चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
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आलेख:ज्योतिबा राव फूले का शिक्षा में क्रान्तिकारी कदम/ रजनीश मौर्य
चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा |
रूढि़वादियों द्वारा
उनके मार्ग में बहुत बाधायें एवं रोड़े अटकाये गये परन्तु ज्योति ने सभी बाधाओं और
रोड़ों को ध्वस्त करते अपने करम को अंजाम देते रहे और आगे बढ़ते रहे। एक बार तो
विरोधियों ने दो छोटी जाति के अपराधियों को ज्योति की हत्या तक करने के लिए भेजा
वो दोनों थे क्रमशः रमोशी एवं धोधीराम नामदेव। दोनों कुल्हाड़ी से जब सोये हुए
ज्योति को मारने के लिए ज्योति के नजदीक पहुँचे उसी समय ज्योति की नींद खुल गयी और
ज्योति ने पूछ ताछ किया तो पता चला कि उन्हें बरगलाकर ऐसा करने के लिए प्रेरित
किया गया है, ज्योति ने जब समझाया कि वह जो कुछ कर रहें है समाज के भलाई के लिए कर रहें है
तब दोनों ने उनका पैर छुआ और माफी मांगी तथा तब से वो दोनों ज्योति के पक्के
अनुयायी बन गये। 11 मई 1888 को बम्बई के मांडकी के कोलीवाड़ा के सभागार में भव्य नागरिक अभिनन्दन समारोह
में उपस्थित जनसमुदाय द्वारा ज्योतिबा को ‘महात्मा’की उपाधि से विभूषित किया गया। 28 नवम्बर 1890 को उनका देहान्त हो
गया। 28
नवम्बर को उनके निर्वाण दिवस के रूप में महाराष्ट्र सरकार द्वारा सार्वजनिक अवकाश
घोषित रहता है।
ज्योतिबा राव के समय
भारत को गुलाम हुए कई सदियाँ बीत चुके थे। विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा भारत पर
विजय हासिल करने हेतु पहले ही भारत के संसाधनों को नष्ट कर तलवार तीर के हिंसात्मक
प्रहार से भारतीयों को निरीह बनाये सदियों बीत चुके थे उस पर भी विदेशी शासकों
द्वारा शोषण की व्यवस्था से भारतीय इतना कमजोर हो चुके थे कि कभी उनके मन में
शिक्षा की बात उठती तक नहीं थी। ब्राह्मण केवल पढ़ता था वह भी पूजा-पाठ हवन यज्ञ
कराने तक सीमित थी, उस समय की भारतीय शिक्षा। ज्योति के पिता यद्यपि शिक्षित नहीं थे फिर भी इसाई
मिशनरियों के स्कूलों से प्रभावित हो कर 7 वर्ष की उम्र में मराठी पाठशाला में प्रवेश दिला
दिया। ज्योति कुशाग्र बुद्धि के छात्र निकले 5 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करते-करते
रूढि़वादियों ने उनके पिता को भड़काये कि ज्योति की पढ़ाई से कोई लाभ होने वाला
नहीं है पारिवारिक कामकाज में उसकी पढ़ाई बेकार साबित होगी और अंग्रेजी शिक्षा तो
बालक को पूरी तरह बिगाड़ देगी। अब तक ज्योति मराठी, हिसाब-किताब की पढ़ायी में आगे
निकल चुका था, मेधावी होने के कारण अन्य विषयों के साथ अंग्रेजी भी पढ़ने लगा था, परन्तु रूढि़वादी समाज
के दबाव में ज्योति के पिता ने उसकी पढ़ाई छुड़ा दिये। अब ज्योति घर का काम काज
देखने लगा और घर पर स्वाध्याय भी करता था। उसकी पढ़ाई की रूचि को देखकर उसके दो
पड़ोसी बहुत प्रभावित हुए एक उर्दू-फारसी के शिक्षक मुंशी गफ्फार बेग और दूसरा
इसाई पादरी लेजिट। दोनों ने ज्योति के पिता को समझा-बुझाकर ज्योति को 14 वर्ष की उम्र में सन् 1841 ई0 में पुनः मिशन स्कूल
में प्रवेश दिला दिये। वार्षिक परीक्षा में सर्वोच्च अंक पाकर ज्योति ने गुरूजनों
की प्रशंसा ही अर्जित नहीं किया वरन सबको अचम्भे में डाल दिया। ज्योति ने अपने
ब्राह्मण मित्र सदाशिव वल्लाल गोवन्दे के साथ मिलकर दोनों ने तलवार, भाला और दण्ड पट्टा
चलाना भी सीखा। ज्योति ने एकनाथ की भागवत और तुकाराम की गाथा पढ़ी। साथ ही संस्कृत में गीता लिखी, उपनिषद और पुराणों का
अध्ययन किया, पाश्चात्य विचारकों में, मिल स्पेंशर आदि के ग्रन्थों ने उन्हें प्रभावित किया,
महाराज शिवाजी,
वाशिंगटन और लूथर
की जीवनियों से उन्हें प्रेरणा मिली। टामस पेन की पुस्तक ‘‘राइट आफ मैन’’ से प्रभावशाली प्रेरणा
मिली। कुल मिलाकर आठवीं कक्षा तक ज्योति को शिक्षा मिली जो वर्तमान के बी.ए. के
बराबर थी। अपने ब्राह्मण मित्र के बारात में अपमानित होना ही उनके अर्जित शिक्षा
को कार्यान्वित करने की प्रेरणा एवं शक्ति बनी।
ज्योतिबा राव फूले का
समय भारत की गुलामी का समय था। भारत को
गुलाम बनाने में विदेशी आक्रमणकारियों को यहाँ के संसाधन नष्ट करने पड़े। इन
संसाधनों में पाँच विश्वविद्यालययथा नालन्दा विश्वविद्यालय,विक्रमशीला विश्वविद्यालय,उदन्तपुरी विश्वविद्यालय,
वलभी
विश्वविद्यालय व तक्षशिला विश्वविद्यालय को जलाकर नष्ट कर दिया गया था। भारतीयों
को आर्थिक रूप से दीन हीन, अशिक्षित बनाकर विदेशी शासक बड़ी आसानी से भारतीयों पर शासन
कर रहे थे। ज्योतिबा के समय इस्ट इण्डिया कम्पनी का भारत पर शासन था। मानव जाति के
इतिहास में अब तक राजा प्रजा की शासक रहा है परन्तु भारतीयों का यह दुर्भाग्य रहा
है कि उसे व्यापार करने वाली इस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के अधीन दिन गुजारने
पड़े। राजा का तो लक्ष्य होता था कि न्याय कर प्रजा की लोकप्रियता हासिल करना
परन्तु इस्ट इण्डिया कम्पनी का लक्ष्य था कम्पनी को धन से भर देना। ऐसी स्थिति में
भारतीयों का कितना शोषण हुआ होगा, किस हालात में भारतीय आ पहुँचे होंगे उसकी कल्पना करना भी
कठिन है। भारत को गुलाम हुए सदियों बीत चुकी थी भारतीयों के जीवन का पूर्णतया
क्षरण हो चुका था, जाति-पाति व धार्मिक अंध विश्वास में जनता जकड़ चुकी थी भारतीय, असहाय एवं दिशाहीन हो
चुके थे ऐसी स्थिति में कोई मसीहा ही इनको रोशनी दे सकता था जो सामान्य आदमी के बस
की बात नहीं रही।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी को
अपने व्यापार चलाने के लिए कुछ कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ी जिससे कर्मचारी तैयार
करने के उद्देश्य से मिशनरियों के माध्यम से स्कूल खुले जिसमें पढ़ने वाले छात्रों
को मिशनरियों के लिए छात्र ढूढ़ना पड़ता था। क्योंकि रूढि़वादी भारतीय समाज,
अंग्रेजों के
स्कूल में पढ़ना अपना धरम नष्ट करना समझती थी। ऐसी हालत में ज्योतिबा राव किसी तरह
उपलब्ध स्कूलों से तत्समय की उच्च शिक्षा ग्रहण कर चुके थे। महापुरूषों की जीवनी
ज्योति स्वाध्याय के माध्यम से पढ़ चुके थे। उनका व्यक्तित्व अब भारतीय समाज में
प्रकट होने लगा तथा लोग प्रभावित भी होने लगे थे। ज्योति समाज में सम्मानित होने
लगे थे लेकिन जब वो अपने ब्राह्मण मित्र
की बारात में अपमानित हो गये तब इस अपमान से उन्हें ज्ञान हुआ कि समाज में ऊँच-नीच,
छोटा-बड़ा का
भेद-भाव कितना भयंकर रूप ले लिया है। इसका
कारण समाज में अशिक्षा होना ही है। यह बात समझने में उन्हें कोई देर नहीं हुई। इस
अशिक्षा को मिटाने के लिए उनमें संकल्प पैदा हुआ जिसे बाद में उन्होंने अपने
पुस्तक ‘‘गुलामगिरी’’
में व्यक्त किया।
“विद्या बिना मति गई
मति बिना निति गई
निति बिना गति गई
गति बिना वित्त गया
वित्त बिना शूद्र गये
इतने अनर्थ एक अविद्या ने किये।“
ज्योति ने समाज को
शिक्षित करने का संकल्प लिया और इस संकल्प के पहले कदम के क्रियान्वयन में अगस्त 1848 में बुधवार पेठ मोहल्ला
में भिंडे के मकान में पहला विद्यालय खोला। किसी कार्य का प्रारम्भ छोटा होता है
परन्तु यदि उसमें गुण व सच्चाई होती है तो वह व्यापक रूप लेती है । यही ज्योतिबा
के द्वारा किए गए प्रारम्भिक शिक्षा कार्य बाद में क्रान्ति के रूप में व्यापक रूप
धारण कर लिया । प्रारम्भ में इस कार्य का भारतीय समाज में विरोध हुआ। छात्र व
अध्यापक ढूँढ़-ढूँढ़ कर लाने पड़े परन्तु शिक्षकों के घर पर रूढि़वादी भारतीयों ने
इतना धरना दिया कि शिक्षक स्कूल में पढ़ाई कार्य त्याग कर घर बैठ गये । फिर भी
ज्योतिबा ने हार नहीं मानी और शिक्षक तैयार करने के उद्देश्य से उन्होंने अपनी
पत्नी सावित्री बाई को घर पर पढ़ाना शुरू किया और थोड़े ही दिन में सावित्री बाई
पढ़कर-लिखकर शिक्षिका बनने योग्य हो गयी। तब ज्योतिबा ने 3 जुलाई 1851 को अन्ना साहब चिपलूनकर
के बुधवार पेठ स्थित मकान में अन्य विद्यालय खोला जिसमें सावित्री बाई मुख्य
अध्यापिका बनीं। इसी वर्ष 17 सितम्बर 1851 को रास्ता पेट में एक और विद्यालय खोला गया। 15 मार्च 1852 को वेठल पेठ में
लड़कियों का विद्यालय ज्योतिबा राव ने खोला। इस प्रकार ज्योतिबा राव ने कुल 18 विद्यालय खोले।
ज्योतिबा फूले ने अपनी
शिक्षा का काम दो तरह से करने का तरीका अपनाया। प्रथम तरीके में स्कूल खोल कर लिपि
के माध्यम से किताबों को पढ़ने-लिखने का तरीका और दूसरा मौखिक शिक्षा जो तत्काल की
हालात से निपटने की शिक्षा। स्कूल में पढ़ने की शिक्षा बच्चों को दी जातीथी और
हालात से निपटने की शिक्षा नौजवानों एवं गृहस्थों को। इस कार्य को व्यापक रूप से करने
के लिए ज्योतिबा राव ने दिनांक 27.09.1873 को ‘‘सत्यशोधक समाज’’ नाम से संस्था की स्थापना की ,
जिसका संचालन
स्वयं ज्योतिबाराव ने किया। इस संस्था के माध्यम से ज्योतिबा राव ने समाज में फैले
विभिन्न प्रकार की रूढि़वादिता, अंधविश्वास एवं अशिक्षा से मुक्ति दिलाने का कार्य प्रारम्भ
किया। 18
विद्यालय खोलने के कारण ज्योतिबा राव की समाज में एक तरफ प्रशंसा की आवाज उठी तो
दूसरी तरफ वे रूढि़वादी समाज के घृणा पात्र बने।
परन्तु ज्योतिबा ने इसकी परवाह किये बगैर अपना स्कूली शिक्षा का कार्यक्रम
जारी रखा। उनकी पत्नी सावित्री बाई जब पढ़ाने के लिए स्कूल जाती थीं तो रूढि़वादी
उनके उपर कीचड़ पत्थर आदि फेंक कर स्कूली शिक्षा बन्द करना चाहते थे परन्तु
सावित्री बाई भी दृढ़ निश्चयी महिला थीं।
अपने साथ दो-तीन जोड़ी कपड़े साथ लेकर स्कूल पढ़ाने जाया करतीं जब कीचड़
आदि से गन्दे हो जाते तो उसे स्कूल में बदल लेतीं। इस बात की समाज में फैली और
दोनों दम्पत्ति की निन्दा व प्रशंसा के रूप में समाज में चर्चा तो होती ही थी
समाचार पत्रों में भी इनकी बातें छपने लगी।
ज्योति की निगाह दुःखी,
उपेक्षित विधवाओं
पर भी पड़ी, दयालु ज्योति ने विधवाओं का पुनः विवाह की प्रथा चलाने का काम शुरू किया
यद्यपि रूढि़वादी समाज ने इसका प्रबल विरोध किया परन्तु ज्योति ने अपना अभियान
जारी रखा और ज्योतिबा के अगुवाई में दिसम्बर 1873 में पहला विधवा विवाह सम्पन्न
हआ, दूसरा
विधवा विवाह पाँच माह बाद हुआ। इन दोनों विवाहों ने समाज में हलचल पैदा कर दी,
ये बात ब्रिटिश
शासन तक पहुँच गयी और ब्रिटिश सरकार ने इस विधवा विवाह को कानूनी मान्यता देने
हेतु ‘नेटिव
मैरिज एक्ट’ पास किया। फरवरी 1871 में ज्योतिबा राव फूले ने पूना में अपने घर में विधवा
आश्रम खोला जिसकी संयोजिका उनकी पत्नी सावित्री बाई फूले बनी। बच्चों का अनाथालय
भी ज्योतिबा ने खोला। 1874 में ज्योतिबा राव फूले का अनुयायी विष्णु शास्त्री पंडित
ने विधवा ब्राह्मणी से शादी की।
19 वर्ष की अल्प आयु में
ही ज्योतिबा ने स्वयं खेती के नये प्रयोग ही नहीं किये वरन उन्होंने महाराष्ट्र के
किसानों में साहूकारों एवं जमींदारों के दमन के खिलाफ फैले असन्तोष को दूर करने के
लिए उन्हें संगठित करके किसानों को एक साल खेती नहीं करने के लिए तैयार किया
परिणाम स्वरूप ब्रिटिश सरकार ने बाध्य होकर ‘एग्रीकल्चर एक्ट’ पास किया जिसमें किसानों
को ऋण से मुक्त करना, किसान तथा साहूकारों के सम्बन्ध में सुधार आना तथा साहूकारों के फर्जी हिसाब
किताब से बचना, जिसका लाभ इस कानून से सारे देश को मिला। आधुनिक खेती के तरीके अपनाने का
प्रयोग महाराष्ट्र में ज्योतिराव ने किया और सफलता पायी। ‘‘अन्न उपजाओ’’ का नारा उन्होंने ही
दिया। देश का पहला किसान मोर्चा 1885 में ज्योतिबा राव ने गठित किया। अपने अनुयायी नरायण
राव लोखन्डे के सहयोग से मजदूरों को संगठित किया।
ज्योतिबा ने अपने ज्ञान
और शिक्षा का लाभ सभी लोगों को व्यापक रूप से पहुँचाने के लिए पत्रिका एवं
पुस्तकों का प्रकाशन कराकर उन्हें पढ़ने के लिए माध्यम बनाया। किसानों मजदूरों के
लिए ‘दीनबन्धु’
पत्रिका निकलवाने
लगे उसमें किसानों को आधुनिक तरीके से खेती करने तथा किसानों एवं मजदूरों की
समस्याओं का जिक्र किया जाता था। इससे किसानों एवं मजदूरों की समस्यायें ब्रिटिश
सरकार तक पहुँचती थी। अपनी संस्था सत्यशोधक समाज की गतिविधियों एवं विचार के लिए
ज्योतिबा ने ‘‘सतसार’’ नामक पत्रिका का भी प्रकाशन कर इसे
जनता को उपलब्ध कराने का काम किया।
ज्योतिबा और सावित्री
बाई ने जो समाज के लिए किया उसकी बुद्धजीवियों एवं प्रगतिशील समाज में बड़ी
प्रशंसा हुई इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों दम्पति ने समाज की जरूरत की सभी विषयों
पर पुस्तकें लिखकर उसका प्रकाशन कराया तथा
समाज में वितरण भी कराया जिसका व्यय सत्यशोधक समाज द्वारा इकट्ठा किये गये चन्दे
से किया जाता था। ज्योतिबा ने जो पुस्तकें लिखीं उनके नाम इस प्रकार हैं -- 1-
गुलामगिरी,
2- ब्राह्मणों की
धूर्तता, 3- किसान का कोड़ा, 4- सार्वजनिक सत्यधर्म, 5- कैफियत। सावित्री बाई फूले
द्वारा जो पुस्तकें लिखी गयी उसके नाम हैं -1- काव्यफूले, 2- शूद्रो का दुःख,
3- अज्ञान।
तत्कालीन भारत की स्थिति
के आधार एवं ज्योतिबा राव द्वारा किये गये उपरोक्त कार्यो के आधार पर यह निश्चित
हो जाता है कि भारत में पुनः शिक्षा की क्रान्ति ज्योतिबा राव फूले द्वारा की गई ।
जिसके लिए 11 मई 1888 को बम्बई के कोलीवाड़ा सभागार में भव्य नागरिक अभिनन्दन समारोह में उपस्थित
जन-समुदाय द्वारा ज्योतिबा को ‘‘महात्मा’’ की उपाधि से विभूषित किया गया।
महाराष्ट्र के पूना जिला
में 11
अप्रैल 1827 को जन्में ज्योतिबा राव फूले के पिता का नाम गोविन्द राव एवं माता का नाम
चिमन बाई था। ज्योति के समय भारत गुलामी, दीन, हीन, अशिक्षा की स्थिति में था। उस समय भारत पर एक व्यापार करने
वाली कम्पनी का शासन था, जिसका नाम था ईस्ट इण्डिया कम्पनी जो इंग्लैण्ड देश की थी।
ज्योतिबा के पिता ने ज्योति को अंग्रेज मिशनरी स्कूल में शिक्षा हेतु प्रवेश दिला
दिया। तीन वर्ष की शिक्षा ग्रहण करने के बाद भारत की रूढि़वादी समाज के विरोध के
कारण पिता ने ज्योति की पढ़ाई बन्द कराकर घरेलू काम काज में लगाने लगे। परन्तु
ज्योति की रूचि पढ़ाई में थी वह घर पर स्वाध्याय करने लगा जिससे प्रभावित होकर
उनके पिता ने ज्योति का पुनः विद्यालय में प्रवेश दिला दिया। मेधावी छात्र ज्योति
कक्षा 8 तक
की पढ़ाई पूरी कर ली जो आज के बी0ए0 के बराबर थी। ज्योति ने स्वाध्याय से राइट आफ मैन, तथा शिवाजी, जार्ज वाशिंगटन, लूथर की जीवनी भी पढ़ी और
उससे प्रभावित हुए एवं अपने देश के बच्चों
को शिक्षा देने के लिए 18 विद्यालय खोले। अपनी पत्नी को घर पर पढ़ा लिखा कर शिक्षिका
बनाया जिसका नाम था सावित्री बाई फूले। विधवाओं की पुनः विवाह की प्रथा का प्रचलन
चलाया एवं विधवा एवं अनाथ आश्रम खोला। किसानों को नई खेती का तरीका बताया। किसानों
एवं मजदूरों को संगठित कर उनकी समस्या का प्रकाशन हेतु दीनबन्धु पत्रिका छपवाने
लगे। समाज की रूढि़वादिता, अशिक्षा को दूर करने हेतु ज्योति ने ‘‘सत्यशोधक समाज’’ संस्था की स्थापना की ।
ज्योति और उनकी पत्नी ने अपनी योजना को व्यापक रूप देने के लिए पुस्तके लिखीं।
ज्योति ने गुलामगिरी, किसान का कोड़ा, ब्राह्मणों की धूर्तता, कैफियत, सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तकें लिखी।
सन्दर्भ सूची
1.चंचरीक, कन्हैयालाल, महात्मा ज्योतिबा फुले, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण
मंत्रालय, भारत सरकार पटियाला हाउस, नई दिल्ली, 2002
2.वमार्, डॉ. व्रजलाल, समाजिक क्रान्ति के ज्योति
स्तम्ब महात्मा ज्योतिराव फूले, भावना प्रकाशन,, कानपुर, 1993
3.समाज सुधारक ज्योतिबा फूले, डा सतीश शर्मा, दैनिक जागरण - 27अपेैल ,2005, वाराणसी, पृष्ठ संख्या, 8
4 Hanlon O, Rosalind, "Caste, Conflict
and Ideology: Mahatma JotibaraoPhule and Low Caste Protest in
Nineteenth-Century Western India", 2002, Cambridge University Press. page,
1,5, 88.
5 Keer, Dhananjay, "Mahatma JotiraoPhooley:
Father of the Indian Social Revolution" Popular Prakashan. 1997.
6 Mehta, Vrajendra Raj, "Political Ideas
in Modern India: Thematic Explorations", ThomaPantham, page, 113
7 Matilda Figueira, Dorothy, "Aryans,
Jews, Brahmins: Theorçing Authority Through Myths of Identity".
Published Suny Press, 2002.
8
"Life As Message". Tehelka Magazine, Vol 9, Issue 24.16 June
2012.
रजनीश मौर्य
शोध छात्र (हिन्दी),अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद –
500007,
मो.- 8332979942,ई-मेल -mail raz.bhuhindi@gmail.com