कृष्णा सोबती के
कथा-साहित्य में अभिव्यक्त प्रेम
पल्लवी प्रकाश
शोध-सार :
इस समस्त संसार का मूल तत्त्व प्रेम है। प्रेम ही वह आदि एवं चिरन्तन भावना है जो इस संसार के सभी मनुष्यों को एकता के सूत्र में बांधती है। प्रेम शब्द की व्याख्या के कई प्रयास हुए हैं; यथा- मनोवैज्ञानिक, साहित्यिक, दार्शनिक और समाजशास्त्रीय परिभाषाएँ इत्यादिl लेकिन कोई भी परिभाषा अंतिम या सम्पूर्ण नहीं है। प्रेम वह शक्ति है जो मनुष्य की निजता को बरकरार रखते हुए भी उसे सामाजिकता से भी जोड़ती है। समकालीन महिला-लेखन में स्त्री जीवन से जुड़े अनेक मुद्दों के साथ ही प्रेम पर भी गहराई से विचार हुआ है। कृष्णा सोबती समकालीन महिला लेखन के सर्वाधिक लोकप्रिय हस्ताक्षरों में से एक हैं जिनके लेखन का दायरा लगभग छह दशकों तक पसरा हुआ है तथा सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक और साहित्यिक परिवर्तनों के एक लम्बे दौर की वे सहभागी रही हैं। इस शोधपत्र में यह जानने का प्रयास किया जाएगा कि कृष्णा सोबती के कथा-साहित्य में प्रेम की अभिव्यक्ति किस तरह से हुई है।
बीज शब्द : कृष्णा सोबती,
कथा-साहित्य, प्रेम।
मूल आलेख :
विभिन्न विद्वानों ने प्रेम की अनेक परिभाषाएँ दी हैं लेकिन किसी भी परिभाषा को सम्पूर्ण नहीं माना जा सकता। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, “....जो तृप्ति दे, प्रीति दे, वही प्रेम है। तृप्ति देने की क्रिया प्रिय से सम्बद्ध होकर ही सम्पन्न हो सकती है।”(1)आदिकाल से रचनाकारों ने प्रेम का निरूपण अपनी रचनाओं में करने का प्रयास किया है लेकिन यह प्रयास आज भी जारी ही है क्योंकि प्रेम की व्यापकता को शब्दों में सम्पूर्णत: समेट लेना किसी के लिए संभव नहीं हुआ। कृष्णा सोबती मूलतः रोमैंटिक रचनाकार के रूप में नहीं जानी जाती हैं और प्रेम को केंद्र में रख कर उन्होंने बहुत कम रचनाएँ लिखी हैं लेकिन कम लिखने के बावजूद भी प्रेम का जितना जीवंत और मार्मिक विश्लेषण उनकी रचनाओं में मिलता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। बदलते जीवन-मूल्यों और सामाजिक परिवेश ने प्रेम-सम्बन्धी धारणाओं में किस प्रकार का बदलाव किया है, यह कृष्णा सोबती के कथा-साहित्य में बखूबी व्यक्त हुआ है। किसी भी प्रकार की गलदश्रु भावुकता सोबती के यहाँ उपस्थित नहीं, जो उनके प्रेम-सम्बन्धी वर्णन को संयमित और विश्वसनीय बनाता है।
आधुनिक युग
में औद्योगीकीकरण, भूमण्डलीकरण और नारी-मुक्ति आंदोलनों ने नारी की सामाजिक स्थिति
में अनेक सुधार किये हैं। स्त्रियों का एक बड़ा तबका आज शिक्षित और आर्थिक रूप से
आत्मनिर्भर है तथा इसी कारण जीवन के सभी पहलुओं जैसे आर्थिक स्वातन्त्र्य,
अस्त्तिवबोध, प्रेम या विवाह से सम्बंधित निर्णय, सभी को आलोचनात्मक दृष्टि से
देखती है। आज की स्त्री सभी मुद्दों पर पुरुष से बराबरी का अधिकार चाहती है। प्रेम
अब कोई शाश्वत भावना नहीं रही और इसे अपनी सुविधानुसार तोड़ा या मरोड़ा जा सकता है।
आधुनिक युग में प्रेम सिर्फ़ उदात्त भावना तक सिमटा हुआ नहीं है बल्कि शारीरिक और
मानसिक संतुष्टि का भी उपादान बन चुका है।
कृष्णा सोबती
के कथा साहित्य में प्रेम संबंधी दृष्टिकोण में बदलाव को विभिन्न रुपों में
अभिव्यक्त किया गया है। प्रेम संबंधों में आ रहे बदलाव को प्रस्तुत करते समय
कृष्णा सोबती वस्तुत: बदलती मानसिकता को सूचित करना चाहती हैं। “डार से बिछुड़ी”
उपन्यास में पाशो की माँ, एक हिन्दू विधवा होने के बावजूद भी विधवाओं के लिए बनाई
गई परिपाटी पर चलने को तैयार नहीं और वह मुस्लिम शेखजी के प्रेम में पड़कर उनसे
विवाह कर लेती है। परिवार या समाज का डर भी उसे डिगा नहीं पाता। इसी प्रकार “मित्रो
मरजानी” में भी प्रेम की परिभाषा बदलती नजर आती है। मित्रो प्रेम को अशरीरी नहीं
मानती। उसके लिए प्रेम शारीरिक और मानसिक दोनों ही तरह के आनन्द का साधन है। जब
अपने पति सरदारीलाल की शारीरिक अक्षमता की वजह से मित्रो इस संतुष्टि को हासिल
नहीं कर पाती तो उसका मन विद्रोह कर उठता है। वह कहती है, “जिठानी, तुम्हारे देवर-सा
बगलोल कोई और न दूजा होगा। न दुःख-सुख, न प्रीति-प्यार, न जलन-प्यास....बस आये दिन
धौल-धप्पा....लानत-सलामत!”(2)
मित्रो को सरदारीलाल से प्रेम तो है लेकिन सरदारीलाल की शारीरिक अक्षमता तथा
मित्रो के मन से सामंजस्य न स्थापित कर पाना, कुछ ऐसी वजहें हैं जिनके कारण मित्रो
और सरदारीलाल के बीच अकसर तनाव उत्पन्न होता रहता है। मित्रो तब प्रेम के अन्य
विकल्पों के बारे में सोचने लगती है। वह अनेक पुरुषों के विषय में अपनी कल्पना में
सोचते रहती है और सास या जिठानी की झिड़कियों का भी उस पर कोई असर नहीं होता।
अनामिका के अनुसार, “मित्रो का लिबिडो देह की चट्टान से उत्ताल
तरंगों में टकराता समुन्दर है और वह जो सोचती है- उसकी थिरकन, उसकी ऊँच-नीच सब भाषा में सीधी छन जाती है।”(3)
“तिनपहाड़”
उपन्यास की जया वह स्त्री है, प्रेम ही जिसके जीवन का आधार-बिंदु है। प्रेम के
सिवा न उसने कुछ जाना है, न जानना चाहती है। श्री का प्रेम ही उसके जीवन का अभीष्ट
है जिसे न पा सकने की स्थिति में वह जीवन को निरुद्देश्य समझती है। तपन के प्रेम
को भी वह अस्वीकार कर देती है और मृत्यु का वरण करती है। प्रेम में असफल होना ही
उसकी मृत्यु का कारण बनता है। जया वस्तुत: उस परम्परावादी आदर्श भारतीय नारी की तसवीर
प्रस्तुत करती है जिसके जीवन में प्रेम केवल एक ही बार आता है, जो यदि मन से भी एक
बार जिसके लिए समर्पित हो गई, फिर उसका त्याग नहीं कर सकती, चाहे प्रतिदान में उसे
कुछ भी नहीं मिले। यहाँ उसकी साम्यता निर्मल वर्मा की कहानी “परिंदे” की लतिका या
शरतचंद्र के उपन्यास “चरित्रहीन” की सावित्री के साथ देखी जा सकती है जो एकनिष्ठ और
शाश्वत प्रेम में यकीन रखती है।
“कुछ नहीं,
कोई नहीं” कहानी की शिवा अपने पति रूप से विरक्त नहीं बल्कि उससे गहरा प्रेम करती
है। लेकिन जब रूप कुछ दिनों के लिए घर से बाहर है तो क्षणिक आवेश में आकर शिवा पति
के मित्र आनन्द से सम्बन्ध बना लेती है। यह कोई सोचा-समझा हुआ निर्णय नहीं था और
इसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ता है, रूप का घर और अपने बच्चों को त्याग कर। शिवा,
आनन्द के साथ चली तो जाती है लेकिन आनन्द के साथ रहते हुए भी वह एक क्षण के लिए भी
रूप को नहीं भूल पाती। आनन्द की मृत्यु के साथ ही शिवा के पश्चाताप का सिलसिला
शुरू हो जाता है। वह रूप के सामने क्षमा याचना प्रस्तुत करती है। शिवा के लिए अब
कहीं कोई जगह नहीं, कहीं कोई रिश्ता नहीं बचता, “रूप, मैं आज तुम्हारी कुछ नहीं
हूँ। आनन्द के बच्चों को आनन्द का सब कुछ सौंपकर तीन-चार दिन में यहाँ से चली जाऊँगी।
फिर न कभी घर देखूँगी....न घर का सामान, न सामान से लिपटी अतीत की स्मृतियाँ,,,,।कहाँ
रहूंगी, कहाँ जाऊँगी, कुछ पता नहीं। रूप, अब किसे जानना है, मैं कहाँ हूँ, मैं
क्या हूँ? मैं किसी की कुछ नहीं, कोई नहीं”।(4)
अगर इस कहानी
के रचनाकाल को देखें तो यह मार्च 1955 में लिखी गयी है। इस कहानी के तार आगे चलकर कृष्णा
सोबती की मित्रो से जुड़ते हैं। “मित्रो मरजानी” 1966 में लिखी गयी है। इन ग्यारह
वर्षों के अंतराल में सोबती की नायिका मित्रो इतनी परिपक्व हो जाती है कि वह शिवा
की तरह भावावेश में कोई ऐसा निर्णय नहीं लेती जिससे कि उसका परिवार तहस-नहस हो जाए।
पति सरदारीलाल की शारीरिक असमर्थता से मित्रो क्षुब्ध जरूर है और अपनी कल्पना में
विभिन्न पुरुषों के बारे में सोचती भी रहती है। अपने मायके में एक बार वह अपनी माँ
के पूर्व-प्रेमी के पास सम्बन्ध बनाने के लिए चली भी जाती है लेकिन फिर उसकी देहरी
से ही वापस लौट आती है क्योंकि शरीर की उद्दाम लालसा को नियंत्रित करने वाला विवेक
भी उसके पास है। मित्रो का यह वापस अपने पति के पास लौट आना एक बहुत ही प्रैक्टिकल
निर्णय है। उसके सामने उसकी माँ का ठंडी ठठरी-सा जीवन है, जिसे देखकर वह सबक लेती
है।
एकनिष्ठ प्रेम
का अत्यंत सुंदर चित्रण हुआ है “दो राहें, दो बाहें” कहानी में, जिसमें दुर्घटना
में घायल रोहित के लिए मीनल का प्रेम अत्यंत मार्मिक रूप में प्रस्तुत हुआ है।
प्रेम की इसी अक्षुण्ण भावना को प्रतिबिम्बित किया गया है “बादलों के घेरे” कहानी
में जहाँ मृत्युपथ की तरफ़ अग्रसर रवि एक तरफ़ मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है तो दूसरी
तरफ़ अपने विगत प्रेम की स्मृतियों को भी अनुभूत कर रहा है। मन्नो और रवि का प्रेम प्लेटोनिक
है, दोनों का साथ भी बहुत क्षणिक रहा है, लेकिन इसके बावजूद वही प्रेम स्थायी
स्मृति है रवि के जीवन की। जब मौत की पदचाप सामने है तो रवि को अपनी पत्नी मीरा की
नहीं बल्कि मन्नो की याद आती है।
“बादलों के
घेरे” कहानी की मन्नो और “तिनपहाड़” की जया में एक संगति देखने को मिलती है, वह है
प्रेम की पीड़ा, उसे न पा सकने की कसक और परिणामस्वरूप स्वयं को नष्ट कर लेने का
आग्रह। जया या मन्नो जैसी औरतें खुद के लिए कोई भी मोह नहीं रखतीं और ऐसा लगता है
कि उनका अस्तित्व पुरुष के प्रेम से ही जुड़ा हुआ है। राजेन्द्र यादव के शब्दों
में, “कृष्णा जी के कथा-विकास में जमीन से टूटी हुई यह औरत, “बादलों के घेरे,”
और“तिनपहाड़” मेंसिर्फ एक भावना है, एक उच्छ्वास या अहसास। यहाँ वह उतनी साकार और
ठोस नहीं है, बादलों के धुंध जैसी छाया और परछाई है जो किन्हीं सम्बन्धों में
जुड़कर अपनी सार्थकता तलाश करती है।....यह तो शुद्ध पुरुष के प्यार की वह तलाश है
जो औरत को अपने होने का बोध कराती है। यह भटकन, तलाश या भावना, इतनी अधिक अशरीरी, वायवी
और निराकार है कि लगता है शरीर के पाने की याचना करती आत्माएँ ही सिसक रही हैं....यह
भी आकस्मिक नहीं है कि दोनों ही कहानियों की नारियाँ मन्नो और जया मृत्यु के प्रति
समर्पित हैं, मरने के लिए अभिशप्त। मगर वे अकेले नहीं मरतीं, मानो इस छूत और दंश
को साथ वाले पुरुषों को सौंप जाती हैं— तिल-तिल घुलने और घुटने के लिए...’’(5)
कृष्णा सोबती उस
आधुनिक स्त्री को भी सामने लेकर आती हैं जिसके लिए प्रेम उसके वजूद की तलाश भी है।
“सूरजमुखी अँधेरे के” में रत्ती और दिवाकर का प्रसंग कुछ ऐसा ही है। रत्ती का बचपन
एक भयावहता से आक्रान्त रहा है, जिसने उसके तन और मन दोनों को ही अंधियारे से भर
दिया है। रत्ती के सच को जानने के बाद भी असद उससे प्रेम करता हैऔर रत्ती के मन के
तार भी उससे जुड़े होते हैं। एक लम्बी बीमारी के बाद जब असद की मौत हो जाती है तब
रत्ती बिखर जाती है। उसके जीवन में असद के बाद जितने भी पुरुष आते हैं वे सभी उसके
चोटिल मन को और लहूलुहान करके ही जाते हैं, परिणामस्वरूप रत्ती एक ठंडी स्त्री के
रूप में तब्दील हो जाती है जिसके तन और मन के अभेद्य दुर्ग तक कोई पुरुष पहुँच
नहीं पाता। तभी दिवाकर का आगमन रत्ती के जीवन में होता है। दिवाकर विवाहित है, इस
सत्य को जानने के बावजूद भी रत्ती का उसके लिए प्यार कम नहीं होता, ठीक उसी प्रकार
जिस प्रकार रत्ती के सच को जानने के बावजूद भी दिवाकर दूसरे पुरुषों की भाँति
रत्ती से नफरत नहीं करता। दिवाकर के साथ जो उसके सम्बन्ध बनते हैं, वह सिर्फ देह
के स्तर तक नहीं, बल्कि आत्मा के स्तर पर भी हैं। रत्ती के तन और मन पर पड़ी
बेड़ियों को तोड़ने वाला दिवाकर वह पहला पुरुष है जिसके माध्यम से वह स्वयं को पाती
है। दिवाकर और रत्ती के मिलन को कृष्णा सोबती ने बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत किया
है, जिसमें अगर थोड़ी भी चूक हो जाती तो वर्णन के अश्लील होने का खतरा रहता। राजेन्द्र
यादव के अनुसार, “....जिस नाजुक कलम और तन्मय विभोरता से इसे कृष्णाजी ने लिखा है
वह सिर्फ़ और सिर्फ़ कविता है।....शायद पहली बार छायावादी मुहावरे को ऐसा माँसल
धरातल मिला है। नारी-पुरुष के इस बेबाक मिलन, सम्भोग की विभिन्न स्थितियों को निश्चय
ही इसमें उन्होंने पूजा जैसी गरिमा दी है। शायद ऐसी ही निष्ठा से खजुराहो और कोणार्क
के मिथुन-युग्म तराशे गए होंगे....जहाँ हर तलाश और तराश सिर्फ़ एक ऋचा जैसी लगे।”(6) पर रत्ती, दिवाकर के वैवाहिक जीवन पर कोई आँच
नहीं आने देना चाहती है और इसीलिए वह उसके साथ आगे संबंधों का निर्वाह नहीं करना
चाहती क्योंकि उसका तर्क है कि वह जुड़े हुए को तोड़ेगी नहीं। दिवाकर का प्रेम रत्ती
के लिए वह थाति है, जिसके सहारे पूरा जीवन काटा जा सकता है।
“जिंदगीनामा”
उपन्यास में प्रेमी-प्रेमिकाओं के अनेक ऐसे युग्म मौजूद हैं जिन्हें समाज स्वीकृति
नहीं देता लेकिन इसके बावजूद वे अपने सम्बन्धों पर अडिग रहते हैं। फ़तेह और शेरा
तथा चाची महरी और गणपत के संबध कुछ ऐसे ही हैं जो सामाजिक दबाव और नियन्त्रण से
परे हैं। इसी प्रकार बड़े शाहजी और राब्यां के प्रेम संबंध भी कुछ अलग ही तरह के
हैं जिन्हें यूँ तो समाज स्वीकृति नहीं देता लेकिन खुलकर विरोध भी किसी के द्वारा
नहीं किया जाता। शाहनी से विवाह के बावजूद भी शाहजी राब्यां के साथ एक समानांतर
सम्बन्ध रखते हैं जो पूरी तरह भावात्मक होने के बावजूद भी अत्यंत सशक्त हैं।
आधुनिक युग
में प्रेम के स्वरूप में अनेक बदलाव आये हैं। प्रेम में एकनिष्ठता एक अविश्वसनीय-सी
वस्तु बन गयी है। एकनिष्ठता इसलिए भी आज निरर्थक हो गयी है क्योंकि अंतत: यह
पितृसत्ता के फायदे के लिए ही काम करती है। उर्वशी बुटालिया के अनुसार, “इस विचार
में पितृसत्ता को या पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था को भुला दिया जाता है, जिसमें
स्त्री और पुरुष के कर्तव्य तथा अधिकार कभी सामान नहीं होते, जिसमें स्त्री के लिए
तो पतिव्रता का या एकनिष्ठ प्रेम करने वाली स्त्री का आदर्श होता है, जबकि पुरुष
के लिए एकनिष्ठ प्रेम जरुरी नहीं माना जाता।”(7) कृष्णा सोबती के यहाँ मौजूद स्त्री प्रेम को हमेशा शाश्वत भावना नहीं
समझती, बल्कि अपनी जरूरतों के हिसाब से ढालने वाली भावना भी मानती है क्योंकि अब
प्रेम में बौद्धिकता का भी समावेश हो चुका है। “दिलोदानिश” में वकील दयानारायण और उनकी
रखैल मह्कबानो का संबंध कुछ ऐसा ही है। आरम्भ में महक एक समर्पिता की भूमिका में
है और वकील साहब के साथ उसके प्रेम संबंध अत्यंत मधुर हैं। इसी प्रेम संबंध के परिणामस्वरूप
महक दो बच्चों की माँ भी बनती है। महक का प्यार नि:स्वार्थ है, उसे वकील साहब की
दौलत नहीं उनका प्रेम चाहिए। लेकिन वकील साहब जब बदरू के जन्मदिन पर दिए गए कंगन
उससे वापस माँग लेते हैं एवं मासूमा के विवाह के मौके पर उसे माँ की हैसियत से
वंचित रखते हैं तब महक समझ जाती है कि सम्बन्ध अब चुक गए हैं। वकील साहब से वह
अपने गहने वापस माँग लेती है, “....हमारी माँ के जेवर हमें
आज शाम तक मिल जाने चाहिए वकील साहब। आप अम्मी के वकील रहे, अब हम आपकी मुवक्किल
की बेटी हैं जिसका उन पर पूरा हक़ है।”(8) न केवल महक अपनी
अम्मी के जेवर वकील साहब से वापस लेने में सफल रहती है बल्कि अपने बच्चों से दूर
किये जाने पर प्रेम की नयी संभावनाएँ भी तलाशती हैं खां साहब के रूप में। महक का
यह निर्णय निश्चित रूप से उस पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देता
प्रतीत होता है जिसने स्त्री को हमेशा पुरुष का उपनिवेश समझा। सिमोन द बोउवार के
अनुसार, “पुरुष जब नारी को अपनी सम्पत्ति के रूप में प्राप्त
करता है, तो उसकी यही इच्छा रहती है कि नारी केवल देह ही रहे। पुरुष नारी के शरीर
में नारी के व्यक्तित्व का विकास नहीं देखना चाहता।”(9) प्रेम
में स्त्री के व्यक्तित्व के तिरोहित हो जाने का अस्वीकार ही कृष्णा सोबती के लेखन
को विशिष्ट बनाता है। “ऐ लड़की” की अम्मू नर्स सूसन को समझाती है, “सूसन, शादी के बाद किसी के हाथ का झुनझुना नहीं बनना। अपनी ताकत बनने की
कोशिश करना”।(10) “ऐ लड़की” की लड़की तथा “समय सरगम” की आरण्या प्रेम रहित विवाह का
आग्रह नहीं रखतीं। वे प्रेम में बराबरी और सम्मान की उम्मीद रखती हैं, इसीलिए
लड़की, अम्मू को बतलाती है, “मैं किसी को नहीं पुकारती। जो
मुझे आवाज देगा, मैं उसे जवाब दूंगी।”(11) समकालीन कवि पंकज
चतुर्वेदी भी प्रेम में स्त्री की वैयक्तिकता को बचाए रखने के हिमायती हैं, इसलिए कहते हैं,
“अगर यह सच है
कि मेरे ही आसरे तुम जियो
और मेरी मृत्यु में
अपना भी अंत लेकर प्रस्तुत रहो
अगर यही प्रेम है तो प्रिये!
मुझे अपने प्रेम से वंचित करो”(12)
निष्कर्ष :
आधुनिक युग
में प्रेम, सिर्फ भावना पर
केन्द्रित नहीं रहा बल्कि उसमें ठोस बौद्धिकता भी समाहित हो गई है। प्रेम अब
परम्परागत नैतिक मूल्यों द्वारा निर्देशित नहीं होता, बल्कि
व्यक्तिगत मूल्यों द्वारा ही संचालित होता है। सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक
परिवर्तनों ने समाज में स्त्री की प्रस्थिति में, उसकी
मानसिकता में आमूल-चूल बदलाव लाये हैं जिसने प्रेम की परम्परागत अवधारणा को भी
प्रभावित किया है। कृष्णा सोबती के कथा-साहित्य के प्रारम्भिक दौर के उपन्यासों और
कहानियों में प्रेम के आदर्श, परम्परागत और वायवी रूप को
प्रधानता मिली है लेकिन कालान्तर में यह अधिक मुखर, ठोस और
बौद्धिक होता चला गया है। निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि कृष्णा सोबती के
कथा-साहित्य में बदलते सामाजिक परिवेश के साथ ही प्रेम सम्बन्धी दृष्टिकोण में आये
बदलाव का भी यथार्थ चित्रण हुआ है।
संदर्भ :
1) रामचन्द्र शुक्ल, चिंतामणि भाग 1, (लोभ और प्रीति) संस्करण—1983, पृष्ठ –77
2) कृष्णा सोबती, मित्रो मरजानी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,2004, पृष्ठ- 18
3) अनामिका,
अंत:प्रज्ञा का ऐन्द्रिक विस्तार,शताब्दी कथा-साहित्य, पृष्ठ- 376
4) कृष्णा सोबती, बादलों के घेरे, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली,2007, पृष्ठ-91
5) राजेन्द्र यादव, औरों के बहाने, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली,
1980, पृष्ठ-41
6) राजेन्द्र यादव, व्यक्तित्व की खोज: कृष्णा सोबती, औरों के
बहाने, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-44
7) (सं) रमेश उपाध्याय एवं संज्ञा उपाध्याय, आज के समय में प्रेम,
शब्दसंधान प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004, पृष्ठ-37
8) कृष्णा सोबती, दिलोदानिश, राजकमल प्रकाशन,
दिल्ली,2006, पृष्ठ- 204
9) प्रभा खेतान, स्त्री-उपेक्षिता, हिंद पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली,2004, पृष्ठ-87
10) कृष्णा सोबती, ऐ लड़की, राजकमल प्रकाशन, नई
दिल्ली,1991, पृष्ठ-6
11) वही,
पृष्ठ-56
12) पंकज चतुर्वेदी, अगर यही प्रेम है, हिंदी समय shorturl.at/nMY34
पल्लवी प्रकाश
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हिंदी, एस/एन. डी. टी. महिला विश्वविद्यालय, चर्चगेट, मुम्बई
9867158023, pallaviprakash123@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021