आलेख:गाँधी और समकालीन हिन्दी कविता/सौरभ कुमार

चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
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आलेख:गाँधी और समकालीन हिन्दी कविता/सौरभ कुमार

 चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा
महात्मा गाँधी के विचार और व्यवहार का गहरा प्रभाव भारतीय साहित्य पर द्रष्टव्य होता है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में महात्मा गाँधीनायक के रूप में उभरते हैं। स्वाधीनता आंदोलन को उच्च-मध्यवर्ग की चौखट से जन-जन तक ले जाने वालेभागीरथीगाँधी जी हैं। इनके नायकत्व में आम जनता आंदोलन से जुड़ती चली गयी और यह राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरूप ले सका। दरअसल गाँधी ऐसे जननेता के रूप में उभरते हैं, जो बहुसंख्यक जनता की वेशभूषा और उसकी भाषा में ही उससे संवाद स्थापित करता है। भारतीय गाँवों के हालात को समझते हुए मशीन के बरक्स कुटीर उधोग की वकालत करता है। साम्प्रदायिक ताकतों से जूझ रहे राष्ट्र को असाम्प्रदायिक राष्ट्रीय प्रतीक चरखादेता है। भारतीय संस्कृति की उपज बुद्ध-महावीर के सत्य, अहिंसा और प्रेम को स्वाधीनता आंदोलन का हथियार बनाता है। हृदय परिवर्तन से सामाजिक समता की परिकल्पना इंसानियत में अटूट आस्था को द्योतक है। इंसानी ताकतों पर भरोसा करने वाला ऐसा नेता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता है। औपनिवेशिक ताकतों के खिलाफ सर्वोदय और सत्याग्रह के सिद्धांत लेकर खड़ा होना उनके असीम साहस का परिचायक है। इन मानवीय गुणोंके साथ भारतीय स्वाधीनता आंदोलन और राजनीतिमें उतरे गाँधी जी से प्रभावित होना लाजिमी है। यह सम्भवतः पहली कोशिश होगी, जब इतने बड़े आंदोलन का नेतृत्व इन मानवीय गुणों के आधार पर की गई। अकारण नहीं है कि गाँधी जी इसके पर्याय हो गये। कवियों ने गाँधी के अभिनव प्रयास में आस्था प्रकट करते हुए रचनाओं में उन्हें स्वर प्रदान किया। मैथिलीशरण गुप्त लिखते हैं

तुने हमें बताया-हम सब एक
                        एक पिता की है संतान
                        हैं हम सब भाई-भाई ही
                        हैं सबके अधिकार समान ।”1

मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, श्रीधर पाठक, सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर आदि कवियों ने गाँधी जी के मंत्र को बार-बार दोहराया। दिनकर के रश्मिरथीमें साध्य ही नहीं, साधन कीभी पवित्रता के गाँधी के सिद्धांत पर बल दिया गया है
आदमी बड़ा वह है, जो कर्म-पथ का पथिक है
                                                  …….…………….……………
                    श्रम है केवल सार काम करना अच्छा है।”2

स्वाधीनता के बाद की कविताओं में गाँधी की उपस्थिति तो है, परन्तु बदले परिधान में है। यहाँ गाँधी देश की विडंबना बोध के साथ आते हैं। जिन औजारों का प्रयोग गाँधी ने जनता में आत्मविश्वास पैदा करने के लिए किया, वे आजादी के बाद लाचार-सी लगने लगी। मुक्तिबोध की कविता अंधेरे मेंगाँधी जीइस रूप में आते हैं
वह मुख अरे, वह मुख, वे गान्धी जी।।
                      इस तरह पंगु ।।
                      आश्चर्य ।।”3

आजादी के बाद की परिस्थितियों में गाँधी बार-बार याद आते हैं। कहीं संकट के क्षणों में साहस की पुंज की तरह, कहीं त्रासदी के रूप में अथवा कहीं उनके नाम के बेजां इस्तेमाल के रूप में परन्तु स्वाधीनता आंदोलन की कविताओं के समान समकालीन हिन्दी कविता में गाँधी की विचारधाराओंका प्रभाव न के बराबर दिखती है। हिन्दी कविता जगत में गांधीवादी विचाधारा’, ‘हिन्दी साहित्य और गांधीदर्शन’, ‘भारतीय साहित्य में गांधी का प्रभावआदि कई आलेख, साहित्यिक शोध हुये हैं, जिसमें गाँधी दर्शन के प्रभावों का विश्लेषण किया गया है। परन्तु आजादी के बाद की हिन्दी कविताओं में गाँधी की उपस्थिति पर आलेख अथवा शोध न के बराबर मिलते हैं। जबकि आजादी के बाद की कविताओं में किसी राजनेता अथवा समाज सुधारक के रूप में गाँधी सर्वाधिक उल्लेख होने वाले व्यक्तियों में एक हैं। एकाध आलेख कहीं प्राप्त होते भी हैं, तो वह स्वाधीनता पूर्व के साहित्य में गाँधी के प्रभावों तक ही सिमट जाता है। टूटन, धूर्तता, त्रासदी के साथ समकालीन हिन्दी कविताओं में गाँधी की उपस्थिति का अध्ययन समकालीन परिस्थितियों को गहराई से समझने का बोध पैदा करता है। नागार्जुन अहमदाबादशीर्षक कविता में लिखते हैं
मैं सुनता हूँ पुण्यात्मा बापू की कराह
मैं सुनता हूँ गोडसे-गोत्र की वाह-वाह
              मैं सुनता हूँ आहत जन-मन की घुटी आह
              मैं देख रहा अपनी लापरवाही अथाह
              मैं देख रहा भारत माता का गात्र-दाह
              मैं देख रहा देसी प्रभु की कानी निगाह।”4

अहिंसा से स्वाधीनता आंदोलन को मजबूत करने वाले गाँधी की हत्या आजाद भारत में हिंसा से होती है। क्या यहआजादी के बाद भारत में साम्प्रदायिक ताकतों के हावी होते जाने की ओर संकेत नहीं करती है, जिसे नागार्जुन गोडसे-गोत्रकहकर संबोधित कर रहे हैं। राम-रहीममें एकता स्थापित करने वाले गाँधी की आजाद भारत में हत्या बार-बार हुई है। गाँधी के राष्ट्र की संकल्पना में सभी धर्मों की समान जगह है। एक राष्ट्र का मतलब एक धर्म नहीं होता है बल्कि विभिन्न धर्मों वाले लोगों को एक साथ रहने से एक राष्ट्र का निर्माण होता है। हिंदु-मुसलमान विवाद पर गाँधी का साफ कहना था कि –“हिन्दुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं, उससे वह एक राष्ट्र मिटने वाला नहीं है। जो नये लोग उसमें दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुलमिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जाएगा। ऐसे मुल्क में दूसरे लोगों को समावेश करने का गुण होना चाहिए। हिन्दुस्तान ऐसा था और आज भी है।”5आश्चर्य होता है कि इन बुनियादों पर आजादी हासिल करने वाले भारत की राजनीति अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के घेरे में सिमटी है। गुलाम भारत में राजनीतिक नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार के साथ साहित्यकार अपनी लेखनी से अंग्रेजों की नीतियों का विरोध कर रहा था। राजनीतिक नेता, सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार साहित्यकार की आवाज को जनता तक पहुँचा रहे थे, जिसे गाँधी के विचार सम्बल औरनयी दिशा दे रहा था। परन्तु आजादी के बाद जनता की लड़ाई में साहित्यकार अकेला होता गया।धूमिल इस दर्द को बयां करते हुए सहीकहा है कि सभी चले गये सत्ता के पक्ष में,विपक्ष में रह गयी केवल कविता। इस स्थिति में जब राजनीतिज्ञों के लिए नीतियों की तिलांजलि देते हुए राज करना ही प्रमुख रह गया है। सत्ता हासिल करना मुख्य ध्येय बन चुका है, तो साहित्यकार किस कसौटी पर गाँधीवादी दर्शन का चित्रण कर सकता है। उसकी आँखें तो यथार्थ से नम हो जाती हैं

अपनी लोकसभा के अंदर
                  अपनी पर-लोकसभा के अंदर
                  उनके श्री मुखकभी क्या थकते हैं।
                  उनके प्रचार-यंत्र कभी क्या रूकते हैं।
                  मक्कार हैं वे, शत-प्रतिशत फरेबी,
                  बापू की समाधि के समक्ष नाहक ही झुकते हैं
                  जभी तो हमें हँसी आती है....
जभी तो हमें रूलाई आती है.....”6

व्यक्तिगत जीवन में अत्यन्त धार्मिक होते हुए भी साम्प्रदायिक ताकतों की तीखी पहचान गाँधी जी को थी। वे भारतीय परिवेश में इसके खतरों और इसके बेजां लाभ उठाने वालों के प्रति शंकित रहा करते थे। इसलिए वे सिर्फ राजनीतिक मोर्चे की मजबूती पर्याप्त नहीं समझते थे।देश के सर्वांग विकास के लिए सामाजिक उत्थान को भी उन्होंने बराबर महत्व दिया।शराब की खुली बिक्री पर रोक, महिला शिक्षा, छुआछूत की भावना का परित्याग, शिक्षा के सही मायने का प्रचार-प्रसार, मातृभाषाको बढ़ावा देना, वकील-डॉक्टरों से अपने पेशे की ईमानदारी आदि सामाजिक मुद्दे राजनीतिक एजेंडे के केन्द्र में थे। एक प्रकार से गाँधी जी ने सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन की परिधि को एक ही धुरी पर कस दिया था। उनके कोश में सामाजिक उत्थान की भावना के बिना राजनीति का विशेष अर्थ नहीं है। आजादी के बाद यह धुरीढ़ीली पड़ती गयी। राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ सामाजिक जिम्मेदारियों पर हावी होने लगी। गाँधी की विचारधारा गाँधी-वाड़मयमें संकलित करके उसे पुस्तकालयों और गाँधी-प्रतिष्ठान की अलमारियों में कैद कर दिया गया। यह शोध का विषय हो सकता है कि देश के लगभग पुस्तकालयों में उपलब्ध संपूर्ण गाँधी वाड्मयकितनी बार निर्गत हुआ है। यह शोध गाँधी के नाम के बेजां इस्तेमाल और उनकी विचारधाराओं के प्रति रूझान के दिलचस्प नतीजे सामने ला सकते हैं। गाँधी-प्रतिष्ठान की पुस्तकालयों में गाँधी-वाड्मयको धूल फाँकते सहजता सेदेखा जा सकता है। अन्य संस्थाओं के पुस्तकालय कर्मचारी कई वर्षों तक अलमारी में संग्रहित इस ग्रंथ के औचित्य के प्रति भ्रमित रहते हैं। गौर से देखा जाए तो भारत में विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं में महापुरूषों पर कब्जे की होड़ लगी है। यह होड़महापुरूषों की विचारधाराओं से कोसों दूर नाम तक सीमित है। इसमें स्थिति अक्सर कारूणिक हो जाती है जब उन्हीं के नाम के तले उनके ही आदर्शों को कुचला जाता है। इस श्रेणी में गाँधी जी का दोहन सर्वाधिक हुआ है। समकालीन हिन्दी कविता इसे बड़ी ही बेचैनी से दर्ज करती है
मैं नाम तुम्हारा बेचूँगा
                       मारूँगा तुमको रोज-रोज
                       बापू । तुमको जो अप्रिय थे
                       वह काम करूँगा खोज-खोज।”7

दरअसल यह समय विचारधाराओं के नाम पर अपनी रोटियाँ सेकने का समय है। उसे संदर्भों से काट कर स्वहित में उपयोग करने का समय है। ऐसी परिस्थितियों में समकालीन कवि उनकी विचारधाराओं का बीजवपन कैसे करे। कथ्य और शैली में विनयस्त करने की जगह वह यथार्थ प्रकट करना ज्यादा उचित समझता है। यथार्थ के अनुभव के बिना विचारधारा की देहरी नहीं सूझती है। कुछ लेखक-आलोचकों को गाँधी-नाम दिखते ही सत्य, अहिंसा, त्याग के आदर्श स्मरण हो आते हैं और वह साहित्य में गाँधी के प्रभावों की तलाश करने लगते हैं।इस तलाश में मैथिलीशरण गुप्त के समय-समाज और केदारनाथ अग्रवाल के समय-समाज में फर्क करना भूल जाते हैं। समय-समाज के विवेक का अभाव राष्ट्र कवि और जन-कवि की कविताओं की विवेक सम्मत विश्लेषण पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान गाँधी के विचार नयी दिशाप्रदान कर रहे थे। औपनिवेशिक ताकतों और आंतरिक कमजोरियों से ग्रस्त भारतीय समाज गाँधी के विचार और व्यवहार से प्रभावित इनसे लड़ने के लिए एक छत के नीचे इकट्ठे हो रहे थे। कवि इन प्रयासों से कदम मिलाते हुए इनके विचारों को अपनी लेखनी से स्वर प्रदान करता है

जय नव मानवता निर्माता
   प्रयाण तुर्य बज उठे
                             सत्य अहिंसा दाता,
                            पटह-तुमुल गरज उठे
                         जय है, जय है शांति अधिष्ठाता।”8

मानवता, सत्य, अहिंसा, शांति को स्वर प्रदान करतीसुमित्रानंदन पंत की उपर्युक्त कविता गांधी की विचारधाराओं से प्रभावित है और देश-समाज के प्रति आस्था व्यक्त करती है। समकालीन कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविता में गाँधी की अहिंसा इस रूप में आती है
मारा गया
                                  लूमर लठैत
                           पुलिस की गोली से
                           किया था उसने कतल
                           उसे मिली मौत
                           किया था कतल पुलिस ने
                           उसे मिला इनाम
                                  प्रवचन अहिंसा का
                                  हो गया नाकाम ।”9

द्रष्टव्य है कि स्वाधीनता आंदोलन की कविताओं में गाँधी जी के विचार आकार ले रहे हैं। कवि उन विचारों में विश्वास व्यक्त करते हुए उसे ध्वनित कर रहा है, जबकि समकालीन हिन्दी कविता में गाँधी जी के मूल्य टूटता सा प्रतीत हो रहा है और विडंबनाबोध के साथ गाँधी जी के मूल्य दर्ज हो रहे हैं। इसे स्वाधीनता आंदोलन की रचनाओं के तर्ज पर गाँधी जी के प्रभाव के रूप में नहीं देखा जा सकता है।इस समझ के अभाव में समकालीन कविता के मुकम्मल मर्म तक नहीं पहुँचा जा सकता है।
    यह ध्यान देने वाली बात है कि आजादी के बाद समय-समाज और व्यवस्था पर लिखी गयी सर्वाधिक प्रसिद्ध तीनों लंबी कविताओं में गाँधी का मिथकीय प्रयोग है। इन मिथकों को इन तीनों कविताओं के कालक्रम में समझना दिलचस्प होगा। मुक्तिबोध की कविता अंधेरे मेंशुरू के दौर की लंबी कविताओं में एक है। इसमें संकट कीस्थिति के बोध और जनता की शक्ति में गाँधी के विश्वास के संदर्भ में गाँधी का मिथकीय प्रयोग हुआ है

वह मुख-अरे, वह मुख, वे गान्धी जी ।।
                   इस तरह पंगु ।।
                   आश्चर्य ।।
                  ...............
                  वे कह रहे हैं-
                  जनता के गुणों से ही सम्भव
                  भावी का उद्भव”10
धूमिल की लंबी कविता पटकथा’  में
मैंने अहिंसा को
                  एक सत्तारूढ़ शब्द का गला काटते हुए देखा
                  मैंने ईमानदारी को अपनी चोरजेबें
                  भरते हुए देखा”11
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की तीन खंडों में लिखी लंबी कविता कुआनो नदीमें
घर के पिछवाड़े बँधी
                   गाँधी जी की बकरी मिमियाती है
                   और कहीं गोली चलने की आवाज आती है”12

उपर्युक्त कवियों की तीनों लंबी कविताएँ उनकी प्रतिनिधि कविता है। अंधेरे मेंकविता मेंस्वार्थों से भयानक रूप से घिरे हुए राजनेता, वकील, कवि और भ्रष्ट अफसर द्वारा गाँधी के रामराज्यकी परिकल्पना की बुनियाद को पंगु कर देने के संदर्भ में गाँधी का मिथकीय प्रयोग किया गया है। साथ ही इसमें जनता के प्रति उम्मीद व्यक्त है। सतत् प्रयासों से जनता को अपनी शक्ति का बोध होगा और वह जागरूक, शिक्षित होकर बेहतर भविष्य का निर्माण करेगी। पटकथामेंगाँधी के अस्त्र-शस्त्रों से आम जनता को लूटा जा रहा है। अहिंसा, ईमानदारी, सद्भाव आदि मूल्यों में यकीन रखने वाले लोगों का गला उसी से रेता जा रहा है। गाँधी के शिष्यों के द्वारा गाँधीवादी मूल्यों पर बनी संस्थाएँ सच्चे मायने में उनमें विश्वास करने वाले को लूटा है। रघुवीर सहाय हिंसानामक कविता में इस वास्तविकता को यूँ बयाँ करते हैं –‘पर गाँधी के शिष्यों ने फिर-फिर कर प्रहार, हिंसा का निश्चित किया देश-भर में प्रचार।अपातकाल के दौर में प्रकाशित कविताकुआनो नदीमें गाँधी का मिथकीय प्रयोग देश में गाँधीवादी मूल्यों की बेबसी और लोगों द्वारा उस पर शेष विश्वास समाप्त हो जाने के संदर्भ में हुआ है। यहाँ तक आते-आते गाँधी के स्वाधीनता आंदोलन के सफल अस्त्र-शस्त्र इतने मजबूर हो गये किमजबूरी का नाम महात्मा गाँधीमुहावरा प्रचलित हो गया। शताब्दी के महानतम सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन का नेतृत्व करने वाला नायक अपनी ही धरती पर हँसी-मजाक का पात्र बनता चला गया। सर्वेश्वर लोक शैली में रचितचुपाई मारौ दुलहिनकवितामें इसे बड़े ही तल्ख अंदाज में दर्ज करते हैं
दे आजादी

                           किसके बल पर
                           दुखिनी कहलाती शहजादी ?
                           गाँधी जी के चेला के।”13

सत्य, अहिंसा, शांति, सत्याग्रह, वसुधैव कुटुम्बकम के मूल्यों को पोषित करनेवाली धरती के युवा इनके आड़ में चलनेवाले षड्यंत्रों के तले कुचले जा रहे हैं। इस स्थिति में गाँधी दर्शन से मोहभंग स्वाभाविक है। मोहभंग की स्थिति में कवि आस्था की कविता कैसे लिखे? वह तो नई पीढ़ी को जज्ब कर रहा है
ये नई पीढ़ी पे निर्भर है वही जजमेंट दे।
फलसफा गाँधी का मौजूँ है कि नक्सलवाद है।।”14

सौरभ कुमार
शोध छात्र (हिन्दी विभाग),अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद
संपर्क सूत्र – 7726852234, ई-मेल:saurabh15190@gmail.com

संदर्भ सूची
1.   हिन्दी कविता जगत में गाँधीवादी विचारधारा (लेख) डॉ. पठान रहीम खान, शोध ऋतु (सितंबर-अक्टूबर अंक -2015–ISSN NO 2454-6283) में प्रकाशित, पृ.सं.-7.
2.       वही, पृ.सं.-10.
3.       चाँद का मुँह टेढ़ा है गजानन माधव मुक्तिबोध, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2008 संस्करण, पृ.सं.-277.
4.      अहमदाबाद कविता, नागार्जुन रचनावली, भाग-2, शोभाकान्त (सं.), राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2003 संस्करण, पृ.सं.- 33.
5.   हिन्द स्वराज मोहनदास करमचंद गाँधी, अमृतलाल ठकोरदास नानावटी (अनु.), नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, 1949 संस्करण, आवृत्ति 2011, पृ.सं. – 31.
6.     पटनायक नागभूषण कविता, नागार्जुन रचनावली, भाग-2, शोभाकान्त (सं.), राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2003 संस्करण, पृ.सं.- 273.
7.    बतला दो बापू, क्या थे तुम ? कविता, नागार्जुन रचनावली, भाग-2, शोभाकान्त (सं.), राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2003 संस्करण, पृ.सं.- 41.
8.     हिन्दी कविता जगत में गाँधीवादी विचारधारा (लेख) डॉ. पठान रहीम खान, शोध ऋतु (सितंबर-अक्टूबर अंक -2015 - ISSN NO 2454-6283) में प्रकाशित, पृ.सं.- 9.
9.  अहिंसा कविता, केदारनाथ अग्रवाल, प्रतिनिधि कविताएँ, अशोक त्रिपाठी (सं.), राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली,2010 संस्करण, पृ.-119.
10.   चाँद का मुँह टेढ़ा है गजानन माधव मुक्तिबोध, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2008 संस्करण, पृ.सं.- 277-278.
11.   पटकथा धूमिल, कविता कोश (www.kavitakosh.com)वेब से उद्धृत.
12.  कुआनो नदी (कविता), सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ग्रंथावली, भाग-2, वीरेन्द्र जैन (सं.), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004 संस्करण, पृ.सं.-32.
13.   चुपाई मारौ दुलहिन (कविता), सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ग्रंथावली, भाग-1, वीरेन्द्र जैन (सं.), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004 संस्करण, पृ.सं.-134.
14.   समय से मुठभेड़ अदम गोंडवी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2010, पृ.सं.-48

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