शोध आलेख : भक्ति आन्दोलन, तुलसीदास और आधुनिक संदर्भ/ जितेन्द्र यादव

भक्ति आन्दोलन, तुलसीदास और आधुनिक संदर्भ

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जात-पांत को लेकर तुलसीदास की रचनाओं में भयंकर अन्तर्विरोध मिलता है। वे एक ओर ब्राह्मणों और वर्णाश्रम व्यवस्था का भयंकर समर्थन करते हैं। 'पूजिए बिप्र सकल गुण हीना। सूद्र न पूजिए परम प्रवीना। ’जैसीं पंक्तिया लिखते है तो दूसरी ओर ‘जाति-पांति कुल धर्म बड़ाई’ का त्याग करके राम की शरण में जाना परम पुरुषार्थ मानते हैं। यह अन्तर्विरोध तुलसी के व्यक्तित्व में भी रहा होगा। शुद्र-अछूत होने का क्या मतलब होता है? इसे पूरी तरह महसूस करने के लिए तुलसी को कबीर की भांति जुलाहे घर में जन्म लेना पड़ता। तुलसी शुद्र नहीं थे इसलिए वे शूद्रों पर ढाए जाने वाले जुल्मों की पीड़ा को पूरी तरह नहीं समझ पाते थे। फिर सामाजिक व्यवस्था के नाम पर वर्णाश्रम व्यवस्था का समर्थन करते थे। वर्णाश्रम व्यवस्था की शिथिलता को कलयुग का लक्षण मानते थे। ’ (विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी)

तुलसी दास भक्तिकाल और भक्ति आन्दोलन की परिधि के एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में स्थापित है। जिनकी लोकप्रियता आज भी बरकार है। गीताप्रेस से छपकर बिकने वाली लाखों प्रतियां इस बात का प्रमाण है। तुलसी की लोकप्रियता का आधार क्या है? यह एक बड़ा प्रश्न है। वह अपने कवित्व के लिए लोकप्रिय हैं या विचार के कारण या फिर धार्मिक रचना के कारण। जाहिर सी बात है कि उनकी लोकप्रियता का इनमें से कोई एक कारण नहीं बल्कि सभी का एक साथ समन्वय के कारण उनकी लोकप्रियता बनी हुई है। तुलसी का समय भारत के राजतन्त्र का समय है और अब लोकतंत्र का संवैधानिक भारत है। स्वाभाविक है कि हमारी किसी रचना के प्रासंगिक और कालजयी होने का आधार आधुनिक संदर्भ होगा। इस परिप्रेक्ष्य में जब हम तुलसी को देखते हैं तो तुलसीदास कई बार जटिल कवि के रूप में सामने आते हैं जिनकों समझना कई बार लगता है कठिन है।एक तरफ नारी की निंदा भी करते हैं’ ढोल गवार शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।’ तो दूसरी तरफ ‘कत बिधि सृजी नारी जग माही। पराधीन सपनेहूँ सुख नांही।’ कहकर दुःख भी प्रकट करते हैं, एक तरफ वर्णव्यवस्था के कारण ब्राह्मण के सम्मान की बात करते हैं तो दूसरी तरफ उन्हें तरह-तरह से कोसते भी नजर आते हैं। वर्णव्यवस्था में विश्वास प्रकट करते हुए भी सीता के अग्नि परीक्षा और शम्बूक की हत्या का प्रसंग रामचरित मानस से निकाल देना, विचार के स्तर पर और भी जटिल कवि बना देता है।  

इन सबके बावजूद इसमें कोई शक नहीं है कि तुलसी दास वर्णव्यवस्था को एक सामाजिक व्यवस्था मानते थे। उसमें पूरा उनका आदर और सम्मान था। इतना ही नहीं वर्णव्यवस्था के खिलाफ जाने वालों पर खरी-खोटी भी सुनाते है, वेद-पुराण की निंदा सहना तो उनके लिए असहनीय था। हिन्दू समाज की समस्त सामाजिक-धार्मिक , रीति-नीति, पूजा-विधान, आचार-विचार पर निर्गुण संतों ने धुंवाधार प्रहार किए हैं। इन प्रहारों से कुलीनतावादी सामन्ती समाज की चेतना की पूरी तिलमिलाहट गोस्वामी जी की वाणी में इस प्रकार मुखरित हुई है।

 ‘बादहिं सूद्र द्विजन सन हम तुम्ह तें कछु घाटी
जानहिं ब्रह्म सो बिप्रवर आंखि देखावहिं डाटी’
‘साखी सबदी दोहरा, कहि किहनी उपखान
भगति निरुपहिं भगत कलि निंदहिं वेद पुरान’ 

     जिस समय निर्गुण संत स्वाभिमान और आत्मसम्मान के लिए वर्णव्यवस्था के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे थे उस समय उसी व्यवस्था को कायम करने के लिए तुलसीदास जद्दोजहद करते हुए दिखाई देते हैं। उस व्यवस्था को रामराज्य का आदर्श व्यवस्था मानते हैं। तुलसी दास अपनी रचनाओं में भूख,अकाल और गरीबी के दयनीय स्थिति का चित्रण तो करते हैं किन्तु उसके पीछे वर्णव्यवस्था भी जिम्मेदार है वह नहीं मानते। छुआछूत और भेदभाव को स्वाभाविक मानकर चुप लगा जाते हैं अथवा उसके समर्थन में नजर आते हैं। तुलसी दास जाति के मसले पर अपने समय की परिधि से बाहर नहीं दिखाई देते हैं। इनकी रचनाओं में जितने सम्मान के साथ विप्र का उल्लेख आता है उतने ही हिकारत की दृष्टी से शुद्र का जिक्र आता है।अपवाद स्वरूप केवट और शबरी का प्रसंग छोड़कर।  जबकि उस समय कबीर,रैदास नामदेव जैसे संतों ने जाति-पांति और कर्मकांड का खंडन पूरे-शोर के साथ कर रहे थे। लेकिन रामराज्य और वर्णव्यवस्था के आदर्श के आगे यह सब बुराई तुलसी के लिए कोई मायने नहीं रखती है। वेद-पुराण से आगे उनकी दृष्टि नहीं जा पाती है।

         मुक्तिबोध ने प्रश्न उठाते हुए पूछा है कि ‘मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि कबीर और निर्गुण पन्थ के अन्य कवि तथा दक्षिण के कुछ महाराष्ट्रीय संत तुलसी जी की अपेक्षा अधिक आधुनिक क्यों लगते हैं? क्या कारण है कि हिंदी क्षेत्र में जो सबसे अधिक धार्मिक रूप से कट्टरवर्ग है ,उनमे भी तुलसी दास इतने लोकप्रिय हैं कि उनकी भावनाओं और वैचारिक अस्त्रों द्वारा, वह वर्ग आज भी आधुनिक दृष्टि और भावनाओं से संघर्ष करता रहता है। ’तुलसी दास हमारे सामने ऐसे कवि के रूप में आते हैं जो मर्यादा पुरुषोत्तम के गुणगान के सामने शुद्र संतों द्वारा उठाई गई भारत की बुनियादी बुराई कहीं गौण होती दिखाई देती है। यह सही है कि तुलसी को तत्कालीन समय के ब्राह्मणों से काफ़ी मुठभेड़ करना पड़ा जिसकी तिलमिलाहट दोहावली, कवितावली और विनय पत्रिका में दिखाई देता है। किन्तु वह जिस ब्राह्मणवादी व्यवस्था में पले-बढ़े थे, जो संस्कार उनके आचार-विचार में रचा-बसा था उसके आगे नहीं जा पाते है। जिस समतावादी और मानवतावादी दृष्टिकोण की दरकार उस तत्कालीन समय में थी जिसे संत कवि अपने स्तर से आगे पढ़ा रहे थे जाति-पांति के प्रति जो विद्रोह और आक्रोश था। यह वेद विहित तुलसीदास की रचना में दब जाता है।

 एकै पवन, एक ही पानी, एक जोती संसारा।
 एकै खाक गढ़े सब भांडे, एकै सिरजनहारा।
 एकै बूंद, एकै मल-मूतर, एक चाम अरु गूदा।
 एक जाति से सब ही जन्में, को ब्राह्मण को सूदा।  
 तुम कत बम्हन, हम कत सूद,
 हम कत लोहू, तुम कत दूध?
 जो तू है बाम्हन जो जाया,
 आन बाट काहे न आया?  (कबीर)

           यह जो वर्णव्यवस्था को लेकर संतों के अंदर पीड़ा और आक्रोश था। ब्राह्मणवाद के खिलाफ जो ललकार थी तुलसी का काव्य उसे ढक लेता है। संत कवियों की काव्य-भावना हमें अधिक जनतान्त्रिक, सर्वांगीण और मानवीय दिखाई देती है।वे हमें अत्यधिक जनवादी दिखाई देते हैं,मुक्तिबोध लिखते हैं कि ‘ उच्चवर्गीयों और निम्नवर्गीयों का संघर्ष बहुत पुराना है। यह संघर्ष नि:संदेह धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में अनेकों रूप में प्रकट हुआ। सिद्धों और नाथ संप्रदाय के लोगों ने जनसाधारण में अपना पर्याप्त प्रभाव रखा, किन्तु भक्ति आन्दोलन का जनसाधारण पर जितना व्यापक प्रभाव पड़ा। उतना किसी अन्य आन्दोलन का नहीं। पहली बार शूद्रों ने अपने संत पैदा किए, अपना साहित्य और अपने गीत सृजित किए। कबीर, रैदास, नाभा, सिंपी सेना नाई, आदि आदि संतों ने ईश्वर के नाम पर जातिवाद के खिलाफ आवाज बुलंद की।समाज के न्यस्त स्वार्थवादी वर्ग के विरुद्ध नया विचारवाद अवश्यंभावी था। वह हुआ। तकलीफें हुई।लेकिन एक बात हो गई। ’

 तुलसीदास नि:संदेह बड़े फलक के बड़े महाकवि है। राम के चरित्र को आधार बनाकर जो एक आदर्श रचा है वह हमें अभिभूत करता है, चित्त को शांति प्रदान करता है, आध्यात्मिक सुख देता है लेकिन कर्मकांड,पाखंड और जातिवाद से लड़ने का जो वैचारिक तेज मिलना चाहिए वह नहीं मिलता वह हमारे मष्तिष्क को नहीं झकझोरता बल्कि हृदय को सहलाता है। किन्तु संत कवियों में यह सब हमें मिलता है।तुलसी का सबसे बड़ा जो कमजोर पक्ष है वह है पुराण मतवादी नजरिया और वर्णव्यवस्था पर विश्वास है,वह उसी दायरे में चीजों को देखने के पक्षपाती हैं। इसके बाहर जो भी घटित होता है तुलसी को नागवार लगता है। वर्णाश्रम व्यवस्था के अंतर्गत शुद्र का काम है चारों वर्णों की सेवा करना है कुदाल उठाना, ब्राह्मण का काम है वेद पढ़ना और जनेऊ पहनना, अब अगर शुद्र कुदाल छोड़कर जनेऊ पहन ले, तेली, कुम्हार, स्वपच कोल-किरात, कलवार आदि वर्णों के लोग पत्नी के देहांत और सम्पत्ति के नष्ट होने पर मुंड मुड़ाकर संन्यासी हो जाए तो तुलसी के लिए इससे बड़ा कलयुग क्या भला हो सकता है?

 सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। 
 मेलि जनेऊ लेहि कुदाना।।
 जे बरनाश्रम तेलि कुम्हारा। 
 स्वपच किरात कोल कलवारा।।
 नारि मुई गृह सम्पत्ति नासी।
 मूंड मूड़ाइ होंहि संन्यासी।।  
 सूद्र करहिं जप तप व्रत नाना।
 बैठि बरासन कहहिं पुराना।।  मानस

इस बारे में विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी लिखतें है कि ‘निःसंदेह अवर्णों के प्रति ऐसी हृदयहीन पंक्तियाँ भी मध्यकाल के किसी अन्य कवि ने नहीं लिखी है। यह तुलसी का वर्णव्यवस्था के प्रति जड़ मोह है और घोर पुनरुथानवाद है जो जप-तप-व्रत करने और वरासन पर बैठने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को देता हैऐसी पंक्तियाँ को लिखने के लिए तुलसी की सफाई देने की नहीं, उनकी और निंदा करने की जरूरत है’ तुलसी दास का विचार साधारण जनता के नजरिये से कभी भी स्वीकृत नहीं किया जा सकता। वह शोषित और निम्नवर्गीय जनता के स्तर से चीजों को नहीं देखते है बल्कि उच्चवर्गीय और सामन्ती दृष्टिकोण से देखते हैं यह तुलसी दास की सबसे बड़ी सीमा है। शुद्र कैसे राजा बन सकता है यह बात भी तुलसी को स्वीकार्य नहीं है उनका संस्कार इस बात का गवाही नहीं देता कि कोई शुद्र राजा बन जाए।

 गोड़ गंवार नृपाल भे जमन महा महिपाल
 साम न दाम न भेल कलि, केवल दंड कराल- - दोहावली
           
आधुनिक समय में तुलसी के इन सब विचारों से कत्तई भी सहमत नहीं हुआ जा सकता है। इनका रामराज्य विसंगतियों से भरा हुआ है। इसमें कोई संदेह नहीं की तुलसीदास वर्णव्यवस्था के कट्टर समर्थक थे।उन पर परम्परा का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। वह प्रभाव वर्णव्यवस्था और ब्राह्मणों के प्रति अनावश्यक रूप से आस्थावान बना देता है। तुलसी के रामराज्य में अयोध्यावासी उदार, परोपकारी ही नहीं, विप्रों के चरणसेवक भी हैं-  सब उदार सब पर उपकारी।  बिप्र चरण सेवक नर नारी।  इसी तरह जब वे लिखते हैं लोग वर्णाश्रम-व्यवस्था के अनुसार अपने-अपने धर्मों का पालन करते हुए वेद पथ पर चलकर सुख पाते हैं उन्हें भय, शोक और रोग नहीं है-

 बरनाश्रम  निज  धरम निरत  वेद  पथ लोग।
 चलहिं सदा पावहिं सुखहिं नहिं भय सोक न रोग।

यहाँ पर महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी लिखते हैं –‘हम जानते हैं कि भय, शोक और रोग से छुटकारा पाने का उपाय वर्णाश्रम व्यवस्था के भीतर नहीं है। आज वर्णाश्रम व्यवस्था सबको सुखी बनाने का नहीं बल्कि दुखी बनाने का कारण हैं। काम्य वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं सबका सुख है। तुलसी के रामराज्य की कल्पना का यह अंग आज बहुत पीछे पड़ गया है, आज हमें उन्हें अस्वीकार करना होगा।’

तुलसी यहाँ शुद्र और स्त्री को उसके पुराणपंथी दायरे में ही देखा गया है।आज के सन्दर्भ में सीता को दिया गया अनुसूया का पतिव्रता सन्देश पुरुष मानसिकता का द्योतक है। जिसे आज का स्त्री विमर्श कभी स्वीकार नहीं कर सकता। हालाँकि संतों के यहाँ भी स्त्री को लेकर कोई स्वस्थ और प्रगतिशील रवैया नहीं है। वहां भी नारी का सामन्ती स्वरूप ही अख्तियार किया गया है। जप,तप में बाधक की तरह देखा गया है। तुलसी दास और रामभक्ति शाखा को लेकर एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर मुक्तिबोध इशारा करते हुए जो लिखा है वह वास्तव में सोचने पर मजबूर करता है-‘क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि रामभक्ति शाखा के अंतर्गत एक भी प्रभावशाली और महत्वपूर्ण कवि निम्नजातीय शुद्र वर्गों से नहीं आया? क्या यह महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि कृष्ण भक्ति शाखा के अंतर्गत रसखान और रहीम जैसे हृदयवान मुस्लिम कवि बराबर रहे आए, किन्तु रामभक्ति शाखा के अंतर्गत एक भी मुसलमान और शूद्र कवि प्रभावशाली और महत्वपूर्ण रूप से अपनी काव्यात्मक प्रतिभा विशद नहीं कर सका। जबकि यह एक स्वतःसिद्ध बात है कि निर्गुण शाखा के अंतर्गत ऐसे लोगों को अच्छा स्थान प्राप्त था।’ मुक्तिबोध के प्रश्न से ही जुड़ा यह भी तथ्य है कि भारत में हिंदुत्व की राजनीति का आधार भी राम ही रहे है न कि कृष्ण। कबीर के यहाँ जो क्रांतिकारिता और ओज मिलता है समाज के बुनियादी समस्या से टकराने का जो साहस है उस रूप में तुलसी हमें निराश करते है। तुलसी यहाँ ऐसा लगता है कि जैसे उन्होंने पूरे भक्ति आन्दोलन को हथियाकर वर्णाश्रम और ब्राह्मण धर्म का विजय पताका फहरा दिया हो। भक्ति आन्दोलन का जो जनवादी रूप था, जाति विरोधी जो भूमिका थी उसके विरुद्ध तुलसीदास पुराण मतवादी स्वरूप को प्रस्तुत करते दिखाई देते हैं। 

संतों के निर्गुण भक्ति धारा का प्रभाव तुलसी पर इतना तो जरुर पड़ा कि उन्हें राम के सामने सभी मनुष्य को बराबर कहना पड़ा। किन्तु राम ने ही सारा समाज को उत्पन्न किया है इसलिए वर्णाश्रम धर्म और जातिवाद को मानना पड़ेगा। यहाँ पर मुक्तिबोध ने आचार्य शुक्ल को भी कठघरे खड़ा किया है ‘प. रामचन्द्र शुक्ल जो निर्गुण मत को कोसते हैं वह यों ही नहीं।  इसके पीछे उनकी सारी पुराण मतवादी चेतना बोलती है।’

 तुलसी दास रामचरित मानस के बजाय अपने दूसरी रचनाओं में यथार्थ के ज्यादा करीब दिखाई देते है। कवितावली, दोहावली और विनय पत्रिका में उनके जीवन का यथार्थ खुलकर आया है।  वहां चाहे भुखमरी,अकाल,निर्धनता की समस्या हो, किसान की पीड़ा हो, राजा का प्रजा के प्रति व्यवहार हो सब पर वह भोगे हुए यथार्थ की तरह गहराई से लिखते है। किसान का मुद्ददा आज भी वैसे ही दिखाई देता है जैसा तुलसी यहाँ था।  
 
 खेती न किसान को भिखारी को न भीख
 बलि बनिक को न बनिज न चाकर को चाकरी
 जीविका विहीन लोग सीदमान सोचबस,
 कहै एक एकन सौ कहाँ जाई का करी।  

तुलसी राजनीतिक रूप से काफ़ी परिपक्व दिखाई देते हैं। उन्होंने राजा को किस प्रकार जनता से कर संग्रह करना चाहिये। कैसा बर्ताव करना चाहिए इसको लेकर उनकी चिंता जाहिर होती है।  तुलसीदास ने अप्रत्यक्ष कर संग्रह की बात कही है। उन्होंने इसके लिए सूर्य का उदाहरण लिया है। सूर्य जिस प्रकार पृथ्वी से अनजाने ही जल खींच लेता है और किसी को पता नहीं चलता, किन्तु उसी जल को बादल के रूप में एकत्र कर वर्षा में बरसते देखकर सभी लोग प्रसन्न होते हैं। इसी रीति से कर संग्रह करके राजा द्वारा जनता के हित में कार्य करना चाहिए-

 बरसत हरषत लोग सब, करषत लखै न कोई।
 तुलसी प्रजा सुभाग तें, भूप भानु सो होई।

आज की सरकारों के लिए तुलसी दास का सुझाव कितना मौजू है। अब की सरकारें तरह-तरह का जनता में डर और भय पैदा करके कर संग्रह करती हैं। तुलसी दास अपनी राजनीतिक चेतना द्वारा यह भी कहते हैं कि राज्याधिकारी से भय के कारण मंत्री, गुरु और वैद्य प्रिय बात कहने लगे और वास्तविक बात छिपा लें, तब राज्य धर्म और शरीर का नाश हो जाता है। मंत्री, गुरु और वैद्य को इतनी स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वे निर्भर होकर अपनी बात कह सके। राष्ट्र के लिए तभी शुभ चिंतक होगा-

 मंत्री गुरु अरु वैद जब, प्रिय बोलहिं भय आस।
 राज धरम तनु तीनि कर, होई बेगिही नास।

इस तरह तुलसी दास यहाँ राजनीतिक विचार भी खूब मिलते हैं जो आधुनिक समय के लिए भी प्रासंगिक है। उन्होंने खल व्यक्ति की जो विशेषता बताई है और निंदा किया है साथ ही सज्जनों की प्रसंशा की है वह हर देशकाल और समय में मनुष्य जीवन के लिए महत्वपूर्ण रहेगा। तुलसी यहाँ प्रकृति के प्रति प्रेम भी खूब दिखाई देता है। नदियाँ, पहाड़, पर्वत, जंगल इत्यादि का चित्रण करने में उनका मन खूब रमा है। उनके लिए देश इन सब चीजों से मिलकर बनता है। आधुनिक समय में जब प्रकृति की उपेक्षा हो रही है तो स्वाभाविक है तुलसी हमें याद आयेंगे।

यह सच बात है कि तुलसी एक रामभक्त आध्यात्मिक व्यक्ति हैं। उनके यहाँ हर घटना और दुःख के पीछे ईश्वरीय शक्ति की प्रेरणा है। ‘जीवन-मरण जस-अपजस सब बिधि हाथ’ के सिद्धांत पर चलने वाले व्यक्ति है तुलसी दास। फिर भी वह जगत को मिथ्या नहीं मानते है। राम को व्यवहारिक धरातल पर भी उतराने का प्रयास किया है। उनके मानस में जीवन की विविध छबियाँ हमें दिखाई देती है। परिवार का आदर्श तुलसी यहाँ जो मिलता है वह वास्तव में अनुकरणीय है। उसके साथ ही इनके मानस को भारतीय समाज में जो ऊचा दर्जा प्राप्त हुआ है। उसे काव्य ग्रन्थ कम धर्म ग्रन्थ के रूप ज्यादा मान्यता प्राप्त है। कई लोग तो उसे लाल कपड़े में बाधकर उसका पूजा करना ही जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य मानते हैं। घर में उसका स्थान पुस्तकालय में नहीं बल्कि देवालय में होता है। अब हमारे सामने यह चुनौती है कि हम उसे किस रूप में स्वीकार करें।  

संदर्भ:
1.लोकवादी तुलसी दास- विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी
2.भक्ति आन्दोलन का एक पहलू- मुक्तिबोध
3.तुलसी दास – स. वासुदेव सिंह
4.आजकल पत्रिका, अगस्त 2016
5.चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु रचना संचयन- स.कवल भारती 
6.श्रीरामचरितमानस- तुलसी दास
7.दोहावली- तुलसी दास   

 जितेन्द्र यादव, शोधार्थी, हिंदी विभाग
 दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
 ईमेल jitendrayadav.bhu@gmail.com मो.9001092806
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018)  चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी

2 टिप्पणियाँ

  1. "आधुनिक समय में तुलसी के इन सब विचारों से कत्तई भी सहमत नहीं हुआ जा सकता है। इनका रामराज्य विसंगतियों से भरा हुआ है। इसमें कोई संदेह नहीं की तुलसीदास वर्णव्यवस्था के कट्टर समर्थक थे।" लेखक का यह कथन एक बार पुनः तुलसीदास और उनपर लिखे गए आलोचना ग्रंथों के पुनर्पाठ की ओर इशारा करता है। रामचंद्र शुक्ल द्वारा तुलसी-महिमामंडन पर मुक्तिबोध ने सार्थक सवाल उठाए हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी ने तुलसी के वर्णाश्रमवाद को ख़ारिज किया है। इस लेख में कई दृष्टियों से तुलसीदास का मूल्याङ्कन किया गया है। जो जितेंद्र यादव की अध्ययन-परक शोध-दृष्टि को दर्शाता है।

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