शोध आलेख : अदम गोण्डवी : यथास्थितिवाद के विरुद्ध मुक्तिकामी चेतना का कवि / आनंद पांडेय

शोध आलेख : अदम गोण्डवी : यथास्थितिवाद के विरुद्ध मुक्तिकामी चेतना का कवि

-आनंद पांडेय


अदम गोण्डवी हिंदी गज़ल की क्षीण लेकिन लोकप्रिय परम्परा के प्रमुख शायर हैं। हिंदी ग़ज़ल के वे दुष्यंत कुमार के बाद सबसे बड़े हस्ताक्षर हैं।धरती की सतह परऔरसमय से मुठभेड़उनके दो ग़ज़ल-संग्रह प्रकाशित हैं। अदम गोण्डवी की शायरी में एक ऐसे व्यक्ति की बेचैनी, हताशा और विद्रोह-भावना व्यक्त हुई है, जो यथास्थिति से असंतुष्ट होकर बेहतर दुनिया की तलाश में लगा हुआ है। उनकी शायरी में भारत की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था से वंचित और उपेक्षित जन की प्रतिरोध की भावना को आवाज़ मिली है। वे सभी प्रकार केयथास्थितिवाद के विरुद्ध विद्रोह और मुक्तिकामी चेतना के शायर हैं। वे किसी लाभ-लोभ में फँसे शायर नहीं हैं, इसलिए उनमें ईमानदारी और दुनियादारी का द्वंद्व नहीं है। उनकी दृष्टि साफ और वाणी में साफगोई है। उनकी शैली बेबाक है और भाषा पारदर्शी। उनमें कलात्मकता का अतिरिक्त आग्रह है और ही काव्य-कला का ह्रास। उनकी कविताओं से किसी को वैचारिकता की कमी की शिकायत होगी ही संवेदना की गहनता की। उनकी कविताएँ लोकप्रियता के नए प्रतिमान बनाती हैं। जो लोग आज की हिंदी कविता की अलोकप्रियता और कृत्रिमता से चिंतित हैं उन्हें अदम की कविता पर एक नज़र डालनी चाहिए, क्योंकि उनकी कविताएँ काव्य-परिदृश्य पर छाई नाउम्मीदी के बीच उम्मीद हैं

 

अदम गोण्डवी का काव्य-संसार भाववादी नहीं, भौतिकवादी है। जैसे उनका साहित्य-सिद्धांत चाँद-तारे के बजाय ठोस जमीन पर आधारित है, वैसे ही उनकी विचारधारा ईश्वर-प्राप्ति या अध्यात्म-सुख के लिए नहीं है। वे धर्म और अन्धविश्वास के प्रति मोह जगाने वाले कवि नहीं बल्कि तर्क और वैज्ञानिकता के सहारे उसके प्रति मोहभंग पैदा करने वाले कवि हैं। वे कहते हैं :

 

गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे

पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें

 

जीवन के प्रति कवि का यह दृष्टिकोण गौतम बुद्ध के दार्शनिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भिन्न है। यह दुखवादी कवियों के दुःख से भी भिन्न है। यह भाववादी दुःख नहीं बल्कि भौतिक और यथार्थवादी दुःख है। यह दुःख जीवन से मोहभंग नहीं पैदा करता बल्कि जीवन को बेहतर बनाने के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित करता है। जीवन से भागकर दुःख का आध्यात्मिक प्रतिकार करने की प्रेरणा उनके साहित्य से नहीं मिलती है। 

 

अदम जीवन और जगत के सौन्दर्य के बजाय वर्तमान व्यवस्था में नष्ट हो रहे जीवन और सौन्दर्य के कवि हैं। वे उस कटु और भयावह यथार्थ के कवि हैं जिसमें जीवन के लिए जगह निरंतर घटती जा रही है। इसलिए वे प्रकृति और सौन्दर्य के वर्णन करके उनके नष्ट होने की सूचना देते हैं। पाठक को वस्तुस्थिति से अवगत कराते हैं। वे सौन्दर्य के बखान से अधिक उसकी रक्षा को प्राथमिकता देते हैं। प्रकारांतर से सौन्दर्य के लिए ही वे समर्पित हैं। सौन्दर्य का अस्तित्त्व हुए बिना उसका बखान कैसे हो सकता है! उनकी कविता जीवन के सौन्दर्य का गीत गाने वाली कविता नहीं है बल्कि जीवन के सौन्दर्यहीन होने पर एक शोकगीत है। वे समाज के उस हिस्से के कवि  हैं, जिनके लिए जीवन जीने योग्य नहीं रह गया है। ऐसा जीवन जिसमें जीना कहीं नहीं है, अगर कुछ है, तो तिल-तिल कर मरना-

 

"आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जिंदगी।

हम गरीबों की नज़र की इक क़हर है ज़िन्दगी।

भुखमरी की धूप में कुम्हला गयी अस्मत की बेल

मौत के लम्हात से भी तल्ख़तर है ज़िन्दगी।"

***

"ज़ुल्फ़-अँगड़ाई-तबस्सुम-चाँद-आईना-ग़ुलाब

भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब।

पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी

इस अहद में किसको फुरसत है पढ़े दिल की किताब।"

 

यह एक अमानवीय स्थिति है, जिसमें मानव-मूल्य और जीवन-सौंदर्य नष्ट हो गया है। एक बड़ा समूहपेट के भूगोल मेंइस तरह उलझा हुआ है कि उसके पासदिल की किताबपढ़ने की फुरसत नहीं है। यह एक आपात स्थिति है, जिसमें मानव-व्यवहार और सामाजिक मूल्य स्थगित हो गए हैं। अमानवीयता की इस स्थिति को अगर प्रेमचंद की कहानीकफ़नकी अमानवीयता के साथ रखकर देखें तो इसका अर्थ और खुलेगा। घीसू और माधव भीपेट के भूगोलमें उलझे हुए हैं। इस कदर उलझे हुए हैं कि मानवीय कर्त्तव्य के निर्वाह से मुँह मोड़ लेते हैं। घर में प्रसव-पीड़ा से घीसू की बहू और माधव की पत्नी मर जाती है। कहानी में कोई उम्मीद नहीं दिखाई देती है। पात्र व्यवस्था से हार जाते हैं और किसी भी तरह से लत्ती-मुक्की खाकर व्यवस्था के रहमोकरम पर जीते हैं।

 

यद्यपि, अदम की कविता में भले ही ज़िन्दगी क़हरहै, जीना मरने से कम नहीं है, आदमी रोटी और पेट के आलावा कुछ और सोच नहीं पा रहा है फिर भी, जीवन में कवि की आस्था बनी हुई है। बच्चे की आँखों में आँसू देखकर बाप के दिल की सूखी दरिया में बगावत के कमल खिलते हैं।अदम की इस कविता का पिता हर तरह से पस्त है लेकिन वह घीसू-माधव की अमानवीयता की स्थिति में अभी तक नहीं पहुँचा है। यही नहीं, इस पिता में जहाँ एक तरफ हर मानवीय संवेदना बुरी-से-बुरी हालत में बची हुई है, वहीं दूसरी तरफ उसमें आक्रोश भरा है, बगावत की भावना दृढ़ है। यानी कि उसमें मुक्ति की आकांक्षा मौजूद है। आम आदमी की यही ताकत अदम की कविता को ताकत देती है। यही ताकत आम आदमी को अदम की कविता और अधिक संवेदना और विद्रोही तेवर के साथ लौटाती है। उनकी कविता की ताकत है कि अंत तक वह आदमी की क्षमताओं में आस्था रखती है। कहने की आवश्यकता नहीं, कवि की यह आस्था क्रांति में उसकी वैचारिक आस्था से उत्पन्न हुई है। इसीलिए, ज़िन्दगी को सुन्दर बनाने के लिए वे बगावतको एक मात्र रास्ता मानकर उसका आह्वान करते हैं।  वे पूरेहोशो-हवाससे यह मुनादी करते हैं कि क्रांति ही एक मात्र रास्ता बचा है

 

जनता के पास एक ही चारा है बगावत

यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवाश में

 

बगावत ही अंतिम रास्ता है - यह सूझ शायर की मौजूदा संसदीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था से मोहभंग की पराकाष्ठा है। जिस तरह की राजनीति वे अपने आसपास देखते हैं और उसमें आम आदमी की जो दुर्गति देखते हैं, उससे यह मोहभंग और बगावत की मुनादी सहज ही उत्पन्न होती है।काजू भुने प्लेट में ह्विस्की गिलास मेंनामक गज़ल किसी लोकगीत की तरह लोकप्रिय है। यह गज़ल कवि की राजनीतिक व्यवस्था के प्रति मोहभंग का तर्काधार है। इसमें बयान की गयी राजनीतिक हक़ीकत इतनी घिनौनी है कि इसके बावजूद इस व्यवस्था से उम्मीद पालना वास्तव में आशा नहीं, दुराशा ही है।संसद बदल गयी है, यहाँ की नखास मेंक्योंकि यहाँ पैसे की तूती बोलती है। सरकारों का गिरना-बनना जनता के हाथ में नहीं, पैसे वालों के हाथ में है। इस व्यवस्था में गरीबी और अमीरी की खाई बढ़नी ही है, क्योंकि राज्य का ढाँचा जनता को इसी स्थिति में रख सकता है। अदम लोकतंत्र की असफलता की वजह जहाँ शासक वर्ग के दोहरे चरित्र को मानते हैं, वहीं वे सामन्तवाद और पूँजीवाद के सफल गठजोड़ को भी लोकतंत्र के आवरण में मौजूद पाते हैं। ऐसी स्थिति में जहाँ सामन्तवाद और पूँजीवाद दोनों फल-फूल रहे हों, वहाँ समता और लोकतंत्र की चाहत रखने वाले का मोहभंग ही होना है। कवि को कोई संशय नहीं है, उसे लोकतंत्र के आवरण में छिपा सामंतवाद और बर्बरता दिख ही जाती है-

 

उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो

इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है

 

            भारत में साम्प्रदायिकता एक बड़ी समस्या है। यह एक जटिल समस्या है। इसके विविध रूप और पक्ष हैं। विभिन्न धर्मों और समुदायों वाले इस देश में साम्प्रदायिकता केवल किसी एक धर्म या संप्रदाय की नहीं है, बल्कि सभी धर्मों और सम्प्रदायों का सम्प्रदायीकरण हुआ है। फिर भी, विशेष रूप से बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता अर्थात् हिन्दू साम्प्रदायिकता ने देश की साझी विरासत और धर्मनिरपेक्ष ढाँचे के लिए अपूर्व संकट पैदा किया है। इसलिए, अदम गोंडवी ने अपनी शायरी में साम्प्रदायिकता के इसी रूप के विरुद्ध मोर्चा खोला है। उन पर अन्य साम्प्रदायिकताओं की उपेक्षा करने का आरोप लगाना या उनसे सबकी एक साथ, एक सुर में आलोचना की माँग करना ग़ैरजरूरी है। खासतौर से उस शायर से जो सिद्धांतत: साम्प्रदायिकता विरोधी है। वह हिन्दू और मुसलमान दोनों की भावनाओं को भड़काकर कुर्सी हासिल करने की कोशिशों का समान रूप से विरोधी है। वह चुनौती के स्वर में कहता है-

 

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये

अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये

 

अदम जानते हैं कि लोकतंत्र में साम्प्रदायिकता सत्ता-प्राप्ति का सरल जरिया है। इससे हर तरह का यथास्थितिवाद भी बना रहता है और दिखावटी परिवर्तन भी होता रहता है, क्योंकि जनता धार्मिक आधार पर विभाजित रहती है, और गैरजरूरी विषयों में उलझी रहती है।

 

आज का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण विभाजन की याद दिलाता है। हिन्दू और मुसलमान एक समुदाय के रूप में एक दूसरे के प्रति विश्वास लगभग खो चुके हैं। साम्प्रदायिकता केवल मनुष्य-मनुष्य में भेद पैदा करती है बल्कि यथास्थितिवाद को बनाये रखने में मदद भी करती है। अदम साम्प्रदायिकता की इस भूमिका से परिचित हैं। उनकी कुछ ग़ज़लों को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि वे साम्प्रदायिकता को बरगलाने वाली शक्ति मानते हैं। इसलिए, एक जनवादी और मुक्तिकामी शायर होने के नाते उन्होंने साम्प्रदायिकता के विरुद्ध आवाज बुलंद की और धर्मनिरपेक्ष संस्कृति और हिन्दू-मुस्लिम एकता और समन्वय की परंपरा को सामने रखा। साम्प्रदायिकता जीवन के मूलभूत मुद्दों से ध्यान हटाकर यथास्थिति को मजबूत करती है, इसलिए उनका आह्वान है-

 

छेड़िये इक जंग, मिलजुलकर गरीबी के ख़िलाफ़

दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये

 

उनकी साम्प्रदायिकता सम्बन्धी ग़ज़लों की विशेषता है, वैज्ञानिक इतिहास-दृष्टि। यह दृष्टि इतिहास को एक वैज्ञानिक और धर्मनिरपेक्ष ढंग से देखने की दृष्टि है। वे आज की साम्प्रदायिकता के ऐतिहासिक स्रोतों से परिचित हैं। अपनी शायरी में वे इन स्रोतों की पड़ताल करते हैं। वे सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा इतिहास के कुपाठ से परिचित हैं और इतिहास की घटनाओं को अधिक तूल देने के विरोधी भी हैं। वे अतीत के भेदों-मतभेदों को समकालीन राजनीति के लिए गोला-बारूद के रूप में इस्तेमाल किये जाने की प्रवृत्ति को पहचानते हैं और उसका विरोध करते हैं। वे इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने की प्रवृत्ति को नुकसानदायक कहते हैं-

 

हम में कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है

दफ्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये

 

समकालीन हिन्दू साम्प्रदायिकताबाबर की गलतियोंकी सज़ाजुम्मन का घर जलाकरदेना चाहती है। यह दोषपूर्ण इतिहास-दृष्टि है इसलिए हिन्दू-साम्प्रदायिकता से लड़ने के लिए वे उनकी सांप्रदायिक इतिहास-दृष्टि को चुनौती देते हैं और मिली-जुली संस्कृति को सामने रखते हैं। उन्होंने हिन्दू सम्प्रदायवादियों की इतिहास-दृष्टि को लक्ष्य करते हुए यह चुनौती दी कि क्या वे साझी विरासत को मिटा पाएँगे?

 

जायस से वो हिंदी की दरिया जो बह के आई

मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे।

जो अक्स  उभरता है रसखान की नज़्मों में

क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे।

 

एक वैज्ञानिक और धर्मनिरपेक्ष इतिहासबोध अदम की शायरी की विशेषता है। इस बोध का सार यह है कि वर्तमान का संघर्ष इतिहास के कुरुक्षेत्र में नहीं हो सकता। आज का संघर्ष गरीबी और गैरबराबरी के खिलाफ होना है, जिसे वर्तमान की जमीन पर ही लड़ा जा सकता है। एक मुक्तिकामी शायर के लिए यह बोध और अधिक जरुरी है क्योंकि, बकौल अदम, ‘मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास कीहै। अदम के लिए दुनियागल्पऔरइतिहासदोनों है। जिस आदमी के लिए दुनियाइतिहासहो, वह अपनी काव्य-दृष्टि में इतिहास-दृष्टि को कितना महत्त्व देता है, यह अलग से बताने की जरुरत नहीं रह जाती।

   

हिंदी में गाँव की जिंदगी पर अकूत साहित्य रचा गया है। इस तरह के साहित्य में अनुभव की प्रामाणिकता तो है, वैचारिक-दृष्टि भी स्पष्ट है लेकिन गँवईपन नहीं है। शहरी मध्यवर्गीयता है। इसके विपरीत अदम गोंडवी खड़ी बोली के गँवई अंदाज और गँवई सौंदर्यबोध के शायर हैं। उनका आह्वान है, ‘ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में।तो इसका मतलब है कि ग़ज़ल की अंतर्वस्तु के रूप में ही गाँव हो बल्कि उसकी भंगिमा भी गँवई हो। वे शहरी पाठकों के लिए गजल के रूप-बंध में गँवई-जीवन को नहीं पेश करते हैं बल्कि ग़ज़ल को ग्रामीण लोगों का रूप-बंध बनाते हैं। वे ग़ज़ल जैसी नफीस और अभिजात्य विधा को लोक-साहित्य के रंग में रँगते हैं।

 

शहरी संवेदना का सम्बन्ध यदि मजदूरों से है तो ग्रामीण संवेदना किसानों के बिना अधूरी है। अदम गोंडवी स्वयं किसान थे। वे दुनिया को एक किसान की नज़र से देखते हैं। इसलिए, यह कहना गलत होगा कि वे किसान-संवेदना के शायर हैं। उनके यहाँ आकर ग़ज़ल नफ़ीस अदीब की नहीं, किसान की विधा बन जाती है। उनकी ये दो पंक्तियाँ गाँवों में विकास की प्रतीक्षा, उपेक्षा, मोहभंग, व्यवस्था की असफलता सब कुछ एक साथ कह देती हैं-  

 

जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में

गाँव तक वो रोशनी आयेगी कितने साल में

 

यहरोशनीबहुलार्थी है। इसमें वे घोषणायें भी शामिल हैं, जिन्हें सरकारें समय-समय पर गाँवों के उद्धार के लिए करती रही हैं, इसमें वे सपने भी ध्वनित हैं, जिन्हें आज़ादी के बाद हमने सामूहिक रूप से देखा था। इसमें इन दोनों का विलंबित और स्थगित होना भी है और टूटना भी है। इसके अतिरिक्त यहरोशनीन्याय, समता और बंधुता का नारा भी है जो गाँवों की जातिवादी और सामंती व्यवस्था को बदलने के लिए दिया जाने वाला था। यहरोशनीगाँवों की सड़ी-गली व्यवस्था को नए जीवन से आलोकित करने वाली थी, पर इसकी प्रतीक्षा आज भी है। आज़ादी के बाद से भारत के गाँव बहुत बदले हैं। निम्न जातियों में स्वाधीनता की भावना पैदा हुई है। वे सदियों के जातिवाद और शोषण के जुए को उतार रही हैं। सामंतवादी शक्तियाँ निम्न जातियों के सामाजिक और राजनीतिक उभार से आमने-सामने टकराने से बचने लगी हैं। लेकिन, आर्थिक उभार अभी-भी दूर की कौड़ी है। इन सब परिवर्तनों के बावजूद अदम के गाँव को उसरोशनीका इंतजार है जो सबको बराबरी और खुशहाल ज़िन्दगी दे सके। लेकिन, कवि अब किसी तरह के इंतजार के मूड में नहीं है। वह अपनी कविताओं के माध्यम से अनंत धैर्य लेकर पैदा हुई जनता को व्यवस्था से उम्मीद लगाये हाथ पर हाथ धरे बैठने के बजाय विद्रोह के लिए उकसाता है।

 

अदम की शायरी में गाँवों की जो टूटी-बिखरी लेकिन अपने में मुकम्मल छवियाँ हैं, वे दर्दनाक हैं। उनके गाँवों की हकीकत इतनी तल्ख है कि किसी बदलाव को पर्याप्त और संतोषजनक मानना दृष्टि-दोष होगा। एक स्थिति सामंतवाद की मौजूदगी और कानून के राज की गैरमौजूदगी की है-

 

बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई

रमसुधी की झोपड़ी सरपंच की चौपाल में

खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गये

हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में

 

यह इक्कीसवीं सदी में भी काफी दूर तक निकल चुके भारत के गाँवों की वास्तविकता है। कौन कहेगा कि कोई ढाँचागत बदलाव गाँवों में आया है? ढाँचा वही है, साँचा वही है, सिर्फ कुछ निचली जातियों के सामंतवादी पैदा हो गए हैं, कुछ उच्च जातियों के उससे बाहर हो गए हैं।

 

जब सामंतवाद की यह हालत है तब जातिवाद की क्या होगी? जो किसी भी सामाजिक व्यवस्था की तुलना में सबसे धीरे-धीरे बदलती है। अदम कीमैं चमारों की गली में ले चलूँगा आपकोनामक प्रसिद्ध कविता जातिवादी ढाँचे में हुए परिवर्तन को नापती है। मानवीय गरिमा और न्याय की अवधारणा से परिचित किसी भी व्यक्ति के लिए यह कविता भयावह और स्तब्ध कर देने वाला अनुभव है। यह कविताचमारों की गलीकी ही नहीं, भारत के गाँवों और जाति-व्यवस्था की भी अंतर्यात्रा है। अदम की ग़ज़लों के आकार को देखते हुए यह अपेक्षाकृत लम्बी कविता है, संभवत: उनकी सबसे लम्बी कविता। उनकी साहित्य-साधना में यह कविता केंद्रीय स्थान रखती है। इसलिए, इस कविता की विशेष रूप से व्याख्या जरुरी है।

 

यह कविता दलितों में आयी स्वाभिमान और प्रतिरोध की चेतना को तो दर्ज करती ही है साथही-साथ पुलिस-प्रशासन के गठजोड़ से उच्च जातियों द्वारा इस प्रतिरोध को दबाने की हिंसक प्रतिक्रिया को भी सामने लाती है। यह कविता एक दलित युवती के ठाकुर युवक द्वारा किये गए बलात्कार की घटना पर आधारित है। दलित इस घटना से आक्रोशित हो उठते हैं। थाने में शिकायत दर्ज करना चाहते हैं लेकिन उससे पहले ठाकुरों की एकजुटता से पुलिसमैनेजही नहीं हो जाती है, बल्कि ठाकुरों के साथ मिलकर दलितों की बस्तियाँ जलाती है, जुल्म ढाती है। ऐसे में यह कविता एक त्रासदी है। आज़ादी के बाद दलितों के हितों की रक्षा के लिए सरकारी प्रयासों के खोखलेपन को यह कविता बखूबी उजागर करती है। यह कविता बताती है कि बलात्कार को उच्च जातियाँ दलितों पर वर्चस्व बनाये रखने के अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करती हैं।

 

अदम गोण्डवी केवल राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था को बदलने के लिए लड़ने वाले शायर थे बल्कि वे इस व्यवस्था की चारदीवारी में लिखे जा रहे साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र को भी बदले जाने के हिमायती थे। उनकी गजलों में पर्याप्त काव्य-चिंतन हुआ है। वे बार-बार स्थापित काव्य- प्रतिमानों को चुनौती देते हैं और अपने प्रतिमान स्थापित करते हैं। यह सब वे गजलों में ही करते हैं। इसके लिए अलग से लेख या आलोचना लिखने की अभिजात्य साहित्य-प्रवृत्ति उनमें नहीं है। एक समय तुलसीदास ने भी ऐसा ही किया था। अदम गोंडवी के काव्य सम्बन्धी विचारों और मान्यताओं को विस्तार से समझने की आवश्यकता है। उनकी शायरी को समझने के लिए तो यह और भी आवश्यक है क्योंकि किसी भी रचनाकार की रचना को समझने के सूत्र उसकी रचना में ही निहित होते हैं। 

 

जाहिर है, साहित्य और सौन्दर्यशास्त्र भी यथास्थितिवाद को मजबूत करते हैं, इसलिए यथास्थितिवाद के विरुद्ध सम्पूर्णता में  प्रतिरोध साहित्य और सौन्दर्यशास्त्र के यथास्थितिवाद को तोड़े बिना सम्भव नहीं हो सकता। वे देखते हैं कि एक तरफ देश जल रहा है और दूसरी तरफ कविता क़ौम को बहला रही है। जीवन-यथार्थ से कटी कविता मनोरंजन नहीं करती है, बल्कि क़ौम को बहलाती है। लोगों को गुमराह करती है, उनके यथार्थ का परिचय पाने के रास्ते में आड़े आती है। दूसरे शब्दों में, यथास्थितिवाद को सुदृढ़ करती है। वे कहते हैं :

 

"जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को

किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये"

 

वे यथार्थवाद को सुदृढ़ करने में साहित्य की भूमिका को अच्छी तरह समझते थे। इसके साथ-साथ वे साहित्य की मुक्तिदात्री और क्रांतिकारी शक्ति से भी परिचित थे। उनका रचनात्मक संघर्ष साहित्य को एक क्रांतिकारी वैचारिक शक्ति के रूप में रूपांतिरत करके स्थापित करने का संघर्ष है। साहित्य की प्रतिक्रियावादी भूमिका के विरुद्ध संघर्ष के बिना यह संघर्ष अधूरा होता इसलिए वे साहित्यिक यथास्थितिवाद के विरुद्ध साहित्य को नयी आकांक्षाओं से जोड़ने का आह्वान करते हैं :

 

"भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो

या अदब को मुफलिसों के अंजुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाक़िफ़ हो गई

उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो"

***

"अदीबो ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ

मुलम्मे के शिवा क्या है फ़लक़ के चाँद तारों में"

 

अदम गोण्डवी साहित्य के उस उद्देश्य को नहीं मानते हैं जिसके अनुसार साहित्य और कलाओं का काम मनोरंजन करना या अभिजात्य रुचि विकसित करना है। उनका साहित्य-सिद्धांत साहित्य और कलाओं को सोद्देश्य मानता है। उनके लिए साहित्य का उद्देश्य है- हर तरह के यथास्थतिवाद के विरुद्ध संघर्ष और जनवादी-समतावादी समाज का निर्माण। शायरी को वे इसीलिए 'भूख के एहसास', 'मिफलिसो के अंजुमन' और 'बेवा के माथे की शिकन' तक ले जाने का आह्वान करते हैं और साहित्य का यह दृष्टिकोण प्रस्तावित करते हैं:

 

"अदब का आईना उन तंग गलियों से गुजरता है

जहाँ बचपन सिसकता है लिपटकर माँ के सीने से"

 

कहना होगा,  यह साहित्य के जनवादी सौन्दर्यशास्त्र की प्रस्तावना भी है और विकास भी है। 

 

वे एक मुक्तिकामी शायर थे। यथास्थितिवाद के विरुद्ध वे अपनी काव्य-प्रतिभा को एक अस्त्र के रूप में ले रहे थे। वे यथास्थिति के विरुद्ध और मुक्तिकामी संघर्ष में साहित्य के महत्व और उपयोगिता को जानते थे। इसलिए, वे साहित्य का एक जनवादी और प्रगतिशील विमर्श रच रहे थे। जिस उद्देश्य के लिए वे कविता रच रहे थे उसी उद्देश्य से बहुत-से समानधर्मा कवि भी साहित्य सृजन करते रहे हैं लेकिन साहित्य को वे विचारों के नीचे दबा देते रहे हैं। विचार या विचारधारा को साहित्य में कैसे अभिव्यक्त किया जाय कि साहित्य, साहित्य भी बना रहे और उसका मुक्तिकामी उद्देश्य भी सधता रहे। वे इसकी फिक्र नहीं करते थे या ऐसा करने उन्हें आता ही नहीं था। अदम ऐसे लोगों में थे। वे साहित्य में विचारधारा और विचारों को अनुभूति और संवेदना के रूप में प्रकट करने के हिमायती थे। ऐसा वे इसलिए सोच सकते थे क्योंकि उन्हें काव्य के स्वभाव और उसकी रचना-प्रक्रिया का ज्ञान था। उनकी शायरी में साहित्य-विमर्श और चिंतन के कई बिंदु और प्रश्न आते हैं। एक उदाहरण ले सकते हैं :

 

"याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार

होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की"

 

उनके लिए आदर्श कविता वह है जिसमें विचार एहसास की धीमी आँच पर पककर घुलमिल जाते हैं। यानी विचार कविता में संवेदना बनकर आने चाहिए। अदम साहब की कविता में यह आदर्श रूप दिखायी देता है। अपने साहित्यिक विचारों को उन्होंने अपनी कविता में फलीभूत किया है। यही उनकी कविता की लोकप्रियता का राज है, अन्यथा जिस तरह की कवितायें वे लिख रहे थे, उनकी नारे और आह्वान-गान बनकर प्रभावहीन हो जाने की सम्भावना ही अधिक थी। 

 

आनंद पांडेय

सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, राष्ठ्रीय रक्षा अकादमी. खड़कवासला, पुणे-411023

एमए, पीएचडी (हिन्दी), जेएनयू।

anandpandeyjnu@gmail.com, 9503663045

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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