अध्यापकी के अनुभव : मास्टर जी का मतलब केवल पढ़ाने वाला भर नहीं है। -डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर

संस्मरण : अध्यापकी के अनुभव : मास्टर जी का मतलब केवल पढ़ाने वाला भर नहीं है।
-डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर


 ( लेखन और जीवन में मोहम्मद हुसैन डायर जैसी बेबाकी बहुत कम के बस का मामला है हुसैन भाई हमारे शोधार्थी मित्र रहे हैं राही मासूम रज़ा के कथा साहित्य पर जमकर शोध कार्य किया खूब ख़ाक छानी घाट-घाट का पानी पीने वाला आदमी है हुसैन एकदम सूफी और फक्कड़ सिलसिले वाला आदमी है खूब मेहनती और ईमान वाला तर्कों पर जीने वाला बहसतलब इंसान लम्बे संघर्ष के साथ असल जीवट वाला सादा आदमी खरी कहने वाली हिम्मत है इसमें सपाट-बयानी का आदी स्कूली शिक्षा में हिंदी साहित्य के मार्फ़त अलख जगाता रहा है नवाचारी है काम में भूत हो जाना इसका प्रिय विषय है 'अपनी माटी' के हाल के अंक में उनके संस्मरणों की नयी क़िस्त आई है वक़्त निकालकर पढ़ें निराश नहीं होंगे विकट समय में हम हुसैन जैसे अध्यापक नहीं हो सके माफी चाहते हैं-माणिक )

जी हां, सही सुना। मास्टर साहब केवल पढ़ाने का ही काम नहीं करते हैं। यह बात कम से कम हमारे देश में तो जरूर लागू होती है। जनगणना, पशु गणना, मतगणना, मतदान, बीएलओ, स्वास्थ्य प्रशिक्षण, सर्वेकर्ता व जनजागरण की हर सेवा में मुस्तैद रहने वाला अध्यापक अपने क्षेत्र के हर दरवाजे से भी परिचित रहता है। सरकार से आने वाला कोई भी नया प्रोग्राम अक्सर अध्यापक की भूमिका के बिना पूरा नहीं होता। इन सब बातों का ध्यान प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करते वक्त था। मनोहर गढ़ के तत्कालीन प्रिंसिपल रजनीकांत पांडेय साहब  कहा करते थे,  “डायर साहब! मास्टर तो बेचारा बिना सींग की गाय हुआ करता है। जो चाहे और जैसे चाहे उसे हांकने की जुगत में रहता हैं। मास्टर जी का मतलब केवल पढ़ाने वाला भर नहीं है सैकड़ों काम आपको करने पड़ेंगे अब आप मास्टर बन गए हो तो इन सब के लिए तैयार रहिएगा।और उत्तर में मैं मुस्कुरा देता।

 

25 मार्च, 2020 को भारत में तालाबंदी की पहली सुबह थी। ड्यूटी हेतु जब स्कूल को निकला तो पूरे रास्ते में एक मुर्दा शांति छाई हुई थी। इस मुर्दा शांति ने डरा दिया। जगह-जगह पर पुलिस चेक पोस्ट बनी हुई थी। कुछ लोग इस पाबंदी को हल्के में ले कर बाहर निकल आए थे, उनको बल प्रयोग द्वारा पुलिस सीख दे रही थी। दुकानों के बाहर खाली पड़े बरामदे और सुनी सड़को ने पहली बार बताया कि जीवन में गतिशीलता कितनी महत्वपूर्ण होती हैं। जब समाज में एकदम ठहराव आ जाए, तब स्थिति कितनी भयानक होती है, यह भी इस माहौल से स्पष्ट हो रहा था। अलग-अलग चेक पोस्ट से गुजरते हुए मैं मनोहर गढ़ स्कूल पहुंचा। वहां पर पहले से ही कई लोग पहुंचे चुके थे। सभी के चेहरे पर मास्क लगा हुआ था, पर उनकी बेचैनी मास्क से बाहर टपक रही थी।

यह कार्य कितना गंभीर है, पहले कुछ पता नहीं चला। घर घर जाकर स्वास्थ्य परीक्षण के लिए सर्वे हेतु जब मीटिंग हो रही थी, तब वह समय भाषण का समझ कर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। मुझे मनोहर गढ़ के बनेडिया गांव का प्रभारी बनाया गया और मेरी टीम में साथी अध्यापक सत्यपाल जी के अलावा आंगनबाड़ी की तीन कार्यकर्ता थी। इस टीम के गठन के बाद जब हम फील्ड सर्वे के लिए निकले तो सोचा कि चलो टाइम पास करने का मौका मिल गया।

अगले दिन हमें एक कागज दे दिया गया था जिस पर एक प्रश्नावली थी। आपके घर में कितने सदस्य है? छोटे बच्चे कितने हैं? 60 साल से अधिक के कितने व्यक्ति हैं? कोई बीमार तो नहीं है? कोई बाहर से तो नहीं आया? कोई बाहर से आने वाला तो नहीं है? कोई गर्भवती महिला तो नहीं है? आदि आदि। हमने घर का दरवाजा नहीं खटखटाया, बल्किहाका पाड़ा’, क्योंकि 90% घरों के दरवाजे थें ही नहीं। उन घरों को घर कहना भी उचित नहीं लगता। कुछ जगह पर हड़प्पा की तर्ज पर मिट्टी के घर बने हुए थे जिन पर घास और पत्तों से छत डली थी। लोगों के ये टापरी नुमा घर खेत में ही बने हुए थे। प्रश्नावली लेकर जब उनसे सवाल करते तो कई तरह के जवाब आते। प्रत्येक घर में तीन से सात बच्चे मिल जाना आम है। बहु विवाह यहां पर ख़ूब है। बीमारी का प्रश्न पूछने पर जो व्यक्ति बीमार पड़े हैं, वह भी मना कर देते कि मैं बीमार नहीं हूं। गर्भ वाला पेट साफ दिख रहा था, पर वह महिला इंकार करती। खूब मजा आता। शायद सोशल मीडिया पर उन्होंने कोरोना को लेकर जो जानकारियां और भ्रांतियां फैलाई जा रही थी, वह उनके पास भी पहुंच गई थी।

सबसे बड़ी जटिलता क्वारंटाइन करने में आई। कई लोग जो बाहर कमाने के लिए गए  थे, वे अपने घर लौट रहे थे। जैसे ही कोई बाहरी व्यक्ति आता, उसे क्वारंटीन करने की जिम्मेदारी हमारी ही थी। 8-10 सदस्यों के परिवार में जहां मात्र एक या दो कमरे हैं, अब ऐसे में बाहर से आने वाले व्यक्ति को कैसे अलग-थलग रखा जाए? आदिवासी समुदाय स्वच्छंद प्रवृत्ति का हुआ करता है। स्वच्छंद मानस को क्वारंटाइन के नाम पर आखिर कैसे घर और कमरे की सीमा तक महदूद किया जाए? खाने-पीने, सोने-ओढने का सामान  यहां व्यक्तिगत नहीं होता। यहांहमारा हर सामान सभी के लिए और सभी का सामान हर एक के लिए' की व्यवस्था थीं। प्लेटो के आदर्श राज्य का यह बेहतरीन उदाहरण था।

इन सभी चुनौतियों के बावजूद हमारी टीम प्रत्येक घर पर कई बार पहुंची। प्रत्यक्ष मिलाप ने मुझे ग्रामीण भारत के दर्शन करवा दिए। छोटे-छोटे खेतों के बना पगडंडी का रास्ता, तो कहीं वह भी नहीं। एक खेत से दूसरे खेत को लांघ टापरों- झोपड़ों में जाते। महिला साथियों की ऊंची हिल खूब फिसली।

आदिवासी क्षेत्रों के लिए यह लॉकडाउन कोई विशेष बंदिश नहीं ला पाया, क्योंकि इनका रहन-सहन प्रकृति के बीच रहा है। रास्ते में बच्चे अक्सर खेलते मिल जाते, तो किसान अपने खेतों में काम कर रहे होते। घर का खेत के बीच होना इनके लिए काफी सहायक सिद्ध हुआ। एक घर से दूसरे घर की दूरी भी बहुत ज्यादा है। इस गांव का सर्वे करने में हमें पूरे तीन दिन लगे। डामोरों का फला, हरमोरों का फला, मइड़ों का फला, मंदिर फला और नई आबादी नामक इन पांच फलों में यह गांव विभाजित है।शायद आदिवासी समाज के पूर्वजों ने ऐसी महामारी से बचने के लिए ही दूर-दूर रहना सही समझा होगायह बात कई बार स्थानीय लोगों से सुनने को मिली। 

रास्ते में कहीं लहसुन की फसल तैयार थी, तो कहीं गेहूं और चने की फसल काटी जा रही थी। कुछ लोग आने वाली बरसात से निपटने के लिए अपने घास फूस के झोपड़े को अभी से मजबूत करना शुरू कर रहे थे। खाने पीने को लेकर पहले सप्ताह तक तो कोई विशेष समस्या नहीं रही। इसका मुख्य कारण लोगों का निजी भंडारण माना जा सकता है। पर सब कुछ घर पर मिल जाए, यह संभव नहीं है। जो सामग्री बाहर से लानी होती है, उसके लिए पैसे की जरूरत होती है और पैसा तब आएगा जब व्यक्ति कमाने के लिए जाएगा।घर में बंद परिवार आखिर कमा कर कैसे खाएगा?’ यह प्रश्न लॉकडाउन के समय सर्वाधिक पूछा गया सवाल था। क्वारंटाइन किशोर और प्रौढ अक्सर यह सवाल पूछते, ‘मार साहब घर में नियारा तो रही लेवा, पर खावा कई?’ मार साहब यो लोकडाउन कदी खतम हु ई? घर तो बैठा बैठा कोई खावा न नी देवे।‘ 

ये प्रश्न बहुत परेशान करते। ये ऐसे परिवार थें जिनकी सारी अर्थव्यवस्था दिहाड़ी मजदूरी और खेत के छोटे से टुकड़े से पैदा होने वाली पैदावार से चलती। मैं उनको यह जवाब देकर बच निकलता कि जब सरकार ने बंद किया है तो पेट भरने का भी जुगाड़ कुछ न कुछ करेगी जरूर। यह आश्वासन भी मैं किसी अनुमान से नहीं, बल्कि सरकारी आदेशों के अनुरूप जो दिशा निर्देश दिए जा रहे थे, उनके अनुरूप दिया। सरकार की तरफ से उन परिवारों को चिन्हित करने का आदेश पहले सप्ताह के आखिर में दिया गया जो परिवार गरीबी की रेखा से नीचे हैं और जिनके परिवार में कोई कमाने वाला नहीं है। पर जिस रफ्तार से कार्य हो रहा था, उससे लग रहा था कि सरकारी मदद पहुंचने में अभी वक्त लगेगा। ऐसे में जिस गांव का दायित्व मुझे सौंपा गया, उसके लिए क्या करूं? मेरी जिम्मेदारी भी थी। उधेड़बुन में पड़ गया। पर जैसा कि मेरे साथ अक्सर होता है, जहां चाह-वहां राह।

अपनी एक बरस की नौकरी में पांचवा ट्रांसफर झेलकर भी मनोहर गढ़ ग्राम पंचायत सचिव महेश वर्मा अपनी ऊर्जा के लिए जाने जाते थे। उनके कार्य करने का तरीका ऐसा है कि जहां वह कार्य करते हैं, वह बिना किसी भेदभाव के अपनी पूरी ताकत से उतर जाते। आपको बता दूं कि अभी तक उनकी मुश्किल से तीन साल की नौकरी हुई होगी, लेकिन कुल 13 ट्रांसफर देख चुके हैं। पर उनका जिंदा अंदाज अभी भी बरकरार है। ऐसे ऊर्जावान सचिव का साथ अगर किसको मिल जाए तो और क्या चाहिए। सचिव साहब के साथ बैठकर योजना बनाई। ‘कम से कम मैं इस गांव में किसी को भूखा सोते नहीं देखना चाहता, इसके लिए हमें कोई योजना बनानी चाहिए’, यह मेरा स्पष्ट आग्रह था। सचिव साहब ने कहा कि आप बताइए हमें क्या करना चाहिए।  ‘क्यों न जिन किसानों के पास ज्यादा मात्रा में अनाज है, कुछ दान स्वरूप उनसे इकट्ठा किया जाए और उनका एक मिनी अनाज बैंक बनाकर जरूरतमंदों को बांटा जाए? वही जिनको तेल, मसाले या अन्य सामग्री की जरूरत पड़ती है, उनके लिए गांव के लोगों से सहायता राशि ली जाए?’ मेरे इस विचार को सचिव साहब ने लपक लिया और हम दोनों जुट गए लोगों से सहायता सामग्री प्राप्त करने में। इस काम में साथी शिक्षक सत्यपाल जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। कक्षा 11 के विद्यार्थी सुनील, रितेश, उदय लाल, लोकेश ने हमारे साथ मिलकर घर-घर जाकर अनाज इकट्ठा किया। स्कूल की पुरानी बिल्डिंग में खाद्य बैंक बना दिया।

अब सत्यपाल जी और ग्राम सचिव महेश जी शर्मा के साथ मिलकर हमने फिर से आर्थिक आधार पर जमीनी सर्वे किया। इस सर्वे में जो बिंदु लिए गए, वह सरकारी नियमों से थोड़े अलग थे। सरकारी नियमों के दायरे में जो आ रहे थे वह तो इस सूची में शामिल थे ही, इसके अतिरिक्त हमने उन लोगों को भी शामिल किया जो शारीरिक रूप से दिव्यांग, कमाने वाला सदस्य क्वारंटाइन में है, कमाने वाला सदस्य घर से बाहर गया हुआ है, जिनके पास जमीन का बहुत थोड़ा टुकड़ा है या फिर कोई विधवा या तलाकशुदा स्त्री है या फिर आस-पड़ोस के लोग इस बात की पुष्टि कर दें कि वास्तव में इसके खाने कमाने की व्यवस्था नहीं है। ऐसे बिंदु हमने निर्धारित किए। इस काम में आशा सहयोगिनी का विशेष योगदान रहा। आशा सहयोगिनी को गांव की जमीन हकीकत मालूम होती हैं। हमारा एक और नियम था कि हम सहायता सामग्री देते वक्त किसी से भी किसी भी प्रकार का कोई कागज नहीं मांगेंगे। आपसी विश्वास ही सबसे बड़ा प्रमाण होगा। हमारी खाद्य बैंक में लगभग 2 क्विंटल अनाज एकत्र हुआ। इसके अलावा जन सहयोग से कुछ राशि एकत्र की। यह तो कोई शुरुआत भर थी।

29 मार्च, 2020 को हमने हमारे गांव के लगभग 14 परिवारों को सहायता सामग्री उपलब्ध करवा दी। साथी सत्यपाल जी और मैं सामग्री बाइक पर रखकर जरूरतमंदों के घर-घर पहुंचाने का कार्य करने लगे। हमारे पास में संसाधन कम थे, इसलिए हम वंचित परिवारों को एक साथ बड़ी सहायता उपलब्ध नहीं करवा सकते थे। हमने प्रत्येक परिवार को उनकी सदस्य संख्या के अनुसार एक-एक हफ्ते का राशन देना सुनिश्चित किया। पहले सप्ताह में सामग्री पहुंचते वक्त यह बात समझ में आई कि अनाज गांव में हर जगह मिल जाता है, ऐसे में आटे का वितरण करना कोई विशेष बात नहीं है। हमें अब उन दूसरी चीजों की ओर ध्यान देना जरूरी था जो बाजार से मिलती हैं। यहां एक चुनौती और है कि बाजार बंद है और जेब में पैसा नहीं है, तो लोग सामग्री कैसे खरीदने जाएँ।

दूसरे सप्ताह के लिए सामग्री वितरण में आर्थिक समस्या आड़े आई। यह परेशानी अपने शोधार्थी मित्रों के सामने रखी जो उदयपुर और राजस्थान के अन्य हिस्सों में फैले हुए हैं। उन साथियों ने मेरे द्वारा सोशल मीडिया पर जो अपील की गई उस में सहयोग के लिए बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। अब हमारी रणनीति कुछ इस प्रकार की थी कि अनाज की जरूरत हमें गांव से पूरी करनी है और पैसे के लिए बाहर से मदद लेनी होगी। प्रत्येक सप्ताह नियमित रूप से हम लोगों को आधा किलो चने की दाल, आधा लीटर सोयाबीन का तेल, आधा किलो शक्कर और 2 किलो आलू-प्याज का यह पैकेट लोगों तक समय पर पहुंचाया गया। साथ ही हमारी सूची को भी हम लगातार संशोधित कर रहे थे।

 अप्रैल महीने के अंत और मई की शुरू होने पर सरकार ने अपनी तरफ से जो सहायता सामग्री जारी की, वह अब आम नागरिकों तक धीरे-धीरे पहुंचने लगी। हमारे द्वारा जो अनाज बैंक बनाई गई, उसकी चर्चा मैंने अपने मित्र  और पडौसी गिरधारी लाल जी जो राजीविका मिशन में काम करते हैं, उनके सामने की। उनको यह विचार बहुत पसंद आया। उन्होंने तत्कालीन जिला कलेक्टर सुश्री अनुपमा जोरवाल के सामने यह विचार रखा कि जिस तरह से मनोहर गढ़ में एक शिक्षक गांव वालों से अनाज इकट्ठा करके उनको जरूरतमंद लोगों तक पहुंचा रहा है, ऐसा ही क्यों न हम पूरे जिले में अलग-अलग जगह पर अनाज बैंक बनाएं? जिला कलेक्टर मेम ने इस विचार को तत्काल स्वीकार कर लिया और आदेश जारी किया कि अपने क्षेत्रों में जो लोग बड़े खेतों के मालिक है या जिनके पास अनाज की भरपूर मात्रा है, वे अपने नए अनाज में से स्वेच्छा से जितना हो सके, देने का कष्ट करें जिससे हम इस भयानक त्रासदी से पार पा सके।  ग्रामीणों से संपर्क करके गिरधारी लाल जी और प्रशासन के सहयोग से जगह-जगह अनाज इकट्ठा किया जाने लगा। सैकड़ों क्विंटल अनाज सरकार के पास पहुंचने लगा। राजीविका मिशन से जुड़े कार्यकर्ता अलग-अलग गांव में जाकर के लोगों को जागृत करते रहे। एक अनाज बैंक हमारी नई स्कूल में भी बनाई गया, जहां 121 क्विंटल अनाज  प्रशासन और राजीविका मिशन के सहयोग से एकत्र हुआ। अब यह अनाज प्रतापगढ़ के अलग-अलग क्षेत्रों में पहुंचने लगा। एक विचार किस तरह से सामूहिक प्रयास से बड़ी मुहिम बन जाता है, इसका यह एक उदाहरण माना जा सकता है। 

पर इसके अलावा भी अभी कई क्षेत्रों में कार्य करने की आवश्यकता थी। सचिव साथी महेश जी शर्मा और मैं पैदल चलते मजदूरों की पीड़ा भी देख रहे थे। इनके लिए पर्याप्त मदद हम नहीं कर पा रहे थे। इसके अलावा प्रतापगढ़ के शहरी क्षेत्र में आम मेहनतकश जो दिहाड़ी मजदूरी पर जिंदा है, उनकी मदद कैसे की जाए तथा जो लोग बाहर से आए और यहां आकर के फंस गए हैं, उनको किस तरह से निकाला जाए? ये प्रश्न मुझे अक्सर प्रतापगढ़ के भीतर घुसते ही परेशान करने लगता। शहरी लोगों की मदद में लगे स्वयंसेवी संगठन की कार्य शैलियां कैसी है, यह भी अक्सर सुनने और देखने को मिल रही थी। इन सब मुद्दों को देखकर एक शिक्षक क्या क्या कार्य कर सकता है और किस तरह से अपने ज्ञान के दायरे को बढ़ा सकता है? इस विषय पर अगले अंक में चर्चा की जाएगी।

 

डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर

व्याख्याता, रा उ मा वि आलमास, ब्लॉक मांडल जिला भीलवाड़ा

9887843273, dayerkgn@gmail.com



अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

2 टिप्पणियाँ

  1. वाकई जिस दिन अध्यापक यह समझ लेगा की उसकी नोकरी वास्तव में उसके परिवार के पालन पोषण के लिए तनख्वाह मात्र का कार्य नही है अपितु मास्टरी वो जिम्मेदारी है जिसमे नैतिकता के साथ साथ मानवीयता के गुणों का विकास बच्चो में करना है और जिस दिन मास्टरी में यह ध्येय हो गया कि मुझे बस मानवीयता को देखना है ना कि जाति,धर्म,लिंग,तो जिस दिन विद्यार्थियों ओर शिक्षकों में मानवीयता के गुण पैदा हो गए उस दिन हमारा राष्ट्र विकसित ना होते हुए भी विकसित देशों से भी महान हो जाएगा।
    ओर महान बनाने का कार्य करेंगे मोहहमद हुसैन डायर जैसे संघर्षशील शिक्षक।

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  2. सरकारी आदेश को काम की तरह नहीं सेवा की तरह करते हैं आप...शोध-काल से आपका यह जज़्बा लगातार देख रहे हैं..विद्यालय में नवाचार, फील्ड में मानवीय सेवा...आपके जुनून और ईमानदार कोशिशों को सलाम

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