सिने-जगत:फिल्म निर्देशन:तकनीक और कला -डॉ.विजय शिंदे

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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सिने-जगत:फिल्म निर्देशन:तकनीक और कला -डॉ.विजय शिंदे

      
फिल्म का निर्देशन करना जितना तकनीकी कार्य है उतना ही कलात्मक कार्य है। फिल्म निर्देशक निर्देशन की दिशा तय करता है कि फिल्म को कहा लेकर जाना है। मूल कहानी को निर्माता-निर्देशक जब सुनते हैं या पढ़ते हैं तब उन्हें तुरंत पता चलता है कि इस कहानी पर फिल्म बनने की संभावनाएं है या नहीं है। जब किसी कहानी में फिल्म के लिए सफलता के सूत्र मिलते हैं तब एक-दूसरे की अनुमति से उस पर कार्य होता है और विभिन्न लोगों की नियुक्तियां शुरू होती है। निर्माताओं की अनुमति के बाद निर्देशक पटकथा लेखक से पटकथा लिखवा लेता है, उसे लिखवाते वक्त उन सारी बातों को उसमें भर देता है जो कलात्मक तो हो ही पर व्यावसायिक सफलता हासिल करने की क्षमता भी रखती हो। अर्थात् निर्देशन कौशल फिल्म सृजन (निर्माण) प्रक्रिया और तकनीकी प्रक्रिया के बीच का पुल होता है जिस पर एक सफल फिल्म संवार होकर अपने मकाम तक पहुंचती है।

       फिल्म निर्माण प्रक्रिया में निर्देशन एक अलग और स्वतंत्र कार्य है परंतु आजकल देखा जा रहा है कई प्रतिभा संपन्न लोग फिल्मों का निर्माण, निर्देशन, कहानी व पटकथा लेखन, संवाद लेखन अकेले कर रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि फिल्म के सफलता की बागौर वे अपने हाथों में रखते हैं। व्यावसायिक सफलता की सीढ़ी उन्हें पता होती है, अतः ऐसे निर्माता-निर्देशक दूसरों के बलबूते पर अपनी फिल्म को दांव पर लगाना पसंद नहीं करते हैं। कभी-कभार ऐसा भी होता है कि कहानी का लेखक कोई और होता है, निर्माता-निर्देशकों को उसकी कहानी पसंद आती है परंतु उसमें व्यावसायिक परिवर्तन की आवश्यकता होती है। लेखक से यह व्यावसायिक परिवर्तन संभव नहीं है तो वे उससे उस कहानी के अधिकार खरीद लेते हैं, अपने हिसाब से उसमें परिवर्तन करते हुए निर्देशन करते हैं। ऐसी स्थिति में लेखक से अगर छूटकारा पाना है तो सीधे उसे उसका मूल्य चुका दिया जाता है और निर्माता-निर्देशक अपने नाम से कहानी करवा देते हैं या लेखक ने ऐसा करने से मना किया तो वे उसकी अनुमति से इस कहानी से प्रभावित (Adoption) होकर इस फिल्म को बनाया जाता है, इसका जिक्र और आभार फिल्म के आरंभ में किया जाता है। ऐसी स्थितियों में निर्देशकों को मूल कहानी में परिवर्तन और अपने हिसाब से कहानी को गढ़ने तथा उसका अंत करने की अनुमति होती है। आजकल ऐसी फिल्मों का प्रचलन अधिक है। अर्थात् निर्देशन की जिम्मेदारी यह होती है कि लिखित कहानी को फिल्मी फॉर्म मे रूपांतरित करते वक्त उसे सफलता की सीढ़ी तक लेकर जाना।

1. निर्देशक और निर्देशन क्या है?
       निर्देशक के लिए दिग्दर्शक और निर्देशन के लिए दिग्दर्शन शब्द का भी प्रयोग होता है। अंग्रेजी में निर्देशक के लिए Director और निर्देशन के लिए Direction शब्द का इस्तेमाल होता है। निर्देशक उसे कहा जाता है जो पूरी फिल्म की दिशा को तय करने का काम करता हो। वह जो किसी प्रकार का निर्देश करता या कुछ बतलाता हो, सिनेमा निर्माण के क्षेत्र में वह अधिकारिक व्यक्ति जो पात्रों की वेष-भूषा, भूमिका या आचरण और दृश्यों के स्वरूप आदि को निश्चित करता है। निर्देशन का सीधा अर्थ है निर्देश करने की क्रिया या भाव, सिनेमा निर्माण के दौरान वे सब कार्य इसमें समाविष्ट होते हैं जो एक निर्देशक के कहने पर किए जाते हो। अर्थात् निर्देशन का सीधा अर्थ होता दिशादर्शन। परंतु इस बात से परिचित होना जरूरी है कि जहां पर निर्माता-निर्देशक एक है वहां ठीक है परंतु कई बार निर्माता अपनी फिल्म के लिए अधिकारिक तौर पर किसी निर्देशक की नियुक्ति करता है। ऐसी स्थितियों में निर्देशन करना अलग भूमिका के तहत आता है। निर्देशक के लिए कहा जाता है कि फिल्म का विषय यह है और इसे यहां तक लेकर जाना है, आप उसको बनाने का कार्य करें। ऐसे में उसके पास फिल्म निर्देशन की जिम्मेदारी आती है, उसे पूरा करना उसका कर्तव्य होता है। लेकिन फिल्म की लाभ-हानी से उसका कोई आर्थिक नफा-नुकसान नहीं होता है क्योंकि उसे उसका तय मानधन मिल जाता है। फिल्म सफल या असफल हो गई तो उसके भविष्य पर असर पड़ता है। इसलिए हर निर्देशक अपने काम के प्रति ईमानदार रहकर अपने भविष्य, रुचि और पॅशन (Passion) को अंजाम तक लेकर जाने के लिए जी-जान लगा देता है। उसके द्वारा निर्देशन करना चुना हुआ उसका पंसदिता क्षेत्र होता है तो उसमें उतनी जिम्मेदारियां होती है। मनोहर श्याम जोशी लिखते हैं कि "लेखकों के प्रवक्ताओं ने यह कहा कि फिल्म का निर्माण पूरी टीम करती है और दिग्दर्शक की हैसियत वहीं होती है जो किसी टीम के कप्तान की होती हो सकती है। सामूहिक प्रयास से बननेवाली फिल्म का किसी को भी ‘औत्यूर’ नहीं कहा जा सकता। लेकिन अगर यह श्रेय किसी को देना हो तो ‘ऑथर’ यानी लेखक को दिया जाना चाहिए। उन्होंने उस ओर ध्यान दिलाया कि मशहूर-से-मशहूर दिग्दर्शकों की फिल्मों की रंगत उनके लेखक के हिसाब से बदलती रहती है। यहीं नहीं, एक लेखक की पटकथाओं पर अलग-अलग दिग्दर्शकों द्वारा बनाई गई फिल्मों की रंगत एक-सी है। उन्होंने कहा कि फिल्म की बुनियाद पटकथा होती है, उसे लेखक तैयार करता है। लेखक ही होता है जो प्रस्तावित फिल्म के बारे में सबसे पहले सोचता है। उसी के दिमाग में उसकी तस्वीर सबसे पहले उभरती है। इस बहस में ऑर्सन वेल्स जैसे मशहूर दिग्दर्शकों ने भी लेखक का पक्ष लिया। उन्होंने कहा कि फिल्म का सारा दारोमदार पटकथा पर होता है।" (पटकथा लेखन एक परिचय, पृ. 179) मनोहर श्याम जोशी का यह कथन एक दृष्टि से उचित लगता है परंतु इसको एकपक्षीय ही कहा जाएगा। इसका कारण यह है कि कोई लेखक कहानी फिल्मों के लिए नहीं लिखता है, उसकी अपनी पसंद और सृजनात्मक प्रक्रिया होती है। फिल्म उसके दिमाग से कोसों दूर होती है। रही बात पटकथा लेखकों की, तो पटकथा लेखन आधी सृजन और आधी तकनीकी प्रक्रिया है। अभ्यास और कौशल से इसे अवगत किया जा सकता है, परंतु उसके लेखन पर नियंत्रण रखने और दुरुस्तियां करवाने का कार्य निर्देशकीय कर्तव्य के भीतर आता है। लिखित सामग्री को दृश्य-श्रव्य सामग्री के हिसाब से अनुकूल बनाने का कार्य तथा उतनी ताकतवर अभिव्यक्ति की जिम्मेदारी निर्देशक की ही होती है। अतः लेखक और पटकथा लेखकों को निर्देशकों से बड़ा मानना थोड़ी ज्यादती होगी। हा अगर कोई निर्देशक लेखक और पटकथा लेखकों को बड़ा मान रहा है तो उसके मन की विशालता मानी जाएगी।

कुलमिलाकर कहा जा सकता है कि फिल्मों में निर्देशक और उसके द्वारा किए निर्देशन की एहमीयत बहुत अधिक है। सबकी सफलता का श्रेय कहीं-न–कहीं निर्देशक का मार्गदर्शन-दिशानिर्देशन ही माना जाता है। निर्देशन फिल्म निर्माण क्षेत्र की अहं जिम्मेदारियों में एक जिम्मेदरी है। उसके लिए आतंर्दृष्टि, कलात्मकता, सौंदर्यात्मकता, जुनून, ईमानदारी, काम के प्रति लगन, कार्यशीलता, कुशल, कार्यनिपुणता, कॅमरा-संपादन-प्रदर्शन की सोच और उसे अंजाम तक लेकर जाने का नजरिया, रचनात्मक दिमाग आदि बातों की जरूरत होती है। निर्देशक के निर्देशन कौशलों का परिपाक होता है कि फिल्में मकाम तक पहुंचती है। हजारों लोगों के साथ जुड़कर तालमेल बिठाना और फिर तकनीकी क्षेत्र का भी निर्देशन करना कड़ी मेहनत का कार्य है। यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी है और इसे अंजाम तक लेकर जाने के लिए एक मुख्य निर्देशक के साथ कई सहायक निर्देशकों की फौज भी खड़ी होती है।
      
2. कौशल और कला का संगम
       निर्देशन करने के लिए अभ्यास की जरूरत होती है और कौशल या निपुणता अभ्यास के पश्चात् ही आती है। कोई व्यक्ति वर्षों से किसी क्षेत्र से जुड़ा है तो उसमें अपने-आप उस क्षेत्र की सूक्ष्मताओं का कौशल आ जाता है। निर्देशन का भी बिल्कुल ऐसे ही है। कोई व्यक्ति फिल्म निर्माण और निर्देशन का पाठ्यक्रम पूरा कर चुका और सीधे फिल्में निर्देशित करने लगा है ऐसा कभी होता नहीं है। उस व्यक्ति को इस क्षेत्र के साथ धीरे-धीरे जुड़ना पड़ता है। फिल्मों का निर्देशन करना जितना कौशल का काम है उतना ही वह कला का कार्य है। वह कला का कार्य इसीलिए भी है कि निर्देशन फिल्म निर्माण के दौरान की सृजन प्रक्रिया है। सृजन सौंदर्य और कला के साथ हो तो उसमें अधिक निखार आ जाता है। अतः फिल्मों के निर्देशन में कौशल और कला का संगम हो जाएगा तो फिल्में दर्शकों को सिनेमा घरों तक लेकर आने में सफल होगी। अशोक वाजपेयी जी लिखते हैं कि "विश्व-सिनेमा में भारतीय सिनेमा की जगह और इज्जत है वह उस सिनेमा की वजह से बहुत कम है जिसे बॉलीवुड़ कहा जाता है। यह एक विड़ंबना ही है कि जो सिनेमा इतना लोकप्रिय और खासी अंतरराष्ट्रीय व्याप्तिवाला है उसे गुणवत्ता और सिनेमाई नक्शे में बहुत कम गिना जाता है। जिन फिल्मकारों को संसार के स्तर पर मान्यता और प्रतिष्ठा मिली उनमें सत्यजीत राय, मृणाल सेन, मणि कौल, कुमार शहानी आदि थोड़े से ही नाम भारत में हैं। वे सभी भारत की लोकप्रिय सिनेमा धारा से या तो दूर रहे या उसमें द्वीप की तरह ही नजर आते हैं। लोकप्रिय सिनेमा कहानी को कहने भर की तकनीक है जो खासी चकाचौंध और खर्चीलेपन और आजकल खासी नंगई से कही जाती है और जिसका प्रयोग प्रायः भारतीय जीवन की सच्चाई, उसके अंतर्विरोधों और विड़ंबनाओं, उसकी आंतरिकता और आध्यात्मिक और नैतिक संकटों और उलफतों से कुछ लेना-देना ही नहीं रहता। अधिकतर वह कौशल है, कला नहीं।" (हिंदी सिनेमा : दुनिया से अलग दुनिया, पृ. 215) हालांकि अशोक जी यहां पर फिल्म निर्देशन के कौशल पक्ष को अनुमति दे रहे हैं और कला को नकार रहे हैं। परंतु इस विचार पर अगर बारीकें से विचार करें तो निष्कर्ष यह निकलेगा कि सिनेमा निर्देशन जितना कौशल है उतनी कला भी है। यह सोचे की निर्देशक केवल दिशा निर्देशन कर रहा है और उसमें अपनी सौंदर्यात्मक दृष्टि और कलाकारिता इस्तेमाल नहीं कर रहा है तो क्या होगा। होगा यही कि सिनेमाई दुनिया फिकी पड़ेगी। सिनेमा निर्देशन करना यंत्रवत कार्य रहेगा और सारी फिल्में एक जैसी लगेगी। फिल्में अलग-अलग है और उसकी मनोरंजनात्मकता और सौंदर्यात्मकता अलग-अलग है तो कहा जा सकता है कि सिनेमा में निर्देशकीय कौशल और कला का संगम हो चुका है। हॉलीवुड़ की ‘सायको’ फिल्म का उदाहरण लिया जा सकता है। उसकी पहली निर्मिति ब्लॅक-व्हाईट में है। यह जिन कलाकारों के साथ बनी वहीं जब बाद में रंगीन हो गई तो भिन्न कलाकारों के साथ बनाई गई। अभिनय और लोकेशन एक जैसे ही परंतु निर्देशकीय कौशल और कला का संगम इसमें देखा जा सकता है।

       निर्देशन क्षेत्र के भीतर कौशल और कला का संगम अगर न हो तो फिल्मों की व्यावसायिक सफलता दांव पर लगती है। आगे चलकर उस फिल्म के कमजोररियों को ढूंढ़ना शुरू होता है और सबसे पहली कमजोरी निर्देशन की मानी जाती है। उसमें अनुभव, कला, कौशल की अगर कमी है तो ऐसे निर्देशक आगे चलकर अपने अस्तित्व को खो देते हैं। उन्हें फिल्में मिलना बंद होता है। अजय ब्रह्मात्मज एक साल के परीक्षण के दौरान लिखते हैं, "हर साल की तरह इस साल भी एक दर्जन से अधिक नए निर्देशकों ने फिल्म जगत में कदम रखा। दिसंबर तक कुछ और निर्देशकों की पहली फिल्में आ जाएंगी। अभी यह बताना मुश्किल होगा कि इनमें से कौन भविष्य में श्याम बेनेगल, यश चोपड़ा, सुभाष घई या रामगोपाल वर्मा बनेगा। बनेगा भी या सभी के सभी इतिहास में भुला दिए जाएंगे इस साल आए निर्देशकों की पहली फिल्म पर सरसरी निगाह डालें तो ऐसी कोई फिल्म नहीं मिलती, जहां नजरें पूरी तरह थम जाए।" (सिनेमा – समकालीन सिनेमा, पृ. 70) अजय जी का यह अफसोस नए निर्देशकों का निर्देशन क्षेत्र में बेअसर होना बयां करता है। अर्थात् उनका असरदार न होना कई कमियों के साथ कौशल और कला के संगम का अभाव भी है।

3. कॅमरामन और निर्देशक का तालमेल
निर्देशन करते समय निर्देशक का सबके साथ तालमेल तो होना चाहिए परंतु उसका सबसे अधिक तालमेल कॅमरामन के साथ हो तो दृश्यों की स्तरीयता, सौंदर्य, स्पष्टता, अभिनय कौशल की बारीकियां, सूक्ष्मताओं का अंकन करने का मार्ग खुल जाता है। गोविंद निहलानी जी ने आरंभिक दौर में कॅमरामन का कार्य कुछ फिल्मों के लिए बड़ी रुचि के साथ किया बाद में वे निर्देशन के क्षेत्र में उतर आए। जो काम मिला उसका सोना करना और उसके भीतर से अपने मकाम तक जाने का काम गोविंद निहलानी जी ने किया। अर्थात् उन्होंने सबसे पहले कॅरामन के गुर सीखे और उसका लाभ उन्हें निर्देशन के दौरान हुआ। उनका उनके कॅमरामन के साथ बना और इनका उन बारिकियों को सीखना निर्देशन को एक अलग ऊंचाई तक लेकर गया है। उनके फिल्मों का निर्देशन कौशल पढ़ाई का विषय है और साहित्य की कृतियों पर बनी ‘तमस’ जैसी व्यापक पृष्ठभूमिवाली फिल्म की मिसाल दी जाती है और आगे भी दी जाएगी। खैर कहने का तात्पर्य कि निर्देशन के दौरान निर्देशक और कॅमरामन तालमेल के साथ आगे बढ़ रहे हैं तो फिल्मों में कला, सौंदर्य और रंगत भरी जा सकती है। गोविंद निहलानी जी एक साक्षात्कार के दौरान कहते हैं, "कॅमरामन और निर्देशक का अच्छा तालमेल हो तो कॅमरामन काफी जोड़ता है। दुनिया के सभी बड़े निर्देशकों की अपनी कॅमरामन के साथ अच्छी समझदारी रही है या फिर वे स्वयं कॅमरामन रहे हैं। कॅमरामन और निर्देशक की सही समझदारी से फिल्म को खास व्यक्तित्व मिल जाता है। विचार तभी प्रस्फुटित होता है। शब्दों में जो विचार व्यक्त है, उसे दृश्य और ध्वनि में बदलने का काम तो बाद में होता है। पहले शब्द पर मेहनत होती है।" (सिनेमा की सोच, पृ. 166)

कॅमरामन दृश्यांकन करता है और उसका बहुत अधिक काम तकनीकी है पर उसकी सौंदर्यात्मक दृष्टि निर्देशक के लिए कई सूचनाएं दे सकती है। कॅमरामन दृश्यों का पहला दर्शक होता है जिसे वह आंखों से नहीं तो कॅमरा की आंख से देखता है। आम आंखें जो सौंदर्य देखकर पकड़ नहीं सकती है उसे कॅमरा पकड़ता है। अतः निर्देशन के दौरान निर्देशक का कॅमरामन पर विश्वास है और उसके साथ उसके संबंध मधुर है तो फिल्मों के अंतिम परिणाम भी अच्छे होते हैं। राधू करमाकर प्रसिद्ध कॅमरामन रहे हैं और इन्होंने राजकपूर की फिल्मों में कॅमरा को संभाला है परंतु राजकपूर निर्देशन के दौरान इनके साथ विचार-विमर्श करते रहे और निर्देशकीय मशवरे भी लिए। आर. के. प्रोड़क्शन की तहत बनी फिल्मों में निर्देशक और कॅमरामन के तालमेल का सौंदर्य देखा जा सकता है।

4. काल्पनिक सत्य की वास्तविकता को पिरोना
फिल्में कल्पना होती है और दर्शक परदे पर दृश्यों को देखकर वास्तविक दुनिया की कल्पना करने लगता है। फिल्मों में कल्पना भी हो तो दर्शक को कभी भी ऐसे लगना नहीं चाहिए कि भाई फिल्में हमारी दुनिया, विचार, सोच, वास्तविकताओं और कल्पनाओं से काफी दूर है। निर्देशन का काम यहीं है कि लेखक और पटकथा लेखक द्वारा उसके पास जो कहानी और पटकथा पहुंची है उसे कल्पना के साथ वास्विकता का जामा पहनाया जाए। फिल्में मात्र कल्पनाएं या केवल मनोरंजन है तो दर्शक उन दो-तीन घंटों में उसे देखकर भूल जाते हैं। लेकिन निर्देशक का कौशल यह है कि दर्शकों के सामने ऐसी कहानी परोसी जाए कि वह दर्शकों के आत्मा में प्रवेश करें। ऐसी फिल्में कुछ निर्देशक ही बना पाते हैं। हिंदी और भारतीय फिल्मी दुनिया में बीच-बीच में ऐसी फिल्मों का दर्शन होता है जो सिनेमाघरों में दर्शकों को बहुत अधिक नहीं परंतु पैसा वसुलने की भीड़ जमा करती है, परंतु स्तरीयता के चलते कई पुरस्कारों पर अपना नाम दर्ज करती है और आंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपना सिक्का जमा लेती है। निकिता जैन लिखती हैं कि "काल्पनिकता के साथ-साथ वास्तविक सत्य को जिस प्रकार पिरोकर दिखाया जाता है वह दिलों दिमाग की अंतरंग गहराइयों को छू लेता है। बंगाली सिनेमा की रीढ़ शक्ति सामंत, अपर्णा सेन, सुजोय घोष, प्रदीप सरकार, मृत्युंजय देब्रत जैसे निर्देशक हैं और यह सब अपनी-अपनी कलात्मकता का परिचय दे चुके हैं। इनके द्वारा बनाए गए सिनेमा में समाज के अनदेखे, अनछुए पहलुओं के दर्शन होते हैं जो यह एहसास दिलाते हैं कि हिंदी सिनेमा में फिल्में बड़ी तादाद में बनती तो हैं लेकिन इतनी गंभीरता या कलात्मकता के साथ नहीं। (कुछ फिल्मों और निर्देशकों को छोड़कर) बंगाली सिनेमा में एक स्वर्ण युग तब था जब सत्यजित रे जैसे निर्देशक नेपाथेर पंचालीजैसी अविस्मरणीय फिल्मों का निर्माण करना शुरू किया और भारतीय सिनेमा को ऐसी ऑफ बीट फिल्में दीं जो समाज में रहनेवाले विभिन्न तबकों का गहराई से विश्लेषण करती हैं, उसकी असली तस्वीर प्रस्तुत करती हैं।" (ई-संदर्भ) आगे चलकर यही निर्देशक हिंदी फिल्मों में निर्देशन करने लगे तो अपने-आप उनके देखा-देखी बाकी निर्देशकों ने भी इन्हीं के रास्ते पर चलना पसंद किया। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि फिल्मों में कल्पनाएं हो परंतु निर्देशन की कलात्मकता रहेगी कि उन्हें वास्तव के साथ जोड़कर दिखाया जाए। ऐसा अगर फिल्मों में हो जाए तो फिल्में चित्रों के रूप में अपने समय का सत्य सुरक्षित कर लेती है और निर्देशक उन सत्यों को देखकर अपने समय से आगे की बात का दृश्यांकन करने में भी सफल हो जाता है।

5. समन्वय करना
फिल्म निर्देशन कहानी और पटकथा के बीच समन्वय करके दृश्यांकन करना है। निर्देशन की जिम्मेदारी फिल्म निर्माण के दौरान बहुत अधिक है इसलिए कि फिल्म निर्माण से जुड़े हर शख्स का जुड़ाव निर्देशक के साथ होता है। अर्थात् फिल्मों में काम करनेवाला प्रत्येक कलाकार और तकनीशियन निर्देशक के आदेशों के तहत अपने काम को अंजाम देता है। इसका अर्थ निर्देशक सबके लिए बीच की कड़ी होता है। दूसरी बात न केवल भारत में बल्कि विश्व में साहित्य के अलावा अन्य ढेरों कलाएं हैं जिनका इस्तेमाल फिल्मों में होता है। परंपरागत कलाओं का अस्तित्व पहले जैसे था वैसे ही है परंतु उसका जीवंत प्रसारण बहुत कम मात्रा में हो रहा है, वहीं अगर फिल्मों मे उतर जाता है तो दर्शक उसे पसंद करते हैं। इससे फिल्मों का सौंदर्य तो बढ़ता ही है साथ ही उस पौराणिक और परंपरागत कला का सम्मान भी होता है। गोविंद निहलानी जी साक्षात्कार के दौरान कहते हैं कि "अपना सिनेमा क्या है? मैं लोकप्रिय सिनेमा की बात कर रहा हूं। इसकी जड़े तो हमारी लोककथाओं और लोकनाट्यों में हैं। आप हरिकथा लें, रासलीला लें, रामलीला लें या तमाशा लें। कोई भी फॉर्म देखें। उसमें कहानी गाकर सुनाई जाती है। अभिनय होता है। लोग नाचते भी हैं। यहीं चीजें लोकप्रिय फिल्मों में आईं। दुनिया के किसी और देश में यह फॉर्म नहीं है। लोककथा को जिस तरह से फिल्मों में लिया गया, वह कहीं नहीं है। पश्चिम के लोग हिकारत की नजरों से देखते हैं कि क्या गाना-बजाना करते हैं। लेकिन वह अस्सी सालों से लोकप्रिय है, क्यो? भरत नाट्यशास्त्र के रसों का निर्वाह होता है सिनेमा में। कोई एक रस प्रमुख होगा। लेकिन बाकी रस भी रहेंगे। इन रसों को दृश्यों में बदलिए तो एक्शन होगा, कॉमेड़ी होगी, प्रेम भी होगा, फॉर्म के जरिए आप क्या कहते हैं? वह महत्त्वपूर्ण है। अगर आप प्रतिक्रियावादी विचार आगे बढ़ाते हैं तो वह फॉर्म का दुरुपयोग है, लेकिन अगर प्रगतिशील विचार लाते हैं तो वहीं फॉर्म अच्छा होता है। दोनों ही तरह के लोग रहे हैं। विमल राय, गुरुदत्त, महबूब खान ने इसी फॉर्म मे अच्छी फिल्में दी हैं, सामाजिक रूप से प्रासंगिक फिल्में बनाई है। ‘दो बीघा जमीन’ में भी स्टार थे, गाने थे। लेकिन फिल्म क्या कहती है? सिर्फ इन तत्त्वों से फिल्म व्यावासायिक नहीं हो जाती। आप क्या कहते हैं या किस तरह से फॉर्म का इस्तेमाल करते हैं, उससे फर्क पड़ता है।" (सिनेमा की सोच, पृ. 164) कहने का तात्पर्य यह है कि निर्देशकीय जिम्मेदारी यह है कि सबका समन्वय करके फिल्म का सौंदर्य बढ़ाया जाए। निर्देशक को यह छूट मिलती है कि वह सारी कलाओं और कौशलों का इस्तेमाल करके फिल्मों को बेहतर से बेहतर बनाए। निर्माताओं से ऐसी खुली छूट मिल जाए तो निर्देशन करते समय निर्देशक के दिमाग में अनेक कल्पानाओं का उद्गम होता है और फिल्मों के लिए अधिक लाभ होता है।

6. एक पॅशन (Passion)
निर्देशन का क्षेत्र कोई निर्देशक अपनी रुचि और चुनाव से करता है। उसे अपने चुनाव से न केवल ईमानदार रहना पड़ता है बल्कि अपनी जान से भी प्यारा समझना चाहिए। कई लोगों की आम मानसिकता होती है कि जॉब केवल पैसा कमाने के लिए करें उसमें उन्हें रुचि नहीं होती या आरंभिक दौर में रुचि के तहत उसका चुनाव किया होता है लेकिन फिर वह रुचि खत्म होती है। ऐसे लोग बाद में अपना काम कृत्रिमता से करने लगते हैं। यह उस कार्य के लिए भी खतरा होता है और व्यक्ति के लिए भी। अतः हमें यह ध्यान रखना है कि किसी भी क्षेत्र का चुनाव अपनी रुचि है उसे अंत तक पॅशन के साथ निभाना है। रोज अगर नए-नए प्रयोग करते रहेंगे तो परिणाम अच्छे आएंगे। अर्थात् परंपरागत काम को छोड़कर प्रयोगशील और पॅशनिस्ट रहेंगे तो अपने काम के प्रति रुचि भी बढ़ेगी। निर्देशक अशुल शर्मा को एक साक्षात्कार में पूछा कि भाई आपने फिल्म निर्देशन के क्षेत्र को क्यों और कैसे चुना तो वे कहते हैं, "नहीं बस पॅशन था कि फिल्म बनानी है। आप जितने ज्यादा युवा होते हैं पॅशन उतना ज्यादा होता है। इस दौरान आपकी पहली फिल्म आपके लिए सबसे ज्यादा जरूरी होती है। बस। क्योंकि उसमें पूरी जी-जान लगा देते हो। बनने के काफी वक्त बाद जरूर सोचते हो कि यार पहली फिल्म ऐसी होती तो ज्यादा अच्छा रहता। मगर बनाने से पहले नहीं सोचते कि मैं इसके लिए बनाऊंगा या उसके लिए।" (ई-संदर्भ) फिल्मों का दिग्दर्शन जब चलता है तब मानो निर्देशक के दिमाग पर भूत संवार होता है। उसे सोते जागते केवल और केवल फिल्म ही दिखाई देती है। सोने और खाने का भी कम मौका मिलता है। फिल्मों का निर्देशन एक लंबी प्रक्रिया है और ज्यादा समय भी लगता है। कई चीजें अपने हाथ में नहीं होती है तब समय-सारणी में गड़बड़ होती है। ऐसी स्थिति में निर्देशक को सब्र से काम लेना पड़ता है। अपने मन को और अन्य टीम मेंबर के मन को प्रसन्न रखना पड़ता है। यह तब होता है जब आप और आपकी सारी टीम पॅशन के साथ काम कर रही होती है। अंशुल शर्मा इसी बात को आगे बढ़ाते कहते हैं, "पता नहीं मुझे भी। शायद पॅशन से। शूटिंग के वक्त तो मुश्किल से तीन घंटे सोने का वक्त मिलता है फिर भी अगले दिन आप बहुत फ्रेश होते हैं। पता नहीं वो कहां से आता है। जैसे 'देव डी' की शूटिंग कर रहे थे तो लगातार दस-बारह दिन तक हम दो घंटे से ज्यादा सो ही नहीं पाए। लेकिन अगले दिन सेट पर पहुंचते थे तो ऐसा महसूस नहीं होता था। उसी एनर्जी से भाग रहे थे, उसी एनर्जी से काम कर रहे थे। फिल्म जब बन जाती है तब आप बैठे रहते हैं या ऑफिस में सोते रहते हैं, ऊंघते हैं लेकिन शूटिंग के वक्त ऐसा नहीं होता।" (ई-संदर्भ)

7. विषय को न्याय देना
फिल्मों के लिए कहानी आधार होती है और कहानी में एक विषय होता है। पटकथा लेखन भी उसी विषय को ध्यान में रखकर किया जाता है। फिल्म तकनीक को अपनाकर बनाई जाती है, वह कलात्मक सौंदर्य का प्रकटीकरण करती है परंतु यह भी सच है कि वह विषय से हटती नहीं है। हर फिल्म के भीतर निर्देशक की यह कोशिश होती है कि फिल्म बनाते वक्त मूल विषय को न्याय दिया जाए। अंशुल शर्मा इस बात पर प्रकाश डालते हुए साक्षात्कार में कहते हैं कि "पैड़लर्स अनुराग सर ने प्रोड्यूस की तो उनकी सोच बहुत अलग है। वो अपने असिस्टेंट्स को बहुत प्रमोट करते हैं। वो ऐसा नहीं सोचते कि ये कमर्शियल फिल्म है और इसमें मैं इतना पैसा लगा रहा हू्ं तो वो लौटे। बतौर डायरेक्टर अपने क्राफ्ट को लेकर वो बहुत पॅशनेट हैं। वो बोल देते हैं कि तेरे को ये चीज बनानी है, तू बना, बाकी कारोबारी गणित हम बाद में देखेंगे। सारे जहां से महंगाके मामले में जो पैसा लगा रहे हैं उनके प्रति मेरी जिम्मेदारी बनती है। वो जितना पैसा लगा रहे हैं, कम से कम उतना तो वापिस मिले। इसके अलावा ये सोच भी थी कि फिल्म ऐसा माध्यम है जिसे थियेटर में या टीवी पर भारत की 90 फीसदी जनता देखती है तो उस माध्यम को लेकर अपनी जिम्मेदारी निभानी थी, फिल्म के सब्जेक्ट से न्याय करना था।" (ई-संदर्भ) विश्वभर में जितनी फिल्में बन रही है उन फिल्मों का निर्देशन करते वक्त विषय के साथ चलना और उसी के आस-पास सारे दृश्यों को बनाने की कोशिश होती है। जो फिल्में विषय से भटक जाती है उनकी व्यावसायिक सफलता और कलात्मक सफलता भी खतरें में आ जाती है।

       गोविंद निहलानी जी विषय के साथ न्याय करने की बात पर विश्वास करते हैं। उनका कहना है कि "कोई भी माध्यम जो समाज से बंधा है, जिसके अनुभव के लिए निश्चित सीमा को पार नहीं कर सकते, वहां ऐसी समस्या आती है। फिल्म, नाटक और धारावाहिक, टेलीफिल्म आदि ऐसे ही माध्यम हैं। उस सीमा की वजह से फिल्मकार को चुनना पड़ता है मान लीजिए आप कोई मुद्दा लेकर चलते हैं और उसमें चार तत्त्व हैं तो चुनाव करना पड़ता है। उस निश्चित सीमा में चरित्र को विकसित करना है कहानी भी है। एक कथावस्तु रहेगी और निर्देशक को अपनी अभिरुचि भी जाहिर करनी है फिर यह देखना पड़ता है कि उन चार तत्त्वों में कौनसा आपको ज्यादा उद्वेलित करता है या जिससे आप चितिंत हैं या जिसे आप प्रकाशित करना चाहते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि शेष तीन मुद्दे गलत हैं। फिल्मांकन के समय उन तीन तत्त्वों पर छाया आ जाएगी। प्रकाशित वहीं तत्त्व होगा, जिससे आप उद्वेलित हैं। यह हमें चुनना पड़ता है। समय के बंधे हर माध्यम में यह चुनाव करना ही पड़ेगा। यह माध्यम की अपनी खासियत या सीमा है, जो भी आप कहें। इससे फायदा यह होता है कि एक तत्त्व प्रभावशाली तरीके से दर्शकों के सामने आता है। दृश्य और श्रव्य माध्यम के कारण यह प्रभाव गहरा होता है।" (सिनेमा की सोच, प्र. 161) विषय के साथ न्याय करने की बात निर्देशक सोचता है और फिल्म के बाकी किरदार भी इसके साथ अपनी ईमानदारी से खड़े होते हैं।

8. सब्र की जरूरत
फिल्म बनाने के लिए लगभग एक-डेढ़ साल लगता है। इन दिनों निर्देशक ही अकेला व्यक्ति होता है कि जो आदि से अंत तक उस फिल्म के साथ जुड़ता है। इसके पहले भी लिखा है कि फिल्म बनाने की प्रक्रिया में अनेक लोग जुड़ते हैं परंतु वे समय-समय पर आते हैं। इनके साथ जुड़कर, उनका मूड़ संभालकर समय-सारणी बनाना और पूरी फिल्म बनाने का दबाव सहन करना कठिन कार्य है। इसे सफलता तक लेकर जाना है तो सब्र की आवश्यकता होती है। निर्देशन के भीतर आनेवाले मानसिक तनावों को सहन करने की क्षमता होनी चाहिए। "उस लेवल तक पहुंचने में बहुत धैर्य चाहिए। क्योंकि आप छोटा-छोटा काम करते हैं। बहुत बार खीझ भी उठती है, निराशा होती है। कई बार ऐसा भी लगता है कि कहां आ गया हूं। ऐसे में अपना फोकस आपको दिखना चाहिए कि मुझे वहां पहुंचना है। आप विश्वास रखेंगे खुद पर, धैर्य रखेंगे और गोल पर केंद्रित रहेंगे तो पहुंच जाएंगे।" (ई-संदर्भ, अशुल शर्मा)

9. आशावादिता
फिल्म का निर्देशन करना और सबको एक साथ लेकर चलना एक प्रकार का सफर होता है। सबके साथ चलना पड़ता है। कुछ लोग पसंद हो न हो, कुछ के साथ बनता हो न हो तो भी अपने उद्देश्य पर नजर रखते हुए निर्देशन करना पड़ता है। काम पर ध्यान केंद्रित करना पड़ता है, छोटे बड़े प्रसंगों की तनातनी से निराश नहीं होना है और अच्छी फिल्म बनने की आशाएं पाले रखना है। "आपको अपना लक्ष्य दिखना चाहिए। कहीं पहुंचने के लिए अगर पांच सौ सीढ़िय़ां चढ़ऩी हैं और आप सौ सीढ़ी बाद थक जाओ तो कुछ सोचेंगे कि सौ में मेरी ये हालत है चार सौ और कैसे चढ़ूंगा। लेकिन आपने तय कर रखा है कि मुझे तो जाना ही है, तो मैं पांच मिनट बैठूंगा, अपनी एनर्जी हासिल करूंगा और वापिस चढ़ूंगा।" (ई-संदर्भ, अशुल शर्मा) अर्थात् निर्देशन कुशलता से निभाने के लिए जैसे सब्र की आवश्यकता है वैसे ही आशावादी भी रहना चाहिए।

10. पर्दे के पीछे का कार्य
                निर्देशन पर्दे के पीछे का कार्य है। जैसे पर्दे पर दिखनेवाले लोगों की पहचान होती है वैसी पहचान निर्देशक के हिस्से नहीं आती है। आज इसमें थोड़ा-बहुत परिवर्तन आ रहा है। अच्छे निर्देशकों को दर्शक पहचानने लगे हैं उसका कारण मीड़िया, फिल्म समीक्षाएं और व्यापक प्रचार-प्रसार है। अंजुल शर्मा कहते है, "निश्चित तौर पर एक समझ बनी हुई है। आप लोगों को जाकर नहीं कह सकते कि ये फिल्म मैंने बनाई है। आम दर्शक एक्टर को देखता है तो उसी की बात करेगा। डायरेक्टर के लिए सबसे बड़ी बात ये है कि लोग उसकी फिल्म के बारे में बात करें। अब जैसे मेरे सामने की टेबल पर कोई बैठा हो और मुझे नहीं जानता हो लेकिन कहे कि यार सारे जहां से महंगादेखी, कमाल की फिल्म है, उसमें संजय जी का काम ऐसा है। मेरे लिए वो बहुत है। उसी में सारी खुशी है, राहत है। एक्टर तो जानते हैं न। जनता भी जानेगी। जैसे रोहित शेट्टी हैं, अनुराग कश्यप हैं, लोग उन्हें जान रहे हैं, चीजें बदल रही हैं।" (ई-संदर्भ) कुछ निर्देशक निर्देशन के साथ फिल्मों में अपनी छवी को उतारने का मोह नहीं रोक पाते हैं। सुभाष घई जी अपनी फिल्मों में कहीं-न-कहीं एकाध दृश्य में अपना दर्शन करवाते हैं। मराठी के युवा निर्देशक नागराज मंजुळे भी ‘फँड्री’ और ‘सैराट’ में निर्देशन के साथ अभिनय का काम कर चुके हैं। परंतु फर्क यह है कि सुभाष घई जी का दर्शन होता है और नागराज मंजुळे अपनी फिल्म में जिस किरदार में हैं वह उस फिल्म का प्रभावशाली हिस्सा है। निर्देशन की फिल्म निर्माण में अहं भूमिका है इसलिए आज इसकी काफी चर्चा हो रही है और कुछ साल पहले जिन निर्देशकों की पहचान पर्दे की पीछे की थी वह आजकल  बदलने लगी है। आज फिल्में निर्देशकों के नामों से पहचानी जानी लगी है। हॉलीवुड़ में फिल्म निर्देशकों का काफी सम्मान है।

सारांश
फिल्मों के समूचित प्रभाव से उसकी व्यावसायिकता तय होती है और समूचित प्रभाव को बनाना निर्देशक का कार्य होता है। निर्देशन फिल्म के आरंभ से फिल्म के पर्दे पर उतरने तक लगातार चलनेवाली प्रक्रिया है। निर्देशक एक अकेला ऐसा व्यक्ति है जिसकी फिल्म पूरी होने तक छुट्टी नहीं होती है। फिल्म की बारीकियों पर नजर रखते हुए उसको प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने का कार्य निर्देशक का होता है। आदि से अंत तक फिल्म के साथ जुड़ने के कारण फिल्म की कमजोरियां निर्देशक की पकड़ में आती है। उन पर उसी समय काम करते हुए सुधार करना जरूरी होता है। निर्देशन का अर्थ दिशा दर्शन और मार्गदर्शन करना है। कौशल और कला का संगम, कॅमरामन और निर्देशक का तालमेल, काल्पनिक सत्य की वास्तविकता को पिरोना, समन्वय करना, विषय को न्याय देना, पर्दे के पीछे का कार्य आदि निर्देशकीय जिम्मेदारियां होती है। निर्देशक अपने कार्यों को एक पॅशन, सब्र और आशावादिता के साथ अंजाम तक पहुंचा देता है।

निर्माताओं द्वारा निर्देशक को निर्देशन के लिए नियुक्त किया जाता है। अर्थात् फिल्म के निर्माता और फायनेंसर कोई दूसरे होते हैं और निर्देशन एक प्रकार का जॉब होता है। परंतु यह बात भी सही है कि निर्माताओं का फिल्म की सौंदर्यात्मक और कलात्मक दृष्टि से कोई संबंध नहीं होता है, यह कार्य निर्देशकीय जिम्मेदारी के तहत आता है। खैर आज कई फिल्मों के भीतर यह भी देखा जाता है कि निर्माता और निर्देशक एक ही होता है। निर्माता ही निर्देशन की जिम्मेदारी को निभाता है और फिल्मों को निर्माण-निर्देशन के साथ पर्दे पर लेकर जाता है। ऐसा करने के पीछे यह उद्देश्य है कि फिल्म के सारे सूत्र अपने हाथ में रहे। दूसरी बात यह भी है कि फिल्म निर्देशन में कई सहायक निर्देशक भी होते हैं जो अपने विभाग में निपुण होते हैं जिससे निर्देशन करना आसान होता है।

संदर्भ ग्रंथ सूची
1.  पटकथा लेखन एक परिचय–मनोहर श्याम जोशी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,प्रथम संस्करण 2000,आवृत्ति 2008.
2.  मानक विशाल हिंदी शब्दकोश (हिंदी-हिंदी) – (सं.)डॉ. शिवप्रसाद भारद्वाज शास्त्री, अशोक प्रकाशन, दिल्ली, परिवर्द्धित संस्करण, 2001.
3.   सिनेमा की सोच – अजय ब्रह्मात्मज, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2006, आवृत्ति 2013.
4.   सिनेमा समकालीन सिनेमा - अजय ब्रह्मात्मज, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2006, आवृत्ति 2012.
5.    हिंदी सिनेमा : दुनिया से अलग दुनिया – (सं) गीताश्री, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली, 2014.
6.    हिंदी साहित्य कोश भाग 1, पारिभाषिक शब्दावली – (प्र. सं.) धीरेंद्र वर्मा, ज्ञानमंड़ल लि. वाराणसी, तृतीय संस्करण, 1985.

डॉ. विजय शिंदे
देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद-431005 (महाराष्ट्र).

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