शोध आलेख : नागार्जुन के उपन्यासों में सांस्कृतिक मूल्य / रोशन लाल एवं डॉ. कामराज सिन्धू

 शोध आलेख : नागार्जुन के उपन्यासों में सांस्कृतिक मूल्य

- रोशन लाल एवं डॉ. कामराज सिन्धू

 

शोध सार : मानव जीवन को सुचारू एवं समृद्ध बनाने के लिए जिन आचार-विचारों का पालन तथा सृजन करना होता है, वे सब संस्कृति के अन्तर्गत आते हैं। संस्कृति समाज के नियमों, प्रतिमानों तथा आदर्शो, मान्यताओं एवं मूल्यों को अपने में समाहित करती हुई युगानुरूप सामाजिक परिवर्तनों में मुड़ती हुई निरन्तर प्रवाहित रहतीहै। सांस्कृतिक मूल्यों का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण मानवी जीवन होने के कारण ये मानवीय मूल्यों के पर्यायवाची बन जाते हैं। सांस्कृतिक मूल्य वे हैं जो विश्वासों, भाषाओं, रीति-रिवाजों, प्रथाएं, आचार-व्यवहार, रहन-सहन और रिश्तों के समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं जो समाज या लोगों के समूह की पहचान करते हैं। किसी भी समाज, समुदाय या जातीय समूह की सांस्कृतिक विरासत को सांस्कृतिक मूल्यों में संकलित किया जाता है, इसलिए वे प्रत्येक सामाजिक समूह में भिन्न और अनन्य हैं।

 

बीज शब्द : सृजन, पर्यायवाची, इमली, वेश-भूषा, आनन्दानुभूति, यथार्थवादी, प्रासंगिक।

 

मूल आलेख : संस्कृति को बचाए रखना समाज पर निर्भर है। समाज जितना सभ्य होगा, उसकी संस्कृति उतनी ही सभ्य होगी क्योंकि संस्कृति ही समाज की आत्मा और उसका व्यक्तित्व होती है। अतः जिस समाज के लोग चरित्रवान, धार्मिक, नैतिक आदि से सम्पन्न होंगे उनके सांस्कृतिक मूल्य भी महान् होंगे। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, "सांस्कृतिक मूल्यों से अभिप्राय उन तत्त्वों से है जो सत्य के साधन और सिद्धि में सहायक होते हैं, जीवन की सौन्दर्य चेतना को जागृत एवं विकसित करते हैं।"1

 

पुनीत और पावन लोक संस्कृति की मनोरम झाँकी के साथ ही वहाँ के समाज और जीवन विधि का यथार्थ रूपायन ही सांस्कृतिक अन्वेषण का मुख्य आधार है। वर्तमान समय में प्रदर्शन, कृत्रिमता, आडम्बर, अपरिचयपन हमारे संस्कार के अंग बन गए हैं। इसी कारण ही नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में सांस्कृतिक विशिष्टता को पुनः जीवित करने का सार्थक प्रयास किया है। यह हमारी संस्कृति ही है कि जब भी कोई घर से बाहर जाता है या घर आता है तो सभी के पाँव छूए जाते हैं बड़ों का आशीर्वाद लेना शुभ समझा जाता है और विदाई के समय अपने ईष्ट संबंधी को जाकर प्रणाम किया जाता है ताकि वह जिस उद्देश्य से जा रहा है उसमें वह सफल रहे। संस्कृति शब्द का अर्थ संस्कारों से है। राष्ट्र का आधार उसकी संस्कृति ही होती है। संस्कृति और मूल्य दोनों का सम्बध मनुष्य से है। समाज में सांस्कृतिक मूल्यों का अपना ही महत्त्व और स्थान है। सांस्कृतिक मूल्य ही एक ऐसी कसौटी है जिस पर सत्य, शिव और सुन्दर से युक्त मानवीय कर्मो की समाज सापेक्षकता को परखा जाता है और वांछनीय तत्त्वों को ग्रहण योग्य तथा शेष को त्याज्य माना जाता है। ये सांस्कृतिक मूल्य मानव जीवन के श्रेय और प्रेय के जनक, संरक्षक और संवर्धक है। विचार और धारणाओं के रूप में तथा परम्परागत रूप में चले रहे रीति-रिवाज, पर्वोत्सव, प्रथाओं तथा लोकजीवन के भिन्न-भिन्न रूपरंगों के सन्दर्भ में सांस्कृतिक मूल्य, मान्यताएं, धारणाएं व्यक्तिगत नहीं, अपितु सामाजिक आवश्यकताएं हैं और एक नागरिक के रूप में ये सभी के पास होनी चाहिए। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, "सुन्दर से सुन्दर फूल यह दावा नहीं कर सकता कि वह पेड़ से भिन्न होने के कारण उससे भिन्न है और कोई भी पेड़ यह दावा नहीं कर सकता कि वह मिट्टी से भिन्न होने के कारण एकदम उससे विच्छिन है।"2  इसी तरह कोई भी आधुनिक विचार यह दावा नहीं कर सकता कि वह परम्परा से या अपनी संस्कृति से एकदम कटा हुआ है। हमारी संस्कृति ही हमें अन्य देशों की संस्कृतियों से अलग करती है। नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में सांस्कृतिक मूल्यों को अभिव्यक्त किया है। इन मूल्यों के अन्तर्गत सदाचार, देशभक्ति, बलिदान, रीति-रिवाज, प्रथाएं, रहन-सहन, आचार-व्यवहार, परिधान एवं वेशभूषा, लोक-गीत, संगीत, गायन बोली, भाषा आदि का विस्तृत वर्णन भी मिलता है।

 

सदाचार - समाज प्रत्येक व्यक्ति से अच्छे आचरण की अपेक्षा रखता है। यदि समाज में सभी अच्छे आचरण का पालन करेंगे तो यह समाज और देश के लिए अच्छा होगा। हमारी संस्कृति सदाचारपूर्ण व्यवहार के लिए जानी जाती है। सदाचार, यदि इसे भारतीय तत्त्व ज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो मनुष्य के जीवन में उन आध्यात्मिक-व्यवहारों का मौलिक स्परूप है जिससे विश्व धर्म या लोक धर्म की मर्यादा का प्रतिष्ठापन होता है। यह समझना हमारी भूल होगी कि सदाचार मनुष्य के किसी ऐसे समय की विचार शृंखला है, जबकि मानव क्षेत्र परिमित-विज्ञान होने के कारण आदर्शवाद की ओर ही जा रहा था। अतः यह प्रत्यक्ष सिद्ध होता है कि सदाचार ही सत्य आचरण है।

 

रीति-रिवाज - रीति-रिवाज और परम्पराएं भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग होते हैं। कोई भी संस्कृति उसके रीति-रिवाजों से ही जानी जाती है। जिनका विकास समूह में सामाजिक जीवन की समस्याओं का समाधान करने के लिए स्वयं हो जाता है। समनर के अनुसार, "रीतियाँ अनेक व्यक्तियों द्वारा छोटे-छोटे कार्यो की बहुधा पुनरावृत्ति है जो मिलकर कार्य करते हैं।"3  नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में मिथिला जनपद के जीवन का सजीव चित्रण किया है। उन्होंने मिथिला के जन-जीवन को बड़ी गहराई के साथ महसूस किया है रीति-रिवाज एक सांस्कृतिक मूल्य है। नागार्जुन नेरतिनाथ की चाचीउपन्यास में कुछ ऐसे रीति-रिवाजों और परम्पराओं का चित्रण किया है। "स्त्रियाँ अपने दामाद से हल्का-सा पर्दा करती है और जयनाथ ठहरे यहाँ दामाद के छोटे भाई साहब।"4  ‘वरूण के बेटेमें माधुरी का विवाह और रीति-रिवाज वैसे ही वर्णित हुए हैं जैसे कि भारतीय संस्कृति में उनका वर्णन है। माधुरी रोना शुरू कर चुकी है .... सुकुती बुआ भी जाती है.... जो जितिया बुआ, अब पुदीना और इमली की चट्टनी मुझे कौन खिलाएगी ---ई। इस प्रकार विभिन्न बातें करते हुए विवाह अवसर पर रोने का चित्रण है।

 

"वर-वधू एक ही डोली में बैठकर घर के आंगन में प्रवेश करते हैं, वधू को वर द्वारा प्रथम मिलन के अवसर परमुंह दिखाईकी रस्म के मुताबिक भेंट देने का रिवाज भी है।"5  इस प्रकाररतिनाथ की चाचीमें विवाह संबंधी रिवाजों का बहुत ही खूबसूरती का वर्णन हुआ है। जब उमानाथ की शादी कमलमुखी से तय होती है तो शादी संबंधी सभी रिवाज देखने को मिलते हैं। शादी के समय गांव वालों का दूल्हे को उत्सुकता से देखना और उसके बारे में राय देना प्रायः देखा जाता है।

 

वेशभूषा, रहन-सहन - वेशभूषा, रहन-सहन और आचार-विचार ये सब भारतीय संस्कृति के पहलू है। वर्गों के आधार पर ही संस्कृति की झलक दिखाई देती है। जो जिस वर्ग के अन्तर्गत आता है, उसका रहन-सहन, खान-पान भी उसी के अनुसार होता है। नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में गांव में खेती करने वाले लोगों का पहनावा, रहन-सहन, खान-पान का जींवत चित्रण किया है। पात्रों की वेशभूषा से ही उनकी संस्कृति झलकती है। नागार्जुन नेबलचनमा’ उपन्यास में उस समय की स्त्रियों के पहनावे का वर्णन किया है और किस प्रकार के गहने-आभूषण पहनती थी। "दोनों बाहों पर बांसुरी बजाते हुए बांके बिहारी कृष्ण गोदे हुए थे। ठोड़ी पर बायीं और तिल गोदा हुआ था, कपार पर बिन्दी... पैर खाली थे। हाँ, उन पर पीपल के पत्ते की शक्ल का गोदना गोदवा रखा था, चौड़े पाट की साफ साड़ी पहनकर जब वह बाहर निकलती, तो और भी खूबसूरत लगती।"6  इसी तरह मिथिला जनपद के लोगों का रहन-सहन, पहनावा उस समय की संस्कृति को दर्शाता है।

 

नागार्जुन जी ने अपने उपन्यासों में मिथिलांचल के त्यौहारों, पर्व-तीज, भैया-दूज, दीवाली आदि का वर्णन भी किया है। कार्तिक शुक्ल द्वितीया मिथिला के लोगों के लिए विशेष तिथि है, क्योंकि इस दिन भाई-बहन का पर्व होता है।रतिनाथ की चाचीमें उमानाथ के लिए यह त्योहार बचपन से आनन्द और उत्सव का दिन रहा है। प्रतिभामा की शादी हो जाने के बाद वह प्रतिवर्ष अपने भाई को इस त्योहार के अवसर पर बुलाती है। इसी प्रकारपारोउपन्यास में मधुश्रावणी और तीज को त्योहार भी हर्षोलास के साथ मनाया जाता है। "दीवाली मिथिला जनपद में सामान्य ढंग से ही मनाई जाती है। ये सभी त्योहार हमारे आपसी प्रेम-भाव को दर्शाते हैं।नई पौध’ उपन्यास में तीज के त्योहार परस्त्रियाँ गीत गाती है तथा चौपड़ के समान ही एक खेल खेलते हैं जिसेपचीसीकहते हैं।"7 इस प्रकार नागार्जुन के समस्त उपन्यासों में विभिन्न प्रकार के पर्व त्योहारों के माध्यम से भारतीय जन-मानस किस प्रकार प्रेम, उमंग, उल्लास, सहयोग, समभाव की भावना से मिल-जुलकर त्योहार मनाते है।

 

लोक कलाओं का निरूपण - वैदिक काल से हमारे समाज में लोक कलाओं का निरूपण होता रहा है, जैसे- नाट्यकला, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीतकला आदि। वैदिक साहित्य में चौसठ कलाओं का वर्णन मिलता है। ये मानव के बौद्धिक विकास और आनन्दानुभूति के लिए बहुत ही अनिवार्य है। इनके द्वारा हमारी अनेक मान्यताएं जिनमें सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक मान्यताएं शामिल है जिनसे उनका प्रकटीकरण हुआ है  तथा हमारी संस्कृति को विशिष्टता प्राप्त हुई है। भाषा अर्थात् बोली संस्कृति का एक अनिवार्य अंग है। भाषा ने ही मानव को जंगली अवस्था से संस्कृति के उच्च स्तर पर पहुंचाया है। भाषा संस्कृति के प्रचार-प्रसार में सहायक सिद्ध होती है, क्योंकि यही संस्कृति एवं सभ्यता को सुरक्षित रखकर इन्हें भावी पीढ़ियों तक पहुंचाती है। इसी तरह चित्रकला, मूर्तिकला भी हमारी संस्कृति को उजागर करती है।

 

यद्यपि कोई भी संस्कृति अपने मूल्यों से ही बड़ी होती है चाहे वे सामाजिक मूल्य हो या सांस्कृतिक। लेकिन उस समय की सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियाँ काफी जटिल थी नागार्जुन का यह सतत् प्रयास रहा है कि समाज में भेदभाव, जाति-पाति की भावना सदा के लिए मिट जाए। वे जनवादी लेखक थे उनके कथा-साहित्य में जहां सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा हुई है।

 

लोक-गीत - भारतीय संस्कृति में लोक-गीतों का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। लोकगीतों से ही किसी अंचल विशेष की पहचान होती है। लोक-गीतों को सामूहिक रूप में गाने से आपसी-प्रेम की भावना का विकास होता है। लोक-गीत समाज की धरोहर ही नहीं बल्कि लोक-जीवन का दर्पण भी है। नागार्जुन के उपन्यासों में अनेक स्थलों पर मिथिलांचल के लोक-गीतों का सुन्दर चित्रण मिलता है।बाबा बटेसरनाथमें वटवृक्ष सहलेस दुसाधों के वीर पुरुष की कथा गीत द्वारा जयकिसुन को सुनाता है।

"उमर बीत गयी, बाल पकने लग गये

पिछले बारह वर्षो से....

निठुर मेरा दुसाध...

राजा सहलेस प्रीतम मेरे "8

वरूण के बेटेमें चुल्हाई मच्छली पकड़ते हुए यह गीत गाता है।

कबहूँ पकड़ में आवे मछलिया!

जुल्मी मछरिया चलबल मछलिया!

कुइयाँ में डुबकी लगावे मछरिया

जुल्मी मछरिया!!"9

 

इसी तरह भोला और खुरखुन जब शराब पीते हैं तब भी वे पीले, पिला दे। मरों को जिला दे। गीत गाते हैं तथा फिर वहीं परकमला-मैयाका वंदना गीत... कोयला देवता, कमला नदी के बीच, तैयार हो गया है बांध, तुमने उस बांध फुलवाड़ी लगादी है।

अजी,  किस फूल की ओढ़ती है ओढ़नी?

किस फूल को बनाती परिधान कमला मैया?10

 

बलचनमा उपन्यास में भी मैथिली भाषा में कुछ गीतों का वर्णन भी मिलता है। "सखि हे, मजरल आमक बाग, कुहू-कुह चिकरए कोइलिया, झींगुर गावए फाग! कंत हमर परदेश बसइ छथि। बिसरी राग अनुराग! सखि हे,  मजरल आमक बाग!!"11

 

इस प्रकार नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में लोक-जीवन के विभिन्न रूपों का यथार्थवादी चित्रण किया। लोक भाषा के माध्यम से जो पात्र जिस क्षेत्र का है उसमें अपनी भाषा की झलक दिखाई देती है। नागार्जुन ने प्रांतीय भाषाओं और उनकी संस्कृति को अनुकूल सम्मान दिया है। उनके साहित्य में मिथिला अंचल की सारी संस्कृति-उनके रीति-रिवाज, रहन-सहन, पहनावा, लोक-गीत, प्रथाएँ सभी को अभिव्यक्त किया है।

 

मनौतियाँ - गाँव में सभी लोग जीवन में शुभ कार्यो के लिए मनौतियाँ मानते हैं; जैसे- पारिवारिक सुख, विवाह, सन्तान प्राप्ति, प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा, उत्पादन में वृद्धि तथा परीक्षाओं में यश प्राप्ति के लिए मनौतियाँ मानते हैं। मनौती के फल की इच्छा के अनुसार देवी-देवताओं की पूजा, भागवत की कथा, जागरण, बलि एवं सत्यनारायण की कथा आदि का भी आयोजन किया जाता है। नागार्जुन ने मनौतियाँ मानने वाले तथा इच्छित फल मिलने पर देवी-देवता को प्रसन्न रखने के लिए किए जाने वाले आयोजनों का यथार्थ अंकन किया है। इच्छा के अनुसार परिणाम मिलने पर गाँव के सभी लोग सामूहिक रूप से अपने इष्ट देवता की पूजा-अर्चना किया करते हैं, जिसकी सुन्दर झलकबाबा बटेसरनाथउपन्यास में मिलती है।

 

"किसी के घर कोई शुभ-कार्य होता तो वहां आकर पाठक बाबा का पूजन कर लोग मनोरथ पूर्ण होने पर धूमधाम से मनौतियाँ चढ़ाते, रेशम की झूले, कोढिला के बने सिरमौर और मंडप, जरी-गोटे की मालाएं, पीतल-कांसे की घड़ियां, लाला इकरंगे का टूकड़ा, धूप-दीप, फूल-फल, अच्छत-दूध, दूब और गंगाजल, बेल और तुलसी के पत्ते...फर-फरहारी मिठाईयाँ, ढोल-ढाक-पिपही बारह महीने में बीस-पचीस बकरे भी बलि चढ़ाते थे।"12

 

अंधविश्वास -ज्ञान-विज्ञान की प्रगति के कारण चिकित्सा के क्षेत्र में एक नयी क्रांति का निर्माण हुआ। चिकित्सा पद्धति के कारण सभी असाध्य बिमारियों का इलाज संभव हो पाया है। इसके बावजूद गाँव में आज भी लोग जादू-टोनों में विश्वास रखते हैं। "घरों में झाड़-फूंक करने वाले तांत्रिकों पर विश्वास किया जाता है। गाँव के लोगों का मानना है कि भूत-प्रेत, जादू-टोनों तथा भ्रम आदि का उपचार किसी वैज्ञानिक पद्धति द्वारा नहीं बल्कि किसी सिद्ध महापुरुष द्वारा ही इलाज संभव है। अज्ञानता और अशिक्षा के कारण आज भी इन औघड़ बाबाओं के जाल में फंस जाते हैं। जहां कहीं भूत-प्रेत का उपद्रव उठ खड़ा होता वहीं इन औघड़-ढोंगी बाबाओं की गुहार होती है। उस सिद्ध पुरुष के पहुंचते ही आधी गड़बड़ ठीक हो जाती है, जटाधारी औघड़ जोरों से चिमटा पकड़कर जबओम.... अलख निरंजन’ भाग साले को ऊँची आवाज में बोलता तो बाकी खुराफत भी खत्म हो जाती है।"13

 

"इसी कामना-पूर्ति के लिए देवी-देवता का फूल अन्दर डालकर लोग बड़े जतन से जंतर मढ़वाते तांबे का, चाँदी का, सोने का, अष्टधातु का वे उसे बांह में, गले में, कमर में बाँधते ताकि हमेशा शरीर से लगा रहे।"14

 

प्रकृति चित्रण - नागार्जुन के उपन्यासों में बिहार के मिथिलांचल और दरभंगा का प्राकृतिक सौन्दर्य पूर्ण समग्रता के साथ चित्रित हुआ है। नागार्जुन के उपन्यासबलचनमामें भी प्रकृति-चित्रण का सौन्दर्य झलकता है- "धान की पक्की पीली फसलों में समूचा बांध ऐसा बुझाता था, मानों सुनहली मिट्टी से पुता हुआ भरा मैदान हो। मेड़ों की चौकोर लकीरें धान के शीशों से ढकी पड़ी थी। सारे खेत में अन्नपूर्णा भवानी के आशीर्वाद पकी फसलों की शक्ल में छाए हुए थे लोगों की खुशी का ओर था छोर। सभी के मुँह पर मुस्कान, सभी की आँखों में कामयाबी की झलक, जिनकी अपनी फसलें थी, वे सभी खुश थे, जिनके नहीं थी, वे भी खुश थे गिरहथ, बनिहार, कल्लरा, भिखमंगा सभी के चेहरों पर आशा की रौनक थी। फसल हुई है तो मजदूरी भी मिलेगी, बनिहारी भी।"15

 

निष्कर्ष : अतः नागार्जुन के उपन्यासों में मिथिला अंचल की सम्पूर्ण संस्कृति उनके रीति-रिवाज, रहन-सहन, वेश-भूषा, लोकगीत, आदि का सफल चित्रण मिलता है। भारतीय जनमानस में व्याप्त विवाह के संबंध में विभिन्न प्रकार के रीति-रिवाजों के अनुसार वधू की मांग में सिंदूर भरना, मुंह दिखाई की रस्म आदि के साथ-साथ ही पर्व-त्योहारों का वर्णन करते हुए सामूहिक भावना का सजीव चित्रण भी दिखाई देता है। नागार्जुन के साहित्य का सबसे प्रमुख और महत्त्वपूर्ण मूल्य उनकी मानवतावादी दृष्टि है। नागार्जुन ने जिन मूल्यों के लिए आवाज उठाई है, वह आज भी प्रासंगिक है। नागार्जुन के साहित्य में मानवीय मूल्यों के प्रति सच्ची तड़प दिखाई देती है। मानवीय मूल्यों में उनकी गहरी निष्ठा है। उनका सम्पूर्ण साहित्य मानवीय आस्थाओं का जीवंत दस्तावेज है, उन्होंने मानव जीवन के समस्त पहलुओं पर प्रकाश डाला है।

 

सन्दर्भ :

1.    डॉ. नगेन्द्र, नयी समीक्षा, नये सन्दर्भ, नेशनल पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-1974, पृ. 79

2.    डॉ. मुकुन्द द्विवेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, ग्रन्थावली, भाग-9, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 362

3.    समनर, फोक्वेयज, पृ. 34

4.    नागार्जुन, रतिनाथ की चाची, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2009, पृ. 18

5.    नागार्जुन, नई पौध, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण-2007, पृ. 78

6.    नागार्जुन, बलचनमा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1997, पृ. 17

7.    नागार्जुन, नई पौध, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण-2007, पृ. 104

8.    नागार्जुन, बाबा बटेसरनाथ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पाँचवा संस्करण-2011, पृ. 35-36

9.    नागार्जुन, वरूण के बेटे, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2008, पृ. 23

10. वही, पृ. 53

11. नागार्जुन, बलचनमा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-1997, पृ. 51

12. नागार्जुन, बाबा बटेसरनाथ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण-1985, पृ. 68-69

13. वही, पृष्ठ 75

14. नागार्जुन, नई पौध, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण-2007, पृ. 39

15. नागार्जुन, बलचनमा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1997, पृ. 102

 

रोशन लाल  

शोधार्थी, हिन्दी विभाग कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय

 

निर्देशक

डॉ. कामराज सिन्धूअध्यक्ष हिन्दी विभाग

दूरवर्ती शिक्षा निदेशालय, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र


 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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