बतकही : हिंदी ग़ज़ल के प्रतिबद्ध रचनाकार देवेन्द्र आर्य से दीपक कुमार की बातचीत


बतकही : हिंदी ग़ज़ल के प्रतिबद्ध रचनाकार देवेन्द्र आर्य से दीपक कुमार की बातचीत

 


केंद्र सरकार के मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार तथा उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान के विजय देव नारायण साही पुरस्कार से सम्मानित गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) के निवासी कवि, गीतकार और हिंदी ग़ज़ल के प्रतिनिधि ग़ज़लकार देवेन्द्र आर्य जी से हिंदी ग़ज़ल के शोधार्थी दीपक कुमार की बातचीत:-

 

1.      साहित्य की विभिन्न विधाओं में से आपने ग़ज़ल विधा को अपने रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए क्यों चुना? एक ग़ज़लकार के रूप में आप की यात्रा कैसे शुरू हुई?

देश में आपातकाल लगने के साथ-साथ शुरू हो गया था, मेरा रचनात्मक प्रतिरोध। पहले कुछ एक टिप्पणियों,कहानियों और छंद मुक्त कविताओं के साथ हुई शुरुआत आठवें दशक के उत्तरार्द्ध में जन-बोधी गीतों की ओर मुड़ी और उसके बाद शुरू हुई गीतों की लम्बी यात्रा। बीच-बीच में कुछ कविताएँ भी। नवें दशक के अंत तक मुझे अपनी रचनात्मक चुनौतियों के लिए गीत विधा अक्षम-सी लगने लगी। लगा कि गीत का फार्मेट मेरे भीतर की कविता को सम्हाल नहीं पा रहा है। अपनी रचनात्मक सीमाएँ तोड़ने और कुछ नया करने की ललक मुझे ग़ज़लों की ओर ले गयी। बाक़ायदा ग़ज़ल लेखन की शुरुआत तब हो सकी जब मेरे शायर मित्र सरवत जमाल ने मुझे ग़ज़ल के फ़ारसी शास्त्र से परिचित कराने,मेरे लिखे में कमियाँ बताने,उन्हें ठीक करने,और ग़ज़ल की बारीक़ियाँ सिखाने का ज़िम्मा लिया। इस तरह मेरी ग़ज़ल यात्रा विधिवतसन् 2000से शुरू हुई और मुझे रचनात्मक तोष मिलने लगा। 

 

2.      आपकी अब तक कितनी ग़ज़ल रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं? कृपया नामोल्ले खज़रूर करें।

ग़ज़लों की मेरी पहली किताब 2004 में किताब महल से आई, जिसका नाम था -'किताब के बाहर'।पाँचवाँ संग्रह -'जो पीवे नीर नैना का' 2018 में बोधि प्रकाशन से आया था। इसके बीच के संग्रह थे - शिल्पायन से 'ख़्वाब ख़्वाब ख़ामोशी', अयन से 'मोती मानुष चून' और अभिधा से 'उमस'।छठा संकलन 'क़ीमत' प्रकाशन की प्रतीक्षा में है।

 

3.      दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को राजनीतिक तेवर प्रदान किया और हिंदी ग़ज़ल को समकालीन समस्याओं से जोड़ा। क्या समकालीन हिंदी ग़ज़ल अब भी राजनीतिक चेतना से संपन्न है?

हिन्दी ग़ज़ल की पहचान ही उसकी राजनीतिक चेतना से बनी। ज़ाहिर है, कि आज भी नब्बे प्रतिशत ग़ज़लकारों की हिन्दी ग़ज़लें राजनीतिक रंग की ग़ज़लें ही हैंऔर यह हिन्दी ग़ज़ल विकास यात्रा का नकारात्मक पक्ष भी है। ग़नीमत है कि दस प्रतिशत ग़ज़लकार इस पहलू को समझ पा रहे हैं और अपने स्तर से सचेत हैं। यही दस प्रतिशत लोग हिन्दी ग़ज़ल का भविष्य तय करेंगे।

 

4.      हिंदी साहित्य की विविध विधाओं में स्त्री सरोकारों से जुड़ी हुई रचनाएँ लिखी जा रही हैं, क्या समकालीन हिंदी ग़ज़ल में स्त्री के जीवन से जुड़ी हुई समस्याओं को प्रभावी तरीके से अभिव्यक्त किया जा रहा है?

हिन्दी ग़ज़ल अपनी पूर्ववर्ती ग़ज़ल परम्परा से जिन विषयों में अलग और नयी है, उनमें एक महत्वपूर्ण मुद्दा स्त्री का भी है। हिंदी ग़ज़ल ने समकालीन नयी कविता से बहुत कुछ सीखा और अपनाया है। स्त्री विमर्शउनमें से एक है। समकालीन ग़ज़लों का नज़रिया स्त्री को लेकर न केवल पूर्ववर्ती ग़ज़लों से अलग है बल्कि, स्त्रियों की समस्याओं को लेकर सहानुभूतिपूर्ण और सक्रिय सहयोग का भी है।

कुछ शेर :

“मान्यताएँ आपकी सारी धरी रह जाएँगी

लड़कियों की आंखों में देखीं नहीं चिंगारियाँ !”

 

“पुरुष की सोच में ढलने लगी हैं

खुलापन लेके महिलाएँ इधर कुछ”

 

“नहीं है प्यार के क़ाबिल वो औरत

जो अपना आगा पीछा सोचती है”

 

5.      मुंशी प्रेमचंद के समय से ही साहित्य में दलित, किसान और मजदूर जीवनकी दुश्वारियों को साहित्य में बयाँ किया जाता रहा है, क्या समकालीन हिंदी ग़ज़ल में भी ऐसी प्रवृत्ति दिखाई देती है?

हिन्दी ग़ज़ल शिल्प के स्तर पर बेशक उर्दू ग़ज़ल की परम्परा में आती हो पर कथ्य के स्तर पर हिन्दी ग़ज़ल का नाभि-नाल सम्बन्ध अपनी जातीय बोलियों की छंदबद्ध कविता और बाद में छंद मुक्त आधुनिक हिन्दी कविता से रहा है और है। शिल्प बेशक फ़ारसी का है पर हिंदी ग़ज़ल की सोच हिन्दी कविता की है। इसीलिए जैसे-जैसे और जो-जो बदलाव और मोड़ कविता के कथ्य में आए हैं, वे सब आपको उन दस प्रतिशत महत्वपूर्ण हिन्दी ग़ज़कारों के यहां मिलेंगे, जिसका संदर्भ ऊपर के किसी प्रश्न में आया है। स्त्री विमर्श हो या दलित विमर्श यह हिन्दी साहित्य की सोच है। ज़ाहिर है हिन्दी ग़ज़ल उससे अछूती नहीं। विमर्श और प्रतिरोध का स्वर हिन्दी ग़ज़ल की विशेषता है।जनाकांक्षा और जन-आंदोलन हिन्दी ग़ज़ल में स्थान पाते रहे हैं।  किसान आंदोलन तो अभी डेढ़ दो सालों से मीडिया के चर्चा में है, पर हिंदी ग़ज़लें खेती किसानी की समस्या और किसान आत्महत्या से मुख़ातिब रही हैं। गल्प में दलित और किसान पहली बार प्रेमचंद के यहां प्रमुखता से स्थान पाते हैं। हिन्दी ग़ज़ल ने उस परम्परा का निर्वाह किया है।

कुछ शेर :

“रूह पूंजी की जिस्म खेतिहर का

कैसा मालिक है आपके घर का

आपदलहन कीबात छेड़ेंगे

ज़िक्र वे छेड़ देंगे केसर का”

 

“बो रहे हैं किसान जीडीपी

अपनी मेहनत से अपने ख़र्चे से”

 

“दबंगों की ज़बां में बोलती हैं

दबाई कुचली इच्छाएँ इधर कुछ”

 

“कहावत है कि रिस सौती का झेला है कठौती ने

दलित से प्रेम का अंजाम जल कर ख़ाक बभनौटी”

 

6.      उर्दू ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल में संवेदना और शिल्प के स्तर पर आप क्या अंतर मानते हैं?

संवेदनात्मक रचाव की दृष्टि से भी उर्दू ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल में अंतर स्पष्ट है। उर्दू ग़ज़ल आज भी शुद्धतावाद के नाम पर तमाम रूढ़ियाँ ढो रही है, जिनका कोई कलात्मक औचित्य नहीं बचा है। अपने आलेखों में मैने विस्तार से इस विषय पर चर्चा की है।यहाँ उतना अवकाश नहीं। रिश्तों को लेकर भी और प्रेम को लेकर भी दोनों में सरोकार का अंतर है। उर्दू ग़ज़ल की तरह हिन्दी ग़ज़ल में प्रेम फ़क़त रूमान तक ही सीमित नहीं है। 

 

7.      क्या हिंदी ग़ज़ल से रुमानियत पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है?

हिन्दी ग़ज़ल के संदर्भ में यह एक गम्भीर प्रश्न है। समकालीनता का दबाव हिन्दी ग़ज़लों पर कुछ अतिरिक्त ही दिख रहा है। ग़ज़ल सिर्फ़ प्रेमिका से गुफ़्तगू न सही पर गुफ़्तगू तो है ही। कोई भी अच्छी कविता गुफ़्तगू ही होती है और गुफ़्तगू के लिए एक हद तक रूमान आवश्यक तत्व है। बिना रूमानी हुए आप दिली बात न कर सकते हैं,और न लिख सकते हैं। कविता में जो कोमलता होती है, वह इस रूमान से ही आती है जो, आपको आपके सरोकारों से और अधिक बाँधता है। यह चिंता का विषय है, हिन्दी ग़ज़ल सियासती अधिक होती दिख रही है। उसका समाजी चेहरा जिसमें एक घरेलूपन होता है और जो पाठक के मन से तादात्म्य स्थापित करता है,वह उतनी शिद्दत से सामने नहीं आ पा रहा है। यही कारण है कि दर्शन और अध्यात्म जैसे ज़रूरी विषयों पर हिन्दी में शेर कम मिलते हैं।

 

8.      कुछ ग़ज़लकार मानते हैं कि देवनागरी में लिखी हुई ग़ज़ल हिंदी ग़ज़ल है, आप इस से कहाँ तक सहमत हैं?

लिपि में भाषा लिखी जाती है पर शायरी लिपि से निर्धारित नहीं होती। भाषा सिर्फ़ लिपि नहीं इसलिए देवनागरी में लिखी ग़ज़ल हिन्दी ग़ज़ल होगी, यह हल्की सोच है। कोई भी भाषा और उसे व्यक्त करने वाली लिपि और उसमें की गयी कविता अपनी जातीयता से ऊर्जा लेती है। ग़ालिब की फ़ारसी ग़ज़लें देवनागरी में आकर भी हिन्दी की ग़ज़लें नहीं हैं।

 

9.      समकालीन हिंदी ग़ज़ल हिंदी की आरंभिक ग़ज़लों से किस प्रकार भिन्न है?

शुरुआती दौर की हिन्दी ग़ज़ल पर अपने हिन्दी होने और हिन्दी दिखने का अतिरिक्त दबाव था। समकालीन हिन्दी ग़ज़ल इस तरह के भाषायी बखेड़े और छिछलेपन से उबर चुकी है। बाक़ी कथ्य के स्तर पर समय के साथ जो बदलाव आते हैं,वह तो स्वाभाविक अंतर है ही।

 

10.    समकालीन कविता और समकालीन हिंदी ग़ज़ल में आप विशेष तौर पर क्या अंतर मानते हैं?

मेरे ग़ज़लकार मित्रों को अक्सर मेरी यह बात सुन कर तकलीफ़ होती है कि हिन्दी ग़ज़ल हिन्दी कविता से कथ्य,कथ्य की विविधता औरउसके गम्भीर प्रच्छालन के सिलसिले में काफ़ी पीछे है। इस विषय पर भी विस्तार से अन्यत्र लिख चुका हूँ। मेरा मानना है कि हिन्दी कविता को लिरिक के स्तर पर गीत और ग़ज़ल के क़रीब आना है और ग़ज़ल को कथ्य के वैविध्य और उसकी सूक्ष्मता के लिए हिन्दी कविता के सान्निध्य में जाना है।

 

हमसे बातचीत करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद देवेन्द्र आर्य जी।

 

दीपक कुमार, शोधार्थी

मो.ला.सु.वि.वि. उदयपुर (राज.),

deep.alw82@gmail.com, 9950885242 


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) 

अंक-39, जनवरी-मार्च  2022 UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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