आलेख : स्त्री विमर्श और तुलसी की स्त्री-दृष्टि / अनिल कुमार

स्त्री विमर्श और तुलसी की स्त्री-दृष्टि

भारतीय चिंतन-परम्परा और साहित्य क्षेत्र में रामऔर रामकथाका सर्वाधिक महत्त्व है। यह भारतीय समाज की प्राण-धारा है। वास्तव में ‘‘राम-कथा भारतीय संस्कारों के आदर्श का नाम है। प्रागैतिहासिक काल से ही हमें राम-कथा के बीज मिलने लगते हैं और आज भी राम अद्यतन साहित्य में नायक का स्थान बराबर प्राप्त करते आ रहे हैं। शताब्दियों तक साहित्य में अनवरत नायकत्व का दावा करने वाले राम को पुरातन आदिवासी जातियों ने भी उतना ही आदर-सत्कार प्रदान किया है जितना आज का धर्म-भीरू समाज नायक में भगवदावतार की स्थापना कर पा रहा है। मानव पात्र आदर्श मानव से महामानव और महामानव से स्वयं परमात्मा बनकर जन-जन के मन में आच्छादित हो रहा है- निश्चय ही उसकी कथा में अमरत्व के कुछ ऐसे तत्त्व रहे होंगे जो हर युग में मानव-चेतना को झकझोरते और चिर-जागृति का संदेश देते हों।’’

मध्यकालीन भारतीय संस्कृति में रामऔर रामभक्त तुलसीदासका अनेक आलोचनाओं व प्रशंसाओं के बीच, आज भी अपना अलग महत्त्व है। तुलसीदास ने अपने साहित्य - दोहावली, कवितावली, गीतावली, रामचरित मानस, विनयपत्रिका पाँच बड़े और बरवै रामायण, वैराग्य संदीपनी, कृष्णगीतावली, रामलला नहछू, पार्वतीमंगल, जानकीमंगल और रामाज्ञा प्रश्न सहित सात छोटे ग्रंथों के रूप में विशाल मात्रा में साहित्य सृजन किया। इनमें विशेषकर रामचरितमानसके माध्यम से उन्होंने मानव- समाज के प्रत्येक पहलू को छुआ और रामचरितमानस के पात्रों के आचार-व्यवहार द्वारा समाज को एक आदर्श-व्यवस्था का स्वप्न दिया। यही कारण है कि भारतीय हिन्दी जनमानस में यह सर्वाधिक प्रभावशाली नानापुराणनिगमागम सम्मतग्रंथ हैं। इसमें रामकथा परम्परा आधारित होते हुए भी तुलसी ने अपने युग की आवश्यकताओं यानी अपने उद्देश्यों के अनुसार परम्परागत रामकथा में संस्कार-परिष्कार कर अथवा काट-छांट कर आदर्श रूप में प्रस्तुत की है। ग्रंथ में सात काण्ड है जिन्हें इतने व्यस्थित रूप में निबंधित किया गया है कि कहीं भी किसी प्रकार की कोई शिथिलता नहीं महसूस होती है। मानस में रामकथा चैहरे संवाद - (1) याज्ञवल्क्य-भारद्वाज, (2) शिव-पार्वती, (3) कागभुशुन्डी-गुरुड, (4) तुलसी-संतजन - के माध्यम से प्रस्तुत की गई है। मानसकी कथा में समग्र समाज नर-नारी, सद्-असद् मानव-अमानव, आदर्श-यथार्थ- का समावेश है। इसमें राम, सीता, हनुमान, भरत, रावण और मंदोदरी आदि आदर्श पात्र हैं। इनमें कवि ने अपनी परिकल्पना से सात्विक या तामसी गुणों की प्रधानता को व्यक्त किया है। दशरथ, कैकेयी, मंथरा, सुग्रीव आदि यथार्थ पात्र हैं क्योंकि इनमें सामान्य मानव की भांति राग-द्वेष, हर्ष-विषाद और शक्ति एवं सीमा आदि को सहज स्वाभाविक अभिव्यक्ति मिली है। इतना ही नहीं उन्होंने समुदाय या वर्ग विशेष-वानरों, राक्षसों, स्त्रियों एवं बच्चों की स्वाभाविक विेशेषताओं को भी बड़ी सजीवता से शब्दबद्ध किया है।

तुलसी की स्त्री-दृष्टिपर बात करने से पूर्व यहाँ स्त्री विमर्शको स्पष्ट करना जरूरी है और आज तुलसी की स्त्री दृष्टि की क्या आवश्यकता है, यह भी विवेच्य है।

आज का दौर विमर्शों का दौर है। ऐसे गहरे विमर्शों का दौर कि सभी अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग की उक्ति के अनुरूप सामने वाले को धराशायी करने के लिए आतुर हैं। आज मीडिया और बाज़ार ने हर चीज को एक क्रय-विक्रय के माल में बदलकर रख दिया है - विचारों और धारणाओं को भी। आज व्यक्ति भीड़ में रहकर भी नितांत अकेलेपन और पारिवारिक व अन्य संबंधों में रहकर भी अविश्वास का शिकार है। खैर! साहित्य और चिंतन के क्षेत्र में दलित’, ‘स्त्रीऔर आदिवासीविमर्श समग्रतः दलित वर्ग, साहित्य-चिंतन के केन्द्र में है। इसमें भी स्त्री विमर्श ने जिस जोर-शोर से अपनी जगह बनाई है, वह काबिले तारीफ है। प्राचीन से समसामयिक काल तक स्त्री के विषय में जो भी चिंतन-मनन हुआ है वह पुरुष की ओर से ही अधिक हुआ है। स्त्री की ओर से कम हुआ है, हुआ भी है तो उसका कहीं किसी ने नोटिस नहीं लिया। स्त्री-विमर्श और स्त्री-लेखन से स्त्री-जीवन के अंधेेरे पक्ष ही समाज के सामने उजागर हुए। परम्परागत रूप से समाज में स्त्री के स्वपर पुरुष का एकाधिकार है। इस विमर्श ने इस बात पर जोर दिया कि स्त्री को भी मानवीय अधिकार दिए जाएँ।

पुरुष की इस नारी विरोधी मानसिकता ने उसे दीन-हीन दलित की स्थिति में ला खड़ा किया है। स्त्री की देह, उसके स्त्रीत्व और उसके श्रम पर पुरुष का पूर्ण नियंत्रण हो गया। स्त्री को कहीं बोलने ही नहीं दिया गया। चूंकि प्राचीनकाल से सत्ता पुरुष के हाथों में रही है। इसलिए स्त्री की दशा और दिशा के संबंध में, स्त्री की भावनाओं और कामनाओं का शास्त्र पुरुष ही सर्वत्र गढ़ता रहा। स्त्री के सतीत्व, पातिव्रत्य, यौनशुचिता की कठोर आदर्श शर्तों का अनुपालन सुनिश्चित किया गया किंतु पुरुष पर कोई नियम, कोई प्रतिबंध नहीं - वह पूर्णतः स्वतंत्र रहा है। पुरुष-सत्ता ने यह व्यवस्था कर दी कि पुरुष के समक्ष स्त्री मुँह ही न खोले। इस संबंध में उमा चक्रवर्ती की टिप्पणी उद्धरणीय है - ‘‘मसलन, प्रजा राजा के खिलाफ जबान नहीं खोल सकती, शूद्र ब्राह्मण के खिलाफ जबान नहीं खोल सकता, स्त्री पुरुष के खिलाफ जबान नहीं खोल सकती। इस तरह उनको खामोश करके सत्ता - चाहे वह राज्य की सत्ता हो या धर्म की सत्ता हो, या पुरुष की सत्ता हो - उनको अपना समर्थक बनाती है, ताकि वे हमेशा यही कहते रहें कि हाँ-हाँ आप जो कह रहे हैं, वह बिल्कुल सही है।’’  यही कारण है कि इतिहास में स्त्री का स्वतंत्र व्यक्तित्व नगण्य ही है। स्त्री इतिहास में मानवी रूप में कहीं है ही नहीं। है तो पुत्री, पत्नी या माता के रूप में है। इसके अतिरिक्त वह कुछ है तो सिर्फ पुरुष के मनोविनोद की सामग्री-वेश्या।

स्त्री-विमर्श ने स्त्री की इन तमाम समस्याओं और स्त्री अस्मिता को सामाजिक-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। इसने समाज रचना की वर्ण, वर्ग और लिंग आधारित विसंगतियों - शोषक शासक वर्ग और पुरुष मात्र के उद्दाम भोग-विलास, स्त्री जीवन के संत्रास, अमानवीय शोषण और सभी वर्णों-वर्गों में स्त्री पराधीनता को रेखांकित कर उसे मुक्ति का मार्ग दिखाया है। वर्तमान स्त्री विमर्श स्त्री की दीन-हीन दशा का बोध कराता है। पुरुष वर्चस्ववादी या ब्राह्मणवादी समाज में स्त्री की कोई जाति या धर्म नहीं होता। वह सिर्फ पुरुष के इस्तेमाल की वस्तु होती है। चूंकि समाज को संचालित व नियमित करने वाले धर्म के सभी मानदंड पुरुष वर्ग ने निर्मित किए हैं। अतः धर्म से भी पितृसत्ता या पुरुष तंत्र ही मजबूत बनता है। यही कारण है कि स्त्री-विमर्श सभी धर्मशास्त्रों और कर्मकांडों को नकार कर सहज स्वाभाविक रूप से स्त्री-पुरुष और मानव-मानव में समानता का भरसक प्रयत्न करता है। चूंकि तुलसीऔर उनकी रामचरित्मानसका भारतीय समाज एवं संस्कृति पर सर्वाधिक प्रभाव है और यह धर्म से अटूट रूप से जुड़ी है। अतः आधुनिक नारी विमर्शकारों के निशाने पर ये दोनों मुख्य रूप से हैं।

बहरहाल इस बात में कोई किंतु-परंतु नहीं है कि तुलसीदास समस्त मध्यकालीन चेतना और परम्परा से प्राप्त रामकथा को मथ कर रामचरितमानसजैसा नवनीत प्रदान करने वाले एक विशिष्ट दार्शनिक एवं भक्त साहित्यकार हैं। अनेक दृष्टियों से आज भी यह मानव समाज का पथ प्रशस्त करने वाले हैं। लेकिन दलित और स्त्री विमर्श की दृष्टि से स्त्री धर्मपालन पर जोर, ‘सीता की अग्नि-परीक्षा’, ‘सीता त्यागऔर रामचरितमानस की ढोल, गवार शूद्र पशु नारि सकल ताड़न के अधिकारीजैसी उक्तियों के आधार पर स्त्री विमर्श के अधिकांश विद्वान आलोचकों ने तुलसी को नारी-निंदक ठहराया है। इस संबंध में डा. शारदा त्यागी ने अपने शोध प्रबंध में उल्लेख किया है - ‘‘तुलसी साहित्य पर चिंतन करने वाले सभी विचारकों तथा मूर्धन्य आलोचकों ने तुलसी की नारी भावना को लेकर कुछ न कुछ विचार अवश्य ही प्रकट किए हैं। डा. नगेन्द्र ने तुलसी को नारी की प्रकृति, उसके चारित्र्य, बुद्धि-विवेक और आचार-व्यवहार सभी का निंदक घोषित करके, आधुनिक नारी की उद्बुद्ध चेतना को सहृदयता के न्यायालय में अपने प्रति न्याय की माँग करने के लिए प्रेरित किया। मिश्रबंधुओं ने गोस्वामी जी को प्रत्येक स्थल पर नारी निंदक कहा और विद्वान आलोचक आदरणीय डा. माताप्रसाद गुप्त ने तुलसी की नारी भावना के विषय में अपना मत प्रस्तुत करते हुए कहा - प्रत्येक युग के कलाकार नारी-चित्रण में प्रायः उदार पाये जाते हैं, किंतु नारी-चित्रण में तुलसीदास बेहद अनुदार हैं। यद्यपि उनकी इस अनुदारता का कारण अभी तक रहस्य के गर्भ में छिपा हुआ है, पर नारी-विषयक उनकी अनुदारता एक ऐसा तथ्य है जिसको अस्वीकृत नहीं किया जा सकता।’’

तुलसी आज के नारी विमर्शकारों के मानदंड़ों पर जितने नारी निंदक या मध्यकालीन मानसिकता के पोषक लगते हैं उससे कहीं अधिक ये अपने काल विशेष में स्त्री विमर्श की दृष्टि से आधुनिक या प्रगतिशील ठहरते हैं। जो विद्वान मध्यकाल की सामाजिक अराजकता और उसमें स्त्रियों की दुर्दशा को भलीभांति जानते हैं साथ ही इस तथ्य से सहमत हैं कि साहित्यकार व्यापक मानवसमूह के हितों को लेकर अपनी लेखनी चलाता है, तो स्त्री-विमर्श की दृष्टि से तुलसी पर जो आरोप लगाये जाते हैं, वे निराधार सिद्ध हांेंगे। इस संबंध में महमूद गजनवी के समकालीन अलबेरूनी ने, उसे पूर्णतः कट्टर और धर्मोन्मादी बताया है। इस संबंध में इज़ामी (1350) की कविता की पंक्तियाँ हैं -

            ‘‘ओ ज्ञानपुंज, अगर मुझे और तुझे
            ऐसा हो कि इस राज्य में जगह मिले
            मंदिर को गिरा बनायी जाए मस्जिद
            तोड़े जायें जनेऊ और हिंदू औरतों
            को बनाया जायें रखैल और बनाये
            जायें बच्चें गुलाम तो इस सबका
            श्रेय जायेगा महमूद के कारनामों को
            सच है सिर्फ यही बाकी सब झूठ।’’

यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि हिन्दू स्त्रियों की जिस दुर्दशा का उल्लेख हुआ है उससे यहाँ पर्दा-प्रथा, बाल विवाह जैसी कुरीतियों सहित सतीप्रथा को बढ़ावा मिला होगा। इस स्पष्टीकरण से तुलसी की नारी-चित्रण में अनुदारता का कारण रहस्य के गर्भ में छिपा नहीं रह गया है।

वास्तव में तुलसी मध्यकाल के एक समाजचेत्ता भक्त और दार्शनिक थे। अपने साहित्य या रामकथा के माध्यम से वे अपने समाज में संस्कार- परिष्कार करने का प्रयास कर रहे थे। उनका मत था कि - ‘‘वही कीर्ति, वही कविता और वही संपदा श्रेष्ठ है जो गंगा के समान सबका हित करने वाली है।’’  यहाँ पर उनके मतानुसार - नारी-पात्र भी वही श्रेष्ठ हैं जो नारी के पातिव्रत धर्म के साथ हृदय की महानतम् प्रवृत्तियों - त्याग, सेवा, ममता, कत्र्तव्यपरायणता, सहित नारी के संपूर्ण शील एवं मर्यादा से आवेष्टित दिव्यता की कल्याणकारी भावना से अनुप्राणित हो। यही कारण है कि उनके नारी-पात्र - सीता (जानकी), कौशल्या, अनुसूया, सुमित्रा, शबरी, तारा, मंदोदरी, सुलोचना, त्रिजटा और ग्राम वधुएँ आदि के वर्णनों से तुलसी कहीं भी स्त्री-विरोधी नहीं ठहरते हैं। वास्तव में सत् रूप में स्त्री मानवी, राक्षसी अथवा वानर आदि किसी भी वर्ग से हो - तुलसी की दृष्टि में समान रूप से महिमामयी आदरणीय है। इससे तुलसी की स्त्री-विरोध की दृष्टि स्वयं ही ध्वस्त हो जाती है। वैसे भी सत् और असत् दोनों के वर्णन से ही सत् का महत्त्व स्पष्ट हो पाता है। अंधकार के चलते प्रकाश, अन्याय के चलते न्याय और रावण के बल वैभव के सामने ही राम के सत् का महत्त्व है। वस्तुतः तुलसीदास ने  असत् नारी पात्रों की निंदा की है। सत् पात्र उनकी दृष्टि में वंदनीय है। तुलसी की सत् कल्पना का आधार है- रामभक्ति। किसी भी रामभक्त पात्र की - चाहे वह नर हो या नारी तुलसीदास ने उसकी कहीं निंदा नहीं की। तुलसी ने अपनी रचनाओं में स्थान-स्थान पर अपने राम (भगवान श्रीराम) से कामादि-खलदलके संहार की प्रार्थना की है। कहने का भाव यह है कि उस काल में नारी कामवासना का मूर्तिमान रूप था। इसीलिए काम दमन के लिए उन्होंने नारी की निन्दा करना आवश्यक एवं उचित समझा। वैसे भी वासनाओं में सबसे पहला स्थान कामवासना का आता है। काम पर विजय को सम्पूर्ण वासनाओं पर विजय का पर्याय समझा गया है। गीता में श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं - जहि शत्रु महाबाहो कामरूपम् दुरासदम्

सती या पतिव्रता स्त्री वस्त्रहीन होते हुए भी पति सेवा से शुभ गति की अधिकारिणी बन जाती है। पतिव्रता स्त्रियों का यशोगान वेद भी करते हैं।  तुलसी की दृष्टि मंे ऐसी स्त्री उसका वंश माता-पिता सभी अभ्यर्थना के पात्र हैं।  सत् तत्त्व से संयुक्त स्त्री, तुलसी की दृष्टि में उस पारस पत्थर के समान हैं जिसके स्पर्शमात्र से कुधातु रूपी पुरुष भी श्रेष्ठ बन सकता है।  तुलसी की स्त्री-दृष्टि स्त्री के पत्नी रूप में पतिव्रत धर्म में निरत, त्याग, सेवा, कत्र्तव्यपालन और पति भक्ति ही सम्माननीय है। वे कहते हैं - ‘‘जिय बिनु देह नदी बिनु नारी। तैसिय नाथ पुरुष बिनु नारी।

तुलसी ने अपने युग-परिवेश का सूक्ष्म निरीक्षण-परीक्षण करते हुए उच्चातिउच्च और हीनातिहीन स्त्रियों के चरित्र को और उसके परिणामों को बखूबी देखा-समझा था। अतः उन्होंने स्त्रियों के लिए एक आदर्श मार्ग- न केवल स्त्रियों बल्कि समग्र समाज के सामने रखा। इसीलिए उन्होंने प्रमदास्त्रियों की कटु आलोचना भी की है। तुलसी ने शूर्पणखा, कैकेयी और मंथरा जैसी विशिष्ट नारी पात्रों की निंदा तो की ही है; इसके साथ ही प्रसंगात् सम्पूर्ण स्त्री जाति की भी निंदा की है। तुलसी मूलतः रामभक्त है। उनका उद्देश्य है अपनी रामभक्ति और रामराज्य की परिकल्पना के द्वारा आदर्श समाज के निर्माण का रास्ता समाज को दिखाना। इसलिए उन्होंने नारी-निंदा तभी की है जब कोई भी स्त्री मर्यादा के विरूद्ध आचरण करती है अथवा रामभक्ति अर्थात् राम-कार्य में बाधक बनती है। यही कारण है कि राम-कार्य में बाधक बनने वाली कैकयी, मंथरा और शर्पूणखा को उन्होंने बार-बार अमंगलमूला, कुबुद्धि, कुजाति कहा और इनकी तुलना सांपिन, रोष तरंगिनी, अहिनी आदि से की है-

‘‘सूपनखा रावन के बहिनी। 
 दुष्ट हृदय दारून जस अहिनी।।’’
‘‘धिग कैकेयी! अमंगलमूला।
 भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला।
‘‘कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। 
 भई रघुबंस बेनुबन आगी।’’

कैकेयी, मन्थरा और शूर्पणखा आदि के प्रसंग में नारी-निंदा के संदर्भ तुलसी से पूर्व साहित्य में नारी-निंदा और युगीन परिवेश के प्रभाववश है। तुलसी मूलतः भक्त हैं और उनकी काव्य रचना का प्रमुख उद्देश्य रामभक्ति है। रामभक्ति के मार्ग में काम, जिसका आलम्बन स्त्री है - की निंदा अनिवार्य थी। तुलसी ने जिस नारी की निंदा की है वह प्रमदा’ - काम की आलम्बनरूपा है। वास्तव में भारतीय संस्कृत साहित्य में कहा गया है कि स्त्री कन्या के रूप में पिता के लिए कष्ट का कारक है, पराया धन या अर्थ है- कन्यापितृत्वं खलुनांम कष्टम्’, अर्थोहि कन्या परकीय एव’ (कालिदास)। इसी परम्परा में तुलसी भी मानस में कह देते हैं - नारिहानि विशेष क्ष्ति नाही। एक बात और तुलसी के पूर्व जो नारी निंदा प्रसंग मिलते हैं उनकी तुलना में तुलसी के नारी निंदा संदर्भ बहुत ही कम, उदार और कोमल हैं।

इसके बावजूद आधुनिक स्त्री-विमर्शकार तुलसी की स्त्री-दृष्टि की कुछ पंक्तियों के सहारे बड़ी कटु आलोचना करते हैं। और यदि इन पंक्तियों का पूरा अर्थ-संदर्भ स्पष्ट न हो तो कोई भी सामान्य व्यक्ति तुलसी की इन पंक्तियों को नारी-विरोध का ही पर्याय मानकर बात करेगा। जैसे-

‘‘कत विधि सृजीं नारि जग मांही।
 पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं।।’’

यह पार्वती के विवाहोपरान्त विदाई के समय पार्वती की माँ का उद्गार है। समाज में बेटी की विदाई का क्षण बड़ा की मार्मिक और हृदय द्रावक होता है। मध्यकाल की बात तो छोड़िए आज भी बेटी के वैवाहिक जीवन में क्या-क्या और कैसी कैसी कठिनाइयाँ अचानक आ जाती हैं; यह देख-सोचकर लगता है कि यदि हमारी बेटी के साथ ऐसा हुआ तो? क्या होगा। यही बात मानसकार ने पार्वती की माँ मैनावतीके मुख से कहलवाई है। ऐसे समय में माता-पिता के हृदय से सहज ही ऐसे उद्गार व्यक्त होते हैं। यह एक तरह से स्त्री जाति के प्रति सहानुभूति ही है। पराधीन नारी के प्रति सहानुभूति कवि ने मैना से व्यक्त कराई है। तुलसी ने भगवद् प्र्रेम की अतिशयता को व्यक्त करने के लिए कामीऔर नारीके माध्यम से कहा है -

कामिहिं नारि पियारि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहिं राम।। 

तो इसके साथ ही निम्नलिखित संदर्भ भी उल्लेखनीय है-

भ्राता पिता पुत्र उरगारी। 
पुरुष मनोहर निरखत नारी।।
होइ बिकल सक मनहि न रोकी।
जिमि रविमनि द्रव रविहि विलोकी।

यहाँ शूर्पणखा द्वारा राम-लक्ष्मण के रूप पर मुग्ध होकर व्याकुल होने की अवस्था का संदर्भ है। शूर्पणखा को तुलसी दुष्ट हृदयबताते हैं। वह काम पीड़िता और प्रमदानारी है। पुरुष को देखकर उत्तेजित होने वाली ऐसी विलासिनी वर्ग की सभी स्त्रियों के लिए यह कथन पूर्णतः ठीक है। वास्तव में नारी स्वभाव सामान्यतः उस लता के समान बताया जाता है; वृक्ष का जरा सा सहारा पाते ही उसकी ओर झुक जाती है। मध्यकाल में जो सामाजिक उठा-पटक थी, उसमें सामान्यतः स्त्रियाँ साधन-सम्पन्न पुरुषों की ओर अधिक आकर्षित होती होंगी। शूर्पणखा का चरित्र ऐसी ही नारी का प्रतीक रहा है। प्रमदा सब दुखखानिवाली बात ऐसी ही स्त्रियों के लिए आई है।

तुलसी जिस एक पंक्ति के कारण सर्वाधिक आलोचनाओं का शिकार हुये हैं, वह है - ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।  समुद्र पर सेतु निर्माण के समय, श्रीराम के शक्ति-संधान के समय समुद्र का कथन है। वास्तव में मानव-समाज की आधी आबादी के लिए प्रताड़ना उचित नहीं है। परंतु सुंदरकांड में ही वे कहते है कि नीच विनय से नहीं - डाँटने से ही सुधरता है। जिन पंच महाभूतों से इस धरती की सृष्टि हुई है, वे भी जड़ हैं। परिणामस्वरूप इनकी करनी भी जड़ है - गगन, समीर, अनल, जल, धरनी। इन्ह कई नाथ सहज जड़ करनी।तुलसी ने ढोल, गँवार, शूद्र पशु और नारी को संस्कारित करने के लिए उचित देखरेख और शिक्षा रूपी ताड़ना को जरूरी माना। चूंकि कथन जड़ - समुद्रका है अतः उसे संदर्भानुसार ही मानना चाहिए न कि पूरी तरह तुलसी का मत। इस संबंध में यह ध्यातव्य है कि -  ‘‘समुद्र-प्रसंग में महामनीषी तुलसीदास ने आकाश, वायु, अग्नि, जल पृथ्वी नामक पंचभूतों के लिए स्वभाव, वैशिष्ट्य, गुण व कर्म के आधार पर क्रमशः ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी नामवाची जिन प्रतीकों अथवा उपमानों का प्रयोग किया है, वे सर्वथा उपयुक्त, नवीन, मौलिक व तर्क-संगत अर्थात् सम्यक् प्रकारेण (सर्वतोभावेन) प्रसंगानुकूल एवं प्रसंग अंतर्गत  हैं।

तुलसी नारी में परम्परागत या शास्स्त्रानुमोदित रूप से आठ अवगुण विद्यमान मानते हैं। ये अवगुण हैं - साहस, झूठ, चंचलता, छल, कपट, भीरूता, अविवेक, अपवित्रता तथा निर्दयता -

नारि सुभाव सत्य सब कहहीं। 
अवगुन आठ सदा उर रहहीं।।
साहस अनृत चपलता माया
भय अविवेक अशौच अदाया।।

तुलसी की दृष्टि में सत् नारी महिमामय है तो असत् नारी संकुचित स्वार्थ और अहम् भाव के कारण विनाश-विध्वंस का मूल है। अतः असत् नारी निंदनीय है, त्याज्य है। तुलसी ने अपने साहित्य में संपूर्ण स्त्री जाति के विभिन्न सामाजिक रूपों एवं संदर्भों को व्यक्त किया है। वह काल ही ऐसा था कि घर-परिवार की धारणा चरमरा गई थी। तुलसी ने आदर्श स्त्री के गुणों के माध्यम से, उसके आदर्श आचरण से समाज को एक संबल दिया। स्त्री निंदा से अधिक स्त्री के पावन, सुकोमल, सरस और मधुर स्वरूप को अधिक अभिव्यक्ति दी है।

तुलसी मानस में नारी-धर्म और गृहस्थ जीवन में नारी-आचरण और उसकी परमावश्यकता का विशद् वर्णन करते हैं। इस संबंध में अत्रि ऋषि पत्नी अनुसूया’ - ‘नारि धर्म कछु ब्याज बखानीके मार्फत सीता जी को नारी-धर्म समझाते हुए कहती हैं - हे राजकुमारी! सुनो माता-पिता और भाई ये सब तो एक सीमा तक ही हितकारी हैं, लेकिन पति असीम हितकारी, सुख देनेवाला है। जो नारी पति सेवा नहीं करती वह अधम है। धैर्य, धर्म, मित्र और पत्नी (स्त्री), इन चारों की परीक्षा विपत्ति में होती है। विपत्ति में भी स्त्री को पत्नी सेवा नहीं छोड़नी चाहिए। भले ही पति बुढ़ा, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी आदि सहित अत्यंत दीन भी हो; फिर भी स्त्री को उसे छोड़कर कभी उसका अपमान नहीं करना चाहिए। जो स्त्री ऐसा करती है वह यमपुर में अर्थात् मृत्यु के बाद भी घोर यातना भोगती है। नारी का एक ही धर्म है और एक ही व्रत है; वह है -वह मन-वचन-कर्म से पति चरणों में अपना एकांतिक प्रेम रखे। इस क्रम में तुलसी अनुसूया के माध्यम से पतिव्रताओं के भेद बताते हुए स्थापना करते हैं कि जो नारी छल छोड़कर पातिव्रत्य- धर्म को ग्रहण करती है वह बिना परिश्रम के परमगति को प्राप्त होती है, और जो स्त्री पति के विरोध में चलती है, वह यौवन में ही निश्चित रूप से वैध्वय भोगती है।

यहाँ नारी विमर्शकारों का एक बड़ा सवाल यह उठता है कि तुलसी ने पुरुष की अपेक्षा स्त्री की सद्चरित्रता, पवित्रता, पति-धर्म पालन पर अत्यधिक बल क्यों दिया है? वास्तव में वह काल ही ऐसा था जब मुस्लिम शासक हिन्दु स्त्रियों को जबरदस्ती अपने हरमोंमें उठा ले जाते थे। या फिर कुछ स्त्रियाँ स्वयं भी इनके प्रभाव में आ जाती थीं। इसीलिए जिमि स्वतंत्र भये बिगरहिं नारी (4/124/4) की स्थापना कर उन्होंने नारी-धर्म पालन पर और स्त्री-धर्म पालन पर बल दिया। नारी-धर्म पति देउ न दूजा (1/102/2) तो कहते हैं। इसके साथ वह पराधीन सपनेहुँ सुख नाहींऔर कहहिं, बिरंचि रची कत नारीकहकर स्त्री के पक्ष में ही खड़े होते प्रतीत होते हैं।

यह बात स्त्री मात्र के प्रति तुलसी के आदर भाव को ही दर्शाती है। दूसरा यह भी अकाट्य सत्य है कि तुलसी के काल परिवेश की अपेक्षा आज समाज में बहुत कुछ बदल गया है। उनकी मान्यताओं को पूर्णतः उसी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। अतः तुलसी के नारी निंदक संदर्भ केवल कहने मात्र को ही प्रयुक्त हुई जान पड़ती है जो कुछ तो साहित्य परम्परा का प्रभाव है, तो कुछ युग, उनके वैयक्तिक अनुभव, सहित धर्म और भक्ति के प्रभाव-स्वरूप आया है। इस संबंध में डा. उदयभानु सिंह के मतानुसार- ‘‘तुलसी की नारी-भावना दो रूपों में अभिव्यक्त हुई है, पात्रों के चरित्र-चित्रण में और नारी-विषयक मान्यताओं के सैद्धांतिक निरूपण में, सैद्धांतिक निरूपण के प्रतिपाद्य विषय दो प्रकार के हैं - नारी धर्म और नारी-निंदा। उनके नारी-विषयक विचारों को लेकर आलोचकों में काफी वाद-विवाद रहा है। तुलसी की नारी-विषयक विचारधारा को विशेषतया निंदापरक उक्तियों को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए पाँच बातों का ध्यान रखना आवश्यक है- (1) प्राचीन वाङ्मय, जिसमें नारी-स्वभाव का वर्णन किया गया हो, (2) तुलसी के युग की परिस्थितियाँ, (3) उनका जीवन, (4) उनकी धर्म भावना, और (5) उनका भक्ति दर्शन। यह बात भी स्मरणीय है कि उनकी नारी संबंधी उक्तियाँ दो दृष्टियों से प्रेरित हैं - काव्य-दृष्टि और मोक्ष-दृष्टि।’’  तुलसी के वैयक्तिक जीवन में पत्नी की इस फटकार ने भी उन्हें परम मर्यादावादी बनाया होगा -

‘‘लाज न लागत आपको दौरे आयेहु साथ।
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को कहा कहौ मैं नाथ।।
अस्थि चर्ममय देह मम, तामैं जैसी प्रीति।
तैसी जो श्री राम महं, होती न तो भवभीति।।’’

तुलसी ने स्त्री के पातिव्रत्य को धर्म का एक मूल्य की तरह स्थापित करने के साथ-साथ पुरुष के लिए भी पत्नीव्रत का आदर्श स्थापित किया है। यह बात मध्यकाल के सामंती समाज में कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।

आधुनिक नारी-विमर्श के आलोक में तुंलसी के 15वी-16वीं शताब्दी के काल-परिवेश और समाज की आवश्यकताओं को नहीं भुलना चाहिए। आज भी तथाकथित मार्क्सवादी तुलसी-कबीर के साथ-साथ आधुनिक काल के तमाम सामाजिक चिंतकों की आलोचना करते हैं। अब वह आलोचना कितनी स्वस्थ या उचित है यहाँ इसके विस्तार में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुलसी की स्त्री दृष्टि एक काल विशेष की परिस्थितियों से संचालित है। सहृदय तुलसी ने नारी सौन्दर्य की कमनीयता, तेजस्विता एवं प्रभवष्णिुता का  अनूठा चित्रण किया है, किन्तु विचारक के रूप में वह आदर्शवादी लोक मंगलवादी है, अतः वह नारी निन्दा इसलिए करते हैं कि अत्यधिक आकर्षण में आबद्ध होकर व्यक्ति अपने सामाजिक दायित्व का विस्मरण न करे। गृहस्थ पर स्त्री का त्याग करें, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी एवं संन्यासी नारी मात्र का पतित्याग करके सामाज की मर्यादा एवं प्रतिष्ठा में सहयोग दें। पुराणवादी विचार परम्परा के उन्नायक होते हुए भी तुलसी नारी दुर्दशा के प्रति सहृदयता बनाये रखते हैं।

जहाँ तक स्त्री जाति या वर्ग के प्रति तुलसी की कटुता, अनुदारता, और घृणा की बात है - यह पूर्ण सत्य नहीं है, अधूरा सत्य है। केवल कुछ उक्तियों, पंक्तियों या प्रसंगों को संदर्भों से काटकर मनमानी व्याख्या और आलोचना के लिए आलोचना ही ठहरती है। वैसे भी यह मानव स्वभाव है कि वह किसी विचार-परम्परा में से मानव-कल्याणकारी भाव को नियंत्रित कर उसका प्रचार-प्रसार करते हैं। गाँधीवाद, अम्बेड़करवाद लोहियावाद और मार्क्सवादी आदि तमाम विचारधाराओं के अनुयायियों के आचार-व्यवहार से यह बात स्पष्ट हो जाती है। तुलसी की स्त्री-दृष्टि पर भी यही बात लागू होती है। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु नारीकी बात सबको याद है लेकिन उन्होंने किस संदर्भ में कही है यह पुरुष मानसिकता व्याख्या नहीं करती। बस शूद्रऔर नारीपर अपनी दादागिरी दिखाने का शास्त्र सम्मत प्रमाण ढूँढ लिया। फिर भी तुलसी की स्त्री दृष्टि के विषय में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के मत से यही कहा जा सकता है - ‘‘उनके पात्रों के आचरण में कोई न कोई विशेष लक्ष्य होता है। उससे मानव जीवन के किसी न किसी अंग पर प्रकाश पड़ता है या किसी न किसी सामाजिक अथवा वैयक्तिक कुरीति की तीव्र आलोचना व्यक्त होती है।’’

            एक बात और अंग्रेजी के महान् साहित्यकार शेक्सपियर ने हेमलेट’  (नाटक) में प्रसंगवश माँ की बेवफाई देखकर पुत्र हेमलेट माँ के पुनर्लग्न के विचार की वेदना से आहत होकर कहता है - ‘‘फ्रेलिटी, दाई द नेम इज वुमनअर्थात् दुर्बलता (बेवफाई) तेरा नाम औरत है। शेक्सपियर पर कहीं कोई नारी-निंदा का आरोप लगाता नहीं दिखता। खैर! समाज को आदर्श बनाने के लिए तुलसी के द्वारा सृजित मूल्य आज भी असंदिग्ध है। कहा भी गया है कि कमी देखने वाले सर्वत्र कमी ही देखते हैं। ऐसे लोग पूर्णिमा की रात्रि में चाँद की शीतल चाँदनी के बजाय उसमें काले दाग को ही देखते हैं। समग्र रूप में तुलसी साहित्य में नारी के लगभग सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व देखने को मिलता है। गार्गी की परंपरा में अनूसुया, मंद मति मंथरा, यथार्थ नारी कैकेयी, आदर्श नारी सीता, पार्वती आदि हैं। सब के व्यक्तित्व स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्ति पाते हैं जो नारी वर्ग के लिए गौरव और शिक्षा प्रदायक हैं।

विभिन्न पात्रों के माध्यम से नारी विषयक अवधारणाओं के आलोक में कहा जा सकता है कि तुलसी के स्त्री दृष्टिाकोण की परिसीमाओं में सम्पूर्ण नारी जाति को नहीं बाँधना चाहिए। वे केवल बुरी स्त्रियों को ही शूलवत् मानते हैं और उनकी निंदा करते हैं - ‘‘सेवक सठ, नृप कृपन, कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी।’’  अतः तुलसी की नारी संबंधी आलोचना प्रसंगानुसार ही है। उनके युग की आवश्यकतानुसार है। आज के पैमानों के सापेक्ष वह पूरी तरह उचित नहीं है। या आज उनके नारी निंदा प्रसंगों पर बात करते समय यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि वे पहले भक्त है, बाद में कवि। साथ ही उनके रामराज्य की परिकल्पना अपने-अपने कत्र्तव्यों के पालन में ही निहित है। लेकिन आज के उत्तर आधुनिक विखंडनवादी  भारतीय समाज में एक ओर परम्परा के नाम पर तो दूसरी ओर प्र्रगतिशीलता के नाम पर समस्त मध्यकालीन चिंतन का या तो महिमामंडन किया जा रहा है या फिर पूरी तरह खंडन। इन दोनों के अनुयायियों के अपने अपने स्वार्थ हैं। लेकिन इसमें क्षति तुलसी के सामाजिक चिंतन को ही हुई है, जिसमें तुलसी की स्त्री-दृष्टि भी शामिल है।

डॉ. अनिल कुमार 


अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018)  चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी

3 टिप्पणियाँ

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  2. तो आपके मतानुसार केवल स्त्री को संस्कारो की आवश्यकता है, बाकी पुरुष तो मानदंड स्थापित करने वाला गुणी है।
    सीता भी पितृसत्तात्मक समाज की शिकार थी, हर बार औरत को ही अग्नी परीक्षाएं क्यों देनी पड़ती हैं।

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  3. आप चाहें तो ये टिप्पणी भी हटा सकते हैं जैसे तुलसीदास ने स्त्री अधिकारों को हटा दिया था।

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