आलेख:दम्पती प्रेम की घनी अनुभूति के कवि:केदारनाथ अग्रवाल/संतोष कुमार यादव

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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दम्पती प्रेम की घनी अनुभूति के कवि:केदारनाथ अग्रवाल/संतोष कुमार यादव


चित्रांकन
केदारनाथ अग्रवाल की प्रेम-कविताएं मूलतः उनके दांपत्य जीवन से जुड़ी हुई हैं। दांपत्य प्रेम की जितनी सघन मार्मिक अनुभूति केदार के काव्य में मिलती है वैसी हिंदी साहित्य के इतिहास में देखने को नहीं मिलती है। हमारे देश में कवियों द्वार ज्यादातर कविताएं प्रेमिकाओं पर लिखी जाती हैप्रायः वे काल्पनिक और भाववादी होती हैं। भारत में एक कवि प्रेमिकाओं के बारे में कितना जानता है, यह तथ्य प्रेमी कवि स्वयं जानता हैक्योंकि भारतीय समाज में प्रेमिका रखने या बदलने की मान्यता नहीं है। प्रायः प्रेम परिपाक होकर वैवाहिक संस्कार से गुजरते हुए दम्पती-प्रेम में बदल जाता है। दम्पती-प्रेम वर्णन की परंपरा भारतीय साहित्य में अत्यल्प है। महाकवि कालिदास ने रघुवंशमें महाराजा अज द्वारा अपनी पत्नी इंदुमती के आकस्मिक निधन पर मार्मिक विलाप कराया है। अज-विलाप के उद्गार में दांपत्य प्रेम के विछोह की गरमी महसूस होती है। इस परंपरा की दूसरी कोशिश जयशंकर प्रसाद के आंसूकाव्य में दिखाई पड़ती है। कवि रामधारी सिंह दिनकरकी काव्य रचना ‘उर्वशीमें पुरुरवा और उर्वशी के प्रेम और सौंदर्य का दार्शनिक पक्ष निखरा है किंतु वह दांपत्य प्रेम के खांचे के बाहर का प्रेम है। केदारनाथ अग्रवाल उर्वशीके संवाद पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि दो दार्शनिक, दो वकील, दो बौझक, दो मंत्री एक दूसरे से बाजी मार ले जाना चाहते हैं।1 अतः उर्वशीका प्रेम संवाद यथार्थ दांपत्य प्रेम से परे है। इसके अलावा दांपत्य प्रेम पर कविताएं सिर्फ केदारनाथ अग्रवाल के काव्य में ही दिखाई पड़ती हैं। केदार के समकालीन कवियों में शमशेर ने प्रेम पक्ष पर कविताएं लिखी हैं। किंतु केदार का प्रेम शमशेर के प्रेम की तुलना में व्यापक और यथार्थपरक है। केदार की प्रेमिका उनकी पत्नी हैं, वे दांपत्य प्रेम की आश्रय पत्नी में ही प्रेमिका का चेहरा देखते हैं। अतः केदार के प्रेम में पत्नी और प्रेमिका दो चेहरे नहीं बल्कि दोनों एक ही हैं।

 स्वकीया प्रेम जो सामाजिक, धार्मिक और पारंपरिक मान्यताओं से मान्य होता है तथा वैवाहित विधि-विधान से संपन्न होता है, ऐसे संबंधों से जुड़े स्त्री-पुरुष को पति-पत्नी या दम्पती कहते हैं। विवाह के उपरांत जब दोनों प्रेमी या जीवन साथी जीवन की रपटीली, उबड़-खाबड़ सड़क परएक दूसरे का सहारा बनते हुए सुख और आनन्द देते हुए चलते रहते हैं तो इसी जीवन को दाम्पत्य जीवन कहते हैं। दाम्पत्य जीवन में उपजने वाले प्रेम को दाम्पत्य प्रेम कहते है। केदारनाथ अग्रवाल के साहित्य में इस दाम्पत्य प्रेम के मीठे तीखे भावों की बहुत सुंदर अभिव्यक्ति हुई है। दाम्पत्य प्रेम की श्रेष्ठता तो पूरे देश में स्थापित है किंतु अवध प्रदेश में दाम्पत्य जीवन को विशेष महत्त्व है इसका कारण भगवान रामचंद्र जी के पुरुषोत्तम जीवन का आदर्श है। इसी कारण अवधी लोक संस्कार में दाम्पत्य प्रेम को ही आदर्श प्रेम के रूप में स्वीकार गया है। इसी अवधी जनपद के कवि केदारनाथ अग्रवाल है जो इसी लोकादर्श प्रेम को अपनी कविता के माध्यम से प्रकट किया है -
हे मेरी तुम!
कटु यथार्थ से लड़ते-लड़ते
अब न लड़ा जाता है मुझसे
हे मेरी तुम
अब तुम ही थोड़ा मुसका दो
जीने का उल्लास जगा दो।2

      केदारनाथ अग्रवाल दाम्पत्य प्रेम की शक्ति महसूस किये थे। उसे ही अपने काव्य का आधार बना कर मानव के सामने आदर्श रूप में उपस्थित किया है। परिवार समाज और देश का उत्थान दाम्पत्य प्रेम पर ही आधारित है। विशेषकर यह दाम्पत्य प्रेम छोटे-छोटे लोगों के जीवन को सुख देता है, उनमें संघर्ष करने की शक्ति पैदा करता है, जीने की मधुर लालसा से जीवन को ओत-प्रोत करता रहता है। इसी दाम्पत्य प्रेम की स्थापना तुलसी ने रामचरित मानस में किया है। यही महाभारत और रामायण में किसी न किसी रूप में प्रकट हुआ है। यही प्रेम भारत के जन-जीवन की परंपरा भी है। इसी दाम्पत्य रस की महत्ता अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔधने वैदेही वनवास’ नामक कविता में की है

उसमें है सात्वित-प्रवृत्ति-सुमनावली।
उसमें सुरतरु सा विलसित भव-क्षेम है।।
सकल-लोक अभिनन्दन-सुख सौरभ-भरित।
नन्दन-वन सा अनुपम दम्पती-प्रेम है।।3

      कवि केदारनाथ अग्रवाल के सामने नारी की स्वतंत्र अस्मिता की स्थापना जन-जन में स्थापित करने का बहुत बड़ा प्रश्न था। देश में सड़ी गली परंपराओं को तोड़ना जो स्त्री को एक भोग्य वस्तु से अधिक नहीं समझती थीं। नारी को स्वतंत्र और पुरुषों के समान बनाने तथा उसे जन-जन में स्थापित करने का महान प्रश्न था। अत: केदार ने दाम्पत्य-प्रेम को सर्वोपरि सत्य माना है। दाम्पत्य जीवन जहां पति-पत्नी के बीच बराबरी का संबंध हो, पत्नी जहां आश्रिता नहीं बल्कि एक साथी और सहभागी के रूप में मान्य हो। दाम्पत्य प्रेम एक बंधन नहीं बल्कि अभूतपूर्व संभावनाओं का द्वार हो। यही कारण है, जहां अधिकतर तत्कालीन कवि अपनी प्रेमिकाओं के प्रति अनुभूतियों और विविध सौंदर्य छवियों को अभिव्यक्ति कर आत्मगौरान्वित होते हैं। उसी समय केदार स्वयं को पत्नी प्रेमी घोषित करते हैं। मैं मूलतः पत्नी प्रेमी रहा हूं और मेरी प्रेम की कविताएं उन्हीं के प्रेम और सौंदर्य की कविताएं हैं।4 यहाँ पर यह कहना उचित होगा की केदार पूर्व के कवि निराला भी अपनी पत्नी के प्रेम पर लट्टू हैं। किंतु जहां केदार ने दाम्पत्य जीवन को प्रगतिशील जीवन के आदर्श के रूप में स्थापित करते हैं जबकि निराला लोक जीवन की छबि प्रस्तुत करते हैं-    
रँग गई पग पग धन्य धरा
हुई जग जगमग मनोहरा।5

      केदार कृषकमजदूर और प्रकृति के जितने निकट हैं, उतने ही गृह जीवन के भी निकट हैं। उनकी कविता में पत्नी के प्रति उत्कट प्रेम की सहज अभिव्यक्ति के साथ बच्चों के प्रति भी उनकी सहज वत्सल्यता प्रकट हुई है। यद्यपि इस प्रकार के भाव सूर्यकांत त्रिपाठी निरालाकी लम्बी कविता सरोज स्मृति’, बाब नागार्जुन पुत्र के जन्म पर लिखी कविता दुंतरित मुस्कानऔर त्रिलोचन आदि तत्कालीन कवियों के द्वारा लिखी गई हैंकिंतु केदार जी की कविताओं में गांव का जो सोंधापन है वह अन्यत्र कहां मिल सकता है। बेटी के जन्म पर केदार कहते हैं-
नवल अंग नन्हा-सा तेरा
तितली-सा दिखलाता है।
पानी की मछली-सा चंचल
तब स्वभाव मन भाता है
अहा, तुझको प्यार करूँ,
बिटिया तुझे दुलार करूँ।6

      केदार का जीवन आम आदमी की तरह है। उनका प्रेम आम आदमी के प्रेम का आनंद बरसाने वाला है। उनकी दृष्टि में उनकी पत्नी-प्रिया के रूप और सौंदर्य में जितनी मिठास है वैसी मिठास, वैसा माधुर्य न गीतों में है,  कविता में। धर्म-कर्म में वह मिठास असंभव है। पत्नी जो सुखों में साथ दे या नहीं किंतु दुख हरने के लिए सदैव तत्पर रहती है। गांव या शहर के सामान्य जन के लिए उनकी पत्नी ही उनकी शक्ति होती है, वही मनोरंजक होती है, वही कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली साथी होती है। उसी पत्नी की स्वतंत्रसुखद और सहचरी रूपों के आनंद को केदार धर्म-फल के आनंद से उत्तम मानते हैं। क्योंकि हिंदू समाज में बहुत से ऐसे कर्मकाण्ड है जिसको निभाने के लिए पत्नी को दूर रखना पड़ता है। इस लिए केदार स्त्री के पत्नी रूप को धर्म-फल से ऊपर सिद्ध कर समाज को अंधविश्वासों से मुक्त करना चाहते हैं तथा स्त्री की सच्ची और सहयोगी शक्ति को स्थापित करना चाहते है।

है न इतना गीत में रस
है न इतना काव्य में रस
रूप में जिताना तुम्हारे
प्राण प्यारी, है भरा रस।
धर्म फल फीका बहुत है
कर्म फल फीका बहुत है
फिर चखाओ प्राण प्यारी।
प्रेम फल मीठा बहुत है।7

केदार के लिए पत्नी शक्ति दायनी हैप्रेम स्वरूपा और आनन्दी है। पत्नी प्रिया की अनुपस्थिति में चांदनीफूल तथा पेड़-पौधे की हरियाली मन के अंधकार और सूनेपन को दूर नहीं कर पाते। क्योंकि पत्नी प्रेम और सौंदर्य ही कवि में प्राणों का संचार करने वाले होते हैं। उसी के कारण प्राकृतिक उपादान भी सुखकर लगते है। उसके संतप्त जीवन में विद्रोह की तरंगे भरते हैं। उसकी मुस्कान ही शोषण को जलाकर राख करने की प्रेरणा देती रहती है। वास्तव में केदार लोक के कवि है और वह लोक परंपराओं में आधुनिकता की धार ला कर आम आदमी के सामने स्वस्थ और सकारात्मक मार्ग प्रदर्शित करते हैं जिससे आम आदमी पत्नी और परिवार की शक्ति पर भरोसा और विश्वास कर सके। इस प्रकार आम आदमी निराशाडर और कठिनाइयों के बीच रास्ता सहजता से खोज सकता है और आत्मविश्वासी बना रह सकता है। इसलिए केदार जी कहते हैं-

प्राणमयी मुस्कान तुम्हारी,
जब कूलों को पार करेगी।
दीन-दुखी मेरे जीवन में,
तब विद्रोही ज्वार भरेगी।
ज्वालामयी मुस्कान तुम्हारी,
जब शोषण को क्षार करेगी।
      पर पीड़ित मेरे जीवन में,
      तब आशा-उद्गार भरेगी।8

कवि अपनी पत्नी-प्रिया की इस मुस्कान को हृदय से महसूस करता है। इसी मुस्कान की शक्ति से वह संसार की विपत्तियों से लड़ने का हौसला रखता है। पत्नी द्वारा माथे पर लिया गया चुम्बन तिलक के समान है, जो उसे जीवन के घमासान में अडिग रहने की प्रेरणा देता है। भारतीय संस्कृति है कि जब माता अपने पुत्र को रण-क्षेत्र में भेजती है तो माथे पर चुम्बन का तिलक लगाती है। मां का चुम्बन पुत्र को युद्ध क्षेत्र में आये घनघोर संकट में शक्ति देता है और उसका पुत्र विकट परिस्थितियां होने पर भी विजय प्राप्त करता है। उसी प्रकार जीवन के युद्ध में जाते समय पत्नी की मन्नते और उसका गहरा विश्वास विकट परिस्थितियों में भी पति को जीवन के युद्ध क्षेत्र में लड़ते रहने की शक्ति और सफल होने की आशा देता रहता है। इसे दम्पती जीवन की शक्ति कह सकते हैं जिसके सहारे ही जीवन की नइया सफलता से पार होती है। आशा ही जीवन है, आशा रहित होने पर जीवन समाप्त हो जाता है। किंतु कवि के जीवन में पत्नी के प्रेरणा और आशा है इसलिए शरीर की पराजय भले हो जाय किंतु मन नहीं हाराता है-

मैं रणोद्यत हुआ
माथे पर लेकर चुंबन तुम्हारा
घमासान संघर्ष में पड़ा
हाथ हारे-पाँव हारे
मैं न हारा
माथे में चूंबन लिए जीता रहा।9

      भारतीय परंपरा है कि पति-पत्नी एक दूसरे का नाम नहीं लेते हैं। बुलाने के लिए वे सांकेतिक नाम रखते हैं। इस सांकेतिक नाम की पुकार में बहुत गहरा अपनापन होता है। केदार भी अपनी पत्नी-प्रिया को हे! संबोधन से पुकारते हैं। इस संबोधन से गहरा दाम्पत्य प्रेम और घरेलूपन प्रकट होता है। इसे नाम फेरना कहते हैं। नाम रखने के पीछे दोनों की गहरी प्रेम भावना और अपनापन निहित होता है। इसी कारण केदार अपनी पत्नी प्रिया को हे मेरी तुमकह कर संबोधित करते हैं।

      केदार अपनी पत्नी-प्रिया का जितना खुला वर्णन करते हैं। शायद ऐसा वर्णन दूसरी प्रेमिका के लिए तो कवियों ने किया हैकिंतु अपनी पत्नी के लिए किसी ने नहीं किया है। केदार एक प्रकार से स्त्री को समानता और स्वतंत्रता से बढ़कर उसे एक स्वतंत्र जीव के रूप में स्थापित करते हैं। उसकी अस्मिता और सौंदर्य को गरिमा प्रदान करते हैं। खोखले दोहरे आदर्शों को तोड़कर सच्चे सौंदर्य को स्थापित करते हैं तथा पत्नी और प्रिया में कोई संवेदनात्मक और रूपात्मक अंतर नहीं करते हैं। वे अपनी पत्नी के सौंदर्य पर वैसे ही रीझते हैं जैसे कोई अपनी परकीया प्रेमिका पर-

हे मेरी तुम
जब तुम अपने केश खोलकर
तरल ताल में लहराओगी
और नहा कर
चन्दा सी बाहर आओगी
दो कुमुदों को ढँके हाथ से
चकित देखती हुई चतुर्दिक
तब मैं तुमको
युग्म भुजाओं से भर लूँगा
और चाँदनी में चूमूँगा तुम्हे रात भर
ताल-किनारे।10

प्रेम वास्तव में अन्दर और बाहर दोनों तरफ से जोड़ता है। यही एक ऐसा भाव है जिसके अभाव में मानव वास्तव में मानव नहीं रहता है। यही एक ऐसा भाव है जिसकी व्यंजना रोकर और हँसकर दोनों रूपों में की जाती है। जो जितना प्यार पाता हैवह उससे ज्यादा देना चाहता है। दाम्पत्य जीवन का प्यार ज्वार की तरह नहीं होता। वह तो बहार की तरह होता है, जो सम्पूर्ण जीवन को आनंदित करता है। सुख-दुख में दोनों को बाँधे रखता है। जीवन अपनी गति से बहता है और घर-परिवार अपनी गति से बढ़ता रहता है-

हे मेरी तुम
खेल-खेल में खेल न जीते
जीवन के दिन रीते बीते
हारे बाजी लगातार हम
अपनी गोट नहीं पक पाई
मात मुहब्बत ने भी खाई
हे मेरी तुम!
आओ बैठो इसी रेत पर
हमने-तुमने जिस पर चलकर
उमर गँवाई।11

साथ-साथ जीवन भर चलने की खुशी सभी अभिमानी हार जीत से परे है। केदारनाथ अग्रवाल के काव्य में स्वकीया प्रेम का दाम्पत्य जीवन भारतीय सामाजिकसांस्कृतिक लोक परम्परा की अवधारणा को स्थापित करने का एक सफल प्रयास है। जिसमें नारी की अस्मितास्वतंत्रता और गौरव अक्षुण्य बना रहता है। स्त्री पुरूष के समान उसकी साथी  सहचरी है। दोनों के समान और सहचर योग के द्वारा शारीरिक, मानसिक, पारिवारिकभौतिक एवं आध्यात्मिक सफलता आसानी से प्राप्त की जा सकती है। इसी दम्पती प्रेम को मध्ययुगीन भक्तिकालीन कृष्ण भक्त कवि रसखान ने परकीया प्रेम के अनुभूति के बाद भी जीवन के लिए इसी दाम्पत्य प्रेम को शुद्ध प्रेम कहते हैं-

दम्पती सुख अरु विषय रस पूजा निष्ठा ध्यान।
इनते परे बखानियै शुद्ध प्रेम रसखानि ।।12

केदार में दंपति प्रेम की यह जो निष्कुंठ अभिव्यक्ति है, प्रेम की जो ललक, प्यासआसक्ति है। वह कवि के रूप में और मनुष्य के रूप में उन्हें बराबर जिंदगी से जोड़े रहती है। उनके कवि में जो ऊर्जा है उसका यह सबसे बड़ा श्रोत है। प्रेम की यह पीर और यह सौगात जो केदार को मिली है, यह शहरी नहीं है। यह ठेठ उनकी किसानी संवेदना से उपजी है। यह सहज, सरलनिश्चल मन की प्यास पुकार और पूंजी है। इसी संपदा के बल पर केदार वृद्धा अवस्था में भी अपने अस्तित्व को फूलाए रखने में सफल हुए हैं-

फिर मुसकाईं
प्रिया पोपले मुख से अपने
कई दिनों के बाद,
बड़े सबेरे;
हर्ष-हर्ष से
फूल उठा मेरा अस्तित्व;
मैं हो गया निहाल।13

दांपत्य जीवन में व्यक्ति के ऊपर बहुत सी जिम्मेदारियां होती हैं, उन जिम्मेदारियों के निबाह के लिए धन की आवश्यकता होती है। धन कमाने के लिए किताना भी प्रयास कीजिएईमानदारी से केवल रोटी और दाल का ही जुगाड़ हो पाता है। वहीं दूसरी ओर भ्रष्टाचारी और सिद्धांतहीन व्यक्तियों की चांदनी समाज में देखने को मिलती है। लेकिन एक कवि के लिए अपने सिद्धांतों के साथ समाज में जीना बहुत मुश्किल हो जाता है। समाज का चरित्र इतना पतित हो गया है कि वह व्यक्ति की कीमत उसके धन-दौलत से ही लगाता है। वास्तव में व्यवहारिक जीवन में लोगों का चारित्रिक पतन हो चुका है। स्वतंत्रता के बाद यह चारित्रिक पतन और तेजी से गिरा है। ऐसे में कभी-कभी सिद्धांत, चिरित्र और नैतिकता केवल किताबी आदर्श बन जाते हैं। समाज के लिए अपना सब कुछ अर्पित कर देने वाले के साथ भी समाज कभी खड़ा नहीं होता है, ऐसा प्रायः देखने को मिलता है। अपनी वृद्धावस्था में कवि को इसकी अनुभूति अवश्य हो रही है। किंतु समाज के चरित्र और सिद्धांत के द्वंद्व में कवि अपनी विचारधारा पर दृढ़ता से डटा हुआ है। दुनियांदारी की यह सच्चाई उसे उदास तो करती है पर पत्नी का प्रेम फिर उसे उल्लास न से भर देता है। कवि अपने चरित्र को ही पत्नी का उसके प्रति प्रेम और विश्वास का करण मानता है। इस प्यार और विश्वास को पाने के कारण स्वयं को दुनियां का शहंशाह अर्थात सुखी प्राणी समझता है। अतः कवि कहता है-

हे मेरी तुम!
गठरी चोरोंकी दुनियां में
मैंने गठरी नहीं चुराई;
इसलिए कंगाल हूं;
भुक्खड़ शहंशाह हूं;
और तुम्हारा यार हूं;
तुमसे पाता प्यार हूं।14

केदार के प्रेम पर टिप्पणी करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा का कथन है कि जवानी में एक रूमानी लहर की तरह यह भाव आता है और चला जाता है। केदार की रचनाओं में यह भाव स्थायी है। प्रेम पर, विभिन्न वर्षों में, उन्होंने बहुत सी छोटी-छोटी कविताएं लिखी हैं। इनमें आंतरिक संबद्धता है, इनके मेल से एक सिम्फोनी तैयार होती है। शेकसपियर के नाटक की एक पंक्ति Ripeness is all कीट्स को बहुत प्रिय थी। उनकी ओड टु आटमकविता में राइपनेस का संगीत पकी फसल, पके फल, डूबते सूरज का गहरा सुनहला प्रकाशसारी प्रकृति में जैसे व्याप गया है। केदार की कविता में पके फल का स्वाद है, धरती आकाश के बदले दो व्यक्तियों के अस्तित्व की ऐसी अनुभूति है जिसमें मिलने की जरूरत नहींकुछ कहने की जरूरत नहींजहां दो आत्माएं एकमेव हो जाती हैं, दुख-सुख के सभी एहसासों को समेटे हुए अविखंडित अखंड-
हे मेरी तुम !
हम मिलते हैं
बिना मिले ही
मिलने के एहसास में
जैसे दुख के भीतर
सुख की दबी याद में।
हे मेरी तुम !
हम जीते हैं
बिना जिए ही
जीने के एहसास में
जैसे फल के भीतर
फल के पके स्वाद में।15


      इस प्रकार हम कह सकते हैं कि केदार ने जहां नारी को जकड़ और बंधन से मुक्त कर उसे शक्तिशाली ओर स्वतंत्र बनाते हैं, वहीं प्रेम की दमित इच्छाओं से उसे मुक्त कर सच्चे प्यार की अधिकारिणी बनाते हैं। इसके अलावा प्रेम को चोरी, अपराध, पाप आदि अंधविश्वासों से मुक्त कर उसे सम्माननीय और मर्यादित करते हैं। अतः कहा जा सकता हैं कि केदार 21वीं सदी के युवाओं के लिए अपने प्रेम की कविताओं के माध्यम से दम्पती-प्रेम के रूप-सौंदर्य के आदर्श का धरातल तैयार किया है।
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संदर्भ ग्रंध-

1.   डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, पेड़ के हाथ, पृ. 12
2.   केदारनाथ अग्रवाल, हे मेरी तुम, पृ. 68
3.   अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध’, वैदेही वनवास, चतुर्दश सर्ग, छंद 89
4.   केदारनाथ अग्रवाल, जमुन जल तुम, पृ. 15
5.   सूर्यकांत त्रिपाठी निराला’, गीतिका, पृ. 17
6.   केदारनाथ अग्रवाल, जमुन जल तुम, पृ. 21
7.   वही, पृ. 67
8.   वही, पृ. 75
9.   वही, पृ. 126
10.  वही, पृ. 111
11.   केदारनाथ अग्रवाल, हे मेरी तुम, पृ. 19
12.  रसखान, भक्तिकाल, दोहा, हिंदीसमय.कॉम
13.  केदारनाथ अग्रवाल, आत्मगंध, पृ. 19
14.  केदारनाथ अग्रवाल, हे मेरी तुम, पृ. 73
15.  केदारनाथ अग्रवाल, हे मेरी तुम, 42
          
संतोष कुमार यादव
शोधार्थी , हिंदी विभाग, गोवा विश्वविद्यालय।
द्वारा संतोष कुमार यादव ,पीजीटी हिंदी,जवाहर नवोदय विद्यालय काणकोण,दक्षिण गोवा-403702 संपर्क:-9423307983,ईमेल:-hinpgt@gmail.com

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