शोध आलेख : कोरोना काल में सोशल मीडिया और युद्धरत स्त्री : शोर्ट फिल्मों के सन्दर्भ में / डॉ.रक्षा गीता

कोरोना काल में सोशल मीडिया और युद्धरत स्त्री : शोर्ट फिल्मों के सन्दर्भ में

-डॉरक्षा गीता


शोध सारांशप्रस्तुत शोधालेख कोरोना काल में सोशल मीडिया (यूट्यूब) पर प्रसारित होने वाली फिल्मों के माध्यम से स्त्री-संघर्ष और उसके यथार्थ को प्रस्तुत करने का प्रयास है| इक्कीसवीं सदी में जबकि स्त्री पुरुष के कंधे से कन्धा मिलाकर आगे बढ़ रही थी, कोरोना ने उसके विकास को पुन: अवरुद्ध-सा कर दिया, आज वो दोहरे-तीहरेसंघर्ष झेलती हुई योद्धा की भांति युद्धरत है| यूट्यूब पर प्रसारित होने वालीस्त्री केन्द्रित शोर्ट फ़िल्मेंस्त्री संघर्ष और पितृसत्तात्मक समाज की मानसिकता को हमारे सामने बहुत ही सरलता और सहजता के साथ प्रस्तुत करती हैं| उस पर कामकाजी स्त्रियों का दोहरा संघर्ष और शोषण का यथार्थ फिल्मों में प्रकट होता है|     

 बीज शब्द : महामारी और कोविड-19, सोशल मीडिया, शोर्ट-मूवी, विमर्श, स्त्री-विमर्श, गृहकार्य की संकल्पना, कार्यालयी कार्य, कोरोनाकाल, युद्धरत स्त्री

 मूल आलेखकोरोना महामारी में सोशल मीडिया पर प्रसारित शोर्ट फिल्मों में स्त्रियों की दशा को अत्यंत संवेदनशीलता से दर्शाया गया है ‘COVID -19, सोशल मीडिया/डिजिटल क्षेत्र और युद्धरत स्त्री शोध इन्हीं फिल्मों के माध्यम से कोरोना काल में घर और बार दोनों मोर्चों पर युद्धरत स्त्री की स्थिति, परिस्थिति का अध्ययन करने का प्रयास है| लॉकडाउन के बाद यदि घर में किसी प्राणी को सर्वाधिक संघर्ष करना पड़ रहा है तो वो स्त्री ही है वर्क फ्रॉम होमकी संस्कृति ने पुरुषों को यदि और भी आराम-परस्त बना दिया तो बच्चों को अकर्मण्य| कामकाजी महिला जो घरेलू सहायिका पर निर्भर थी अब उस सेवा से भी वंचित हो गई आज वह घर और बाहर दोनों मोर्चों पर युद्धरत है| स्त्री-विमर्श स्त्री-सशक्तिकरण जिस समानाधिकारों पर विचार करता रहा है वे भी खोखली नजर आने लगी थीं ऐसे में कोरोना काल में प्रदर्शित कुछ शोर्ट फ़िल्में हमें उनके कहे-अनकहे संघर्षों से परिचित करवातीं हैं

 महामारी और कोविड-19 -  जब संक्रामक रोग तेज़ी से फैलतें हैं तो मृत्यु-दर भी तेज़ी से बढ़ती है, रोकथाम के इंतजाम साधन-संसाधन कम पड़ते जाते है, जान-माल के खतरे बढ़ते जाते हैं तब उसे महामारी घोषित किया जाता है| मानव इतिहास ने विविध महामारियों इन्फ्लुएंजा, तपेदिक, प्लेग(ब्लैक डेथ), हैजा, चेचक आदि के प्रकोप झेले| इसी भयंकर श्रृंखला में 12 मार्च 2020 को WHO (विश्व स्वास्थ्य संगठन) ने कोरोनावायरस को वैश्विक महामारी घोषित किया| जिसने पूरे विश्व को एक झटके में बदल कर रख दिया| इससे जन, मन, धन की जो क्षति हुई है उसका असर सालों तक रहने वाला है| जब बात करतें है स्त्री की, तो पाते हैं कि उस पर इस का जैसा सामाजिक, शारीरिक, मानसिक दुष्प्रभाव हुआ है उसने उसे पुन: पृष्ठभूमि में धकेल दिया, जिस पर अलग से चिंतन अनिवार्य है, क्योंकि हम जानते हैं कि पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर आधी आबादी के इस स्त्रीवर्ग को हमेशा चुप रहकर सहने की ट्रेनिंग दी जाती रही है|

 

सोशल मीडिया - सोशल मीडिया अथवा डिजिटल सामाजिक-माध्यमभावों विचारों के सम्प्रेषण   संचार का एक ऐसा सशक्त प्रकार है जहाँ हम बिना किसी रोक-टोक के अभिव्यक्ति कर सकतें है| जहाँ पहले मीडिया पर कुछेक वर्ग का आधिपत्य था जो एकतरफा संवाद था, सोशल मीडिया ने उसे समाज के प्रत्येक वर्ग से जोड़कर अभिव्यक्ति का स्वतंत्र अधिकार दिया अपने पक्ष रखने तथा प्रतिरोध करने की सुविधा दी| यद्यपि सोशल मीडिया को आभासी दुनिया माना जाता है| फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम यूट्यूब जैसे अति सक्रिय प्लेटफार्म पल-पल बदलती जिंदगी को अपडेट करने के सशक्त पैमाने बनकर उभरे हैं। इस आभासी दुनिया में सफलता का पैमाना लाइक्स, शेयर और कमेंट हैं| कोरोनाकाल में लॉक- डाउन की विवशता में सोशल मीडिया की मांग और भूमिका और भी मजबूत हुई है| घर की चारदीवारी की कैद को सोशल मीडिया के साथ-साथ समाज के अन्य वर्गों पुरुष, बच्चें, बूढ़े सभी ने महसूस किया जिसे स्त्री सदियों से झेलती रही थी| लेकिन विडंबना है कि इस छटपटाहट को वे स्त्री से जोड़कर महसूस कर सके उन्होंने सिर्फ अपनी कैद का अनुभव किया और अपना सारा क्रोध, अवसाद, चिडचिडाहट उसने  स्त्री पर ही निकाला, घरेलू हिंसा की खबरें जोर पकड़ने लगी हैं| स्त्री अस्तित्व और आत्मसम्मान के विषय को सोशल मीडिया ने मुखरता से स्थान दिया, अब तक स्त्री के मौनको महिमामंडित करने वाले समाज पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए स्त्री मन की अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण साधन बन चुका है|       

 यूट्यूबकी शोर्ट-मूवीज़ - सोशल मीडिया के सन्दर्भ मेंयूट्यूबकी लघु फिल्मों की बात करें तो हम पाते हैं कि 5-6 मिनट से लेकर 22-23 या अधिकतम आधे घंटे की इन फिल्मों में गजब का गुरुत्वाकर्षण है| जिनमें स्त्रीमन की अतल गहराइयों में उतरकर पूरी जांच पड़ताल की गई है, जो वास्तव में हमारी चेतना को झकझोरती हैं, संवेदनाओं को कुरेदती और आंदोलित करती हैं जिसमें स्त्री अपनी स्थितियों, छोटे-छोटे पक्षों को पूरी गंभीरता से सूक्ष्म विश्लेषण करतीं हैं और हमारे मन को आंदोलित करती हैं दर्शक को अपने घरों की स्त्री के विषय में पुनः सोचने पर विवश करती हैं| जिसका प्रमाण है कुल व्यू और फिल्म के अंत के कमेंट बॉक्स के कमेंट जहाँ केवल स्त्री अपितु पुरुष भी अपने अब तक के व्यवहार और मानसिकता पर ग्लानि प्रकट करते हैं| कोरोना काल में भी स्त्री केन्द्रित ये लघु फ़िल्में स्त्री की नवीन और जटिल समस्याओं को प्रस्तुत करती हैं| घर-परिवार में आजीवन अपनी फ्री सेवाएं देती आम भारतीय नारी मन की आकांक्षाओं, स्वप्नों तथा संकल्पनाओं को ये लघु फ़िल्में अभिव्यक्ति देती हैं| भारतीय समाज के हर वर्ग, जाति, धर्म, आयु का प्रतिनिधित्व करने वाली ये स्त्रियाँ आपके मन को बेचैन करती हैं और विमर्शों की राजनीति से परे हमें सहज ही मानवीयता की सीख दे जाती हैं|

 स्त्री-विमर्श - विमर्श का अर्थ...परामर्श, परीक्षा, चिंतन, उलट पलट, तबियत, चर्चा, जांच, परख धड़कनों पर पक्ष विपक्ष सोच विचार सोच समझ विचारणा आदि|1 रामचंद्र वर्मा के अनुसार सोच-विचार करना, किसी बात या विषय पर कुछ सोचना समझना, विचार करना, गुण दोष आदि की आलोचना या मीमांसा करना, वास्तविकता सोच विचार कर तथ्य या वास्तविकता का पता लगाना|2 अत: किसी विषय पर चिंतन मनन सोच-विचार बहस वाद-विवाद, गुणदोषों आदि आलोचना मीमांसा करना विमर्श है| स्त्री विमर्श ने विश्व चिंतन में नई उत्तेजक बहस आरम्भ की है, जो पितृसत्तात्मक मान्यताओं पर पुनः सोचने को विवश करता है, उन पर सवालिया निशान लगाता है कि आखिर क्यों स्त्रियाँ अपने ही जीवन से जुड़े प्रश्नों को नहीं उठा पाती, क्यों उनकी चेतना को सुप्त कर उसे पितृसत्तात्मक सांचे में अनुकूलित, अनुशासित नियंत्रित कर निर्जीव मान लिया जाता है?  “नारीवाद एक स्वस्थ दृष्टिकोण है जो एकांगी नहीं यह पुरुषों का नहीं उसकी मानवीयता घटाने वाले छद्म मुखौटे का प्रतिकार करता है जो मर्दानगी के नाम पर रखा गया है जिसके पीछे झूठ और परम्परागत मान्यता और उत्पीड़न प्रवृत्ति के अलावा कुछ भी नहीं| नारीवाद पुरुष विरोधी झंडा लेकर आगे चलने वाला नकारात्मक आंदोलन नहीं बल्कि एक स्वस्थ मानवीय दृष्टिकोण है|3 स्त्री विमर्श के समान्तर स्त्री केन्द्रित यूट्यूब की लघु फ़िल्में वस्तुत: स्त्री-विमर्श पर प्रश्नचिन्ह लगाने वालों को तथा उसे नकारात्मक स्वरुप देने वालों के लिए भी एक बेहतर जवाब है जो स्त्रियों के यथार्थ जीवन को ईमानदारी से प्रस्तुत करते हुए, पुरुषों की संकुचित मानसिकता पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण कि पोल खोलता है|

 

गृहकार्य घरेलुकाम की संकल्पना - हमारे समाज में बचपन से ही घर और बाहर के कार्यों के मोर्चे बटे हुए हैं जहाँ तक रसोई की बात है वहघरके साथ इसलिए ही संधि हुआ है की स्त्री का अधिकतम समय यहीं व्यतीत होता है क्या यह विडंबना नहीं कि अन्नपूर्णा होते हुए भी इस घरेलू देवी को सबसे बाद में भोग लगता है वो भी स्वयं, कई दफ़ा बचा हुआ| ‘घर की मुर्गीनामक लघु फ़िल्म संस्कार परम्परा और पारिवारिक खूँटें में बंधी छटपटाहट को व्यक्त कर रही है तो OTT प्लेटफार्म पर प्रदर्शित मलयालम फिल्मग्रेट इंडियन किचनभारतीय पुरुषों की आरामपरस्त मानसिकता की पोल खोलती है| हम सोशल मीडिया की उन तस्वीरों को कैसे भूल सकते हैं जिसमे तरह तरह के भारतीय पाश्चात्य व्यंजनों को बार बार पोस्ट किया जा रहा था| लॉकडाउन में हर पल कुछअच्छाखाने की फरमाइशें खत्म ही नहीं होने पा रहीं और उस पर कटु यथार्थ यह कि इस श्रम का उसे तो कोई मूल्य मिलता है ही सम्मान|

 कोरोनाकाल में युद्धरत स्त्री - कोरोनाकाल के दो वर्ष से ज्यादा हो चुके हैं| इस अप्रत्याशित वायरस से चाहे गृहलक्ष्मी हो अथवा कामकाजी स्त्री दोनों पर महामारी की दोगुनी मार पड़ी| महामारी में स्त्रियों के प्रति घरेलु हिंसा में जिस तरह इजाफा हुआ वह भयावह है| घर बाहर दोनों कार्यक्षेत्रों में सक्रिय और सफल भूमिका निभाती स्त्री आज लग रहा वापस पिछली सदी में चली गई| बहुत कठिनाइयों से उसने अपने लिए द्वार खोले थे जो पुन: बंद से हो गए| जैसे मुगल-काल में जिस प्रकार पर्दाप्रथा, सतीप्रथा जैसी कुरीतियाँ आरम्भ हुई वैसे ही कोरोनाकाल में स्त्री के लिए कई नकारात्मक स्थितियों को लायेगा| घरेलु कार्यों का बोझ जिससे वो छुटकारा या कहे सामंजस्यपूर्ण ढंग से बांटना चाह रही थी वापस दुगनी वेग से उसकी झोली में जा गिरा| हताशा और अवसाद ने घरेलू हिंसा में इजाफा किया लेकिन युद्धरत स्त्री घर और बाहर और दोनों मोर्चों को भली भांति संभाल रही हैं|

 कोरोनाकाल में सोशल मीडिया की फ़िल्में और स्त्री - कोरोना महामारी के संकटकाल में सोशल मीडिया पर प्रसारित फिल्में वास्तव में हमारी चेतना को झकझोरती हैं, संवेदनाओं को कुरेदती और आंदोलित करती है| 18 जुलाई 2020 को प्रसारित रेलेशनशिप मेनेजर(https://www.youtube.com/watch?v=KbpQM3NiJr)    लघु फिल्म कोरोना महामारी में स्त्रियों पर होने वाली घरेलु हिंसा पर केवल सहजता से बात करती है अपितु इस गंभीर मुद्दे पर हल भी प्रस्तुत करती है| मेनेजर एक कथानक पिरोता है और घरेलू हिंसा की शिकार नायिका को संकेत में एक हल बता देता है  मेरी दीदी बहुत बहादुर थी हँसमुख थी मगर शादी के बाद मैंने उसे कभी हँसते हुए नहीं देखा’ …. ‘वो एक कमजोर इनसान से कैसे हार मान गई’….बच्चे थेऔर तब समझ आता है कि वो कमजोर नहीं बहादुर ही थी बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित थी इसलिए पति की मार सहती रही| तब मैनेजर समझाता है एक बार तो विरोध करती वो कहती है पहली बार गलती लगता है दूसरी बार समझ नहीं आता कि कैसे प्रतिक्रिया दिखाए और फिर आदत बन जाती हैलेकिन फिर अंत में यह समझाने पर कि माँ पिता भाई बहन कोई तो साथ देता एक बार अपनी आवाज़ बाहर तो निकली होती और कहीं के अंत में संवाद है हेलो पुलिस स्टेशन ये कहानी अंत है नवजीवन की शुरुआत है| स्त्री घर की मान मर्यादा और लोकलाज के कारण, जो उसमें बचपन में ही घुट्टी की तरह पिलाया जाता है, वो चुप रहती है लेकिन ये फ़िल्में सन्देश देती हैं कि अत्याचार सहना भी अत्याचार को बढ़ावा देना ही है और अपने अधिकारों के लिए संकोच करना उचित नहीं|

 

10 मई 2020 को प्रसारित Every thing is fine (https://www.youtube.com/watch?v=K02Q3oOmHGQ)     नामक कहानी साफ़ सन्देश दे रही है कि असल में कुछ भी ठीक नही| बेटी अपनी माँ से पूछती है कि किस चीज़ की कमी है? सब ठीक तो है? माँ आश्चर्यजनक रूप से निराश हो कहती है, हाँ सब ठीक हैबेटी माँ की आंखो में अधूरी आकांक्षाओं को नहीं देख पाती जो घर परिवार बाल बच्चों के पालन पोषण में कहीं दबी रह गई, संभवत: आज बेटी की स्वच्छंद जीवन शैली को देखकर प्रसन्न तो है किन्तु कहीं किसी कोने में अफ़सोस है कि वह तो इतना भी पढ़ लिख पाई की चेक साइन कर पावे  तिस पर पति का कटाक्ष कि पढ़लिख कर कौन सा तुम्हें पोथियाँ लिखनी थी  सुनकर वह मन मसोसकर रह जाती है| मजाक के नाम पर पत्नियों का अपमान करना आम है, परिवार समाज में हास्य व्यंग और मज़ाक का केंद्र बनाकर स्त्री को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति बनी ही हुई है, चुटकुले इसका जीवंत उदाहरण है| फिल्म के अंत वह एक संकल्पशक्ति के साथ (जीवन की एक नई शुरुआत) सुबह सुबह उठती है और अकेली बाज़ार के लिए निकल जाती है जहाँ उसके जीवन में कोई दखलंदाजी करे, अपनी पसंद से सैंडिल खरीदकर बीड़ी का धुआं उड़ाती है, जबकि वह धुंआ जिसके तले उसने अपना सारा जीवन घुटन में ही बिता दिया लेकिन आज अपने जीवन की तमाम घुटन को धुएं में उड़ा कर मानो तमाम बोझ से हलकी हो गई| कह सकतें हैं कि ये स्त्री मुक्ति के क्षण हैं| मजबूत इरादों को प्रबलता से सुदृढ़ बनाने वाली यह फिल्म आपको भी विवश करेगी कि आप भी माँ से पूछे आप कैसे हो? जो पहले कभी नहीं हुआ क्योंकि माँ ने कभी शिकायत नहीं की और ऐसा उत्तर सुनने को मिलता है जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते और आपके जीवन में भी हलचल मच जाती है आप बैचैन हो उठतें हैं कि माँ को शिकायत थी तो कभी कहा क्यों नहीं मैं इस तरह नहीं जी सकती, मैं तुम्हारे पिता के साथ नहीं रह सकती माँ को रोते हुए देखना, उफ्फ, अत्यंत दर्दनाक है| माँ अपनी महत्वाकांक्षाओं और आकांक्षाओं को भूलकर एक नकली आदर्श जीवन ढो रही है| 80 -90 प्रतिशत महिलाएं इसी प्रकार का दोहरा उदास जीवन जी रहीं हैं| फिल्म के आरम्भ में जब वह बड़े चाव से बेटी को उपहार दिखा रही है पति कहता कि देवी जी क्या फालतू बाज़ार लेकर बैठ गई| सफर से कमर दुःख गई जाओ चाय बनाओ एक तरफ देवी जी दूसरी तरफ देवी की ख़ुशी इच्छा का कोई ख्याल नहीं, जबकि वह भी सफर में उसके साथ ही आई है वो नहीं थकी क्या? इस तरह का व्यवहार बंद करना होगा यह फिल्म मध्यवर्ग की नब्ज़ को केवल टटोलती है अपितु घोषणा करती है कि आत्म केंद्रित, हावी, भावहीन, पशु समाज में स्त्रियों के लिए कुछ भी ठीक नहीं है| सीमा पाहवा का शानदार अभिनय जो बिना बोले मौन भी अभिव्यंजना हैचरितार्थ करता है|

 कोई चार मिनट की फिल्म डिअर हस्बंड्स लॉकडाउन में स्त्रियों की दशा का बड़े ही हलके फुल्के मगर व्यंग्य के अंदाज़ में वर्णन करती चली जाती है और घरेलु कामकाज के विषय में कहती कि हम ये काम बरसों से करती चली रही है वो भी चुपचाप  (https://www.facebook.com/ 686b-4db1-9224 8557cffdaaaa&q=buddybits%20men%20are%20cooking%20during%20lock%20down) आज जबकि कोरोना काल विमर्शकोरोना साहित्य आदि आदि शब्द गढ़ने के प्रयास हो रहे है, जबकि आज पति मदद करने के नाम पर एक-एक पल का फोटो वीडियो सोशल मीडिया पर डालते हैं मानो अहसान कर रहें है क्योंकि घर के काम करने का ठेका स्त्री का ही है|

 

 10 मार्च, 2020 को प्रदर्शित घर की मुर्गी (https://www.yutube.com/watch?v=D567scaLR6s)     संस्कार परम्परा और पारिवारिक खूंटे में बंधी छटपटाहट को व्यक्त कर रही है पर जब पति पत्नी के ब्यूटी पार्लर के काम की मजाक उड़ाते हुए मित्र मंडली के बीच कहता है कि मैं अकेला घर चलाने वाला... अपरलिप्स और आई ब्रो बनाने से घर चलता है क्या?गृहलक्ष्मी, गृहस्वामिनी घर की नौकरानी से अपने दर्द को बयां करती है हमसे अच्छा तो ये प्रेशर कूकर है, गुब्बार भर जाता है तो चिल्ला तो देता है सिटी बजाकर|  आहत हो कह उठती है मुझे ब्रेक चाहिए...नहीं मुझे अकेले जाना है... मैंने टिकट करवा लिया... मैंने आई ब्रो और अपर लिप्स बना बना कर पैसे जोड़े हैं... आपसे नहीं चाहिए ये सभी संवाद उसके आहत और सदा कुचले गए आत्मसम्मान को इंगित करते हैं कि भरे-पूरे परिवार में भी वो अकेले है, एक मैड से ज्यादा कुछ नहीं और वो बेडियां तोड़ अस्तित्व की तलाश में निकल भी पड़ती है| पर हाय रे भारतीय नारी के संस्कार! उसके जीवन के यथार्थ, जिम्मेदारियों के प्रति दायित्व भाव और वो भारतीय संस्कारों से जकड़ी हुई ख़ासकर बच्चो की चिंता और मोह से, वापस लौट आती है यही भारतीय स्त्री के उस पक्ष को उजागर करता है जहाँ वह अपना अस्तित्व परिवार से अलग समझ ही नहीं पाती|   उसका ये उदार समर्पित भाव है जो इस समाज द्वारा बचपन से बुना गया है| 

9 मार्च 2020 को प्रसारितन्युली मैरिड वाइफ होलिका दहन (https://www.youtube.com/watch?v=IR2Ha9GJOes) नामक फिल्म सिखा जाती है कि कभी भी अपने आप को किसी पर इतना निर्भर बनाओं कि वे आपकी भावनाओं को नियंत्रित करना शुरू कर दें। अपने व्यक्तित्व, मन, जीवन को किसी और को नियंत्रित करने दें, अपने अधिकारों को समझें| भावनाओं की दुनिया में आपको शाश्वत सुख दे जायेगा यह भ्रम है| पुरुष कैसे अपनी धूर्तता से स्त्री के लिए कटु यथार्थ निर्मित करता है यही कहानी का केन्द्रीय तत्व है| ‘मेरा और मेरे बाप का पैसा है चाहे जैसे खर्च करूं ...तुम पर एक पाई नहीं खर्च करूंगा ..तुम्हरे साथ घुटन होती है...तुम हमेशा लव लव करके मूड ऑफ कर देती हो ...मेरे सामने ही मेरे दोस्तों के साथ फ्लर्ट करती हो पीछे जाने क्या करती होगी...जाओ निकलो यहाँ से ...जहाँ मज़े लेने है लो इस घर में दुबारा मत आना’...मैंने तुमसे नहीं कहा था माँ बाप का घर छोड़ आओउसके सपनों का ताजमहल ध्वस्त हो जाता है| सफ़ेद संगमरमर ताज तो पत्थर का है जिसमें संवेदनाएं नहीं लेकिन ये पुरुष तो मानव है इसकी संवेदनाये कहाँ दफ़न हो गई? यह दुःख हमारे समाज की अनेक महिलाओं के दुखों से जुड़ा है| पति के कटु व्यवहार के कारण को समझकर उन बातों चीजों को दिनचर्या का अभिन्न अंग मान लेती हैं, खुद ही को दोषी भी मान बैठती हैं| लेकिन कब तक अपने प्रियजनों की नफरत को संजोएगी? हमारे समाज की हर महिला को नायिका की भांति मजबूत होना होगा यह जीवन बहुत बड़ा है| कमजोर व्यक्तित्व जो देवियों के महिमामंडन के व्याज से निर्मित किया है उसका (होलिका दहन) त्याग करो अपनी आकांक्षाओं का नहीं| नकली मूर्तियों सी सुसज्जित देवी का आवरण उतार फेंकों, आम मनुष्य का जीवन जीकर देखों कितना चैन और सुकून है होली के रंगों की भांति जीवन कें के सभी रंगों का आनंद लो| हर उस चीज का सामना करो जो आपको परेशान करती है। 

कोरोनाकाल में ही 2 मार्च 2020 ‘देवीनामक लघु फिल्म  (https://www.youtube.com/watch?v=2KP0aDTVtF)   का प्रसारण मानो घर में डरे दुबके बैठे पुरुष समाज को सपष्ट कर देना चाहती है कि स्त्री का तो पूरा जीवन ही असुरक्षा के घेरे में कैद लॉकडाउन में बीतता है, कहाँ-कहाँ, किस-किस से वह स्वयं को सुरक्षित रखें? क्या घर, क्या बाहर, उसकी सुरक्षा के लिए कोई सैनेटाईज़र भी नहीं| इस फिल्म को अब तक 15 लाख लोग देख चुके है लगभग 22 हजार कमेंट इस ओर इशारा करते हैं की भारत में स्त्री सुरक्षा को लेकर सभी को शिकायत है| 10 -12 महिलाओं से भरा एक कमरा जो भारत में बलात्कार की रौंगटे खड़े करने वाली अनगिनत कथाओं का लैंडस्केप है जिसमें भारत की हर वर्ग, भाषा, आयु की महिलाएं है| टीवी पर समाचार रहे है| स्त्री सुरक्षा व्यवस्था पर चिल्ला चिल्लाकर बोल रहा है और अचानक टीवी बंद| यानी जिस लड़की का बलात्कार हुआ वो अब मर चुकी है - अब वो खबर नहीं रही| कमरे के भीतर संवाद हो रहा है, यहाँ कोई देव नहीं? यहाँ की आबादी बढ़ती जा रही, टीवी से तो लगता है कि रोज़ नए आयेगें, कितनों को बाहर बिठाएंगे सबको  बकरियों की तरह ठूंस दिया| ‘यहाँ कोई देव नहींलेकिन समाज स्त्री को देवी बनाने में लगा है| यहाँ छोटे छोटे संवाद पितृसत्तात्मक समाज में पारिवारिक संस्थाओं, राजनितिक वर्चस्व सभी की पोल खोल रहीं हैं पृष्टभूमि में घंटी का बज रही है जो न्याय व्यवस्था को जगाना चाहती है| अंत में ज्योति कहती है कोई कही नहीं जायेगा जितनी जगह है उसी में एडजस्ट कर लेंगे|  एड्जस्ट यानी समझौताजो स्त्री का स्वभाव है| समाज में उसे कोई स्थाननहीं मिला, ‘स्पेस की आकांक्षा| आज की तारीख में ये सभी मृत है अर्थात् दुखी आत्माएं जो सताई गई हैं अपनों के द्वारा, अदालत में दबी पड़ी है| लंबित फाइलों में  भोलाराम के जीव की तरह| कहानी का अंत आपको भीतर तक से हिला देगाडरा देगारुला देगा जब एक छोटी लड़की कमरे में प्रवेश करती है| कहानी के दृश्य पुरुष की हैवानियत के प्रति क्रोध, घृणा, आक्रोश पैदा करते हैं जिस लड़की को जला दिया गया था वो वैक्सीन कर रही है अपने सौन्दर्य का ईनाम उसे इस रूप में मिला कि उसे जिन्दा जला दिया गया| एक लड़की कहती है तो क्या हुआ मुझे खून नहीं निकला मुझे जलाया, काटा नहीं गया पर दर्द तो मुझे भी हुआ था में सदमे से’... मेरे भीतर कांच की बोतल डालकर हाईवे पर फेंक दिया ... तेरा साल की थी तब शादी कर दी रोज़ रोज़...चाक़ू से गला रेतकर’  बलात्कार के शारीरिक मानसिक कष्टों सामजिक लांछनो का सामना करते हुए, दर्द की विभीषिकाओं से जूझती ये स्त्रियाँ उस दुनिया को ही छोड़ आई|  

 6 मई 2020 को माँ और बेटी के खूबसूरत संबंधों को व्यक्त करने वाली फिल्म है की क्या एक माँ को पुन: प्रेम करने का अधिकार नहीं मॉम  (https://www.youtube.com/watch?v=E64l1rXXFRs) फिल्म बताती है कि स्त्री भी एक हांड-मांस की इंसान है, उसकी भी संवेदनाये है जो उसे प्रेम की ओर आकर्षित करती है| पति के मृत होने के बाद तलाक के बाद उसे नए सिरे से जीवन शुरू करने का अधिकार है| 

निष्कर्ष :

 स्त्री केन्द्रित ये लघु फ़िल्में सन्देश देती हैं कि कोरोना काल हो चाहे कोई भी काल, स्त्री भी खुले आकाश में विचरण करना चाहती है, उन्हें भी रात के खुले सितारों भरे आकाश में विचरण का मौका मिले जहाँ निशाचरों को विचरण करने की खुली छूट है| निशाचर रुपी ये पुरुष भरोसे के लायक बने|    फ़िल्में नए परिदृश्य में स्त्री के आतंरिक बाहरी अनुभवों को बड़ी ही गहनता से हमारे समक्ष चित्रित करतीं हैं| कुल मिलाकर ये लघु फ़िल्में सोशल डिस्टेंस के भयानक काल में पुन: मानवीय संवेदनाओं से जोड़ने का महत्वपूर्ण प्रयास है जो नवीन विचार, चिंतन की निर्मिती में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है साथ ही परम्परागत बॉलीवुड फिल्मकारों को भी पुन:सोचने पर विवश कर सकती हैं|

 

संदर्भ : 

1.     अरविंद कुमार, कुसुम कुमार, 2006, सहज समांतर कोश, राजकमल, दिल्ली

2.     रामचंद्र वर्मा, 2006, मानक हिंदी कोश, लोकभारती प्रकाशन

3.     बलवंत कौर, 1994 हंस

4.     फ़िल्मों के लिंक

डॉरक्षा गीता

सहायक आचार्य, हिंदी, कालिंदी महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय,

rakshageeta14@gmail.com, 9311192384

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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