शोध आलेख :महाराष्ट्र में आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण में अधिकार: एक विस्तृत विश्लेषण/डॉ. आशुतोष मिश्रा

           महाराष्ट्र में आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण में अधिकार: एक विस्तृत विश्लेषण

                                                       डॉआशुतोष मिश्रा

शोध सारांश

भारत, अपनी समृद्ध सांस्कृतिक और जैविक विविधता के साथ, अनगिनत आदिवासी समुदायों का घर है। ये समुदाय सदियों से प्रकृति के साथ सद्भाव में रहते आए हैं और उन्होंने पारंपरिक ज्ञान (Traditional Knowledge - TK) का एक विशाल भंडार विकसित किया है। यह ज्ञान उनके जीवन का अभिन्न अंग है, जो उनके स्वास्थ्य, आजीविका, रीति-रिवाजों और पर्यावरण प्रबंधन प्रणालियों को आधार प्रदान करता है। महाराष्ट्र, भारत के सबसे अधिक आदिवासी आबादी वाले राज्यों में से एक है, जहाँ विभिन्न आदिवासी समूह जैसे गोंड, भील, महादेव कोली, वारली, कातकरी, ठाकर, कोलाम आदि निवास करते हैं। इन समुदायों के पास पारंपरिक औषधियों, कृषि तकनीकों, वन संरक्षण पद्धतियों, कला और शिल्प का अमूल्य ज्ञान है।

बीज शब्द -महाराष्ट्र ,आदिवासी संवैधानिक अधिकार, पर्यावरण, संरक्षण,संस्कृति अर्थव्यवस्था,आधुनिकीकरण

आलेख

पारंपरिक ज्ञान :

वैश्वीकरण, आधुनिकीकरण, विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापन, और जैव-चोरी (biopiracy) जैसे कारकों ने इस पारंपरिक ज्ञान और इसके धारकों के अस्तित्व पर गंभीर संकट खड़ा कर दिया है। इस संदर्भ में, महाराष्ट्र में आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान की सुरक्षा के लिए उनके अधिकारों को समझना और उन्हें प्रभावी ढंग से लागू करना अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। यह लेख महाराष्ट्र में आदिवासी समुदायों के पारंपरिक ज्ञान की प्रकृति, इसके महत्व, इसके संरक्षण से जुड़ी चुनौतियों और इस ज्ञान की सुरक्षा के लिए उपलब्ध संवैधानिक, कानूनी और नीतिगत ढाँचों पर विस्तृत चर्चा करेगा।

पारंपरिक ज्ञान को सामान्यतः एक समुदाय द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी विकसित और हस्तांतरित किए गए ज्ञान, नवाचारों और प्रथाओं के रूप में परिभाषित किया जाता है। यह ज्ञान मौखिक परंपराओं, अनुभवों और सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के माध्यम से जीवित रहता है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित शामिल हो सकते हैं:

1.     औषधीय ज्ञान: विभिन्न पौधों, जड़ी-बूटियों और जानवरों के औषधीय गुणों का ज्ञान, रोगों के निदान और उपचार की पारंपरिक पद्धतियाँ।

2.     कृषि ज्ञान: टिकाऊ कृषि तकनीकें, स्थानीय बीज किस्मों का संरक्षण, मौसम की भविष्यवाणी, कीट और रोग नियंत्रण के पारंपरिक तरीके।

3.     वन और जैव विविधता प्रबंधन: वनों, जल स्रोतों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के सतत उपयोग और संरक्षण की सामुदायिक प्रणालियाँ।

4.     कला और शिल्प: पारंपरिक कलाकृतियाँ, हस्तशिल्प, वस्त्र, संगीत, नृत्य और लोककथाएँ जो समुदाय की पहचान और सांस्कृतिक विरासत को दर्शाती हैं।

5.     पारिस्थितिक ज्ञान: स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र, वनस्पतियों और जीवों की समझ, और उनके बीच अंतर्संबंधों का ज्ञान।

महाराष्ट्र के आदिवासी समुदायों का पारंपरिक ज्ञान अत्यंत समृद्ध और विविध है। उदाहरण के लिए, ठाकर आदिवासी समुदाय अपनी पारंपरिक 'पिंगुली चित्रकथी' कला के लिए जाने जाते हैं, जो लोक कथाओं को चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत करती है। वारली जनजाति अपनी विशिष्ट वारली चित्रकला के लिए प्रसिद्ध है, जो उनके सामाजिक जीवन और प्रकृति के साथ उनके संबंधों को दर्शाती है। इसी प्रकार, कई आदिवासी समुदायों के पास औषधीय पौधों का गहन ज्ञान है, जिसका उपयोग वे विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए करते हैं।

पारंपरिक ज्ञान का महत्व :

आदिवासी समुदायों का पारंपरिक ज्ञान न केवल उनके लिए बल्कि সমগ্র मानवता के लिए महत्वपूर्ण है:

1.     सांस्कृतिक पहचान का आधार: पारंपरिक ज्ञान समुदायों की पहचान, मूल्यों और सामाजिक ताने-बाने को बनाए रखने में मदद करता है। यह उनकी भाषा, रीति-रिवाजों और विश्वदृष्टि से गहराई से जुड़ा हुआ है।

2.     सतत विकास में योगदान: पारंपरिक ज्ञान अक्सर टिकाऊ प्रथाओं पर आधारित होता है जो पर्यावरण संरक्षण और प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग को बढ़ावा देता है। यह आधुनिक विकास मॉडल के लिए एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत कर सकता है।

3.     जैव विविधता संरक्षण: आदिवासी समुदाय अक्सर जैव विविधता से समृद्ध क्षेत्रों में रहते हैं और उनके पारंपरिक ज्ञान में जैव विविधता के संरक्षण और सतत उपयोग के महत्वपूर्ण सिद्धांत निहित होते हैं।

4.     खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य: पारंपरिक कृषि पद्धतियाँ और स्थानीय खाद्य प्रणालियाँ खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद करती हैं। पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियाँ लाखों लोगों के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा का स्रोत बनी हुई हैं।

5.     आर्थिक क्षमता: पारंपरिक ज्ञान पर आधारित उत्पाद और सेवाएँ (जैसे हस्तशिल्प, औषधीय पौधे, इको-टूरिज्म) आदिवासी समुदायों के लिए आजीविका के अवसर पैदा कर सकती हैं, बशर्ते उन्हें उचित लाभ मिले।

6.     वैज्ञानिक नवाचार का स्रोत: पारंपरिक ज्ञान आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान और नवाचार के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत हो सकता है, विशेष रूप से दवा विकास और कृषि सुधार के क्षेत्रों में।

महाराष्ट्र में पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण :

महाराष्ट्र में आदिवासी पारंपरिक ज्ञान कई गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है:

1.     ज्ञान का क्षरण: युवा पीढ़ी की आधुनिक शिक्षा और शहरीकरण की ओर रुझान के कारण पारंपरिक ज्ञान का अंतर-पीढ़ी हस्तांतरण बाधित हो रहा है। मौखिक परंपराओं पर अत्यधिक निर्भरता और उचित दस्तावेज़ीकरण की कमी भी ज्ञान के क्षरण का एक प्रमुख कारण है।

2.     जैव-चोरी (Biopiracy) और अनुचित विनियोग: बाहरी कंपनियाँ और शोधकर्ता अक्सर आदिवासी समुदायों के पारंपरिक ज्ञान का उपयोग बिना उनकी सहमति या उन्हें कोई लाभ दिए अपने वाणिज्यिक उत्पादों (जैसे दवाएँ, सौंदर्य प्रसाधन) के विकास के लिए कर लेते हैं।

3.     विकास परियोजनाएँ और विस्थापन: खनन, बांध निर्माण, औद्योगीकरण और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के कारण बड़े पैमाने पर आदिवासी विस्थापन होता है, जिससे वे अपने पारंपरिक आवासों और प्राकृतिक संसाधनों से वंचित हो जाते हैं, जो उनके ज्ञान प्रणालियों के आधार होते हैं।

4.     बाजार का दबाव और सांस्कृतिक परिवर्तन: बाजार अर्थव्यवस्था के बढ़ते प्रभाव से पारंपरिक आजीविकाएँ और सांस्कृतिक प्रथाएँ खतरे में पड़ रही हैं। पारंपरिक फसलों की जगह नकदी फसलें ले रही हैं, और पारंपरिक कलाएँ व्यावसायिकता के दबाव में अपनी मौलिकता खो रही हैं।

5.     कानूनी संरक्षण का अभाव और अपर्याप्त कार्यान्वयन: यद्यपि पारंपरिक ज्ञान की सुरक्षा के लिए कुछ कानूनी प्रावधान मौजूद हैं, लेकिन उनकी प्रभावशीलता और कार्यान्वयन में कई कमियाँ हैं। आदिवासियों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता की कमी भी एक बड़ी बाधा है।

6.     दस्तावेज़ीकरण की जटिलताएँ: पारंपरिक ज्ञान को मानकीकृत प्रारूपों में दस्तावेज़ीकृत करना एक जटिल प्रक्रिया है। यह ज्ञान अक्सर समग्र, सामुदायिक और संदर्भ-विशिष्ट होता है, जिसे पारंपरिक बौद्धिक संपदा अधिकारों (IPR) के मौजूदा ढाँचे में फिट करना मुश्किल होता है।

7.     संसाधनों तक पहुँच की कमी: आदिवासी समुदायों के पास अपने पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित करने, बढ़ावा देने और इसके आधार पर उद्यम विकसित करने के लिए आवश्यक वित्तीय और तकनीकी संसाधनों का अभाव होता है।

पारंपरिक ज्ञान संरक्षण हेतु संवैधानिक और कानूनी ढाँचा

भारतवर्ष में आदिवासी समुदायों के पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित करने तथा उनके अधिकारों को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से एक बहुस्तरीय विधिक एवं संवैधानिक संरचना विद्यमान है। महाराष्ट्र राज्य भी इन्हीं राष्ट्रीय विधानों एवं नीतियों के अंतर्गत आता है, जो पारंपरिक ज्ञान धारकों के हितों की रक्षा के लिए एक आधार प्रदान करते हैं। इन प्रावधानों का विस्तृत विवेचन निम्नलिखित है:

  1. भारतीय संविधान में निहित संरक्षण: भारतीय संविधान देश के सभी नागरिकों, विशेषकर वंचित समुदायों के अधिकारों की सुरक्षा के प्रति कटिबद्ध है। आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण के संदर्भ में, संविधान के अनेक अनुच्छेद प्रासंगिक हैं:

      समानता और विशेष अवसर: अनुच्छेद 15(4) तथा 16(4) राज्य को यह शक्ति प्रदान करते हैं कि वह सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों, जिनमें अनुसूचित जनजातियाँ भी शामिल हैं, के उत्थान हेतु विशेष उपाय कर सके।

      कल्याणकारी राज्य का दायित्व: अनुच्छेद 46 राज्य पर यह दायित्व डालता है कि वह अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों की विशेष रूप से अभिवृद्धि करे तथा उन्हें हर प्रकार के सामाजिक अन्याय एवं शोषण से संरक्षण प्रदान करे।

      अनुसूचित क्षेत्रों का प्रशासन: अनुच्छेद 244 तथा भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची, अनुसूचित क्षेत्रों एवं अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन तथा नियंत्रण से संबंधित विशेष प्रावधान करती है। इसके अंतर्गत राज्यपाल को यह अधिकार प्राप्त है कि वे ऐसे क्षेत्रों में शांति एवं सुशासन बनाए रखने हेतु नियम बना सकें, जिनमें आदिवासियों की भूमि के अन्यसंक्रामण पर रोक या नियंत्रण तथा उनकी पारंपरिक विधियों एवं प्रथाओं का समादर सम्मिलित है।

      वित्तीय सहायता: अनुच्छेद 275 के तहत, केंद्र सरकार राज्यों को अनुसूचित जनजातियों के कल्याण को बढ़ावा देने तथा उनके लिए बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था सुनिश्चित करने हेतु विशेष अनुदान प्रदान कर सकती है।

      राजनीतिक प्रतिनिधित्व: अनुच्छेद 330 एवं 332 क्रमशः लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों के आरक्षण का प्रावधान करते हैं, जिससे नीति-निर्माण की प्रक्रिया में उनकी सहभागिता सुनिश्चित हो सके।

      सांस्कृतिक अधिकार: अनुच्छेद 29 भारत के नागरिकों के प्रत्येक वर्ग को अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि अथवा संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। यह पारंपरिक ज्ञान के सांस्कृतिक आयामों, जैसे लोक कलाओं, मौखिक परंपराओं आदि के संरक्षण की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।

  1. अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (FRA): यह विधान वन-आश्रित आदिवासी समुदायों तथा अन्य पारंपरिक वनवासियों के ऐतिहासिक अधिकारों को मान्यता प्रदान करने की दिशा में एक युगांतकारी कदम है। पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण के दृष्टिकोण से इसके निम्नलिखित प्रावधान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं:

      सामुदायिक वन संसाधन प्रबंधन: धारा 3(1)(k) समुदायों को "सामुदायिक वन संसाधनों" के संरक्षण, पुनरुत्पादन या प्रबंधन का अधिकार प्रदान करती है। यह प्रावधान पारंपरिक पारिस्थितिकीय ज्ञान का उपयोग करते हुए वन संसाधनों के धारणीय प्रबंधन को संभव बनाता है।

      बौद्धिक संपदा एवं पारंपरिक ज्ञान पर अधिकार: धारा 3(1)(i) किसी भी सामुदायिक वन संसाधन तक पारंपरिक रूप से ज्ञात बौद्धिक संपदा एवं पारंपरिक ज्ञान सहित पहुँच के अधिकार को स्पष्ट रूप से मान्यता प्रदान करती है।

      ग्राम सभा की शक्तियाँ: धारा 5 ग्राम सभा को सामुदायिक वन संसाधनों की सुरक्षा एवं प्रबंधन हेतु नियम बनाने, स्थानीय पारंपरिक प्रथाओं के अनुसार उनके उपयोग को विनियमित करने तथा जैव विविधता को हानि पहुँचाने वाली किसी भी गतिविधि को रोकने का अधिकार देती है। यह पारंपरिक ज्ञान धारकों को निर्णय-प्रक्रिया में केंद्रीय भूमिका प्रदान करता है। महाराष्ट्र में इस अधिनियम के कार्यान्वयन की प्रक्रिया जारी है, तथा यह पारंपरिक ज्ञान धारकों को उनके संसाधनों एवं ज्ञान पर वैधानिक नियंत्रण स्थापित करने का एक सशक्त माध्यम प्रदान करता है।

  1. पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा): पेसा अधिनियम, संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों में ग्राम सभाओं को अभूतपूर्व शक्तियाँ प्रदान करता है, जिससे वे अपनी परंपराओं, रीति-रिवाजों, सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संसाधनों तथा विवाद समाधान की पारंपरिक प्रणालियों का संरक्षण एवं संवर्धन कर सकें।

      यह अधिनियम ग्राम सभा को विकास योजनाओं एवं कार्यक्रमों को स्वीकृति देने, लाभार्थियों का चयन करने तथा लघु जल निकायों, गौण खनिजों एवं गौण वन उपजों पर नियंत्रण रखने का अधिकार सौंपता है।

      पेसा यह सुनिश्चित करता है कि राज्य विधानमंडल अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायतों एवं ग्राम सभाओं को ऐसी विशिष्ट शक्तियाँ एवं प्राधिकार प्रदान करें, जिनसे वे स्वशासन की प्रभावी संस्थाओं के रूप में कार्य कर सकें। पारंपरिक ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में, यह ग्राम सभाओं को उनके क्षेत्र में संसाधनों के उपयोग की विधि तथा अपनी सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा के संबंध में निर्णय लेने के लिए सशक्त करता है। महाराष्ट्र ने पेसा के प्रावधानों को अपने राज्य पंचायती राज कानूनों में समाहित किया है।

  1. जैविक विविधता अधिनियम, 2002: इस अधिनियम का मूल उद्देश्य भारत की समृद्ध जैविक विविधता का संरक्षण, इसके घटकों का सतत एवं धारणीय उपयोग तथा जैविक संसाधनों के उपयोग से प्राप्त होने वाले लाभों का न्यायसंगत एवं साम्यपूर्ण वितरण (Access and Benefit Sharing - ABS) सुनिश्चित करना है।

      यह अधिनियम राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (NBA), राज्य स्तर पर राज्य जैव विविधता बोर्ड (SBBs) तथा स्थानीय स्तर पर जैव विविधता प्रबंधन समितियों (BMCs) के गठन की व्यवस्था करता है।

      पारंपरिक ज्ञान धारकों के हितों का संरक्षण: धारा 36(5) केंद्र सरकार को यह निर्देश देती है कि वह पारंपरिक ज्ञान धारकों के हितों की सुरक्षा हेतु आवश्यक कदम उठाए, जिसमें उनके ज्ञान के पंजीकरण की व्यवस्था तथा एक स्वत्व-प्ररूप (sui generis) प्रणाली का विकास शामिल है।

      जैव विविधता प्रबंधन समितियों की भूमिका: धारा 41 के अनुसार, BMCs को अपने क्षेत्राधिकार में जैविक विविधता के संरक्षण, सतत उपयोग, दस्तावेज़ीकरण तथा जैविक संसाधनों एवं संबंधित पारंपरिक ज्ञान के उपयोग से प्राप्त होने वाले लाभों के न्यायसंगत वितरण को बढ़ावा देने का उत्तरदायित्व सौंपा गया है। BMCs द्वारा "जन जैव विविधता पंजी" (People's Biodiversity Registers - PBRs) का निर्माण किया जाता है, जिसमें स्थानीय जैविक संसाधनों एवं उनसे जुड़े पारंपरिक ज्ञान का विस्तृत दस्तावेज़ीकरण होता है।

      ABS (पहुँच और लाभ सहभागिता) के प्रावधान यह सुनिश्चित करते हैं कि यदि कोई व्यक्ति या संस्था भारतीय जैविक संसाधनों अथवा संबंधित पारंपरिक ज्ञान का वाणिज्यिक या शोध हेतु उपयोग करना चाहती है, तो उन्हें पूर्व सूचित सहमति (Prior Informed Consent - PIC) प्राप्त करनी होगी तथा ज्ञान धारक समुदायों के साथ लाभों का न्यायोचित बंटवारा करना होगा। महाराष्ट्र राज्य जैव विविधता बोर्ड (MSBB) राज्य में इस अधिनियम के क्रियान्वयन हेतु समन्वयकारी संस्था है।

  1. बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR) प्रणाली: मौजूदा बौद्धिक संपदा कानून भी कुछ हद तक पारंपरिक ज्ञान की सुरक्षा में भूमिका निभाते हैं:

      पेटेंट अधिनियम, 1970 (यथासंशोधित): इसकी धारा 3(p) यह स्पष्ट करती है कि ऐसा कोई भी आविष्कार जो वास्तव में पारंपरिक ज्ञान है अथवा पारंपरिक रूप से ज्ञात संसाधनों या गुणों का मात्र संयोजन या दोहराव है, वह पेटेंट योग्य नहीं होगा। यह प्रावधान पारंपरिक ज्ञान पर आधारित नगण्य या स्पष्ट आविष्कारों को पेटेंट प्रदान किए जाने से रोकने में सहायक है।

      माल का भौगोलिक संकेतक (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 1999: यह कानून ऐसे उत्पादों को संरक्षण प्रदान करता है जो किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र से उत्पन्न होते हैं तथा जिनकी गुणवत्ता, प्रतिष्ठा या अन्य विशिष्टताएँ उस क्षेत्र विशेष से अभिन्न रूप से जुड़ी होती हैं। पारंपरिक ज्ञान पर आधारित अनेक उत्पाद, जैसे महाराष्ट्र की वारली चित्रकला, विशिष्ट आदिवासी हस्तशिल्प या कृषि उत्पाद, इस अधिनियम के अंतर्गत भौगोलिक संकेतक (GI) टैग के माध्यम से संरक्षित किए जा सकते हैं।

      कॉपीराइट अधिनियम, 1957: यह साहित्यिक, नाटकीय, संगीतमय एवं कलात्मक कृतियों को संरक्षण प्रदान करता है। पारंपरिक सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ (जैसे लोक कथाएँ, लोक संगीत, पारंपरिक कलाएँ) कुछ सीमाओं के अधीन कॉपीराइट के अंतर्गत संरक्षण प्राप्त कर सकती हैं, यद्यपि इसकी अपनी सीमाएँ हैं क्योंकि कॉपीराइट सामान्यतः ज्ञात रचनाकारों एवं एक निश्चित अवधि के लिए होता है, जबकि पारंपरिक ज्ञान प्रायः सामुदायिक एवं पीढ़ी-दर-पीढ़ी विकसित होता है।

  1. पारंपरिक ज्ञान डिजिटल लाइब्रेरी (TKDL): यह भारत सरकार (CSIR तथा आयुष मंत्रालय) की एक महत्वपूर्ण एवं अभिनव पहल है, जिसका मुख्य उद्देश्य भारतीय पारंपरिक औषधीय ज्ञान को विभिन्न अंतरराष्ट्रीय पेटेंट कार्यालयों हेतु सुलभ बनाकर त्रुटिपूर्ण पेटेंट प्रदान किए जाने की संभावनाओं को न्यून करना है। TKDL के अंतर्गत आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध एवं योग जैसी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों से संबंधित ज्ञान को अंकीय प्रारूप में परिवर्तित कर पांच अंतरराष्ट्रीय भाषाओं में अनुवादित किया गया है। यद्यपि वर्तमान में इसका केंद्रबिंदु संहिताबद्ध पारंपरिक ज्ञान है, तथापि मौखिक एवं गैर-संहिताबद्ध आदिवासी पारंपरिक ज्ञान को भी इसके दायरे में लाने की संभावनाओं पर विचार किया जा रहा है ताकि जैव-चोरी को प्रभावी ढंग से रोका जा सके।

महाराष्ट्र सरकार की भूमिका और पहल

महाराष्ट्र सरकार ने आदिवासी कल्याण और पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण के लिए विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों को लागू किया है:

1.     आदिवासी विकास विभाग: यह विभाग आदिवासियों के सामाजिक-आर्थिक विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और सांस्कृतिक संरक्षण के लिए जिम्मेदार है। यह विभिन्न योजनाओं के माध्यम से पारंपरिक कलाओं और शिल्पों को बढ़ावा देने का प्रयास करता है।

2.     वन विभाग और महाराष्ट्र राज्य जैव विविधता बोर्ड (MSBB): ये एजेंसियां FRA और जैविक विविधता अधिनियम के कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। MSBB, BMCs के गठन और PBRs की तैयारी में सहायता प्रदान कर रहा है।

3.     स्थानीय पहलें: कई गैर-सरकारी संगठन (NGOs) और सामुदायिक संगठन महाराष्ट्र में आदिवासी समुदायों के साथ मिलकर उनके पारंपरिक ज्ञान के दस्तावेज़ीकरण, संरक्षण और संवर्धन के लिए काम कर रहे हैं। ये संगठन क्षमता निर्माण, जागरूकता अभियान और पारंपरिक ज्ञान आधारित उद्यमों को बढ़ावा देने में भी मदद करते हैं।

4.     आदिवासी अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान (TRTI), पुणे: यह संस्थान आदिवासी संस्कृति, भाषाओं और परंपराओं पर शोध करता है और उनके संरक्षण के लिए नीतियां सुझाता है।

पारंपरिक ज्ञान संरक्षण में आगे की राह और सिफारिशें

महाराष्ट्र में आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान की प्रभावी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक बहु-आयामी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है:

1.     कानूनों का प्रभावी कार्यान्वयन: FRA, PESA और जैविक विविधता अधिनियम जैसे कानूनों के प्रावधानों को उनकी मूल भावना के साथ ईमानदारी से लागू किया जाना चाहिए। विशेष रूप से, सामुदायिक वन अधिकारों को मान्यता देने, ग्राम सभाओं को सशक्त बनाने और BMCs को सक्रिय करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।

2.     जन जैव विविधता रजिस्टरों (PBRs) का सुदृढ़ीकरण: PBRs को केवल जैविक संसाधनों की सूची के बजाय पारंपरिक ज्ञान के दस्तावेज़ीकरण के लिए एक जीवंत उपकरण बनाया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया में समुदायों की सक्रिय भागीदारी और उनके पारंपरिक ज्ञान की गोपनीयता और सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए।

3.     लाभ साझाकरण (ABS) तंत्र को मजबूत करना: ABS प्रक्रियाओं को सरल, पारदर्शी और आदिवासी समुदायों के लिए सुलभ बनाया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि पारंपरिक ज्ञान के व्यावसायिक उपयोग से प्राप्त होने वाले लाभ वास्तव में ज्ञान धारक समुदायों तक पहुँचें और उनके समग्र विकास में योगदान दें।

4.     Sui Generis प्रणाली का विकास: पारंपरिक ज्ञान की विशिष्ट प्रकृति को ध्यान में रखते हुए, मौजूदा IPR ढाँचे के पूरक के रूप में एक sui generis (अपनी तरह की अनूठी) कानूनी प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है जो सामुदायिक अधिकारों, पूर्व सूचित सहमति और लाभ साझाकरण को प्रभावी ढंग से संबोधित कर सके।

5.     क्षमता निर्माण और जागरूकता: आदिवासी समुदायों को उनके अधिकारों, पारंपरिक ज्ञान के महत्व और इसके संरक्षण के तरीकों के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए। उन्हें कानूनी और तकनीकी सहायता प्रदान की जानी चाहिए ताकि वे अपने ज्ञान की रक्षा कर सकें और संबंधित प्रक्रियाओं में प्रभावी ढंग से भाग ले सकें।

6.     पारंपरिक ज्ञान का दस्तावेज़ीकरण और संरक्षण: समुदायों की सहमति और सक्रिय भागीदारी के साथ उनके पारंपरिक ज्ञान (मौखिक और अन्य रूपों में) के दस्तावेज़ीकरण के लिए प्रोटोकॉल विकसित किए जाने चाहिए। इस ज्ञान को सामुदायिक नियंत्रण में रखा जाना चाहिए।

7.     पारंपरिक ज्ञान को शिक्षा और अनुसंधान में एकीकृत करना: पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों को औपचारिक शिक्षा पाठ्यक्रम और वैज्ञानिक अनुसंधान में उचित सम्मान और स्थान दिया जाना चाहिए। इससे युवा पीढ़ी में इसके प्रति रुचि बढ़ेगी और इसके संरक्षण में मदद मिलेगी।

8.     पारंपरिक ज्ञान आधारित उद्यमों को बढ़ावा देना: आदिवासी समुदायों को उनके पारंपरिक ज्ञान और संसाधनों पर आधारित टिकाऊ उद्यम (जैसे औषधीय पौधों की खेती और प्रसंस्करण, हस्तशिल्प, इको-टूरिज्म) स्थापित करने में सहायता प्रदान की जानी चाहिए। इससे उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाया जा सकेगा और उनके ज्ञान को संरक्षित करने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा।

9.     अंतर-विभागीय समन्वय: पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण के लिए विभिन्न सरकारी विभागों (जैसे आदिवासी विकास, वन, कृषि, स्वास्थ्य, उद्योग) और एजेंसियों के बीच बेहतर समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए।

10.  सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण: पारंपरिक कलाओं, भाषाओं, रीति-रिवाजों और त्योहारों को बढ़ावा देने और संरक्षित करने के लिए विशेष प्रयास किए जाने चाहिए, क्योंकि ये पारंपरिक ज्ञान के महत्वपूर्ण वाहक हैं।

निष्कर्ष

महाराष्ट्र के आदिवासी समुदायों का पारंपरिक ज्ञान न केवल उनकी सांस्कृतिक विरासत का एक अमूल्य हिस्सा है, बल्कि यह सतत विकास, जैव विविधता संरक्षण और मानव कल्याण के लिए भी महत्वपूर्ण है। इस ज्ञान की सुरक्षा करना एक नैतिक अनिवार्यता और एक कानूनी दायित्व है। यद्यपि संवैधानिक और कानूनी ढाँचे मौजूद हैं, लेकिन उनके प्रभावी कार्यान्वयन, समुदायों की सक्रिय भागीदारी और एक समग्र दृष्टिकोण की कमी अभी भी एक बड़ी चुनौती है।

आदिवासियों को उनके पारंपरिक ज्ञान पर नियंत्रण रखने, इसके उपयोग के बारे में निर्णय लेने और इससे होने वाले लाभों को प्राप्त करने का अधिकार है। सरकार, नागरिक समाज संगठनों और अनुसंधान संस्थानों को मिलकर एक ऐसा वातावरण बनाना होगा जहाँ आदिवासी समुदाय अपने पारंपरिक ज्ञान को गर्व के साथ संरक्षित कर सकें, इसे अपनी आने वाली पीढ़ियों को हस्तांतरित कर सकें और इसका उपयोग अपने स्वयं के विकास और व्यापक समाज की भलाई के लिए कर सकें। पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण का अर्थ केवल अतीत को सहेजना नहीं है, बल्कि भविष्य के लिए एक अधिक न्यायसंगत, टिकाऊ और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध मार्ग प्रशस्त करना भी है। महाराष्ट्र इस दिशा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, बशर्ते कि वह अपने आदिवासी समुदायों के अधिकारों और उनके ज्ञान की बुद्धिमत्ता को सच्चे अर्थों में सम्मान दे।

संदर्भ :

1.     भारत का संविधान।

2.     अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006। नई दिल्ली: विधि और न्याय मंत्रालय।

3.     पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996। नई दिल्ली: विधि और न्याय मंत्रालय।

4.     जैविक विविधता अधिनियम, 2002। नई दिल्ली: विधि और न्याय मंत्रालय।

5.     पेटेंट अधिनियम, 1970 (यथासंशोधित)। नई दिल्ली: वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय।

6.     भौगोलिक संकेतक (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 1999। नई दिल्ली: वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय।

7.     सिंह, के.एस. (संपादक). (1993). पीपुल ऑफ इंडिया: महाराष्ट्र (खंड XXX). मुंबई: पॉपुलर प्रकाशन (Anthropological Survey of India)।

8.     गाडगिल, माधव एवं गुहा, रामचंद्र. (1992). दिस फिशर्ड लैंड: एन इकोलॉजिकल हिस्ट्री ऑफ इंडिया. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस।

9.     राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (NBA) की वार्षिक रिपोर्टें और प्रकाशन। चेन्नई: NBA.

10.  आदिवासी अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान (TRTI), पुणे के शोध पत्र और रिपोर्ट।

11.  संयुक्त राष्ट्र द्वारा आदिवासी लोगों के अधिकारों पर घोषणा (UNDRIP), 2007।

12.  विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (WIPO) द्वारा पारंपरिक ज्ञान, पारंपरिक सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों और आनुवंशिक संसाधनों पर प्रकाशित दस्तावेज़।

 

डॉ. आशुतोष मिश्रा

 सहायक प्रोफ़ेसर

 विधि संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय
ईमेल: ashu.du@gmail.com, मोबाइल: +91-9873558866 

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021

चित्रांकन : Yukti sharma Student of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR           

UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

















  


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