परिप्रेक्ष्य: शिक्षा में बदलाव की भूमिका एवं शिक्षक / प्रियंक श्रीवास्तव

                                              शिक्षा में बदलाव की भूमिका एवं शिक्षक

शिक्षा  में  लगातार  हो  रहे  नवाचारों  ने  शिक्षकों  की  शिक्षा  व्यवस्था  में  भूमिका  को  बदल  कर  रख  दिया  है। शिक्षकों की चिरपरिचित "गुरुकी पहचान धूमिल सी होती जा रही है। गुरु से वेतन भोगी शिक्षक और अब सुविधाप्रदाता, सहजकर्ता, फैसिलिटेटर और ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में सहयोगी जैसी शब्दावलियां प्रचलित हो गयी है। एक शिक्षक होने के  नाते यह  बदलाव  अकसर  हमारे  लिए  चिंता  का  विषय  बन  जाता  है।  सवाल  यह  है कि  हमें  क्या  करना  चाहिएक्या  इन बदलावों को बिना सोचे समझे ऐसे ही स्वीकार कर लिया जाये? क्या इन बदलावों को किसी खास वर्ग/राष्ट्र की साजिश मानते हुए इसका कठोर प्रतिकार किया जाये? या इन बदलावों के पीछे के वैज्ञानिक/मनोवैज्ञानिक/सामाजिक/दार्शनिक आधारों को समझते हुए स्वयं को नयी भूमिकाओं के लिए तैयार किया जाये

मानव  सभ्यता के विकास के विभिन्न  काल खंडों  में  सीखना-सिखाना  किसी न  किसी  रुप में  होता  रहा है  यह शिक्षा  के सायास प्रयास के रुप में कब तब्दील हुआ इसका कोई ठीक-ठीक प्रमाण नही मिलता। ऐतिहासिक काल खंडों पर नजर दौडाये तो पता चलता है कि शिक्षा का कर्म और उसके उद्देश्य हमेशा एक जैसे नही रहे हैं।  हमेशा से ही तात्कालिक समाज  की  आश्यकताओं  एवं  प्रारुपों  ने  शिक्षा  और  उसकी  जरुरतों  को  अपने  अनुरुप  गढने  की  कोशिश  की  है।  प्राचीन भारत  में  शिक्षा  के  अवसर  सीमित  थे।  यह  कुछ  खास  वर्गों/परिवारों  तक  ही  उपलब्ध  थी।  इस  शिक्षा  का  उद्देश्य  भी अत्यन्त संकुचित था। नीतिशास्त्र (राज्य संचालन हेतु आवश्यक), युद्ध कौशल, अर्थशास्त्र की शिक्षा प्रमुख रुप से दी जानती थी।  विभिन्न  समुदायों  के  परम्परागत  व्यवसाय/कला  और  कौशलों  को  अगली  पीढी  में  हस्तान्तरित  करने  की  व्यवस्था समुदाय/परिवार स्वयं करता था। शिक्षा की प्रक्रिया में किताबों का स्थान नगण्य था। शिक्षा मौखिक विधा पर आधारित थी। गुरु जो कुछ भी बोलता था शिष्य को वह वैसे ही कंठस्थ करना पडता था। मंत्रों आदि के बार-बार रटने पर जोर दिया जाता था। किताबों का मुद्रण और उपलब्धता न होने की वजह से ज्ञान के लिए गुरु ही एक मात्र सहारा (ज्ञान का श्रोत) था। राज्य गुरुओं के भरण पोषण की जिम्मेवारी उठाता था लेकिन विद्यार्थीयों को क्या सिखाना है, कैसे सिखाना है, कितने समय में सिखाना है आदि विषयों में राज्य का कोई सीधा हस्तक्षेप नही होता था। शिक्षक/गुरु राज्य का वेतनभोगी कर्मचारी  न  होकर  ज्ञान  के  साधक  के  रुप  में  कार्य  करता  था।  गुरु  का  जीवन  अत्यन्त  ही  सामान्य  एवं  भौतिक  सुख सुविधाओं से परे था। 

मध्यकाल आते-आते शिक्षा समुदाय आधारित कर्म न रहकर धर्म आधारित कर्म बन गयी। शिक्षा के मुख्य केन्द्र चर्च, मठ, आश्रम आदि हो गये। धर्म का प्रचार प्रसार एवं धर्मिक मूल्यों के जरिये सामाजिक क्रियाशीलता को बनाये रखना शिक्षा के केन्द्र  में  दिखने  लगा।  मोक्ष  की  प्राप्ति  विद्याध्ययन  का  मुख्य  उद्देश्य  बन  गया।  शिक्षा  ग्रहण  करने  के  लिए  जिन  कठोर नियमों  और  व्यवहारों  की  पालना  करनी  पडती  थी  उसने  एक  बडे  वर्ग  को  इस  दौर  में  भी  शिक्षा  से  दूर  रखा।  धार्मिक अनुष्ठानों, कर्मकांडों  आदि की शिक्षा प्रमुखता से प्रदान की जाती थी। कुछ संस्थानों की स्थापना उच्च शिक्षा  केन्द्रों के रुप में  हुई  जिसमें धर्म  दर्शन  एवं  राजनीतिशास्त्र जैसे विषय  भी शामिल किये  गये। यहाँ भी शिक्षकों/गुरुओं  का  जीवन अत्यन्त साधरण एवं कठोर धार्मिक प्रतिबद्धताओं को पालन करने वाला होता था। गुरु स्वाध्याय एवं कठोर तप द्वारा ज्ञान का अर्जन करता था। गुरुओं को राज्यों का संरक्षण  अवश्य प्राप्त था परन्तु राज्य का कोई औपचारिक हस्तक्षेप शिक्षा की प्रक्रियाओं में नही दिखता है।
  
भारत के ब्रिटिश उपनिवेश बनने से पहले यदि शिक्षा के उद्देश्यों, प्रक्रियाओं एवं शिक्षा के तौर तरीको को  देखें तो पता चलता है कि शिक्षा और शिक्षण का कर्म अपने विभिन्न स्वरुपों में मौजूद तो था परन्तु उसका कोई व्यवस्थित सर्वसुलभ औपचारिक ढांचा नही दिखता है। ब्रिटिश पूर्व शिक्षा के बारे कुछ सामान्य बातें कहीं जा सकती हैं-

Ø  शिक्षा भले ही सबके लिए उपलब्ध रही हो लेकिन उस तक सभी की पहुॅच नही थी न ही उसे सभी तक पहुँचाने का कोई सायास प्रयास राज्य या समुदाय द्वारा किया गया था।
Ø  शिक्षण व्यवस्था में गुरु ही ज्ञान का श्रोत होता था, पुस्तको की भूमिका नगण्य थी।
Ø  विद्याध्ययन का लक्ष्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी न होकर जीवन की तैयारी/मोक्ष की प्राप्ति था।
Ø  शिक्षण प्रक्रिया में रटने और बार-बार अभ्यास करने को महत्व दिया जाता था। गुरु ज्ञान प्रदाता और शिष्य अर्जक होता था।
Ø  गुरु राज्य का वेतन भोगी कार्मिक न होकर स्वैच्छिक ज्ञान दाता के रुप में समाज  सेवा के उद्देश्य से शिक्षण कर्म करता था।

ब्रिटिश औपनिवेश की जडें जैसे-जैसे भारत में फैलती गयी वैसे-वैसे शासक वर्ग ने कार्य संचालन की नयी आश्यकताओं को जन्म दिया। ब्रिटिश कम्पनी के अधीन भारत में औपचारिक और लिखित कानूनों का आना, अदालतों एवं पुलिस की व्यवस्था, समाज में विभिन्न प्रकार के कामों का उदय, अलग तरह की कर प्रणाली और उसको लागू करने के लिए ढांचों का  विकास  आदि  ऐसी  प्रक्रियाऐं  थीं  जिसने  एक  खास  तरह  के  कार्मिकों  की  मांग   पैदा  की।  यह  मांग   ऐसे  आज्ञाकारी नागरिक  तैयार  करने  की  थी  जो  ब्रिटिश  कानूनों  और  प्रक्रियाओं  के  प्रति  वफादार  होजो  कम्पनी  के  कामों  और  उसके आदेशों को शिद्दत से लागू करने में अपनी भूमिका निभा सके  और शासन संचालन में सहयोगी हों। इस आश्यकता ने शिक्षा का नियोजन भी इन्ही उद्देश्यों के इर्द गिर्द किया। इस काल ख ड में पहली बार राज्य द्वारा शिक्षा के लिए सायास और संगठित प्रयास शुरु किये गये शिक्षा के लिए वित्त का निर्धारण, संस्थानों की स्थापना, शिक्षकों की नियुक्तियां आदि के साथ ही साथ भारतीयों को कैसी और किस माध्यम से शिक्षा दी जाय इसकी बहस शुरु हुई। राज्य का दखल शिक्षा में औपचारिक एवं संस्थागत रुप से बढ गया। ऐसे में शिक्षक समाज से ज्यादा राज्य के प्रति उत्तरदायी हो गया। वर्तमान शिक्षा  व्यवस्था  में  कठोर  और  समयबद्ध  परीक्षा  प्रणालीफेल-पास  जैसी  व्यवस्थाकालांशनिरीक्षण  एवं  अनुश्रवण  की व्यवस्था बहुत कुछ इसी समय की देन है।

आजादी के बाद जब भारतीय संविधान लागू हुआ तो उसमें एक खास तरह के समाज को बनाने और और उसके लिए नागरिकों को तैयार करने की संकल्पना रखी गयी। यह  संकल्पना न्याय, समता, पंथनिरपेक्षता, भाइचारा जैसे संवैधानिक मूल्यों  वाले  समाज  की  थी।  शिक्षा  का  उद्देश्य  ऐसे  विचारवान  नागरिक (Critical Thinker) तैयार  करना  हो गया  जो इस तरह के समाज में सक्रिय भूमिका (Active Citizen) का निर्वहन कर सके। भारतीय संविधान ने आगे चलकर देश के  सभी  नागरिकों  को  शिक्षा  प्राप्त  करने  का  अधिकार  प्रदान  किया  तथा  सरकार  को  वैधानिक  रुप  से  6  से  14  वर्ष  के बालकों  को  अनिवार्य  शिक्षा  प्रदान  करने  के  लिए  बाध्य  किया।  आजादी  के  बाद  भले  ही  एक  लम्बा  समय  इस  बात  को कानूनी मान्यता प्रदान करने में लग गया लेकिन इस निर्णय ने हमारे स्कूलों की तस्वीर को बदल के रख दिया। ऐसा नही है कि इसके पहले सभी वर्गों के बच्चे स्कूल नही आ रहे थे लेकिन इस वैधानिक अनिवार्यता के चलते इस बात के सायास और गम्भीर प्रयास किये जाने लगे कि वंचित तबके के बच्चों को स्कूलों से जोडा जाय। इन प्रयासों से हमारे कक्षा-कक्ष में विविध जाति वर्ग के बच्चों की भरमार हो गयी। इसमें से अधिसंख्य बच्चे ऐसे हैं जिनकी पहली पीढी स्कूल आ रही है

या जिनके माता-पिता पहली दूसरी कक्षा तक ही पढे लिखे हैं। वर्तमान में हमारी कक्षाओं का ये स्वरुप यह सवाल खडा करती हैं कि-

     Ø  एक ऐसी कक्षा जहाँ विभिन्न धर्मों, जातियों और आयवर्ग से आने वाले बच्चे हो एक शिक्षक से किस प्रकार के आचार व्यवहार की मांग करती है ?
    Ø  एक ऐसी कक्षा में शिक्षकों की क्या भूमिका हो जहाँ ऐसे परिवार से बच्चे आते हों जिन परिवारों की प्राथमिकता शिक्षा के बजाये जीविका चलाना हो ?
     Ø  ऐसी कक्षा जिसमें ऐसे बच्चे शामिल हों जिनके परिवार आजिविका के लिए एक जगह से दूसरी जगह हमेशा या थोडे समय के लिए पलायन करते हैं, किस तरह की शैक्षणिक  प्रक्रिया और ढांचे की मांग करती है ?
   Ø  क्या इन परिस्थितियों में वैसे ही शिक्षकों की आवश्यकता है जैसे प्राचीनकाल, मध्यकाल या आजादी से पूर्व थी ? उपरोक्त सवालों से ज्यादा मौजूं सवाल यह है कि एक शिक्षक होने के नाते हम  पहले से भिन्न इस  परिस्थिति में कार्य करने के लिए स्वयं में बदलाव लाने को तैयार हैं या नही ? यदि नहीं तो इस सरकारी व्यवस्था में हमारे होने का मतलब क्या है ?

अब जरा अपने कक्षा के बच्चों की सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों से इतर नजर उनके बचपन पर डालते हैं। पिछले कुछ वर्षों में न जाने कहाँ से हमारे दिमाग में इस बात ने पैठ बना ली है कि यदि बच्चों का भविष्य बेहतर बनाना है तो छोटी उम्र से ही उनको कठिन परिश्रम के लिए तैयार किया जाना चाहिए। मध्यम वर्गीय और निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों में इस समझ  का  ठीकरा  बच्चों  के  उपर  फूटता  है  3  वर्ष  तक  होते  होते  बच्चा  किसी  न  किसी  स्कूल  का  हिस्सा  हो  जाता  है। सरकारी स्कूलों में भले ही  आयु  की निर्धारित सीमा 6 वर्ष हो लेकिन वहां  भी छोटे बच्चे विद्यालय में दिख ही जाते हैं। जिन स्कूलो में आंगनबाड़ी  है वहां छोटे बच्चों का होना लाजमी है। बच्चों का कम उम्र में स्कूल में धकेल दिये जाने का एक  प्रमुख  कारण  संयुक्त  परिवार  का  विघटन  भी  है  जिन  परिवारों  में  पति  पत्नी  दोनों  ही  काम  पर  जाते  हैं  (नौकरी  या मजदूरी) वे छोटे बच्चों को इस आशय से भी स्कूल छोड आते है या बडे बच्चों के साथ भेज देते हैं कि कम से कम वहां उनकी देख भाल हो जायेगी। वैसे भी अगर अपनी एक पीढी उपर के बारे में तुलनात्मक रुप से देखें तो पता चलता है कि पहले की तुलना में कम उम्र के बच्चे स्कूल आ रहे हैं, खेलने और बचपन जीने की उम्र में बच्चों को स्कूल में ढकेल दिया  जा  रहा  है।  सवाल  ये  है  कि  क्या  शिक्षण की  ऐसी  प्रक्रियायें  जो  तुलनात्मक  रुप  से  थोडी  ज्यादा  उम्र  और  थोडा ज्यादा परिपक्व दिमाग वाले बच्चों के लिए इस्तेमाल की जाती थी वही इन छोटी उम्र और सामाजिक रुप से कम परिपक्व बच्चों के साथ की जा सकती हैं? उदाहरण के तौर पर स्कूल में पढाई के घंटे, बैठक व्यवस्था, कठोर अनुशासन, पहले ही दिन से ही वर्णों और गिनतियों को लिखना पढना, अच्छे बच्चे की तरह व्यवहार (अच्छे बच्चे की परिभाषा या तो अस्पष्ट होती है या उसका मतलब ऐसे व्यहार से होता है जैसा वयस्क करते हैं) की अपेक्षा आदि।

 संयुक्त परिवारों के विघटन ने एक और चुनौती को जन्म दिया है। जो बच्चे  परिवार के सदस्यों (दादा-दादी, अन्य छोटे बडे भाई बहनों आदि) की देखभाल में बडे होते थे उनका भावनात्मक और संवेगात्मक पक्ष स्कूल आने से पहले तुलनात्क रुप से अधिक परिपक्व होता था। अपने साथ के दूसरे बच्चों के साथ खेलने, उनके साथ अपनी बातों को साझा करने के अवसर अब सीमित हुए हैं जिसके चलते बच्चों के बचपन में एकाकीपन, कुंठायें पनप रही हैं। ऐसे में स्कूल बच्चों के लिए जरुरत से ज्यादा मजबूरी बनता जा रहा है। क्या ऐसा महसूस नही होता कि एकल परिवारों से आने वाले इन बच्चों के प्रति पहले के बच्चों की तुलना में ज्यादा संवेदनशील और लचीला होने की आवश्यकता है?

 यदि हम अपने बचपन को याद करते हुए आज के बच्चों के बचपन से उसकी तुलना करें तो यह समझ में आता है कि आज का बचपन वैसा नही रहा जैसा हमारा बचपन था। पिछले कुछ वर्षों में आधुनिकता और तकनीकी ने अपना विस्तार किया  है  और  गाँव  तक  विभिन्न  रुपों  में  उसकी  पहुँच बनी  है।  बाजार  खुद  चलकर गाँवों  तक  पहुँच   रहा  है।  बिजली, टेलीविजन और मोबाइल की घरों के अन्दर पहुँच ने बच्चों के बचपन में आमूलचूल परिवर्तन किया है। आधुनिक खिलौनों और संचार यंत्रों ने बच्चों के संज्ञानात्मक स्वरुप को बदल दिया है। अब वो देश दुनिया के बारे में, भाषाई अनुभव के बारे में, कुछ  खास तरह के कौशलों के बारें में पहले  के बच्चों से भिन्न समझ के साथ स्कूल पहुँच रहे हैं।  यहाँ  सवाल यह उठता है कि यदि हमारे और हमारे बच्चों (हमारे स्कूल के बच्चे) के बचपन, उनकी परवरिश, उनके लिए उपलब्ध अवसरो (ज्ञान और दुनिया से जुडने) में इतनी सारी भिन्नतायें हैं तो उनको पढाने वाले शिक्षकों के कार्य व्यवहार में किस प्रकार के बदलाव की जरुरत है ?

 हम में से अधिकांश शिक्षक अब इस बात से सहमत दिखते हैं कि बच्चें खाली घडा नही होते। बच्चें जब स्कूल आते हैं तो उनके पास अपने अनुभवों की एक दुनिया होती है। इस अनुभव में भाषा , गणितविज्ञान सबके लक्षण विद्यमान होते हैं। बच्चों  के  बारे  में  हमारी  समझ  में  आया  यह  बदलाव  बहुत  पुराना  नही  है।  अभी  भी  समाज  में  बच्चों  को  अबोधअज्ञानी, नासमझ, कच्चा घडा, कोरी `स्लेट, सादा कागज जैसा समझा जाता है। हमारी समझ में आये इस बदलाव ने सीखने की तमाम पारम्परिक विधाओं को बदलने पर जोर देना शुरु किया है। मसलन बच्चों के साथ भाषा शिक्षण  की शुरुआत वर्णों से न करके सार्थक संदर्भों के साथ की जाये, गिनती गिनना 1, 2, 3 के बजाय ठोस वस्तुओ के साथ शुरु हो, रटने के बजाय समझने पर जोर दिया जाय............ आदि आदि।

 आइये थोडा इस बात को समझने का प्रयास करते हैं कि हमारे शिक्षण के तौर तरीको में बदलाव की इतनी जोर जुगत क्यो की जा रही है ? आखिर जिन तरीको से हमने सीखा था या जिन तरीको से हमारे गुरुजी ने हमें सिखाया था उन्हें अब क्यों बदल देना चाहिए ? हम सभी यह जानते हैं कि समाज विकास के क्रम में विज्ञान और मनोविज्ञान ने आज काफी प्रगति  कर  ली  है।  वैज्ञानिक  लगातार  मानव  मष्तिष्क  की  कार्य  प्रणाली  को  समझने  का  प्रयास  करते  आ  रहे  है।  इन वैज्ञानिक/मनोवैज्ञानिक खोजों ने सीखने के बारे में हमारी मान्यताओं को भी  बदलने का प्रयास किया है। एक  समय में मनोवैज्ञानिकों का एक खास समूह यह मानता था कि बच्चों का मस्तिष्क कोरी स्लेट (Tabula Rasa) की तरह होता है और शिक्षक जैसे चाहे वैसे ज्ञान की इबारत इस पर लिखकर बच्चे के व्यवहार में वांक्षित परिवर्तन कर सकता हैं। बच्चों के बारे में इस तरह की मान्यता के चलते शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षकों की भूमिका दाता और छात्रों की भूमिका ग्राही के रुप में होती थी। दंड, भय, पुरस्कार आदि इस प्रक्रिया में मददगार की भूमिका निभाते प्रतीत होते थे जिनके प्रयोग से शिक्षक एक नियंत्रित वातावरण में पूर्व निर्धारित प्रक्रियाओं द्वारा बच्चों के व्यवहार में परिवर्तन लाता था। चूँकि मान्यता ही यही थी कि  बच्चे  अनुभवहीन  होते  हैं  अतः  उनके  ज्ञान/पूर्व  अनुभवों  को  शिक्षण  में  कोई  विशेष  स्थान  नही  था।  इस  मान्यता  पर आधारित शिक्षण प्रक्रिया रटन्त और बार-बार अभ्यास पर निर्भर थी।

बच्चे के मस्तिष्क  और  सीखने सिखाने की  प्रक्रिया का अध्ययन करने वाले कुछ  अन्य  मनोवैज्ञानिकों  ने उपरोक्त  मान्यता का  खंडन   करते  हुए  दो  प्रमुख  बातों  की  तरफ  लोगों  का  ध्यान  खींचा।  इन  मनोवैज्ञानिकों  का  मत  था  कि  बच्चे  केवल निरपेक्ष ग्राही ही नही होते बल्कि वे संज्ञानात्मक रुप से सक्रिय होते है। कहने का तात्पर्य यह था कि बच्चों को जब कोई ज्ञान शिक्षक देता है तो उसे वैसा ही ग्रहण  नही करते बल्कि उसे अपने पूर्व के अनुभवों के आधार पर जोडते तोडते हुए नये ज्ञान का उत्पादन करते है या यूँ कहें कि अपनी समझ बना रहे होते हैं। यहाँ  बच्चों का संज्ञानात्मक रुप से सक्रिय होना तथा सीखने में उसके पूर्व के ज्ञान की भूमिका को महत्व दिया गया। बच्चों और सीखने के बारे में  इस मान्यता ने सीखने सिखाने की प्रक्रिया में मूर्तता-अमूर्तता, ज्ञात-अज्ञात, सामाजिक परिवेश आदि कारकों को चिन्हित किया। यही वो मान्यता थी जिसने वर्णों से शिक्षण कराने के बजाय परिवेश के ज्ञात अर्थपूर्ण शब्दों के जरिये भाषा शिक्षण पर जोर देना शुरु किया।

 सीखने के बारे में यह मान्यता और परिष्कृत हुई और मनोवैज्ञानिकों ने सीखने के जन्मजात क्षमताओं तथा उपलब्ध सूचनाओं एवं अनुभवों के आधार पर ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया पर बात करनी शुरु की। विषेशकर भाषा सीखने के बारे में मनोवैज्ञानिकों ने समझा कि भाषा सीखी नही बल्कि अर्जित की जाती है। अर्थात बच्चा जिस भी भाषाई परिवेश में होता है उस भाषा को स्वतः ही अर्जित कर लेता है। यहाँ पुनः सीखने की प्रक्रिया में सामाजिक परिवेश, जन्मजात क्षमताओं एवं अनुभवों के आधार पर ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया को देखा जाने लगा।

 बच्चों  और  सीखने  की  प्रक्रिया  के  बारे  में  मनोवैज्ञानिक  खोजों  ने  हमारी  मान्यताओं  में  जो  परिवर्तन  किया  उसकी  झलक हमारे  कक्षा-कक्ष  की  प्रक्रियाओपाठ्यपुस्तकोआदि  में  दिखनी  शुरु  हो  गयी।  राजस्थान  राज्य  की  पिछली  तीन  पाठ्य पुस्तकों आनन्द  पोथी, रुन्झुन  और  वर्तमान  पाठ्य  पुस्तक  में  इस  अन्तर  को और बेहतर तरीके से समझा  जा सकता  है। उपरोक्त  खोजों  के  अतरिक्त  मनोस्नायुविज्ञान  ने  मानव  मस्तिष्क  पर  किये  गये  अध्ययनों  ने  प्रमाणित  किया  है  कि दंड, भय, प्रलोभन आदि का सीखने सिखाने की प्रक्रिया में नकारात्मक प्रभाव पडता है। सीखने के सैद्धान्तिक समझ में बदलाव का उपरोक्त इतिहास ही शिक्षकों की भूमिका में परिवर्तन का असल कारण जान पडता है।

केवल बच्चों के बचपन, व्यवहार और सीखने के बारे में ही हमारी समझ में परिवर्तन नही आया है बल्कि ज्ञान और इसके निर्माण की प्रक्रिया के बारे में मान्यतायें पिछले कुछ वर्षों में बदली हैं। अब ज्ञान सूचनाओं का संग्रहण और उसके आधार पर कुछ तथ्यों को गढ लेना भर नही है। आइये इसको एक उदाहरण के जरिये समझते हैं। विभिन्न स्कूलों में जब कोई बाहरी व्यक्ति/अधिकारी आते हैं (बहुत समय आन्तरिक जाँच में भी) तो बच्चों को पहाडे सुनाने, गिनती सुनाने, जिलों के नाम बताने, राज्यों की राजधानियों के नाम बताने आदि जैसे प्रश्न पूछे जाते हैं। इन प्रश्नों के ठीक उत्तर दे देने पर यह मान लिया जाता है कि बच्चों का स्तर ठीक है। सामान्य तौर पर इतिहास शिक्षण में तिथियों और घटनाओं के पात्रों का नाम रट लेने को ही इतिहासबोध समझ लिया जाता है। अधिकांश स्कूली और प्रतियोगी परिक्षाओं के प्रश्नपत्र भी ऐसे ही बनाये जाते थे कि बच्चे रटी गयी सूचनाओं को बता सकें। ऐसा नही है कि सूचनाओं, तथ्यों का ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में कोई भूमिका नही है लेकिन सूचनाओं और तथ्यों का भंडार ही ज्ञान नही है। ज्ञान के बारे में यह समझ है कि उसका सत्य  होनाविश्वास  होना  और  उसके पीछे के तर्क  और  औचित्य  को समझ  पाना ज्ञान  के तीन  मूल तत्व  हैं।  इन  तीनों Truth, Justified, Belief)  में  से  किसी  एक  के  अभाव  में  कोई  चीज  तथ्य  हो  सकती  हैसत्य  भी  हो  सकती  हैवो विश्वास योग्य भी हो सकती है लेकिन ज्ञान नही हो सकती। अब यदि ज्ञान के इस स्वरुप को देखें तो पता चलता है कि यह वो ज्ञान नही है जो गुरु द्वारा दे देने और शिष्य द्वारा अर्जित कर लेना भर हो। ज्ञान का यह स्वरुप साथ मिलकर उसके निर्माण की मांग करता है। ज्ञान निर्माण की यह प्रक्रिया तथ्यों को रटने, सूचनाओं को संग्रहीत कर कुछ निष्कर्ष निकाल लेने के परे जानकारियों को अपने पूर्व के अनुभवों पर परखने, कारणों को खोजने, प्रमाणों को जुटाने, सवाल करने, जो ज्ञात है उसे लागू करके देखने आदि पर निर्भर करती है। ज्ञान और ज्ञान निर्माण की इस प्रक्रिया में न तो गुरु ज्ञान का दाता है न ही शिष्य ज्ञान का ग्रहण कर्ता, न तो गुरु सर्वज्ञानी है न ही शिष्य मूढ, न तो गुरु अनुदेशक/उपदेशक है न ही शिष्य अनुदेशों का पालक यहाँ ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया एक साझा कर्म है जिसे गुरु और शिष्य मिलकर करते हैं और गुरु की भूमिका अधिक अनुभव होने के कारण सहयोगी, सुगमकर्ता या फेसिलिटेटर के रुप में होती है।

 प्रियंक श्रीवास्तव
 (लेखक अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, बाँसवाड़ा में शिक्षक प्रशिक्षक हैं)

                 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट

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