आलेखमाला: समावेशी शिक्षा की उपादेयता/ धीरज कुमार भारती एवं जयंती

                                     समावेशी शिक्षा की उपादेयता

समावेशन शब्द का अपने आप में कुछ खास अर्थ नहीं होता है। समावेशन के चारों ओर जो वैचारिक, दार्शनिक, सामाजिक और शैक्षिक ढांँचा होता है वही समावेशन को परिभाषित करता है। समावेशन की प्रक्रिया में बच्चे को न केवल लोकतंत्र में भागीदारी के लिए सक्षम बनाया जा सकता है, बल्कि यह सीखने एवं विश्वास करने के लिए भी सक्षम बनाया जा सकता है कि लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए दूसरों के साथ रिश्ते बनाना, अंतर्क्रिया करना भी समान रूप से महत्वपूर्ण है।(एन.एफ.सी.2005, पृष्ठ 96)

 यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा कार्य बहुआयामीय, वैश्विक, राष्ट्रीय तथा सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के चक्के का हाथ लगाना है। रिपोर्ट 2001 के पृष्ठ क्रमांक 2 में कहा गया है ’’विश्व के विकास की कार्य सूची में सभी विषयों जैसे निर्धनता उन्मूलन, स्वास्थ्य संरक्षण, तकनीकी जानकारी का आदान प्रदान, पर्यावरण का रक्षण, लिंगभेद समापन, प्रजातान्त्रिक प्रणाली को सुदृढ़ करना तथा शासन प्रशासन में सुधार सबके लिए न्याय सुलभता, शिक्षा के माध्यम से इन सभी विषयों को एकात्मक भाव से देखा जाना चाहिए।

भारतीय संविधान में समता, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय एवं व्यक्ति की गरिमा को प्राप्त मूल्यों के रूप में निरूपित किया गया है। हमारा संविधान जाति, वर्ग, धर्म, आय एवं लैंगिक आधार पर किसी भी प्रकार के विभेद का निषेध करता है। लोकतांत्रिक की स्थापना के लिए हमारे संवैधानिक मूल्य स्पष्ट रूप से दिशा निर्देशन प्रदान करते हैं और इस प्रकार एक समावेशी समाज की स्थापना का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में बच्चे को सामाजिक, जातिगत, आर्थिक, लैंगिक, शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से भिन्न देखें जाने के बजाय एक स्वतंत्र अधिगमकर्ता के रूप में देखे जाने की आवश्यकता है, जिससे लोकतांत्रिक समाज में बच्चें के समुचित समावेशन हेतु वातावरण का सृजन किया जा सके। समावेशन की ठोस प्रक्रिया प्रतीकात्मक लोकतंत्र में भागीदारी आधारित लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त करती है।

समावेशी शिक्षा का आशय विकलांग विद्यार्थियों (जिन्हें आजकल विशेष आवश्यकताओं वाले विद्यार्थी कहा जाता है) को सामान्य बच्चों के साथ बिठाकर सामान्य रूप से पढ़ाना है, ताकि सामान्य बच्चों और विशिष्ट आवश्यकताओं वाले बच्चों में कोई भेदभाव न रहे तथा दोनों तरह के विद्यार्थीयों एक-दूसरे को ठीक ढंग से समझते हुए आपसी सहयोग से पठन-पाठन के कार्य को कर सकें। समावेशी शिक्षा का एक व्यापक लक्ष्य यह भी प्रतीत होता है कि एक साथ शिक्षित होने पर भविष्य में समाज के अन्दर विशिष्ट आवश्यकता वाले व्यक्तियों के सरोकारों को आम लोग बेहतर ढंग से समझ सकें तथा उनमें उनके प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता का विकास हो सके। समावेशी शिक्षा को प्रोत्साहित करने का अपना एक राजनीतिक अर्थशास्त्र भी है जो भू-मण्डलीकरण या उदारीकरण की प्रक्रियाओं से प्रेरित है। यह राजनीतिक अर्थशास्त्र इस मान्यता पर आधारित है कि सरकार को जनकल्याण, सामाजिक तथा गैर-उत्पादक कार्यों पर कम से कम खर्च करना चाहिए। विशिष्ट आवश्यकताओं वाले बच्चों के लिए विशेष विद्यालय चलाना महँगा सौदा है (वो भी विकलांगों की कम से कम पाँच श्रेणियों के लिए) इसलिए समावेशी शिक्षा की अवधारणा को प्रोत्साहित किया जा रहा है।

 समावेशी शिक्षा को जमीनी स्तर पर लागू करने के लिए देश के विभिन्न राज्यों के विकलांगों की मुख्य श्रेणियाँ-दृष्टिबाधित, अस्थिबाधित, मूक-बधिर, मन्दबुद्धि तथा स्वलीनता से ग्रसित लोगों को पढ़ाने के लिए अलग-अलग नामों से अंशकालीन शिक्षक एवं शिक्षिकाएँ रखे जाते हैं। इन्हें अधिकतर राज्यों में न्यूनतम मजदूरी से भी कम वेतन तथा अपर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाता है। चूँकि समावेशी शिक्षा भू-मण्डलीकरण की देन है, इसलिए इसे अन्तर्राष्ट्रीय तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का भी व्यापक समर्थन हासिल है। इस समर्थन की भी अपनी राजनीति, गणित और विज्ञान है। विकलांगों के विषयों में कार्यरत विभिन्न जन-संगठनों तथा समाजसेवी संस्थाओं की भी अपनी राजनीति है। किसी भी योजना से सबसे अधिक लाभ प्राप्त करने वाले अस्थिबाधित लोगों तथा मूकबधिर लोगों से जुड़े अत्यधिक संगठन समावेशन के नाम पर समावेशी योजनाओं के लाभो से अपेक्षाकृत वंचित लोगों, खासतौर पर दृष्टिबाधित लोगों के अधिकतर संगठन इसका विरोध करते हैं। इस तरह समावेशी शिक्षा के समूचे माॅडल में शिक्षा की पहुँच तथा शिक्षा की गुणवत्ता दोनों ही गम्भीर प्रश्नों के घेरे में हैं। इसके लिए चलाऊ नीतियाँ तथा तत्कालिक मसलों की क्षणिक रूप से हल कर लेने की प्रवृतियां काफी हद तक जिम्मेदार हैं।

विशेष बच्चों की शिक्षा के लिए भारत में पिछले तीन दशकों में विश्वव्यापी स्तर पर आमुलचूल सुधार पर प्रतिक्रिया दी है और विशेष बच्चों की आवश्यकता को समुचित और व्यावहारिक रूप से पूरा करने के लिए अनेक नीतियाँ, कार्यक्रमों और कानूनों को लागू किया गया है। हालांकि 0-6 वर्ष की 15 करोड़ 87 लाख की जनसंख्या के साथ यह कार्य किसी भी आकार और क्षमता की सरकार के लिए समुचित सेवाएँ प्रदान करने के लिए पिछले तीन दशकों से सतत् प्रयास कर रहा है। हालांकि विविधता के संदर्भ में सरकार की प्रतिबद्धता के मूल को समेकित बाल विकास सेवा (आई0सी0डी0एस0) योजना में खोजा जा सकता है, जो देश के चयनित 33 सामुदायिक खंड़ों में 1975 में लागू की गई थी। इस शीर्ष कार्यक्रम की अब देश के सभी 36 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों की 5,659 स्वीकृत परियोजनाओं और 7,48,059 आंगवाड़ी केन्द्रों तक विस्तारित कर दिया गया है। हालांकि यह परिवर्तन रातों-रात नहीं आया। इसमे नीति निर्माताओं, प्रशासकों, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, शिक्षकों अभिभावकों और शोधकर्ताओं सहित सभी हितधारकों की कड़ी मेहनत, दृढ़-संकल्प और निष्ठा की आवश्यकता थी। भारत में नीति निर्माताओं को सभी छात्रों के लिए अधिक न्यायसंगत शैक्षिक अवसरों को प्रोत्साहन देने वाले कानूनों, नीतियों और कार्यक्रमों जैसे-विकलांगता अधिनियम 1995, एस0एस00 2001 और संयुक्त राष्ट्र द्वारा किए गए कार्यक्रम (उदाहरण के लिए यूनेस्कों, 2000) से चुनौती मिली। अभिभावक समूह बहुत ज्यादा मुखर हो गए और उन्होंने अपने बच्चों के लिए समान अवसरों की मांग करते हुए अपने अधिकारों पर जोर दिया। प्रशासकों, शिक्षकों और शोधकर्ताओं ने अन्य देशों में शिक्षण के बेहतर समावेशी माॅडल का अवलोकन किया और अपनी शैक्षिक संस्थापनाओं में इन माॅडलों को अपनाना प्रारम्भ कर दिया। पिछले तीन दशकों में इस दिशा में धीरे-धीरे बहुत प्रगति हुई है और इसने लाखों छात्र-छात्राओं को लाभान्वित किया है। हालांकि भारत में विकलांगता से ग्रस्त लगभग 3 करोड़ बच्चों की जरूरतों को पूरा करने के लिए अभी और भी कार्य किये जाने की आवश्यकता है।

समावेशी शिक्षा हेतु रणनीतियाँ-
परिवार- बच्चों के समाजीकरण में परिवार की अहम भूमिका होती है। परिवार में बच्चों के समाजीकरण की उचित प्रक्रिया समावेशन हेतु आधार भूमि तैयार करती है। इसलिए जरूरी है कि अक्षम बालक की स्वीकृति सबसे पहले अपने परिवार में हो यह अति महत्वपूर्ण बात है क्योंकि अक्षम बालक को अपना परिवार खुशीपूर्वक स्वीकार कर लिया है तो वह सारा संसार जीतने की क्षमता रखता है एक सामान्य बालक की तरह ही।

समाज- अक्षम बालक की समाज भी सहर्ष स्वीकार करें जिससे की अक्षम बालक में हीन भावना उसके अंदर न प्रवेश कर जाए और वह जो समाज को अपने कार्य से बहुत कुछ दे सकता था वो अब हीन भावना के कारण नहीं दे पाया इसलिए समाज सभी अक्षम बालक को संहर्ष स्वीकार कर उसका मनोबल बढ़ाए एक सामान्य बालक की ही तरह जिससे की वो अपने जीवन में एक नई ऊँचाई प्राप्त कर समाज को भी गौरांवित करें।

विद्यालय- अक्षम बालक के लिए विद्यालय भी सौहाद्रपूर्ण व्यवहार कर उसका नामंकन करें अपने विद्यालय में जिससे की अक्षम बालक के अंदर सक्षम बालक के लिए ही भाव न पैदा हो इसलिए विद्यालय प्रबंधन की ये जिम्मेदारी है कि जिस प्रकार से आप सामान्य (सक्षम) बालक का अपने विद्यालय में नामांकन लेते हैं। ठीक उसी प्रकार से आप अक्षम बालक का अपने विद्यालय में नामांकन कर उसको अपने जीवन में आगे बढ़ने में मदद करें।

वातावरण- विद्यालयी वातावरण सौहार्द्रपूर्ण हो जिससे की अक्षम बालक उस विद्यालय में नामांकन प्राप्त कर अपने आप को कुंठित न महसूस करें। अक्षम बालक विद्यालय का सौहाद्रपूर्ण वातावरण प्राप्त कर अपने आप को खुशी महसूस करें इसलिए की सौहार्द्रपूर्ण  वातावरण में सभी सक्षम बालक तथा शिक्षक अक्षम बालक को अपना ज्ञान प्राप्ति में मदद करें।

पाठ्यक्रम- पाठ्यक्रम का निर्माण भी इस प्रकार का हो सक्षम बालक के साथ-साथ अक्षम बालक भी उसी पाठ्यक्रम को पढ़कर अपना ज्ञानार्जन कर सकें।

सहायक तकनीकी- अक्षम बालक को उसके पाठ्यक्रम के अनुसार सहायक तकनीकी के माध्यम से शिक्षक पढ़ाए जिससे की अक्षम बालक उस विषय-वस्तु को आसानी पूर्वक समझ सके और अपना ज्ञानार्जन कर सकें।

विशेष प्रशिक्षित शिक्षक- अक्षम बालक के अध्यापन कराने के लिए विशेष प्रशिक्षित शिक्षक का होना अति आवश्यक है। इसलिए विशेष रूप प्रशिक्षित शिक्षक ही अक्षम बाल की कठिनाईयों को अच्छी तरह से जान एवं समझ सकते हैं। इसलिए अक्षम बालक के अध्यापन कराने के लिए विशेष प्रशिक्षित शिक्षक का होना अतिआवश्यक हो जाता है।

समावेशी शिक्षा का महत्व-
1. समावेशी शिक्षा प्रत्येक बच्चेे के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ उसकी व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है।
2. समावेशी शिक्षा अन्य छात्रों को अपनी उम्र के साथ कक्षा के जीवन में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर काम करने हेतु अभिप्रेरित करती है।
3. समावेशी शिक्षा बच्चों को उनके शिक्षा के क्षेत्र में और उनके स्थानीय स्कूलों की गतिविधियों में उनके माता पिता को भी शामिल करने की वकालत करती हैं।
4. समावेशी शिक्षा सम्मान और अपनेपन की संस्कृति के साथ-साथ व्यक्तिगत मतभेदों को स्वीकार करने के लिए भी अवसर प्रदान करती है।
5. समावेशी शिक्षा अन्य बच्चें अपने स्वयं के व्यक्तिगत आवश्यकताओं और क्षमताओं के साथ प्रत्येक का एक व्यापक विविधता के साथ दोस्तों का विकास करने की क्षमता विकसित करती है।

इस प्रकार कुल मिलाकर यह समावेशी शिक्षा समाज के सभी बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ने की बात का समर्थन करती हैं यह सही मायने में सर्व शिक्षा जैसे शब्दों का ही रूपांतरित रूप है जिसके कई उद्देश्यों में से एक उद्देश्य है विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों की शिक्षा, लेकिन दुर्भाग्यवश हम सब इसके विस्तृत अर्थ को पूर्ण तरीके से समझने की कोशिश न करते हुए इन समावेशी शिक्षा का अर्थ प्रमुखता से केवल विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा से ही लेने लगते हैं जो की सर्वथा ही अनुचित जान  पड़ता है क्योंकि समावेशी शिक्षा का एक उद्देश्य विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा से ही हो सकता है। इसका सम्पूर्ण उद्देश्य सभी का विकास है।
अतः संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक स्कूल व सभी शिक्षा व्यवस्था में समावेशन की नीति को व्यापकता प्रदान करने की जरूरत है जिससे बच्चे, जीवन के हर क्षेत्र में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सकें तथा इस कार्य हेतु भारतीय संविधान, शैक्षिक कार्यक्रम व योजनाएँ, सरकारी एवं गैर सरकारी संगठन इत्यादि प्रयासरत् प्रतिबिम्बित होती है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने वर्ष 2020 तक देश के सभी स्कूलों को (अक्षम एवं विकलांग बालकों के लिए विस्तृत योजना के निर्माण की घोषणा करते हुए) अक्षम मित्र बनाने की बात कही है।

उपसंहार- उपरोक्त अध्ययनोपरांत प्रस्तुत प्रपत्र से यह सार निरूपण होता है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था, शिक्षा तथा समाज में अन्योन्याश्रित संबंध को दर्शाता है जिसके फलस्वरूप शैक्षिक वर्तमान परिदृश्य उतरोत्तर वृद्धि की ओर अग्रसर है तथा इस वृद्धि को सुचारू रूप से व्यवस्थित करने में समावेशी शिक्षा, अध्यापक शिक्षा हेतु एक एक ज़रूरी पहल है। समावेशी शिक्षा, अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम के अंतर्गत एक अध्यापक को कुछ अतिरिक्त कौशल सीखने के अवसर प्रदान करते हैं ताकि वह विशिष्ट विद्यार्थियों की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुसार अपने आपको तैयार कर सकें। यहाँ केवल इतना कहना समचीनी होगा कि प्रस्तुत प्रपत्र दोनों तरह की शिक्षा व्यवस्था के समावेशन पर बल देती है। यथा- सामान्य शिक्षा व विशिष्ट शिक्षा अर्थात् सभी के लिए उपयोगी हो। इसके लिए प्राचीन धर्म ग्रंथ की पंक्ति- ’’सर्वे भवन्तु सुखीनःमें भी सबको साथ लेकर चलने का भाव निहित है। तथा इन्हीं पंक्तियों को चरितार्थ करते हुए वर्तमान अध्यापक शिक्षा क्षेत्र में समावेशी शिक्षा का प्रासंगिक होना अपरिहार्य है।

सन्दर्भ सूची-
1. दास, अजय, अन्नामारिया जेरोम तथा सुषमा शर्मा, (2015), भारत में विकलांगता से ग्रस्त छोटे बच्चे: आरंभिक बाल्यावस्था शिक्षाप्रदाताओं के लिए अनिवार्य दशताएँ, आरम्भिक वर्षों की शिक्षा में विविधता, विशेषक आवश्यकताऐं तथा समावेशन, सेज भाषा, नई दिल्ली-44, पृष्ठ संख्या 186
2. कांडपाल, केवलानंद, (2013), समावेशन: चुनौती एवं समाधान, खोजें और जानें, वर्ष-2 अंक 7, उदयपुर (राजस्थान), पृष्ठ संख्या 4
3. ठाकुर, यतेन्द्र (2017), समावेशी शिक्षा, प्रथम संस्करण, अग्रवाल पब्लिकेशन आगरा 02
4. राम (2014), समावेशी शिक्षा के मायने, खोजें और जानें, वर्ष-2 अंक 8, उदयपुर (राजस्थान), पृष्ठ संख्या 12
5.  नारंग, डाॅ0 सुनीता (2005), विशिष्ट शिक्षा की संकल्पना और उसका विषय क्षेत्र, कल्याणी पब्लिशर्ज, लुधियाना 48
6. शर्मा, डाॅ0 सुषमा (2004), एकीकृत एवं समावेशी शिक्षा के प्रसार के उपाय, शिक्षक-प्रशिक्षण लेखमाला, आॅल इण्डिया कंफेडरेशन आॅफ दि ब्लाइंड, नई दिल्ली- 85, पृष्ठ सं0 49
7. 2005, एन0सी0एफ0- पृष्ठ संख्या 96



धीरज कुमार भारतीशोध छात्र शिक्षा संकायकाशी हिन्दू विश्वविद्यालयवाराणसी।
जयंतीशोध छात्रास्कूल ऑफ़ एजूकेशनवनस्थली विद्यापीठजयपुरराजस्थान।

             अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट

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