गोस्वामी तुलसीदास का सामाजिक योगदान
हिन्दी साहित्य के महान कवि थे इनका जन्म सोरों शुकर क्षेत्र वर्तमान में
कासगंज एटा उत्तर प्रदेश में हुआ था। कुछ विद्वान उनका जन्म राजापुर जिला बांदा वर्तमान
में चित्रकूट में हुआ मानते है। इन्हें आदि काव्य रामायण के रचयिता वाल्मिकि का
अवतार भी माना जाता है। श्री रामचरितमानस की कथा रामायण से ली गई है। रामचरितमानस
लोकग्रन्थ है और इसे उतर-भारत में बडे़ भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय
पत्रिका उनका एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य ग्रन्थ है। महाकाव्य श्रीरामचरितमानस को
विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में 46 वां स्थान दिया
गया है तुलसीदास जी के पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था जन्म
के दूसरे ही दिन माँ का निधन हो गया था। पिता ने बालक को चुनियाँ नाम की दासी को
सौप दिया और स्वयं विरक्त हो गये। बचपन में इनका नाम रामबोला था जब बालक साढे पाँच
वर्ष का हुआ तो चुनियाँ भी नहीं रही वह गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन जीने
को विवश हो गया।
भगवान शंकर जी की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्री
अनंतानन्द जी के परम शिष्य श्री नरहरि बाबा ने इस बालक को ढूँढ़कर उसका विधिवत नाम
तुलसी राम रखा तदुपरान्त वे उसे अयोध्या उत्तर-प्रदेश ले गये वहाँ उनका यज्ञोपवीत
संस्कार सम्पन्न कराया एवं बैष्णो के पाँच संस्कार करके बालक को राम मन्त्र
की दीक्षा दी। 25 वर्ष की आयु में राजापुर से थोडी ही दूर यमुनापार स्थित एक
गाँव की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली से उनका विवाह हुआ एक बार
अचानक ही वह उनसे मिलने चले गए और उससे उसी समय चलने का आग्रह करने लगे। उनकी इस
अप्रत्याशित जिद से खीझकर रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से जो शिक्षा
उन्हें दी उसने ही तुलसीराम को ‘तुलसीदास’ बना दिया रत्नावली ने जो दोहा कहा वह इस प्रकार है
अस्थि चर्म मय देय यह, ता सो ऐसि प्रीति।
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव भीत?
यह दोहा सुनते ही उन्होंने उसी समय पत्नी को वहीं उसके पिता के घर छोड़ दिया और
वापस अपने गाँव राजापुर लौट गये। राजापुर में अपने घर जाकर जब उन्हें यह पता चला
कि उनकी अनुपस्थिति में उनके पिता भी नहीं रहे और पूरा घर नष्ट हो चुका है तो
उन्हें और भी अधिक कष्ट हुआ तब वह गाँव में ही रहकर लोगों को भगवान राम की कथा
सुनाने लगे।
कुछ समय पश्चात् वह काशी चले गए और वहाँ की जनता को राम कथा
सुनाने लगे। उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में प्रेत मिला जिसने उन्हें हनुमान जी
का पता बतलाया। हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास जी ने उनसे श्री रघुनाथ जी का दर्शन
कराने की प्रार्थना की। हनुमान जी ने कहा-तुम्हें चित्रकुट में रघुनाथ जी के दर्शन
होंगे। इस पर तुलसी दास जी चित्रकुट की ओर चल पडे़।
एक दिन चित्रकूट के रामघाट पर प्रशिक्षण करने निकले ही थे
यकायक मार्ग में उन्हें श्री राम जी के दर्शन हुए उन्होंने देखा कि दो बडे़ ही
सुन्दर राजकुमार घोड़ो पर सवार होकर धनुष वाण लिए जा रहे हैं तुलसीदास उन्हें देखकर
आकर्षित हुए परन्तु पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमान ने आकर उन्हें बताया तो वे
पश्चाताप करने लगे इस पर हनुमान जी ने उन्हें सांत्वना दी और कहा प्रातः काल फिर दर्शन होगें
संवत् 1607 की मौनी अमावस्या
की बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्री राम पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप
में आकर तुलसीदास से कहाः- बाबा हमें चन्दन चाहिए क्या आप हमें चन्दन दे सकते है. हनुमान जी ने सोचा कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जाऐं इसलिए उन्होंने तोते का
रूप धरण करके यह दोहा कहा:-
चित्रकूट के घाट पर, भई सन्तन की भीर।
तुलसीदास चन्दन घिसे, तिलक देत रघुबीर।।
तुलसीदास श्री राम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही
भूल गए। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चंन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी
के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गए। संवत् 1626 में वह हनुमान जी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पडे़। उन
दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा था वे कुछ दिन वहाँ ठहर गये। पर्व के छः दिन बाद एक
वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज व याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए माघमेला समाप्त
होने पर पुनः काशी आ गए। वहाँ के प्रह्लाद घाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया
वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व शक्ति का प्रस्पफुटन हुआ और वे संस्कृत में पद्य
रचना करने लगे दिन में वह जितने पद्य रचते रात्रि में सब विलुप्त हो जाते। यह घटना
रोज घटती। आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न में भगवान शंकर ने आदेश दिया तुम अपनी
भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास जी की नींद खुल गई वे उठ कर बैठ गएं उसी समय
भगवान शिव-पार्वती उनके सामने प्रकट हुए। तुलसीदास जी न उन्हें साष्टांग प्रणाम
किया। प्रसन्न होकर शिवजी ने
कहा- तुम अयोध्या में जाकर रहों और हिन्दी में काव्य रचना करो मेरे आशिर्वाद से
तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी। तुलसीदास जी उनकी आज्ञा शिरोर्धय कर
काशी से सीधे अयोध्या चले गए।
सवंत् 1631 का प्रारम्भ हुआ।
देवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के
दिन था। उसी दिन से तुलसीदास जी ने रामचरितमास की रचना प्रारम्भ की दो वर्ष सात
महीने व छब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पूर्ण हुआ। 1633 के मार्गशीर्ष के
शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।
इसके पश्चात तुलसीदास जी काशी चले गए वहाँ उन्होंने भगवान्
विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्री राम चरितमानस सुनाया व रात को पुस्तक
विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी। प्रातः काल जब मन्दिर के द्वार खोले गए तो पुस्तक
पर ‘सत्यं शिवम्-सुन्दरम्’ लिखा था व इसके नीचे भगवान शंकर की सही पुष्टि थी वहाँ
उपस्थित सभी लोगों ने ‘सत्य शिवम्
सुन्दरम्’ की ध्वनि भी कानों में सुनी।
यह सब जानकर काशी के पण्डितों को ईष्या उत्पन्न हुई वे
तुलसीदास जी की निन्दा तथा पुस्तक को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने
पुस्तक को चुराने के लिए दो चोर भेजे। चोरों ने देखा कि तुलसीदास जी की कुटिया के
पास दो युवक धनुष-वाण लेकर पहरा दे रहे है। दोनों युवक बहुत ही सुन्दर श्याम और
गोर वर्ण के थे उनके दर्शन करते ही चोरो की बुद्धि आ गई उन्होंने उसी समय से चोरी
करना छोड़ दिया व भगवान के भजन में लग गए। तुलसीदास जी ने भगवान को कष्ट हुआ जानकर
कुटी का सारा समान दान कर दिया व पुस्तक अपने मित्र टोडरमल जो कि अकबर के नवरत्नों
मे से एक थे, उनके पास रखवा दी, इसके बाद उन्होंने
दूसरी प्रति लिखी व अन्य प्रतियाँ तैयार की गई ओर पुस्तक कर प्रचार दिनों-दिन बढ़ने
लगा।
काशी के पण्डितों ने श्री मधुसुदन सरस्वती नाम महापण्डित को
उस पुस्तक पर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की। मधुसुदन सरस्वती जी ने पुस्तक
देखकर अध्कि प्रसन्नता प्रकट की व उस पुस्तक पर यह टिप्पणी लिख दी-
आनन्दकानने ह्मास्मििज्जडõमस्तुलसीतरूः।
कावितामज्जरी भाति रामभ्रमर भषिता।।
इसका हिन्दी में अर्थ है- काशी के आनन्द वन में तुलसीदास साक्षात चलता -फरता तुलसीदास
का पौध हैं उनकी काव्य-मंजरी बड़ी ही मनोहर है, जिस पर श्री राम छपी भॅवरा सदैव मंडराता रहता है।
अब पण्डितों ने पुस्तक की परीक्षा का एक अन्य उपाय खोजा।
काशी के विश्वनाथ मन्दिर मे भगवान विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उसके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबसे नीचे रामचरितमानस रख दिया।
प्रातः काल मन्दिर खोलने पर लोगों ने देखा श्रीरामररितमानस वेदों के ऊपर रखा है यह
देख सभी पण्डित लज्जित हुए व उन्होंने तुलसीदास जी से क्षमा प्रार्थना की। अपने जीवन के 126 वर्ष के दीर्घ जीवन काल में कालक्रमानुसार तुलसीदास ने
निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएं की-
रामललानहछू,
वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञप्रश्न, जानकी मंगल, रामचरितमानस, सतसई, पार्वती- मंगल, शीतावली, विनय-पत्रिका, कृष्ण गीतावली, बरवै रामायण, दोहावली, कतितावली।
इनमें से रामचरितमानस, विनय पत्रिका, कवितावली गीतावली जैसी कृतियों के विषय में यह वाणी सटीक
प्रतीत होती है। - पश्य देवस्य काव्यम् न मृणोति न जीयति।
अर्थात देवपुरूषों का काव्य लिखिए जो न मरता है न पुराना होता है।
लगभग चार सौं वर्ष पूर्व तुलसीदास जी ने अपनी कृतियों की
रचना की थी। आधुनिक प्रकाशन सुविधाओं से रहित उस काल में भी तुलसीदास जी का काव्य
जन-जन तक पहँच चुका था। यह एक लोकप्रिय कवि होने का प्रमाण है मानस जैसे वृहद
ग्रन्थ को कठस्थ करके सामान्य पढ़े, लिख लोग भी अपनी
शुचिता एवं ज्ञान के लिए प्रसिद्ध होने लगे थे रामचरित मानस तुलसीदास जी का सर्वाधिक
लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है।
कुछ ग्रन्थों का साक्षिप्त विवरण-
1. रामललानहछूः यह संस्कार गति है इस गीत में कतिपय उल्लेख
राम -विवाह की कथा से भिन्न है
गोद लिहै कौशल्या होहि रामहिं वर हो।
सोभित दूलहे राम सीस, पद आचर हो।।
2. वैराग्य संदीपनी:- वैराग्य संदीपती को
माताप्रसाद गुप्त ने अप्रमाणिक व तुलसीदास जी को आरम्भिक माना है परन्तु आचार्य
चन्द्रवली पाण्डे इसे प्रामाणिक व तुलसीदास जी को आरम्भिक रचना मानते हैं संत
महिमा वर्णन का पहला सोण यह है -
को बरने गुख एक, तुलसी महिमा संत।
जिनके विमल विवेक, शेष महेस न कहि
सकत।।
3. बरवै रामायणः- विद्वानों ने इसे तुलसी की रचना घोशित किया
है। शैली की दृष्टि से यह तुलसीदास की प्रामणिक रचना है। इसकी खण्डित प्रति ही
ग्रन्थावली में संपादित है।
मानस में तुलसीदास धर्मद्रष्ता और नीतिकार के रूप में सामने आते है।यह ग्रन्थ एक धर्मग्रन्थ के रूप में
भी लिखा गया है।
रामायण:- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का अमृतय रूप है तो रामचरितमानस रामभक्ति की
श्रद्धा की सरयू, भक्ति की भगीरथी
है. रामचरित मानस शाश्वत जीवन मूल्यों का आधारदीप हैं प्रत्येक संस्कृति के कुछ
ऐसे शाश्वत नियम उपनियम एवं परम्पराऐं होती हैं जो इसकी आधारशिला है।व्यक्ति के निजी जीवन, समाज एवं राष्ट्र
को निर्मल सम्मुनत एवं आदर्शलक्षी बनाने के लिए ऐसे नियम विवेकपूर्ण जीवन
रीति-निति के मार्गदर्शन होते है। ऐसे मानदण्ड निर्धरित करने में धर्मग्रन्थों, शास्त्रागन्थों एवं जीवनमूल्यनिष्ठ साहित्यिक रचनाएं सहायक
होती हैं। ये मूल्य समाज एवं राष्ट्र की आकाक्षाएं होते हैं।भारतीय सस्कृति में चार पुरूषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को जीवन के मूल्यों के रूप में उल्लेखित करते हुए
मोक्ष को निःश्रेयस की प्राप्ति का सर्वोत्तम लक्ष्य माना गया है।
तुलसीकृत रामचरितमानस उनकी विराट प्रतिभा का साधनाजन्य वह पुरस्कार है जो व्यक्ति
के इहिलोक एवं परलोक सुधरने की अद्वितीय क्षमता रखता है आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने
अग्निपुराण के बचन का उल्लेख करते हुए कहा हैं ‘नरत्वं दुर्लभ लोक, लोके विद्या सुदुर्लभा। महाकवि तुलसीदास जी को उक्त चारों
विभूतियाँ परिप्राप्त थीं और इनका सदुपयोग उन्होने सर्वजन हिताय ही किया।शिक्षा का मूल्य इस बात में है कि यह हमारे आवेगो में संयति और सन्तुलन
स्थापित करे, हमारी अनुभूतियो के क्षेत्र को व्यापक बनाए तथा मनुष्यों को
परस्पर सहयोग के लिए प्रेरित करे।
तुलसीदास का साहित्यिक दृष्टिकोण कलालक्षी नही जीवनलक्षी
था। उन्होंने उस भक्ति को आदर्श स्वरूप माना जिसमें श्रेय एवं प्रेय का समन्वय हो
तुलसी कभी किसी वाद के चौखटे में प्रतिबद्ध नहीं रहे क्योकि वे सत्याग्रहलक्षी साधक
थे इसलिए वे मनुष्य की केन्द्रीय स्थिति जीवन विषयक एक समविन्त दृष्टिकोण रामचरित मानस मे
प्रस्तुत कर सके। तुलसीदास जी ने
हिन्दू धर्म में निरन्तर उत्पन्न हो रहे मत-मतान्तरों, सम्प्रादायों और सामाजिक वैषम्य को दूर करके एक आदर्श समाज
की कल्पना रामचिरत मानस में की है।वे शुभ को ही जीवन का मूल्य मानते है इसलिए उनका
साहित्य मानव-मूल्यों के जय जयकार के प्रति समर्पित है ऐसे सिद्धांत जो मानव को मानव को बनाते
है हम उन्हीं को जीवन मूल्य कहते है जीवन मूल्य ही मानवीय आवश्यकाताओ की तुष्टि के
साथ लोकमंगल तथा आत्मोपलब्ध सिद्धि में सहायक होते हैं। पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन के मधुर आदर्श तथा उत्सर्ग की
भावना रामचरित मानस में सर्वत्र बिखरी हुई है।
तुलसी की काव्य चेतना में जीवन मूल्यों तथा मानव मूल्यों का समन्वय है और यह मूल्य
निरूपण भारतीय संस्कृति के उदात्त मूल्यो एवं नैतिकता के आदर्शों से अनुप्राणित
है।
कर्तव्यपरायणता शिष्टाचार, सदाचार, कर्ममण्यता नित्यपरखता, कृतज्ञता, सच्चाई, न्यायप्रियता, उत्सर्ग की भावना
समदृष्टि क्षमा आदि नैतिक मूल्यों का इसलिए भक्ति काव्य में अग्रस्थान प्राप्त किए
हुए दिखाया गया है ताकि समाज, राजनीति व लोकजीवन
उन्नत बने। रामचरित मानस में जीवन
मूल्यो का क्षेत्र सीमित नहीं है। उसमें वैश्विक दृष्टि है। मानव मात्र के कल्याण
की भावना है जीवन-मूल्य काल के बंधनों से मुक्त स्वस्थ समाज में कल्याणकारी
राजनीति की स्थापना में सहायक एवं मार्गदर्शक सिद्ध हो सकते हैं। उन्होंने सामाजिक मर्यादा का स्वरूप
निश्चित किया मर्यादाविरोधी तथा लोकविद्वेषकारी असत प्रवृत्तियो के आगे झुकना
स्वीकार नहीं किया । रामचरितमानस में
धर्मिक-दार्शनिक, सामाजिक एवं
राजनैतिक जीवन-मूल्यों का निरूपण सुन्दर ढंग से हुआ है। धर्म का उद्देश्य है मनुष्य को शुभत्व
एवं शिवत्व की राह दिखाकर आत्मज्योति की ओर अग्रसर करना। इसके लिए तप और त्याग
आवश्यक है।
तुलसीदास जी ने तप का महत्व निरूपित करने के लिए ही वाल्मीकि, अत्रि, भारद्वाज, नारद आदि को तपस्यालीन चित्रित किया है. त्याग-त्याग का मूर्तिमंत
उदाहरण यह है- बन्धुत्राय- राम, लक्षण एवं भरत। चक्रवर्ती होने वाले राम वनवासी हो जाते हैं।
लक्ष्मण अपने दाम्पत्य सुख की बलि देकर भ्रातृसेवा का त्याग जीवनमार्ग अपनाते हैं
और भरत महल में प्राप्त राज्य में लक्ष्मी को तृणवत् मानकर भाई को ढूँढ़न निकल पड़ते
हैं तुलसीदास जी ने भरत के इस त्यागपूर्ण व्यक्तित्व को प्रशंसित करते हुए कहा है-
चलत पयोद खात पफल, पिता दीन्ह वाजि राजु।
जात मनाबन रघुबरहि, भरत सरीति को आजु।।;रामचरितमानस 2/222
उन्होंने नृपतंत्र के रूप में दशरथ के शासनतन्त्र की
मर्यादाएं बताई है तो दूसरी और जनक जैसे -दार्शनिक तथा त्यागी सम्राट के राज्य संचालन
को भी वर्णित किया है। तुलसीदास जी ने राजा को प्रजा की प्रतिनिधि माना है। राजा की सर्वोपरि सत्ता को स्वीकार करते
हुए भी उन्होने उसकी निरंकुशता को सही नहीं माना है। उन्होंने उसी शासक को सच्चा
शासक माना है जो पद को प्रजा की सेवा का निमित मानता है। जनता की उपेक्षाओं की परिपुष्ट करते हुए
उन्होंने कहा-
‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी सो नृप अवसि नरक अधिकारी’
राजा को तुलसीदास जी ने सूरज से उपमित किया है-
बरसत, हरषत लोग सब, करषत लखै न कोई।
तुलसी प्रजा सुभाग वे भूप भानु सो होई।।
राजा को मुख के समान होकर सब सब विधि प्रजा का पोषण करना चाहिए -
मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान को एक,
पालहि-पोषहिं सकल अंग, तुलसि सहित विवेक।।
राम-राज्य अथवा कल्याण-राज्य तुलसीदास जी ने राम-राज्य अथवा कल्याण राज्य का
आदर्श प्रस्तुत किया है यह कल्याणकारी
राज्यधर्म का राज्य होता है, न्याय का राज्य
होता है, कर्तव्य पालन का राज्य होता है, सत्ता का नहीं सेवा का राज्य होता है। कल्याणकारी राम-राज्य के अन्तर्गत क्षमा, क्षमता, सत्य, त्याग, बैर का अभाव
बलिदान एवं प्रजा का सर्वागींण उत्कर्ष निहीत है कल्याणकारी राज्य में व्यक्ति, परिवार, समाज, राज्य और विश्व का कल्याण समाहित है।
तुलसीदास जी द्वारा इनके केन्द्र में धर्म की चिन्हित किया है धर्म को आज
वर्तमान समय में हम कर्तव्य पालन के रूप में देख सकते हैं। जहाँ धर्म होगा, वहाँ-सत्य, शिवत्व, सौन्दर्य सुख शन्ति एवं कल्याण होगा। जहाँ समाज ईर्ष्या, द्वैष, अधर्म कलह, विवाद से विमुख होकर विमलता, शुभ्रता नीति और धर्म का आचरण करे उसी का नाम कल्याणकारी
राज्य है। यह शत्रुत्व की भावना से परे समता का राज्य है।
रामचरितमानस के उत्तराकाण्ड में तुलसीदास जी ने राम राज्य अथवा कल्याणकारी
राज्य का वर्णन किया है- पारस्परिक स्नेह, स्वधर्म पालन अपने कर्तव्यो की पालन, धर्माचरण सत्य, शिव, शौदर्य, सुरन, कल्याणद्ध, आत्मिक उत्कर्ष , प्रजा एवं
प्रत्येक के प्रति आत्मयिता एवं आनंद का भाव, प्राति एवं नीति पूर्ण जीवन उदारता एवं परोपकार दयालुता का
उपकार करने की भावना, ये सब धर्मयुक्त
कल्याणकारी राज्य अथवा राम राज्य की विशेषताऐ है। तुलसीदास जी द्वारा राम राज्य का यह
चित्रण-आदर्श एवं कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना है। राम-राज्य का विस्तृत वर्णन
रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में निहित है।
तुलसीदास जी कहते है-
रामराज्य बैठें त्रैलोका, हरषित भये गए सब सोका।
बयरू न कर काहूसन कोई, राम प्रताप विषमता खोई।।
बनराश्रम निज-निज ध्रम, निरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहि सुखहिं नहिं भय सोक न रोग।।
दैहिक दैविक भौतिक तापा। रामराज नहीं काहुहिं व्यापा।।
सब नर करहि परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति
नीति।
चारिऊ चरन धर्म जग माहीं पूरि रहा सपनेहु दुःख नाही।।
अर्थात रघुनाथ जी को जिस समय तिलक दिया उस समय त्रिलोक
आनन्दित हुए और सारे शोक मिट गए। कोई किसी से बैर नहीं रखता और राम के प्रभाव से
सबकी कुटिलता जाती रही। चारो वर्ण चारो आश्रम-सब अपने वैदिक धर्म के अनुसार चलते
है। सुख प्रात करते है किसी को भय शोक और रोग नहीं है दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्त होकर सब लोग परस्पर स्नेह
करने लगे और अपने कुल धर्मानुसार जीवन जीने लगे। तप, ज्ञान, दान, इन चारो चरण से धर्म जगत में परिपूर्ण हो गया था कहीं भी
पाप का नाम नहीं था नर नारी राम के भक्त हो गये थे अल्प मृत्यु अथवा किसी तरह की
शारीरिक पीड़ा किसी को नहीं थी कोई भी दुःखी दरिद्र दीन व मूर्ख नहीं था सभी लोग धर्म
निरत दयालु और गुणवान थे। दण्ड के बजाय प्रेम से सबको जीत लिया गया था प्रकृति ने
भी पूर्ण उदारता से फल-फूल इत्यादि देने में भी कोई कसर नहीं की थी तुलसी जी कहते
हैः-
फूलहिं फरहिं सदा तरू कानन, रहहिं एक संग गज पंचानन।
खग-मृग सहज बयरू बिसराई, सबहि परस्पर प्रीति बढाई।
कूजहिं खग-मृग नाना वृंदा, अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।
शीतल सुरभ पवन वह मन्दा, गुंजत अलि लै चलि मकरन्दा।
ससि सन्पन्न सदा रह ध्रनी, त्रोता भई कृतजुग कै करनी।।
पर्वतों में से अनेक तरह की मणियों की खाने जगत्-प्राण राम को देखकर प्रकट हो
सब नदियो में सुन्दर जल प्रवाहित होने लगा वह शीतल और निर्मल था सागर किनारों पर
रत्न फेंक रहे थे। सरोवरों में कमल खिले थे। पूरा वायुमण्डल मनोहर था।
इस प्रकार राम-राज्य में शारी की अतृमयी किरणों से अवनि
परिपूर्ण थी एवं बादल से मांगने पर जलधारा
बरसाते थे धर्मयुक्त कल्याणकारी राज्य का मूल है। प्रजा कल्याण एवं शासको की नीतिमयता। राम के राजतन्त्र में प्रजा के कल्याणमय
स्वरूप का दर्शन होता है। राम हमारे सामने कल्याणकारी शासक का आर्दश प्रस्तुत करते
हैं। आदर्श शासक व सरकार वही है जो प्रजा को सुख प्रदान करे।
इसलिए तुलसीदास जी इस बात पर जोर देते है-
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारि।
सो नृप अवसि नरक अधिकारी ।।
जिसमें प्रजा सुखी है वहीं कल्याणकारी राज्य है। ऐसे राज्य के राजा का प्रथम धर्म
है वचनपालन, सत्यनिष्ठ एवं स्वावलम्बन राम राजा के रूप वर्णन करते हुए
तुलसीदास जी ने कहा है। राम-राज्य में
व्यक्तिगत स्वतंत्रता का महत्त्व है। राम-राज्य प्रजा तंत्रात्मक राज्य था वहाँ के
लोग निर्भीक होकर-रानी कैकयी के कार्यें की आलोचना कर सकते थे एवं स्वयं राम के
व्यक्तिगत जीवन की भी। परामर्श का
महत्त्व - कल्याणकारी अथवा राम-राज्य में सत्ता प्रजा की धरोहर मानी जाती थी प्रजा
का अहम् स्थान था राम-राज्य में प्रजा एवं पंचो के परामर्श को महत्त्व दिया जाता
था।
राज्य का उत्कर्ष - राज्य के उत्कर्ष के लिए चार चीजे आधर शिला है जो कि सत्य, दया, नीति एवं धर्म का
पालन करना। समानता-एक
कल्याणकारी या राम-राज्य वहीं हो सकता है जहाँ समानता को स्थान प्राप्त हो जहाँ
मानव-मात्रा को समान समझा जाए रामचरित मानस में इसका वर्णन मिलता है जब राम वन
जाते हुए चित्रकूट में रूकते है तब उनके आगमन का समाचार पाकर उनके दर्शन हेतु गुह, किरात शबर आदि सभी वनवासी लोग दौड पडते हैं।
प्रजा-कल्याण-तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में अनेक स्थलों पर-स्वराज्य का
स्परूप, स्वराज्य का आदर्श राजा का आचरण प्रजा का व्यावहार आदि के
बारे में अपने विचार प्रकट किए है। तुलसीदास जी द्वारा रामचरितमानस द्वारा व्यक्ति
के जीवन के सभी पहलुओं को छूते हुए मानव जीवन के उत्कर्ष हेतु मानव जीवन के
उत्कर्ष हेतु मानव मात्रा की भलाई के लिए सुशिक्षा प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभाई है। तुलसीदास जी
द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ न केवल धर्मिक व
आध्यामिक ग्रन्थ है बल्कि यह वर्तमान युग में सदाचारण व आत्मसात कर शिक्षा ग्रहण
करते हुए एक सफल सुखी जीवन जीने की उत्तम राह दिखने का अतिउत्तम माध्यम है।
तुलसीदास जी का राम-राज्य एक-तन्त्रात्मक राज्य था किन्तु वही सही अर्थ में
लोक-तन्त्रात्मक था क्योंकि सत्ता नहीं जनकल्याण ही राम का आदर्श था आज के
लोकतांत्रिक युग में जन कल्याण के उत्थान के लिए सीख ली जा सकती है। तुलसीदास जी
ने धर्मपालन के विषय में विस्तार से विवरण दिया है जो आज के कर्तव्य पालन के समरूप
है धर्म-पालन उनका जीवन मंत्र था रामचरितमानस विश्व
का एक ऐसा विशिष्ठ महाकाव्य है जो आधुनिक काल में भी उर्ध्वगामी जीवन दृष्टि एवं
व्यवहार धर्म तथा विश्वधर्म का पैगाम देता है यह अनुभवजन्य ज्ञान का ‘अमरकोश’ है.
रामचरितमानस देशकाल से परेशान दुःखी टूटे मनों का सहारा
संदेश देने की अदभुद क्षमता रखता है किसी भी राष्ट्र की भावात्मक एकता के लिए जिस
उदस्त चरित्र की आवश्यकता है वह रामचरितमानस में है मानव एक ऐसा वाग्दार है जहाँ
समस्त भारतीय साधना और ज्ञान परमपरा प्रत्यक्ष सीख पड़ती है आज भी करोडों मनों का
सहारा है एवं उन्हें सुशिक्षित करने की एक अमृतधारा है।
डॉ. अलका राठी,बहरीन
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी