शोध आलेख : समाचार पत्रों में स्त्री विषयक मुद्दे : दशा और दिशा / डॉ.रजनीश कुमार मिश्रा

समाचार पत्रों में स्त्री विषयक मुद्दे : दशा और दिशा

- डॉ.रजनीश कुमार मिश्रा

 

शोध सारांश स्त्रीवादी चिंतन के इस दौर में जहाँ शास्त्रीय दर्शन से लेकर अब तक के विमर्शों में स्त्री के प्रतिनिधित्व, उसकी उपस्थिति पर विभिन्न दृष्टिकोण से प्रश्न चिह्न लगाए जा रहे हैं एवं उसकी पुनर्व्याख्या स्त्रीवादी दृष्टिकोण से की जा रही है, तब समाचार पत्रों में उनकी उपस्थिति पर भी एक विचार की आवश्यकता हो जाती है। भूमंडलीकरण के समय जब बाज़ार हर तरह के चिंतन को सबसे अधिक प्रभावित कर रहा है तब इसने किस तरह से स्त्री उपस्थिति को समाचार पत्रों में संख्या एवं दृष्टिकोण के रूप में प्रभावित किया? यह इस शोध आलेख के मूल में है। 

शब्द कुंजी : मीडिया, समाचार पत्र, स्त्री, संपादकीय, भूमंडलीकरण, वैचारिक पृष्ठ

स्त्रीवादी चिंतन के इस दौर में जहाँ शास्त्रीय दर्शन से लेकर अब तक के विमर्शों में स्त्री के प्रतिनिधित्व और उसकी उपस्थिति पर विभिन्न दृष्टिकोण से प्रश्न चिन्ह लगाए जा रहे हैं एवं उसकी पुनर्व्याख्या स्त्रीवादी दृष्टिकोण से की जा रही है, तब समाचार पत्रों में उनकी उपस्थिति पर भी एक विचार की आवश्यकता हो जाती है। भूमंडलीकरण के समय जब बाज़ार हर तरह के चिंतन को सबसे अधिक प्रभावित कर रहा है, तब इसने किस तरह से स्त्री संबंधी विषयों की उपस्थिति को समाचार पत्रों में संख्या एवं दृष्टिकोण के रूप में प्रभावित किया? यह इस शोध आलेख के मूल में है। 

शोध प्रविधि :- वैचारिकी पृष्ठों पर स्त्री विषय की उपस्थिति एवं उनसे संबंधित मुद्दों में हो रहे बदलावों पर भूमंडलीकरण के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए मैंने भारत में उदारीकरण (वर्ष1991) के पहले और बाद के दो प्रमुख हिंदी समाचार पत्र नवभारत टाइम्स (दिल्ली संस्करण) और जनसत्ता (दिल्ली संस्करण) के नमूनों को आधार बनाया है। नमूने का चयन यादृच्छिक नमूना पद्धति से किया गया है। प्रकाशित लेखों की जो संख्या बताई गई है वह चुने हुए समाचार पत्रों के अंकों के आधार पर है।


हिंदी समाचार पत्रों के वैचारिक पृष्ठ और स्त्री

स्त्री चिंतन के विकास में समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं की भूमिका हमेशा से महत्वपूर्ण रही है। इसके माध्यम से विभिन्न मुद्दों, घटनाओं और विचारों पर स्त्री चिंतन का नजरिया सामने आता रहा है। समाचार पत्रों में आ रहे बदलावों के दौरान उसमें उपस्थित स्त्री मुद्दों और विषयों की उपस्थिति में भी बदलाव आना लाजमी है। लेकिन यह बदलाव किस प्रकार का है और कहाँ से प्रेरित है, यह एक महत्वपूर्ण विषय है, जिसे समझने के लिए हमें हिंदी समाचार पत्रों की अभी तक की संरचना को समझना पड़ेगा और यही संरचना पहले के समाचार पत्रों में स्त्री स्वर के अभाव का मुख्य कारण भी है। हिंदी समाचार पत्रों की उस संरचना के बारे में लिखते हुए रॉबिन जेफ्री लिखते हैं कि इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि महिलाएं ज्यादातर अंग्रेजी भाषा के अखबारों में काम करती हैं और या पत्रकारिता के बजाए प्रशासक का काम देखती हैं। भारतीय भाषाओं के अख़बार छोटे शहरों से निकलते हैं जहाँ अखबार के मालिकों, व्यापारियों, राजनीतिज्ञों एवं अपराधियों का गठजोड़ बहुत मजबूत होता है और महिलाओं को अख़बार के काम से दूर रखा जाता है।[1]

हिंदी समाचार पत्रों की इस संरचना में जो बदलाव बाद के वर्षों में आया, वह अंग्रेजी समाचार पत्रों में हुए बदलाव का अनुकरण था। इस नई संरचना में स्त्रियों को समाचार पत्र संगठन में अधिक स्थान दिया जाने लगा जिससे स्त्री संबंधित लेखों और रिपोर्टों में वृद्धि हुई। नारीवादी विचारक और इतिहासकार राधा कुमार का कहना है कि अंग्रेजी भाषा के समाचार पत्रों ने स्त्री संबंधित विषयों पर लिखने के लिए अपने कार्यालयों में कुछ स्त्रियों की नियुक्तियां की जो रूटीन खबरों से अलग हटकर नारीवादी अधिकारों पर विशेष खबरें लिखती थी। बाद में यही परम्परा हिंदी समाचार पत्रों में भी देखने को मिलती है। राधा कुमार लिखती हैं कि नारीवादी आंदोलन के शुरू होने के फौरन बाद अंग्रेजी भाषा के बड़े अखबारों ने नारीवादी विषयों पर लिखने के लिए एक या दो महिला पत्रकारों की नियुक्ति की। इससे महिला पत्रकारों का एक जाल उभरा जो आठवें दशक के मध्य में बंबई में औपचारिक रूप से महिला पत्रकार समूह के नाम से जाना गया। इस समूह का मुख्य उद्देश्य मुख्यधारा की पत्रकारिता यानी घटनाओं की खबरें देने से हटकर ‘नारी विषयों जैसे दहेज़ बलात्कार, सती प्रथा की विशेष खबरें छापना था[2]

बाद के वर्षों में जब उदारीकृत अर्थव्यवस्था के फलस्वरूप भारत में शहरीकरण, मध्यवर्ग और कामकाजी महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई तो इस बदलते परिवेश में महिलाओं की बदलती भूमिका से संबंधित लेखों के प्रकाशन के लिए स्त्री एवं लाइफ स्टाइल जैसे डेस्क का प्रचलन बढ़ा जिससे संबंधित विचार और लेख वैचारिक पृष्ठों के साथ–साथ परिशिष्टों में भी प्रकाशित होते रहे हैं।

 

भूमंडलीकरण के पहले संपादकीय पृष्ठों पर मौजूद स्त्री और उससे संबंधित मुद्दे

 संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 1975 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) को मान्यता दी गई। जिसके फलस्वरूप विश्व के विभिन्न देशों में महिला सशक्तिकरण के लिए कई संगठनों द्वारा प्रयास किया जाने लगा। भारत में भी इस समय दहेज़ विरोधी आंदोलन और समान नागरिक अधिकार जैसे आंदोलन अपने विचारों का प्रसार कर रहे थे। जिसका असर दैनिक समाचार पत्रों में भी दिखाई पड़ता है।

वर्ष 1986-87 के दौरान चयनित समाचार पत्रों में स्त्री विषय से संबंधित कुल 21 लेख व संपादकीय प्रकाशित हुए, जिसमें सबसे अधिक लेख स्त्री हिंसा, अपराध, दहेज प्रथा, विधवा सम्मान एवं सती प्रथा आदि समस्याओं को आधार बना कर लिए गए हैं। नवभारत टाइम्स और जनसत्ता में इस दौरान एक ही तरह की स्त्री समस्याओं को संपादकीय पृष्ठों पर जगह मिल रही थी। नवभारत टाइम्स में मुस्लिम स्त्री के अधिकारों एवं महिला सहभागिता जैसे विषयों का प्रकाशन इस समय देखने को मिला।

स्त्रीवादी चिंतन एवं विमर्श को लेकर इस समय जिस महत्वपूर्ण घटना का प्रकाशन हुआ, वह थी रूपकंवर के सती होने की घटना इस घटना ने देश ही नहीं, विदेशों में भी बहस को जन्म दिया। न्यूयार्क टाइम्स जैसे समाचार पत्रों में भी इस घटना को लेकर कई समाचार प्रकाशित हुए 20 सितम्बर 1987 को प्रकाशित हुई रिपोर्ट में देवराला सती कांड के आरोपियों की गिरफ्तारी को ‘India seizes fire immolation शीर्षक से प्रकाशित किया। भारत में सभी समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने इससे संबंधित रिपोर्ट एवं विचारों का प्रकाशन किया।

 इस घटना में राजस्थान के सीकर जिले में देवराला गाँव की रहने वाली रूपकंवर नाम की एक अट्ठारह वर्षीय स्त्री सती हो गई। यह स्त्री राजपूत परिवार से आती थी, और इसके पति का 23 वर्ष की उम्र में देहान्त हो गया था। रूपकंवर के सती होने की घटना के खिलाफ वहां के महिला संगठनों से लेकर सामाजिक सुधारकों ने विरोध किया, तो कई लोगों एवं समूहों ने विशेषकर राजपूतों ने सती प्रथा को हिन्दू सभ्यता की महानता के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया। मीडिया में भी कई समूहों ने इसे महिमामंडित करने की कोशिश की तो कुछ ने इसके विरोध में जमकर लेखों, विचारों का प्रकाशन किया। जहाँ जनसत्ता ने इसे सभ्यता और संस्कृति से जोड़कर इसके पक्ष में अपने संपादकीय लिखे वहीं नवभारत टाइम्स ने कई लेख और संपादकीय इस घटना के विरोध में प्रकाशित किए

The jansatta editorial, a page 1 double – column piece which raised hackles all over the country suggested the RoopKanwar’sact, her ‘sati’ was neither a question of women’s right nor of discrimination between men and women. The issue, instead, was to completely misunderstand Indian prampara and dharma (tradition and religion). Such criticism was confined to those influenced by Christianity (isaidharm) and Western education Accoording to the edit, the practice of ‘sati’ could make sense only ti those who believed that death did not come as the end :that it was just a transitionary phase in the soul’s journey from this life to another. Coming When it did, the editorial was seen as both retrogressive and provocative; the edit writer clearly did not see anything worng in RoopKanwar’s death. The NBT’s lead edit declared that those who were glorifying ‘sati’ by citing religious texts and tradition were no less than fascists. It pointed out that to support the practice of ‘sati’ was tantamount to regarding the women as man’s personal property, with no right to live after the man’s death..”[3]

अतः दोनों ही समाचार पत्रों में 1986-87 के दौर में स्त्री चिंतन और संबंधित विचारों की उपस्थिति दर्ज हुई है, जो इन समाचार पत्रों के स्त्री के प्रति दृष्टिकोण को स्पष्ट करती है। कई विषयों पर ये समान रूप से विचार करते है तो कई विषयों में यह विचार की रेखा अलग–अलग सिरों पर दिखाई देती है।

नवभारत टाइम्स आरंभ से ही बदलाव को लेकर एक प्रयोगात्मक समाचार पत्र रहा है, उसकी विषय वस्तु एवं प्राथमिकता समाज के अनुसार बदलती रही है और कई विषयों में इसने हिंदी समाचार पत्रों के लिए परंपरा की शुरुआत की है। स्त्री संबंधित बदलाव भी उनमें से एक है। इसके संदर्भ में अरविंद दास, हिंदी के प्रखर पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह के हवाले से लिखते हैं आम तौर पर स्त्री संबंधित ख़बरें सुर्खियाँ बनने लायक नहीं समझी जाती थीं। हिंदी अख़बारों में नवभारत टाइम्स ने स्त्री से संबंधित ख़बरों को ज्यादा स्पेस देकर, अंदर के पृष्ठों से उठाकर पहले पर छाप कर, संपादकीय पृष्ठ पर विवेचन विश्लेषण कर स्त्री विमर्श को एक वृहत्तर सामाजिक आर्थिक परिप्रेक्ष्य में देखना शुरू किया।[4]

इसका असर हम नवभारत टाइम्स के वर्ष198687 के संपादकीय पृष्ठों पर देख सकते हैं, इन वर्षों के दौरान नवभारत टाइम्स ने स्त्री संबंधित चौदह लेखों का प्रकाशन किया, जो उस समय के जनसत्ता में प्रकाशित सात लेखों से दुगुना है। इन लेखों में स्त्री अपराध, शोषण आदि के अलावा स्त्री जागरूकता से संबंधित लेखों का प्रकाशन भी हुआ। स्त्री समानता के पक्षधर लोहिया के विचारों को आधार बनाने हुए आलेख ‘समानता बोध लोहिया और महिलाएँ में चित्रा मृदुगल लिखती हैं लोहिया ने कहा कि मर्द औरत के लिए नीति-अनीति की एक ही कसौटी होनी चाहिए। औरत को उतनी ही स्वतंत्रता मिलनी चाहिए जितनी मर्द को। उन्हें यह बात नापसंद थी कि औरत को महज बच्चे पैदा करने की मशीन बताकर रखा जाय, उन्होंने सवाल पूछा कि छह वैध बच्चों को पैदा करने वाली औरत और एक अवैध बच्चा पैदा करने वाली औरत में से कौन अधिक सभ्य है? जवाब में उन्होंने कहा एक ही बच्चा पैदा करने वाली, और निश्चय ही अधिक सभ्य है।[5] 

भूमंडलीकरण के बाद संपादकीय पृष्ठों पर मौजूद स्त्री और उससे संबंधित मुद्दे

भूमंडलीकरण के मुद्दे ने स्त्री सशक्तिकरण एवं शोषण दोनों ही विचारों पर एक नई बहस को जन्म दिया। इस बहस में एक तर्क कहता है कि भूमंडलीकरण ने स्त्री सशक्तिकरण को बढ़ावा दिया है जिससे उसकी आर्थिक निर्भरता, सामाजिक प्रतिष्ठा, नेतृत्व आदि क्षेत्रों में उसकी स्थिति बेहतर हुई है। वहीं दूसरा तर्क कहता है कि भूमंडलीकरण में स्त्री शोषण की एक नई पराकाष्ठा लिखी गई है। सेक्स, हिंसा और उत्पाद के रूप में स्त्री का उपभोग, बाज़ार के द्वारा पितृसत्ता का बढ़ता प्रभाव है। सामाजिक चिन्तक अभय कुमार दुबे भी भूमंडलीकरण और बाज़ार को पितृसत्ता के विस्तार के रूप में देखते हैं। वे लिखते हैं कि भूमंडलीकरण ने औरत की देह, उसके श्रम, उसकी छवि, उसके सौंदर्य और उसकी कमनीयता का अतीत के किसी भी काल के मुकाबले सर्वाधिक दोहन किया है। भूमंडलीकरण ने पितृसत्ता के कुछ नए रूप रचे। उसने परम्परा और धर्म के अलावा आर्थिक आधुनिकीकरण और वैकासिक आग्रहों को भी नई पितृसत्ता का जनक बना दिया, जबकि कभी इन दोनों को औरत की आज़ादी का संभावित जरिया माना जाता था। इस तरह भूमंडलीकरण में पितृसत्ता और मजबूत हो गई।[6]


इस दौरान इन समाचार पत्रों में भूमंडलीकरण और स्त्री से संबंधित दोनों पर आधारित विषय वस्तु का प्रकाशन हुआ। लेकिन इस समय स्त्री से संबंधित जो लेख एवं विचार प्रकाशित हुए उनमें पितृसत्ता से लड़ती और उसे नकारती, पॉवर वीमेन, स्त्री समानता की मांग करती, राजनीति, अर्थव्यवस्था, प्रशासन में मौजूद स्त्री की छवि ही अधिक दिखाई पड़ती है। इस समय नवभारत टाइम्स और जनसत्ता, दोनों में स्त्रियों के समानता संबंधित विचारों का प्रकाशन होता रहा नवभारत टाइम्स ने प्रेम जब मेल डॉमिनेशन का हथियार बन जाता है’, ‘सिर्फ एक नहीं’, ‘हर दिन समानता के लिए’, ‘लिबास बदलने से मां का चेहरा नहीं बदलता’ तो जनसत्ता में ‘उदारता बनाम हक़’, भूमि अधिग्रहण और स्त्रियाँ’ लेख इस समय प्रकाशित हुए।

वैचारिक पृष्ठों में मौजूद स्त्री, उससे संबंधित मुद्दे एवं दृष्टिकोण एवं उसमें आये बदलाव

का विश्लेषण

 निश्चित रूप से भूमंडलीकृत व्यवस्था में स्त्री चिंतन, अधिकार, चेतना आदि का विस्तार हुआ है तो साथ ही उसके शोषण, बाजारीकरण, उत्पाद के रूप में उसकी उपस्थिति भी बढ़ी है। लेकिन जो भी हो, इस दौरान हिंदी समाचार पत्रों में स्त्री के लिए स्पेस में अच्छी वृद्धि दर्ज हुई। वर्ष 1986-87 के संपादकीय पृष्ठों में जहाँ स्त्री संबंधित कुल 21 लेख एवं संपादकीय प्रकाशित हुए, वहीं भूमंडलीकरण के बाद वर्ष 2012-2013 में संपादकीय पृष्ठों में स्त्री संबंधित 68 लेख एवं सम्पादकीय का प्रकाशन हुआ जो भूमंडलीकरण के पहले के 21 के आंकड़े के मुकाबले तीन गुना है। स्त्री को मिल रहे इस ज्यादा स्पेस के बारे में अरविंद दास वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे लिखती हैं उदाहरण के तौर पर स्त्री विमर्श ऐसी बात थी जिसकी चर्चा हम 1980 के दशक में (हिंदी पत्रकारिता में ) नहीं करते थे। ....लेकिन आज मैं देखती हूँ कि यहाँ तक कि पंजाब केसरी में भी स्त्री विमर्श को लेकर आलेख छपते हैं और दैनिक जागरण में प्रत्येक सप्ताह इस विषय पर एक पूरी परिशिष्ट (सप्लीमेंट) दिया जाता है।[7]

मृणाल पांडे का यह कथन वर्तमान में हिंदी के सभी समाचार पत्रों के लिए सही जान पड़ता है। स्त्री विषय से संबंधित परिशिष्ट, संपादकीय आदि घटना से आगे अब रोजाना स्त्री के लिए खबरों का प्रकाशन भी समाचार पत्रों में चल पड़ा है। दैनिक भास्कर रोजाना अपने समाचार पत्र के सिटी फ्रंट पेज पर ‘she न्यूज़’ नाम से पृष्ठ में आधा पन्ना प्रकाशित करता है जिसमें ‘प्रोपर्टी के तलाक’ दैनिक भास्कर 4 सितंबर 2016 पृष्ठ संख्या 2 रायपुर संस्करण, ‘तेजाब की शिकार रेशमा न्यूयार्क जाएगी’ 7 सितम्बर 2016 पृष्ठ संख्या 2 रायपुर संस्करण, ‘न्यूजीलैंड फैशन वीक में दुनिया का सबसे लंबा गाउन’ 29 अगस्त 2016 पृष्ठ संख्या 2 रायपुर संस्करण, शीर्षक एवं विषयों से संबंधित खबरें प्रकाशित होती है।

 विषयों के मामले में जहाँ 1986-87 में सती प्रथा, दहेज, स्त्री संबंधित कानून, शोषण जैसे विषयों पर दहेज़ कानून में नए संशोधनों का महत्व,स्त्रीषु हिंसा हिंसा न भवति, हो सके तो उजाला लीजिएजैसे शीर्षक से विचारों का प्रकाशन होता था। जिसमें स्त्री की छवि दबी–कुचली और धीमे स्वर से अपने अधिकार से अनभिज्ञ अधिक दिखाई देती है। इनके लिए लेखन करने वालों में भी स्त्री लेखिकाओं की संख्या नहीं के बराबर है अधिकतर लेख पुरुषों द्वारा ही लिखे गए है। वहीं भूमंडलीकरण में स्त्री विषय से संबंधित जो लेख, विचार संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित हुए, उसमें स्त्री की छवि एक पॉवर वीमेन के रूप में अधिक दिखाई देती है जिसे मर्यादा का चेहरा,उदारता बनाम हक़,पिंजरे में आजादी,आखिर पुरुषों का आभार क्यों प्रकट करें महिलाएं,बोलने की हिम्मत आई, धनुर्धर स्त्रियां, शीर्षक में देखा जा सकता है। स्त्री अधिकार, बलात्कार और अपराध से संबंधित भी जो विचार प्रकाशित हुए उसमें अधिकार मांगती स्त्री ही दिखाई देती है, जिसे डर के आगे’, ‘उत्पीड़न के खिलाफ’, ‘कानून ही नहीं’, नजरिया भी बदलें’, ‘मुस्लिम लड़कियों के सपने बदल रहे हैं’ जैसे शीर्षक में देखा जा सकता है।

साथ ही इस समय अपने अधिकारों के लिए लिखने वालों में स्त्रियाँ स्वयं भी शामिल है। जहाँ वर्ष 1986-87 में अधिकतर पुरुष ही स्त्री के बारे में लिख रहे थे, स्त्री संबंधित छपे इस समय के सात लेखों में से केवल एक स्त्री के द्वारा लिखा गया है। वहीं वर्ष 2012-13 में इसके विपरीत स्त्री संबंधित अधिकतर लेख स्त्रियों ने ही लिखे। इस दौरान सोनम गुप्ता, ज़किया सोमन, सीता मिश्रा, रुचिरा गुप्ता जैसे पत्रकार और लेखिकाओं ने अपने विचार लिखे।


संदर्भ :

1 रॉबिन जेफ्री, भारतकीसमाचार पत्र क्रांति पूंजीवाद, राजनीति और भारतीय भाषाई प्रेस

1977- 99, (2004) पृष्ठ संख्या 158 भारतीय जन संचारसंस्थान, नई दिल्ली

2 राधा कुमार,स्त्री संघर्ष का इतिहास,वाणी प्रकाशन नई दिल्ली 2004,पृष्ठ 302

3 Whose News? The media and Women’s Issue – Ammu Joseph, Sage India pg. – 250-251

4अरविंद दास, हिंदी में समाचार,(2013) पृष्ठ सं 85,अंतिका प्रकाशन,नई दिल्ली

5चित्रा मृदुगल, 07.02.1986नवभारत टाइम्स, समानता बोध लोहिया और महिलाएं

6अभय कुमारदुबे(सं), भारत का भूमंडलीकरण,(2008)पृष्ठ सं 220, वाणी प्रकाशन,दिल्ली

7मृणाल पांडे, हिंदी में समाचार, अंतिका प्रकाशन, 2013नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 82

 

डॉ. रजनीश कुमार मिश्रा

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, चिन्मया, विश्वविद्यापीठ

sabkarajnish@gmail.com, 7598369536

 

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) मीडिया-विशेषांक, अंक-40, मार्च  2022 UGC Care Listed Issue

अतिथि सम्पादक-द्वय : डॉ. नीलम राठी एवं डॉ. राज कुमार व्यास, चित्रांकन : सुमन जोशी ( बाँसवाड़ा )

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