शोध आलेख: तलसीदास के विचारों की सामाजिक प्रासंगिकता/ डॉ. जायदा सिकंदर शेख

               तुलसीदास के विचारों की सामाजिक प्रासंगिकता

भूमिका
   
भक्तिकालीन सगुण धारा के कवि गोस्वामी तूलसीदास का अविर्भाव तब हुआ जब मुगल शासन का चर्मोत्कर्ष काल रहा है। तत्कालिन समय में निर्गुण निराकार तथा सूफी संतों की प्रेमशयी शाखा से ध्यान हटाकर तुलसीदास जीने भगवान का लोक मंगलकारी रुप दिखाकर आशा और शक्ति का अपूर्ण संचार किया। मुगल कालीन घोर नैराश्य के समय जनता ने जिस भक्ति का आश्रय लिया, उसी की शक्ति से उनकी रक्षा हुयी। तुलसी के अलम्बन दशरतपुत्र राम रहे है। जब जब समय में आत्यार दिखाई देगा तब रावणत्वपर विजय पाने के लिए रामत्वका अविर्भाव होगा। तुलसी के मानस से रामचरितमें से शील- शक्ति- सौंदर्यमयी स्वच्छ धारा निकली उसने जीवन की प्रत्येक स्थिति में भगवान के स्वरुप का प्रतिबिम्ब दिखाया। रामचरित की इसी जीवन व्यापकता ने तुलसी की वाणी को सब के हदय और कंठ में बसा दिया। तूलसी के शब्दों में स्रदय को स्पर्श करने की जो शक्ति है अन्यत्र दुर्लभ है। उनके वाणी के प्रभाव से आज भी हिंदू भक्त राम के स्वरुप पर मुग्ध होकर श्रध्दा रखते है। राम के आदर्शत्व का अपने जीवन में महत्व देता है।


मध्ययुगीन परिवेश और तुलसीदास-

संत कबीर से लेकर तुलसी के समय को मुस्लिम मध्यकाल कहा जाता है। इस समय समूचे भारत देश में भक्ति ने एक आन्दोलन का रुप ग्रहण किया था। उन्होंने सम्राट अकबर से लेकर जहॉगीर के शासन को अपनी खुली आँखों से देखा था। किन्तु कबीर के समान तुलसी को मुगल शासन के कूरता का शिकार नहीं होना पडा़। अकबर के दरबार के प्रमुख सदस्य कवि अब्दुल रहीम खान खाना के वे गहरे मित्र थे। तुलसी की वर्णाश्रमवादी धार्मिक सामाजिक दृष्टी निश्‍चित ही निर्गुण पंथीयों से अलग थी। डॉ.  रमेश कुन्तन के शब्दों में ‘‘इन कवियों ने परिवार के संगठण के लिए व्यक्तिगत सम्बन्धों के आदर्श दिए। विशेष रुप से पिता - पुत्र और पति - पत्नी के आदर्श। एक आदर्श ग्राम व्यवस्था और एक आदर्श परिवार गठन के व्दारा इन्होंने तत्कालिन समाज को एक ऐसी युटोपियादी। जहाँ लोकमर्यादा एंव वेद मर्यादा ही सर्वोपरि थी।’’ 1  तूलसीदास ने लोक वेद मर्यादा को वर्णाश्रम धर्म की भी मर्यादा बना दिया। सामाजिक आदर्श के रुप में राम इस वर्णाश्रम मर्यादा के रक्षक बने।

भक्तिकालीन समाज विभिन्न धर्म, जातियों तथा संप्रदायों में विभक्त था। भारतीय समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था का प्राधान्य था। कबीर के साथ अधिकांश संत कवि परिवारिक जीवन व्यतीत करते हुए भक्ति से जुड़े हुए थे। तुलसीदास को पारिवारिक जीवन से सन्यास लेना पडा़ था। जब की तुलसीदास इसका विरोध करते है-

जे वरनाधम तेलि कुम्हार।
स्वपच किरात कोल कलवारा ॥ 
नारी मुई घर सम्पत्ति नासी ।
मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासि॥
ते विप्रन सन आपु पुजावहिं।
दभय लोक निज हाथ नसावहिं॥2

तुलसीदास की सामाजिक दृष्टि-

समाज के अंतर्गत व्यक्ति, परिवार, समुदाय, वर्ग, राज्य आदी इकादयों के रुप में पूरा देश आ जाता है। राजनीति, धर्म, कानून, दर्शन, कला, साहित्य आदि विशिष्ट युग की सामाजिक चेतना को व्यक्त करने के माध्यम है। इन माध्यमों से सामाजिक दृष्टि का पता लगाया जा सकता है। श्री विद्याभूषण और डी़. आर. सचदेव के अनूसार समाज का महत्वपूर्ण तत्व सम्बन्धों की व्यवस्था, अंत: क्रियाओं के मानकों का प्रतिमान है, जिनके व्दारा समाज के सदस्य अपना निर्वाह करते है।’’3 तुलसीदास वर्णाश्रम व्यवस्था के कट्टर समर्थक थे। कबीर और उनके पन्थ से वर्ण-व्यवस्था को क्षति पहुँची थी। उससे तिलमिला कर तुलसीदास ने कहा -
‘‘साखी सबदी दोहरा कहि किहनी उपखान
भगति निरुपहिं भगत कलि निन्दहि वेद पुरान।’’4

तुलसीदास भक्ति एवं ब्रम्ह ज्ञान को केवल ब्राम्हणों तक ही सीमित रखना चाहते है। वर्णाश्रम र्धम लोप से समाज में निकृष्ठ साधना से सच्ची भक्ति भावना समाप्त हो गयी थी। इस प्रतिष्ठा को कायम करने के लिए तूलसीदास ने रामचरितमानस, कवितावली, विनयपत्रिका आदि रचनाओं में जोरदार प्रयास किया।

शुद्र ब्रम्हज्ञान की चर्चा करे यह उन्हें असहय था। राम कथाओं का सहारा लेकर उन्होंने ब्राम्हणों की श्रेष्ठता और शुद्रों की हीनता को सिध्द करने का जोरदार प्रयास किया। तूलसी धर्म और भक्ति के क्षेत्र में बाहयाडम्बरों के विरोधी थे। उन्होंने राम के माध्यम से शास्त्र - पुराणवादी मान्यताओं की पुन: प्रतिष्ठा की। तुलसी के दाशरथि राम मर्यादा पुरुपोत्तम भी थे और सगुण साकार ब्रम्ह भी। तुलसीदास नेरामचरितमानसमें कर्मफल और पुनर्जन्म की मान्यता को भी प्रतिष्ठित किया है। राम बनवास के समय दशरथ स्वयं करते है-                 ‘‘सुभ अरु असुम करम अनुसारी। ईस दइ फल इय विचारी॥’’5

 तुलसीदास का सांस्कृतिक परिदृश्य-

एक संस्कृति कर्मी के रुप मे तुलसी के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि अपना कर ही उचित रुप से उनका मूल्यांकन कर सकते है। तुलसी ने तत्कालीन डा़वाडौल समाज - व्यवस्था को शास्त्र एवं पुरान-सम्मत सिध्द करते हुए उसे लोक मर्यादा के रुप में प्रतिष्ठि करने का प्रयत्न किया। इस प्रकिया में भारतीय संस्कृति के परम्परागत आदर्शों को लोक - जीवन के आचरण में लाने का प्रयास भी किया। इसलिए उन्होंने राम के रुप में ऐसा व्यवहार चरित्र प्रस्तूत किया, जो सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों को अपने आलोक से प्रकाशित कर देता है। परिवार में पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र, भाई-भाई और परिजन आदि के माध्यम से तुलसीदास ने ऐसा आयोजन किया जो तत्कालिन सामाजिक सम्बन्धों को मानवीय, नैतिक, रागात्मक तथा उदार बनाने की क्षमता रखता है। आज के अमानवीकरण के संदर्भ में तो उनके विचारों की उपयोगिता और भी बढ़ गयी है।

आचार्य रामचंद शुक्ल ने सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में तुलसीदास कल्पित सगुण-साकार रुप को स्वीकार किया। उनके शब्दों में, ‘‘हमने चौडी मोहरी का पायजामा पहना, अदाब अर्ज किया, पर राम नाम न छोडा। अब क्रोट पतलून पहनकर बाहर डैम, नॉन्सेस कहते है, पर घ्ार में आते ही फिर वही राम-राम। इसी एक नाम के अवलम्बन से हिन्दुस्तानी के लिए प्राचिन गौरव के स्मरण की सम्भावना बनी रही।’’6 तूलसीदासने एक संस्कृतकर्मी के रुप में अपने युग की एक वर्गीय आकांक्षा को प्रतिबिम्बित किया। उन्होंने तत्कालीन व्यवसाय को व्यापक सुधार और संशोधन द्वाराअधिक नैतिक और मानवीय बनाने का प्रयास किया।

तुलसी के विचारों की प्रासंगिकता-

तुलसी जैसे महान चिन्तक की प्रासंगिकता पर विचार करते हुए युगीन सामाजिक-धार्मिक संदर्भो पर भी ध्यान रखना आवश्यक है। तुलसी सामंती व्यवस्था की देन है, आर्थिक आधार भूमि - व्यवस्था और वैचारीक आधार वर्णाश्रम व्यवस्था है। इसमें उँच-नीच, जाती -पाँति और छुआछुत की भावना को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त थी, जिस पर कबीर ने प्रहार किया था। तुलसीदास उपभोक्ता वर्ग की वर्णाश्रमधर्मी चेतना से जुड़े हुए थे। तुलसी भी आम जनता के सामाजिक धार्मिक मुक्ति के पक्षपाती थे। लेकिन उनकी धारणा उपभोक्ता वर्ग के धार्मिक - सामाजिक संस्कारों से मर्यादित थी। उनकी दृष्टि में वर्णाश्रम धर्म एक सामाजिक धर्म था, जिसके बीना लोकमंगल सम्भव नहीं था लेकिन कबीर इसके विरोधक थे। एक लंबे और कठोर संघर्ष के बाद सगुण मत की विजय हुई, जिसका श्रेय तुलसी को जाता है। तुलसी ने समाज के परम्परागत ढाँचे को कुछ संशोधन कर उसे अधिक मानवीय बनाने का प्रयास किया है।

     वर्तमान सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ में तुलसी की प्रासंगिकता पर विचार करते हुए उनके युगीन समाज के संदर्भों के साथ ही हमे वर्तमान मूल्यों तथा जीवनादर्शो को भी ध्यान में रखना होगा। साथ ही युग आवश्यकताओं पर भी ध्यान देना होगा। इस दृष्टि से विचार करे तो हमारे सांस्कृतिक परम्परा में आज हमारे लिए वे विचार ही प्रासंगिक है, जो हमारे वर्तमान जीवन के आदर्शों तथा मूल्यों के विकास में सक्रिय है। आज वैसा देखा जाए तो तुलसीदास की वर्णाश्रमवादी सामाजिकता आज के लिए अप्रासंगिक है। आज के साम्प्रदायिक तनाव के विरुध्द सामाजिक सद्भावना की जरुरत को देखते हुए इस पर सावधानी से विचार करने की आवश्यकता है। तुलसी का मर्यादावाद म़ गांधी के लिए रामराज्य की प्रेरणा आवश्य बना, लेकिन राजनीती के क्षेत्र में उसने राम राज्य परिषदके रुप में अपने को प्रकट किया। आज के युग में शासन सत्ता की शिकायत नहीं कर रहा है, व्यवस्था और कानून की स्थिति शोचनीय होती जा रही है। अर्थात सर्वत्र मर्यादा का उल्लघन हो रहा है। ऐसे समय तुलसीदास की मार्यादावादी प्रासंगिकता आवश्य बढ़ जाती है।
   
        तुलसी की प्रासंगिकता का आधार दशरत पुत्र राम है। तुलसीदास राम के चरित्र में जिस मनुष्यता का समावेश करते है, वह आज भी हमे प्रभावित करता है। इस महान राम के चरित्र के छाया में रहकर हम अपने को अधिक उदार, नैतिक और महान बनाने का विचार करते है। तूलसी राम को आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श राजा आदि गुणों से युक्त चरित्र दिखाकर इस आदर्श को अपने जीवन में अपनाने के लिए कहना चाहते है। इस महान राम के चरित्र के छाया में रहकर हम अपने आपको अधिक उदार, नैतिक और महान बना सकते है। राम हमारी संस्कृति की ठोस विरासत है, जिसके लिए आने वाले युगों को भी तुलसी के विचारों की आवश्यकता रहेंगी। आज के संदर्भ में भी राम की यही प्रासंगिकता है। डॉ. ललन राय के शब्दों में, ‘‘तुलसीदास अपने युग के बहुत ही जागरुक और अत्यन्त प्रभावशाली कविचिन्तक रहे है। सरल-सम्प्रेषण और लोक - गम्यता की दृष्टि से हिन्दी काव्य जगत में उनकी समकक्षता में किसी दूसरे कवि को रखा नहीं जा सकता। अपने इस प्रभावोत्पादकता के कारण उन्हें जनवादी कविकी संज्ञा दी गयी है।’’7

निष्कर्ष-
      तुलसी के भक्ति का आधार उनके व्दारा निर्मित राम के चरित्र की वास्तविकता है।
 तुलसी भक्त और धर्मोपदेशक की अपेक्षा सामाजिक आचार संहिता के निर्माता के रूप मेंअधिक स्विकृत हुए है।

 सामाजिक सरोंकार से युक्त एक संस्कृतकर्मी के रूप में मानवीय समझ को विकसित करने और उदार बनाने का प्रयास तुलसी ने किया है।

 तुलसीदास के सगुण भक्ति का आधार भगवान का लोकधर्म रक्षक स्वरूप है। तुलसी लोकदर्शी थे। लोकधर्म पर आघात करने वाली बातों का प्रचार जब-जब उन्हें दिखाई दिया, तब वे उसका विरोध करते है।

 आर्यधर्म का जब व्यापक स्वरूप ओझल हो रहा था, तब सामंजस्य का भाव लेकर तुलसी भारतीय जनसमाज में ज्योति जगाते है।

  गोस्वसामी का भाव व्यापक था। रामलीला के भीतर जगत के सारे व्यवहार और जगत के सारे व्यवहारों के भीतर वे राम की लीला देखते है।

 वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा के वे समर्थक रहे है। तुलसी एक निर्विकार, सस्रदय सामाजिक व्यक्ति और निर्मल आत्मावाले व्यक्ति के रूप में  महत्वपूर्ण है।

 तुलसीदास ने धार्मिक सामाजिक कर्मकांडों का कही भी खंडन या मंड़न नहीं किया। लेकिन लोक वेद की मर्यादा शास्त्र सम्मत पौराणिक मान्यताओं की दुहाई देकर परोक्ष रूप से अत्यंत प्रभावशाली ढंग से पुन: स्पष्ट किया ।

 राम के चरित्र व्दारा तुलसीदास ने जनता को लोकधर्म के ओर आकर्षित किया। उनके वाणी के सौदर्य पर आज भी जनजीवन मुगध होता है। शील की ओर प्रवृत्त होता है, बुराई पर ग्लानी करता हैऔर मानव जीवन के महत्व का अनुभव करता है।


  संदर्भ:
1)           1.रमेश कुंतल मेघ, तुलसी-आधुनिक वातायन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, प्र. स. 1967,पृक्र.  10

2)        2.तूलसी, रामचरितमानस, उत्तर काण्ड, गीता प्रेस, गोरखपुर, तेरहवाँ स.  पृ 582

3)        3.डॉ़ डी.  आर.  सचदेव, विद्याभूषण, समाज शास्त्र के सिध्दांत, किताब महल, इलाहाबाद,   तृतीय स. , पृ 65

4)         4.तुलसीदास, दोहावली, गीताप्रेस, गोरखपुर, दशम सं, पृ. 190

5)         5.तुलसीदास, सानचरितमानस: आयोध्याकाण्ड, गीता प्रेस, गोरखपुर, तेरहवाँ सं. , पॄ 239

6)         6.आ. रामचंद्र शुक्ल, गोस्वामी तुलसीदास, नागरी प्रचारणी सभा, काशी, दसवाँ सं,पृ1

7)          7.लल्लन राय, तुलसी की साहित्य साधना, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली, प्ऱ सपृ.   159

                         प्रो. डॉजायदा सिकंदर शेख
(शोध निर्देशक हिन्दी विभाग)
मत्स्योदरी कला महाविद्यालय तीर्थपुरी,
 ता. घनसावंगी, जि. जालना, मो.9403855884

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018)  चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी

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