संस्मरण : स्मृतियों में मेरा गाँव / गगन तिवारी

संस्मरण : स्मृतियों में मेरा गाँव
- गगन तिवारी

( 'गगन' हमारी मित्र-मण्डली की साथी हैं. खुशमिजाज़ दोस्त. भीलवाड़ा के एक स्कूल में हिंदी साहित्य पढ़ाती हैं. कथेतर गद्य पर शोध कर रही हैं. देहात का जन्म हैं.शहर में वर्तमान है. बहुत जिद करके गाँव की स्मृतियाँ लिखवाई है.डूबकर लिखा है गगन ने. भाषा में कमज़ोर हो सकती है. शिल्प अधपका अनुभव होगा मगर अनुभूतियाँ बेहद गहरी हैं. वक़्त निकालकर सभी अपने भीतर के गाँव को ज़िंदा कर सकें तो 'अपनी माटी' का यह प्रयास अर्थ उपजेगा-माणिक )

    गाँव का नाम ही जीवन की डेळी पे पग रखना है। गाँव मेरे लिए स्मृति नहीं घर और जीवन ही है। गाँव को जीना या गाँव में जीना मानो एक सदी को जीना है। इस जीवन की बही यानी असली जीवन के पन्ने गाँव की ख़ुशबू से ही अटे पड़े हैं। 5 साल से शहरी जीवन में रहकर भी इसके अभ्यस्त नहीं हो पाए हैं। जीवन का प्रत्येक दिवस मेरे गाँव की याद से रीता नहीं हैं। जिस मिट्टी से बचने के लिए आज चेहरे को नकाबपोश किया है, उसी मिट्टी को कभी गाँव की गलियों में खूब एक दूसरे पर उछाला था। गाँव की सुबह कभी घड़ी के अलार्म से नहीं, माँ की झिड़की से शुरू होती है। तुलनात्मक रूप से देखें तो गाँव का जीवन बैलगाड़ी सरीखा है, जिसकी सवारी करके आप धीमी और सामूहिक गति के साथ प्रत्येक क्षण को जी भर के निहार सकते हैं। शहरी जीवन बुलेट ट्रेन की भांति मालूम हुआ। जो दृश्य गुजर गया वो स्मृति में धुंधला हो गया। गाँव के बासा और बाई से बातें करना और काकी की लूगड़ी खींच कर भाग जाना मन को आज भी भिगो जाता हैं। आज के दौर में बरसात से बचने के वे सारे जतन लड़कपन की उनमस्तियों के आगे बेकार लगने लगते हैं, जब गाँव की गलियों में बहते पानी में जानबूझकर छपाक-छपाक पैर रखते थे और पेड़ की डालियों में अटके पानी को खुद पर गिराते थे। गाँव की स्मृतियों में जीवन के सारे सुनहरे रंग खिले-खिले से हैं, जिन्हें आज भी याद कर मन होली के रंगों-सा सराबोर हो उठता है। स्मृतियों के झंगले से झांकता जीवन गाँव की सीमा पर ही आकर रुकता है। घर की पोळ को आज भी जैसे बचपन में मिले चार आने के सिक्के की तरह खुल्ल्ये में जोर से दबा रखा है। बड्यूलों की निर्माण प्रक्रिया से आज का बचपन अनजान है। चाँद, सूरज के सकरातड़ों के अर्पण के बिना ही सूर्य मकर राशि में प्रवेश कर रहा है। अणचौदस की पूजा के आंधी झाड़ा के पत्ते आज धुंधले हो गए हैं। कचमच की फलियों से दूर रहना आज कौन सिखाए? जीने के क्रम में जीवन के दाबड़े में श्वासों का जल गिर तो रहा है किन्तु असली सुखानंद की प्राप्ति की दिशा के कदम अभी भी ग्वाँण से काफी दूर है।     
           
    घर के आँगन में पीळी की लिपाई से आज भी मन पीला है। आंगणे पर उकेरे मांडणे के हाथ आज भी अभ्यस्त हैं। गाँव के तीज त्योहारों में माँ के साथ जाने का उपक्रम और याद रही कहानियाँ आज भी मुंह जबानी है। ब्याव में गाए बन्ने-बन्नी की थाप मन में गहरे रमी है। आज के होने वाले ब्याहों में पेल-पावणी कौन बुलावे? रातिजगा के गीत न सीखने का आज भी अफ़सोस हैं। सियाळे की रातों में तप की आँच के साथ उन गंभीर चर्चाओं की तपिश आज भी मन को छूती है। आज के फोल्डिंग छाते में वो सुकून मौजूद नहीं है जो कचकड़े की घूघी में दो जनों के सिकुड़ने का था।
 
            घर से थैला लेकर विद्यालय पढ़ने जाते समय उसमें रखा कट्टा बहुत उपयोगी था। आसन के काम आता, बारिश होने पर घूघी बन जाता था, और कभी-कभी विद्यालय से मिलने वाले गेंहू भरने के भी काम आता। मारसाब और बेंजी की कामड़ी से छूटी धूजणी आज भी याद आती है। बेंजी के लिए केटली में छाछ भरकर ले जाना मानो एकलव्य सी गुरु दक्षिणा का अहसास कराती थी। खेत पर दादाजी के हाथों से लगे आमों की केरिया और इमलियाँ विद्यालय में लड़कियों से बरतों का आदान-प्रदान करने और मित्रता प्रगाढ़ करने के काम आते। मारसाब से आधी छुट्टी में जीमने की छुट्टी का अपना ही आनंद था। विद्यालय की मेहंदी की क्यारियों में लथपथ होना आज के पौधारोपण के सलीके से अनजान है। आज के शैक्षिक भ्रमण में माता-पिता बड़े प्यार से मिठाइयां और स्नेक्स बांधते हैं और मेरे शैक्षिक भ्रमण में जब माँ ने गिलास में लावणे के लड्डू और पूड़ी रख दिए उस समय की लज्जा आज जैसे गर्व और प्रेम की मिठास से भरी है।
 
    गाँव के मंगरों में बोर लेने जाने की घटना के बाद माँ का ये कहना किय घान्घडा (बेर के लिए प्रयुक्त शब्द) ऊँ आकी रात धांसी चाली। बेचारे हाथ-पैर छिल गए और बेर प्राप्ति के बाद जो एवरेस्ट फतह सा अनुभव हुआ था माँ के इस वक्तव्य के बाद सब धराशायी। आज की पिंड खजूर जो भाती नहीं है, बचपन में खांसी होने पर पापा खूब भोभल(गरम राख) में सेक कर देते थे। फाक्यां मक्या (सर्दी में सूखे मक्के/भुट्टे सेके जाते) तो आज के पॉपकॉर्न की मिठास से कई गुना ऊपर थे। मैथी की आलणी सात भात के पत्तों से बनती और कुलथ की साग सर्दी को छूमंतर कर देती है। नीम की पकी निम्बोलियां छोटे आमों का स्वाद देती थी। गर्मी की छुट्टियों में घर-घर के खेल में सूखे बेर, मूंगफली, प्याज और छाछ पांच पकवान होते थे, इसी खेल में आरा मशीन से मांगकर लाए लकड़ी के टुकड़ों से ही हमारे घर और फर्नीचर का निर्माण होता। पुरानी चप्पलों के टायरों से बनी गाड़ी को गुड़ाते हुए ओडी कार का-सा आनंद था।
 
          गाँव का जीमण बफर की होड़ नहीं कर सकता। जीमने के लिए एक ही नवीन पोशाक जिसे जिम्बा फ़्रोक कहते थे। लावणे के नुगती के बेचारे लाडू जीमने में सबकी उपेक्षा झेलते थे। छाछ के जोळ्ये वाले को गिलास लेकर पंगत में ही खड़ा रखते। बड़े बाग में रातिजगे के जीमने ने खाकरे के पत्तों से पत्तल और दोनें बनाना अनायास ही सिखा दिया है और तालाब की पाल तो कई मधुर स्मृतियों की साक्षी है। तालाब की पाल के पास ही श्मशान है जो खजूर के पेड़ों की अधिकता के कारण खजुरियां के नाम से जाना जाता। जब घर में नए उपकरण आए( फ्रिज, गैस का चूल्हा) तो माँ उन्हें हाथ भी नहीं लगाती, पूछने पर कहती की "अब तो मूं खजुरियां म सीखू"। आज मोबाइल का प्रयोग आम हो गया है पर शुरुआत में मोबाइल का प्रयोग सिखाने पर बड़े बुजुर्ग कहते "गोडा(घुटने) तो बलिता (ईंधन) म जारया अब खई सीखा।"
 
    विचारों के आदण(उबाल) में आज भी गाँव ही उबलता है और आदण ठंडा होने पर मलाई में भी गाँव ही छाया रहता है। फेसबुक, इन्स्टा, मोबाइल आज के गाँव बलाई है जो सारी सूचनाएं प्रसारित करते थे। पिता बड़े प्रेम से सुतली से सिंडोरियो की नाव बनाते जिसमें हम कार्तिक में दीपदान करते हुए मानो अपनी सारी आशाओं और सपनों को पूरा होते हुए देखते। उबछट के उपवास में घंटों खड़े रहना, मंदिर की परिक्रमा और भजनों की संगत को आज भी मन ढूंढ रहा है। घासभैरूं जो हमारे लिए बस मोटा सा पत्थर था अपनी दीपावली यात्रा में कैसे वह अपनी मन मर्जी से स्थान का चयन करता था और बस वहीं वर्षभर विश्राम करता था, यह आज भी मेरी समझ से बाहर है। होलिका दहन से पूर्व बडुलियों का निर्माण मानो प्रतियोगिता स्तर पर होता था। आज के शहरी बच्चों को यदि ये बताया जाए कि होलिका दहन में बडुलिया समर्पित कर हम एक दूसरे के डुक्के मारकर गुड की धानी मांगते थे तो उन्हें ये जरा भी पसंद नहीं आए। होली के बाद बावड़ी पर सेवरे लेने जाने का इंतजार वर्षभर किया जाता। फूल-पत्ती और घास, फूस, जल से भरे लोटे को लेकरचकरी लो भई चकरी लोगीत गाते हुए इठलाते हुए चलना आज की रेम्प वॉक से भी अधिक भाता है। सड़क से आने-जाने वाले वाहनों को रुकवाकर और घर-घर अन्न और कुछ पैसे मांगकर ही हमारी गणगौर की सवारी का जुगाड़ कर लेते।
 
    गणगौर पर घर-घर जाकर धान मांगना और सेवरे लेकर गीत गाते हुए शोभायात्रा की मानिंद मंडली सहित आना, आज के काव्य-पाठों से भी अधिक प्रिय है। गणगौर की सवारी के बाद गोठ का भी अपना ही आनंद है। डूली (कपड़े की गुड़िया) बोलावणी की धाणी जो डुक्के खाकर मिलती थी। आज के छेना टोस्ट (मेरी प्रिय मिठाई) में वो मिठास कहाँ? डूली बोलावानी तो सारे त्योहारों को ही ले डूबती थी। डुली और डुले (दूल्हा, दुल्हन) के साथ भावी जीवन की सामग्री बांधकर उन्हें तालाब में विसर्जित कर हम भी अपने भावी सौभाग्य की प्राप्ति के प्रति आश्वस्त हो जाते। आज की बार्बी डॉल हम घरों में ही तैयार करते थे और उसके साज श्रृंगार की व्यवस्था गाँव भर के घरों से मांगकर। सखिया-सोमवार ने ही पाक कला का ज्ञान शीघ्र करवा दिया जब माँ का दो टूक जवाब सुना कि म्हारूँ खई न बणे और शुरुआत हुई छिलड़े और पुए बनाना सीखने से। वैसे पाककला का सारा ज्ञान मुझे परम्पराओं के विपरीत पिता ने दिया है। आलू चिप्स, मक्का, चावल, साबूदाना, सूजी, पापड़ी गली मोहल्ले ने सिखा दिया।
 
       हिंदी और प्रकृति दिल के सदा करीब रही है। गाँव का पर्याय है प्रकृति। प्रकृति का असली सौन्दर्य गाँव में है। प्रकृति अपनी धानी चुनर से सदा ही गाँव को ढके रहती है। गाँव के घर और खेत लगभग एक ही होते हैं। किसी भी घर में आपको खेत मिल जाएगा और किसी भी खेत में पूरा घर। मुझे अपना घर जंगल ही लगता था क्योंकि घर के पीछे ही छोटा सा खेत जिसकी मेढ़ पर बेर, नीम लगे हुए और सांप, छिपकली, गोयरा, बिच्छु बड़े ही अपनत्व से विचरण करते थे। एक ही आँगन में तीन चूल्हे थे। एक बारिश से बचने के लिए और बाकि दो सूर्य की दिशा के विपरीत छाया के लिए। गोयली तो चूल्हे के आस-पास ऐसे भ्रमण करती मानो निरीक्षण पे निकली हो। घरवालों के ये कहने पर कि इसमें जहर नहीं होता, थोड़ा भय कम हुआ किन्तु विषहीन गोयली इतने खतरनाक गोयरे कैसे पैदा कर लेती है, ये आज भी कौतुहल का विषय है। गाँवो में बिजली की अक्सर समस्या रहती है। बिजली चले जाने पर बिच्छू का काटा जाना और फिर लोगों का यह कहना कि 100 पाप होने पर बिच्छू और 1000 पाप होने पर साँप काटता है। काफी दिनों तक मेरे लिए लोगो के तंज का केंद्र बना रहा। पेड़ पर चढ़ना घर के अमरूदों की बदौलत है। तिल्ली के पत्तो में पानी डालकर और उस पानी में मेहंदी गलाकर लार लाने की कला गाँव ने ही सिखाई है। दबल्दये (पाटा) की साया आज के चकरी झूले से कम नहीं। मक्की के झोलों में कल्याण दाजी का दम्भी को गले में लटकाकर घूमना उनका तांत्रिक होने सा आभास देता था।
 
    सब्जियों और फलों का अड़क और सड़क होना कभी लोगों को भी उपाधि दे जाता था। निम्बू और खटवा, मैथी और रजका इनमें फर्क करना सीखना गाँव की ही देन है। पपीते के तने में कील ठोककर फल लाने की क्रिया न जाने कौनसे वैज्ञानिक परिक्षण का परिणाम है। सरसों के पीलेपन की स्मृतियाँ आज भी जीवन को उर्जा देती है। घर पहुँचने की जल्दी में घोड़े(घुटने) फुड़ाते और मोहनी बीड़ी का छुत्या (छिलका, रेपर) बेंडेज का काम करता। भूख लगने पर माँ का वक्तव्य "रेपटा को रायतो और चरंगटा की दाल" का स्वाद तो आज किसी पकवान में भी नहीं। खड़ी के मांडने किसी चित्रकार सी अनुभूति देते थे। तालाब के काले घारे के मिश्रण से आज के एंटी डेंड्रफ शेम्पू अनजान है।
 
    गाँव की गलियों में कूदते वो नन्हें कदम आज शहरी जीवन में थके से अनुभव करते हैं। गाँव से आते ताजी हवा के झोंके आज तन, मन और जीवन को ऑक्सीजन की बूस्टर डोज दे जाते हैं। कहने को अनंत आकर्षक, मनोहारी दृश्य हैं और मन कृष्ण के गोकुल की भांति आज भी उन गाँव की गलियों में ही अटका है। भाभा का गेडया (छड़ी) आज फिर से ढूंढना होगा। पिता की आँख और माँ के उलाहनों ने जीवन के कई गंभीर पाठ पढ़ा दिए हैं। स्वाभिमान शायद माँ के परिवार से ही अधिक मिला है। माँ के बचपन में उनके द्वारा छाछ मांगने पर नानी ने उन्हें खड़ी घोलकर पिला दी थी। कथल्ये(कपड़े का बिछावन) में थेकली(पैबंद) लगाना सिखाने वाली माँ जिंदगी और रिश्तों को थेकली लगाने की सीख देना भी न भूली। गाँव का अल्हड़पन आज के संजीदा जीवन और परिपक्वता से लाख गुना अच्छा। गाँव के धूल और कठोर पत्थरों के धरातल पर दौड़ते वो कदम जैसे सपने के स्वर्गिक सुख सा लगता है और आज शहरी जीवन में सीसी-रोड़ पे ब्रांडेड चप्पले पहने हुए भी यथार्थ की कठोरता का-सा भान होता है। अबकी बार किसी हिल स्टेशन की बजाय किसी गाँव की यात्रा कर आइए और चुन लाइए जीवन के असली और सुनहरे रंग जिससे मन सदा भीगा रहता है।
 
गगन तिवारी, शोधार्थी
हिंदी विभाग, मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर
9828051502

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) 
अंक-39, जनवरी-मार्च  2022 UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

1 टिप्पणियाँ

  1. बेहतरीन टिप्पणी
    आपने ये सब अभी तक स्मृतियों में संजो रखा है, यह भी सुखद एहसास है ।

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