आलेख: भारत में दलित शिक्षा का समावेशीकरण: भ्रम और यथार्थ/ घनश्याम कुशवाहा

  भारत में दलित शिक्षा का समावेशीकरण: भ्रम और यथार्थ
 
विद्या बिन मति गई, मति बिन निति गई,
निति बिन गति गई, गति बिन धन गया,
धन बिन शुद्र पतित हुए,
इतना घोर अनर्थ मात्र अविद्या के कारण हुआ"- ज्योतिबा फुले

नई शिक्षा नीति 1986 की भूमिका में लिखा है मानव इतिहास के आदिकाल से शिक्षा का विविध भौतिक विकास और प्रसार होता रहा हैI प्रत्येक देश अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता को अभिव्यक्ति देने और पनपने के लिए और साथ ही समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए अपनी विशिष्ट शिक्षा प्रणाली विकसित करता हैI लेकिन देश के इतिहास में कभी-कभी ऐसा समय आता है जब मुद्दतों से चले आ रहे उस सिलसिले को एक नई दिशा देने की जरुरत हो जाती हैI आज वही समय हैI”

 प्रत्येक देश या समाज की अभिव्यक्ति या पहचान उस देश और समाज में रहने वाली जनसंख्या की शिक्षा व्यवस्था पर निर्भर करता हैI शिक्षा से हमारा तात्पर्य जिसके द्वारा हमें अपने बारे में, अपने समाज तथा अपने आस-पास की समस्त चीजों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है; तथा जिसके द्वारा हमें अपनी वैज्ञानिक दृष्टिकोण बढ़ाने और वस्तुनिष्ठता का बोध होता है। शिक्षा को परिभाषित करते हुए प्रख्यात समाजशास्त्री इमाइल दुर्खीम लिखते हैं, “शिक्षा अधिक आयु के लोगों द्वारा ऐसे लोगों के प्रति की जाने वाली क्रिया है जो अभी सामाजिक जीवन में प्रवेश करने के योग्य नहीं है। इसका उद्देश्य शिशु में उन भौतिक, बौद्धिक और नैतिक विशेषताओं का विकास करना है जो उसके लिए सम्पूर्ण समाज और पर्यावरण से अनुकूलन करने के लिए आवश्यक है।इस प्रकार दुर्खीम शिक्षा को मानव के भौतिक, बौध्दिक एवं नैतिक विकास तथा पर्यावरण से अनुकूलन का एक साधन मानते हैं।

 जैसा कि हम जानते हैं भारतीय समाज विविधताओं से भरा समाज है जिसमें लगभग प्रत्येक धर्म व संप्रदाय के लोगों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के वर्ग व जातियां पायी जाती हैं। शिक्षा का प्रथम उद्देश्य सभी को समान रूप से बिना भेदभाव किये शिक्षा प्रदान करना हैi अगर भारतीय शिक्षा प्रणाली के अतीत पर प्रकाश डालें तो पाते हैं कि वैदिक युग में शिक्षा का प्रमुख विषय वैदिक साहित्य थाI शिक्षा का मुख्य उद्देश्य वेदों का ज्ञान थाI लेकिन शूद्रों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गयाI शिक्षा, योग्यता एवं रुझान की अपेक्षा जातिके आधार पर दी जाती थीI स्त्रियों को भी शिक्षा से बहिष्कृत रखा गया थाI भारतीय जाति व्यवस्था की संरचना शुद्धता-अशुद्धतातथा विन्यासित असमानतापर आधारित होने तथा शुद्रों की सामाजिक पदक्रम में निम्न स्थिति के कारण उन्हें शिक्षा जैसी व्यवस्था से दूर रखा गया थाI जाति व्यवस्था के दंश को झेलने वाले भीमराव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक एन्नीहिलेशन ऑफ़ कास्टमें जाति व्यवस्था की समाप्ति की बात की हैI उनका मत था कि जाति को समाप्त करने से पहले जाति से सम्बंधित धार्मिक धारणाओं को समाप्त करना होगा जो शास्त्रों में वर्णित हैI सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा देने वाले कारकों में वे शिक्षा को प्रथम स्थान देते हैंI वे कहते हैं शिक्षित बनो, संघर्ष करो और संगठित रहो’I उनके इन सभी प्रयासों के फलस्वरूप समाज में एक चेतना जाग्रत हुई तथा उनके बाद सभी राजनितिक दलों और सरकारों ने दलितों एवं पिछड़ों की शिक्षा के लिए सतत प्रयास कियाI

 बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर का मानना था कि यदि समाज को एक वृक्ष मान लिया जाये तो अर्थनीति उसकी जड़ है, राजनीति आधार, विज्ञान आदि उसके फूल हैं। इसलिए नये समाज की अर्थनीति या राजनीति पर दृष्टिपात करने से पूर्व उसकी संस्कृति की ओर सबसे अधिक ध्यान देना होगा, क्योंकि मूल और तने की सार्थकता तो उसके फूल में है। इसी श्रृंखला में उन्होंने बहिष्कृत हितकारीसभा का गठन कर तेरह शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। उन्होंने समाज की नींव, नारी को, पुरुष के समान सशक्त बनाने का बीड़ा भी उठाया।

 इसी क्रम में थोड़ा और अतीत में जायें तो हमारे बीच एक ऐसे युगपुरुष ज्योतिबा फुले का नाम आता है जो सामाजिक क्रांति के अग्रदूत के रूप में जाने जाते हैंI ऐसे समय में जब भारतीय समाज अनेकों सामाजिक और धार्मिक कुरीतियों के मकड़जाल में फंसा था और स्त्रियों के लिए शिक्षा सर्वथा वर्जित थी, ऐसे में ज्योतिबा फुले ने समाज को इन कुरीतियों से मुक्त करने के लिए बड़े पैमाने पर आंदोलन चलाया। उन्होंने सत्य शोधक समाजनामक संगठन की स्थापना कर देश में जगह-जगह शिक्षा की अलख जगाकर भारतीय जनमानस को शिक्षा के महत्व से परिचय कराया|

 उन्होंने महाराष्ट्र में सर्वप्रथम महिला शिक्षा तथा अछूतोद्धार का काम आरंभ किया तथा पुणे में लड़कियों के लिए भारत का पहला विद्यालय खोला। ज्योतिबा फुले क्रांतिकारी समाज सुधारक थे उन्होंने धार्मिक पाखंड, सामाजिक कुरीतियों एवं अंधविश्वास का पुरजोर विरोध किया। भेदभाव रहित, समानतावादी, सत्यशोधक समाज की स्थापना करने वाले तथा नारी शिक्षा को प्रोत्साहित करने वाले ज्योतिबा फूले का भारतीय समाज सदैव ऋणी रहेगा। बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर महात्मा ज्योतिबा फुले के आदर्शों से बहुत प्रभावित थे और उन्होंने ज्योतिबा फुले को अपना गुरु माना था|

वर्तमान समय में अगर दलित समाज के बीच शिक्षा व्यवस्था पर अध्ययन करें तो पाते हैं कि आजादी के 70 साल के बाद कुछ सुधार के बावजूद भी बृहत् स्तर पर स्थिति दयनीय बनी हुई हैI भारतीय जनगणना 2011 के अनुसार भारत की जनसंख्यास में लगभग 16.6 प्रतिशत या 20.14 करोड़ आबादी दलितों की हैI अगर इनकी शैक्षणिक स्तर की बात करें तो 35% दलित आज भी निरक्षरता की स्थिति में जीवन जीने को अभिशप्त हैंI

 विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफ़ेसर सुखदेव थोराट लिखते हैं कि- आज़ादी से पहले की सामाजिक स्थिति ऐसी थी कि दलित समाज के लोगों को शिक्षा का अधिकार नहीं थाI इसके बाद अंग्रेज़ों के शासनकाल में स्थितियाँ कुछ बदलीं और एक मुक्त शिक्षा व्यवस्था लागू हुईI इससे कुछ लोगों को लाभ मिला थाI आज़ादी के बाद इस बात को स्वीकार किया गया और इस दिशा में नीति बनाने की ज़रूरत भी महसूस की गईI दो तरह की शिक्षा नीति बनाई गईI एक तो इस बात पर आधारित थी कि इतिहास में जो वर्ग शिक्षा से वंचित रहे हैं उन्हें आरक्षण के माध्यम से मुख्यधारा में आने का अवसर दिया जाएI इसे उनकी जनसंख्या के आधार पर तय किया गयाI दूसरी तरह की नीति के तहत ग़रीब और पीछे छूटे हुए लोगों के लिए छात्रवृत्ति, किताबें और अन्य रूपों में आर्थिक मदद जैसी व्यवस्था की गईI”

 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 46 के अनुसार- 'राज्य विशेष सावधानी के साथ समाज के कमजोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जाति/ जनजातियों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों के उन्नयन को बढ़ावा देगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के सामाजिक शोषण से उनकी रक्षा करेगा'। अनुच्छेद 330, 332, 335, 338 से 342 तथा संविधान के 5वीं और 6ठी अनुसूची अनुच्छेद 46 में दिए गए लक्ष्य हेतु विशेष प्रावधानों के संबंध में कार्य करते हैं। मेरा यह मानना है कि दलित एवं पिछड़े वर्गों के लिए शिक्षा, आर्थिक विकास और सामाजिक परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण कारक हैI शिक्षा ही एक ऐसा मूलमंत्र है जिससे हम अपने अतीत के साथ-साथ वर्तमान सामाजिक स्थिति का सहज आंकलन कर सकते हैंI

 कोठारी आयोग भारत का ऐसा पहला शिक्षा आयोग था, जिसने अपनी रिपार्ट में सामाजिक बदलावों के मद्देनज़र कुछ ठोस सुझाव दिए। आयोग ने शिक्षा पर सरकारी व्यय बढ़ाने की बात की थी लेकिन 50 साल गुजर जाने के बावजूद आज भी सकल घरेलु उत्पाद का छह प्रतिशत भी शिक्षा के ऊपर खर्च नहीं किया जाताI समावेशी विकास के तहत इसे 9% प्रतिशत (नाइन इज माइन) करने की बात थी लेकिन अब वो पुरानी बात हो गई हैI वर्तमान केंद्र सरकार के शिक्षा के बजट में कटौती कर अपनी मंशा साफ़ जाहिर कर दी है कि वह शिक्षा के प्रति कितना गंभीर हैI केद्र हो या राज्य सरकार शिक्षा के प्रति गंभीर चिंतन में ज्यादा रूचि न लेना एक गंभीर प्रश्न हैI विश्व में आज ज्ञान एवं सूचनाकी होड़ में भारत कहीं खड़ा नहीं दीखताI

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 24 जुलाई 1986 को भारत की प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित की गई। सामाजिक दक्षता, राष्ट्रीय एकता एवं समाजवादी समाज की स्थापना करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। राष्ट्रीय शिक्षा का मूल मंत्र यह है कि एक निश्चित स्तर तक प्रत्येक बच्चे को बिना किसी जात-पात, धर्म, स्थान, लिंग भेद के,लगभग एक जैसी शिक्षा प्रदान की जायेI

 इस दृष्टि से अगर हम नवोदय विद्यालय, औपचारिक विद्यालय और अनौपचारिक विद्यालय में प्रति छात्र प्रति वर्ष आने वाले खर्च को देंखें तो साफ़ साफ़ पता चलता है कि शिक्षा की तीनों अलग-अलग परतें शैक्षणिक गुणवत्ता की दृष्टि से कितनी असमान हो सकती हैंI ध्यान देने की बात यह है कि नवोदय विद्यालय में प्रति वर्ष प्रति छात्र खर्च (1990 के मूल्य पर आधारित) 10,000 से ऊपर, सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में 700 के आस-पास तथा अनौपचारिक केन्द्रों में 100 के आस-पास हैI यह सोचने वाली बात है कि शिक्षा में लागत के स्तर पर इतना बड़ा अंतर भला किस तरह शिक्षा की एकसमान गुणवत्ता बरक़रार रखेगाI प्रतिभाशाली छात्रों के लिए नवोदय किस्म के विद्यालय की स्थापना वस्तुतः अपनी अवधारणा में ही यह मानकर चलती है कि कुछ बच्चे जन्मजात ही प्रतिभाशाली होते हैं और बाकि के बच्चे जन्म से ही फिसड्डीI इनमें सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक कारकों का योगदान नहीं होताI साथ ही यह अच्छी शिक्षा का हक़ सिर्फ तथाकथित जन्म से ही प्रतिभाशाली माने जाने वाले छात्रों का ही है, बाकि का नहीI

 पियरे बोर्दिऊ ने अपनी पुस्तक सांस्कृतिक उत्पादनमें इसी स्थिति को दर्शाया है, वे कहते हैं कि अभिजन वर्ग के बच्चे अपने पूर्वजों की सांस्कृतिक पूंजी की वजह से पहले ही मजबूत स्थिति में रहते हैं जिसमें उन बच्चों का अपना कोई योगदान नहीं रहता| जबकि राममूर्ति समिति (1990) स्वयं ही यह मानती है कि इसमें समानता और सामाजिक न्याय का प्रश्न जुड़ा है, क्योंकि अधिकतर ग्रामीण बच्चे गरीबी के कारण निम्न स्तर के स्कूलों में ही शिक्षा पाते हैं जिससे उनकी प्रतिभा, रुझान और योग्यता का विकास सीमित हो जाता हैI

 पाउलो फ्रेरे जैसे प्रतिष्ठित शिक्षाविद ने अपने साक्षात्कार में कहा था कि- उनके परिवार के पास प्रायः खाने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं रहता था, इस वजह से वह स्कूल में पिछड़ गएI इन शिक्षाविदों की बातों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि राजनीतिक दलों का इससे कुछ लेना-देना नहीं हैI यही वजह है कि सैद्धांतिक तौर पर तो वे सामाजिक न्याय की बात करते हैं परन्तु इसे जमीनी रूप देने वाले कार्यक्रमों में इसकी झलक नहीं मिल पातीI

 भारतीय जाति व्यवस्था में व्याप्त संकीर्णता और असमानता हमें एक दूसरे से व्यावहारिक और वैचारिक तौर पर अलग करते हैंI लेकिन अगर इस समाज में व्याप्त कुरीतियों और बुराइयों को दूर करने की बात हो तो इसमें भी वैचारिक मतभेद हो सकता हैं| समस्या तो यह है कि आज के शिक्षितों में से कई लोगों को समाज और देश की समस्याओं की समझ ही नहीं हैI हम देखते हैं कि आज भी समाज के शिक्षित वर्ग में समाज और देश की समस्याओं को समझने की सकारात्मक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव हैI शिक्षा के समान अवसर, आर्थिक सुरक्षा, मूल्य आधारित शिक्षा, सामाजिक, सांप्रदायिक और लिंग विभेद जैसी समस्याओं से अवगत कराने वाली शिक्षा-प्रणाली को लागू करने से देश में न केवल शिक्षा के स्तर में सुधार आएगा बल्कि साक्षरता का दर भी बढ़ेगाI जब पूरे देश में एकसमान करप्रणाली लागू की जा सकती है तो एक सामान शिक्षा व्यवस्था क्यों नहीं? प्रयोग में सैद्धांतिक व व्यवहारिक स्तर पर कार्य करना होगा, देश-काल, समय की आवश्यकता के अनुसार दोनों बातों पर एक साथ विचार करना ही समय और समाज की जरुरत हैI

सन्दर्भ सूची:
             एस.पी. कनाल- डॉयलाग्स ऑन इंडियन कल्चर, 1955
             कोठारी कमीशन 1964-66
             जे.पी. सिंह- समाजशास्त्र: आवधान्याए एवं सिद्धांत
             टी.बी. बोटोमोर- समाजशास्त्र
             नई शिक्षा नीति 1986
             पियरे बोर्दिऊ- सांस्कृतिक पुनरुत्पादन
             सुखदेव थोराट- शिक्षा व्यवस्था और दलित समाज


घनश्याम कुशवाहा
सहायक प्रोफेसर-समाजशास्त्र
पंडित दीनदयाल उपाध्याय राजकीय बालिका महाविद्यालय सेवापुरी, वाराणसी

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 30(अप्रैल-जून 2019) चित्रांकन वंदना कुमारी

1 टिप्पणियाँ

  1. पूर्व में लिये गये फैसलों को भी वर्तमान सरकार दरकनार कर विश्वगुरु बनने का ख्बाव देख रही है।सरकार की नीति और नियत में अंतर के साथ वर्तमान शिक्षा नीति के स्वरूप से आने वालो परिणामो का आंकलन करता तथ्यपूर्ण आलेख!
    सादर धन्यवाद सर

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