आलेख:भोजपुरी क्षेत्र के किसान आंदोलन/योगेश कुमार सिंह

भोजपुरी क्षेत्र के किसान आंदोलन

अनुकूल भोगौलिक परिस्थितियों तथा जलवायु के कारण भारत प्राचीन काल से ही एक कृषि प्रधान देश रहा है। प्रारंभ से ही यहाँ के बहुसंख्यक निवासियों का मुख्य व्यवसाय कृषि है। जीवन-निर्वाह के अन्य सभी साधन जो बाद में विकसित हुए, या तो कृषि पर आश्रित थे या इससे संबंधित। यह कहना अनुचित न होगा कि कृषक वर्ग ने, जो वास्तव में मानवता के अकेले सबसे बड़े वर्ग का निर्माण करता है, हमारे भाग्य निर्धारण में विशेष भूमिका निभाई है। भारत के अधिकांश उद्योगों को कच्चा माल कृषि क्षेत्र से ही प्राप्त होता है। इसलिए कृषि उत्पादन का औद्योगिक जगत पर भी जबरदस्त असर पड़ता है।

अंग्रेजी शासन काल में पूर्वी भारत, मध्य भारत और उत्तरी भारत में जमींदारी प्रथा प्रचलित थी तथा पश्चिमी भारत एवं दक्षिणी प्रान्तों में रैयतवाड़ी प्रथा। जमींदारी प्रथा के अंतर्गत किसानों से लगान उगाहने का काम जमींदारों को सौंप दिया गया और सरकार ने उन्हें भूमि का मालिक मान लिया। रैयतवाड़ी प्रथा में सरकार का किसानों से सीधा सम्पर्क था। अर्थात् करों की उगाही सरकार किया करती थी, जमींदार नहीं; पर लगान की राशि इतनी अधिक थी कि अधिकांश किसान उसे चुकाने में असमर्थ थे। भूमि कर या लगान के अतिरिक्त किसानों को और भी कई तरह के कर देने पड़ते थे, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ा। सम-समय पर होने वाली प्राकृतिक विपदाओं- सूखा और अतिवर्षा से उनकी कंगाली बढ़ी और किसानों की हालत ख़राब होती चली गयी।

भारत में किसान आंदोलन की परंपरा बहुत पुरानी है। आधुनिक काल, विशेषकर सन् 1857 के बाद के किसान आंदोलनों का यदि वर्गीकरण किया जाए तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संघर्ष के सात मुख्य लक्ष्य रहे हैं : (1) जमींदारों और साहूकारों से बदला लेने की भावना (२) धार्मिक और सांप्रदायिक उद्देश्य से किए गए आंदोलन अर्थात् किसी ख़ास प्रदेश या इलाके से दूसरे धर्मावलंबियों या सम्प्रदाय वालों की प्रभुता को समाप्त करना (3) एक विशेष प्रकार की फसल पैदा करने की मज़बूरी से उत्पन्न रोष (4) महज लूटमार के लिए किया गया संघर्ष (5) राजनीतिक जागृति से उत्पन्न संघर्ष अर्थात् महात्मा गांधी या कांग्रेस के आह्वान पर छेड़ा गया आंदोलन (6) सूखा पड़ने अथवा फसल नष्ट हो जाने के कारण आंदोलन, तथा (8) स्वतंत्रता के बाद कई और राजनीतिक आंदोलन। सन् 1857 के विद्रोह में किसानों ने बड़ी भूमिका निभाई थी और इसकी बड़ी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। सन् 1857 के विप्लव से पहले बंगाल की संथाल जनजाति, असम, बिहार, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश की जनजातियों ने भी जमींदारों और अंग्रेजों को खूब छकाया।[1] आज़ादी के समय भारत अधिकांशतः किसानों और मजदूरों का देश था। इसकी करीब तीन चौथाई आबादी कृषि कार्य में लगी हुई थी और देश का 60 प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद भी इसी क्षेत्र से आता था। महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत की आत्मा उसके गांवों में निवास करती है।[2] भारत के किसान राष्ट्र और भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ थे। सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना और स्वतंत्रता आंदोलनों में इनकी हिस्सेदारी से किसान आंदोलनों को एक नया राष्ट्र मिला। कांग्रेस ने किसानों की लामबंदी सन् 1920 से करना शुरू कर दी थी ताकि वे स्वतंत्रता आंदोलनों को जनवादी आंदोलन बना सके।

                सन् 1919 के आस-पास राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों को पहली बार व्यापक स्तर पर जनाधार मिला था और उसमें राजनीतिक उद्वेग को बढ़ाने का प्रमुख कारण ब्रिटिश साम्राज्यवादी शोषण और अत्यचारी चरित्र का अधिक तेज होना था। खिलाफत आंदोलन के प्रभाव से मुस्लिम नेता राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के नज़दीक आ रहे थे। महात्मा गांधी अपने आगमन के बाद सीधे तौर पर किसान आंदोलनों से जुड़ें। इस दशक में कई सारे किसान आंदोलन हुए। जिनमें प्रमुख आंदोलन हैं सन् 1917 का चंपारण (बिहार) आंदोलन, खेड़ा आंदोलन सन् 1917, बारदोली (गुजरात) का किसान आंदोलन सन् 1928-1929 है। चंपारण का आंदोलन बहुत पुराना था। चंपारण में निलहें किसानों को तिनकठिया व्यवस्था के अंतर्गत ब्रिटिश शासक नील पैदा करने के लिए मजबूर करते थे। इस व्यवस्था में किसान अपनी ज़मीन का 3/20 भाग पर नील उगाने के लिए मजबूर थे। इसके विरुद्ध सन् 1860 से ही आंदोलन चल रहा था। गांधी जी ने अपने विचारों पर आधारित सत्याग्रह का पहला प्रयोग इसी आंदोलन में किया है। गांधी जी के दक्षिण अफ्रीका में किए गए संघर्षों से प्रभावित होकर यहाँ के किसानों ने उन्हें निमंत्रण दिया। गांधी जी चंपारण गए और वहाँ के किसानों की दयनीय दशा को देखा और उनके आगमन से एक आंदोलन खड़ा हो उठा। गांधी जी ने तिनकठिया प्रथा के बारे में कहा था कि चंपारण के किसान अपनी ही जमीन के 3/20 हिस्से में नील की खेती उसके असल मालिक के लिए करने को कानून से मजबूर थे। इस प्रथा को ‘तिनकठिया’ कहते थे। बीस कट्ठे का वहाँ का एक एकड़ था और उसमें तीन कट्ठे की बोआई का नाम ‘तिनकठिया रिवाज।[3]। इसी वर्ष महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह को 100 साल पूरे हुए। भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए कई आंदोलन हुए। जिसमें सत्याग्रह आंदोलन का अपना एक विशेष महत्व है। गांधी जी का सन् 1917 का चंपारण सत्याग्रह न सिर्फ भारतीय इतिहास बल्कि विश्व इतिहास की ऐसी घटना है, जिसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को खुली चुनौती दी थी। इस आंदोलन का दूरगामी लाभ यह हुआ कि इस क्षेत्र में विकास की प्रारंभिक पहल हुई, जिसके तहत कई पाठशाला, चिकित्सालय, खादी संस्था और आश्रम स्थापित किए गए।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सन् 1885 में अपनी स्थापना के समय से ही साल दर साल यह मांग करना आरंभ कर दिया था कि भूमि कर स्थाई रूप से निम्न स्तर पर निश्चित किया जाना चाहिए। साथ ही उसने ये भी मांग की कि अस्थाई बंदोबस्त वाले इलाकों में भी भू राजस्व का स्थाई बंदोबस्त किया जाए ताकि समय-समय पर राजस्व बढाने की संभावना समाप्त कर दी जाए। सन् 1935 में एक किसान सम्मेलन आयोजित किया गया जिसकी अध्यक्षता सरदार पटेल ने की थी। इसमें एक प्रस्ताव के जरिए दो टूक शब्दों में जमींदारी उन्मूलन की मांग की गई। किसान स्वामित्व की ऐसी प्रणाली का समर्थन किया गया जिसमें बिचोलियों का कोई स्थान न हो। उसी वर्ष बिहार किसान सभा ने भी जमींदारी उन्मूलन की मांग की। कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट किसान संगठनों में शामिल हो गए और उन्हें मजबूती प्रदान की। इन प्रयत्नों का परिणाम था सन् 1936 में अखिल भारतीय किसान कांग्रेस का गठन, जिसका बाद में नाम बदल कर अखिल भारतीय किसान सभा कर दिया गया।

बिहार में किसानों का संघर्ष साम्राज्यवाद के खिलाफ ही नहीं था बल्कि देशी जमींदारों के खिलाफ भी संघर्ष उतनी ही तीव्र गति से बढ़ रहा था। सन् 1930-1940 के दशक में विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के फलस्वरूप किसानों पर लगातार गरीबी एवं कर्ज़ का बोझ बढ़ता जा रहा था। भूकंप ने इसमें और वृद्धि कर दी। फलतः मालगुजारी दे पाने में किसान असमर्थ थे। बारी-बारी से किसानों की जमीनों को नीलाम करा कर जमींदारों ने हड़प लिया। बिहार में किसान आंदोलन के उद्भव एवं विकास को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ लोग मानते हैं कि यह राष्ट्रवाद के विकास के फलस्वरूप पैदा हुआ। अर्थात् राष्ट्रीय आंदोलन ने ही वह पृष्ठभूमि तैयार की जिसमें किसानों की राजनीतिक चेतना का प्रसार तथा उसके संगठन एवं नेतृत्व को जिम्मेदारी संभालने के इच्छुक, सक्षम राजनीतिक कार्यकर्ताओं का उदय हुआ। फलस्वरूप किसान-संघर्ष संभव हो सका। सन् 1937 में गांधी जी ने कहा था कि भूमि और सारी सम्पत्ती उसकी है जो उस पर काम करता है।[4] कांग्रेस मंत्रिमंडल के कायम होने पर जमींदारों को यह डर हो गया था कि जिन खेतों को उन्होंने जबरदस्ती किसानों से छीन लिया है और जिन्हें अब भी किसान ही जोत रहे हैं उन पर किसानों का हक़ हो जाएगा। इस डर का कारण यह था कि कांग्रेस मंत्रिमण्डल ने लगान का दर कम करने और बकास्त जमीनों की वापसी के लिए कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी, लेकिन सच्चाई तो यह है कि बकास्त कानून ने किसानों को राहत देने की जगह जमींदारों के दमनचक्र को एक नई शक्ति प्रदान की, जिसके फलस्वरुप बिहार में बकास्त आंदोलन उत्तेजित हो उठा। सारे बिहार में वर्षों से जमीन जोत रहे किसानों को जमींदारों ने निकालना शुरू किया। किसान विरोध करते थे और अपने खेतों को छोड़ना नहीं चाहते थे, यही संघर्ष का कारण था। अशोक द्विवेदी की भोजपुरी में लिखित एक कविता है -  
   
गाँव खामोश बा
             एने कई दिन से
             गाँव खामोश बा
             मनगुपुते कुछ सोचत
             फिकिरमंद
             जइसे खोहा में होखे बंद।
             पाकत फोड़ा लेखा
             भितरे भीतर खदकत बा
             बाकिर चुप बा गाँव, एघरी[5]

जिस गाँव में किसान रहता है, जहाँ हर प्रकार के रीति-रिवाज, संस्कृति, हर्ष, उल्लास का वातावरण रहता है, वही गाँव आज शांत है।

              भारत  में संगठित किसान आंदोलन खड़ा करने का श्रेय स्वामी सहजानंद को जाता है। दण्डी संन्यासी होने के बावजूद सहजानंद ने रोटी को ही भगवान कहा और किसानों को भगवान से बढ़कर बताया। ‘जो अन्न वस्त्र उपजाएगा, अब सो कानून बनाएगा’ उनका यह नारा बिहार किसान आंदोलन के समय काफी प्रचलित हुआ। महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुआ असहयोग आंदोलन जब बिहार में गति पकड़ा तो सहजानंद उसके केंद्र में थे। घूम-घूम कर उन्होंने अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगों को खड़ा किया और सन् 1929 में उन्होंने बिहार प्रांतीय किसान सभा की नींव रखी। जब सन् 1934 में बिहार प्रलयंकारी भूकंप से तबाह हुआ, तब स्वामी जी ने बढ़-चढ़कर राहत और पुनर्वास के काम में भाग लिया। इस दौरान स्वामी जी ने देखा कि प्राकृतिक आपदा में सब कुछ गवाँ चुके किसानों को लठैत द्वारा जमींदारों ने टैक्स देने के लिए प्रताड़ित किया, तब उन्होंने कहा था कि ‘कैसे लोगे मालगुजारी, लट्ठ हमारा जिंदाबाद’। बाद में यही नारा किसान आंदोलन का प्रिय नारा बन गया। इस दौरान बिहार में किसानों की सैकड़ों रैलियां और सभाएँ हुईं। अप्रैल 1936 में  कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई और स्वामी सहजानंद सरस्वती को उसका पहला अध्यक्ष चुना गया।

उदारीकरण, निजीकरण और औद्योगिकरण ने किसानों की स्थिति को इस तरह से बदल दिया कि किसान अपने किसानी को छोड़कर शहर दर शहर घूमते हुए श्रमिक जीवन बिताने पर मजबूर हो रहे हैं। किसानों का यह पलायन हाल की घटना नहीं है बल्कि आजादी पूर्व ही इसकी शुरुआत हो चुकी थी। बिहार से भी किसानों का पलायन शहरों की तरफ़ हुआ जो अभी तक जारी है। गाँव की गरीबी से तंग आकर परदेश या शहरों में किसान से मजदूर बने हुए किसान अपने परिवार को छोड़ जाते हैं। रोजगार की तलाश में पलायन के पीछे जहाँ गाँव-घर छुटता है वहीं मानवीय रिश्ते भी कमजोर पड़ जाते हैं।

भिखारी ठाकुर के नाटकों के आरम्भ में सूत्रधार इस दुख को बयाँ करता है - क–

‘सिन्धु की कुमारी, देख दीनता हमरो, वर्षा वो धूप, जाड़ा, तीनों सहना पड़ा।
जोहना पड़ा आनंदहिं दिमागदार लोगन को, अधम अबुधन को बोल सहना पड़ा।।’[6]

स्वाधीनता आंदोलन के दौर में भोजपुर में किसान आंदोलन चरम पर था। कहें तो स्वाधीनता आंदोलन का एक स्वर किसानों की स्थिति में सुधार था, जिसे कि भोजपुर क्षेत्र के किसान आंदोलन पूरा कर रहे थे। 

          अभी हाल ही में तमिलनाडु और मध्य प्रदेश के किसानों ने आंदोलन किए। मध्य प्रदेश में तो किसानों पर गोली भी चलाई गई, जिसके फलस्वरूप पाँच किसानों की मृत्यु हो गई। जो किसान अन्नदाता है, जो दिन रात कड़ी मेहनत करता है उसके बदले उसे क्या मिलता है - बन्दुक की गोलियाँ? किसानों को लेकर जगह-जगह जन सभाएँ होती हैं। उन्हें जागरूक करने का प्रयास किया जाता है। बड़े बड़े नेता अपने लम्बे-लम्बे भाषणों से किसानों के सुनहरे भविष्य की बात करते हैं, क्या यह सूचना किसानों तक पहुँच पाती है? किसी शहर के सभागार के अन्दर किसानों के लिए बड़ी-बड़ी सभाएँ चलती हैं। उसी सभागार के बाहर किसान से मजदूर बना हुआ व्यक्ति ठेला लगाकर कुछ बेच रहा होता है या सड़क पर मजदूरी करता है। क्या किसान किसी प्रेमचंद के साहित्य का विषय ही बनकर रह जाएंगे या उनकी स्थिति में सुधार होगा। पंडित नेहरु ने अपनी आत्मकथा में जिस दौर के किसानों की बदहाली का जिक्र किया है, होरी एवं उसके समकक्षी किसान लगभग उसी कालखण्ड के किसान हैं। उनके जैसे सीमांत किसानों की दर्दनाक आर्थिक दशा केवल बेलारी में ही है, ऐसा नहीं है बल्कि भारत के हर गाँव में है।

भारतवर्ष का पूर्वांचल प्रांत गरीबी, बाढ़, सूखा जैसे कई मारों से टूटा हुआ प्रांत है। इस प्रांत में कई गाँव आज भी नौजवानों से खाली हैं। कोई इसी पैसे को कमाने की चाह में पूरब की ओर कलकत्ता और असम गया है, तो कोई दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र में अपमानित हो रहा है। ‘दो बीघा ज़मीन’ का किसान कलकत्ता में हाथ-रिक्शा खिंचता है। आजादी की पहले की दशा आज भी वैसी ही है जैसी पहले थी। किसानों को विषय बनाकर भारी मात्रा में साहित्य रचे जा रहे हैं, पर वो साहित्य किसानों तक नहीं पहुँच पाता, इसका एकमात्र कारण है निरक्षरता।

संदर्भ
  1.भारतीय राजनीतिक व्यवस्था, बी. बी. तायल, पृष्ठ 364
  2.भारत गाँधी के बाद, रामचंद्र गुहा, पृष्ठ 251 (उद्धृत)
  3.सत्य के प्रयोग, महात्मा गाँधी, पृष्ठ 459
  4.आजादी का बाद भारत, बिपिनचंद्र, पृष्ठ 528 (उद्धृत)
  5.पाती (भोजपुरी पत्रिका), दिसंबर 2009, पृष्ठ 11
  6.भिखारी ठाकुर रचनावली, नगेंद्र प्रसाद सिंह, वीरेंद्र नारायण यादव, पृष्ठ 180


योगेश कुमार सिंह,शोध छात्र (हिंदी)
अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद
संपर्क 07032772645,yogeshyog87@yahoo.com

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)         वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018)          चित्रांकन: दिलीप डामोर 

Post a Comment

और नया पुराने