साक्षात्कार : यह थिएटर आपको धीरे-धीरे निखारता है : कमलेश तिवारी से बलदेवा राम की बातचीत

 यह थिएटर आपको धीरे-धीरे निखारता है : कमलेश तिवारी

जोधपुर के प्रसिद्ध रंगकर्मी श्री कमलेश तिवारी से बलदेवा राम की बातचीत 

  



बलदेवा राम : नमस्ते कमलेश जी, आज हम राजस्थान के हिंदी रंगमंच और विशेष रूप से जोधपुर के संदर्भ में बात कर रहे हैं। शुरुआत जोधपुर के हिंदी रंगमंच से करना चाहूँगा, अगर आप बता पाएं तो जोधपुर में हिंदी रंगमंच की सांगठनिक शुरुआत कहां से मानी जा सकती है? कौन सा वह ग्रुप था जिससे यह शुरू हुआ?

 

कमलेश तिवारी : जहां तक जोधपुर रंगमंच की सांगठनिक शुरुआत का सवाल है तो अभी आपने एक नाम लिया एकलव्य थिएटर सोसाइटी। कुछ अर्थों में यह बात सही है कि एकलव्य थिएटर सोसाइटी जो स्वर्गीय मदन मोहन माथुर साहब के द्वारा और उनके निर्देशन में इस संस्था के द्वारा बहुत सारे नाटक मंचित किये गये। बहुत सारे रंगकर्मियों को साथ लेकर उन्होंने शुरुआत की। इस शुरुआत को विभिन्न संस्थाओं के द्वारा भी आगे बढ़ाया गया। लेकिन इसके साथ ही अन्य कई संस्थाएं भी जो कुछ रजिस्टर्ड फोरम में थी, कुछ रजिस्टर्ड नहीं थी; यहां काम करती रही है। जैसे मयूर नाट्य संस्थान, जिसमें स्वर्गीय ए.जी. खान साहब ने पारसी रंगमंच को लेकर बहुत काम किया और अभी उनके बेटे सईद खान हैं जो उसी संस्था को आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसी कई संस्थाएं थी जिन्होंने शुरुआत की। रमेश बोहरा जी भी यहां के बहुत ही वरिष्ठ रंगकर्मी है जिन्होंने जहां तक मुझे ध्यान पड़ता है यहां की लगभग सभी संस्थाओं के साथ जुड़कर काम कर रखा है और उसके बाद बहुत सारी संस्थाएं काम करती रही है।

 

बलदेवा राम : कला, रंग व राग की दृष्टि से जोधपुर हमेशा से समृद्ध रहा है। इस सांस्कृतिक नगरी ने आपको इस रंग में कैसे रंग लिया? अपनी रंग यात्रा के प्रारंभ के बारे में बताएं।

 

कमलेश तिवारी : मेरी कॉलेज शिक्षा जालौर से हुई है। उन दिनों वहाँ एक संस्था काम करती थी जिसमें जितेंद्र जालोरी, पुरुषोत्तम कोमल जैसे कलाकार नाटक किया करते थे। मैंने वे नाटक देखे तो मेरा भी मन हुआ कि मैं भी इनके साथ काम करूं। तब मैंने सीधे ही जितेंद्र जालोरी जी के साथ मुलाकात की और उनसे जुड़ा। उनके निर्देशन में ही सबसे पहला नाटक मैंने ईश्वर अल्लाह तेरो नाम किया जो सांप्रदायिक सद्भाव और सांप्रदायिक वैमनस्य के बीज कैसे और कहां से आते हैं, इस को रेखांकित करता है। यह 1982 या 1983 की बात है। उसके बाद तो हमने जालौर में भी बहुत सारे नाटक किये। कालांतर में मैं जोधपुर शिफ्ट हो गया और यहां आते ही मैं सबसे पहले कमल कला मंदिर से जुड़ा जिसमें भाई दलपत परिहार, जो यहां के माने हुए रंग निर्देशक थे और उन दिनों वे इस संस्था में काम करते थे। उनके साथ जुड़कर मैंने अपने रंगकर्म की जोधपुर की पारी की शुरुआत की।

 

यहां मिनर्वा टॉकीज के पास एक चाय की दुकान पर देर रात तक शहर के बहुत से रंगकर्मी जुड़े रहते थे, नाटकों पर बातें होती थी और उन दिनों रोज का वहां पर खूब जमावड़ा होता था और ठीक उसके सामने रेलवे का इंस्टिट्यूट है, उसके बाहर भी एक चाय की थड़ी थी तो वहां जोधपुर के साहित्यकार जो लिखने पढ़ने वाले थे, वहां इकट्ठा हुआ करते थे। कुल मिलाकर वह जगह सृजनकर्मियों का अच्छा खासा अड्डा थी। उन्हीं दिनों मैं स्वर्गीय विष्णु दत्त जोशी, रमेश भाटी और शब्बीर हुसैन से मिला, ये लोग कुछ बेहतर करने की दिशा में सोच रहे थे। मैं उनसे बड़ा प्रभावित हुआ और मैंने चाहा कि मैं भी उन लोगों के साथ मिलकर काम करूं, तो हमने एक नई संस्था बनाई क्रिएटिव आर्ट सोसायटी। स्वर्गीय विष्णु दत्त जोशी, रमेश भाटी, शब्बीर हुसैन, मैं और भाई प्रमोद वैष्णव। हम पांच लोग इसके फाउंडर मेंबर थे। तब हमारे सामने पहला सवाल यह था कि कलाकारों की टीम कहां से लाई जाए। आमतौर पर यह होता ही है कि किसी भी शहर में आप देखें, टीम का बड़ा अभाव रहता है। उन दिनों भानू भारती जी जो प्रसिद्ध रंग निर्देशक हैं, वे एकेडमी के चेयरमैन बने तो उन्होंने एक एक्टिंग वर्कशॉप बीकानेर में रखी जिसमें सारे पढ़ाने वाले राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से आए थे। उसमें उत्तरा बावकर, माया राव, पार्थो घोष जैसे प्रशिक्षक थे। एक महीने की लंबी कार्यशाला लेकर, एक्टिंग स्किल सीख कर आते ही हमने पहला काम यह किया कि युवा रंगकर्मियों की अपनी एक टीम बनाई और जोधपुर में एक थियेटर एक्टिंग वर्कशॉप लगाई जिसमें हमने नए लड़कों, नई लड़कियों को जोड़ा जिनमे कुछ अब भी हमारे साथ कम कर रहे है। उनमें अयोध्या प्रसाद गौड़, के. आर. गोदारा, मनीष सोलंकी, अजय शर्मा आदि नाम हैं।

 

बलदेवा राम : आप निर्देशक हो जाने से पहले और आज भी अच्छे अभिनेता के रूप में पहचाने जाते रहें है। अपनी अभिनय यात्रा के यादगार नाटकों के नाम हमसे साझा कीजिये।

 

कमलेश तिवारी : पिछले करीब तीस साल से मैं नाटक कर रहा हूँ लेकिन कुछ माइलस्टोन नाटकों की बात करूं तो महाभोज, अंधा युग, चरणदास चोर, हत तेरी किस्मत बड़े नाटक है। सारी रात जो बादल सरकार का एब्सर्ड नाटक था, उसमें मेरी मुख्य भूमिका थी। बिच्छू, हाए मेरा दिल, दिल की दुकान  इस तरह के हास्य नाटक भी किए। जिन दिनों क्रिएटिव आर्ट सोसाइटी बनी थी, उस समय यहां सौरभ श्रीवास्तव नाम के एक आईपीएस थे, उनका प्रोबेशन पीरियड यहां चल रहा था, उनकी वाइफ सुष्मिता श्रीवास्तव जो रेलवे अकाउंट ऑफिसर थी, दोनों ही इलाहाबाद के माने हुए रंगकर्मी थे। हमारा सौभाग्य है कि उन्होंने यहां जोधपुर शहर में आकर थिएटर वालों को अपने आप ढूंढ लिया और हमारी संस्था के साथ जुड़कर उन्होंने बेहतरीन नाटकों में काम किया। उनके निर्देशन में मुझे अभिनय करने का अवसर भी मिला।

 

बलदेवा राम : आपकी शैक्षिक रंगमंच की यात्रा के बारे में बताइए।

 

कमलेश तिवारी : शुरू में 1989 या 1990 के दिनों में प्रदेश के वरिष्ठ रंगकर्मी रमेश भाटी हमारे यहां चिल्ड्रन थियेटर कार्यशाला कर रहे थे, मैंने उनके सहायक के रूप में काम किया और बच्चों के साथ रंगकर्म की शुरुआत की। वह शुरुआत मुझे बहुत दूर तक ले गई। 1990 के बाद मैं राजकीय विद्यालय नेवरा रोड़, ओसियां में गणित शिक्षक हो गया था। गणित विषय की नीरसता और बोझिल प्रवृत्ति को देखते हुए मैंने स्कूल में यह प्रयोग शुरू किया कि बच्चों को कोई नाटकीय गतिविधि के द्वारा कैसे पढ़ाया जाए। लगातार काम करते रहने से उन बच्चों से मुझे विलक्षण परिणाम मिले। नेवरा रोड़ के स्कूल के बच्चों की एक मजबूत टीम तैयार हुई जो पूरे पंचायत समिति क्षेत्र में प्रदर्शन के लिए जाती थी। इन प्रयोगों से जो अवधारणा विकसित हुई वह थी थियेटर इन एजुकेशन(TIE). मैंने बहुत सारे ऐसे चैप्टर लिए जिनको मैं गणित, अंग्रेजी या विज्ञान में मुश्किल समझता था और उनके किसी तरीके से नाट्य पाठ लिखने की कोशिश की। लेकिन मुश्किल ये थी कि सभी शिक्षक रंगमंच से जुड़े हुए नहीं होते थे तो बच्चों से काम करवाने में भी उनको परेशानी होती थी।

 

2005 के आसपास झालावाड़ में आयोजित आदिवासी बालिकाओं की ट्रेनिंग के लिए युनिसेफ द्वारा आयोजित एक कार्यशाला में मुझे बतौर दक्ष प्रशिक्षक के रूप में जोधपुर से मुझे बुलाया गया था। उन आदिवासी बालिकाओं के लिए हिंदी बोलना भी सहज नहीं था और उनसे मैंने अंग्रेजी की एक कहानी का मंचन करवाया था, तब उनको सहज रूप से मंचन करते हुए देखकर सब बहुत प्रभावित हुए और मुझे भी अपने ऊपर बहुत विश्वास आया कि नाटक के द्वारा किसी बात को कहा जाये तो सीखना बहुत आसान हो जाता है। तब हमारे मन में आया कि इस विचार को संस्थागत रूप देकर काम करने की जरूरत है। जोधपुर शहर में एक संस्था गठित की जिसका नाम था BNKVS GROUP OF THEATRE SOCIETY. इस के माध्यम से हमने शिक्षकों को प्रशिक्षण दिया। एक साल में हमने जोधपुर शहर के बीस-पच्चीस विद्यालयों के शिक्षकों को निशुल्क प्रशिक्षण दिया। उसके बाद तो यह सिलसिला लंबा चला। हमे लगा कि हमें वहां पहुंचना चाहिए जहां हमारी जरूरत है तो रिमोट एरिया के रूप में हमने बाड़मेर को चुना। बाड़मेर में तेल व गैस के क्षेत्र में काम करने वाली कुछ कंपनियों से हमने आर्थिक मदद ली और वहां पर लगभग साठ-बासठ सरकारी विद्यालयों में काम किया और ऐसे विद्यालयों को चुना जहां सुविधाओं का मूलभूत रूप से अभाव है। हमने बच्चों के लिए अंग्रेजी, गणित और विज्ञान इन तीन विषयों को चुना। इनका शिक्षण हमने नाटक के माध्यम से करवाया। यह बात 2006 से लगाकर 2010 तक की है, उस पूरे चार साल के दौर में हमने वहां के शिक्षकों को प्रशिक्षण भी दिया और उनके विद्यालयों में जाकर करके भी दिखाया कि किस तरह से पाठों का नाट्य रूपांतरण किया जा सकता है। हमने पाठ योजना में एक नया टर्म जोड़ा थियेट्रिकल लेसन प्लान माने टीएलपी। हमने तीन पुस्तकें भी प्रकाशित की जिसमें छठी, सातवीं और आठवीं कक्षा के अंग्रेजी, गणित और विज्ञान के सारे पाठों का नाट्य रूपांतरण हमने संकलित किया और वह पुस्तक के रूप में आज उपलब्ध है।

 

बलदेवा राम : आपने जो शैक्षिक रंगमंच को लेकर काम किया, क्या उसमें विभाग की तरफ से आपको किसी प्रकार से प्रोत्साहन दिया गया? दूसरी बात यह है कि क्या आप के समानांतर इस प्रकार के शैक्षिक रंगमंच को लेकर कोई समूह काम कर रहा है?

 

कमलेश तिवारी : विभाग में अपने खुद के ट्रेनिंग प्रोग्राम चलते हैं लेकिन यह एक नए प्रकार का कार्यक्रम था, यह टीचर को थोड़ा सा एक्टिवेट करता है। इसमें विभाग का कोई समावेश नहीं हो पाया क्योंकि मैंने इस तरह से प्रयास नही किया कि मैं विभाग को इस बारे में बताऊं। मेरा अनुभव है कि कुछ काम ऐसे करने चाहिए कि वे इस लायक हो जाएँ कि लोग स्वयं ही आपसे सम्पर्क करें तो मैं सोचता हूँ कि उसका प्रभाव ज्यादा होता है। हालांकि सरकारी कार्यक्रम के तौर पर मैंने साक्षरता पर आधारित एक लोक शैली में नाटक लिखा जो कथा गायन की तर्ज पर था जिसका नाम था आखरिया महाराज. यह ठीक वैसा ही था जैसे शिव पार्वती की की कथा सुनाई जाती है। तत्कालीन कलेक्टर साहब ने जोधपुर शहर में कला जत्था बनाया था उसका नाट्य प्रभाग का डायरेक्टर मुझे बना दिया। मैंने जोधपुर की नौ पंचायत समितियों में इस नाटक की टीमें तैयार की।

जहां तक शैक्षिक रंगमंच में समानांतर काम करने की बात है तो जयपुर से गगन मिश्रा और प्रियदर्शनी मिश्रा हमारे साथी रंगकर्मी है, उन दोनों ने थिएटर इन एजुकेशन में अभूतपूर्व काम किया है, हालांकि उन्होंने सीधे-सीधे पाठ्यक्रम आधारित रंगकर्म नहीं किया है फिर भी नाट्य कार्यशाला करते हैं, बहुत अच्छे प्रदर्शन उन्होंने कर रखे हैं। पूरे भारतवर्ष में काम उन्होंने किया है। मैंने अपने इस थिएटर इन एजुकेशन को पाठ्यक्रम आधारित रखा क्योंकि हम जब गांव में जाते थे तो अभिभावकों को यह पता चला कि बच्चे जो नाटक कर रहे हैं वह उनकी किताब की पढ़ाई है तो उनको लगा कि यह तो ठीक है, नहीं तो उनको लगता कि खाली नाटक कर रहा है, इधर-उधर घूम रहा है। इससे बच्चों को रंगमंच से जोड़ना भी बहुत आसान हो जाता है।

 

बलदेवा राम : बच्चों के साथ नाटक करने का कोई रोमांचक अनुभव, जब लगा हो कि यह बहुत मुश्किल है...

 

कमलेश तिवारी : बाड़मेर में एक संस्था है SURE नाम से, जो ग्रामीण विकास के क्षेत्र में काम करती है। उन्होंने कहा कि हमारे यहाँ नेत्रहीन बच्चों का एक हॉस्टल है और यहां आप कुछ इनके लिए भी करें। पहली बार एक चुनौती मुझे मिली, वहाँ जाकर थोड़ा-थोड़ा काम शुरू किया। जब उनसे दोस्ती हुई और भारतेंदु हरिश्चंद्र विरचित अंधेर नगरी नाटक का अभ्यास शुरू हुआ तो मैं देखता ही रह गया कि वे कितने अद्भुत प्रतिभाशाली बच्चे थे। उन्होंने उस नाटक का प्रदर्शन किया और लोगों ने देखा तो दांतो तले अंगुली दबा ली। कैसे उनको स्टेज के सब मूवमेंट याद हैं, कितने फीट की दूरी पर कौन सी चीज है, कौन किस तरह खड़ा होगा, किधर मुंह करके बोलना है, ऐसा लग रहा था जैसे कोई चमत्कार हो रहा हो। उस अंध विद्यालय में काम करके मुझे बड़ी खुशी हुई। बच्चे भी निरंतर हमसे जुड़े रहे, उनमें से एक बच्चा तो दिल्ली यूनिवर्सिटी में सामान्य बच्चों के बीच जाकर पढ़ा, अभी वह बैंक में किसी अच्छे पद पर है। थिएटर की खासियत है कि वह व्यक्ति के व्यक्तित्व में बहुत बड़ा सुधार कर देता है।

 

बलदेवा राम : थिएटर इन एजुकेशन आपके लिए एक बड़ी उपलब्धि है। लेकिन जब आपने इस तरह सोचना और करना शुरू किया तो शुरुआत में आपको इसके संबंध में अपने सहकर्मियों से, अपने विभाग से अलग-अलग प्रकार की प्रतिक्रियाएं मिली होंगी। इन सब चीजों को लेकर आपका अनुभव कैसा रहा?

 

कमलेश तिवारी : चुनौतियां हर स्तर पर रही। पहला अनुभव मुझे याद पड़ता है कि जब मैंने अपने स्कूल के छठी कक्षा बच्चों को कहा कि चलो आज बाहर खेलेंगे, आज गणित नहीं पढ़ेंगे। मैं उनको बाहर ले गया और कहा कि मान लो कि आप सब बकरियां हो, अब बकरियां बनकर इस ग्राउंड में घूमो। बच्चों को बड़ा आनंद आया, वे अपने हिसाब से अपने व्यक्तित्व को भूल कर अनेक गतिविधियां करने लगे, फिर मैंने कहा कि अच्छा अब एक बालक गडरिया बन जाओ तो फिर एक बच्चा गडरिया बनकर उसी की चाल चलने लगा, फिर मैंने कहा एक बच्चा सरपंच बन जाओ तो वह बच्चा अपने ही गांव के सरपंच की नकल करने लगा। मुझे ऐसा लगा कि जो हम शिक्षा में पूर्व ज्ञान की बात करते हैं वह उसके पास बहुत होता है लेकिन हम उसको कभी भी एक्सप्लोर नहीं कर पाते। बच्चा बहुत अधिक जानता है हमें यह बात समझनी होगी । नाटक का स्तर बच्चे के गांव के स्तर के अनुकूल होना चाहिए, उसके परिवेश के हिसाब से होना चाहिए। अगर मैं गांव के बच्चों के बीच में हैरी पॉटर का नाटक रखूंगा तो फिर उसके लिए वह बोधगम्य नहीं होगा और अगर बच्चों के अनुकूल का परिवेश बनाया जाता है तो वास्तव में बच्चे मुझसे भी अधिक जानते हैं अपने परिवेश के बारे में। मुझे ऐसा लगता है कि अध्यापक को विद्यार्थियों के लिए सुगमकर्ता का कार्य करना चाहिए न कि एक शिक्षक का। शिक्षण से भी अधिक महत्वपूर्ण है कि वह उनके लिए चीजों को सुगम बनाएं। जब मैं यह काम किया करता था तो मेरे कुछ ऐसे शिक्षक साथी जो काफी नौकरी कर चुके थे और अधेड़ अवस्था में पहुंच गए थे, लेकिन जब वह देखते थे कि एक युवा जो शहर से आया है, वह ऐसा कर रहा है तो सबसे पहले मुझे उन्होंने हतोत्साहित किया कि आप ऐसे लड़कों को बिगाड़ दोगे और ऐसे क्या लड़के कलेक्टर बन जाएंगे, इनमें अनुशासन नहीं रहेगा और आपको कौन सा गोल्ड मेडल मिल जाएगा। इन बच्चों को खेतों में ही काम करना है। यह पहली चुनौती थी जिसका मैंने सामना किया और मैं आपको बताऊं कि मुझे बड़ी खुशी हुई कि जब मैंने साल भर यह काम किया और जब पंद्रह अगस्त का दिन आया तब हमारे स्कूल में कोई स्टेज नहीं था तो उन्ही शिक्षकों ने मेरे लिए अपने हाथों से पत्थर चुनकर स्टेज बनाया। उन्होंने जब देखा कि वास्तव में यह बहुत बढ़िया काम कर रहा है तो वही शिक्षक थे जिन्होंने बड़ी कक्षा के बच्चों के साथ मिलकर पत्थर लेकर आए और एक अच्छा सा स्टेज बनाकर मुझे दिया। इस तरह से मैंने देखा कि व्यक्ति अपने विचार बदलता है, लेकिन आप को बिना विचलित हुए काम करते रहने की जरूरत है। अगर आप काम करते हैं तो लोग आपको देखते हैं, सराहना भी करते हैं। यूनिसेफ के जिला फेसिलेसन ऑफिस की तरफ से इसे पूरे राजस्थान में लागू करने का विचार भी आया लेकिन उसमें यह हुआ क्योंकि मैं सरकारी नौकरी में भी हूँ, सरकारी नौकरी के साथ-साथ समय की बड़ी सीमा रही, इसीलिए मैं इसमें इतना समय नहीं दे पाया तो मैं यूनिसेफ वाला काम जो बड़ा काम था, वह कर नहीं पाया।

 

बलदेवा राम : हिंदी रंगमंच करने, देखने की आपकी एक लंबी यात्रा रही है ऐसे में आप हिंदी रंगमंच के सामने किस प्रकार की चुनौतियों को देखते हैं? आपने किस तरह की चुनौतियों का सामना किया और कैसे?

 

कमलेश तिवारी : आपकी बात सही है, रंगमंच चुनौती पर ही शुरू होता है और चुनौती पर ही जाकर पूरा होता है। शुरुआत की तो बात ही अलग थी लेकिन आजकल थोड़े दूसरे प्रकार की समस्याएं ज्यादा हो गई है। हर नया लड़का या लड़की जब रंगमंच से जुड़ते हैं तो उनके सामने अपने आप में कैरियर को लेकर अलग तरह की चुनौतियां होती हैं। मैं सोचता हूँ कि कुछ बच्चे रंगमंच से इस तरह से जुड़ते हैं कि शायद यह फिल्मों या टीवी सीरियल या वेब सीरीज तक जाने का एक माध्यम हो सकता है तो कुछ साल क्यों न थिएटर कर लिया जाएँ। मैं आपको बताऊं लोग-बाग राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में करके भी खाली बैठे हैं। राष्ट्रीय स्तर का पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद भी अपने जीवन यापन के लिए उनको संघर्ष करना पड़ता है। वर्तमान कोरोना काल में हालत खराब हो गई है, हमारे कुछ साथी जो पूरी तरह से रंगकर्म को समर्पित थे, फुल टाइमर हैं, उनके लिए जीवन यापन की बहुत बड़ी दिक्कत आई है। मेरे एक साथी को जयपुर में, यह बहुत ही दुखद बात है हम सब के लिए कि उसको एक जगह गार्ड की नौकरी करनी पड़ी, जबकि वह जयपुर का माना हुआ रंगकर्मी है। मैं बहुत लंबा थिएटर कर पाया इसका एक कारण यह भी है कि मैं नौकरी कर रहा हूँ।

इस तरह से नए बच्चों, युवाओं को जोड़ने की समस्या ही आती है। दूसरी बात, हर कोई बहुत जल्दी आउटपुट चाहता है जबकि यह थिएटर आपको धीरे-धीरे निखारता है भले ही आप कितने ही प्रतिभाशाली क्यों ना हो, लेकिन यह आपको धीरे-धीरे आगे बढ़ाता है। अच्छे निर्देशकों की भी कमी रहती है। अगर मैं कहूँ कि जोधपुर शहर में मेरे देखते-देखते निर्देशक हम एक्टर्स में से ही बनते हैं। जो नाटककार है, वहीं निर्देशक बन जाता है, जो अभिनेता है वहीं निर्देशक हो जाता क्योंकि हमें लगता है कि किसी ना किसी को तो करना ही पड़ेगा जबकि निर्देशन बिल्कुल अलग चीज है। उसकी समझ विकसित होने में कई साल लगते हैं। रंगमंच में तकनीकी विशेषज्ञों की भी भारी कमी है।

 

बलदेवा राम : आर्थिक पक्ष तो है ही ...

 

कमलेश तिवारी : बिल्कुल, रंगमंच में पैसा बहुत कम है लेकिन रंगमंच करने के लिए पैसा बहुत चाहिए। इसमें हर एक क्षेत्र के लिए परफेक्ट पर्सन चाहिए। लाइट, डिजाइन, सेट, कॉस्टयूम, मेकअप सभी में। और जो कलाकार इस में भाग लेते हैं उनमें भी बहुत सारी प्रतिभा होनी चाहिए। वह गाता भी हो, उसको नृत्य का भी ज्ञान हो, उसको संवाद बोलने का ज्ञान हो, उसकी संवेदनाएं बहुत उच्च स्तर की हो।

 

बलदेवा राम : एक ही व्यक्ति से, एक ही कलाकार से इतनी सारी उम्मीदें? क्या ये उम्मीदें पूरी हो पाती हैं? आप तो निर्देशक रहे हैं। अपने अनुभव बताइए।

 

कमलेश तिवारी : यह बात सही है कि थिएटर एक कंपोजिट आर्ट है। सारी की सारी ललित कलाएं जब एक जगह संघटित हो जाती है तो फिर थियेटर बनता हैं। इसका मतलब यह भी है कि भले ही आपको इनके बारे में पूरा मालूम नहीं हो, लेकिन उनकी जो सामान्य जानकारियां है। चाहे वह संगीत व नृत्य हो, उसके बारे में छोटी-छोटी बातें और बिल्कुल सामान्य बातें आपको आनी चाहिए। निश्चित रूप से मांग इसकी बहुत ज्यादा है लेकिन मैं समझता हूँ कि जो व्यक्ति इससे जुड़ता है और किसी अच्छे निर्देशक के साथ काम करने का उसको अवसर मिले तो धीरे-धीरे यह सारी बातें एक प्रक्रिया में वह सीख पाता है।

 

बलदेवा राम : भविष्य में आप जोधपुर में हिंदी रंगमंच की क्या संभावनाएं देखते हैं?

 

कमलेश तिवारी : जो नए लड़के लड़कियां जुड़े हैं, उनका सोचने का प्रोसेस बहुत अच्छा है यह मैंने देखा है, वे बहुत ही व्यवस्थित रूप से सोचते हैं। आज के युग की पीढ़ी टेक्निक को लेकर अपडेट हैं। वे पूरे भारत भर के लोगों से जुड़े हुए हैं क्योंकि आजकल संचार तंत्र इतना फैला हुआ है कि आप कहीं के लोगों से जुड़ सकते हैं और उनके काम को देख सकते हैं। देश-विदेश के लोगों से बात कर सकते हैं। हालांकि उनके सामने कैरियर की समस्या बहुत बड़ी है फिर भी मैं जब युवाओं को काम करते हुए देखता हूँ तो रंगमंच के भविष्य के प्रति बहुत आशान्वित हूँ कि निस्संदेह इनमें बहुत अच्छे एक्टर छुपे हुए हैं, बहुत अच्छे डायरेक्टर छुपे हुए हैं और इनमें बिल्कुल एक नई अपनी सोच है जिसको यह विकसित करेंगे और मैं बहुत अच्छी संभावनाएं देखता हूँ।

 

बलदेवा राम : कमलेश जी आपको बहुत-बहुत धन्यवाद 

 

 

बलदेवा राम

सहायक आचार्य हिंदी, राजकीय नर्मदा देवी बिहानी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नोहर

baldev.maharshi@gmail.com, 9610603460


 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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