हस्तक्षेप:विचारों की निरंतरता – गौतम आनंद

त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
-------------------------

हस्तक्षेप:विचारों की निरंतरता – गौतम आनंद

चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे 
वर्तमान परिवेश में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि हम एक बहुत छीछले, मिथ्यापूर्ण एवं भ्रामक वैचारिक युद्ध की स्थिति में रह रहे हैं। यह सिर्फ भारत नहीं बल्कि पूरे विश्व के संदर्भ में प्रासांगिक है। आज हमारे आस-पास हो रही घटनाओं से वही जानते और सीखते हैं, जो हम जानना और सीखना चाहते हैं। राजनीतिक विचारधारा का चश्मा भारी पड़ जाता है। निष्पक्ष विश्लेषण की क्षमता समाप्त-सी होती जा रही है और शायद इच्छा भी। मैं यह मानता हूँ कि यह एक ऐसा व्यवहार है जो किसी भी वैचारिक परंपरा को मानने वाले लोगों को एक समान बना देता है। हमारे लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए कि एक गतिशील और जटिल व्यवस्था में रहते हुए भी हमारे विचारों, हमारे दृष्टिकोण में इतनी संकीर्णता, स्थूलता क्यों है?

             मैं यह नहीं कहता कि समाज, राजनीति या स्वयं के प्रति एक सुदृढ़ विचार या दृष्टिकोण रखना गलत बात है। यह स्वभाविक और आवश्यक है। परंतु हमारे आस-पास हो रही घटनाएँ उन प्रबल विचारों को चुनौती देती हैं तो हमें इसे ग्रहणशीलता के साथ स्वीकार करना चाहिए। यह एक अवसर है हमें अपने समाज और राजनीति को बेहतर दिशा में लेकर जाने के लिए। एक-दूसरे पर हमेशा दोषारोपण करने की बजाए अगर हम उन घटना के कारणों का निष्पक्ष समीक्षा करेंगे तो हमें कुछ नया सीखने के लिए मिलेगा। प्रश्न सिर्फ दूसरे से नहीं, बल्कि अपने आप से ज्यादा करना होगा। हमारे विचारों को सबल बनाने के लिए एक निरंतर पुनर्विचार की परंपरा को अपनाने की अत्यंत आवश्यकता है। 

     इस संदर्भ में मेरा ध्यान एक बहुत ही संवेदनशील घटना की तरफ जाता है। वह है रोहित वेमुला की असामयिक और दुर्भाग्यपूर्ण निधन। हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी की इस घटना से पूरे देश में एक बहस शुरू हो गई, जो कि प्रेरित और ज्यादातर राजनीतिक थी। लोग कटुता के साथ एक-दूसरे की राजनीतिक विचारधारा को दोषी ठहराने लगे। यहाँ तक कि बहस उनकी जाति पर होने लगी, जो कि अनावश्यक थी। मैं यह नहीं कह रहा कि राजनीतिक बहस जरूरी नहीं थी। लेकिन उसमें सकारात्मकता की कमी थी। शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था की कमियों पर वाद-विवाद पीछे रह गया था। ज्यादातर लोग इससे कुछ सीखना नहीं चाहते थे, परंतु इस घटना से एक-दूसरे की साख कैसे कम की जाए, इससे चिंतित थे। इस विद्वेष में एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण पहलू पीछे – वह था उनका लिखा वो अंतिम पत्र। उस पत्र ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया था। उसकी अभिव्यक्ति किसी भी संवेदना से परे थी। वह राजनीतिक व्यवस्था पर कम परंतु हरेक व्यक्ति के जीवन के अनुभव पर ज्यादा प्रश्नचिन्ह खड़ी करती है। वह इस बात का अहसास दिलाती है कि हमने  कैसे खुद अपनी संभावनाओं को सीमित करके एक वक्र सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को अपना लिया है। मुझे ऐसा लगता है कि उस पत्र में अंतर्निहित विचारों को समझने की जरूरत आज हरेक इंसान को है, खासकर हम जैसे युवाओं को। राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण बनाने से पहले यह बहुत आवश्यक है कि अपने जीवन, अपनी शिक्षा और अपनी आशाओं-आकांक्षाओं को बहुत अच्छी तरह समझें। यह समझ अन्य विषयों पर हमारी समझ को मजबूती देगा। रोहित वेमुला के उस पत्र ने कम-से-कम मुझे जरूर प्रेरित किया अपनी शिक्षा और अपने जीवन के ऊपर पुनः चिंतन के लिए। 

       ऐसा हमेशा होता है कि जिंदगी के जद्दोजहद में हम अपने जीवन की कई चुनौतियों को अच्छी तरह नहीं समझ पाते हैं। खासकर वैसी चुनौतियों जो हमने बचपन या युवा अवस्था में झेली। हमें वह सब व्यवहारिक और स्वाभाविक लगता है, क्योंकि हमने पीछे मुड़कर कभी सोचा ही नहीं। हम अपने बचपन और युवा अवस्था के उन साथियों और उनकी चुनौतियों को भी भूल जाते हैं। मैं आज जब अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में शिक्षारत हूँ तब मुझे गाँव के उस स्कूल के बारे में स्मरण करना चाहिए। क्या अलग था मेरे और उन दलित परिवार के बच्चों के बीच, कि मैं गाँव से नजदीकी शहर, फिर जेएनयू फिर टीस और फिर अमेरिका पढ़ने आ गया और वे अभी भी उसी जगह पर एक भेदभावपूर्ण वंचित जीवन जीने पर मजबूर हैं? क्या इसका कारण यह है कि मैं एक कथित उच्च जाति के भूमि-धारक परिवार से हूँ और वे एक भूमिहीन परिवार से? शायद भूमि का स्वामित्व वह बुनियादी कारण था कि हमारे जीवन का प्रदोप पथ इतना अलग हो गया। ऐसा नहीं है कि हमने अपने शिक्षा के सफर में चुनौतियों का, प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना नहीं किया। एक किसान परिवार में, एक गाँव में पले-बढ़े के कारण मेरी भी व्यक्तिगत बाधाएँ रहीं होंगी। इक्सपोजर की कमी, अंग्रेजी का सीमित ज्ञान, आधुनिक तकनी के इस्तेमाल में झिझक, शहरी संस्कृति से सरोकार में कमी मुझे भी विरक्त करती होंगी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मेरे लिए बस यही यथार्थ है। बल्कि मेरे जीवन के अनुभव में उन तमाम् लोगों का अनुभव निहित है, जिसको मैंने समझा और जाना है। 

             एक और महत्वपूर्ण पहलू है जिसके बारे में हमें सोचना चाहिए। आज हम जहाँ भी हैं, ये कितना हमने खुद तय किया और कितना हमारे परिवार और समाज ने? सामाजिक आशाएँ और पारिवारिक उम्मीदें हमारी संभावनाओं को संकुचित और सीमित कर देती हैं। रोहित वेमुला हमें यह याद दिलाते हैं कि इंसान की उपयोगिता, उसकी तत्कालीन पहचान और तत्कालीन संभावना तक सीमित कर दिया जाता है। बानवटी और झुठी मान्यताओं में रत होकर आज इंसान को महज एक अंक के रूप में देखा जाता है। रोहित वेमुला का यह कहना हमारे लिए कई सवाल खड़ा करता है। कम से कम मेरे लिए जरूर। 

          इस चर्चा का सारांश यह है कि ये सारे सवाल सार्वभौमिक हैं और राजनीतिक विचारधारा से परे। ये सवाल हमारी शिक्षा व्यवस्था पर हैं। ये सवाल हमारी सामाजिक व्यवस्था पर हैं। ये इस बात के सूचक हैं कि हम समस्या को ही ठीक से जानने और समझने के लिए तैयार नहीं हैं बल्कि एक राजनीतिक विचारधारा प्रेरित होकर उत्तर तक पहुँचने की हड़ब़ड़ी में हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि समस्या को समझने में शायद हमें अपने परिवार और अपने समाज के उन बनावटी मूल्यों और झूठी मान्यताओं को चुनौती देना पड़े जिसके लिए हम सहजता से तैयार नहीं हैं। शायद अभी भी हम अपने जीवन की सार्थकता दूसरों स्वीकार्यता में ढ़ूढँते हैं। एक विचारधारा के प्रति हमारा अंध-समर्पण इसका उपयुक्त परिचायक है। हमें इसे बदलना चाहिए। अपने सोचने के तरीके में एक व्यावहारिक और सकारात्मक बदलाव लाना होगा। विचारों में निष्पक्षता और निरंतरता रखनी होगी ताकि हम अपने आप को हमारी आनेवाली पीढ़ी को एक खोखली सोच का हिस्सा बनने से रोक सकें। 

गौतम आनंद
ईस्ट-वेस्ट सेंटर, हवाई 
          संयुक्त राज्य अमेरिका में एडीबी-जेएसपी फेलो हैं
और यूनिवर्सिटी ऑफ हवाई में शिक्षारत हैं।
संपर्क ananddg@hawaii.edu,+1 808 800 6940

Post a Comment

और नया पुराने