शोध:'दीवार में एक खिड़की रहती थी' उपन्यास का कथा-शिल्प/डॉ.मुकेश कुमार

 चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
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शोध:'दीवार में एक खिड़की रहती थी' उपन्यास का कथा-शिल्प/डॉ.मुकेश कुमार

चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा
‘‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’’ उपन्यास कथाकार विनोदकुमार शुक्ल का प्रतिष्ठित उपन्यास है। प्रस्तुत उपन्यास में विनोदकुमार शुक्ल जी ने जीवन-मूल्यों के प्रति आस्था तथा मूल्यों के संक्रमण के प्रति उनकी रचनात्मक चिंता के साथ-साथ मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियों के चित्रण और वर्णन को देखने दिखाने का प्रयास किया है, इसके साथ ही भाषा-शैली के नये सर्जनात्मक रूप, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक स्थिति, विभिन्न गद्य-विधाओं के शिल्प का मिश्रण और उनके कथाशिल्प पर उत्तर आधुनिकता के प्रभाव को समझाने का प्रयास प्रस्तुत उपन्यास में किया गया है। विनोदकुमार शुक्ल का कथा-साहित्य कविता और कथा के बीच की दीवार को गिरा देता है। इसमें कविता और कथा का रस मिलता है साथ ही मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियों को नये सिरे से परिभाषित ही नहीं करता अपितु जीवन-मूल्यों को बचाने की बेचैनी भी प्रस्तुत उपन्यास में दिखाई देती है। आज के कठोर जटिल समय में जहां समस्त पारिवारिक मूल्यों को ताक पर रख दिया जाता है वहां विनोदकुमार शुक्ल संवेदना और प्रेम के धागे से इसे बांधे रखने की रचनात्मक चेष्टा कर रहे हैं। ऐसा करते हुए भाषा एवं शैली का नयापन भी वे खोज कर लाते हैं। इसके माध्यम से भारत की संस्कृति, अर्थ और राजनीति को भी सामने लाते हैं। उत्तर आधुनिक कहे जाने वाले समय में वे इसमें समस्त मूल्यों को मानवीय सांचे के पैमाने में देखते हैं और उन्हीं मूल्यों को बचाने के लिए रचना में स्थान देते हैं। जिन संबंधों पर दरार पड़ गई है उन्हें संवेदना के लेप से दोबारा दुरस्त करने का प्रयास भी यहाँ दिखता है।

कवि एवं कथाकार विनोद कुमार शुक्ल अपनी रचनाओं में एक तरफ जीवन मूल्यों के प्रति आस्था व्यक्त करते हैं तो दूसरी ओर मूल्यों के विघटन के परिणामस्वरूप समाज में जो विषमता व्याप्त है उसके प्रति उन्हें गहरी चिंता है। यह बात उनके समस्त कथा साहित्य पर भी सटीक बैठती है। संवेदना के साथ व्यक्त की जा रही चिंता एक बड़े कथाकार की विशेषता है। वह समाज के सच्चाई को बेवाकी से समाज के सम्मुख रखता है। आज जो नई पूंजीवादी व्यवस्था है वह समाज में मूल्य संक्रमण की स्थिति को पैदा कर रही है। 

विनोदकुमार शुक्ल अपने कथा साहित्य में निम्न मध्यवर्ग के चित्रण के द्वारा समाज, मूल्य, अँचल के प्रति एक विशेष लगाव प्रदर्शित करते हैं। इनका साहित्य- संसार यथार्थ के समानांतर एक स्वप्निल दुनियाँ का साहित्य है। इनके साहित्य में दूध, पानी, हवा और वर्षा की तरह से सरलता एवं सहजता का अनुभव होता है। इस सहायता को बतौर मूल्य वे अपने कथा साहित्य में लाते हैं। इस सहजता के कारण ही उनके यहां कोई शोर-शराबा या अतिरेक नहीं मिलता। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से सहजता की मानसिकता के साथ जीवनदर्शन और मूल्यों को पाठकों के सामने रखते हैं। 

विनोदकुमार शुक्ल अपने समय की स्थितियों को अपने खास अंदाज में प्रस्तुत करते हें। अतः यह भी कहा जा सकता है कि उनकी रचनाएँ युगीन चेतना से प्लवित रचनाएं हैं। उनकी रचनाओं में जीवन मूल्यों के प्रति एक गहरी पीड़ा है। जिन विसंगतियों के कारण हमारा समुदाय एवं वैश्विक समाज प्रभावित हो रहा है, विनोदकुमार शुक्ल अपने कथा-संसार में उन सबको लाते हैं। 

विनोदकुमार शुक्ल के उपन्यास ‘‘दीवार में खिड़की रहती थी’’ की कथा उनके जीवन से जुड़ी है जो उनके जीवन में एक बुनियादी सच्चे प्रेम को बड़ी खूबसूरती के साथ परिभाषित करती है। जहाँ हमें आगे बढ़ना ही पड़ता है अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए। लेकिन अगर उसमें सादगी हो, प्रेम हो, तो कितना सुन्दर और अच्छा लगता है। ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ आत्मीय सहजता पैदा करने वाली रचना है। हालांकि यह उपन्यास एक धमाके की तरह नहीं आया, चुपचाप आया, न सुनी जा सकने वाली पगध्वनि की तरह, लेकिन अब इस उपन्यास का अलग तरह से होने का एहसास बढ़ रहा है। यह उपन्यास एक घरेलू प्रेमाख्यान है, जो अपने मिजाज में खास देसी यानी भारतीय है। यह एक विवाहित दम्पत्ति रघुवर प्रसाद और सोनसी की प्रेम कथा है। इस प्र्रेम कथा में कोई बड़ी घटना या घटनाओं की बहुलता नहीं है बलिक रोजमर्रा का जीवन है, परन्तु रोजमर्रा के इस जीवन में पल रहे पति-पत्नी के प्रेम में इतना रस और इतनी गरमाहट है कि कई प्रेम कहानियाँ फीकी लगने लगती हैं। संसार की ज्यादातर प्रेम कहानियाँ अविवाहितों के प्रेम पर है और उसमें वर्णित प्रेम लोकाचार के विरूद्ध रहा है। विवाहितों के प्रेम को प्रेम की कोटि में माना नहीं गया क्योंकि यह लोकाचार की लक्ष्मणरेखा के भीतर रहा। परन्तु विनोदकुमार शुक्ल ने हिंदी में कम से कम इस उपन्यास के माध्यम से यह पहली बार दिखाया है कि वैवाहिक जीवन का घरेलू प्रेम भी इतना उत्कृष्ट और जादू से भरा हो सकता है। 

परम्परागत भारतीय जीवन के इस अत्यंत जाने-पहचाने और अति परिचित सम्बंध में प्रेम की इतनी विराट दुनिया मौजूद है। इस उपन्यास में विनोदकुमार शुक्ल ने न सिर्फ कथा साहित्य को बल्कि दाम्पत्य जीवन के प्रेम को भी नया बना दिया है। इससे हिंदी उपन्यास में एक नये युग की शुरूआत हो चुकी है। जीवन मूल्यों में आस्था के कारण ही इस प्रेम में कहीं भी अश्लीलता नहीं बल्कि सादगी हर जगह देखने को मिलती है। यह सादगी सहजता के मूल्य से इनके उपन्यास में अनायास ही आ गई दिखती है। यह सहजता और सादगी एक निम्न मध्यवर्गीय जीवन के इर्द-गिर्द बुनी गई है। यहां जिन मूल्यों के संक्रमण और जीवन मूल्यों की प्रति आस्था व्यक्त की गई है, वे ठेठ निम्न मध्यवर्गीय हैं। इन्हें कभी नौकर जीवन के दायरे में, कभी दाम्पत्य प्रेम की चोहद्दी में, कभी भूख के लिए और कभी रोटी के लिए संघर्ष करते परिवार के इर्द-गिर्द रचा गया है। ‘‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’’ में दाम्पत्य प्रेम और स्वप्न यथार्थ के संगम से बनी खिड़की के माध्यम से विनोदकुमार शुक्ल प्रेम का अनूठा आदर्श प्रस्तुत करते हैं। 

प्रस्तुत उपन्यास के सन्दर्भ में मुकेश कुमार ने लिखा है-

‘‘गणित के व्याख्याता रघुवर प्रसाद अपनी निम्न मध्यवर्गीय सीमाओं में बंधकर ही जीवन को गति देते हैं, जिसका बड़ा ही रोमांचक आख्यान इस उपन्यास मंे है। यहां ‘रघुवर’ एवं ‘सोनसी’ का सहज, अनछुआ निजी प्रेम है जो कभी इनके सम्बंधें में विस्तार पाता है और कभी अपने विस्तार में इन्हें लपेट लेता है। जीवन के सरल, सूक्ष्म अनुभवों को जितनी बारीकी एवं स्थिरता में इन्होंने चित्रित किया है, वहां यथार्थ का स्थगन नहीं होता है। भाषा लेखक की कलम से मन की गहराई को टटोलने का औजार बन जाती है और कई बार मन से पास निकलकर गुफ्तगू करती नजर आती है। दाम्पत्य जीवन की हलचल पूरी रचना के केन्द्र में है, जो अनकहे प्रेम को कहने की जरूरत महसूस किए बगैर आगे बढ़ती है।’’1

यह उपन्यास जीवन के लुप्त हो रहे मूल्यों को बचाने का स्वप्न पाठकों के सामने रखता है। यह स्वप्न खिड़की के प्रतीक में उपस्थित है। इसमें अभाव को परे धकेलकर उसमें जीवन के रस को पाने का स्वप्न और आस्था दिखाती है। विनोदकुमार शुक्ल के उपन्यासों में एक खास बात है, इनके पात्र आर्थिक अभाव से पीड़ित है। यह प्रायः उनके सभी उपन्यासों में दिखता है। लेकिन संवेदना उनके हृदय में है। ‘‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’’ का नायक रघुवर प्रसाद के पिता गाँव से पैसा मंगाते हैं तब वह कहता है कि मेरा वेतन अच्छा होता तो मैं बताता कि एक पुत्र अपने पिता की किस तरह परवाह करता है। पिता की छोटी-छोटी अपेक्षाओं के सामने मैं असहाय हो रहा था। यह बोध होना उनके जीवन मूल्य का हिस्सा है। 

आज जब समाज में पारिवारिक संबंध का अभूतपूर्व क्षरण हो रहा है। विनोदकुमार शुक्ल अपनी रचनाओं में इन सम्बंधों में बची ऊष्मा को रचना और जीवन में लौटाने का प्रयास करते हैं। 

‘‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’’ उपन्यास में एक दृश्य के माध्यम से अभाव में भी बची जीवन आस्था का चित्रण देखा जा सकता है। ‘‘रघुवर की माँ छोटी सी दुबली पतली थी। दोनों के बाल सफेद हो गए थे। चलते-चलते पिता कभी माँ का सहारा लेते कभी माँ पिता का सहारा लेती ‘‘छोटू तू भी माँ के साथ क्यों नहीं चला गया ग ग ग पिता को घर के अन्दर चप्पल लाना अच्छा नहीं लगता था ग ग ग पिता आए तो आते ही छोटू ने कहा-‘‘कुत्ता आपकी एक चप्पल ले गया।’’ अरे, ‘‘हम दोनों ने ढूंढा चप्पल नहीं दिखी। आपसे कहता था अंदर खोखे में रख दीजिए माने नहीं’’। ‘‘मिल जाएगी’’ अम्मा ने कहा। अम्मा के कंधे पर धुले हुए कपड़े थे। पिता छोटू के साथ चप्पल ढूंढने गए। पीछे-पीछे रघुवर भी गए। चप्पल नहीं मिली। चप्पल का खो जाना पिता को अखर रहा था। फिर भी उन्होंने ‘रघुवर’ की माँ से कहा ‘‘छः महीने हो गए बहुत पहन ली।’’ जवाब में रघुवर की माँ कहना चाहती थी ‘‘छः महीने नहीं दो महीने हुए हैं।’’ पर नहीं कहा।’’2

यह उपन्यास अंश एक समूचा दृश्य है। इस दृश्य में एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार की अभाव गाथा कही गई है। घटना रघुवर प्रसाद के पिता की चप्पल के खो जाने की है। खो जाना उस संदर्भ में नहीं है क्योंकि यहां कुत्ता एक चप्पल घर के बाहर से उठाकर भाग जाता है। यह सामान्य सी घटना परिवार की स्थिति के साथ उनके आपसी संबंधों को पाठकों के समक्ष आसानी और सहजता से रख देती है। पिता को चप्पल का खो जाना अखर रहा था। फिर भी वो बोले ‘‘छः महीने हो गए हैं बहुत पहन ली यह कहना खुद को उस अखरने की पीड़ा से अलगाने का उपक्रम सा है। माँ को जो कहना था वह उसने नहीं कहा। कहना चाहते हुए भी न कहना इस तनाव को कम रखने का प्रयास है। तनाव इस बात में आ रहा है कि अगर चप्पल अन्दर खोखे में रखी जाती तो शायद यह नहीं होता। 

विनोदकुमार शुक्ल घटनाओं में छिपी मार्मिकता को अलग से चित्रित नहीं करते। वे मार्मिकता को इतनी सहजता से रख भर देते हैं मानों कोई सामान्य सी बात कह रहे हों। माँ का कथन छोटा भले ही हो लेकिन उस लघुता में बड़ी मार्मिकता छिपी है। यह निम्न मध्यवर्गीय जीवन मूल्यों पर लेखक की आस्था और मूल्यों के संक्रमण दोनों स्थितियों को दिखाने वाली कला है। इस मूल्य संक्रमण के दौर में भी परिवार संस्था के प्रति लेखक और तद्अनुरूप पात्रों के आचरण को देखा जा सकता है। आज जब परिवार का मतलब पति-पत्नी और बच्चे ही बचा है तब पिता के लिए चप्पल लाने का पैसा ‘सोनसी’ रघुवर प्रसाद को देती है। यह जीवन मूल्यों के प्रति आस्था का द्योतक है। इस समय समाज में हो रहे परिवर्तन और उसमें परिवार संस्था के सम्बंध में आये बदलाव के विषय में सदाशिव श्रोत्रिय ने अपनी पुस्तक ‘‘मूल्य संक्रमण के दौर में’’ एक अध्याय में लिखा है-
‘‘भारतीय परिवार की भी, जिसका कि मूलाधार ही निस्वार्थ स्नेह व कर्तव्यपालन रहा है। इस सर्वव्यापक आत्मकेन्द्रिता की चपेट में आए बिना नहीं रह पाई है। पश्चिमी देशों की भाँति हमारे यहां भी परिवार का अर्थ केवल पति, पत्नी और बच्चे होता जा रहा है। हर पत्नी अब यह चाहती है कि उसके इस परिवार में देवर, जेठ, ननद आदि का दखल न हो और लड़की को ससुराल के लिए विदा करते समय उसके माँ-बाप भी अब सामान्यतः यह चाहते दिखते हैं कि उसे अपने ससुराल वालों का भार कम से कम उठाना पड़े। परिवार क स्वार्थ अब पति-पत्नी और बच्चों तक केंद्रित हो जाने का परिणाम यह हुआ कि संयुक्त परिवार आड़े समय में अपने कई सम्बंधियों की पहले जो सहायता सहज रूप से कर दिया करता था उस सहायता से आज व्यक्ति लगातार वंचित होता जा रहा है।’’3 इस स्थिति में कथाकार विनोदकुमार शुक्ल के पात्र पारिवारिकता को बचाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। 

दाम्पत्य प्रेम के अनेकानेक दृश्य ‘‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’’ में लेखक रचता है। यह रचाव वर्तमान जीवन में इस तरह के भावों और घटनाओं के कम होते जाने और उसके बाद उन भावों के बने रहने के रचनात्मक प्रयास के रूप में भी देखे जा सकते हैं। जीवन के प्रति आस्थावान रचनाकार ही समाज के यथार्थ चित्रण के स्वप्न को रखता है। ‘रघुवर प्रसाद’ और ‘सोनसी’ के प्रेम के दृश्य इसी रूप में देखे जा सकते हैं-

‘‘रघुवर प्रसाद जैसे-जैसे पत्नी के पास बढ़ते जाते हैं, चिड़ियों का कलरव बढ़ता जाता है, बंदरों का कहीं दूर हुप! हुप! सुनाई दे रहा था कहीं बिल्कुल पास हाथी के चिघांड़ने की आवाज भी सुनाई दी। रघुवर प्रसाद के पैर के हल्के धक्के से कपड़े से भरी बाल्टी लुढ़क गई और साबुन की नई बट्टी रैपर से लिपटी तालाब के अन्दर चली गई। रघुवर प्रसाद को लगा कि उन्होंने साबुन की बट्टी को पानी के अन्दर जाते देखा है, पर वे भूल गए। पत्नी को पास पकड़े हुए एक ऊंची सूखी जगह पर वे आ गए।’’4

यहां रघुवर प्रसाद के जीवन में जो सादगी है एवं जो पत्नी के प्रति सादगी भरा प्यार है वह हमारे संस्कार के साथ हमारे जीवन के मूल्य बन जाते हैं। विनोदकुमार शुक्ल के उपन्यासों में यह सादगी दिखाई देती है। इनके लेखन में कल्पना और यथार्थ में कोई अन्तर नहीं है। इनका यथार्थ कल्पना सरीखा है और कल्पना यथार्थ जैसा। जीवन के प्रति जो यथार्थ और दर्शन है वह इनकी रचनाओं में देखने को मिलता है। साधारण पाठक तो यह समझ ही नहीं पाता कि कहां पाठक, गांव के जीवन दर्शन की बात करता है, किस प्रकार जीवन मूल्यों को लेखन में समेटता है। यह समेटना जीवन मूल्यों के प्रति उनकी आस्था और मूल्यों के संक्रमण के लिए उनके मन की चिंता को प्रकट करता है। 

जीवन के प्रति आस्था के संदर्भ में यह तथ्य भी सामने आता है कि ग्रामीण जीवन और प्रकृति के प्रति साहचर्य विनोदकुमार शुक्ल के उपन्यासों में लगातार दिखाई पड़ता है। यह ग्रामीण जीवन और उस जीवन की सहजता के प्रति लेखक के आग्रह के साथ मूल्य और आस्था के कारण भी सम्भव हो रहा है। ‘‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’’ उपन्यास में खिड़की के पार एक बूढ़ी अम्मा चाय बनाती है। इस चाय में से धुंए जैसी गंध आती है। उस चाय को रघुवर प्रसाद महाविद्यालय के विभागाध्यक्ष को भी पिलाने ले जाते हैं। ग्रामीण जीवन और उसके मूल्यों को इस अंश में देखा जा सकता है-

‘‘छोटी सी चाय की दुकान थी। चाय चूल्हे पर बनती थी। बूढ़ी अम्मा चावल पछोर रही थी। ‘‘बूढ़ी अम्मा दो चाय बना दो।’’ सामने बड़े-बड़े पत्थर रखे थे उसी पत्थर पर दोनों बैठ गए। बूढ़ी अम्मा ने चूल्हे में लकड़ी छैना डालकर आग को परचाया और एक छोटी एल्यूमिनियम की पतीली में चम्बू से पानी डालकर चूल्हे में चढ़ाया। बूढ़ी अम्मा काले रंग की थी। पूरे बाल सफेद थे। चेहरा झुर्रियों से भरा था। झुर्रियां लकीरों जैसी थीं। दो कप-बसी में अम्मा ने चाय दी। एक कप की डंडी टूटी थी। इस टूटे कप को रघुवर प्रसाद ने अपने लिए रखा। चाय में धआंइन-धआंइन गंध थी। पर चाय अच्छी थी। विभागाध्यक्ष को चाय बहुत अच्छी लगी।’’5

यह ग्रामीण स्वाद का सौंदर्य है। इसे पाने के लिए सपनों की खिड़की के पार जाना पड़ता है। जिसे रघुवर प्रसाद पा सकते हैं और विभागाध्यक्ष को दिलवा सकते हैं। यह जीवन के प्रति उनकी आस्था और मूल्यों के संक्रमण के प्रति उनकी चिंता को भी दिखाने वाली पंक्तियां हैं। रघुवर प्रसाद टूटी डंडी वाला कप खुद लेते हैं और विभागाध्यक्ष को डंडी वाला कप पकड़ाते हैं। यह एक सामान्य सी घटना हो सकती है लेकिन अभी वह रघुवर प्रसाद के मेहमान हैं। यहां बड़े और अतिथि के प्रति सम्मान का भाव भी देखने को मिलता है, जिसे उपन्यासकार ने बिल्कुल मामूली ढंग से रचना में रख दिया है। इस मामूलीपन में निहित मार्मिकता है जिसे लेखक चित्रित करने में नहीं चूकते। इस मामूलीपन में ही जीवन को स्वाभिमान के साथ जीने की सीख भी विनोदकुमार शुक्ल देते हैं। 

सन्दर्भ
1. मुकेश कुमार, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थीं’ पर एक पाठक की निजी प्रतिक्रिया, सापेक्ष 51, सम्पादक महावीर अग्रवाल, पृ. 242
2. विनोदकुमार शुक्ल, ‘‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’’, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2007, पृ. 72
3. सदाशिव श्रोत्रिय, मूल्य संक्रमण के दौर में, बोधि प्रकाशन, संस्करण 2011 पृ. 48
4. विनोदकुमार शुक्ल, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, वाणी प्रकाशन संस्करण 2007, पृ. 50
5. विनोदकुमार शुक्ल, ‘दीवार में एक खिउ़की रहती थी’, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2007, पृ. 46

डॉ. मुकेश कुमार
स्नातक शिक्षक (हिंदी विभाग),शिक्षा निदेशालय
दिल्ली सरकार,ई-मेल:rs.sharma642@gmail.com

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