शोध आलेख : महात्मा गांधी का सर्वोदयी विमर्श / त्रिपुरारी उपाध्याय

शोध आलेख : महात्मा गांधी का सर्वोदयी विमर्श

-त्रिपुरारी उपाध्याय

शोध सार 18वीं शताब्दी के अंत तक भारत की सत्ता लगभग ब्रिटेन के हाथों में चली गई थी। उन्होंने अपने लाभ के लिए ऐसी नीतियों का निर्माण किया जिससे भारत मात्र एक उपनिवेश बनकर रह गया। भारतीय समाज पहले से ही अनेक वर्गों में विभाजित था जिसका लाभ औपनिवेशिक शासकों ने भरपूर उठाया। उनकी शोषणकारी नीतियों के परिणाम स्वरूप भारत में अकाल, भुखमरी, बेरोजगारी, गरीबी जैसी स्थितियां उत्पन्न हुई। जिससे भारतीय समाज सर्वांगीण रूप से पतनोन्मुख हुआ। इन परिस्थितियों में हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के नेतृत्व कोअपने समाज की कमियों और उपनिवेशवादी नीतियों दोनों ही मोर्चों पर लड़ने की चुनौती थी। इस चुनौती कासमाधान गांधीजी ने 'सर्वोदय' में देखा, जिसका उद्देश्य एक आदर्श सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करना था जो सबका सब प्रकार से कल्याण कर सके। इस शोधपत्र में सर्वोदय की उत्पत्ति, इसका अन्य विचारधाराओं से समानता एवं विषमता, एक सर्वांगीण सामाजिक विकास के आदर्श के रूप में सर्वोदय की आवश्यकता की विवेचना की गई है। साथ ही साधन-साध्य की शुद्धता को बनाए रखने तथा सत्य एवं अहिंसा पर आधारित अद्वैतिक सामाजिक व्यवस्था के रूप में सर्वोदय का वर्णन किया गया है।

बीज शब्द: सर्वोदय, सर्वांगीण विकास, सामाजिक आत्मपूर्णता, अद्वैतिक समाज।

मूल आलेख : 

महात्मा गांधी के सर्वोदय की अवधारणा उनके विचार दर्शन का आत्मतत्व है। सदा ही उनके विचारों का केंद्र संपूर्ण समाज का उदय एवं विकास रहा,जो उनके सर्वोदय संबंधी विचारों में अभिव्यक्त होता है। उनका कहना था कि "मैं इस में विश्वास नहीं करता कि एक व्यक्ति का आध्यात्मिक लाभ हो जाए और उसके आस-पास के लोग दुःख भोगें। मैं अद्वैत में विश्वास करता हूँ, मुझे मानव की ही नहीं बल्कि प्राणिमात्र की अनिवार्य एकता में विश्वास है। इसलिए मेरा विश्वास है कि अगर एक व्यक्ति को आध्यात्मिक लाभ मिलता है, तो उसके साथ सारी दुनिया का भला होता है और अगर एक व्यक्ति का पतन हो होता है, तो उस सीमा तक सारी दुनिया का पतन होता है"1

गांधीजी की मान्यता थी कि सर्वोदय कोई वाद या विचारधारा नहीं अपितु एक जीवन-दर्शन, एक जीवन-पद्धति तथा एक नए समाज की रचना की दिशा में किया जाने वाला स्तुत्य प्रयास है।2 ऐसा नहीं है कि महात्मा गांधी ने 'सर्वोदय' शब्द की रचना की। उनसे पूर्व सर्वोदय का विचार गीता, कुरान आदि धार्मिक ग्रंथों तथा संतो के उपदेशों में मिलता था। परंतु गांधीजी ने इस प्राचीन सिद्धांत को अपने समाज-दर्शन में प्रयोग कर विस्तृत एवं नवीन अर्थ प्रदान किया। 'सर्वोदय' दो शब्दों से मिलकर बना है, 'सर्व' और 'उदय' व्युत्पत्ति और विग्रह के आधार पर यह एक ऐसा शब्द है, जिसका जितना अधिक चिंतन और प्रयोग हम करेंगे उतना ही अधिक अर्थ उसमें से पाते जाएंगे। इस प्रकार सर्वोदय शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं 'सब का उदय' और 'सब प्रकार से उदय'3

सर्वप्रथम सर्वोदय शब्द का प्रयोग जैन आचार्य समंतभद्र ने अपने ग्रंथ आप्तमीमांसा में "सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव" के रूप में किया।4 वहीं हजारों वर्ष पूर्व भारतीय ऋषियों ने 'सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत।।' के द्वारा सब के मंगल की कामना की थी। गीता में भी कहा गया है 'सर्वभूत हिते रताः'5 आधुनिक काल में महात्मा गांधी को रस्किन की पुस्तक 'अनटू दिस लास्ट' से प्रेरणा मिली और उन्होंने इस पुस्तक का अनुवाद 'सर्वोदय' नाम से किया।6 गांधीजी के अनुसार रस्किन ने अपनी पुस्तक में मुख्यतः तीन बातों का प्रतिपादन किया है-

1- व्यष्टि का हित समष्टि के हित में ही निहित है।

2- वकील का काम हो चाहे मोची का, दोनों का मूल्य समान है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका चलाने का समान अधिकार है।

3- शारीरिक श्रम करने वाले का जीवन ही सच्चा और सर्वोत्कृष्ट जीवन है।7

पहली बात में ही दूसरी और तीसरी बातें सन्निहित हैं। सबके हित में ही व्यक्ति का हित निहित है, अतः सबके हित में सब का उदय भी अवश्य ही शामिल है। इसी आधार पर गांधीजी ने एक सामाजिक आदर्श का सिद्धांत प्रस्तुत किया जिसे 'सर्वोदय' नाम दिया।

          सभी सिद्धांतवादी ऐसा सिद्धांत अवश्य बनाना चाहते हैं, जिसमें सब का सुख निहित हो। परंतु वे सब के उदय और विकास तक नहीं पहुंच पाते। पाश्चात्य उपयोगितावादी दार्शनिक बेंथम, मिल और सिजविक का भी मानना है कि चाहिए तो यही कि सबका शुभ हो किन्तु यह विचार व्यवहारिक नहीं है। इसलिए उन्होंने अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। सर्वोदय का इनके विचारों से मूलभूत अंतर है। सर्वोदय में सब के उदय की बात कही गई है अर्थात् सर्वोदय में अधिकतम की बात स्वतः ही शामिल है, परंतु अधिकतम के सिद्धांत का पोषक सबके लिए अपने सुख का त्याग नहीं कर पाएगा जबकि सर्वोदय का पोषक सर्वहित में किसी भी प्रकार का त्याग प्रसन्नता पूर्वक करेगा। उपयोगितावाद जहां अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख का लक्ष्य रखता है, वहीं सर्वोदय सबका सभी प्रकार से उदय का लक्ष्य रखता है।

सभी के हित को कुछ सिद्धांतवादी व्यवहारिक नहीं मानते हैं, उनका कहना है कि यह मात्र एक आकांक्षा या शुभकामना हो सकती है, परंतु व्यवहार में यह संभव नहीं है। किंतु यहां प्रश्न व्यवहार या मनुष्य के मनोविज्ञान का नहीं है, यहां प्रश्न आदर्श और नैतिकता का है और आदर्श के विचार में आंशिकता नहीं बल्कि समग्रता होनी चाहिए। आदर्श यथार्थ की व्याख्या नहीं अपितु दिशा-निर्देश होता है, जो पकड़ में नहीं होता परंतु पहुंच में अवश्य होता है। इस मार्ग पर चलते रहने से निरंतर प्रगति और विकास होता रहता है। आदर्श यदि हमारा यथार्थ ही हो, तो फिर प्रगति किस तरफ होगी? तब वह आदर्श नहीं रह पाएगा। 'सबका सभी प्रकार से उदय' यह विचार अप्राप्य या असाध्य नहीं है, बल्कि प्रयत्न-साध्य है। प्रयत्न-साध्य होने के कारण यह व्यवहार को निरंतर दिशा-निर्देश देता रहता है।

सर्वोदय के 'सब' के अंतर्गत प्रत्येक वर्ग एवं समुदाय के प्राणी जाते हैं।8 जो इसकी व्यापकता का संकेतक है, इसलिए इसमें केवल बहुसंख्यक का नहीं, अपितु सब का समावेश हो जाता है। सर्वोदय में किसी विशेष वर्ग या समुदाय-हित के विचार का अनुकूलन नहीं हो सकता क्योंकि वर्ग या समुदाय-हित का विचार हमारे सीमित दृष्टिकोण का परिणाम है और जब हम इन सीमाओं से ऊपर उठ जाते हैं तब समग्रता एवं व्यापकता का विचार आता है। जो सर्वोदय द्वारा पोषित है। सर्वोदय का 'सर्व' संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों ही है। इसमें सब का सर्वांगीण विकास आता है। मनुष्य में अनेक क्षमताएं   सामर्थ्य  है। उन क्षमताओं का मर्यादा के साथ पूर्ण विकास ही सर्वोदय का ध्येय है। अतः यहां 'सर्व' शब्द की व्यापकता में परिमाण और गुण दोनों समाविष्ट है।

सर्वोदय में उदय या विकास का अर्थ है, 'जीवन का विकास और जीवन का अधिक से अधिक विस्तार'9 यहां उदय या विकास शब्द केवल शारीरिक आर्थिक या ऐहिक वैभव के लिए व्यवहृत नहीं है। जीवन में विकास का अर्थ केवल ऐहिक वृद्धि नहीं है, अपितु मनुष्य की सभी क्षमताओं की वृद्धि है। ऐहिक शक्ति मनुष्य की एक विशेषता है, संपूर्ण नहीं। मनुष्य की मूल विशेषता आध्यात्मिक शक्ति है, जो असीम है और शरीर के साथ क्षीण नहीं होती। ऐहिक शक्तियों की भी आवश्यकता है, उनका भी महत्व है। क्योंकि ऐहिक शक्ति आयतन है तो आध्यात्मिक शक्ति अधिष्ठान। अतः विकास का अर्थ सर्वांगीण विकास है। सर्वोदय के इस विचार में पाश्चात्य सुखवाद, बुद्धिवाद या कई अन्य विचारधाराओं की भांति एकपक्षता नहीं है। यह प्लेटो तथा हेगेल के विचार कि 'संपूर्ण व्यक्तित्व की पूर्णता ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य होना चाहिए', सर्वोदय की नीति के समकक्ष है। परंतु जहां उनके विचार व्यक्ति की आत्मपूर्णता  से सम्बद्ध है, वहीं सर्वोदय व्यक्ति तथा समाज दोनों की आत्मपूर्णता की ओर इंगित करता है। समर्थता और असमर्थता सभी में है, परंतु किसी अन्य की अक्षमता का निराकरण करने के लिये अपनी क्षमता का विकास ही वास्तविक जीवन है। डार्विन ने बल को प्रकृति का नियम मानकर कहा कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाकर जीवित रहती है, हक्सले ने सह-अस्तित्व को मान कर कहा कि जियो और जीने दो। वहीं सर्वोदय सह-संपन्नता और अद्वैत को मानकर कहता है कि जिलाने के लिए जियो, दूसरों को अपना बनाओ और अद्वैत की स्थापना करो।10 सब के जीवन को संपन्न बनाना या जीवन को सर्वत्र संपन्न बनाना, ऐहिक और आध्यात्मिक संपन्नता का आदर्श ही सर्वोदय है।11

सर्वोदय का सार यह है कि सब के मानवीय अधिकार समान हैं। जाति, पंथ, रंग, लिंग आदि किसी भी वर्ग के  आधार पर मनुष्यों में असमानता नहीं है। व्यक्ति का हित सबके हित पर निर्भर है और सब का उदय अपेक्षित है। सर्वोदय समानता और मानवता के विचार पर आधारित है, जिसका स्रोत अद्वैत-तत्व-दर्शन है अर्थात् अद्वैत-तत्व-दर्शन को व्यवहारिक क्षेत्र में उतारने का प्रयास ही सर्वोदय है। भारतीय दर्शन केवल सिद्धांत नहीं बल्कि जीवन-पद्धति है। दर्शन और धर्म में जो सामीप्य यहां है पाश्चात्य देशों में नहीं मिलता। अतः सर्वोदय का विचार भारत के लिए नया नहीं है। दर्शन और धर्म के अधिकांश विचारकों ने इसे अपने व्यक्तिगत जीवन तक ही सीमित रखा, गांधीजी ने इसे सामाजिक व्यवहार में लागू करने का प्रयत्न किया।

सर्वोदय का मूल आधार गांधीजी का ईश्वर तथा आत्मा के संबंध में विचार है।12 उनके अनुसार ईश्वर ही परमसत्ता है। विश्व ईश्वर का ही व्यक्त रूप है। वह प्रत्येक जड़ एवं चेतन में निहित है। अतः विश्व के प्रत्येक पदार्थ में समानता है, सभी ईश्वरमय है। यदि इस तत्व-दर्शन से मानव जीवन के लक्ष्य को जोड़ा जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य का धर्म समाज में समानता एवं एकात्मता की दृष्टि को विकसित करना है। तब एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति के हितों में विरोध समाप्त हो जाएगा और स्वार्थ और परार्थ का भेद मिट जाएगा।

गांधीजी भी अन्य भारतीय दार्शनिकों की भांति आत्म-साक्षात्कार को जीवन का लक्ष्य मानते थे। उनका विश्वास था कि इस उपलब्धि के लिए आवश्यक है कि मनुष्य सब के साथ तादात्म्य स्थापित करे और सबके हित की सिद्धि में प्रयत्नशील रहे।13 उनका कहना था कि 'मैं ईश्वर की और इसलिए मानवता की भी निरपेक्ष एकता में विश्वास करता हूँ, यद्यपि हमारे शरीर अनेक हैं परंतु हमारी आत्मा एक है'14 सभी जीवधारियों की मूलभूत एकता केवल मनुष्यों के भ्रातृत्व के सिद्धांत से भिन्न है। मूलभूत एकता के कारण ही एक व्यक्ति का विकास अन्य किसी के भी विकास का विरोधी नहीं हो सकता। यह ईश्वर, आत्मा एवं जगत का अद्वैत विचार है और इसी से सर्वोदय का विचार उद्भूत होता है। यह सत्य है कि ईश्वर-जगत संबंध के विषय में शंकाएं उठाई जाती रही हैं, परंतु इन शंकाओं के कारण सर्वोदय का परमार्थिक मूल्य के रूप में अनिवार्यता घट नहीं जाती। जीवन का मूल्य तो सभी मानते हैं; आस्तिक या नास्तिक, स्वार्थवादी या परार्थवादी, इसलिए जीवन का विकास करना परम मूल्य हो जाता है। जो कि सर्वोदय का भी लक्ष्य है, अतः इससे किसी को भी कोई आपत्ति नहीं रह जाती। रहा प्रश्न इसकी व्यावहारिकता का तो मनुष्य जब तक मनुष्य है पूर्ण नहीं हो सकता, वह पूर्ण की तरफ बढ़ सकता है, परंतु आदर्श और व्यवहार मैं सदा अंतर बना रहेगा। यदि पूर्ण आदर्श की प्राप्ति हो जाए तो वह आदर्श नहीं रह जाएगा।15 अतः आदर्श की ओर बढ़ते रहने का प्रयास ही जीवन के विकास का सूचक है।

सर्वोदय-विचार में साधन की प्रधानता मानी गयी है। यदि साधन शुद्ध हो तो हम स्वतः ही साध्य की दिशा में बढ़ते जाएंगे। आत्मानुभूति ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है। आत्मानुभूति का अर्थ है, ईश्वर की प्राप्ति और यह संपूर्ण प्राणी मात्र की सेवा से ही उपलब्ध हो सकता है। ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग है, उसे उसकी सृष्टि में अनुभव करना और तादात्म्य स्थापित करना। अतः आत्मानुभूति और समाजसेवा में अंतर नहीं है। इस प्रकार सर्वोदय में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं आध्यात्मिक आदि सभी उन्नति निहित है। साध्य से साधन की समस्या जुड़ी हुयी है, क्योंकि नैतिक साधनों से ही परम-साध्य की ओर बढ़ा जा सकता है। सर्वोदय साधन के औचित्य का आधार केवल साध्य को नहीं मानता। इसका मत है कि अनैतिक साधनों से नैतिक तथा आध्यात्मिक साध्य की प्राप्ति संभव नहीं हो सकती। अतः परम-साध्य को प्राप्त करने के लिए नैतिकता और अनुशासन की आवश्यकता है। गांधीजी ने इन अनुशासनों को 'व्रत' कहा और 'एकादश व्रतों' की अवधारणा प्रस्तुत की। जिसमें उन्होंने 'सत्य' को ईश्वर माना, 'अहिंसा' को सत्य के साक्षात्कार का मार्ग, 'ब्रम्हचर्य' को सत्य की खोज का आचरण, 'अस्वाद' को ब्रह्मचर्य में सहायक, 'अस्तेय' को दूसरों की वस्तु बिना इजाजत लेना, 'अपरिग्रह' को सच्चा सुख, संतोष एवं सेवाभक्ति बढ़ाने के साधन के रूप में स्वीकार किया। 'अभय' को सत्यपरायणता के लिए आवश्यक माना, 'अस्पृश्यता' को हिंदू धर्म के लिए कुष्ट-रोग माना, 'शारीरिक-श्रम' को स्वास्थ्य के लिए, 'समभाव' को समता स्थापित करने के लिए और 'स्वदेशी' को अपने आस-पास रहने वालों की सेवा में ओत-प्रोत हो जाने वाले व्रत के रूप में स्वीकार किया। इसमें 'सत्य' और 'अहिंसा' प्रमुख हैं, सर्वोदय को इन्हीं व्रतों के माध्यम से संभव बनाया जा सकता है।

सत्य और सर्वोदय जुड़े हुए हैं। सत्य का संबंध 'सत्' या सत्ता से है, जिसका अर्थ अस्तित्ववान होने से है। सत्य दो रूपों में अभिव्यक्त होता है, 'निरपेक्ष' या साध्य रूप और 'सापेक्ष' या साधन रूप। सत्य का साध्य रूप निरपेक्ष, सार्वभौम और देश-काल से परे है। सत्य ही ईश्वर है, इसमें समस्त ज्ञान सन्निहित है। दैहिक सीमाओं में रहते हुये इसका पूर्ण रूप से साक्षात्कार संभव नहीं है, परंतु इसकी ओर अग्रसर होने के लिए सापेक्षिक सत्य के मार्ग पर जीवन-यापन का प्रयत्न आवश्यक है।16 गांधीजी का मानना था कि सत्य केवल वाणी और विचार तक ही सीमित नहीं है, वरन कर्म से भी संबद्ध है, यह जीवन के किसी क्षेत्र विशेष से नहीं अपितु संपूर्ण मानव जीवन से संबद्ध है, अतः इसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि क्षेत्र स्वतः ही सम्मिलित हैं। 

सत्य के मार्ग पर बिना विचलित हुए चलना ही सत्याग्रह है। सत्याग्रह के द्वारा ही सामाजिक-आदर्श के निकट पहुंचा जा सकता है। सत्यता के साथ विनम्रता जुड़ी हुई है, इसलिए सत्य का दूसरा पहलू अहिंसा है। हिंसा असत्य है, क्योंकि यह मानवीय-स्वभाव के प्रतिकूल है। यदि हिंसा ही मानवीय-स्वभाव के अनुकूल होती तो इसके निराकरण का प्रयास क्यों होता ? अहिंसा के दो रूप हैं 'निषेधात्मक' और 'विधानात्मक' निषेधात्मक रूप में अहिंसा किसी को भी अपने मन, वचन एवं कर्म से कष्ट नहीं देना है। वहीं विधानात्मक रूप से अहिंसा प्रेम एवं साहचर्य है। यहां एक का दूसरे से विरोध जो हिंसा का उत्पादक है, समाप्त हो जाता है तथा प्रेम एवं साहचर्य से आध्यात्मिकता का बोध होता है।

गांधीजी ने निरपेक्ष अहिंसा तथा अनिवार्य हिंसा पर भी विचार किया है। निरपेक्ष अहिंसा का अर्थ है, हिंसा से पूर्ण रूप से मुक्ति अर्थात् अज्ञान पर आधारित दुर्भावना, क्रोध एवं घृणा आदि से छुटकारा और सब के प्रति विवेकपूर्ण प्रेम का बाहुल्य। परंतु यह पूर्णता की स्थिति है और इसे अपूर्ण मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकता। कोई भी मनुष्य हिंसा से पूर्णता मुक्त नहीं रह सकता। खाने-पीने, घूमने-फिरने जैसे कार्यों में अवश्य रूप से कुछ ना कुछ हिंसा होती है, पर यह अनिवार्य हिंसा है और विहित है। अनिवार्य हिंसा भी स्वाभाविक दया-पूर्ण तथा विवेकपूर्ण होनी चाहिए। कायरता और हिंसा में परस्पर विरोध है। दोनों साथ साथ नहीं रह सकते, कायरता और हिंसा में हिंसा वरणीय है।17 अहिंसा आत्मा की शक्ति है, हिंसा शरीर की। दोनों में अहिंसा श्रेष्ठ है, हिंसा जेय है, अहिंसा अजेय अतः अहिंसा की हिंसा पर विजय होती है। आत्मशक्ति के प्रयोग से हृदय-परिवर्तन द्वारा शांतिपूर्ण ढंग से सामाजिक परिवर्तन संभव है। इन्हीं परिवर्तनों के द्वारा सामाजिक आदर्श की ओर मानव समाज अग्रसर होता जाएगा। इसलिए सर्वोदय के लिए सत्य और अहिंसा को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है।

निष्कर्ष :

महात्मा गांधी द्वारा प्रतिपादित सर्वोदय भारतीयों के लिए ना कोई मौलिक विचार है और ना ही उन्होंने ऐसा कोई दावा किया है। उन्होंने मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसके महत्व को बताया और इसका समाजीकरण किया। वास्तव में उनका सर्वोदय संबंधी विचार, अद्वैत दर्शन को विचारों की धरातल से यथार्थता के धरातल पर उतारने का प्रयास है। जीवन का कोई भी क्षेत्र सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि कोई भी इससे अछूता नहीं है। मानव जीवन एक है, यह पृथक-पृथक टुकड़ों में बंटा हुआ नहीं है। अतः जीवन का कोई भी आदर्श ना किसी मानव विशेष का आदर्श हो सकता है और ना ही  जीवन के विभिन्न क्षेत्र विशेषों का। अतः सर्वोदय संपूर्ण मानव समाज का आदर्श है। आदर्श समाज के विचार के रूप में सर्वोदय-विचार से किसी की भी असहमति नहीं हो सकती, क्योंकि 'सबके उदय' में स्वार्थ और परार्थ, तथा 'सब प्रकार से उदय' में भौतिकता और आध्यात्मिकता आदि सब शामिल है।

वास्तव में सर्वोदय का विचार व्यवहारिक अद्वैत-तत्व-दर्शन है, जो व्यक्ति के स्थान पर सामाजिक मोक्ष की अवधारणा प्रस्तुत करता है। परंतु धरातल पर यह कुछ व्यक्तियों के व्यवहार तक ही सीमित रह जाता है। इसलिए गांधीजी और उनके शिष्यों के प्रयास के बावजूद सर्वोदय की दिशा में समाज की प्रगति न्यून ही दृष्टिगोचर होती है। व्यक्तिगत रूप से इसे प्रोत्साहित करने वाले और आचरण में लाने वाले कुछ मनीषी तो धरती पर सदा से ही विद्यमान रहे हैं, परंतु समाज कब और कैसे इसे अपने आचरण में लाएगा यह विचारणीय है। आदर्श के रूप में या जीवन के परम मूल्य के रूप में सर्वोदय न्यायसंगत और बुद्धिसंगत दोनों है, और इस दिशा में बढ़ने का प्रयास भी प्रगति ही है, जैसा कि इसके प्रणेताओं का अभिप्राय रहा है।

संदर्भ:

  1. महात्मा गांधी: यंग इंडिया, 04 दिसम्बर,1924, पृ.398
  2. राम जी सिंह :गांधी दर्शन मीमांसा, बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी, पटना, 1973, पृ.41-59
  3. वही,पृ.41-59
  4. दादा धर्माधिकारी :सर्वोदय दर्शन, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी, 1958,पृ.5
  5. " संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।

       ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।"

                                 (श्रीमद्भगवतगीता: 12, 4)     

  1. महात्मा गांधी :सर्वोदय, नवजीवन प्रकाशन, अहमदाबाद, 1958, पृ.3
  2. वही,पृ.3
  3. दादा धर्माधिकारी :सर्वोदय दर्शन, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी,1958,पृ.52
  4. दादा धर्माधिकारी:सर्वोदय दर्शन, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी,1958, पृ.49
  5. दादा धर्माधिकारी:सर्वोदय दर्शन, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी, 1958, पृ.59
  6. वही,पृ.59
  7. महात्मा गांधी: हरिजन, 14 मई,1938,  पृ.109
  8. गोपीनाथ धवन: सर्वोदय तत्व-दर्शन, नवजीवन प्रकाशन, अहमदाबाद, 1963,  पृ.35
  9. महात्मा गांधी:यंग इंडिया, जनवरी, 1919, पृ.81
  10. महात्मा गांधी:हरिजन, 14 अक्टूबर,1939,  पृ.303
  11. महात्मा गांधी:हरिजन, 25 मई,1935, पृ.114
  12. महात्मा गांधी: हरिजन, 04 नवम्बर,1939,  पृ.331 


त्रिपुरारी उपाध्याय

शोध-छात्र (दर्शनशास्त्र)

डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (.प्र.)- 470003

ttripurariupadhyay@gmail.com 

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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