मुक्तिबोध : काव्य भाषा के शिल्पकार -संजय प्रसाद श्रीवास्तव

मुक्तिबोध : काव्य भाषा के शिल्पकार -संजय प्रसाद श्रीवास्तव

भाषा का मूल संबंध कवि के अंतःकरण से होता है। भाषा को युग बोध की संवाहक के रूप में भी देखा जाता है। कवि अपने युग के भावों, विचारों और समस्याओं को अपने काव्य में उतार देता है। मुक्तिबोध के अनुसार कवि भाषा का निर्माण करता है। जो कवि भाषा का निर्माण करता है, विकास करता है, वह निस्संदेह महान होता है।”[1] 

      गजानन माधव मुक्तिबोधहिंदी के सशक्त हस्ताक्षर है। आपका जन्म 13 नवंबर 1917 ई. को मध्यप्रदेश के मुरैना जिले के श्योपुर नामक स्थान पर हुआ था। सन् 1964 में लंबी बीमारी के बाद उनका स्वर्गवास हो गया। आपने कुछ समय तक हंसपत्रिका का भी संपादन किया। आपने चाँद का मुँह टेढ़ा है’, ‘भूरी-भूरी खाक धूल’, ‘काठ का सपना’, ‘विपात्र’, ‘आत्माख्यान’, ‘नई कविता का आत्म संघर्ष’, ‘उर्वशी दर्शन और काव्य, नये साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र, ‘कामायनी : एक पुनर्विचारआदि काव्य संकलन एवं पुस्तकों की रचना की। आपकी संपूर्ण साहित्य में जनजीवन की घुटन को महसूस किया जा सकता है। मुक्तिबोध की काव्य यात्रा छायावाद से प्रारंभ होकर प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता से होते हुए अपने काव्य में भाषा और शिल्प को एक नया रूप प्रदान किया है। मुक्तिबोध ने अपने काव्य में विशिष्ट प्रकार के प्रतीक, बिंब, अलंकार, विविधतापूर्ण शब्दों का प्रयोग मुहावरे-लोकोक्तियों तथा छंदों को कविता में स्थान दिया है। मुक्तिबोध ने कल्पना से भी विचित्र सच का साक्षात्कार फैंटेसी के द्‌वारा किया है। हिंदी साहित्य में फैंटेसी के रूप में मुक्तिबोध ने अपनी एक विशिष्ट की पहचान बनाई है।
  
मैं विचरण करता-सा हूँ एक फैंटेसी में। यह निश्चित है कि फैंटेसी कल वास्तव होगी।”[2] 
अतः मुक्तिबोध का कहना था कि यथार्थ की कलात्मक परिणति फैंटेसी में ही निहित होती है। 
डायरी में मुक्तिबोध लिखते है, ‘कला का पहला क्षण है जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव-क्षण। दूसरा क्षण है इस अनुभव का अपने कसकते-दुखते हुए मूलों से पृथक हो जाना और एक ऐसी फैंटेसी का रूप धारण कर लेना मानो वह अपनी आँखों के सामने ही खड़ी हो। तीसरा और अंतिम क्षण है इस फैंटेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया का परिपूर्णावस्था तक की गतिमानता। 
      आगे मुक्तिबोध लिखते है कि कलाकार को शब्द साधना द्‌वारा नये-नये भाव और नये अर्थ स्वप्न मिलते है।”[3]

      मुक्तिबोध की काव्य भाषा में विभिन्न शब्दावली का मिश्रित रूप देखने को मिलती है। मुक्तिबोध की कविता में तत्सम, तद्भव, अरबी, फारसी, अंग्रेजी आदि सभी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है। जैसे 
            “कोलाहल करत सगर्व उद्धत मजदूरों का जुलूस

 “रेफ्रीजरेटरों, विटामिनों, रेडियो ग्रामों के बाहर की/मैं कनफटा हूँ हेठा हूँ। शेव्रलेट-डाज के नीचे लेटा हूँ

      उपर्युक्त पंक्ति में अरबी और अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग किया गया है।

      मुक्तिबोध की कविता में सांसारिक बिंब अधिक मिलते है। उनकी कविताओं में एक रहस्यमय व्यक्ति का चित्रण मिल जाता है।

      “जिंदगी के...../कमरों में अँधेरे/लगता है चक्कर/कोई एक लगातार/........इतने में अकस्मात् गिरते हैं भीतर से/फूले हुए पलिस्तर/गिरती है चूने भरी रेत/सिसकती है पपड़ियाँ इस तरह/खुद-ब-खुद/कोई बड़ा चेहरा बन जाता है।”[4]

      “कि इतने में, इतने में/झलक-झलक उठती है/जल अन्तर में से ही 
कठोर मुख आकृतियाँ/भयावने चेहरे कुछ, लहरों के नीचे से”[5]
     

      “भव्य ललाट की नासिका में से/ बह रहा खून न जाने कब से/ 
लाल-लाल गरमीला एक रक्त टपकता/(खून के धब्बों से भरा अंगरखा)।”[6] 


मुक्तिबोध की भाषा में मुहावरों का प्रयोग मिलता है। उन्होंने अपने काव्य में मुहावरों को स्वतः ही गढ़ कर प्रयोग किया है। वे मुहावरों के द्‌वारा अपनी बात को स्पष्ट रूप से रखते है। कवि अशोक बाजपेयी कहते है कि वे एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने हमारे समय को उसकी भयावह व्यापकता और गहराई में परिभाषित करने की कोशिश की है। उनके मुहावरें में बिम्बधर्मिता, सपाटबयानी उत्सवधर्मिता, विश्लेषण, बातचीत, रिटारिक, विनोदप्रियता आदि अनेक तत्वों का अद्भुत और जटिल संयोजन संभव हुआ है।.............”[7] साथ ही कविता को सशक्त रूप भी प्रदान करते है। कुछ उनके द्‌वारा प्रयोग किए गए मुहावरे इस प्रकार है—‘जिंदगी के झोल’, ‘जीतोड़ मेहनतकश’, ‘गुल करना’, ‘दांत किटकिटाना’, ‘सिर फिरना’, ‘केंचुली उतारना’, ‘जमाना सख्त होना’, ‘अपना गणित करना’, ‘सच्चाई की आँख निकालना’, ‘मन टटोलनाआदि।

मुक्तिबोध ने अपने काव्य को सशक्त बनाने के लिए अलंकारों का भी प्रयोग किया है। उनके प्रारंभिक रचनाओं में मानवीकरण का प्रयोग हुआ है।

घबराए हुए प्रतीक और मुस्कुराते रूप चित्रण लेकर मैं/घर लौटता हूँ/उपमाएँ द्वार पर आते ही कहती है/कितने बरस तुम्हें और जीना ही चाहिए।”[8]

मुक्तिबोध कृत चाँद का मुँह टेढ़ा हैकविता में चाँदनी का स्थान-स्थान पर मानवीकरण किया गया है। कहीं वह हंसती है, रोती है, जीती है, मरती है, या फिर धाराशाही चाँदनी के होंठ काले पड़ गए।”[9]

श्रीकांत वर्मा का आरोप है कि मुक्तिबोध ने काव्य के संगीत के मूल्यों का संहार किया, भाषा का संहार किया तथा शब्दों को अर्थहीन और अर्थ को शब्दहीन बना दिया।”[10]

कुँवर नारायण ने मुक्तिबोध पर लिखा है कि, “मुक्तिबोध का कथ्य या संदेश जितना स्पष्ट और सीधा है उनकी कविताओं की बनावट उतनी ही जटिल और उलझी हुई है, वे सहज बोधगम्य नहीं है।”[11]

अतः कथ्य की विविधता के कारण हिंदी साहित्य में आलोचक वर्गों ने उन्हें दुरूह’, ‘अस्पष्ट’, ‘न समझ में आनेवाला कविकहा है।

मुक्तिबोध की मातृभाषा मराठी थी लेकिन उनकी संपूर्ण काव्य भाषा हिंदी में है। उन्होंने भाषा के अभिजात्य को ध्वंश किया। साथ ही उन्होंने अंग्रेजी, उर्दू, मराठी तथा तत्सम्, तद्भव एवं देशज शब्दों के सहारे अपनी काव्य यात्रा को आगे बढ़ाया।

मुक्तिबोध की भाषिक कुशलता और रौद्र-सौंदर्य को चंबल की घाटियाँकविता की पंक्तियों में देखा जा सकता है।

            “कटें, उठे पठारों का, दरों का 
धँसानों का बयाबान इलाका। गुँजान रात। 
अजनबी हवाओं की तेज मार-धाड़। 
बरगदों बबूलों को तोड़-ताड़-फोड़ 
गगन में अड़े हुए पहाड़ों से छेड़छाड़ 
नहीं कोई आड़।


      मुक्तिबोध ने अपने काव्य को मुक्तछंद में रचा है। कवि शमशेर बहादुर सिंह ने उनके मुक्तछंद के काव्य पर टिप्पणी करते हुए लिखते है कि जो निराला के मुक्त छंदों से हाथ मिलाकर आगे आता है, वही सीधी अभिव्यक्ति, तरल मानवीय व्यंजना, मगर उससे अधिक भी कुछ निरालापन के साथ मुक्तिबोधपन। सबके साथ यद्यपि विशिष्ट, एक विशिष्ट अपनापन।

      मुक्तिबोध ने मनुष्य के मनोभावों तथा प्रकृति को भी प्रतीकात्मक शैली में प्रस्तुत किया है। उनकी मानव जीवन के प्रति गहरी जुड़ाव के कारण वे रोजाना की जिंदगी के अधिकतर प्रतीकों को अपने काव्य में स्थान देते हैं। जैसेपूँछ, दाँत, मूँछ, कचड़ा, चादरें, मोरियाँ, रफू, ईंधन, धुआँ, गुम्बद, अंगार, विष गठरी, आईना, अकादमी, पलस्तर, गडढ़े, धूल, बवंडर आदि ऐसे ही प्रतीक हैं। मुक्तिबोध ने काव्य भाषा को एक नया तेवर दिया है। जो नई कविता की सामान्य काव्य भाषा की तुलना में काफी अनगढ़ और बेडौल लगता है।”[12]

      मुक्तिबोध के काव्य में भाषा का अनगढ़पन, अजनबीपन और अटपटापन देखने को मिलता है। मुक्तिबोध की कविता की भाषा संस्कृतनिष्ठ है, निराला की भाषा की तरह। जहाँ तक ऊर्जा के सर्जन का प्रश्न है, मुक्तिबोध निराला के उत्तराधिकारी हैं। पर निराला में विषयवस्तु, भाषा शैली की जो विविधता दिखाई देता है, वह मुक्तिबोध में नहीं।”[13]

 मुक्तिबोध भाषा का चयन नहीं करते थे बल्कि भाषा को गढ़ते थे। मुक्तिबोध की के संबंध में डॉ. ललिता अरोड़ा कहती है, “उनकी भाषा कभी संस्कृतनिष्ठ सामाजिक पदावली की अलंकृत वीधिका से गुजरती है तो कभी अरबी, फारसी, उर्दू के नाजुक लचीले हाथों को थामकर चलती है, तो कभी अंग्रेजी की इलेक्ट्रिक ट्रेन पर बैठकर जल्दी से खटाक-खटाक निकल जाती है।”[14]

मुक्तिबोध की काव्य भाषा बोलचाल की भाषा है और जिसमें लयात्मकता देखने को मिलती है। मुक्तिबोध स्वप्न की शैली—‘फैण्टेसीके कवि के रूप में जाने जाते है। इसका सीधा संबंध कल्पना से है। फैण्टेसीशब्द की व्युत्पत्ति ग्रीक शब्द फैण्टेसियासे हुई है, जिसका अर्थ है, “मानव की प्रवाह रूप में या माँग पर एक काल्पनिक दुनिया का निर्माण करने का अद्भुत सामर्थ्य।”[15] मुक्तिबोध के अनुसार, “फैण्टेसी में मन की निगूढ़ वृत्तियों का अनुभूत जीवन समस्याओं का इच्छित जीवन स्थितियों का प्रक्षेप होता है।”[16]

मुक्तिबोध ने भारतीय जीवन की त्रासदी पीड़ा और सामाजिक तनाव को फैण्टेसी शैली में व्यक्त करने का प्रयास किया है। मुक्तिबोध की फैण्टेसी शैली पर विचार व्यक्त करते हुए नन्दकिशोर नवल ने कहा है कि—“मुक्तिबोध फैण्टेसी शैली की तरफ धीरे-धीरे बढ़े थे और यथार्थ बोध की परिपक्वता के साथ उनका ढंग स्वयंमेव बदलता गया था। दूसरे उन्होंने अपनी कविताओं में फैण्टेसी का कई प्रकार का इस्तेमाल किया है। कहीं फैण्टेसी का स्पर्श हल्का है, कहीं प्रगाढ़, कहीं वह सरल रूप में आती है और कहीं बहुत जटिल रूप में। उनकी फैण्टेसी शैली की सफलता उनकी इस क्षमता में निहिति है, जैसे वे जिस तरह यथार्थ को फैण्टेसी में बदल सकते थे उसी तरह फैण्टेसी का चित्रण भी बिल्कुल यथार्थ की तरह कर सकते थे। उनका यथार्थ लोक जैसे फैंटास्टिक है, वैसे ही उनका फैंटास्टिक लोक अत्यंत यथार्थ”[17]

ट्रेजेडी साधारणतः फैंटेसी में ही होती है। कवि मुक्तिबोध स्वप्न के माध्यम से फैंटेसी की द्‌वारा यथार्थ का चित्रण करते है। मुक्तिबोध इस पर लिखते है कि, “कभी-कभी फैंटेसी जीवन की विस्तृत वास्तविकताओं को लेकर उपस्थित होती है और कथा के अंतर्गत जो पात्र, चरित्र और कार्य प्रस्तुत होते हैं वे सभी प्रतीक होते हैं-वास्तविक जीवन तथ्यों के।”[18]

मुक्तिबोध की अँधेरे मेंकविता में प्रतीक रूप में बरगदका चित्रण हुआ है। इस कविता में बरगदको परंपरा बोध और विषादमय जीवन के रूप में प्रतीक के माध्यम से प्रयोग हुआ है। उदाहरण स्वरूप

            “भयंकर बरगद 
सभी उपेक्षितों, समस्त वंचितो, 
गरीबों का वही घर, वही छत 
उसके ही तल-खोह-अँधेरे में सो रहे 
गृहहीन कई प्राण।”[19]
  
      ‘लकड़ी का रावणपूँजीवादी व्यवस्था और शोषण का प्रतीक है। यहाँ वानरजनवादी क्रांति का प्रतीक है। उदाहरण

                        “बढ़ ना जायें 
छा न जायें 
मेरी इस अद्वितीय 
सता के शिखरों पर स्वर्णाभ, 
हमला न कर बैठें खतरनाक 
कुहरे के जनतन्त्री
 वानर ये, नर ये!!”[20]
  

      मुक्तिबोध की कविता में प्रयुक्त प्रतीक जीवन की संपूर्ण व्याख्या करते है। अतः मुक्तिबोध ने इन प्रतीकों के माध्यम से कविता के कथ्य को स्पष्ट, रहस्यात्मक एवं काव्यशिल्प को जीवंत बनाया है। उनके अधिकांश प्रतीक मानव जीवन के संदर्भ में प्रयुक्त हुए है।

      मुक्तिबोध की कविता में बिंबों के प्रयोग से अधिक समृद्ध हो गया है। उनकी कविता को बिंबमय कहा जा सकता है। मुक्तिबोध के बिंब के संदर्भ में कवि शमशेर बहादुर सिंह लिखते है कि मुक्तिबोध की हर इमेज के पीछे शक्ति होती है। वे हर वर्णन को दमदार, अर्थपूर्ण और चित्रमय बनाते हैं।”[21]

      मुक्तिबोध की कविताओं में पहाड़, पठार, गुफाएँ आदि के बिंब प्रयुक्त हुए हैं। उन्होंने भावानुभूतियों को मूर्तता प्रदान करने के लिए प्राकृतिक बिंबों का प्रयोग किया है। अंधेरे मेंकविता में इसके उदाहरण मिलते हैं

                 “भूमि की सतहों के बहुत-बहुत नीचे 
           अँधियारी, एकान्त 
           प्राकृत गुहा एक 
           विस्तृत खोह के साँवले तल में 
           तिमिर को भेदकर चमकते हैं पत्थर 
     तेजस्क्रिय रेडियो-एक्टिव रत्न भी बिखरे, 
           झरता है जिन पर प्रबल प्रणात एक। 
           प्राकृत जल वह आवेग-भरा है, 
           द्युतिमत् मणियों की अग्नियों पर से 
           फिसल-फिसलकर बहती हैं लहरें, 
           लहरों के तल में से फूटती है किरनें, 
           रत्नों की रंगीन रूपों की आभा 
           फूट निकलती 
           खोह की बेडौल भीतें है झिलमिल!!”[22] 

प्रकृति के मनोरम दृश्य को चित्रण करने वाला बिंब प्रातः और संध्या के माध्यम से यहाँ वर्णन किया गया है। मुक्तिबोध ने अपने भावों, विचारों तथा जीवन को विभिन्न बिंबों द्‌वारा कविता में जीवंतता प्रदान की है।

      मुक्तिबोध की कविताओं में अलंकार, बिंबो और प्रतीकों के सामंजस्य देखने को मिलता है। उनकी कविताओं में रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है। जैसे

                  “नीला पौधा 
यह आत्मज 
रक्त-सिंचिता-हृदय-धरित्री का 
आत्मा के कोमल आलवाल में 
यह जवान हो रहा 
कि अनुभव-रक्त ताल में डूबे उसके पदतल 
जड़े ज्ञान-संविदा 
कि पीतीं अनुभव 
वह पौधा बढ़ रहा 
तुम्हारे उर में अनुसन्धित्सु क्षोभ का विरवा 
वह मैं ही हूँ।”[23]

      मुक्तिबोध के काव्य में अनेक स्थान पर उत्प्रेक्षा अलंकार दिखाई देता है। उदाहरण स्वरूप निम्न पंक्ति को देखा जा सकता है।

                  “किंतु, गहरी बावडी 
की भीतरी दीवार पर
 तिरछी गिरी रवि-रश्मि 
के उड़ते हुए परमाणु, जब 
तल तक पहुँचते हैं कभी 
तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने 
झुककर नमस्तेकर दिया।”[24]

      मुक्तिबोध की कविताएँ मुक्त छंद में लिखी गई है। उनकी कविताओं में काव्यभाषा, भाषाशैली प्रतीक, बिंब अलंकार और छंद का सुंदर चित्रण हुआ है।

      निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध एक सशक्त यथार्थवादी कवि थे। उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के अनुरूप रूपकों, प्रतीकों, बिबों की परिकल्पना करते हुए भाषा को गढ़ा है। अतः मुक्तिबोध काव्यभाषा के शिल्पकार थे।

सहायक ग्रंथ सूची

1.  ‘मुक्तिबोध कविता और जीवन विवेक’-चन्द्रकान्त देवताले, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2003

2.  ‘प्रतिनिधि आधुनिक कवि’, संपादक-डॉ.चन्द्र त्रिखा, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूल, संस्करण 2003

3.  ‘कवि परम्परा तुलसी से त्रिलोचन’-प्रभाकर श्रोत्रिय, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, संस्करण-2008

4  विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ।                             



[1] ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’ – गजानन माधव मुक्तिबोध, पृ.2

[2] ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’-पृ.115

[3]  नेमिचन्द्र जैन, मुक्तिबोध रचनावली-4, राजकमल प्रकाशन, 1980, पृ. 105

[4]  ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’, पृ. 245-246

[5]  ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’, पृ. 172-173

[6]  ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’, पृ. 268

[7]  अशोक वाजपेयी, ‘फिलहाल’, पृ.124-25

[8]  नरेंद्र मिश्र, ‘अलंकार दर्पण’, निर्मल पब्लिकेशन, दिल्ली, 2001, पृ.64

[9]  नरेश मिश्र, ‘अलंकार दर्पण’, निर्मल पब्लिकेशन, दिल्ली, 2001, पृ.25

[10]  ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ – संपादकीय, श्रीकांत वर्मा

[11]  ‘मुक्तिबोध की कविता की बनावट’ – कुँवर नारायण, कविता का अनुवाद

[12] नामवर सिंह, कविता के नए प्रतिमान, पृ.243

[13] डॉ. बच्चन सिंह, समकालीन हिंदी साहित्य, पृ. 70

[14] मुक्तिबोध : एक अध्ययन, डॉ. ललिता अरोड़ा, पृ. 178

[15] गजानन माधव मुक्तिबोध : सृजन और शिल्प रणजित सिंह पृ. 159

[16]  एक साहित्यिक की डायरी-गजानन माधव मुक्तिबोध, पृ.21

[17]  मुक्तिबोध : ज्ञान और संवेदना नंदकिशोर नवल, पृ. 12

[18]  नेमिचन्द जैन, मुक्तिबोध रचनावली-भाग-4, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 1980, पृ. 221

[19]  मुक्तिबोध रचनावली, खंड-दो, पृ. 332

[20]  मुक्तिबोध रचनावली, खंड-दो, पृ. 370

[21]  सुरेश ऋतुपर्ण, ‘मुक्तिबोध की काव्य सृष्टि’, पृ. 108

[22]  मुक्तिबोध रचनावली, खंड-दो, पृ. 336

[23]  मुक्तिबोध रचनावली, खंड-दो, पृ. 117


[24]  मुक्तिबोध रचनावली, खंड-दो, पृ. 316

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019)  चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा

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