डॉ.
आशुतोष मिश्रा
शोध सारांश
यह शोध-आधारित
लेख भारत में पारिवारिक विवादों के समाधान में मध्यस्थता की सार्थकता का गहन विश्लेषण
प्रस्तुत करता है। पारिवारिक विवाद, अपनी भावनात्मक और संबंधपरक
जटिलताओं के कारण, पारंपरिक प्रतिकूल न्यायिक प्रक्रिया के लिए प्रायः अनुपयुक्त सिद्ध
होते हैं, जिससे विलंब, खर्च और कटुता में वृद्धि होती है। लेख मध्यस्थता की अवधारणा,
उसके मूल सिद्धांतों (स्वैच्छिकता, तटस्थता, गोपनीयता, आत्म-निर्णय) और भारत में इसके
कानूनी आधार (सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 89, पारिवारिक न्यायालय अधिनियम
1984, विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987, विधि आयोग की रिपोर्टें एवं सर्वोच्च न्यायालय
के दिशा-निर्देश) की विस्तृत विवेचना करता है। यह पारिवारिक विवादों में मध्यस्थता
के विशिष्ट लाभों – जैसे संबंधों का संरक्षण, बच्चों का कल्याण, शीघ्र व किफायती समाधान,
गोपनीयता, और पक्षकारों का सशक्तीकरण – पर प्रकाश डालता है। अंततः, यह लेख पारिवारिक
विवाद समाधान के एक प्रभावी और मानवीय विकल्प के रूप में मध्यस्थता की अपार क्षमता
को स्वीकार करते हुए, इसे और सुदृढ़ करने हेतु सुझाव प्रस्तुत करता है।
बीज शब्द:
पारिवारिक विवाद, मध्यस्थता, गोपनीय समाधान, शीघ्र न्याय
प्रस्तावना
परिवार, भारतीय समाज की आधारशिला, स्नेह, समर्थन और पहचान
का स्रोत माना जाता है। हालांकि, बदलते सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य, व्यक्तिगत आकांक्षाओं
में वृद्धि और पारंपरिक मूल्यों के क्षरण के साथ, पारिवारिक विवादों में भी वृद्धि
देखी गई है। ये विवाद, चाहे वे पति-पत्नी के बीच हों, माता-पिता और बच्चों के मध्य
हों, या संपत्ति के बंटवारे से संबंधित हों, न केवल भावनात्मक रूप से कष्टदायक होते
हैं बल्कि लंबे समय तक चलने वाली कानूनी प्रक्रियाओं में उलझकर समय और संसाधनों की
भी भारी बर्बादी करते हैं। पारंपरिक न्याय प्रणाली, प्रकृति में प्रतिकूल होने के कारण,
अक्सर इन विवादों को सुलझाने के बजाय और जटिल बना देती है, जिससे रिश्तों में स्थायी
कड़वाहट आ जाती है।
ऐसी स्थिति में, विवाद समाधान के वैकल्पिक तरीकों
(Alternative Dispute Resolution - ADR) की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। मध्यस्थता,
एडीआर के प्रमुख रूपों में से एक, पारिवारिक विवादों के सौहार्दपूर्ण समाधान के लिए
एक प्रभावी और मानवीय दृष्टिकोण के रूप में उभरी है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जहाँ एक
तटस्थ तीसरा पक्ष, जिसे मध्यस्थ कहा जाता है, विवादित पक्षों को बिना किसी निर्णय या
समाधान को थोपे, आपसी सहमति से एक समझौते पर पहुँचने में सहायता करता है। मध्यस्थ की
भूमिका निर्णयकर्ता की नहीं, बल्कि एक सूत्रधार की होती है जो संचार को सुगम बनाता
है, मुद्दों को स्पष्ट करता है और पक्षों को उनके हितों के अनुरूप समाधान खोजने में
मदद करता है।
इस शोध-आधारित लेख का उद्देश्य भारत में पारिवारिक विवादों
के समाधान में मध्यस्थता के महत्व का आलोचनात्मक मूल्यांकन करना है। यह लेख मध्यस्थता
की अवधारणा, इसके कानूनी आधार, पारिवारिक विवादों में इसकी विशिष्ट प्रासंगिकता, अनुभवजन्य
साक्ष्यों , चुनौतियों और भविष्य की संभावनाओं पर प्रकाश डालेगा। हमारा प्रयास है कि
इस विषय पर एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जा सके, जो नीति निर्माताओं, कानूनी
पेशेवरों, शोधकर्ताओं और आम जनता के लिए उपयोगी सिद्ध हो।
मध्यस्थता: एक अवधारणा और प्रक्रिया
मध्यस्थता एक स्वैच्छिक, गोपनीय और संरचित प्रक्रिया है
जिसमें एक निष्पक्ष और तटस्थ तीसरा पक्ष (मध्यस्थ) विवादित पक्षों के बीच संचार और
बातचीत को सुगम बनाता है ताकि वे पारस्परिक रूप से स्वीकार्य समाधान तक पहुँच सकें। मध्यस्थता
के मूल सिद्धांत निम्नलिखित हैं:
● स्वैच्छिकता (Voluntariness): पक्ष अपनी
स्वतंत्र इच्छा से मध्यस्थता प्रक्रिया में भाग लेते हैं और किसी भी समय प्रक्रिया
से बाहर निकलने के लिए स्वतंत्र होते हैं। हालांकि, कुछ मामलों में, न्यायालय द्वारा
अनिवार्य मध्यस्थता (court-annexed mediation) का प्रावधान भी है, लेकिन यहाँ भी समाधान
पर सहमति स्वैच्छिक ही रहती है।
●
तटस्थता और निष्पक्षता (Neutrality
and Impartiality): मध्यस्थ किसी भी पक्ष का पक्ष नहीं लेता
है और प्रक्रिया को निष्पक्ष रूप से संचालित करता है। उसे सभी पक्षों के साथ समान व्यवहार
करना चाहिए।
● गोपनीयता (Confidentiality): मध्यस्थता
की कार्यवाही गोपनीय होती है। मध्यस्थता के दौरान कही गई बातों या प्रस्तुत किए गए
दस्तावेजों का उपयोग किसी अन्य कानूनी कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में नहीं किया
जा सकता, जब तक कि सभी पक्ष सहमत न हों या कानून द्वारा अन्यथा आवश्यक न हो। यह गोपनीयता
पक्षों को खुलकर अपनी बात रखने और रचनात्मक समाधान तलाशने के लिए प्रोत्साहित करती
है।
● पक्षों की स्व-निर्धारण शक्ति (Party
Autonomy/Self-determination): मध्यस्थता
का अंतिम परिणाम पक्षों द्वारा स्वयं निर्धारित किया जाता है। मध्यस्थ समाधान थोपता
नहीं है, बल्कि पक्षों को अपने हितों और आवश्यकताओं के अनुसार स्वयं समाधान खोजने में
मदद करता है।
● सूचित सहमति (Informed Consent): पक्षों
को प्रक्रिया और उसके संभावित परिणामों के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए ताकि वे
सूचित निर्णय ले सकें।
पारंपरिक
मुकदमेबाजी के विपरीत, जहाँ एक न्यायाधीश कानून के आधार पर निर्णय देता है, मध्यस्थता
पक्षों को अपने विवाद का नियंत्रण अपने हाथों में रखने का अवसर प्रदान करती है। इसका
उद्देश्य 'जीत-हार' की स्थिति के बजाय 'जीत-जीत' (win-win) समाधान खोजना होता है, जहाँ
दोनों पक्षों की आवश्यकताओं और हितों का ध्यान रखा जा सके।
भारत में पारिवारिक मध्यस्थता का कानूनी
ढाँचा
भारत में मध्यस्थता को बढ़ावा देने के लिए विधायी और न्यायिक
दोनों स्तरों पर प्रयास किए गए हैं। पारिवारिक विवादों के संदर्भ में कुछ प्रमुख कानूनी
प्रावधान निम्नलिखित हैं:
1. सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure, 1908): सिविल प्रक्रिया
संहिता की धारा 89, जिसे 1999 में संशोधित किया गया और 2002 में लागू किया गया, न्यायालयों
को यह शक्ति प्रदान करती है कि वे विवादों को मध्यस्थता, सुलह, न्यायिक निपटान (लोक
अदालत सहित) या मध्यस्थता के माध्यम से समाधान के लिए संदर्भित कर सकते हैं, जहाँ उन्हें
लगता है कि समाधान की संभावना है| यह प्रावधान पारिवारिक विवादों सहित सभी सिविल मामलों
पर लागू होता है। धारा 89 का उद्देश्य न्यायालयों पर बोझ कम करना और विवादों का शीघ्र
और सौहार्दपूर्ण समाधान सुनिश्चित करना है।
2. पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 (The Family Courts Act, 1984): इस अधिनियम
का मुख्य उद्देश्य विवाह और पारिवारिक मामलों से संबंधित विवादों में सुलह को बढ़ावा
देना और उनके शीघ्र समाधान को सुनिश्चित करना है। पारिवारिक न्यायालय अधिनियम की धारा
9(1) के अनुसार, प्रत्येक पारिवारिक न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह प्रथम दृष्टया,
मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार, पक्षों के बीच सुलह या समझौते के प्रयासों
में सहायता और प्रोत्साहन करे। इसके अतिरिक्त, धारा 9(2) यह प्रावधान करती है कि यदि
किसी भी स्तर पर यह प्रतीत होता है कि समझौते की उचित संभावना है, तो न्यायालय कार्यवाही
को स्थगित कर सकता है और ऐसे प्रयास कर सकता है। इस अधिनियम के तहत पारिवारिक न्यायालयों
को परामर्शदाताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों की सहायता लेने का भी अधिकार
है।
3.
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu
Marriage Act, 1955): इस अधिनियम की धारा 23(2) और 23(3) भी सुलह
के प्रयासों पर जोर देती है। धारा 23(2) कहती है कि तलाक या न्यायिक पृथक्करण की कार्यवाही
में कोई भी डिक्री पारित करने से पहले, न्यायालय का यह कर्तव्य होगा कि वह पक्षों के
बीच सुलह के हर संभव प्रयास करे, जो मामले की प्रकृति और परिस्थितियों के अनुकूल हो।
4.
ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008
(Gram Nyayalayas Act, 2008): यह अधिनियम
ग्रामीण क्षेत्रों में न्याय तक पहुँच सुनिश्चित करने के लिए स्थापित किया गया था और
इसमें भी मध्यस्थता और सुलह के माध्यम से विवादों के समाधान का प्रावधान है।
5. विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 (Legal Services Authorities
Act, 1987): इस अधिनियम के तहत स्थापित लोक अदालतें
भी एक प्रकार की न्यायिक मध्यस्थता प्रदान करती हैं, जहाँ विवादों को आपसी सहमति से
निपटाया जाता है। यद्यपि लोक अदालत की प्रक्रिया पारंपरिक मध्यस्थता से थोड़ी भिन्न
है, इसका मूल उद्देश्य भी सौहार्दपूर्ण समाधान है।
इन विधायी
प्रावधानों के अतिरिक्त, भारत के सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने
अपने निर्णयों के माध्यम से मध्यस्थता के महत्व को बार-बार रेखांकित किया है। एफकॉन्स इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड बनाम चेरियन वर्की
कंस्ट्रक्शन कंपनी प्राइवेट लिमिटेड (2010) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने धारा
89 सीपीसी के दायरे और प्रक्रिया पर विस्तृत दिशा-निर्देश दिए और उन मामलों की श्रेणियों
को स्पष्ट किया जो मध्यस्थता के लिए उपयुक्त हो सकते हैं, जिसमें पारिवारिक विवाद भी
शामिल हैं।
कई उच्च न्यायालयों ने भी अपने नियम बनाकर न्यायालय-अनुलग्न
मध्यस्थता केंद्रों (court-annexed mediation centres) की स्थापना की है। उदाहरण के
लिए, दिल्ली उच्च न्यायालय मध्यस्थता और सुलह केंद्र (SAMADHAN), और बैंगलोर मध्यस्थता
केंद्र (BMC) इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
पारिवारिक विवादों में मध्यस्थता की
महत्ता
पारिवारिक विवाद अपनी प्रकृति में अनूठे होते हैं क्योंकि
इनमें कानूनी मुद्दों के साथ-साथ गहरे भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक पहलू भी जुड़े होते
हैं। ऐसे विवादों में मध्यस्थता पारंपरिक मुकदमेबाजी की तुलना में कई लाभ प्रदान करती
है:
● संबंधों
का संरक्षण: पारंपरिक कानूनी प्रक्रिया अक्सर विरोधी होती है, जिससे पक्षों के बीच
कड़वाहट बढ़ती है और रिश्ते स्थायी रूप से टूट जाते हैं। पारिवारिक विवादों में, विशेष
रूप से जहाँ बच्चे शामिल होते हैं, भविष्य में किसी न किसी रूप में संवाद और सहयोग
बनाए रखना आवश्यक हो सकता है। मध्यस्थता एक सहयोगी प्रक्रिया है जो पक्षों को एक-दूसरे
के दृष्टिकोण को समझने और सम्मानजनक तरीके से संवाद करने में मदद करती है, जिससे संबंधों
को बचाने या कम से कम उन्हें और खराब होने से रोकने में मदद मिलती है।
● बच्चों का
कल्याण: तलाक या अलगाव की स्थिति में, बच्चों का कल्याण सर्वोपरि होता है। मध्यस्थता
माता-पिता को बच्चों की कस्टडी, उनसे मिलने की व्यवस्था (visitation rights) और उनके
भरण-पोषण से संबंधित मुद्दों पर आपसी सहमति से निर्णय लेने में मदद करती है। यह प्रक्रिया
बच्चों पर पड़ने वाले नकारात्मक भावनात्मक प्रभाव को कम करती है और उन्हें माता-पिता
के बीच निरंतर संघर्ष से बचाती है। माता-पिता बच्चों की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप
रचनात्मक और लचीले समाधान विकसित कर सकते हैं।
● गोपनीयता:
पारिवारिक मामले अक्सर संवेदनशील और व्यक्तिगत होते हैं। मध्यस्थता की कार्यवाही गोपनीय
होती है, जो पक्षों को बिना किसी सार्वजनिक जांच या शर्मिंदगी के डर के, खुलकर अपनी
बात रखने की अनुमति देती है। इसके विपरीत, अदालती कार्यवाही सार्वजनिक होती है, जिससे
व्यक्तिगत विवरण सार्वजनिक हो सकते हैं।
● लागत-प्रभावशीलता
और समय की बचत: पारंपरिक मुकदमेबाजी एक महंगी और समय लेने वाली प्रक्रिया हो सकती है।
वकील की फीस, अदालती शुल्क और अनिश्चित काल तक चलने वाली सुनवाई वित्तीय और मानसिक
रूप से थका देने वाली होती है। मध्यस्थता तुलनात्मक रूप से कम खर्चीली होती है और विवादों
का समाधान कुछ ही सत्रों में, कुछ हफ्तों या महीनों के भीतर किया जा सकता है।
● पक्षों का
सशक्तिकरण: मध्यस्थता प्रक्रिया में, पक्ष स्वयं अपने विवाद के समाधान के नियंत्रक
होते हैं। वे अपनी आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं के आधार पर निर्णय लेते हैं, न कि किसी
तीसरे पक्ष (न्यायाधीश) द्वारा उन पर कोई निर्णय थोपा जाता है। यह उन्हें समाधान के
प्रति अधिक प्रतिबद्ध बनाता है और समझौते के अनुपालन की संभावना को बढ़ाता है।
● रचनात्मक
और लचीले समाधान: मध्यस्थता पक्षों को कानून की सख्त सीमाओं से परे जाकर रचनात्मक और
व्यावहारिक समाधान खोजने की अनुमति देती है जो उनकी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुकूल
हों। पारंपरिक न्याय प्रणाली में, न्यायाधीश केवल कानूनी प्रावधानों के आधार पर निर्णय
दे सकते हैं, जो हमेशा पक्षों की वास्तविक आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाते।
● न्यायालयों
पर बोझ कम करना: भारत की न्यायपालिका पहले से ही मुकदमों के भारी बोझ से दबी हुई है।
मध्यस्थता जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र पारिवारिक विवादों को न्यायालयों के बाहर
हल करके इस बोझ को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, जिससे न्यायालय गंभीर
और जटिल मामलों पर ध्यान केंद्रित कर सकें।
● समझौतों
का बेहतर अनुपालन: चूंकि मध्यस्थता में समाधान पक्षों की आपसी सहमति से होता है, इसलिए
ऐसे समझौतों के स्वैच्छिक अनुपालन की दर अधिक होती है। जब लोग स्वयं किसी निर्णय पर
पहुँचते हैं, तो वे उसे मानने के लिए अधिक प्रेरित होते हैं।
भारत में पारिवारिक मध्यस्थता पर अनुभवजन्य साक्ष्य
विधि आयोग ने अपनी विभिन्न रिपोर्टों में मध्यस्थता सहित
एडीआर तंत्रों को मजबूत करने की सिफारिश की है। उदाहरण के लिए, विधि आयोग की रिपोर्ट
संख्या 222 (2009) ने न्याय वितरण प्रणाली में सुधार के लिए आवश्यक कदमों पर चर्चा
की, जिसमें मध्यस्थता पर जोर दिया गया|
दिल्ली स्थित 'समाधान' (दिल्ली उच्च न्यायालय मध्यस्थता
और सुलह केंद्र) जैसे न्यायालय-अनुलग्न मध्यस्थता केंद्र मध्यस्थता के माध्यम से पारिवारिक
विवादों को निपटाने में उल्लेखनीय सफलता दर्शाते रहे हैं। उदाहरण के लिए, कुछ रिपोर्टों
के अनुसार, दिल्ली में न्यायालय-अनुलग्न मध्यस्थता केंद्रों में पारिवारिक विवादों
में सफलता दर 50-60% या उससे भी अधिक रही है। बैंगलोर मध्यस्थता केंद्र (BMC) भी इस क्षेत्र
में अग्रणी रहा है। इसके द्वारा प्रकाशित प्रारंभिक आंकड़ों और अध्ययनों ने भी पारिवारिक
विवादों में मध्यस्थता की उच्च निपटान दरों और उपयोगकर्ता संतुष्टि का संकेत दिया है।
हालांकि, यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि, भारत में मध्यस्थता के प्रभाव का आकलन
करने के लिए एक मानकीकृत डेटा संग्रह प्रणाली का अभाव था। अधिकांश सफलता दरें व्यक्तिगत
मध्यस्थता केंद्रों या छोटे पैमाने के अध्ययनों से प्राप्त होती थीं। कुछ अध्ययनों
ने यह भी इंगित किया है कि 'सफलता' की परिभाषा भिन्न हो सकती है - क्या यह पूर्ण समझौते
तक पहुँचना है, या आंशिक समझौता, या बस बेहतर संचार स्थापित करना।
एक अध्ययन जो भारत में पारिवारिक कानून विवादों में मध्यस्थता
की प्रभावशीलता पर केंद्रित था, ने निष्कर्ष निकाला कि यद्यपि मध्यस्थता के कई लाभ
हैं, फिर भी जागरूकता की कमी और प्रशिक्षित मध्यस्थों की अपर्याप्त संख्या जैसी बाधाएँ
मौजूद हैं।
न्यायमूर्ति आर.सी. लाहोटी ने एक बार कहा था कि भारतीय
संदर्भ में मध्यस्थता कोई नई अवधारणा नहीं है, बल्कि यह हमारी परंपरा का हिस्सा रही
है जहाँ पंच-परमेश्वर की अवधारणा प्रचलित थी। आधुनिक कानूनी ढांचे में इसे पुनर्जीवित
और संस्थागत बनाने की आवश्यकता है।
कुल मिलाकर, जहाँ भी पारिवारिक मध्यस्थता को प्रभावी ढंग
से लागू किया गया है, वहाँ इसके सकारात्मक परिणाम मिले हैं, जैसे कि उच्च निपटान दर,
कम समय लगना, और पक्षों द्वारा अधिक संतुष्टि।
भारत में पारिवारिक मध्यस्थता के कार्यान्वयन
में चुनौतियाँ
पारिवारिक मध्यस्थता के अनेक लाभों के बावजूद, भारत में
इसके व्यापक और प्रभावी कार्यान्वयन में कई चुनौतियाँ विद्यमान थीं:
1. जागरूकता
का अभाव: आम जनता और यहाँ तक कि कई कानूनी पेशेवरों के बीच भी मध्यस्थता की प्रक्रिया,
इसके लाभों और कानूनी वैधता के बारे में पर्याप्त जागरूकता की कमी है। लोग अभी भी पारंपरिक
मुकदमेबाजी को ही विवाद समाधान का प्राथमिक तरीका मानते हैं।
2. प्रशिक्षित
मध्यस्थों की कमी: प्रभावी मध्यस्थता के लिए कुशल और प्रशिक्षित मध्यस्थों की आवश्यकता
होती है जिनके पास न केवल कानूनी ज्ञान हो, बल्कि उत्कृष्ट संचार, बातचीत और समस्या-समाधान
कौशल भी हों। योग्य मध्यस्थों की संख्या मांग की तुलना में अपर्याप्त थी, विशेषकर छोटे
शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में।
3. मानसिकता
और दृष्टिकोण: भारतीय समाज में एक हद तक 'जीतने' की मानसिकता प्रचलित है, जहाँ लोग
न्यायालय जाकर अपने 'अधिकारों' के लिए लड़ना पसंद करते हैं, बजाय इसके कि वे आपसी सहमति
से कोई बीच का रास्ता निकालें। कुछ वकील भी मध्यस्थता को अपने पेशे के लिए खतरे के
रूप में देख सकते हैं या उन्हें इसमें विशेषज्ञता की कमी हो सकती है।
4. मध्यस्थता
समझौतों का प्रवर्तन: यद्यपि मध्यस्थता के माध्यम से हुए समझौतों को न्यायालय की डिक्री
के समान कानूनी मान्यता प्राप्त हो सकती है (यदि वे धारा 89 सीपीसी के तहत संदर्भित
हों या लोक अदालत द्वारा पारित हों), फिर भी कभी-कभी उनके प्रवर्तन में व्यावहारिक
कठिनाइयाँ आ सकती हैं, खासकर यदि कोई पक्ष बाद में समझौते से मुकर जाए। हालांकि, कानूनी
ढांचा इस संबंध में विकसित हो रहा था।
5. शक्ति असंतुलन:
पारिवारिक विवादों में, विशेषकर लिंग या आर्थिक स्थिति के आधार पर, पक्षों के बीच शक्ति
असंतुलन हो सकता है। ऐसे मामलों में, कमजोर पक्ष पर दबाव डाला जा सकता है कि वह अनुचित
समझौते पर सहमत हो जाए। एक कुशल मध्यस्थ को इस असंतुलन को पहचानना और उसे दूर करने
का प्रयास करना चाहिए, लेकिन यह हमेशा आसान नहीं होता।
6. बुनियादी
ढांचे की कमी: कई जिलों और तालुका स्तरों पर समर्पित मध्यस्थता केंद्रों और आवश्यक
बुनियादी सुविधाओं का अभाव था। न्यायालय-अनुलग्न मध्यस्थता केंद्र मुख्यतः बड़े शहरों
में केंद्रित थे।
7. गुणवत्ता
नियंत्रण और विनियमन: मध्यस्थों के प्रशिक्षण, प्रमाणीकरण और आचार संहिता के लिए एक
समान राष्ट्रीय स्तर की नियामक संस्था का अभाव था, हालांकि इस दिशा में प्रयास चल रहे
थे।
8. न्यायालयों
और सरकार की भूमिका
न्यायपालिका ने भारत में मध्यस्थता को बढ़ावा देने में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने न केवल
अपने निर्णयों के माध्यम से मध्यस्थता की वकालत की है, बल्कि सक्रिय रूप से न्यायालय-अनुलग्न
मध्यस्थता केंद्रों की स्थापना और उनके कामकाज की निगरानी भी की है। न्यायाधीशों को
मध्यस्थता के लिए मामलों को संदर्भित करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।
सरकार ने भी मध्यस्थता को कानूनी मान्यता प्रदान करने और
इसे मुख्यधारा में लाने के लिए विधायी कदम उठाए हैं। विधि और न्याय मंत्रालय ने विभिन्न
सम्मेलनों, कार्यशालाओं और प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से मध्यस्थता के बारे में
जागरूकता फैलाने का प्रयास किया है। राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) और राज्य
विधिक सेवा प्राधिकरण (SLSA) भी लोक अदालतों और मध्यस्थता कार्यक्रमों के माध्यम से
विवाद समाधान में सक्रिय रहे हैं।
2019 में, भारत ने सिंगापुर मध्यस्थता समझौते
(Singapore Convention on Mediation) पर हस्ताक्षर किए, जो अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक
समझौतों के प्रवर्तन से संबंधित है। यद्यपि यह सीधे तौर पर पारिवारिक मध्यस्थता पर
लागू नहीं होता, यह मध्यस्थता को एक प्रभावी विवाद समाधान तंत्र के रूप में भारत की
प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
सुझाव
पारिवारिक मध्यस्थता को भारत में और अधिक प्रभावी बनाने
के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जाने की आवश्यकता थी (और इनमें से कई अभी भी प्रासंगिक
हैं):
1. व्यापक जागरूकता
अभियान: मध्यस्थता के लाभों के बारे में जनता, कानूनी पेशेवरों, पुलिस और अन्य हितधारकों
को शिक्षित करने के लिए राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर व्यापक जागरूकता अभियान चलाए
जाने चाहिए।
2. मध्यस्थों
का प्रशिक्षण और प्रमाणन: मध्यस्थों के लिए मानकीकृत और गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण कार्यक्रमों
की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए। एक समान प्रमाणीकरण प्रक्रिया और आचार संहिता विकसित की
जानी चाहिए।
3. बुनियादी
ढांचे का विकास: जिला और तालुका स्तर पर अधिक मध्यस्थता केंद्र स्थापित किए जाने चाहिए,
जो आवश्यक सुविधाओं से युक्त हों।
4. कानूनी ढांचे
को मजबूत करना: मध्यस्थता समझौतों के त्वरित और प्रभावी प्रवर्तन के लिए कानूनी प्रावधानों
को और स्पष्ट और मजबूत किया जा सकता है।
5. मध्यस्थता
को पाठ्यक्रम में शामिल करना: कानून के छात्रों के लिए मध्यस्थता को एक अनिवार्य विषय
के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए।
6. अनुसंधान
और डेटा संग्रह: मध्यस्थता की प्रभावशीलता, चुनौतियों और सफलता दर पर नियमित रूप से
डेटा एकत्र करने और शोध करने के लिए एक मानकीकृत प्रणाली स्थापित की जानी चाहिए।
7. प्री-लिटिगेशन
मध्यस्थता को बढ़ावा देना: विवादों के न्यायालय पहुँचने से पहले ही उन्हें मध्यस्थता
के माध्यम से हल करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष
पारिवारिक विवाद, अपनी संवेदनशील प्रकृति और दीर्घकालिक
भावनात्मक परिणामों के कारण, एक ऐसे दृष्टिकोण की मांग करते हैं जो न केवल कानूनी मुद्दों
का समाधान करे बल्कि मानवीय संबंधों को भी ध्यान में रखे। मध्यस्थता, अपने सहयोगात्मक,
गोपनीय और सशक्त बनाने वाले सिद्धांतों के साथ, भारत में पारिवारिक विवादों के समाधान
के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रभावी उपकरण के रूप में उभरी है। यह न केवल न्यायालयों
पर बोझ कम करती है, बल्कि पक्षों को अपने जीवन को सकारात्मक और रचनात्मक तरीके से आगे
बढ़ाने का अवसर भी प्रदान करती है, विशेषकर जहाँ बच्चों का भविष्य दांव पर हो।
मध्यस्थता में भारतीय पारिवारिक न्याय प्रणाली में क्रांति
लाने की अपार क्षमता है। कानूनी ढांचे के समर्थन, न्यायपालिका की सक्रियता और विभिन्न
मध्यस्थता केंद्रों के प्रयासों के बावजूद, जागरूकता की कमी, प्रशिक्षित मध्यस्थों
की अपर्याप्तता और कुछ संरचनात्मक बाधाएँ इसके मार्ग में चुनौतियाँ बनी हुई थीं। इन
चुनौतियों से पार पाकर और मध्यस्थता को जन-आंदोलन बनाकर ही हम एक ऐसी न्याय प्रणाली
की स्थापना कर सकते हैं जो वास्तव में सुलभ, सस्ती, त्वरित और सबसे महत्वपूर्ण, मानवीय
हो। पारिवारिक सौहार्द और सामाजिक स्थिरता के लिए मध्यस्थता के महत्व को स्वीकार करना
और इसे बढ़ावा देना समय की मांग है।
संदर्भ :
¹ श्रीराम पंचू, मीडिएशन:
प्रैक्टिस एंड लॉ (लेक्सिसनेक्सिस, 2011)। (Sriram Panchu, Mediation: Practice and Law (LexisNexis, 2011)).
³ सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908, धारा 89।
⁴ पारिवारिक
न्यायालय अधिनियम, 1984, उद्देशिका।
⁵ पारिवारिक
न्यायालय अधिनियम, 1984, धारा 9(1)।
⁶ हिंदू विवाह
अधिनियम, 1955, धारा 23(2)।
⁷ विधिक सेवा
प्राधिकरण अधिनियम, 1987, अध्याय VI (लोक अदालतें)।
⁸ एफकॉन्स इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड बनाम चेरियन वर्की कंस्ट्रक्शन
कंपनी प्राइवेट लिमिटेड, (2010) 8 SCC 24.
⁹ अनिरुद्ध
प्रसाद, "मीडिएशन इन मैट्रिमोनियल डिस्प्यूट्स: ए क्रिटिकल एनालिसिस," इंटरनेशनल जर्नल ऑफ लॉ एंड लीगल ज्यूरिस्प्रूडेंस
स्टडीज, वॉल्यूम 2, अंक 3 (2015): 55-65.
¹⁰ पूनम प्रधान सक्सेना, फैमिली लॉ
लेक्चर्स: फैमिली लॉ II (लेक्सिसनेक्सिस, तीसरा संस्करण, 2011)।
(Poonam Pradhan Saxena, Family Law Lectures: Family Law II (LexisNexis, 3rd edn., 2011)).
¹¹ विधि आयोग, भारत सरकार, रिपोर्ट संख्या 222: नीड फॉर जस्टिस-एक्शन (2009), एडीआर तंत्रों की लागत-प्रभावशीलता
पर चर्चा।
¹² विधि आयोग, भारत सरकार, रिपोर्ट संख्या 222: नीड फॉर जस्टिस-एक्शन (2009)।
¹⁷ भारत ने 7 अगस्त 2019 को सिंगापुर कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किए। पीआईबी विज्ञप्ति,
भारत सरकार।
डॉ. आशुतोष मिश्रा, सहायक प्रोफ़ेसर, विधि संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय
ईमेल: ashu.du@gmail.com,
मोबाइल: +91-9873558866
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत
UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL
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