भीष्म साहनी की कहानियाँ : सृजन और सन्दर्भ - पूजा तिवारी

भीष्म साहनी की कहानियाँ : सृजन और सन्दर्भ


'अंदाज़-ए-बयाँ ही रंग लाता है वरना दुनिया में कोई बात नई नहीं होती' ये पंक्तियाँ हिंदी साहित्य के प्रमुख स्तम्भ रहे रचनाकार, भीष्म साहनी के सन्दर्भ में सटीक बैठती हैं।  अपने लेखन के विविध रंगों से भीष्म साहनी ने सदैव हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है।  नाटक, उपन्यास, कहानी, आत्मकथा, और अनुवाद हर विधा में उन्होंने अपनी रचनात्मक प्रतिभा का लोहा मनवाया।  जहाँ तक कहानी लेखन का प्रश्न है, उनके कई कहानी संग्रह प्रकाशित हुए, जैसे- 'भाग्यरेखा' (1953), 'पहलापाठ' (1956), 'भटकती राख' (1966), 'पटरियाँ' (1973), 'वाङ्चू' (1978), 'शोभायात्रा' (1981), 'निशाचर' (1983), 'पाली' (1989), 'प्रतिनिधि कहानियाँ' एवं 'मेरी प्रिय कहानियाँ'।  इन कहानी संग्रहों में सम्मिलित सौ से अधिक कहानियाँ भीष्म साहनी की लेखन क्षमता से परिचित कराती हैं।

एक कहानीकार के रूप में भीष्म साहनी का जन्म उनकी परिस्थितियों और प्रतिभा दोनों का मिला-जुला रूप रहा है।  अपने जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत उन्होंने बहुत कुछ देखा और अनुभव किया।  वे कई घटनाओं के भुक्तभोगी थे।  चाहे वह भारत का स्वतन्त्रता आन्दोलन रहा हो या भारत-पाक विभाजन या फिर साहित्य के क्षेत्र में प्रगतिशील विचारधारा का बढ़ता हुआ प्रभाव रहा हो, सभी से उन्होंने कुछ न कुछ सीख ली।  हिंदी साहित्य के क्षेत्र में भीष्म साहनी कई कहानी आंदोलनों के दौर से होकर गुजरे।  नई कहानी आन्दोलन की धारा में बहते हुए उन्होंने अपनी कहानियों में शहरी मध्यवर्ग को केंद्र में ला खड़ा किया।  उन्होंने तत्कालीन या यूँ कहें समकालीन समस्याओं को अपनी कहानियों का विषय बनाया।  उनकी कहानियों के विषय और कथन शैली आवश्यकतानुसार बदलते रहे हैं।  साम्प्रदायिकता, नगरीय जीवन की जटिलता, बदलते पारिवारिक सम्बन्ध, संबंधों की जटिलता, मानव स्वभाव और मनोविज्ञान, आदि उनकी कहानियों के प्रमुख विषय रहे हैं।

भीष्म साहनी की पहली कहानी 'अबला' थी जो इंटर कालेज की पत्रिका 'रावी' में प्रकाशित हुई और दूसरी कहानी 'नीली आँखें', यह हंस में प्रकाशित हुई।  यहीं से उनकी कहानी लेखन की परम्परा का प्रारंभ हुआ जो मृत्यु पर्यंत चलता रहा।  'अबला', 'खंडहर', 'आवाजें', 'चेहरे', 'नीली आँखें', 'भटकाव', 'फैसला', 'चीफ की दावत', 'चीलें', 'ओ हरामजादे', 'गल्मुच्छे', 'वाङ्चू', 'अमृतसर आ गया है', 'झूमर', 'निमित्त', 'खिलौने', 'मेड इन इटली', 'रामचंदानी', 'शोभायात्रा', 'लीला नंदलाल की', 'अनूठे साक्षात', 'गंगो का जाया', 'गुलेलबाज लड़का', 'खून का रिश्ता', 'मरने से पहले', 'माता विमाता', 'तरस', 'साग-मीट', 'पाली', 'समाधी भाई रामसिंह', 'फूलों जैसी', 'अनोखी हड्डी', 'संभल के बाबू', 'तेंदुआ', 'ढोलक', 'साये', 'अहं ब्रह्मास्मि' जैसी कहानियाँ लिखकर वे हिंदी कहानी क्ष्रेत्र में मील का पत्थर साबित हुए।  उनकी कहानियों की विशेषता की ओर इंगित करते हुए लेखक निर्मल वर्मा कहते हैं, ''इतना सब कुछ लिखने के बाद भी, साहनी अपनी रचनात्मकता में लागातार आगे बढ़ रहा था और वह भी बिना किसी दुहराव के। ''
भीष्म साहनी ने सदैव यथार्थ को अपनी कहानियों का विषय बनाया।  यथार्थवादी लेखन के कारण ही नामवर सिंह जैसे आलोचक ने उन्हें प्रेमचंद की परम्परा का लेखक कह डाला।  जिस तरह से प्रेमचंद ने 'आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद' के माध्यम से अपनी बात सभी तक पहुँचाई उसी तरह से भीष्म साहनी ने भी आदर्श और यथार्थ का सहारा लिया।  किन्तु उन्होंने प्रेमचंद से इतर भी नये प्रयोग किये और वह है मार्क्सवाद के साथ मानवतावाद का मेल।  उन्होंने 'मार्क्सवादी मानवतावाद' के आधार पर पाठकों में संवेदना जागृत की।  दूसरी तरफ भीष्म साहनी पर 'चयनवाद' का आरोप लगाते हुए और यशपाल के प्रभाव की ओर इंगित करते हुए संजीव कुमार अपने लेख 'भीष्म साहनी की कहानी कला' में लिखते हैं, ''हिंदी कहानी के आन्दोलन ने जहाँ एक ओर पुरानी जड़ता को तोड़कर नई जमीन तैयार की वहीं उसमें मूर्खतापूर्ण और कभी षड्यंत्रपूर्ण चयनवाद भी उभरा।  हिंदी की कई महत्वपूर्ण कहानियों के लेखक भी इस चयनवाद के शिकार हुए।  ऐसे आंदोलनों के शिकार भीष्म साहनी भी हुए...भीष्म साहनी अपने समय के साथ हो सकते हैं अपने समकालीन लेखकों के साथ नहीं..ऐसा नहीं है कि भीष्म साहनी जी अपनी कहानियों की कलात्मकता के प्रति असचेष्ट रहे हों।  वे इस दिशा में यशपाल की उस शैली का थोड़ा अभ्यास किया मालूम पड़ते हैं जो प्रतिमुखता का एक चरम नाटकीय बिंदु पूरे घटनाक्रम के भीतर खड़ा कर लेती है और हमें अभिभूत करती है। ''
सर्वप्रथम उनकी सबसे प्रसिद्ध कहानी 'चीफ की दावत' पर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि यह बड़े ही मार्मिक ढंग से मध्यवर्गीय परिवार की जद्दोजहत और संघर्ष के साथ-साथ वृद्ध माता-पिता को बोझ समझने वाली पीढ़ी से साक्षात्कार कराती है।  इस कहानी में बूढी माँ समस्त संस्कृति और परम्परा की प्रतीक बन जाती हैं और उनका बेटा शामनाथ शहर की आपाधापी और प्रतियोगिता से थकी और चिड़चिड़ी पीढ़ी का प्रतीक।  माँ की सरलता और बेटे की निर्लज्जता और चालाकी का एक उदाहरण-

''माँ के चेहरे का रंग बदलने लगा, धीरे-धीरे उनका झुर्रियों-भरा मुँह खिलने लगा, आँखों में हल्की-हल्की चमक आने लगी।  “तो तेरी तरक्की होगी बेटा?”
  “तरक्की यूँ ही हो जायेगी ? साहब को खुश रखूँगा, तो कुछ करेगा, वरना उसकी खिदमत करने वाले और थोडे हैं ? “तो मैं बना दूँगी, बेटा, जैसे बन पडेग़ा, बना दूँगी। ''

''ईमानदार आदमी क्यों इतना ढीला-ढाला होता है, क्यों सकुचाता-झेंपता रहता है, यह बात कभी भी मेरी समझ में नहीं आई।  शायद इसलिए कि यह दुनिया पैसे की है।  जेब में पैसा हो तो आत्म-सम्मान की भावना भी आ जाती है, पर अगर जूते सस्ते हों और पाजामा घर का धुला हो तो दामन में ईमानदारी भरी रहने पर भी आदमी झेंपता-सकुचाता ही रहता है। '' 'फैसला' कहानी का यह कथन पूँजीवादी समाज पर कटाक्ष करता हुआ प्रतीत होता है जहाँ ईमानदारी से सस्ती चीज कोई नहीं होती।  आर्थिक क्षमता ही व्यक्ति की अहमियत और हैसियत दोनों का निर्णय करती है।  इस कहानी में भीष्म साहनी न्यायालय और प्रशासन दोनों की पोल खोलते हैं।  आम आदमी का जीवन इन दोनों तंत्रों की विफलता से किस तरह प्रभावित होता है यह रामलाल और शुक्ला जी दोनों चरित्रों के माध्यम से समझा जा सकता है।  इस तंत्र में फ़ाइल और पैसे का सच ही सच बन जाता है इसीलिए कहानी के एक पात्र के माध्यम से भीष्म साहनी कहते हैं, ''इसीलिए कहते हैं कि सरकारी अफ़सर को फ़ाइल का दामन कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए, जो फ़ाइल कहे, वही सच है, बाक़ी सब झूठ है। ''
'चीलें' कहानी उत्तर आधुनिकतावादी युग में अकेलेपन, अजनबियत और हर समय संदेह के बीच रहने वाले मनुष्य के मानसिक स्तर की परतों को खोलती है।  मूल्यहीन जीवन में असुरक्षा की भावना की जकड़न में फंसे आदमी की कहानी है 'चीलें'।  साथ ही स्त्री-पुरुष संबंधों के रहस्य को भी समझने का प्रयास करती है यह कहानी।  एक उदहारण दृष्टव्य है- ''स्त्री-पुरूष सम्बन्धों में कुछ भी तो स्पष्ट नहीं होता, कुछ भी तो तर्क-संगत नहीं होता।  भावनाओं के संसार के अपने नियम हैं, या शायद कोई भी नियम नहीं। ''
'ओ हरामजादे' कहानी उस व्यक्ति के जीवन के अंतर्द्वंदों को खोलती है जो अपना देश छोड़कर विदेश चला गया है।  परायी धरती पर बार-बार स्वदेश के चित्र बिखरने लगते हैं और रह-रह कर स्वदेश वापसी की चाह जाग उठती है।  किन्तु अपनी जिम्मेदारियों के बीच पिसता व्यक्ति वापसी का केवल ख्याल करके ही रह जाता है।  इसी कारण देश जाने की चाह उसे भीतर ही भीतर कुंठित और अकेला कर देती है।  भीष्म साहनी लिखते हैं, ''हिंदुस्तानी पहले तो अपने देश से भागता है और बाद से उसी हिंदुस्तानी के लिए तरसने लगता है। ''

भीष्म साहनी की प्रसिद्ध कहानी 'वाङ्चू' राजनीतिक, प्रशासनिक खामियों के साथ असंतुलित अंतर्राष्ट्रीय सबंधों के कारण एक आम और ईमानदार इंसान पर पड़ने वाले प्रभाव को प्रस्तुत करती है।  उदहारण के लिए - ''उसी रोज शाम को पुलिस के कुछ अधिकारी एक जीप में आए और वाङ्चू को हिरासत में लेकर बनारस चले गए।  सरकार यह न करती, तो और क्या करती ? शासन करनेवालों को इतनी फुरसत कहाँ कि संकट के समय संवेदना और सद्भावना के साथ दुश्मन के एक-एक नागरिक की स्थिति की जाँच करते फिरें ?'' यह कहानी समसामयिक जगत से तटस्थ रहने के दुष्परिणामों को भी वाङ्चू नामक पात्र के माध्यम से दिखाती है।  वाङ्चू की कहानी किसी एक दिन की घटना नहीं है।  यह भारत की स्वत्रंत्रता के बाद उसके वैदेशिक संबंधों और उनके चलते आम जनता की मानसिकता में होने वाले बदलाव को इंगित करती है जो आज के समय में भी प्रासंगिक है।  राष्ट्रों की सीमा में प्रवेश करने वाले नागरिकों से दुर्व्यवहार या उनकी हत्या कर देना, यह आज के समय में भी देखने को मिलता है।

यह कहना गलत नहीं होगा कि साम्प्रदायिकता भीष्म साहनी का प्रिय विषय रहा है।  यही कारण है कि कहानियों के साथ-साथ नाटकों और उपन्यासों में भी इस पर खूब चर्चा की है और इस मुद्दे की गंभीरता को प्रस्तुत करने के साथ-साथ इसके कारणों को खोजने और दुष्परिणामों को सामने रखने का प्रयास भी किया है।  'अमृतसर आ गया है' ऐसी ही कहानी है, जिसमें साम्प्रदायिकता के कारण आम लोगों को होने वाली समस्याओं को दिखाया गया है।  इस कहानी में अमृतसर को आपसी घृणा के कारण की जाने वाली हिंसा को मुख्य कारण के रूप में देखा गया है।  विभाजन और उससे उपजी त्रासदी के रूप में बंटवारे और साम्प्रदायिकता को विषय बनाने का उद्देश्य यही समझ में आता है कि भीष्म साहनी इसके माध्यम से साम्प्रदायिकता के भयावह दुष्परिणाम को सामने रखकर मानवीय संवेदना को जगाना चाहते हैं।  साथ ही उन्होंने यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि साम्प्रदायिक दंगों में आम इंसान की कोई भागीदारी नहीं होती।  इसे राजनीतिक ओहदे पर बैठे लोग अपनी सत्ता के हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं।  इन्ही भावनाओं और संवेदनाओं को हम भीष्म साहनी की ही कहानी 'पहला पाठ', 'पाली', 'झुटपुटा' के साथ ही 'तमस' उपन्यास और नाटक 'आलमगीर' तथा 'मुआवजे', यशपाल का 'झूठा सच' उपन्यास, सआदत हसन मंटो की कहानियों जैसे 'टोबा टेक सिंह', खुशवंत की रचना 'ट्रेन टू पाकिस्तान' आदि में देख सकते हैं।

दूसरी ओर 'खून का रिश्ता' कहानी मध्यवर्गीय परिवार के आतंरिक संबंधों की कलई खोलती है।  यह पूंजीवाद से प्रभावित समाज की उस रग को पकड़ती है जहाँ खून के सम्बन्ध भी पैसे की ताकत के आधार पर तौले जाते हैं।  'झूमर' कहानी में अर्जुन दास के चरित्र के माध्यम से फ़्लैश बैक तकनीक का बढ़िया ताल मेल किया गया है।  यह कहानी आदर्शवाद और व्यवहारिक जीवन के द्वन्द को दिखाती है।  आदर्शों को आज के समय में कितना महत्व दिया जा सकता है इसी उधेड़बुन को यह कहानी प्रस्तुत करती है।  साथ ही रंगमंच के प्रतीक के माध्यम से अभिनय जगत की जरूरतों और आवश्यक बदलावों की ओर भी भीष्म साहनी अर्जुनदास पात्र के माध्यम से ध्यान खीचते हैं।  एक आदर्शवादी और ईमानदार व्यक्ति के मन में उठते द्वन्द को कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया गया है-''उसके मन में कभी-कभी जरूर सवाल उठता : क्या मैं दिग्भ्रमित हो गया हूँ ? क्या सचमुच मैं आदर्शवाद के हवाई घोड़े पर सवार इधर-उधर भटक रहा हूँ ? क्या वे लोग जो आजादी मिलने के बाद अपने पैर जमाने के लिए ठेके और लाइसेंस हथियाने लगे थे, ज्यादा समझदार थे जो हवा का रूख पहचानते थे ?''
'गंगो का जाया' महानगारीय जीवन के बीच अपने गाँव को छोड़कर आये मजदूरों के जीवन संघर्ष की कहानी है।  दिल्ली जैसे शहर में एक मजदूर के जन्म की कहानी है जो घीसू से आगे बढ़कर उसके बेटे रीसा तक पहुँचती है।  इस कहानी के माध्यम से उन मजदूरों के जीवन में झाँकने का प्रयास किया गया है जिन्हें ऊँची अट्टालिकाओं के आगे कोई नहीं पूछता।  यह एक व्यक्ति के मजदूर बनने की कहानी है।  एक नये मजदूर के जन्म को कुछ इस तरह व्यक्त किया गया है- ''आधी रात गए, नन्हा रीसा, जीवन की एक पूरी मंज़िल एक दिन में लाँघकर, सिर के नीचे ब्रुश और पॉलिश की डिबिया और एक छोटा-सा चीथड़ा रखे, उसी बरांडे की छत के नीचे अपनी यात्रा के नये साथियों के साथ, भाग्य की गोद में सोया पड़ा था। '' भीष्म साहनी सर्वहारा और बुर्जुआ के द्वन्द से परिचित थे इसी कारण इस कहानी में वे लिखते हैं-''ठेकेदार हर मज़दूर के भाग्य का देवता होता है।  जो उसकी दया बनी रहे तो मज़दूर के सब मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं, पर जो देवता के तेवर बदल जाएँ तो अनहोनी भी होके रहती है। ''

'गुलेलबाज़ लड़का' ह्रदय परिवर्तन की कहानी है।  यहाँ भीष्म साहनी पर प्रेमचंद का प्रभाव देखा जा सकता है।  महानगरीय जीवन में उच्च वर्गीय व्यक्ति का निम्न वर्ग के व्यक्ति के प्रति दृष्टिकोण और निम्नवर्गीय व्यक्ति के जीवन का सच 'त्रास' कहानी के माध्यम से दिखाने का प्रयास किया गया है।  उच्च वर्ग धन और संपदा के कारण गरीब और निम्न व्यक्तियों का शोषण करता रहा है।  इस वर्ग की निम्न वर्ग के प्रति घृणा को कुछ इस तरह से व्यक्त करते हैं, ''दिल्ली में प्रत्येक मोटर चलाने वाला आदमी साइकिल चलाने वालों से नफरत करता है।  दिल्ली के हर आदमी के मस्तिष्क में घृणा पलती रहती है और एक-न-एक दिन किसी-न-किसी रूप में फट पड़ती है।  दिल्ली की सड़कों पर सारे वक्त घृणा का व्यापार चलता रहता है।  बसों में धक्के खाकर चढ़नेवाले, भाग-भागकर सड़कें लाँघनेवाले, भोंपू बजाती मोटरों में सफर करनेवाले सभी किसी-न-किसी पर चिल्लाते हैं, गालियाँ बकते, मुड़-मुड़कर एक-दूसरे को दाँत दिखाते जाते हैं।  घृणा एक धुंध की तरह सड़कों पर तैरती रहती है। ''

'मरने से पहले' और 'लीला नंदलाल की' कहानी न्यायालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार और उसके शिकार व्यक्ति की कहानी है।  उदाहरण -''अब तो भ्रष्टाचार पर से भी विश्वास उठने लगा है, उसने मन-ही-मन कहा, पहले इतना तो था कि किसी की मुठ्टी गर्म करो तो काम हो जाता था, अब तो उसकी भी उम्मीद नहीं रह गई है। '' दूसरी ओर 'माता कुमाता' कहानी है।  यह मानवीय संबंधों को एक नये रूप में पेश करती है।  यह कहानी प्रारंभ में तो उस कहानी की याद दिलाती है जिसमें दो माएं एक ही बच्चे के लिए लड़ते हुए राजा के पास जाती हैं और राजा न्याय के लिए बच्चे के दो टुकड़े करने का नाटक करता है और इस तरह असली माँ का पता चल जाता है, किन्तु आरम्भ की कुछ ही पंक्तियों के बाद कहानी अपना रुख बदल लेती है और पाठक को आश्चर्य में डाल देती है।  बंजारों की जिंदगी में जहाँ खाने को एक जून की रोटी भी आसानी से नसीब नहीं होती वहाँ, एक बच्चे के लिए दो औरतों का लड़ना यह दिखाता है कि प्रेम या ममता किसी वर्ग या जाति से बंधी नहीं होती और धन-दौलात से इसका कोई लेना-देना नहीं होता।  हालाँकि ''बेघर लोगों को न हँसने की तमीज होती है, न रोने की'' किन्तु उनके बीच भी प्रेम पलता है यह भीष्म साहनी ने बड़े ही मार्मिक ढंग से दिखाया है।

'साग मीट' कहानी में भीष्म साहनी एक नया प्रयोग करते दिखते हैं।  इस कहानी में एक स्त्री के एकालाप के माध्यम से जहाँ एक ओर मध्यवर्गीय स्त्री के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास किया है वहीं दूसरी ओर मध्यवर्गीय परिवार के पुरुष की सोच और समाज में पितृसत्ता की गहरी जड़ों को भी देखने का प्रयास किया गया है।  स्त्री का एकालाप में बार-बार यह दोहराना कि ''मर्द लोग बड़े समझदार होते हैं'' स्त्री जीवन पर पितृसत्ता की गहरी जड़ों की ओर इशारा करता है।  इसी प्रकार 'अहम ब्रह्मास्मि' कहानी भीष्म साहनी की गहरी मनोवैज्ञानिक पकड़ को स्पष्ट कर देती है।

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि भीष्म साहनी ने तत्कालीन अनुभूतियों को अपनी कहानियों का विषय बनाया और यह तत्कालीन अनुभूतियाँ हैं- विभाजन के बाद की त्रासदी और उससे उत्पन्न समस्याएँ।  साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि उनकी कहानियाँ यथार्थ के कठोर धरातल पर खड़ी रहती हैं।  यही कारण है कि कई बार यह सीधे पाठक के ह्रदय को भेदने में सक्षम हो जाती हैं।  सत्य को उसकी कठोरता के साथ प्रस्तुत करने में भीष्म ने किसी भी प्रकार का समझौता नहीं किया है।  यह भी देख सकते हैं कि यह सत्यता आगे जाकर किसी न किसी तरह की मानवीय संवेदना और नैतिकता से जुड़ जाती है।  साथ ही भीष्म साहनी अपनी कहानियों में कोई भी निर्णय देते हुए नहीं दिखते।  उनके पात्रों में वस्तुनिष्ठता देखने को मिलती है।  कृष्ण बलदेव वैद्य लिखते हैं, ''उनकी अति लोकप्रियता किसी भदेसपन के कारण नहीं बल्कि उनकी साहित्यिक खूबियों, तीव्र बुद्धि, सरल व्यंग और कटाक्ष, चरित्रों की गहरी समझ, और मानव ह्रदय की भावनाओं को पकड़ने की क्षमता के कारण थी। ''
कहानियों का विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि भीष्म साहनी का रचनाकर्म बहुत कुछ उनके जीवन से प्रभावित रहा है।  वामपंथी विचारधारा के प्रभाव और स्वतन्त्रता आंदोलनों में प्रतिभाग करने के कारण वे स्वयं को सर्वहारा वर्ग के निकट महसूस करते रहे।  नाटक और रंगमंच की दुनिया से जुड़े रहने के कारण उन्हें पात्रों को समय और परिस्थिति के अनुकूल गढ़ने का अनुभव प्राप्त हुआ।  सामाजिक दायित्वों के साथ साहित्यिक दायित्वों को बखूबी निभाने के पीछे उनकी ऊर्जस्विता और अनुभव कार्य करता रहा।  उन्होने समाज से सीखे अनुभवों को अपनी कहानियों व अन्य रचनाओं के माध्यम से समाज को पुनः वापस किया है।  निर्मल वर्मा के अनुसार, ''यदि हम उनकी कहानियों और उपन्यासों के अलग-अलग प्रकार के पात्रों को देखें जहाँ प्रत्येक व्यक्ति अपने वर्ग और परिवार, अपने शहर व जिले की ख़ुशी और दुःख, और समस्त संसार के द्वंद के साथ दिखता है यह केवल और केवल भीष्म साहनी के गहरे अनुभव के कारण संभव हो पाया है...उनकी हर कहानी में पिछली कहानी की तुलना में एक नयापन होता है और यह नयापन अचानक सामने आ जाता है।  भीष्म कभी भी रचनात्मकता के संसार में कहीं भी रुके नहीं यह उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है और इससे भी बड़ी बात यह है कि उनके जीवन ने उनकी रचनाओं को सीचा है और उनकी रचनाओं ने उनके जीवन को सहारा दिया है। ''

कहानियों के सन्दर्भ में भीष्म साहनी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे सीधे और सरल वाक्यों में एक गूढ़ विषय पर कहानी लिख जाते हैं और ऐसे में यह पता ही नहीं चल पाता कि पाठक और रचना के बीच एक लेखक भी मौजूद हैं।  ये कहानियाँ सहज ही बहती चली जाती हैं।  उनकी इसी सहजता ने उन्हें साहित्य जगत में अपार प्रसिद्धि दिलाई।  इसी के सम्बन्ध में कमलेश्वर लिखते हैं, ''भीष्म साहनी का नाम बीसवीं शताब्दी के हिंदी साहित्य के क्षेत्र में इस तरह से लिख गया है जिसे कभी मिटाया नहीं जा सकता।  स्वतन्त्रता से लेकर 11 जुलाई 2003 तक यह नाम हिंदी कहानी और नाटक का पर्यायवाची बना रहा...इस तरह का महत्व या तो प्रेमचंद को मिला या हरिशंकर परसाई के बाद भीष्म साहनी को।  जो प्रसिद्धि उन्होंने प्राप्त की वास्तव में यह स्वयं हिंदी साहित्य की प्रसिद्धि है। ''

2 दिसंबर 2002 को बीबीसी को दिए साक्षात्कार में उन्होंने कहा, ''मैं निराश तो नहीं हूँ।  जीवन बड़ा पेचीदा होता है और जीवन एक जगह थमता भी नहीं है, स्थायी नहीं होता है।  सारा वक़्त बदलता रहता है और जो शक्तियाँ उसे बदलती हैं वो भी एक जैसी नहीं रहती हैं।  आज अगर नकारात्मक पहलू ज़ोर पर हैं तो बहुत मुमकिन है कल ज़्यादा सकारात्मक पहलू आगे आ जाएँ।  तो इसलिए मायूस होने की तो बात नहीं है। '' उनका यह कथन उनकी सकारत्मक सोच और जिजीविषा को स्पष्ट करता है।  शायद यही कारण है कि उनकी समकालीन लेखिका कृष्णा सोबती ने उन्हें सांस्कृतिक और साहित्यिक जगत का 'भीष्म पितामह' कहा है।  उनकी कहानियाँ इस उपमा को पुष्ट करती हैं।

सन्दर्भ सूची :
1.https://hi.wikipedia.org/s/fm5/Bhisam Sahni.
2.http://www.bbc.com/hindi/southasia/030712_bhisham_chat_mk.shtml.
3.http://www.bharatdarshan.co.nz/author-profile/10/author10.html.
4.http://gadyakosh.org/gk/भीष्म साहनी.
5.http://bharatdiscovery.org/india/भीष्म साहनी.
6.http://www.bbc.com/hindi/india/2015/08/150815_bhism_sahani_birth_centennery_pm.
7.Frontline,Volume20-issue15,july19-august01,2003,rajendra sharma article -a life of commitment : bhisham sahni.
8.प्रतिनिधि कहानियाँ, भीष्म साहनी,1998, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली.
9.http://www.outlookindia.com/article/trailings-of-a-lonely-voice/220872.
10.http://www,outlookindia.com/article/the-faces-memory-memorys faces/220780.
11.http://www.outlookindia.com/article/the-light-shall-shine-on/220781.
12.दस प्रतिनिधि कहानियाँ, भीष्म साहनी, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष-2005.
13.https://tirchispeling.wordpress.com/ भीष्म साहनी की कहानी कला : संजीव कुमार.


डॉ. पूजा तिवारी ,पी.एच.डी ( हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद, तेलंगाना )
लेखन कार्य : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में शोध-आलेख, कवितायें और अनुवाद प्रकाशित |
मो.- 9559918846 इमेल - tipu1615@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019)  चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा

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