समीक्षा:नन्दकिशोर आचार्य के गद्य साहित्य में वैचारिक ताजगी – मुकेश कुमार शर्मा

त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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समीक्षा:नन्दकिशोर आचार्य के गद्य साहित्य में वैचारिक ताजगी – मुकेश कुमार शर्मा


चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे 
साहित्य एवं संस्कृति का अन्योन्याश्रित संबंध है अर्थात् एक के बिना दूसरे की सार्थकता सिद्ध नहीं की जा सकती है। जिस प्रकार की संस्कृति में मानव अपना जीवन जीता है। उसी की प्रतिध्वनि हमें साहित्य में सुनाई देती है। आचार्यजी की दृष्टि में संस्कृति निरन्तर प्रवाहमान है जो समय के साथ अपने रूप एवं स्वरूप में परिवर्तन करते हुए अपने आप को अक्षुण्ण बनाए हुए है। इसे इनके रचनाकर्म में प्रतिफलित होते हुए देखा जा सकता है।    रचना का सच तेरह लेख, नौ समीक्षाएँ एवं नौ टिप्पणियों सहित कुल इक्कीस अध्याय है। इस पुस्तक पर के. के. बिड़ला फाण्डेशन का ‘बिहारी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ है जो इसकी प्रामाणिकता को स्वतः सिद्ध करती है। 

प्रथम खण्ड के लेख हमें साहित्य के विविध रूपों-कविता, कहानी, आलोचना के क्षेत्र में उपस्थित चुनौतियों से ही रूबरू नहीं करवाते हैं वरन् उनमें छुपे उन तत्वों से भी हमें मिलवाते हैं जो उस रचना कर्म के पीछे अप्रत्यक्ष रूप से कार्य कर रहे होते हैं। श्रेष्ठ साहित्य की प्रथम शर्त ‘यथार्थ का निराग्रह ग्रहण’ को माना है। ‘आज के लेखक की परिस्थिति‘ लेख में ऐन्द्रिक संवेदना, मानवीय चेतना, लेखक की संघर्षशीलता, अनुभव की अद्वितीयता, लेखन का माध्यम भाषिक चेतना का सृजनात्मक विकास, आत्म सजगता आदि को लेखक के लिए आवश्यक माना है। आज के लेखक की पहली पहचान के संबंध में लिखा है कि- ‘‘उसकी रचना अपने ही अनुभव के प्रति आत्मालोचन का और रचनात्मक स्तर पर उस संघर्ष का साक्ष्य हों...।‘‘ 

‘अमानवीयकरण का ख़तरा और कविता’, ‘आध्यात्मिकता की प्रासंगिकता‘, ‘साहित्य में प्रकृति आधुनिक दृष्टि’, ‘साहित्य के प्रति उदासीनता क्यों?’ आदि लेखों के माध्यम से साहित्यगत विभिन्न विशेषताओं को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया गया है। 

द्वितीय खण्ड की समीक्षाओं में - कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, यात्रावृतान्त आदि के लेखकों की प्रवृत्तियों का वर्णन किया है। ‘सच जो सिर्फ कविता है’ में विजयदेव नारायण साही’ की कविताओं की समीक्षा; ‘कविता जिसमें वेदना की पहचान है’ में रघुवीर सहाय की कविताओं में विद्यमान वेदनाओं का रेखांकन, ‘काँपता हुआ शब्द’ में नन्द चतुर्वेदी की कविताओं में मानवीय संघर्ष, नाटकीयता, सपाट बयानी आदि का उल्लेख; ‘आत्मीय संवाद का अहसास’ में सर्वेश्वरदयाल सक्सेना; ‘मुक्ति के लिए छटपटाहट की कहानी’ में निर्मल वर्मा, ‘सीपी में सागर’ में अज्ञेय के निबन्धों पर, ‘भारतीय मन का द्वन्द्व’ में कन्नड़ लेखक भैरप्पा के उपन्यासों की समीक्षा, ‘अथ राग हिमालय’ में कृष्णनाथ के यात्रावृतान्तों की समीक्षा की गई है। 

तृतीय खण्ड में आचार्य जी की नौ टिप्पणियाँ हैं जो रचनाकारों का अध्ययन करते समय उन्हें सहज महसूस हुई हैं। ‘कविता के सामर्थ्य का अहसास’ में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं में उपस्थित परिवेशगत समग्रता के प्रतिबिम्ब को अनुभव करते हुए लिखा है कि - ‘‘सर्वेश्वर हिन्दी के उन बिरले कवियों में हैं जिनकी संवेदना जीवन और परिवेश के सभी पक्षों को अपने विस्तार में सहज ही बाँध लेती है।’’  ‘एक संसार स्मृतियों का‘ एवं ‘बरामदे में भीगती खाली कुर्सी‘ टिप्पणियों में प्रयाग शुक्ल की कविताओं ; ‘ढलान पर वसन्त की स्मृति‘ में मंगलेश डबराल के काव्यालोक, ‘ख़ोयी हुई बयाज्यों की तलाश‘ में शीन काफ़ निज़ाम, ‘दूर कौंधती लय की तरफ‘ में रमेश चन्द्र शाह, ‘अँधेरे आतंक में प्रेम की ऊष्मा‘ में अवधेश, ‘कविता कभी नहीं हारती‘ में गिरधर राठी अनूदित कविता संग्रह ‘आधुनिक हंगारी कविताएँ‘ इत्यादि पर की गई टिप्पणियाँ अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। 

        सर्जक का मन में आचार्य जी ने बताया कि रचना में वैयक्तिक व सामाजिक जीवन्तता के साथ-साथ कर्तव्य-बोध, मूल्य-बोध, मानवत्व, स्वाधीनता, सर्जनात्मकता इत्यादि सरोकारों को ध्यान में रखकर सर्जक सृजन-कर्म में तल्लीन होता है। इसमें कुल तेईस व्याख्यान, राष्ट्रीय संगोष्ठियों में पढ़े गये पत्र, लेख इत्यादि हैं। इनमें से ग्यारह शीर्षक कविता की अनुभूति व अभिव्यक्ति पक्ष को साकार करते हैं। ’कविता और भविष्य’ में कविता को अनुभव के रूप में वर्तमान, अतीत और भविष्य की दृष्टि से निरन्तरता की अनिवार्यता बताई गई है। कविता के अनुसंधान के संबंध में लिखा है कि- ‘‘कविता इस अनुसंधान को बौद्धिक नहीं, संवेदनात्मक स्तरों पर उजागर करती और इसे मानवीय व्यक्तित्व का केन्द्रीय आधार बना देती है।”  ‘कविता का समकालीन होना’ में समकालीन प्रासंगिता को ही शाश्वत मूल्यवत्ता का आधार माना है। सम्प्रेषण प्रणाली के कारण इस कविता का प्रत्येक रूप सहज स्वाभाविक लगता है। ’संवेदना का संकुचन क्यों’? में कहा कि कवियों की संवेदना का दायरा दिन पर दिन संकुचित होने से साहित्य का क्षेत्र संकुचित होगा जो चिन्ताजनक है। ’प्रामाणिक भावात्मकता का कथाकार‘ में प्रसाद व प्रेमचन्द के काव्य की भावात्मकता का वर्णन है। ’परम्परा की आधुनिकता’ में अज्ञेय की कविता में संवेदना और संरचना के स्तर पर पायी जाने वाली आधुनिकता एवं भारतीय कविता पर विस्तार से चर्चा की गयी है। जिसमें आधुनिक संकट का वास्तविक मूल आध्यात्मिकता के नकार को मानते हुए लिखते हैं कि - ‘‘हमारी संवेदना की आध्यात्मिक जड़ों पर पहुँचने पर ही कोई कविता बुनियादी स्तरों पर हमारे लिए प्रासंगिक और मूल्यवान हो सकती है।” ’अस्तित्व की जड़ों से फूटती कविता’ में वैयक्तिक दर्शन के साथ अस्तित्व बोध को सार्थक किया है अज्ञेय ने अपनी कविताओं में। ’विषाद-योग की कविताएँ’ में श्रीकान्त वर्मा के काव्य में पाए जाने वाले विषाद को सोदाहरण प्रकट किया गया है। ’शब्द एक परम्परा है’, में ’अज्ञेय’, शमशेर, श्रीराम वर्मा की कविताओं में पाये जाने वाले ’लोगोपिया’ को आचार्य जी ने ’संवेदना का लास’ कहा है। ’कविता जो कह सके देखो’ में समकालीन कवि गिरधर राठी के काव्य में पायी जाने वाली रूप-संरचना, सामाजिक सरोकारों की सार्थकता इत्यादि का वर्णन है। ’साहित्यः ऐतिहासिकता बनाम सौन्दर्य बोध’ में डॉ. मैनेजर पाण्डेय की पुस्तक ’साहित्य और इतिहास-दृष्टि’ के आलोक में साहित्य पर विचार किया गया है जिसमें स्वीकार व अस्वीकार दोनों दृष्टियाँ वर्णित हैं।

अन्य प्रमुख आलेखों में ’पुराण, विज्ञान और काव्य’, ’हिंसा और भाषा’, ’सुलगते क्षण में अँधरे के बीच’, ’शब्दों की लौ जगाते हुए’, ’शबद भी याद दिलाते है’ इत्यादि भी रचनाकार की मानसिक स्थिति के साथ-साथ भाषा एवं शिल्पगत कौशल पर विचार करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

      ‘आधुनिक विचार’ में विचार और दर्शन को केन्द्र में रखकर लिखे गए लेख विचार के गांभीर्य मात्र से ही अवगत नहीं करवाते वरन् दर्शन के मूल तत्वों से भी हमारा सरोकार करवाते हैं। बिना विचार के दर्शन की कल्पना नहीं कि जाती है। विचार के विविध पहुओं को सतर्क, सप्रमाण एवं विरूद्धों में सामंजस्यवादी‘ प्रवृत्तियों को यह पुस्तक हमारे समक्ष रखती है। विभिन्न पाश्चात्य एवं भारतीय विचारकों के सूत्र वाक्य के पीछे छिपे दर्शन से भी हमें अवगत कराने का कार्य रचनाकार द्वारा किया गया है। मानव एवं शिक्षा, इतिहास और वर्तमान को हमारे समक्ष अंध श्रद्धा के रूप में न प्रकट करते हुए सजग दृष्टि एवं दृष्टिकोण देने का प्रयास यह पुस्तक करती है। यथार्थ को विभिन्न आयामों से देखते हुए लेखक की गहन चिंतनशीलता भी हमारे ज्ञान-द्वार को खोलने का कार्य करती है। कहीं सूत्रात्मकता तो कहीं तार्किक विश्लेषण, कहीं विरोध तो कही सामंजस्यवादी विचार हमें पुराने विचारों पर पुनः चिंतन एवं विश्लेषण करने को प्रेरित करते हैं जो इस पुस्तक की महत्ता को स्वाभाविक रूप से रेखांकित करते हैं। 

इसमें इक्कीस लेख हैं। ‘आधुनिक दार्शनिकता की आधारभूमि’ लेख में आधुनिक दर्शन को निश्चित प्रणाली न मानते हुए इसका सम्बंध मानववादी और तर्क प्रधान तार्किक मानसिकता से है जो किसी भी शास्त्र या शोध को अन्तिम प्रमाण नहीं मानती है ‘‘आधुनिक दार्शनिकता का रास्ता मानववाद और वैज्ञानिकता से होकर गुजरता है और इसलिए सभी आधुनिक दर्शनों में इन दोनों प्रवृत्तियों का प्रभाव बराबर महसूस होता है - चाहे उनके निष्कर्षों की दिशाएँ भिन्न ही क्यों न हों।’’ 

‘नये दर्शन का प्रारंभ: देकार्त’ में ज्ञानमीमांसा में जानने की प्रक्रिया में संशय का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान मानते हुए इसके परिष्कार से ही विचार को सुस्पष्ट व परिशुद्ध करने का माध्यम माना गया है। ‘प्रबुद्धता का युग मानवीय स्वतंत्रता की प्रतिष्ठा’ लेख में विश्व को एक इकाई मानने के कारण सम्पूर्ण मनुष्यता की नियति समझना आवश्यक है। अंधविश्वासों का विरोध, सही शिक्षा, अंध आस्था से मुक्ति, प्रकृति का सूक्ष्म पर्यवेक्षण, वैज्ञानिकता आदि को अपनाया जाना चाहिए। वाल्तेयर का कथन मानववादी व्यवस्था का आदर्श वाक्य है - ‘‘हो सकता है मैं तुम्हारे विचारों से सहमत न हो सकूँ, फिर भी मैं तुम्हारे विचार प्रकट करने के अधिकार की रक्षा करूँगा।’’ 

‘व्यक्तित्व की अभिव्यंजना रूसों’ लेख में ‘प्रकृति की ओर’ विशेष ध्यान देने व विचार करने, भावात्मकता संवेदनशीलता के सहज विकास पर जोर देते हुए मानवीय भावनाओं, समानता व स्वतन्त्रता को उचित स्थान देने के पक्षधर हैं। ‘आलोचनात्मक दर्शन का विकास : काण्ट‘ में अनुभववादियों की मान्यता सम्पूर्ण ज्ञान अनुभव प्रस्तुत है को अस्वीकार करते हुए ज्ञान का स्त्रोत मानव बुद्धि को माना है। इस संबध में आचार्य जी ने उद्दृत किया है कि- ‘‘काण्ट का सबसे बड़ा अन्वेषण यही था कि मानव-बुद्धि के लिए भौतिक जगत सम्बन्धी सार्वभौम और आवश्यक तथ्यों का अनुसंधान करना तभी सम्भव है जब प्राकृतिक नियमों का स्त्रोत हमारी बुद्धि हो और प्रकृति के निर्माण में उसका हाथ हो।’’ कार्ल मार्क्स मानव इतिहास की भौतिक व्याख्या करते हुए प्रत्येक वर्ग की स्वतंत्रता के संबंध में ‘प्रत्येक व्यक्ति की स्वतन्त्रता को सब की स्वंतत्रता की अनिवार्य शर्त मानते थे।’’ ‘सौन्दर्य की तलाश: क्रोचें‘ आलेख में मानवीय चेतना को केवल तर्क आश्रित विचार न मानकर अनुभूति माना है। सौन्दर्यानुभूति के सम्बन्ध में कांट और बामगार्टेन के विचारों की तुलना की है - ‘‘काण्ट ने ‘इस्थेटिक’ या ‘सौन्दर्यानुभूति’ पद का प्रयोग ज्ञान मीमांसा के क्षेत्र में संवेदनात्मक प्रक्रिया के अर्थ में किया था, जबकि बामगार्टेन ने इस पद का प्रयोग ‘सौन्दर्य के दार्शनिक सिद्धान्त’ के अर्थ में किया।” ‘प्रामाणिक जीवन का आग्रह : सात्र्र’ में अस्तित्ववाद को मनुष्य की स्थिति का विश्लेषण माना है। अध्यात्मवाद व भौतिकवाद दोनों के विरूद्ध व्यक्ति के महत्व को प्रतिपादित करता है। कोई भी पूर्व संचार मनुष्य के आचरण की कसौटी नहीं हो सकता। इसे थोपना मनुष्य की मनुष्यता का दम घोटना है - ‘‘सात्र्र का प्रसिद्ध वाक्य है- ‘अस्तित्व सार तत्व से पहले हैं‘ एक्जिस्टेंस प्रीसीड्स इसेंस।’ इसी कारण इस दार्शनिक सम्प्रदाय को ‘एक्स्टिेंशियलिज्य’ या ‘अस्तित्ववाद’ कहा जाता है।’’  ‘पुर्वग्रहों से मुक्ति: बर्टेण्ड रसेल’ लेख में सामाजिक संस्थाओं के पूर्वग्रहों से मानवीय स्वतंत्रता में दखलंदाजी, मानवीय स्वतंत्रता के जबरदस्त समर्थक, सम्पति के संबंध में क्रांतिकारी विचार (सम्पत्ति का उत्स हिंसा और चोरी में है) शिक्षा को पूर्वाग्रहों से मुक्त कर स्वतंत्र चिंतन को विकास का माध्यम बनाने के पक्षधर रहे हैं। 
‘स्वर्णिम भविष्य में विश्वास : श्री अरविन्द’ लेख में जीवन के सभी पक्षों को सम्मिलित करते हुए मनुष्य की अन्तर्निहित चेतना एवं प्रक्रिया को केन्द्रीय स्थिति में रखा है अतः यह अखंड इंटीग्रल है। मूल्य मीमांसा व ज्ञान मीमांसा के संबंध में कहा है कि- ‘‘मूल्य मीमांसा सम्पूर्ण समाज द्वारा ‘अयमात्मब्रह्म’ के बोध को चरम मूल्य मानती है और उसकी ज्ञान-मीमांसा अन्तःप्रज्ञा को ज्ञान का प्रामाणिक स्त्रोत।’’  

‘होने का आनन्द: जिद्दू कृष्णमूति’ लेख ने इनकी वास्तविक चिन्ता, आज की दुनिया की मुख्य समस्या का मूल ‘स्व’ को पहचानने व सिद्ध करने में लगी है। इस हेतु पूर्वाग्रहों से मुक्ति को आवश्यक माना है। इससे युक्त न होने के कारण तनाव, आवश्यकता, घृणा जैसे भावों की उत्पत्ति होती है जिनसे असमानता, शोषण, हिंसा आदि का प्रसार हो रहा है। इनकी चिन्ता के संबंध में लिखा है- ‘‘असल चिन्ता यही है कि मनुष्य अपने वास्तविक ‘स्व’ की पहचान और सिद्धि कैसे करे क्योंकि आज वह केवल आदतों और पूर्वग्रहों का बण्डल है - मानसिक और सामाजिक, निजी और संस्थागत आदतों - पूर्वग्रहों का बण्डल।’’ 

इन लेखों के अतिरिक्त देकार्त, हेगेल, कार्ल मार्क्स, बर्गसा, किर्केगार्द का सत्य की आत्मपरकता का आग्रह, जेम्स और ड्यूई का परिवेश पर नियंत्रण का आग्रह, बर्टेण्ड रसेल का पूर्वग्रहों से मुक्ति का विचार, वैज्ञानिक मानववाद के संबंध में एरिक फ्राम के विचार, ‘मैत्री का आग्रह: मार्टिन बूबर’, ‘महात्मा गाँधी अहिंसा का आग्रह’ इत्यादि से अपनी प्राचीन रूढ़ धारणों व संस्कारों पर पुनर्विचार करने के विविध विवाद एवं दृष्टि विकसित होती है। किस सूक्ष्मता से उन्हें आत्मसात करते हुए जन-जन तक पहुँचाने का कार्य न केवल एक व्यक्ति वरन् सम्पूर्ण समाज करें तभी विचारों में आधुनिकता लाई जा सकती है। 

         साहित्य का स्वभाव में साहित्य के अन्तर्गत समाहित विविध विचारधाराओं, मूल्यों, धारणाओं, विचार सरणियों का इस प्रकार से समागम किया गया है कि वे अलग-अलग होते हुए भी कहीं-न-कहीं एक सूत्रता में बंधे हुए अनुभव किए जाते हैं। साहित्य की तलाश क्या है, भाव में कौन-सी विचारधारा क्यों व किस प्रकार समाहित हुई है? आलोचना की संकीर्णता क्यों? सुन्दर की तलाश कहाँ व कब की जाए ? नये स्थापत्य का आविष्कार क्यों आवश्यक है ? इत्यादि अनेक प्रश्नों से अन्तःसंघर्ष करते हुए आचार्य जी ने साहित्य के समाज को साहित्य की अन्तर्रात्मा में ही खोजने की बात कहते से जान पड़ते हैं। जो न केवल जड़ता को तोड़ते हैं वरन् नई पगडंडी के निर्माण का साहसिक कर्म भी स्वकर्म से करते हैं। इसीलिए निर्मल वर्मा ने कहा है- ‘‘यह नहीं है कि उनमें वैचारिक झुकाव नहीं हैं, किन्तु वे किसी सैद्धान्तिक खूँटे के साथ बँधे नहीं है। वे उनकी आलोचनात्मक दृष्टि को कुंठित करने के बजाय एक ऐसा फैलाव देखते है जहाँ उनकी नैतिक अन्तश्चेतना उनके सौन्दर्यबोध के साथ घुल-मिल जाती है। यह उनकी आलोचना को एक तरह की ‘कैथलिक’ ऋजुता प्रदान करती है, जो मुझे व्यक्तिगत रूप से बहुत आकर्षित करती है।’’  

इसमें कुल बतीस आलेख हैं। प्रत्येक आलेख अपनी गहन चिन्तन शैली, तार्किकता एवं प्रामाणिकता के साथ शीर्षक के अनुरूप अपनी प्रस्तुती को साकार करता है। प्रथम दस आलेखों में साहित्य के विविध आयामों को सूक्ष्मता सहित वर्णित किया गया है। ‘रूप: साहित्य की ज्ञान मीमांसा‘ में कवि व ऋषि के अन्तर, रूप व साहित्य के संबंध, युगविशेष की केन्द्रीय से साहित्य उत्पन्न होने आदि विचार ज्ञात होते हैं। कृति के मूल्यांकन के संबंध में लिखा है- ‘‘कृति या कृतिकार के मूल्यांकन की प्राथमिक कसौटी उसकी ज्ञानमीमांसा ही हो सकती है। ज्ञान-मीमांसा की मौलिकता ही किसी लेखक की मौलिकता की असली कसौटी है, क्योंकि उसके बिना तत्व मीमांसीय अथवा मूल्यमीमांसीय मौलिकता सम्भव ही नहीं है।’’ 

रंगमंच व नाटक को ध्यान में रखते हुए चार आलेख हैं जिनमें भारतीय रंगदृष्टि के पुनरान्वेषण, नाटक का केन्द्र अभिनय को मानना, नाटक व रंगमच के अन्तःसंबंध को बताया गया है।  कविता की भावभूमि, लेखन प्रक्रिया, शैली, निराला का चौथा सप्तक के कवियों की कविता पर प्रभाव, वैष्णव संवेदना का आधुनिकता पर प्रभाव, छायावाद व पंत के संबध को वर्णित करते हुए नौ आलेख लिखे गए हैं। ‘वैष्णव संवेदना की आधुनिकता‘ आलेख में सृष्टि को लीलामय एवं कृष्णमय माना गया है। वैष्णव संवेदना के संबंध में लिखा है- ‘‘यह वैष्णव संवेदना ही है जो हर बालक में बाल-गोपाल और हर माँ यशोदा के वात्सल्य को महसूस करती है और इस प्रकार हमारे लौकिक जीवन को एक पवित्र अनुभूति बना देती है।’’ 

साहित्य के क्षेत्र में नवीन स्थापत्य, कविता में गद्य की लय को स्थान, लेखन में नये तरीकों की तलाश, भारतीय आधुनिकता में नये चिन्तकों के विचारों को समाहित करने इत्यादि को नौ आलेखों में चिह्नित करने का कार्य किया है। 

नाट्यानुभव के चार आलेख पूर्व में ‘साहित्य का समाज’ साहित्यालोचन सम्बन्धी पुस्तक में प्रकाशित हो गए। इसके अतिरिक्त दस और आलेख तथा साक्षात्कारों सहित यह ग्रंथ हमारे समक्ष नाटक, रंगमंच, नाट्यलेख, रंगमंच विशेषताओं, सार्थक नाट्य लेखकों के नाटकों के वैशिष्टय को उजागर करता है। ‘रंग-परम्परा की प्रासंगिकता’ में समकालीन अर्थ हेतु रूप के समकालीन होने को रागात्मक जरूरत माना है। पंरपरा की सार्थकता के संबंध में विचार है - ‘‘परम्परा तभी सार्थक है जब समकालीन चुनौतियों का रचनात्मक प्रत्युत्तर देने में समर्थ हो और यह तभी सम्भव हो सकता है जब हम समकालीन परिस्थितियों में परम्परा का नया रूपायन संभव कर सकें।’’ 

‘हिन्दी रंगमंच का संकट‘ में हिन्दी भाषा को जानने वालों में आत्मान्वेषण से बचने की प्रवृति के कारण बौद्धिक या संवेदनात्मक प्रक्रियाओं में उसकी रुची कम होने से अपने अंदर गहरे भावों को ले आने व प्रकट करने का माद्दा कम हो गया है। आलोचना में नाटक की उपेक्षा में नेमिचन्द्र जैन की चिन्ता के साथ आज के आलोचकों द्वारा उसकी उपेक्षा किए जाने का भी वर्णन किया है। नाटक के बारे में इसमें लिखा कि- ‘‘प्रदर्शन से पूर्व और प्रदर्शन के बिना भी वह एक स्वतन्त्र साहित्यिक कृति है, जिसका अपने परिवेश से उतना ही स्वायत्त रिश्ता है जितना अन्य विधाओं का।’’  इसके अतिरिक्त ‘भारतीय रंगदृष्टि का पुनरान्वेषण’, ‘रचनात्मक प्रासंगिकता की तलाश’, ‘नाटककार प्रसाद का सार्थक अन्वेषण’ इत्यादि में नाटक के विविध पक्षों पर गहराई से चिंतन करते हुए विभिन्न विशेषताओं को उजागर किया गया है। 

अन्त में तीन साक्षात्कार दिए गए हैं जो नाटककार के रचना कर्म के विविध पक्षों को उजागर करते है जिनके शीर्षक - ‘साक्षी भाव की साधना’ में गिरिराज किराडू से साक्षात्कार, ‘भाषा का नाट्यान्वेषण’ ब्रजरतन जोशी द्वारा लिया गया साक्षात्कार, ‘थियेटर के विकेन्द्रीकरण, की जरूरत’, फ़जल इमाम मलिक द्वारा लिया गया साक्षात्कार है। जो पूर्व में पत्रिकाओं के अन्तर्गत, प्रकाशित हो चुके थे।

       लेखक की साहित्यिकी की भूमिका ‘सर्जक की अनुभव-दीप्त सैद्धान्तिकी’ शीर्षक से प्रभात त्रिपाठी ने लिखी है। जिसमें आचार्य जी के निबन्धों की विशेषताओं में भाषागत बिम्बहीनता, प्राकृतिक लय, सांस्कृतिक समन्वय, सुदृढ तर्क पद्धति, नवीन ज्ञानमीमांसीय खोज की व्याकुलता, मानवीय चेतना, देश की आस्तित्विक समस्याओं एवं साम्प्रतिक बीमारियों की जड़ों की पड़ताल, सर्जनात्मक अनुभाव इत्यादि को रेखांकित किया गया है। इनकी निबंधगत विशेषताओं में से सक्रिय मूल्य चेतना के स्वातंत्र्य के संबंध में लिखा है कि- ‘‘उनके निबन्धों में प्रगट-अप्रगट रूप में लगातार सक्रिय मूल्यचेतना न तो देसी परम्परा की बेड़ियों में बँधी है, और न ही परदेसी विज्ञान की उन्नीसवीं सदी वाली वैज्ञानिकता से, हालाँकि परम्परा और विज्ञान दोनों के ही स्वीकार के साथ, आचार्य सृजनात्मकता के पक्ष में सतत सक्रिय स्वतन्त्रता को एक परम मूल्य के रूप में रेखांकित करते रहे है।’’ 

इसमें तैतालीस निबंध हैं। जिनमें लेखक कर्म से संबंधित मूल्यों, साहित्य-दृष्टि, इतिहास, नैतिकता, कविता के भविष्य, रंगमंच एवं रंग परम्परा, समकालीन सम्प्रेषण, परिवेशगत चुनौतियों आदि का पूर्ण विवेचन प्राप्त होता है। ‘साहित्य का परम मूल्य’ निबंध में साहित्य का प्रयोजन उद्देश्य विशेष का समर्थन, शाश्वत मूल्य एवं आत्मानुभूति आदि को साहित्य का परम मूल्य मानते हुए लिखा है कि - ‘‘रचना का घोषित उद्देश्य कोई भी हो उसका वास्तविक प्रक्रियागत उदेश्य आत्मसृजन के माध्यम से आत्म की अनुभूति है।’’  ‘साहित्य : पारदर्शिता की साधना’, ‘कहना सब सुनना है’, ‘आसन्न चुनौतियाँ और काव्य’, ‘हर चेहरे के पीछे सच है’, ‘साहित्य में प्रकृति : आधुनिक दृष्टि’, ‘नया यथार्थ बोध और उपन्यास’, ‘संवेदना का संकुचन क्यों ?‘, ‘ग्रामीण पाठकों के लिए साहित्य’ इत्यादि में साहित्यिक लेखन की प्राचीन व आधुनिक तथा समकालीन दृष्टि एवं दृष्टिकोणों का तर्क पूर्ण विश्लेषण इनके निबंधों, लेखों एवं व्याख्यानों में प्राप्त होते हैं। 

      अनुभव का भव में हिन्दी आलोचना पर अन्य अनुशासनों (धर्म, दर्शन, समाजशास्त्र) पर विचार करते हुए साहित्य को एक ऐसी कसौटी का दर्जा प्रदान करती है जिस पर इतर अनुशासनों को भी कसकर परखा जा सकता है। इसका सैद्धान्तिक आधार साहित्य के स्व एवं विशिष्ट सत्य को खोलने के लिए हिन्दी के महŸवपूर्ण रचनाकारों के कृतिपथ में विद्यमान गंभीर सरोकारों और अन्तदृष्टियों को परखते हुए उनके वैयक्तिक वैशिष्ट्य को उजागर करने के कारण यह पुस्तक अपने शीर्षक ‘अनुभव का भव’ को सार्थक करती है। 

इसमें कुल उन्नीस निबंध हैं जो साहित्य लेखन की विविध सरणियों - काव्य, नाटक, रंगमंच इत्यादि को साकार रूप प्रदान करने में स्वतंत्रता के आध्यात्मिक स्वरूप, मातृभाषा की ओर लौटना, समसामयिकता के माध्यम से परंपरा पर बहस के पक्षधर, प्रवृत्तियाँ और निवृत्ति के द्वन्द्व इत्यादि को समाविष्ट किया है। इनमें से लगभग दस निबंध पूर्व के संग्रहों में स्थान पा चुके है। ‘सत्य की काव्यात्मक व्यंजना’ निबंध में रामायण, गीता, महाभारत का जो लोक में स्थूल रूप प्रचलित है उसका ही काव्यात्मक प्रकटीकरण रचनाओं में मिलता है जिससे सोच को विस्तृत करने की आवश्यकता बताते हुए ‘उत्कृष्ट साहित्य’ के संबंध में लिखा है कि - ‘‘वे इन प्रसंगों की स्थूल व्याख्या करते समय स्वयं अपने मन पर पड़े प्रभाव को भूल जाते हैं और यह भी भूल जाते हैं कि उत्कृष्ट साहित्य वही है जो जीवन की बहुरंगी जटीलता में से गुजरकर ही किसी मूल्य की सिद्धि करता है।’’  ‘होने की व्यापकता का स्मरण’ ओडिया कवि सीताकान्त महापात्र की देसी आधुनिकता, देसीपन को पुनरविष्कृत करना, नारी देह शोषण, बौद्धिकता के स्थान पर आत्मीयता को प्रश्रय इत्यादि का वर्णन किया है जीवनगत त्रासद स्थिति की वेदना को ‘शब्दों का आकाश’ में व्यक्त किया है - अंगीठी में सेंकता हूँ सर्द कातर बीमार / तन मन ! सपने की आग में जलता, आशा / और कामना के दावानल में। आँसू की चिनगारी में / देह और मन का यह कुँज, हृदय का गुप्त वृन्दावन।।  

‘हिन्दी कविता की नयी सृजनशीलता’ निबंध में श्रीकान्त वर्मा, कैलाश वाजपेयी, लीलाधर जगूड़ी, अशोक वाजपेयी इत्यादि के रचनाकर्म की सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि को प्रस्तुत किया गया है। ध्रुव शुक्ल की ‘प्रिया-1‘ कविता में अहिल्या की कथा को गहन सर्जनात्मक अनुभव से प्रकट करते हुए लिखा है - शब्द ऐसे ही हम से बिछुड़ जाते हैं / हमारे शाप से शिला बन जाते हैं / फिर युगों तक हमारी प्रतीक्षा करते हैं...।   ‘देसी लय की पुनप्रतिष्ठा’ में रघुवीर सहाय के कविता कर्म पर विचार है। प्रवृत्ति और निवृत्ति की द्वन्द्व-कथा’ में रमेशचन्द्र शाह के रचनाकर्म को आधार बनाया है। 

     इसके अतिरिक्त ‘स्वतन्त्रता की आध्यात्मिक व्याप्ति’’, ‘मातृभाषा में लौटने की कोशिश‘, ‘जले हुए समय को पिघलाते हुए‘ (कहानी कर्म व निर्मल वर्ष पर केन्द्रित), ‘समसामयिकता के बहाने परम्परा पर बहस’ (‘साही’ का समय और साहित्य की आवश्यकता का विवेचन), ‘साहित्य के गणतन्त्र के लिए‘ (अशोक वाजपेयी के आलोचना कर्म पर आधारित) ; ‘परम्परा: इतिहास की चुनौतियाँ (अज्ञेय के लेखन में विद्यमान विचारों की विवेचना) आदि प्रमुख निबंध अपने-अपने क्षेत्र को पूर्णतः वर्णित करते से जान पड़ते हैं, जो आचार्य जी की चिंतन शैली व युगीन परिस्थितियों के अनुरूप मूल्यांकन के विविध आयामों को प्रस्तुत करते हैं। 

     नंदकिशोर आचार्य के सात साक्षात्कारों को सूर्य प्रकाशन मंन्दिर, बीकानेर द्वारा रूबरू शीर्षक से प्रकाशित किया गया। इनमें रचना के विविध पक्षों, रंगकर्म से जुड़े विविध पहलुओं, भाषिक प्रयोगों, कविता की रचनाशीलता एवं प्रकट भावों की संवेदनशीलता, शिक्षा के स्वरूप व उद्देश्य के प्रति प्रश्नानुकूलता व शिक्षक-शिक्षण व्यवस्था पर बाज़ारीकरण या वैश्वीकरण के प्रभाव का रेखांकन, गांधी चिंतन की युगीन सार्थकता, भारतीय प्राचीन व नवीन धारणाओं के साथ-साथ पाश्चात्य विचारों के समुचित समागम इत्यादि को इनमें प्रतिफलित होता अनुभव किया जाता है। रचनाकार हमेशा ही नया करने की ज़द में कुछ पुराने में परिवर्तन करके नवीन संस्कृति का निर्माण करता है। किसी लीक पर चलकर भी अपने लिए स्वयं नया मार्ग बनाता प्रत्येक रचनाकार इस प्रकार के विचार भी उद्घाटित किए हैं।

‘रचनात्मक नैतिकता है’ शीर्षक से नंदकिशोर आचार्य से अंजू ढड्डा की बातचीत ; एवं ‘कविता में नहीं है जो’ शीर्षक से आचार्य जी से गिरीराज किराडू’ की बातचीत जो ‘मधुमती’ जुलाई-अगस्त, 2000 के अंक में प्रकाशित हुई उसे इसमें स्थान दिया गया है जो इसके महत्व को रेखांकित करती है। ‘साक्षी भावी की साधना है अभिनय’, ‘थिएटर के विकेन्द्रीकरण की जरूरत’ एवं ‘भाषा का नाटयान्वेषण’ ये तीनों साक्षात्कार ‘नाट्यानुभव’ (2004) में प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त ‘अन्वेषण प्रक्रिया है रंग कर्म’ एवं ‘शिक्षा प्रश्नाकुल मस्तिष्क का विकास’ भी इसमें संकलित है। एक से अधिक विधाओं में लिखने के अंजू ढड़डा के प्रश्न के जवाब में आचार्य जी ने कहा कि- ‘‘जब आप स्वयं को पहचानना चाहते हैं तो आपको समय और स्थिति से रू-ब-रू होना होता है - और अपने समय और स्थिति से आमने-सामने होने के लिये एक विधा या अनुशासन पर्याप्त नहीं होता - मुझे लगता है।... जितनी अलग-अलग प्रक्रियाओं से मैं स्वयं को सम्पृक्त करता हूँ उतना ही अपने को ज्यादा समझ पाता हूँ और जितना स्वयं को समझता हूँ उतना ही जीवन को अधिक जान पाता हूँ।’’ 

शिक्षा की प्रथम जिम्मेदारी के संबंध में कहा है कि - ‘‘शिक्षा की पहली जिम्मेदारी शिक्षार्थी के प्रति है कि कैसे उसे एक अच्छे, सद्गुण सम्पन्न, रचनात्मक व्यक्ति के रूप में विकसित किया जाय जिस से कि वह अपनी अन्तर्निहित भावनाओं को मूर्त कर सके।’’ वर्तमान शिक्षा में पाये जाने वाले दण्ड एवं आदेश को भी अनुचित ही मानते हैं क्योंकि इससे शिक्षार्थी की मौलिक चिंतन पद्धति पर दबाव उत्पन्न होता है और वह सर्वांगिण विकास नहीं कर पाता है। 

साहित्य का अध्यात्म में बताया गया है कि प्रत्येक साहित्यकार किसी न किसी धारणा या अध्यात्म विशेष से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होकर रचना करता है उसकी विधा काव्य हो या गद्य। अध्यात्म केवल अपने ही देश के सौन्दर्यशास्त्रीय मंथन से अणु प्राप्त नहीं करता वरन्, जिन-जिन देशों के रचनाकर्म या भावों या विचारों के सम्पर्क में आता है उनका भी कुछ-न-कुछ प्रभाव प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में होता है इसलिए भारतीय व पाश्चात्य दोनों ही दर्शनों में विद्यमान आध्यात्मिक तत्वों को अपने चिंतन का आधार बनाते हुए सहज सरल रूप में समाज के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। इसके संबंध में कैलाश वाजपेयी ने लिखा है कि- ‘‘आचार्य जी ने रचना, रचनाधर्मिता एवं रचनाकारों पर जिस कोण से विचार किया है उसे एक तरह से नया भाष्य कहना असंगत न होगा।’’ 

इसमें कुल चौबीस लेख, आलेख, व्याख्यान के बीज शब्दों को सम्मिलित किया गया है जिनका साहित्य का अभिन्न सम्बन्ध रहा हैं। चाहे वह काल चेतना हो, परंपरा बोध हो, काव्य चेतना हो, गद्य में - कहानी, उपन्यास, नाटक इत्यादि हो, या शैलीगत विचार धारा में उत्तर संरचनावाद की अवधारणा हो इन सभी के पीछे कार्यरत अध्यात्म के विविध पहलुओं को सप्रमाण प्रस्तुत करने का कार्य यह पुस्तक करती है। ‘काल-चेतना और साहित्य-सृष्टि’ नामक व्याख्यान में मत्स्यपुराण, जॉन किट्स, वाल्टर बैंजामिन, अज्ञेय, विनोद शुक्ल एवं प्रभात त्रिपाठी की साहित्यिक विचार सरणियों के अध्यात्म को उजागर करते हुए काल एवं रचना के साहित्यिक संदर्भ को उजागर करते लिखा है- ‘‘काल रचता है पर संहार भी करता है। साहित्य केवल रचता है, और इस रचने में काल का संहार नहीं करता बल्कि उसे उस आत्म में रूपान्तरित कर देता है जो उसका मूल स्त्रोत है और जैसा हाइडेगर कहते हैं - स्त्रोत ही तो गन्तव्य है।’’  ‘आसन्न चुनौतियाँ और काव्य’ व्याख्यान में संवेदना पर पड़ने वाले तकनीकी प्रभाव को मुख्यतः रेखांकित किया गया है। ‘नयी आध्यात्मिकता की तलाश’ लेख में इवान इलिच, मैथ्यू आर्नाल्ड, टी. एस. एलियट, पालटिशिय, ‘साही‘, ‘अज्ञेय‘, नरेश मेहता इत्यादि के साहित्य चिंतन में पायी जाने वाली विविध आध्यात्मिकता के नये मार्ग को खोजकर प्रस्तुत किया है। कविता और दर्शन में अन्तर बताते हुए लिखा है कि - ‘‘कविता और दर्शन में शायद यही सब से महत्वपूर्ण अन्तर है कि दर्शन पीड़ा का समाधान किसी अवधारणा में तलाश करता है जब कि कविता बल्कि कला-मात्र में पीड़ा की अनुभूति में ही समाधान अन्तर्निहित है। होल्डरलिन ने भी कहा है : संकट स्वयं ही/सँजोये रहता है उद्धार।’’ 

       इनके अतिरिक्त ‘साहित्य और इतिहास’, ‘प्रेमचन्द का स्वराज्य: तत्वमीमांसीय व्याख्या’, ‘जैनेन्द्र: श्रद्धा का पुनरावलोकन’, ‘अज्ञेय की सामाजिकी’ ‘निर्मल वर्मा: अकेलेपन से मुक्ति की तलाश’, ‘मीरा और महात्माः सगुण-निर्गुण द्वन्द्व’, ‘लौकिक का अध्यात्म’ इत्यादि भी इनकी अध्यात्मवादी विचारधारा को एक अलग दृष्टि से देखकर उनके रूपों को साकार किया हैं। 

       रचना का अन्तरंग में सोलह निबन्ध एवं तीन साक्षात्कार सम्मिलित किए गए हैं। प्रसिद्ध आलोचक कृष्णदत पालीवाल ने इस पुस्तक के बारे में लिखा है कि - ‘‘आचार्य जी संस्कृति, दर्शन, इतिहास, साहित्य, राजनीति, अध्यात्म, उत्तर-संरचनावाद के साथ नवीन विमर्शों के सूक्ष्म-गहन भाष्य में जहाँ भी जाते हैं वहाँ रमते हैं वह ऐसा बहुत कुछ देखते-सुनते हैं, जिसके लिए गहरी जिज्ञासा जरूरी है। साहित्य-संस्कृति की उत्तर आधुनिक चिन्ताओं, प्रश्नाकुलताओं के साथ इन निबन्धों में मनुष्यता की वह अखण्ड ध्वनि है जो स्वाधीनता के मूल्य पर हमारा ध्यान केन्द्रित कराती है।’’ 

प्रमुख निबंधों में ‘कला की जैविक प्रासंगिकता’, ‘विरचनात्मक निर्मिति है पाठ’, ‘साहित्य-अध्ययन के अन्तर-अनुशासनिक तुलनात्मक आयाम’, ‘अभेद साधना है संस्कृति’, ‘रचना के अंन्तरंग की पहचान’, ‘शल्य : हिन्दी की दार्शनिक सर्जनात्मकता’, ‘महादेवी : स्थूल से सूक्ष्म की तलाश’ एवं ‘भाषा में अविचार’ आदि प्रमुख हैं। इनमें अज्ञेय, निर्मल वर्मा, मुक्तिबोध, प्रेमचन्द इत्यादि के सर्जन-कर्म में पायी जाने वाली अन्तरंग अनुभूतियों को प्रस्तुत करने का कार्य किया गया है। ‘रचना के अन्तरंग की पहचान’ में विद्यानिवास मिश्र के साहित्यिक चिन्तन में विद्यमान गहराई और विस्तार का उल्लेख है वहीं उनकी व्यावहारिक आलोचना भी मर्मभेदी और अन्र्तदृष्टिपूर्ण पाई जाती है। मिश्र जी की दृष्टि सार ग्रहण करने वाली है - ‘‘किसी भी रचनाकार का विवेचन करते हुए वह उसके रचना कर्म के मर्म और केन्द्रिय अवदान का ही अधिक जि़क्र करते हैं तथा अपनी असहमति को बहुत विनम्र भाव से संकेतों में ही अभिव्यक्त करते हैं।’’ 

‘स्वतन्त्रता के अन्वेषी थे अज्ञेय’ में नन्द भारद्वाज, प्रेमचंन्द गांधी, ईशमधु तलवार और फारूक आफरीदी की बातचीत है जो अज्ञेय की विभिन्न स्थापनाओं, विचारों, अंतद्र्वन्द्वों, नवीन शैल्पिक प्रयोग, पत्रकार एवं साहित्यकार का अन्तःसंबंध आदि पर विस्तार से चर्चा की गई है। ‘सृजन एक संवेदनात्मक अन्वेषण है’ डॉ. राजाराम भादू की बातचीत, ‘अनुभूत्यात्मक अन्वेषण है साहित्य’ में डॉ. ब्रजरतन जोशी की बातचीत में आचार्य जी कविता के सैद्धान्तिक पक्ष, प्रेम, अनुभूति, कला  के उद्देश्य, फिक्शन आदि के बारे में सापेक्ष व सार्थक विचारों की अभिव्यक्ति देखी जाती है।

उपर्युक्त विवेचनोपरान्त कहा जा सकता है कि आचार्यजी के गद्य से गुजरते हुए एक आत्मिक आनंद एवं स्वयं में से गुजरने का अहसास होता है। अपनी विभिन्न रचनाओं में साहित्य संबंधी जो स्थापनाएँ दी गई हैं। वे मूल रचनाकार के संवेदनात्मक धरातल पर जाकर अनुभूत की गई विशेष प्रवृत्तियों के साकार की अभिव्यक्ति है। रचनाकार की विशिष्टताओं को रेखांकित करते हुए जो बीज शब्द दिए हैं। वे उस रचनाकार की मूल संवेदना को समझने में न केवल सहायक हैं वरन् उसकी सम्पूर्ण मनःस्थिति को भी हमारे समक्ष उपस्थित करने में सफल रहे हैं। संस्कृति एवं साहित्य के अटूट संबंध की जो अभिव्यक्ति इनके गद्य में मिलती है वह दोनों को अलग नहीं मानकर एक-दूसरे की सहायक माना है।


संदर्भ सूची -
  1. नंदकिशोर आचार्य: रचना का सच, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, 1986, पृष्ठ 31
  2. वही, पृष्ठ 144
  3. नंदकिशोर आचार्य: सर्जक का मन, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, 1989, पृष्ठ 20
  4. वही, पृष्ठ 84
  5. नंदकिशोर आचार्य: आधुनिक विचार, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, 1998, पृष्ठ 13
  6. वही, पृष्ठ 34
  7. वही, पृष्ठ 44
  8. वही, पृष्ठ 59
  9. वही, पृष्ठ 78
  10.  वही, पृष्ठ 85
  11.  वही, पृष्ठ 103
  12.  वही, पृष्ठ 125
  13.  नंदकिशोर आचार्य: साहित्य का स्वभाव, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, 2001, सम्मतियाँ से 
  14.  वही, पृष्ठ 15
  15.  वही, पृष्ठ 137
  16.  नंदकिशोर आचार्य: नाट्यानुभव, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, 2004, पृष्ठ 21
  17.  वही, पृष्ठ 45
  18.  नंदकिशोर आचार्य: लेखक की साहित्यिकी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008, पृष्ठ 10
  19.  वही, पृष्ठ 33
  20.  नंदकिशोर आचार्य: अनुभव का भव, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, 2009, पृष्ठ 27
  21.  वही, पृष्ठ 91
  22.  वही, पृष्ठ 73
  23.  नंदकिशोर आचार्य: रूबरू, सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर, 2009, पृष्ठ 8
  24.  वही, पृष्ठ 143
  25.  नंदकिशोर आचार्य: साहित्य का अध्यात्म, सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर, 2009, दाएँ फ्लेप पर 
  26.  वही, पृष्ठ 17
  27.  वही, पृष्ठ 42
  28.  नंदकिशोर आचार्य: रचना का अन्तरंग, सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर, 2012, बाएँ फ्लेप पर 
  29.  वही, पृष्ठ 85

मुकेश कुमार शर्मा 
शोधार्थी हिन्दी विभाग, 
मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
संपर्क:sharmamk1985@gmail.com,8890191237

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