आलेखमाला : शिक्षा में नवाचार/ डॉ. अंबुजा एन. मलखेडकर 'सुवना'

                                        शिक्षा में नवाचार

शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जो मानव के सर्वांगीण विकास के लिए उपयोगी और अत्यावश्यक विधा है। एक व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में शिक्षा और शिक्षक दोनों भी बहुत ही महत्वपूर्ण पात्र निभाते हैं। कहते हैं 'काला अक्षर भैंस बराबर' बस इसी को नकारते हुए अक्षरों का ज्ञान देना जरूरी है और इसके ज्ञान से कहीं कई गलत कामों को रोका जा सकता है और व्यक्ति राह नहीं भटकता है। आज के भ्रष्टाचार शोषण आतंकवाद की दुनिया में हमें शिक्षा में नवाचार लाना अनिवार्य हो गया है।आज शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। शिक्षा मात्र रुपए कमाने की एक जरिया बन के रह गया है इसीलिए आज की शिक्षा में क्या-क्या विषय होनी चाहिए इस पर एक बार फिर से हम सबको सोचना है।

शिक्षा का शाब्दिक अर्थ : ‘शिक्षाशब्द को तीन अर्थों में प्रयुक्त करते हैंज्ञान, विषय और प्रक्रिया शिक्षा शब्द की उत्पत्तिशिक्षाधातु से हुई है। जिसका अर्थ है सीखना, विद्या प्राप्त करना या ज्ञान ग्रहण करनाविद्याशब्द का प्रयोग भी शिक्षा के अर्थ में किया जाता है।विद्याशब्द की उत्पत्तिविदधातु से हुई हैविदशब्द से हीविद्वानशब्द बना है जिसका अर्थ है जानने वाला अर्थात ज्ञान के चरम सीमा तक पहुंचना। विद्या से तात्पर्य किसी विशिष्ट ज्ञान में ही पूर्णता या दक्षता करना है। जबकि शिक्षा से तात्पर्य ज्ञान के समग्र रूप से है

शिक्षा की परिभाषाएं
 श्रीमद भगवतगीता: “आत्मज्ञान एवं पुरुष का ज्ञान करना ही शिक्षा है।’’
 विवेकानंद: “ मानव की अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति ही शिक्षा है।’’
 महात्मा गांधी जी:  “व्यक्ति, शरीर मस्तिष्क तथा आत्मा का सर्वोत्तम विकास करना  है।’’

यहां समग्र रूप से विकास करना अर्थात संस्कार, नैतिक मूल्य, सामाजिक मूल्य, खेलकूद, कला, संगीत, नृत्य, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता, निस्वार्थ सेवा, मनोभाव का विकास आदि सभी आते हैं।
अगर हम इतिहास के पन्नों को पलट कर देखते हैं तो ऐसे महान व्यक्तियों का परिचय मिलता है जो इन सब में परिपक्व थे। इसीलिए अनेक राजाओं के आस्थान में बड़े-बड़े विद्वानों को स्थान मिला था वैसे आज के जैसे तब कोई व्यक्तित्व विकास के विशेष प्रशिक्षण महाविद्यालय नहीं थे बी.एड था ने पी.एच.डी था लेकिन फिर भी इनमें ज्ञान की कोई कमी नहीं थी इसका श्रेय संस्कार को जाता है और संस्कार परिवार, समाज से ही मिलती है और यह समाज व्यक्ति व्यक्ति से बनता है इसीलिए व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होना अत्यावश्यक है। आज की शिक्षा में इसी की कमी है, यहां बच्चों को अपनी रुचि के अनुसार पढ़ने के लिए सीखने के लिए अवकाश दिया नहीं जा रहा है। परिवार और महाविद्यालयों का अधिक से अधिक अंक लेकर उत्तीर्ण होने का दबाव विद्यार्थियों पर अधिक बढ रहा है। शिक्षा में नवाचार लाना है तो सबसे पहले हमें बच्चों को दस वर्ष पूर्ण होते ही उनके रूचि के अनुसार विषयों को चुनकर पढ़ने की प्रेरणा, सहकार देना चाहिए और ऐसी शिक्षण व्यवस्था लानी चाहिए।

आज का समाज प्रगतिशील समाज है इसलिए आधुनिक दौर में शिक्षा को अनेक अर्थों में लिया गया है। जैसे व्यक्तित्व का विकास, नेतृत्व का विकास, मानवीय भावना, तार्किक शक्ति का विकास, व्यावसायिक सफलता, प्रजातांत्रिक नागरिकता का विकास, सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूकता, सामाजिक परिवर्तन के प्रति दृष्टिकोणआध्यात्मिक मूल्यों का विकास।
उपरोक्त सभी का विकास आज की शिक्षा में नहीं है अगर होते तो भ्रष्ट राजकीय, भ्रष्ट नेता, भ्रष्टाचार, लैंगिक भेदभाव, शोषण, आतंकवाद, जातिवाद बढ गये हैं एक समय था बच्चों को वीरता, नैतिक मूल्यसेवाभक्ति, मानवीयता से संबंधित कहानियों को सुनाया जाता था, पर आज कंप्यूटर, फेसबुक, व्हाट्सएप इंस्टाग्राम, यू ट्यूब से आकर्षित होने के कारण मानसिक, शारीरिक विकास गिरता जा रहा है

इसलिए बच्चों को अधिक से अधिक खेल-कूद, संगीत, नृत्य, कला में अगर व्यस्त रखते हैं तो उन्हें इन्हें देखने के लिए समय नहीं मिलता है पर अभिभावकों में समय की कमी है इसलिए वह हाथ में मोबाइल थमाकर बच्चों का सर्वांगीण विकास कर रहे हैं। रही आध्यात्म की बात मेरे अनुसार दस प्रतिशत भी इसका विकास नहीं हो रहा है। आज की शिक्षा व्यवस्था में अध्यात्म की भी एक पाठ्यक्रम होना चाहिए जिससे बच्चों का मन मस्तिष्क, अच्छे विचारों का विकास हो और आपसी प्रेम, विश्वास एक दूसरे के प्रति सम्मान के गुण विकसित हो और रिश्ते मजबूत हो।

किसी भी विषय को लिखने के लिए जानकारी का होना आवश्यक है, पर आज विद्यार्थी स्वयं की ज्ञान से लिखने में असमर्थ है उन्हें रेडीमेड फ़ूड चाहिए। वे सिर्फ जो शिक्षक लिखवा देते हैं उतना ही पढ़ कर लिखते हैं। पुस्तकालय जाकर अधिक से अधिक पुस्तक पढ़ने की इच्छा या आदत आज के विद्यार्थियों में बहुत कम दिखाई देती है। उनके पास जिम, पिक्चर, वीडियो गेम के लिए समय है लेकिन अच्छे-अच्छे पुस्तक, महान व्यक्तियों  के चरित्र, पढ़ने की उत्सुकता या इच्छा नहीं है।

अगर हम अपने पूर्वजों को देखते है तो वे लोग चार-पांच भाषाओं में उनकी पकड़ थी। जैसे कबीर, सूर, तुलसी, महादेवी वर्मा, रविंद्र नाथ टैगोर, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुभद्रा कुमारी चौहान, अनेक विद्वान, लेखक है जो बंगाली, हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत पांच भाषा में उनकी पकड़ थी। आज भी इनका साहित्य हम सबको प्रेरित करता है। इनकी दृष्टि इनके विचार, प्रकृति ,समाज के ओर इनका ध्यान आज के व्यक्तियों में बहुत कम दिखाई देते हैं।

आज की पढाई मे एक और कमी है तो व्याकरण, शब्द रचना वाक्य रचना का संपूर्ण ज्ञान होना।आज हम जिस भाषा में लिखते हैं, बात करते हैं, पढ़ते हैं, उसकी मूल जो व्याकरण है उसी की जानकारी हमें नहीं रहती है। यही एक मूल कारण है जिससे बच्चे लिख नहीं पाते हैं. बच्चों में शब्द भंडार की कमी है। शब्द समूह, शुद्ध लिखावट, शुद्ध बोलने के लिए अधिक से अधिक पुस्तकों को पढना अनिवार्य है। आज मात्र लिंग बदलिए, वचन बदलिए ,काल बदलिए छोड़कर अन्य व्याकरण की जानकारी दी नहीं जाती हैं। अगर प्राथमिक स्तर में पहली कक्षा से लेकर सातवीं कक्षा तक बच्चों को राष्ट्रभाषा मातृभाषा के साथ-साथ अंग्रेजी व्याकरण की पूरी जानकारी देकर शब्द जोड़, वाक्य रचना, शब्द भेदसंधि, समास, अलंकार आदि को सिखा देंगे तो बच्चे बहुत सुंदर लिख पाते हैं अपने विचारों को व्यक्त कर पाते हैं तब उन पर दबाव डालने की जरूरत नहीं पड़ती है।

बच्चे जब स्वयं विषय को पढकर समझकर लिखते है तो अनुत्तीर्ण होने की संभावनाएं कम रहती है। इसीलिए मैं चाहती हूं कि बच्चों को पहली कक्षा से लेकर सातवीं कक्षा तक व्याकरण में सहज बना देनी चाहिए तब जाकर उत्तम साहित्य की निर्माण हो सकता है और साहित्य ही समाज का आईना होता है।
                         मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान को एक।
                          पालै पोसै सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।’’
                        “ तुलसी साथी विपत्ति के विद्या विनय विवेक।
                          साहस सुकृति सुसत्यव्रत राम भरोसो एक।।

उपरोक्त तुलसी के दोहे से यह ज्ञान मिलता है कि हमें विद्या से क्या-क्या लाभ है और हम में क्या-क्या गुण और किस तरह के होने चाहिए। ऐसे कईं कविताएं, दोहे कहानियां हैं जिन को पढ़ाना आज अत्यावश्यक हो गया है।

आज कृषि करने की भी रुचि बहुत कम हो गई है इसीलिए कृषि का महत्व बच्चों का बताना जरूरी है। हर कोई बड़े-बड़े शहर जाकर कमा कर ए सी में बैठना चाहता है पर बिना अनाज के ए सी में भी हम बैठ नहीं सकते इसीलिए अब कृषि की भी प्रौढ़ और प्राथमिक स्तर पर ही ज्ञान देना जरूरी है।
 अंत में मैं इतना ही कहना चाहूंगी कि आज की शिक्षा व्यवस्था में सत्य, अहिंसा मार्ग को अपनाने की प्रेरणा, नैतिक मूल्य, सामाजिक मूल्य कला ,संगीत, नृत्य, कृषि, पानी, पर्यावरण की रक्षा के साथ- साथ व्यावहारिक गुण व्याकरण इन सब के बारे में प्राथमिक स्तर पर ही अधिक से अधिक जानकारी देकर उसका विकास करना आवश्यक है। इससे ही सुंदर ,स्वस्थ समाज का, विचारों का निर्माण हो सकता है।

डॉ. अंबुजा एन. मलखेडकर 'सुवना'
कर्नाटक

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट
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