चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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हस्तक्षेप:- कहाँ तो चिरागाँ तय था हरेक घर के लिए -राजू मूर्मू
सत्ता के नशे में चूर न जाने कितने बादशाह , तानाशाह इतिहास में दफ़न हो गए। फिर भी
शासक और शोषण के क्रूर सिद्धांत को हम इंसान आजतक समझ नहीं पाये हैं। पूरे विश्व
का इतिहास पढ़ लें हरेक शासक वर्गों ने सिर्फ जुल्मों सितम के अलावा कुछ नहीं किया।
उन शहंशाहों , महाराजों ,जागीदारों , सामंतों ,पुरोहितों ने कभी भी अपने आवाम के लोगों के सुख दुःख की बाते नहीं
की थी। अत्याचार, लगान, और अत्यधिक परिश्र्म करा कर इन्होंने अपने बड़े-बड़े शानदार खूबसूरत
महल, मीनार और अपने अय्यासी के अड्डे बनाये।
बेबीलोन से लेकर मिश्र,चीन से लेकर भारत इन देशो की प्राचीन इतिहास में इन तानाशाहों के
जलवो का बखान पाया जाता है और हम इसे दूसरों को बता कर अपनी शान समझते है। आज हम
लोग उन प्राचीन इमारतों को देख कर बहुत खुश होते हैं। लेकिन इन इमारतों और मीनारों
मे दफन हजारों लाखों बेगुनाह इंसानों की चीख और कराहना को शायद ही कभी सुन पाते
होंगे । इनके दर्द की दास्तां शायद हम आज तक समझ नही पायेंगे।
आज भी मुझे ऐसे मासूम लोगों को किसी सड़कों को बनाते हुये, बड़ी-बड़ी इमारतों की नींव रखते हुये, किसी खेत मे मज़दूरी करते हुये देखते
है जिसे ना ढंग का खाना नसीब होता है ना सर छुपाने को आशियाना, ना ही इनको और इनके बीबी बच्चो को तन
ढ़कने के लिये अच्छे कपड़े। वही गुलामीगीरी सदियों से चला आ रहा है। आज क्रूर
तानाशाहों का युग तो खत्म हो गया पर ना जाने ये क्रूर आत्मा आज भी जीवित है बस रूप
बदल गए हैं, नाम बदल गए हैं लेकिन क्रूरता और दरिंदगी की आत्मा एक जैसी है।
शोषण और शासन के बीच पीसते हुये इंसानियत को मरते हुये देखता हूँ तो बड़ी पीड़ा
होती है। आधुनिक काल ज्ञान-विज्ञान का युग है। शिक्षा और तकनीक का युग है। आज
का शासन कोई पागल तानाशाह या किसी सिरफिरे बादशाह के इशारे में नहीं चलता, वरन जनता ही निर्णय करती है, की किसे
सत्ता सौंपे! यह युग है लोकतंत्र का! कई देशों में इस प्रकार की शासन-प्रणाली चल
रही है और कई देश ऐसी व्यवस्था के लिए आंदोलन भी कर रहे हैं।
भारत अनेक विदेशियों के लम्बे वर्षों की अधीनता सहते हुये शहादत, विद्रोह, क़ुरबानी करने के बाद 1947 में एक आजाद देश बन
गया। अपना एक संविधान, नियम और कानून बने, आखिर इतने बड़े देश की लाखों जनता के
जीवन का सवाल था। खूब खुशियाँ मनाई गईं। अब हक़ और रोटी मांगने के एवज में कोई यहाँ
की जनता को अपने जूते के नीचे नहीं रखने वाला था। इतनी विभिन्नताओं से भरे इस देश
में किसी एक वर्ग के लिए कानून बनाना असंभव था। कई बुद्धिजीवियों ने मिलकर भारत का
‘कानून संहिता’
बनाने में जुट गए। अध्ययन के उपरांत कई बातें उभर कर निकलीं। इस
अध्ययन के आधार पर इस देश को एक ‘संघात्मक’, ‘धर्मनिरपेक्ष’
और ‘गणतंत्र’ देश के रूप में संवैधानिक रूप से स्वीकार कर लिया गया। शासन
प्रकिया संसद के मार्फ़त दो सदनों में किया गया ‘लोकसभा’ और ’राज्य सभा’। संसदीय सदस्यों को जनता द्वारा हरेक
पांचवे वर्ष सरकार चलाने का अवसर दिया जाता है। इस प्रक्रिया में चुनाव आयोग अपनी
नजर रखती है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक पहाड़ों से लेकर मैदानी हर क्षेत्रों में
जहाँ लोग निवास करते हैं मतदान कराया जाता है। जनता के प्रतिनिधित्व करने वाले
राजनितिक दल जनता की बातें संसद तक ले जाते हैं, जहाँ जनता की बात को रखने की
जिम्मेवारी जनप्रतिनिधियों को दी जाती है। फिर उस विषय पर पक्ष-विपक्ष की सहमति से
बिल पास करा कर पूर्ण कानून बना दिया जाता है। इस प्रकार से जनता और देश के विकास
में हमारी संसदीय व्यवस्था सहायता करती है।
संसदीय प्रणाली यूँ तो दिखता बहुत अच्छा है परन्तु ऐसा प्रतीत होता
है जैसे ये किसी चिराग का जिन्न है, जिसके हाथ गया शक्ति उन्हीं के हाथ
में। आजादी से लेकर आज तक न जाने कितनी सरकारें आयीं और गयीं। इस प्रणाली की
समस्या यह है की जिस संविधान को योग्य, कर्मठ, शिक्षित, उदारवादी, सभी वर्गों के हित की रक्षा करने वाले
प्रतिनिधित्व की जरुरत थी, परन्तु उसके विपरीत अयोग्य, हिंसक, अपराधिक प्रवृति के व्यक्ति ‘सत्ता’ में आकर संवैधानिक मर्यादाओं को
शर्मशार करते हैं।
भारत एक ‘धर्मनिरपेक्ष’
देश है सभी लोग अपने अपने धर्म का पालन करने के लिए स्वतंत्र हैं
लेकिन सियासी राजनीति में धर्म की राजनीति करने से भी बाज नहीं आते, जिसके कारण
लोकतंत्र की गरिमा को हानि पहुँचती है। इन्ही कारणों से देश में कई सियासी दल बन
गए हैं। सभी का उद्देश्य किसी तरह से ‘सत्ता’ को हासिल करना है। संसद तक पहुंचे
नहीं की अपने उद्देश्यों को पूरा करने का प्रयास शुरू हो जाता है।
आजादी के 70 वर्षो के बाद भी देश में गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, कमजोर आर्थिक नीतियाँ, ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए
बनायी गयी नीतियों को ठीक से पूरा नहीं करना, ऊपर से नीचे सभी सरकारी विभागों में
भ्रष्टाचार व्याप्त होना, उपेक्षित समाज के ऊपर होने वाले अन्यायों का बढ़ना, देश में महिला की सुरक्षा के लिए कड़े
कानून की अवहेलना, देश में सामान शिक्षा के दो तरफा नियम, निजी स्कूलों एवं सरकारी स्कूलों में
शिक्षा के स्तर में अंतर, कट्टरपंथी संगठनो में वृद्धि, जातिवाद एवं धार्मिक तनाव में निरंतर
वृद्धि ही हुई है। इन सभी समस्याओं को लेकर किसी भी जनता के प्रतिनिधियों ने खुल
कर निस्वार्थ और एकजुट होकर आंदोलन नहीं किया बल्कि अपने राजनीतिक लाभ एवं सत्ता
के लिए इन सभी समस्याओं को जानबूझ कर दरकिनार करते रहे ताकि हर पांच वर्ष के बाद
जनता से इन्हीं समस्याओं के बहाने वोट मांग सके। लेकिन सत्ता पक्ष में आते ही अपने
कलुसित उदेश्यों में लग जाते हैं। यही कारण है कि आजादी के बाद और वर्तमान में कई
ऐसे जघन्य घोटाले के लिए मंत्री एवं अधिकारीयों पर आरोप लगते रहे हैं और कई मामले
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में लंबित पड़ी हुई हैं जिसके आरोपियों को आज तक क़ानूनी
तौर पर कोई सजा नहीं दे पाये।
शहर से लेकर गाँव तक शिक्षा, पेय जल, मकान, उन्नत कृषि, व्यापार की उन्नति में संसद का ही
योगदान होता है यहीं से प्रत्येक योजनाओं के लिए कोष की व्यवस्था की जाती है। अरबों-खरबों
का हिसाब होता है। वरन् संसद में इन विषयों पर सिर्फ चर्चा करने के एक एक सत्र
(मीटिंग) में लाखो रूपये खर्च होते है, लेकिन देश में व्याप्त समस्याओं का समाधान
पूर्ण रूप से नहीं हो पाया है।
सही मायने में मैं 'लोकतंत्र' को तभी सफल मानूंगा जब कोई सरकार देश
की जनता को उनके मुलभुत जरूरतों जैसे स्वक्छ पानी , बिजली , रोटी (रोजगार ) और सिर छुपाने के लिए
घर एवं बच्चो के लिए मुफ्त शिक्षा उपलभ्ध करा दे। देश की जनता की आशाओं और विश्वास के द्वारा जब कोई राजनितिक पार्टी
सत्ता में आती है तब सत्तासुख में देश की जनता को भूल जाना उस पार्टी के मंत्रियों
को मिलने वाली शक्तियाँ फिर बेमानी लगने लगती हैं। यह सत्य है कि देश के 90 फीसदी जनता को अपने देश के कानून एवं
शासन प्रक्रिया के बारे में मूलभूत ज्ञान भी शायद नहीं होगा, जिसका लाभ चंद लोग ‘लोकसत्ता’ में आने के बाद उठाते हैं और अगर किसी
ने इनके खिलाफ आवाज उठाई तो उसी कानून के तहत उस निरीह जनता को कालकोठरी में डाल
दिया जाता है।
आज देश को चलाने वाले लोगों की नैतिक पृष्टभूमि की निष्पक्ष जांच
करके देख लीजिये 90 प्रतिशत किसी न किसी अपराधिक मामले में पाये जायेंगे। फिर यह और भी
बेमानी लगने लगती है कि एक अपराधिक प्रवृति के व्यक्ति के हाथ में देश को चलाने की
शक्ति दी जाए और वह व्यक्ति उन शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करेगा इसकी कोई गारंटी
नहीं! अब देश की जनता को ही तय करना होगा की इन्हें शोषण करने वाले लोग चाहिये या
जनता के दुख और दर्द को समझने वाला और उनके समस्याओं का हल निकालने वाला योग्य
व्यक्तियों का समूह चाहिये ।
आज राजनितिक और धार्मिक शक्तियों का नियंत्रण चंद पूंजीपतियों के
हाथो में है ताकि 'सत्तापक्ष दल '
को अपने हाथो की कठपुतली बना सके। कुछ झोला छाप दलाल लोगों की
कुटिल आकांक्षाओं और लालच का शिकार इस देश का सबसे कमजोर तबका यानी गरीब, असहाय जनता ही है जो वर्षों से जुल्मों
का शिकार होता आया है, मरता आया है,
पीसता और कुचलता आया है। कभी जाति के नाम पर! कभी धर्म के नाम पर!
और कभी विकास के नाम पर! कीमत सिर्फ जनता को ही चुकानी पड़ती है। आज देश बेरोजगारी
और भुखमरी से परेशान नहीं है वरन धनाढ्य ,दबंगो, नेताओं और लुच्चे लोगों के शोषण और
अन्याय से परेशान है, इस प्रकार की ज्यादती और बेसलूकी भारत में सैकड़ों वर्षो से होता आ
रहा है। इंसानियत के नाते इस प्रकार की असमानतापूर्ण व्यवहार का अंत अब हो ही जाना
चाहिए।
राजू मुर्मू,झारखण्ड