कुछ कविताएँ : पन्ना त्रिवेदी

                                कुछ कविताएँ : पन्ना त्रिवेदी

 

1.  कमाल की औरतें

 

उसने कहा

सारी औरतें औरतें ही होती हैं

लेकिन 

कुछ कम तो कुछ ज़्यादा औरताना होती हैं

सभी औरतें लिख नहीं सकती कविता

इसलिए वे झाड़ू-पोंछा-बर्तन करती हैं

लेकिन तुम ?

तुम तो लिख सकती हो कविता

रुई के एक फाहे में पूरा बादल भर सकती हो

तिनकों के घोसले में घर ढूंढ सकती हो

चाँद को दिलफेंक 

और चांदनी को जोगन बना सकती हो

हवा की हिचकी सुन सकती हो

और गिन सकती हो 

लौटते हुए मौसम की उबासी भी

तुम शाखों की टहनियों के रोंगटे देख सकती हो

और बारिश के पानी के आसूं भी

सच ! तुम कमाल कर सकती हो....

कहते हुए उसने

कागज़ और कलम के थमा दिए थे दो पंख....

 

अब

लिख रही हूँ मैं कविता

बाई मांज रही है बर्तन

कानों में गूंज रहे है वे शब्द:

सभी औरतें लिख नहीं सकती कविता

इसलिए वे झाड़ू-पोंछा-बर्तन करती हैं

 

देख रही हूँ एक अर्धसत्य -

बर्तनों की खनक में पिसता हुआ उसका गीत

आँख से बहता खामोश संगीत

गर्दन की हड्डियों के कुओं का सूखा हुआ पानी

बर्तन चमकाती उसकी खुरदरी हथेली

और हाथ की रेखाओं में राख होती हुई एक कहानी

पित्तल के दीये हो रहे हैं जगमग 

किसी सुखी रोटी से सख़्त चेहरे पर

आँख से ओझल हो रही है चमक

 

फिर भी

मुस्कुराते होंठ गुनगुना रहे हैं अपना ही गीत!

 

कौन कहता है

सभी औरतें कविता नही लिख सकती?

हर औरत एक कविता होती है

और कविता जीती वे सारी औरतें 

बसकमाल की होती है!!

 

.  यही सच है 

 

सुनो

तुम अपनी रोटी कमाने लगी हो

और लिखने लगी हो अपनी बात

फैला रही हो अपनी जमीं पर अपना-सा आसमां

तो सुनवाई के लिए अब रहो तुम तैयार... 

 

तुम जलते सूरज के आगे नहीं रखोगी थाली

तुम उस वक्त उतारोगी कोरे कागज़ पर 

अपना दोपहरी चाँद

तुम रात में नहीं बनोगी उसकी नर्म रोटी

घर की दीवारों का 

चीखना-चिल्लाना-चिढ़ना-चिंग्धाड़ना और तमाशा....

फिर भी 

तुम लिखोगी अपनी कविता

तो तुम परिवारभंजक कहलाओगी...

 

तुम्हारी कोमल उंगली में

घर की चाबी के साथ साथ 

अगर हो चुकी है कचहरी की चाबी भी शामिल

तुम तुम्हारे सहकर्मियों से कुछ ज़्यादा ही हो काबिल

तुम्हारी चाल में है समंदर-सी तेज़ उफान

तुम्हारी आवाज़ में गरजती है शेर-सी दहाड़

कुछ आंखों ने देख लिये हैं तुम्हारे पैरो में पंख हज़ार

और हाथों में सारा आकाश

क्योंकि 

तुम एक औरत हो और दुर्भाग्य से सुंदर हो

तो वे करेंगे अपनी जमात में शामिल करने का प्रयास

झूठी तारीफें - प्रेम के दावे और कुछ अहसान

तुम ठुकराओगी उनके प्रेम प्रस्ताव  

तो तुम उसी पल से बन जाओगी चरित्रहीन.... 

 

तुम स्थापित-प्रस्थापितों से करोगी बहस

तुम चर्चा-विमर्श में रहोगी बराबर शामिल

तुम पुरुष उंगली के शिष्यत्व का करोगी अस्वीकार

तुम 'उद्दंडहोकर पाँव छूने से करोगी इनकार

समझो

उसी क्षण हो चूका

तुम्हारा वजूद भी उनके लिये तुम्हारे सृजन-सा निरर्थक !

 

सुनो

तुम अपनी रोटी कमाने लगी हो

तो सुनवाई के लिए अब रहो तुम तैयार... 

 

 

 

 

3. बिन ब्याही की मौत

 

कहते हैं 

मौत बहुत भयंकर होती है

और बिन ब्याही औरत की मौत

होती है और भी भयावह 

उसकी अंतिम यात्रा में होगा

सन्नाटे का अट्टहास और अंतहीन परिहास -

एक बिन ब्याही अकेली औरत जब मर जाती है

तब वह रहेगी किसीकी पूर्वज

होगा उसका कोई वंशज...

 

झूठ कहते हैं वे लोग

एक रहस्यमय मुस्कान लिये

वो जाएगी कविता के कंधो पर

और दाह देगी कविता ही

वह कविता

जिसने उसे सदैव छाँह दी है जलती धूप में....

 

 

रोयेंगे जार जार 

कहानी और उपन्यास के किरदार

होंगे कुछ शब्द और अर्थ निराधार...

 

सुनो,

कुछ कह रही है उसकी रहस्यमयी मुस्कान

-मेरे शब्द मेरे वंशज.....

 

 

4. तुम लौटकर आओगी

 

तुम लौटकर आओगी

क्योंकि लौटकर आता है सूरज भोर में

लौटते हैं पत्ते पतझड़ की शाख पर

जैसे लौटता है वृक्ष एक छोटे-से बीज में

तुम लौटकर आओगी

जैसे लौट आते हैं तारें सघन अंधकार में

जैसे लौट आता है आषाढ़ आकाश में

लौट आता है पवन स्तब्ध अवकाश में

जैसे लौटता है जीवन मरण में

 

मैं कर रहीं हूँ तुम्हारी प्रतीक्षा

क्योंकि

मैं जानती हूँ

जहाँ अंधकार है

बंजरपन है

शून्य अवकाश है

सन्नाटा है

वह लौट आती है

क्योंकि

कुछ नहीं रखती प्रकृति अपने पास

कुछ भी तो नहीं

कहाँ रखती है खुद को भी अपने के पास !

लौटना उसका दायित्व है, लौटाना उसकी फितरत...

 

तुम भी लौटकर आओगी एक दिन

क्योंकि

माँएँ कभी नहीं ठहरती

पराये घर

पराये मुल्क

पराये ईश्वरों के साथ

अपने बच्चों को छोडकर घने अंधेरों में

ज्यादा दिनों के लिए...

 

5. अर्थ 

 

मेरा नाम याद है मुझे

याद है मुझे मेरा पता भी अभी तक

याद है शब्द और उसकी पहचान

पढ़ सकती हूँ शब्दकोश के शब्द

 

चेतना

संवेदना

नैतिकता

मूल्य

स्वप्न

मनुष्यत्व

मोक्ष

 

और

अचानक  

मुझे लगता है

मैं हो गई हूँ निरक्षर....

 

शब्द है सामने

फ़िर भी अर्थ है अदृश्य

शब्द है

किंतु

अर्थ का भी क्या है अर्थ?

 

6. दिन रात

 

मैंने रात जला जलाकर

अपने दिन बनाये हैं

देखो,

रात की उस आग में

मैंने

सपनों के कुछ उपलें

रखे हैं जलने....

 

7. गृहिणी

 

अब्दुलमैं और मेरी दीदी

मुहल्ले चाहे अलग होंमगर

एक ही स्कूल में साथ जाते

कक्षा भी एक ही थी

पिछले साल दीदी फेल जो हुई थी !

 

हमारे सफ़ेद यूनिफ़ॉर्म बेदाग़ होते रोज़ाना

हमारे टिफ़िन मनपसंद व्यंजन से महकते रोज़ाना

हमारे बस्तों में क़िताबें करीने से रखी होती रोज़ाना

बने हुए बाल और कटे हुए नाख़ून

साफ़ धुले मोज़े और पॉलिश किये बूट

 

एक शाम

हम खेल रहे थे साथ साथ

अब्दुल के आँगन में

उसके पिताजी बतिया रहे थे किसी महेमाँ से

चाय पीता वो शख्स पूछ रहा था उनसे

क्या करती है अब्दुल की वालदा?

उसके पिता ने फट से कहा कुछ भी नहीं !

घर संभालती है बसऔर क्या?

सुनकर भी हमने खेलना ज़ारी ही रखा

कोई सनसनीखेज घटना थोड़ी ही घटी थी

जो हम खेलना बंद कर देते !

क्या फ़र्क पड़ता?

मेरा यानि राम का आँगन होता तब भी?

यही कहते मेरे पिताजी भी कुछ भी नहीं !

घरेलू औरत जो ठहरी !

 

तभी तो दूसरे दिन

टीचर ने जब उठाकर हमसे बारी बारी पूछा था

क्या करते हैं आपके माँ-बाप?

बाप का तो बताया बड़ी अदब से

और माँ का भी कह दिया फट से कुछ भी नहीं !

अब्दुल ने भी और दीदी ने भी

 

हाँ,

सूरज पृथ्वी पर जिस गति से पहुँचता है

उससे भी तेज़गति से

माँ के पाँव दौड़ते थे हर सुबह

शक्करवाली चायफीकी चाय

अदरकवाली चायइलायचीवाली चायकॉफ़ीकाढ़ा

दीवारों पर लगे जालों को साफ़ करती थी माँ

या उलझनों के जाले हटाकर रिश्तों में पड़ी दीवारें गिराती थी !

मटके में रोज़ पानी भरती थी

या अपनों के हाथों से खुद पर उतरते

गैरों के गुस्से को भर रखती थी भीतर

फ़लां अनाज में कीड़े पड़े हैं

फ़लां पौधों को धूप चाहिए और फ़लां को छाँव

फ़लां दिनफ़लां लोग आने वाले हैं

उस बारे में सोचती थी बस !

कौन सा बच्चा कितने दिनों में कितना इंच बढ़ा

उसकी खबर रखती थी बस !

किस कमीज़ का बटन टूटा हैकिस पतलून की चेन बिगड़ी है

कहाँ से बख़िया उधड गई है

उस पर नज़र रखती थी बस !

 

 

बुद्धिजीवी होती तो सोचती-

अभिव्यक्ति की आज़ादीस्त्री अधिकारनारीवाद

और विवादों के बारे में

लेकिन उसकी सोच का दायरा ही कितना?

रसोईघर से आँगन जितना !

कौन सा प्रमाण देती वह अपने बुद्धिजीवी होने का

शब्दकोश जो नहीं पढ़ती थी कभी!

ले-देकर एक ही शब्द तो आता था उसे घर

 

बससोचती रहती थी

लहसुन की कलियाँ कूटकर डालूँआधी काटूँ या डाल दूँ साबूत

मसालें खड़े रखूँ या रखूँ दरदरा

ताकि सब्ज़ी का स्वाद हो लाजवाब !

हाँझाडू-पोछा भी कर लिया करती थी

हर सुबह

अपनी ख्वाहिशों के कूड़े को झाडू लगा दिया करती थी

और सपनों पर पोछा फेर दिया करती थी बस !

कौन सा कपड़ा कितनी देर धूप में रखना है और फिर छाँव में

कड़ी धूप में जाकर बार बार देखा करती थी

ताकि फीके पड़ जाए रंग उसकेठाठ हमारे

भले ही उसकी चमड़ी का रंग पड़ जाए काला !

हालाँकि

देखा तो था उसकी शादी के एल्बम में उसे,

बड़ी खुबसूरत दिखती थी

जब वह लड़की थीमाँ नहीं थी !

और फिर हमारे स्टुपिड से सवालों की झड़ियाँ

तुम्हारी शादी में हमारी फ़ोटो क्यों नहीं हैं?

बच्चों के ऐसे टेढ़े सवालों के जवाब देना भी भला कोई काम कहलाता है?

पिताजी जितनी वह कहाँ होती हैं व्यस्त?

उसके पास हमेशा ही रहता है वक्त ही वक्त

 

ऊपर से तीन-तीन मौसमी सास का हुक्म

सर्दी के मौसम में मेथीपाक-खजूरपाक-तिलपाक

गर्मी में वेफर- मसाले-आचार

और मानसून की मार !

घर में कोई चीज हो हो

पता ही कहाँ चलने देती थी

जादूगरनी जो थी !

माँगो वो हथेली पर रख देती थी

 

सच कहूँ?

किसी भी माँ को चाहे कितने ही पक्के आते हो पहाड़े

फिर भी गिनती तो उसे आती ही नहीं !

 

हर सुबह

आँख खुलती है जब

आसमां में होता है सूरज झगमग

वहाँ कभी इतवार जो नहीं होता?

सो कौन सी बड़ी बात है

कि माँ भी नहीं रखती कभी कोई छुट्टी?

 

फिर

एक दिन

अचानक

माँ दुनियाँ से विदा हो गई

 

नई कक्षा के नये टीचर ने पूछा

क्या करते हैं आपके  माँ-बाप?

अब्दुल का वही रटा-रटाया जवाब फट से कुछ भी नहीं !

 

मगर

इस बार

दीदी की आँखें डबडबाई और लड़खड़ाई जुबाँ

 

हमारे दिल धड़क रहे थे

हम सांस ले रहे थे

मगर

कहाँ थे ज़िंदा?

 



डॉ. पन्ना त्रिवेदी 

मूलतः गुजराती भाषी साहित्यकार हैं लेकिन गुजराती और हिन्दी में समान अधिकार के साथ लेखन में सक्रिय हैं। गुजराती और हिन्दी में इनके काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी गुजराती की कई कहानियाँ बेहद चर्चित रही हैं, कुछ कहानियों का हिन्दी अनुवाद जारी है।आलोचना,अनुवाद और सम्पादन की विभिन्न पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। साहित्यिक योगदान के लिए इन्हें गुजरात साहित्य अकादमी और गुजराती साहित्य परिषद समेत कई महत्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं, इनकी अधिकतर रचनाएं आकाशवाणी केंद्र और दूरदर्शन से प्रसारित हुई हैं। ये साहित्य लेखन के साथ- साथ  चित्रकारी में भी रुचि रखती हैं। संप्रति: गुजराती विभाग,वीर नर्मद दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय सूरत में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। संपर्क :  pannatrivedi20@yahoo.com

                       अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021

चित्रांकन : All Students of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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