आलेख: 'सेज पर संस्कृत' में धर्म और नारी प्रश्न / यदुवंश यादव

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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                    'सेज पर संस्कृत' में धर्म और नारी प्रश्न      



चित्रांकन
भारत में धर्म एक ऐसा विषय रहा है, जो इसकी जड़ों तक को प्रभावित करता रहा है। इस संबंध में बात करना तर्कों को परे रखना है और जिसका प्रमुख कारण अंधता व आडंबर है। भारत का कोई भी धर्म हो उसके अनुयायी के लिए वह उसके स्व से भी सर्वोच्च है, जिस कारण से धार्मिक संस्थान अधिकांशतः उन पर हावी रहते हैं। इस प्रसंग में यदि स्त्री समुदाय को जोड़कर देखा जाए तो स्थितियाँ और भी भयावह होती नज़र आती हैं। प्राचीन काल से ही धर्म और स्त्री के संबंध में कई घटनाएँ देखने को मिलती हैं यथा कि उसके धार्मिक स्थलों पर प्रवेश, अनुष्ठानों में सहभागिता, धर्म के क्षेत्र में नेतृत्व का अभाव आदि-आदि। ये ऐसे संदर्भ हैं जिसके द्वारा आसानी से यह बात समझी जा सकती है कि धर्म में स्त्री को सबसे निचले पायदान पर रखा गया, जिससे उसे इसकी कमियों का ज्ञान न के बराबर हुआ। जिस कारण से स्त्री शोषण के जो विभिन्न घटक रहे उनमें धार्मिक संस्थानों ने प्रमुख भूमिका निभाई। मधु कांकरिया का उपन्यास 'सेज पर संस्कृत' इसी तरफ इशारा करता है। उन्होंने अपने इस उपन्यास में जैन धर्म को विषय भले ही बनाया लेकिन इस बहाने से ही वे समूचे धार्मिक समुदायों पर प्रश्न-चिह्न लगाती हैं। इस उपन्यास में धर्म और स्त्री के अंतरसंबंधों को बहुत ही सूक्ष्म रूप में देखा जा सकता है, जिसके द्वारा यह पता चलता है कि धर्म कैसे अपनी सीमा में ही स्त्री को रखता है जिसमें स्त्री के व्यक्तिगत सरोकारों की कोई जगह नहीं होती।

     उपन्यास का आरंभ हमें थोड़ी ही देर में पूरे परिवेश से परीचित करवा देता है। एक ऐसा घर जिसमें केवल तीन स्त्रियाँ ही हैं, घर के बाकी पुरुष पात्रों की छः महीने पहले मौत हो चुकी है, जिस कारण से ये तीनों स्त्रियाँ गहरे अवसाद में हैं। जैनियों के हजारी संप्रदाय का यह परिवार पिता और भाई की आसामयिक मृत्यु के कारण भय के वातावरण में हैं। उन्हे लगता है कि जैसे मौत हमेशा उनके इर्द-गिर्द घूम रही है, जिस कारण से वे धर्म को अपना सहारा बनाती हैं। यहाँ पर भय और धर्म के सम्बन्धों को बहुत ही अच्छे प्रकार से देखा जा सकता है। भारतीय मानस में सभी धर्मों का एक जैसा व्यवहार रहा है, कथित कुलीनता, ब्राह्मणवाद, पितृसत्तात्मकता, सामंतीपना आदि ऐसे तत्व हैं जो सभी जगह एक समान रूप से देखे जा सकते हैं। इस उपन्यास के आरंभ में ही हमें इसका संदर्भ देखने को मिलता है कि,"हम जैन हैं अवश्य, पर हुआ तो हमारा भी धर्मांतरण ही न... हम राजपूत से जैन बने हैं।" यह उपन्यास धर्म और मनुष्य के संबंध के बनने की प्रक्रिया को बहुत ही सजीव रूप में दिखाता है। एक ही घर की तीन स्त्रियॉं की धर्म के प्रति दृष्टिकोण अलग-अलग है। माँ, जिसके लिए भय जीवन का पर्याय बन चुका है, जिस कारण से उसे धर्म से इतर कोई जगह दिखाई ही नहीं देती। वहीं दूसरी तरफ संघमित्र, जो युवा है और अपने पिता से जीवन-संबंधी संघर्ष को जाना है। जीवन और धर्म को लेकर वह भावनात्मक कम और तार्किक ज्यादा है। माँ के धार्मिक आग्रह और संघमित्रा के नकार के बीच में है छुटकी, जिसका बालमन न तो धर्म को पसंद करता है और न ही गूढ तार्किकता को। वह तो इन सब में भी खेल की वस्तु ढूंढा करती है।

    जहां एक तरफ माँ छुटकी को अपने साथ करके धार्मिक अस्मिता को बचाना चाहती है, वहीं पर संघमित्रा को छुटकी की हमेशा चिंता लगी रहती है कि वह अभी इस लायक नहीं है कि धर्म के रास्ते पर चले। संघमित्रा के द्वारा छुटकी को बचाने का प्रयास उपन्यास के अंत तक चलता है जब छुटकी बड़ी होकर जैन धर्म दीक्षित हो चुकी है, वह अब दिव्यप्रभा नाम से जानी जाने लगी है और अंत में मठों की कुंठित मानसिकता के कारण उसे वेश्यालय जाना पड़ता है, जिसके बाद उसकी मृत्यु होती है। धर्म के द्वारा स्त्री को ऐसी अवस्था में पहुंचाए जाने का जैसा क्रमिक वर्णन इस उपन्यास में मिलता है वह तार्किकता को विस्तार प्रदान करता है। धर्म के द्वारा स्त्री शोषण के विभिन्न स्तर इस उपन्यास में बहुतायत वर्णित है। यदि इस संदर्भ में छुटकी को लिया जाए तो यह बात स्पष्ट रूप से नज़र आती है। धर्म के द्वारा स्त्री की भावनाओं, उसके स्व आदि को समाप्त कर दिया जाता है। छुटकी को न चाहते हुए भी उसे धार्मिक वाह्याचारों को ओढ़ना पड़ता है। यदि वह इन वाह्याचारों को सहज रूप से कहीं अपनाती है तो इसलिए कि वह या तो माँ के दबाव में है या फिर इन आडंबरों में उसका अविकसित मन केवल चकाचौंध या मिथ्या सम्मान देखता है।

     मधु कांकरिया अपने इस उपन्यास में धर्म द्वारा समाज पर आरोपित स्थितियों का कई जगहों पर वर्णित करती हैं। कैसे ये स्थितियाँ पूरे सामाजिक प्रक्रियाओं को अपने द्वारा निर्धारित व संचालित करती हैं, देखा जा सकता है। एक जगह संघमित्रा कहती है कि,"मेरी जान, इस देश में ढोर-मवेशियों तक के लिए कानून है पर धर्म और दीक्षा के विरोध में ऐसा कोई भी कानून नहीं है, क्योंकि मामला धर्म से जुड़ा है और धर्म से टकराने में इस देश के हाँड़ कांप जाते हैं।" जब इस तरह का कथन देश की युवा लड़की इस उपन्यास में कर रही है तो फिर वे क्या कारण हैं कि धर्म इसके बाद भी अपने आडंबरों के द्वारा उसी लड़के के सम्पूर्ण जीवन को संघर्षमयी बना देती है। उपन्यासकार यह दिखती हैं कि कैसे इन आडंबरों से लड़ते हुए संघमित्रा का पूरा जीवन व्यतीत हो जाता है और उसे कुछ भी हासिल नहीं होता है, न तो माँ और न ही छुटकी। मधु कांकरिया के इस उपन्यास में जो एक सशक्त बात लगती है वह यह कि पूरे उपन्यास में कहीं भी पुरुष पात्र सकारात्मक रूप में प्रभावी व सहायक नहीं रहा है। बुरे दिनों में यदि संघमित्रा की कोई मदद करता है तो वह भी मालविका। वह न सिर्फ मदद करती है बल्कि मालविका और संघमित्रा के बीच हुए संवाद धर्म, समाज, संस्कृति के संबंधों की कलई खोलते नज़र आते हैं। दूसरी तरफ उपन्यास में जितने भी पुरुष पात्र आए हैं उनमें से अधिकतम वाया धर्म शोषक के ही प्रतीक हैं। इसमें प्रतीक के रूप में मठाधीश्वर और अभयमुनी को देखा जा सकता है। ये दोनों स्त्री को धर्म के द्वारा अपने अधीन रखते हैं। संघ व्यवस्था की आंतरिक स्थितियों की कुरूपता के सजीव वर्णन के द्वारा यह बात स्पष्ट होती है की ये संस्थान नैतिक मूल्यों, विचारों के सकारात्मक विस्तार के लिए न होकर बल्कि शोषण के लिए ज्यादा होते हैं।

 मनोविश्लेषण के सिद्धांत में जब यह कहा जाता है कि जिन इच्छाओं व कामनाओं को दबा कर रखा जाता है वह उतनी ही तीव्र गति से उसे प्राप्त करना चाहती हैं। यही बात उपन्यास में वर्णित संघ के रूप में देखा जा सकता है। विजयेन्द्र मुनि, दिव्यप्रभा(छुटकी) और अभय मुनि इसके प्रतीक हैं। इनको जिन बातों से सबसे ज्यादा दूर रखा जाता है इन सभी का अंत उसके सबसे ज्यादा समीप होता है। अभय मुनि की दमित वासनाएँ उसकी मौत का तथा विजयेन्द्र मुनि और दिव्यप्रभा की सकारात्मक इच्छाएँ उनके बीच प्रेम का कारण बनती हैं। संघ के मानसिक संकुचन को हम दिव्यप्रभा के अखबार पढ़ने वाले प्रकरण से जान सकते हैं,"आज का अखबार पढ़ा? कोई खास बात? कई बार अखबार की भाषा नहीं समझ पाती तो श्रावक से पूछ बैठती- सरकार का मतलब क्या होता है? सरकार देश को कैसे चलाती है? संसद और सरकार में क्या अंतर है?" इन प्रतीकों से यह पता चलता है कि कैसे संघ व्यक्ति की मूल आवश्यकताओं से उसको दूर रखता है। 90 के दशक के देशकाल पर आधारित इस उपन्यास में दिव्यप्रभा सरकार और संसद के बारे में नहीं जानती, जिससे संघ की वैचारिकता और भयावहता का पता चलता है।

     धर्म कोई भी हो सभी में स्त्रियॉं की लगभग एक जैसी स्थितियां रही हैं। मर्यादा, शुद्धिकरण आदि कुप्रथाओं के नाम पर लगातार धार्मिक संस्थानों के द्वारा इनका शोषण किया जा रहा है। जब दिव्यप्रभा विवश होकर वेश्यालय चली जाती है और अपने जीजी से वेश्यालय के बारे में कहती है," सच पूछो जीजी, तो यह दुनिया उतनी भी बुरी नहीं। यहाँ कम से कम कोई किसी को बदचलन तो नहीं कहता। उस तपोवन से भी अच्छी है यह दुनिया जिसने आज तक जाने कितनी औरतों को सहारा दिया पर किसी को पापिन कह कर निकाला नहीं।" यह कथन स्त्रियॉं के प्रति धार्मिक संस्थानों द्वारा किए जा रहे व्यवहार की पूरी बानगी प्रस्तुत करता है। धार्मिक आडंबर युक्त समाज एक ऐसी अवधारणा है जहां यदि आप उसके साँचे में फिट नहीं बैठते तो वह आपको किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करेगा। संघमित्रा के द्वारा घर चलाने के तमाम प्रयत्न के बाद भी उसके साथ जबर्दस्ती की जाती है धार्मिक जीवन जीने के लिए, जिसको वह नकारना चाहती है। जबकि उसकी तार्किकता धर्म और जीवन यापन के अंतरसंबंधों को स्पष्ट करती है, जिससे यह भी पता चलता है कि धर्म में तार्किकता का कोई स्थान नहीं है। उपन्यास में उदारीकरण और धर्म के संबंधों को बड़े ही करीने से बुना गया है। पहले गाँव में धार्मिकता का वह स्थान नहीं था जो अभी पूंजीवादी धार्मिकता के कारण बदलाव आया है। पहले धर्म में इतनी अतिवादिता नहीं थी जितनी आज है। जो भगवान या जिसके भगवान जितने चमकदार उतने प्रभावी। आज धर्म शोषण के साथ-साथ दिखावे व वर्चस्व का केंद्र बन गया है, जबकि वह पहले लोक की अवधारणा से संपृक्त था। जिस कारण से उसमें किसी प्रकार का दिखावे की स्थितियाँ बहुत ज्यादा नहीं होती थीं। उपन्यास में अम्मा के विचारों में और कुंभकार रामपाल काका, रामवृक्ष काका व पिता जी के चरित्रों के बीच के अंतर से इसको समझा जा सकता है।

     यह उपन्यास जहां एक तरफ धर्म में स्त्री की स्थितियों को दिखलाता है वहीं नारीवादी अवधारणा की दृढ़ विचारधारा को भी प्रस्तुत करता है। नारीवादी अवधारणा का भारतीय परिप्रेक्ष्य, जिसमें धर्म से मुक्ति में ही नारी के शोषण की मुक्ति समाहित है, जैसी अवधारणा प्रस्तुत होती है। उपन्यासकार कहीं भी नारी मुक्ति के लिए अतिरेकों का प्रयोग नहीं करती हैं बल्कि स्त्री को अपना पक्ष दृढ़ तरीके से रखने के लिए रचती हैं। इस दृढ़ता के लिए वे कहीं भी अतिरिक्त विचारों या उपमानों का सहारा नहीं लेती बल्कि उसके स्वयं के जीवन संघर्ष को ही उदाहरण के रूप में लेती हैं। शोषण के उच्चतम स्तर पर पहुँच जाने पर अभय मुनि की संघमित्रा द्वारा हत्या, नारी मुक्ति के परिणाम के रूप में देखा जाना चाहिए। शोषण के चाहे जो भी कारक हों उनको सम्पूर्ण रूप से समाप्त ही होना चाहिए, वह चाहे धर्म की चली आ रही पुरानी अवधारणा ही क्यों न हो?

संदर्भ-ग्रंथ सूची:-
1- कांकरिया, मधु, सेज पर संस्कृत(2008), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2- मुद्रराक्षस, धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ(2009), साहित्य उपक्रम, दिल्ली
3- अनामिका, स्त्री-विमर्श का लोकपक्ष(2012), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
4- साधना आर्य/निवेदिता मेनन/जिनी लोकनीता(सं॰), नारीवादी राजनीति : संघर्ष एवं मुद्दे(2013), हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय
5- रंजीत अभिज्ञान/पूर्वा भारद्वाज(सं॰), जेंडर और शिक्षा रीडर, भाग-1(2010), निरंतर प्रकाशन, दिल्ली

यदुवंश यादव
शोधार्थी, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा
संपर्क:-9822177969,ई-मेल:-yadav14yadu@gmail.com

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