शोध आलेख : 21वीं सदी के भारत में चुनावी जनसहभागिता की स्थिति / रजनी गगवानी

शोध आलेख : 21वीं सदी के भारत में चुनावी जनसहभागिता की स्थिति
-रजनी गगवानी


शोध सार :
 राजनीतिक जन सहभागिता का प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में महत्त्व होता है। चाहे वह आधुनिक, लोकतांत्रिक अथवा तानाशाही व्यवस्था हो। राजनीतिक सहभागिता का स्वरूप ही वह महत्त्वपूर्ण तथ्य होता है जिसके आधार पर राजनीतिक व्यवस्थाओं में अंतर किया जा सकता है। समय-समय पर शासन व्यवस्था में जनभागीदारी के प्रतिमानों में बदलाव आता रहा है।अभिजात लोकतंत्र के समर्थक जनभागीदारी को मात्र मतदान तक सीमित रखने के समर्थक रहे हैं, जबकि कालांतर में जॉन रॉल्स, जर्गन हैबरमास, एमी गुटमन, डेनी
 थॉम्पसनव कैरोल पेटमैन ने निर्णय-निर्माण हेतुसार्वजनिक विमर्शपर बल देकरजनभागीदारी के एथेंसियन प्रतिमान को पुनर्जीवित किया।विमर्शी प्रजातंत्र का उद्देश्य नागरिकों व जन-अधिकारियों के बीच सार्वजनिक बहसको प्रोत्साहित करना है किन्तु भारत जैसे वृहद आबादी वाले राज्यों के लिए यह सम्भव नहीं है कि प्रत्येक मुद्दे पर पारम्परिक रूप से सभी वयस्कों के मध्यबहस के उपरांत निर्णय लिये जाएं। अतःचुनावों के माध्यम से जनता को समय-समय पर शासन में भागीदार बनने का अवसर दिया जाता है। इस दौरान जन–मुददों को उठाया जाता है,जनमत प्राप्त किया जाता है तथा जनता को प्रतियोगिता के माध्यम सेविधि-निर्माता संस्थाओं का सदस्य बनने का अवसर दिया जाता है।राजनीतिक जनसहभागिता के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कैरोल पेटमैन लिखते हैं कि सहभागी लोकतंत्र मानवीय विकास में वृद्धि करता है। राजनीतिक जनसहभागिता हमारे अपने सामाजिक और राजनीतिक जीवन को और अधिक लोकतांत्रिक बना देती हैजो व्यक्तियों को अपने दैनिक जीवन के साथ-साथ व्यापक राजनीतिक व्यवस्था में निर्णय लेने हेतु भाग लेने का अवसर प्रदान करती है। यह लोकतंत्र का लोकतंत्रीकरण कर देती है।(पेटमैन,2012 : 10) शासन मेंसहभागिता व्यक्ति की सामुदायिक एकता की भावना को सुदृढ़ कर सकती है। सहभागी लोकतंत्र आम व्यक्ति की ‘विशेषज्ञ’ के विरुद्ध प्रतिक्रिया है।यह व्यवस्था-अनुरक्षण के साथ ही उसकी की वैधता का भी प्रमुख पैमाना है। इसी कारण जनभागीदारी को राजनीतिक विकास, राजनीतिक आधुनिकीकरण एवं राजनीतिक संस्कृति का मापदंड माना गया है। आज भारत 90 करोड़सेअधिकमतदाताओंऔर2800 सेअधिक राजनीतिक दलों केसाथविश्वकीसबसे बड़ी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है। अतः यह आवश्यक है कि प्रत्येक योग्य नागरिक की इस महा-तंत्र में भागीदारी सुनिश्चित हो। जन सहभागिता के इसी महत्त्व के कारण प्रस्तुत शोध-पत्र के अंतर्गत जनसहभागिता के विभिन्न सैद्धांतिक आयामों व भारत में चुनावी जनसहभागिता की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।

बीज शब्द : विमर्श, राजनीति, जनसहभागिता।

1. राजनीतिक जनसहभागिता : सैद्धांतिक विमर्श-
राजनीतिक जनसहभागिता की अवधारणा ‘जनता प्रथम’ के रूप में हुए पैराडिम शिफ्ट का परिणाम है। लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में जनता : विरोध, चुनाव में भाग लेकर,राजनीति दलों में भर्ती होकर, मतदान, रैलियों, सभाओं व हड़ताल में भाग लेकर शासकीय निर्गतों को प्रभावित करने व सत्ता की साझेदार बनने का प्रयास करती हैजबकि,तानाशाही अथवा सर्वाधिकारवादी शासन प्रणालियों में केवल सत्तारूढ़ दल की रैली, सम्मेलन अथवा ‛रस्मी’ मतदान के द्वारा दिखावटी जनतंत्र की स्थापना की जाती है। 

1.1 अर्थ व परिभाषा- 
शासन व्यवस्था में किसी भी प्रकार व माध्यम से भाग लेना ‛राजनीतिक सहभागिता’ कहलाती है। यह अवधारणा ना सिर्फ लोकतंत्र की अनिवार्यता है बल्कि सुशासन (Good Governance) का भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है। शासन व्यवस्था में जन भागीदारी शासकीय निर्णयों की वैधता व सफलता की पूर्व शर्त है। वर्ष 1953 में यूनेस्को द्वारा मोरिस दुवर्जर के निर्देशन में आयोजित अंतर-राष्ट्रीय राजनीति विज्ञान संघ के सम्मेलन में राजनीतिक जनसहभागिता पर शोध किया गया। जिसमें राजनीतिक सहभागिता के निम्न रूप/क्रियाएं बताई गईं है-

1) चुनावमेंमतदान। 
2) 2).चुनाव,व्यवस्थापिका एवं सरकारों में सहभागिता। 
3) 3).प्रशासन में सहभागिता। 
4) 4).विभिन्न संघों,राजनीतिक दलों व दबाव-समूहों में सहभागिता। 
5) 5).प्रेस तथा अन्य अप्रत्यक्ष राजनीतिक गतिविधियों में सहभागिता। 

इन गतिविधियों के अतिरिक्त भी लोग राजनीतिक व्यवस्था में कईं माध्यमों से भाग लेते है अथवा उसे प्रभावित करते है। विद्वानों ने राजनितिक सहभागिता को निम्नलिखित शब्दों में परिभाषित किया है-

मिशेल रूश एवं आल्टोफ के अनुसार, “व्यक्ति द्वारा राजनीतिक तंत्र के विभिन्न स्तरों पर भूमिका निर्वहन को राजनीतिक सहभागिता कहते हैं।” (मिशेल एवं आल्टोफ,1972 : 14)

एंथोनी एम. ओरम के अनुसार ”राजनीतिक सहभागिता राजनीति का वह प्रकार है,जिसके माध्यम से व्यक्ति राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करता है।“ (ओरम,1971 : 281)

इस प्रकार से स्पष्ट है कि राजनीतिक सहभागिता में वे सभी गतिविधियां सम्मिलित हैं, जिनके माध्यम से व्यक्ति राजनीतिक व्यवस्था से जुड़ता है। यह गतिविधियां चुनावी अथवा गैर-चुनावी हो सकती है।

1.2 राजनीतिक सहभागिता के प्रकार:
लेस्टर मिलब्राथ के अनुसार राजनीतिक सहभागिता के निम्न दो प्रकार हैं(मिलब्राथ,1965 : 19 – 20)

1. ग्लेडिएटर सहभागिता- इस वर्ग के अंतर्गत वे क्रियाएं शामिल हैं जो राजनीतिक दलों की गतिविधियों का अंग है। जैसे-राजनीतिक पदों के लिए चुनाव, विधानसभा/लोकसभा चुनाव में भाग लेना, दल के कोष में चंदा एकत्रित करना, दल का प्रभाव बढ़ाने हेतु आंदोलन करना व लगातार दलीय सभाओं का आयोजन करते रहना इत्यादि सम्मिलित है।
2. संक्रमणकालीन क्रियाएं- इसमें वे सभी क्रियाएं शामिल हैं जो दल के सहायक व शुभचिंतक करते रहते हैं। जैसे-नेताओं के भाषण सुनना, चंदा देना तथा दलीय नेताओं से सम्पर्क बनाए रखना।
3. दर्शक क्रियाएं - इनमें मतदान, दूसरों के मतों को प्रभावित करना, राजनीतिक वाद-विवाद में भाग लेना,राजनीतिक उत्तेजनाओं से प्रभावित होना अथवा दलों के प्रतीक चिह्न व इश्तिहार लगाना/चिपकाना सम्मिलित है।

अन्य प्रकार-
1. नकारात्मकरूप- राजकीय निर्णयों को प्रभावित करने हेतु नागरिकों द्वारा असंवैधानिक अथवा हिंसक विरोध-प्रदर्शन व दंगे भड़काने का मार्ग अपनानाजनसहभागिता का नकारात्मक रूप है, जो कि राजनीतिक व्यवस्था के प्रतिमान अनुरक्षण में बाधक है।
2. गैर-चुनावी जनसहभागिता - चुनावी प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी माध्यम से राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करने हेतु किया गया कार्य गैर-चुनावी जनसहभागिता में शामिल है। जैसे कि-ज्ञापन देना, मार्ग अवरुद्ध करना, बाजार बंद करना, किसी राजनीतिक निर्णय के पक्ष अथवा विपक्ष में बहस करना इत्यादि ऐसी गतिविधियां जो चुनाव से सम्बन्धित नहीं होती हैं।

1.3 राजनीतिक जनसहभागिता के स्तर:
पिछले पृष्ठों में किये गए अध्ययन से स्पष्ट है कि जनसाधारण शासन-प्रक्रिया में औपचारिक-अनौपचारिक एवं प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके, दोनों से ही सम्मिलित हो सकता है। किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में जनता हर समय सहभागी नहीं बनाई जाती है। एस.ई.फाइनरके अनुसार, ‘पूर्ण भागीदारी’ एवं ‘पूर्ण विलगन’ की अवस्थाएं मात्र मिथ्या है। सभी शासन व्यवस्थाएं ‘सहभागिता-विलगन निरन्तर’ पूर्ण सहभागिता व पूर्ण विलगन के दो छोरों के मध्य में ही पाई जाती है। फाइनर ने क्रमशः लोकप्रिय सहभागिता, लोकप्रिय नियंत्रण, लोकप्रिय मौन स्वीकृति एवं लोकप्रिय अर्पण के रूप में जनसहभागिता के घटते क्रम में का उल्लेख किया है। जो कि क्रमशः अप्रत्यक्ष लोकतंत्र, प्रतिनिधियात्मक लोकतंत्र, निर्देशित लोकतंत्र एवं निरंकुशतन्त्र की विशेषता है।(फाइनर,1970 : 42)

वास्तव में राजनीतिक व्यवस्था के प्रति जनक्रिया एवं प्रतिक्रिया का स्तर,बारम्बारता,प्रवेशन एवं निर्वासन न्यूनाधिक सभी प्रकार की शासन प्रणालियों में पाया जाता है।साथ ही पूर्ण सहभागिता एवं पूर्ण अलगाव एक ‘यूटोपिया’ ही है। कठोर रूप से बंद राजनीतिक प्रणाली में भी कहीं न कहीं से जनसहभागिता की मांग उठने लगती है,जिसे अधिक समय तक उपेक्षित कर पाने में कोई भी राजव्यवस्था सक्षम नहीं होती है।कईं बार जनभागीदारी की अवांछनीय उपेक्षा करने पर जनता समानांतर सरकार का निर्माण कर पूर्व में स्थापित सत्ता की वैधानिकता को चुनौती देने लगती है।अतः वैधता की प्राप्ति हेतु न्यूनाधिक मात्रा में ही सही पर किसी न किसी स्तर पर सभी देशों की राजनीतिक प्रणाली में जनभागीदारी पाई जाती है।

1.4 राजनीतिक जनसहभागिता को प्रभावित करने वाले तत्व/कारक
राजनीतिक जनसहभागिता एक जटिल संकल्पना है जो विभिन्न देश,काल,समाज,संस्कृति एवं वर्गों के अनुसार बदलती रहती है तथा सभी स्थानों पर समान रूप से नहीं पाई जाती है।इसे प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं-

1).मनोवैज्ञानिक कारक-निम्न कारक जनता की राजनीतिक गतिविधियों को प्रभावित करते हैं-
A).एकाकीपन-आई.ई.लेन के अनुसार,सामान्य राजनीतिक विश्वास,सामान्य क्रोध, सहानुभूति एवं कष्ट जैसे संवेदन राजनीति में भाग लेने हेतु आधार तय करते हैं।राजनीति,एकाकी मनुष्य को अन्य लोगों के साथ रहने का अवसर प्रदान करती है।(लेन,1968 : 198) इसी कारण नेता मृत्यू-पर्यंत राजनीतिक कार्य नहीं छोड़ते हैं क्योंकि राजनीति छोड़ते ही वे अकेले हो जाते हैं औऱ उन्हें अपना जीवन भार लगने लगता है।यही कारण है कि व्यक्ति का एकाकीपन उसे राजनीतिक-सहभागिता हेतु प्रेरित करता है।

B).अचेतन संघर्ष और तनाव-राजनीतिक सहभागिता अचेतन स्तर पर उत्पन्न होने वाले तनावों और मानसिक संघर्षों को अभिव्यक्ति प्रदान करने का एक साधन है।दो प्रकार से राजनीतिक सहभागिता से तनाव दूर हो सकता है-
      अ).वह व्यक्ति आंतरिक-संघर्ष से हट जाएगा।

ब).वह आंतरिक-संघर्ष को अभिव्यक्ति प्रदान करने का माध्यम प्राप्त कर लेता है।
रॉबर्ट लेन ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री श्री एंड्रयू बोनर लॉ का ऐसा ही उदाहरण दिया। जिन्होंने अपनी पत्नी की 1909 में आकस्मिक मृत्यू के पश्चात अपने मानसिक तनाव को कम करने के लिए सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया था।
C).शक्ति की खोज-मनुष्य सदैव शक्ति चाहता हैऔर शक्तिशाली कहलाने पर सन्तुष्ट होता है।अतः जिस समाज में राजनीतिक कार्यों को जितना अधिक सम्मान दिया जाएगा,उतना ही वह लोगों को आकर्षित करेगी।इसका उदाहरण भारत में देखा जा सकता है।यहाँ राजनीतिक कार्यकर्त्ता की स्थिति, यश,सामर्थ्य तथा धन अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक होता है। इसलिए यहाँ राजनीतिक पद प्राप्त करने हेतु प्रतिस्पर्धा चलती रहती है।

D).अपना महत्त्व बनाये रखने के लिए-उत्तरप्रदेश के एक जिले में अध्ययन-कर्त्ता द्वारा पूछे गए प्रश्न कि “आप मतदान क्यों करते हैं?” का एक रिक्शा चालक ने बिना देरी के उत्तर दिया कि “यदि मैं मतदान नहीं करता हूँ,तो मैं राज्य के लिए मृत हूँ!”अध्ययनकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि भारत में निर्धन वर्ग इसलिए मतदान करता है क्योंकि उसे भय रहता है कि यदि वह मतदान नहीं करेगा तो, राजनेता उसके पास(वोट मांगने ही सही) नहीं आएंगे औऱ न ही जनकल्याणकारी नीति बनाई जाएगी।इस प्रकार वह राज्य की नज़र में मरा हुआ बन जायेगा।(आहूजा एवं छिब्बर,2012 : 01)

2).सामाजिक कारक - राजनीतिक सहभागिता के लिए सामाजिक कारक जैसे-शिक्षा, व्यवसाय,आय,आयु,लिंग,निवास व अन्य प्रभाव भी सहायक हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका तथा पश्चिमी देशों में हुए अध्ययनों के आधार पर सामाजिक कारकों की राजनीतिक सहभागिता में भूमिका निम्न प्रकार से समझी जा सकती है। (डाउसे एवं ह्यूज,1962 : 297-299)

अ).शिक्षा- यह मनुष्यों में नागरिक कर्तव्यों व उत्तरदायित्त्व के प्रति जागरूकता उत्पन्न करती है।शिक्षित व्यक्तियों की अपेक्षा अन्य लोगों में योग्यता व आत्मविश्वास की कमी पाई जाती है।अमेरिका,फिनलैंड, मेक्सिको, ब्रिटेन तथा इटली में हुए अध्ययन इसकी पुष्टि करते हैं।

ब).सामाजिक अन्तर्भाविता-श्रमिक संघ के सदस्य गैर-श्रमिक संघ के सदस्यों की अपेक्षा राजनीति में अधिक रुचि लेते हैं।विभिन्न मामलों के बारे में उनका दृष्टिकोण अधिक मजबूत होता है तथा वे मताधिकार का अधिक संगठित रूप से प्रयोग करते हैं।स्वयंसेवी संगठनों में उच्च सहभागिता भी राजनीतिक सहभागिता से सम्बंधित होती है।

स).निवास-किसी समुदाय में व्यक्ति का निवास जितना अधिक लम्बी अवधि के लिए होता है,उतनी ही राजनीतिक सहभागिता अधिक पाई जाती है।इससे वह स्थानीय राजनीति से भलीभांति परिचित हो जाता है और उसका लम्बे समय तक स्थानीय लोगों से घनिष्ठ सम्पर्क भी रहता है।उसकी आदतें, तौर-तरीके,भाषा,समस्याएं, आकांक्षाएं तथा सोचने-समझने के ढंग आदि स्थानीय क्षेत्र के अनुरूप होते हैं।

द). लिंग – राजनीतिक सहभागिता पर लिंग का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। स्त्रियों की तुलना में पुरुषों में राजनीतिक सहभागिता अधिक देखने को मिलती है।संयुक्त राज्य अमेरिका, फिनलैंड,नार्वे,ब्रिटेन व भारत सहित अन्य देशों का अध्ययन करने पर रॉबर्ट डहल टिप्पणी करते हैं कि “स्त्रियों की तुलना में पुरूष राजनीति में अधिक सक्रिय होते हैं। गृह-कार्यों में अधिक संलग्न रहने तथा पारिवारिक दायित्त्व भी महिला-भागीदारी के कम होने का कारण है।”(डहल,2003 :123-124)
य).आयु-राजनीतिक सहभागिता वृद्धो की अपेक्षा मध्य आयु-वर्ग में अधिक पाई जाती है।मध्य आयु-वर्ग में अधिक सुरक्षा,स्थायित्त्व,योग्यता तथा उत्तरदायित्त्व की भावना पाई जाती है। वृद्धो की तुलना में मध्य आयु-वर्ग के स्त्रियां-पुरूष अधिक सहभागिता रखते हैं।अवकाश प्राप्त व्यक्तियों के जीवन के अन्य पक्षों में भी सक्रियता कम हो जाती है,किन्तु राजनेता इस मत का अपवाद हैं।

र).धर्म व प्रजाति-इन दोनों कारकों का प्रभाव कुछ इस प्रकार है कि जिस धर्म से सम्बन्धित कानून बनाने का प्रयास किया जाता है,उस धर्म के अनुयायी राजनीतिक सक्रियता दिखाते हैं,क्योंकि अधिकांश लोग अपने धार्मिक मामलों में किसी भी तरह का हस्तक्षेप सहन नहीं करते हैं।अनेक बार तो धार्मिक क्षेत्र की सुरक्षा बनाये रखने हेतु ही कुछ राजनीतिक गतिविधियां तीव्र की जाती हैं।

ल).आय-आय का राजनीतिक भागीदारी पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव देखने को मिलता हैक्योंकिऊंची आय से अवकाश प्राप्त व्यक्ति को दैनिक आवश्यकताओं के प्रबंधन की चिंता नहीं रहती है और वह अपना समय राजनीतिक गतिविधियों को दे सकता है।इसी कारण राजनीति में अभिजनों की बहुलता होती है।

व).समूह-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है,वह समूह में रहकर राजनीतिक सहभागिता की सीख प्राप्त करता है।यह समाजीकरण ही उसे उचित व अनुचित में भेद का आधार विकसित करता है।सामाजिक कार्यकर्त्ता आसानी से राजनीतिक कार्यकर्त्ता भी बन जाते हैं।
3).आर्थिक कारक-व्यक्ति आर्थिक हितों की रक्षा के लिए राजनीति में भाग लेता है।मिल्स के अनुसार, उद्योगों के प्रमुख संचालक एवं समाज का अत्यधिक समृद्ध वर्ग दो भिन्न सामाजिक समूह नहीं हैं,जिन्हें स्पष्ट रूप से अलग किया जा सके।संपत्ति और सुविधाओं की दुनिया में वे एक-दूसरे के साथ घुल-मिल गए हैं।अमेरिका में प्रभुत्त्व और नियंत्रण में किसी प्रकार का विभाजन नहीं है।(मिल्स,1965 : 119)हेराल्ड लॉसवेल के अनुसार, राजनीति में यह काफी महत्त्व रखता है कि “कौन,क्या,कब और कैसे प्राप्त करता है?”वस्तुतः मनुष्य अपने आर्थिक और भौतिक लाभों को राजनीति के माध्यम से बढ़ाना चाहते हैं।

अतः स्पष्ट है कि राजनीतिक जनभागीदारी को एक से अधिक कारक प्रभावित करते हैं व व्यक्ति का चुनावी व्यवहार उसकी आयु, लिंग, सामाजिक व आर्थिक स्थिति सभी से निर्धारित होता है।
2. राजनीतिक जनसहभागिता : व्यवहारिक विमर्श

भारत के लिए सहभागी लोकतंत्र कोई नवीन व अपरिचित अवधारणा नहीं है।गाँधी जी ने इसे सैद्धान्तिक विमर्श ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आंदोलन में लोगों के आचार-विचार का अविभाज्य अंग बनाया।स्वराज व स्वदेशी की संकल्पना तथा ग्राम-स्वराज की परिकल्पना को भारतीय लोकतंत्र की परम्परा का प्रतिनिधिक अंग बनाया परन्तु स्वातंत्र्योत्तर काल में मुख्य धारा की राजनीति ने गांधी जी के विचारों को अव्यवहारिक कह कर अप्रासंगिक करार दिया था।जिसे आज पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जा रहा है।सहभागी लोकतंत्र के इसी सैद्धान्तिक विमर्श को वास्तविक धरातल पर उतारने का प्रयास न केवल गांधी जी बल्कि अनेक विचारकों व सामाजिक कार्यकर्त्ताओं ने किया है एवं इसे अधिक अर्थ-बहुल व बहु-आयामी बनाया।मानवेन्द्र नाथ रॉय ने चुनावी लोकतंत्र की आलोचना करते हुए सहभागी प्रजातन्त्र का पक्ष लेते हुए स्वतन्त्र भारत हेतु संविधान तैयार किया था,जिसकी मुख्यधारा की राजनीति ने उस समय अवहेलना की थी परन्तु आज वैश्वीकरण के खिलाफ संघर्ष में जनांदोलनों ने उसे फिर से प्रासंगिक बनाया है।सहभागी राजनीति के व्यवहारिक प्रयोग कर सामाजिक परिवर्तन की चेतना को युवकों में लाने में जयप्रकाश नारायण अग्रसर रहे।उनकी मान्यता थी कि पारदर्शिता और जवाबदेहिता को आधारभूत तत्त्व मानकर शक्ति संचार उधर्वगामी दिशा में होना चाहिए और हर इकाई को शक्ति के प्रयोग का अवसर, उनसे निचली श्रेणी की इकाइयों से प्राप्त होगा।उनकी ‘जनशक्ति’की अवधारणा नवचेतना की तरह युवकों में फैल गई।

नागरिकों की राजनीतिक व्यवस्था में भागीदारी एक महत्त्वपूर्ण प्रघटना है। भारत में नागरिक विभिन्न स्तरों पर शासनिक कार्यों को विभिन्न माध्यमों/साधनों से प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। जनसहभागिता के माध्यमों को चुनावी एवं गैर-चुनावी में विभाजित किया जा सकता है। निर्वाचन-प्रक्रिया के दौरान किसी प्रत्याशी के पक्ष अथवा विपक्ष में प्रचार करना,चुनाव में मतदान करना, स्वयं चुनावी रण में उम्मीदवार बनना,राजनीतिक दलों को वित्तीय सहायता अथवा चंदा देना,किसी दल का पद अथवा सदस्यता ग्रहण करना,चुनावी रैली, सभा में भाग लेनाएवं दल का गठन करना चुनावी जनसहभागितामें सम्मिलित है जबकिचुनावेत्तर गतिविधियां जैसे ; किसी आंदोलन में भाग लेना,दबाव/हित समूहों के माध्यम से लॉबिंग,जनमत संग्रह में मतदान करना,ज्ञापन देना, ताला बन्दी,मार्ग अवरुद्ध करना,दंगा व अन्य विरोध/समर्थन प्रदर्शन करना,राजनेताओं से संपर्क साधना, जनसमस्याओं अथवा निजी समस्याओं के समाधान हेतु प्रशासन से संपर्क करना, हड़ताल, काम-बन्दी,सरकार सम्बन्धित सूचना-मांगना,जनसंचार माध्यमों से राजनीतिक-बहसों में भाग लेना अथवा बहस सुनना हैं, जो कि चुनावी-प्रक्रिया से संबंधित नहीं होती है।प्रस्तुत शोधपत्र के अंतर्गत केवलमतदान के स्तर तक ही राजनीतिकजन सहभागिता की स्थिति का भारत केसंदर्भ में विवेचन किया गया है, जो कि निम्नलिखित है।

2.1 मतदान: भारत में स्थिति
मतदान राजनीतिक व्यवस्था में भागीदारी का लोकप्रिय माध्यम है।इसके अंतर्गत जनता अपने विचारों का प्रतिनिधित्त्व करने वाले प्रतिनिधियों का चुनाव करती है।इस व्यवस्था का उद्देश्य जनता को शासन-प्रक्रिया में सम्मिलित करना नहीं बल्कि इसके द्वारा जनता अपने शासकों का चुनाव व शासकों को नियंत्रित करने का अवसर प्राप्त करती है। सार्वभौम वयस्क मताधिकार पर टिप्पणी करते हुए जावीद आलम लिखते हैं कि एक अर्थ में तो मताधिकार ने ऊंच-नीच की श्रेणियों को समतल करके लोगों को बराबर कर ही दिया है।उसके जरिए वंचित वर्ग अपनी सामाजिक स्थानिकता के परे चला गया और उस ताकत को अहसास मिला,जो सामाजिक जीवन में पहले कभी नहीं हुआ है।(जावीद,2007 : 10)

भारत में प्रथम लोकसभा चुनाव से 17वें लोकसभा चुनाव(वर्ष 2019) तक का मतदान-ब्यौरा निम्न प्रकार से है
चित्र : 1, आम चुनाव व मतदान प्रतिशत



स्त्रोत: भारत का निर्वाचन आयोग।

मतदान सम्बन्धी उपर्युक्त तथ्यों का अध्ययन करके कहा जा सकता है कि भारत में लोगों का मतदान के प्रति रुझान समय-समय पर घटता-बढ़ता रहा है। जावीद की पुस्तक ‘लोकतंत्र के तलबगार’ की समीक्षक नीलाद्रि भट्टाचार्य लिखती हैं कि जावीद का सर्वेक्षण एक और बात कहता है,जो बेहद अहम है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर यकीन का सम्पन्नता और हैसियत व ताकत के साथ प्रतिलोम सम्बन्ध है।गरीबों की चुनाव-प्रक्रिया में भागीदारी बढ़ती जा रही है और वो लोकतंत्र में अपने यकीन को बलपूर्वक प्रस्तुत करते हैं।इसके उलट उच्च वर्गों का लोकतंत्र से मोहभंग होता जा रहा है।

अमित आहूजा एवं प्रदीप छिब्बर के समूह द्वारा किये गए अध्ययन (आहूजा एवं छिब्बर,2012 : 8)में आर्थिक स्थिति को परिवर्त्य मानते हुए निष्कर्ष निकाला गया कि करीब 50 प्रतिशत धनिक वर्ग मतदान को अपना अधिकार मान कर मतदान करता है,जबकि करीब 70 फीसदी निर्धन वर्ग देशभक्ति व नागरिक कर्त्तव्य से प्रेरित होकर मतदान है। 

युवा भारतीयों नागरिकों की चुनावी भागीदारी के सम्बंध में लोकनीति-सीएसडीएस व कोनार्ड एडेनौर स्टिफटन्ग के सँयुक्त तत्त्वाधान में निष्पादित देशव्यापी सर्वेक्षण दर्शाता है कि यद्यपि बड़े शहरों के युवाओं में मतदान करने की प्रवृत्ति अधिक पाई जाती है परंतु जब चुनावी प्रचार गतिविधियों की बारी आती है तो महानगरों के युवाओं की अपेक्षा मध्यम व छोटे शहरों के युवा अधिक भागीदार बनते हैं।इसके अतिरिक्त 22 से 34 वर्ष के युवाओं कीमतदान व प्रचार के स्तर पर समान रही।वहीं शिक्षितों के मुकाबले अशिक्षितों में मतदान की प्रवृत्ति अधिक पाई गई। युवाओं की मतदान व प्रचार सम्बंधित चुनावी भागीदारी का अन्य चरों के साथ सम्बंध को निम्न सारणी के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है।(सारणी : 1)




(सारणी : 1)
विकासशील समाज अध्ययन पीठ की संस्था लोकनीति द्वारा किये गए चुनावेत्तर राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन (2019) के लोकसभा चुनाव का अध्ययन कर नागरिकों की मतदान सम्बन्धित प्रवृत्तियों व शासनिक व्यवहार के साथ ही नागरिकों की राजनीतिक गतिशीलता का अध्ययन किया गया।जिसके कुछ प्रश्नों का संक्षिप्त उल्लेख निम्नलिखित है-

01). आपने कब तय किया कि आप किसके पक्ष में मतदान करेंगे? 
उत्तर-

उत्तर

मतदाता प्रतिशत

चुनाव प्रचार से पूर्व

35.7.

मतदान के दिन

15.4

प्रचार के दौरान

17.7

प्रचार के पूर्व

35.7

प्रत्याशी घोषित होने के बाद

11.6

( सारणी: 2)

02).मतदान सम्बन्धी किसकी राय आपके लिए सर्वप्रमुख है? 
उत्तर-

उत्तर

मतदाता प्रतिशत

पति/पत्नी

30.9

अन्य परिवार के सदस्य

31.5

मित्र/पड़ोसी

6.1

क्षेत्रीय राजनेता

4.2

जातीय नेता

2.0

सोशल मीडिया

0.3

(सारणी :3)

03). चुनावों में मतदान हेतु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मुद्दे क्या थे :
उत्तर

उत्तर

प्रतिशत

नौकरियों की कमी, बेरोजगारी

11.3

महंगाई

4.0

अर्थव्यवस्था, आर्थिक विकास

2.9

गरीबी, गरीबों की उपेक्षा

2.7

(सारणी :4)

04). मतदान नहीं करने का कारण रहा: 




चित्र : 2 , मतदान नहीं करने का कारण व उत्तरदाता प्रतिशत
नागरिकों की मतदान प्रवृत्ति को जानने सम्बन्धी उक्त प्रश्नों का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि दूसरों की सलाह मानने वाले करीब दो-तिहाई मतदाताओं के लिये उनके जीवनसाथी, मित्र व पड़ोसियों की राय निर्धारक होती है। वहीं रोज़गार की कमी एक महत्त्वपूर्ण चुनावीमुद्दा बना हुआ है। इसके अतिरिक्त ‛प्रॉक्सी मतदान’ की सुविधा का सभी वर्गों व नागरिकों के लिए उपलब्ध नहीं होने के कारण बीमार व अन्य स्थान पर होने के चलते कई व्यक्ति मतदान से वंचित रह जाते हैं।

निष्कर्ष: प्रस्तुत शोध-पत्र का अध्ययन करने के पश्चात निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भारत में अन्य विकासशील राज्यों की अपेक्षा राजनीतिक व्यवस्था में जनभागीदारी के स्तर में वृद्धि हुई है।यद्यपि कईं बार अवांछनीय होने के बावजूद जब नागरिक आंदोलन की राह पर चल पड़ते हैं तो वह राजनीतिक व्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है।‘भीड़ का न्याय’ जनभागीदारी का भारत में उभरता हुआ प्रतिमान है।जिसके अंतर्गत जनता स्वयं पुलिस व न्यायपालिका की भूमिका का निर्वहन करते हुए “ना अपील, ना दलील,ना वकील” का अवसर देते हुए स्वयं तुरंत कथित न्याय करते हुए अपनी सक्रियता का प्रदर्शन कर रही है।

राजनीतिक व्यवस्था में जनता का अनेक माध्यमों/साधनों से समावेशन व भर्ती होती है।समावेशन के यह साधन मतदान, जनांदोलन, राजनीतिक दलों की सदस्यता अथवा दलों द्वारा आयोजित किसी राजनीतिक गतिविधि में भाग लेकर,स्वयं चुनाव लड़कर, स्वयंसेवी संगठनों के माध्यम से वैधानिक साधनों से अपनी मांग राजनीतिक व्यवस्था तक पहुँचाना अथवा अवैधानिक तरीके से भी राजनीतिक व्यवस्था का ध्यान आकर्षित करने का जनता द्वारा प्रयास किया जाता है।

वैधानिक साझेदारी व्यवस्था के उत्तरजीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं में से एक है,वहीं अप्रतिमानित जन भागीदारी राजनीतिक व्यवस्था को चुनौती देने का कार्य करती है।भारत में विगत वर्षों में दोनों प्रकार की भागीदारी के स्तर में बढ़ोतरी दर्ज की गई है,परन्तु इस क्षेत्र में अभी और सुधार की आवश्यकता है।इस हेतु राजकीय प्रयासों के साथ ही जनता को स्वयं में भी कईं सुधार करने होंगे।यह कार्य राजनीतिक समाजीकरण द्वारा कर हमारी ‘नागरिक संस्कृति’ व ‘राष्ट्रीय चरित्र’ के स्तर में सुधार किया जा सकता है। 

सन्दर्भ : 
आहूजा,अमित.छिब्बर,प्रदीप.(2012).वायदपुअरवोटइनइंडिया इफआईडोन्टवोट,आईएमडेडफ़ॉरदस्टेट.स्प्रिंगरसाइंस+बिज़नेसमीडियाएल.एल.सी : न्यूयॉर्क.
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रजनी गगवानी (शोधार्थी)
राजनीति विज्ञान विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर,राजस्थान।
Rajnigagwani21@gmail.com, 8005995477, 9571114718

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022
UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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