसे में दशरथ गहलौर गाँव से वजीरगंज के बीच की दूरी कम करने के लिए पहाड़ काटकर रास्‍ता बनाने की भीषण प्रतिज्ञा करता है। वह नहीं चाहता कि फगुनिया के बाद कोई और स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में मौत की नींद सोए।

पहाड़ की कठोरता, विशालता, तेज धूप और खाने एवं पानी की कमी के बावजूद वह धासफूस खाकर फगुनिया से की प्रतिज्ञा के लिए अपनी जान लगा देता है। साहूकार का बेटा धोखे से दशरथ का अगुँठा लगवाकर पहाड़ काटकर रास्‍ता बनाने के नाम पर 25 लाख रूपये हड़प जाता है। दशरथ मॉंझी को फूटी कौड़ी तक नहीं मिलती, उलटे पहाड़ काटने के जुर्म में वह खनन माफियाओं के जाल में फंसा दिया जाता है। राजनीतिक उपेक्षाओं और प्रशासनिक भ्रष्‍टाचार के कारण बिहार के गहलोर गॉंव से पैदल चलकर दिल्‍ली में प्रधानमंत्री तक अपनी बात पहुँचाने आए दशरथ को धक्‍के मारकर वापस भेज दिया जाता है। अकाल पड़ने पर गॉंव वाले और उसके पिता तक उसे पागल करार देकर उसे छोडकर दूसरे गॉव चले जाते है, लेकिन वह हार नहीं मानता। फगुनिया की प्रेमपूर्ण यादें उसके भीतर साहस का संचार करती रहती है। अन्ततः 22वर्षों की उसकी कठिन साधना रंग लाती है। गाँववालों की शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, रोजगार और न जाने कितनी समस्‍याओं का हल अकेले दशरथ मॉझी के आत्‍मविश्‍वास और अमर प्रेम की प्रेरणा से ही संभव हो पाता है। अपनी सफलता पर वे कहते हैं कि भगवाने के भरोसे मत बैठो, क्‍या पता वह तुम्‍हारे भरोसे बैठा हो।

फिल्म बताती है कि आजादी के बाद अश्पृश्‍यता उन्‍मूलन और समानता के मौलिक अधिकार के बावजूद समाज के उच्‍च वर्गों द्वारा किस तरह दलित वर्गों को हाशियों पर धकेला गया है। दशरथ उस मुसहर समुदाय से सम्बद्ध है जो अभाव में चुहें मारकर खाते हैं। पॉव में जूते पहनकर चलने पर दलितों को सम्‍पन्‍न वर्गों और साहुकारों द्वारा राजनेताओं की उपस्थिति में जानवरों की तरह मारा-पीटा जाता है। यहाँ तक कि वे आजीवन पैरों में कुछ न पहन पाये, इसलिए उनके पैरों में घोड़े की नाल ठोक दी जाती है। इसमें दलितों में प्रचलित बाल-विवाह के चित्रण के साथ-साथ साहुकारों द्वारा सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक आधार पर किए जा रहे पीढियों के शोषण को उजागर किया गया है। पिता से कर्ज वसूली की एवज में साहुकार आठ साल के दशरथ को गिरवी/रेहन रखकर पीटता है। नतीजतन वह गाँव छोड़ भाग जाता है। आजादी के बाद छूआछूत की समाप्ति और मौलिक अधिकारों की प्राप्ति की भूलभूलैया में जब वह गाँव लौटता है तो खुशीवश साहुकार को छूने और गले लगाने पर उसे एक बार फिर बेरहमी से पीटा जाता है।

गौनाप्रथा या दहेजप्रथा के नाम पर होने वाली लड़कियों की खरीद-फरोख्त फिल्म में जगह पाती है। फगुनिया के पिता अपनी बेटी को ससुराल भेजने की एवज में दशरथ से 200 रूपये मॉंगते हैं और रूपया न मिलने पर दशरथ को मार-पीट कर भगा दिया जाता है। दशरथ मेहनत मजदूरी करके रूपयों के प्रबन्ध में जुट जाता है, लेकिन फगुनिया के पिता किसी दूसरे लड़के से 200 रूपये लेकर उसके दूसरे विवाह की तैयारी में जुट जाते हैं। ऐसे में दशरथ फगुनिया को भगा ले जाता है। दोनों का सच्‍चा प्‍यार उनके सुखी वैवाहिक जीवन का आधार बनता है। फगुनिया खिलौने बनाकर गॉव के हाट में बेचकर परिवार के आर्थिक पक्ष को बजबूत बनाने की कोशिश करती है। साहुकार का बेटा भरे बाजार उसपर अश्‍लील फब्तियॉं कसता है। मानसिक और आर्थिक रूप से सशक्त दलित स्‍त्री इसका जवाब स्‍वाभिमान और निडरता के साथ देती है। साहूकार के बेंटे की घिनौनी हरकत का दशरथ और उसके साथी मुहतोड़ जवाब देते है, लेकिन साहुकार का कायर बेटा रात के अंधेरे में दलित परिवारों के घरों में आग लगा देता है। दशरथ और फगुनिया के घर पर न मिलने पर वे लोग उसके दोस्‍त की पत्‍नी लौकी का सरेआम अपहरण कर, उसका बलात्‍कार और हत्‍या कर लाश तालाब में फैंक देते है। इस तरह फिल्म अपने आप को समाज का सबसे सभ्‍य, सम्‍भ्रांत और सम्‍पन्‍न वर्ग मानने वालों की पशुता को साक्षात उपस्थित करती है। दलित भूरा जब जलते हुए भट्टे में गिर जाता है तो ठेकेदार का बेटा भट्रटे को बुझाने से साफ मना कर देता है क्‍योंकि उसे इंसान की जान से ज्‍यादा अपनी कमाई की चिंता है। भूरा सबके सामने चीखता-चिल्लाता, छटपटाता हुआ जलकर राख हो जाता है। उसकी पत्‍नी को आर्थिक सहायता भी नहीं दी जाती। फिल्म में शोषण और दमन के शिकार व्‍यक्तियों की मुसीतबों के साथ नक्‍सलवाद की समस्‍या को भी उठाया गया है।

(सम्पर्क : हीरा मीणा, दिल्ली, ईमेल -  heerameena37@gmail.com )
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