शोध आलेख : फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के कथा साहित्य में नारी का मनोवैज्ञानिक चित्रण : एक मूल्यांकन / डॉ. सन्तोष विश्नोई

फणीश्वरनाथरेणुके कथा साहित्य में नारी का मनोवैज्ञानिक चित्रण : एक मूल्यांकन
- डॉ. सन्तोष विश्नोई

शोध सार - फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के उपन्यासों के स्त्री पात्र पुरातन की छवियों एवं मिथकों को तोड़ते हुए स्त्री-जीवन के दर्द एवं पिछड़ेपन को दर्शाते हैं। जिस समय रेणु लेखन कर रहे हैं उस समय समाज में स्त्रियों के लिए रूढ़ियाँ और परम्पराएँ तो जटिल थी ही, साथ ही समाज लम्बी गुलामी को भी झेल चुका था। स्वतन्त्रता के पश्चात् सामाजिक संरचना में अनेक परिवर्तन आ रहे थे, परन्तु ये परिवर्तन स्त्री की स्थिति को विशेष प्रभावित नहीं कर पा रहे थे। भारत का ग्रामीण समाज अब भी अत्यन्त पिछड़ा हुआ था और ग्रामीण स्त्री अब भी रूढ़ियों में जकड़ी हुई थी। स्त्री से सम्बन्धित विधवा-विवाह, अनमेल विहार, वैश्यावृत्ति, बहुपत्नी-प्रथा और स्त्री का क्रय-विक्रय आदि सामाजिक समस्याएँ ज्यों की त्यों बनी हुई थी। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान सुधारवादी आंदोलनों के बावजूद स्त्री-समस्याओं की जड़ता में कोई परिवर्तन नहीं आया। रेणु ने अपने उपन्यासों में इन समस्याओं और परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण कर सामाजिक सुधारवादी संस्थाओं पर प्रश्न चिह्न लगाया है।

बीज शब्द - फणीश्वरनाथ रेणु, नारी चेतना, मनोवैज्ञानिक चित्रण, स्त्री समस्या, कथा साहित्य में नारी, स्वतन्त्रता के पश्चात् नारी

            भारतीय समाज में नारी की स्थिति बड़ी ही दयनीय रही है। सदियों से उसे इस पुरुष प्रधान समाज में हाशिए पर अपना जीवन गुजारना पड़ा है। प्रारंभ से ही उनके शोषण की परंपरा चली आती रही है। फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हिन्दी साहित्य के ऐसे प्रतिष्ठित रचनाकार रहे हैं जिन्होंने अपने साहित्य में विभिन्न मुद्दों को लेकर स्त्री-जीवन का चित्रण किया है, वे उनके स्त्री चेतना सम्बन्धी उज्ज्वल विचारों के द्योतक रहे हैं। उनके लगभग सभी उपन्यासों में कोई-न-कोई स्त्री समस्या केन्द्र में रही है। स्त्री समस्याओं का आंकलन करना, परिस्थिति एवं सुझावों पर विचार करना उनकी स्त्री सम्बन्धी संवेदना का परिचायक है। फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के उपन्यासों में आँचलिकता का पुट किसी स्त्री के लिए मुक्ति का मार्ग तो नहीं दिखा रहा था परन्तु भारतीय राजनीति एवं धार्मिकता की तहों को खोलकर ग्रामीण निम्नवर्गीय स्त्री का आंकलन जरूर कर रहा था। आँचलिकता महज साहित्यिक प्रवृत्ति नहीं थी। न ही उन्होंने अकारण उसे अपनी रचना का आधार बनाया था। स्वतन्त्रता के बाद की स्थितियों को उन्होंने बहुत करीब से देखा था। आँचलिकता के प्रवाह में ग्रामीण स्त्री पूरी सक्रियता के साथ उभरकर आई थी। स्वतन्त्रता के प्रति स्त्री समुदाय भी उमंग और आशा के साथ जुड़ा हुआ था। इस स्थिति के बीच रेणु ने महसूस किया कि स्वतन्त्रता से प्रभावित होकर साहित्य में मध्यवर्गीय स्त्री की स्वतन्त्रता हर क्षेत्र में दर्ज की जा रही थी। चाहे वह सम्बन्ध हो या समाज के किसी हिस्से से जुड़ने का प्रश्न। मध्यवर्गीय स्त्री चयन की स्वतन्त्रता हासिल कर रही थी, परन्तु इस दौर में भारत का अधिकांश स्त्री-समुदाय गाँवों में बसा हुआ था। राजनीति में स्त्री-स्वतन्त्रता एवं समानता के मुद्दे उठाए जाते रहे थे। ये मुद्दे ग्रामीण एवं निम्नवर्गीय स्त्री को छू भी नहीं पा रहे थे। रेणु ने ग्रामीण स्त्री के जीवन को जैसा है, वैसा अपने साहित्य में उतारकर राजनेताओं के समक्ष यह प्रश्न खड़ा किया कि स्त्री-उद्धार, समानता और स्वतन्त्रता भारतीय समाज के किस वर्ग की स्त्री के लिए है।

            फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के उपन्यासों के स्त्री पात्र पुरातन की छवियों एवं मिथकों को तोड़ते हुए स्त्री-जीवन के दर्द एवं पिछड़ेपन को दर्शाते हैं। जिस समय रेणु लेखन कर रहे हैं उस समय समाज में स्त्रियों के लिए रूढ़ियाँ और परम्पराएँ तो जटिल थी ही, साथ ही समाज लम्बी गुलामी को भी झेल चुका था। स्वतन्त्रता के पश्चात् सामाजिक संरचना में अनेक परिवर्तन आ रहे थे, परन्तु ये परिवर्तन स्त्री की स्थिति को विशेष प्रभावित नहीं कर पा रहे थे। भारत का ग्रामीण समाज अब भी अत्यन्त पिछड़ा हुआ था और ग्रामीण स्त्री अब भी रूढ़ियों में जकड़ी हुई थी। स्त्री से सम्बन्धित विधवा-विवाह, अनमेल विहार, वैश्यावृत्ति, बहुपत्नी-प्रथा और स्त्री का क्रय-विक्रय आदि सामाजिक समस्याएँ ज्यों की त्यों बनी हुई थी। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान सुधारवादी आंदोलनों के बावजूद स्त्री-समस्याओं की जड़ता में कोई परिवर्तन नहीं आया। रेणु ने अपने उपन्यासों में इन समस्याओं और परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण कर सामाजिक सुधारवादी संस्थाओं पर प्रश्न चिह्न लगाया है।

            फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के अपने सबसे प्रसिद्ध आँचलिक उपन्यास ‘मैला आँचल’ का कथानक विभिन्न प्रकार के नारी पात्रों से भरा हुआ है। इस उपन्यास की अधिकांश नारी पात्र विभिन्न प्रकार की विसंगतियों की शिकार हैं। उच्च वर्ग की नारी पात्र मानसिक और शारीरिक व्याधियों से ग्रस्त ही नहीं बल्कि सम्पन्नता के अभिशापों को भी वहन करती है। वहीं मध्यमवर्गीय नारी पात्रों की नियति यह है कि वे धर्म, राजनीति, शिक्षा अथवा सामाजिकता के नाम पर शोषित और प्रताड़ित होती है। ‘‘इनकी केन्दीय समस्या अपने भरण-पोषण के सिवाय स्वत्व की रक्षा करने की भी है। सम्पन्न वर्ग की नारियों की तुलना में ये सपने कम देखती हैं परन्तु किन्हीं मानव मूल्यों से बँधी रहना चाहती हैं। विषम परिस्थितियों में इनके मानवीय संदर्भ जागृत रहते हैं और ये नारियाँ एक सहज मानवीय जीवन की अभिलाषा रहती है।’’


[1] वहीं निम्न वर्गीय नारियों के ऊपर हो रहे शारीरिक व मानसिक उत्पीडन को भी बड़ी ही जीवंतता के साथ चित्रित किया है। ऐसे में फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने तीनों वर्गों के उज्ज्वल एवं धूमिल दोनों पक्षों को नारी-पात्रों के माध्यम से व्यक्त किया है और उनकी दशा के लिए पुरुष-प्रधान समाज की असहिष्णु विचारधारा, परम्पराओं और रूढ़ियों, धार्मिक-पाखण्ड, आर्थिक परिस्थितियों और समाज में नारी की स्थिति को उत्तरदायी ठहराता है। ‘‘मैला आँचल’ का आँचल इतना बड़ा है कि द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ता-बढ़ता वह पूरे भारतवर्ष को ढँक लेता है। इसमें अनेक नारी पात्र हैं। हरेक की अपनी अलग कथा है, अलग व्यथा है। हरेक के अपने अलग विचार हैं, अलग सपने हैं।’’[2]

            फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने ‘मैला आँचल’ में उपन्यास की प्रमुख कथा की एक महत्त्वपूर्ण पात्र के रूप में कमली का चरित्र एक सम्पन्न घराने की बालिका के रूप में चित्रित हुआ है। वह मेरीगंज के धनाढ्य तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद मल्लिक की पुत्री है। सामाजिक अंधविश्वास के कारण कमली का विवाह नहीं होता है। ‘‘पिछड़े हुए हिन्दू समाज में किसी लड़की का विवाह तय होने के बाद यदि उसकी भावी ससुराल में कोई अनिष्टकारी घटना घट जाती है तो इसका सारा दायित्व लड़की पर मढ़ दिया जाता है और उसे ‘कुलक्षणी’, ‘मनहूस’, ‘अपशकुनी’ आदि घोषित कर दिया जाता है।’’[3] उसके पश्चात उसका कहीं भी विवाह नहीं हो पाता। प्रेमिका के रूप में कमली एक सफल नारी पात्र मानी जा सकती है। नारी सुलभ समस्त भावनाओं को मेरीगंज समाज की दृष्टि से प्रस्तुत करने में फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने बहुत ही सराहनीय कार्य किया है। ‘‘कमली एक सहज विश्वासी एवं आदर्श नारी बनने की चेष्टा करती है जबकि मेरीगंज के उस बदनाम वातावरण में बिरली नारियाँ ही अपने गंतव्य को पाती हैं।’’[4] कमली के माध्यम से रेणु ने उच्च, सम्पन्न और शासक वर्ग की नारियों की मनःस्थिति, उनका विकास और मूल्य-बोध का प्रक्षेपण किया है।

            जिस प्रकार सामाजिक व्यवस्था एवं सामाजिक संस्थाओं ने स्त्री-जीवन को प्रभावित किया है, उसी प्रकार धार्मिक संस्थाओं ने भी स्त्री-जीवन को पर्याप्त प्रभावित किया। धार्मिक क्षेत्र में स्त्री की स्थिति को फणीश्वरनाथ रेणु ने महसूस किया था। रेणु ने अपने उपन्यासों में धर्म के नाम पर स्त्री-शोषण का पर्याप्त चित्रण किया है। मेरीगंज में लक्ष्मी के किरदार के रूप में फणीश्वरनाथ ने समाज के एक ऐसे वर्ग से संपृक्त नारी पात्र का परिचय दिया है, जो मंहत की कोठारिन होने के साथ साथ मंहत व्यक्ति के साथ पूर्ण समर्पण, प्रेम और क्षमाशीलता का प्रतीक भी है। धार्मिक स्थानों पर स्त्री के प्रति सामन्ती भोगवादी संस्कारों को रेणु ने मेरीगंज के मठ के माध्यम से प्रकट किया है। धार्मिक मठों में स्त्रियाँ दासियों एवं भक्तिनों के रूप में इनसे जुड़ी रहती है। इन मठों में धर्मगुरु साधना, तंत्र-मंत्र एवं उपासना के नाम पर स्त्रियों का भरपूर शोषण करते हैं। मठ का महंत सेवादास लक्ष्मी को बचपन में ही दासिन बनाकर यह कहकर लाता है, ‘‘वकील साहब लछमी हमारी बेटी की तरह रहेगी।’’[5] लक्ष्मी के साथ वे सारे काम करता है, जो नैतिकता और मानवीयता के दायरे को तोड़ते हैं। लक्ष्मी के माध्यम से उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि धार्मिक मठो में स्त्री केवल भोग विलासिता का साधन मात्र है। स्त्री की उम्र का कोई बन्धन नहीं है और बेटी या कोई अन्य सम्बन्ध इन स्त्रियों के लिए नहीं होते। लक्ष्मी के साथ हुए दुराचार का चित्रण करते हुए किसनू पात्र कहता है, ‘‘महंत जब लक्ष्मी दासिन को मठ पर लाया था तो वह एकदम अबोध थी, एकदम नादान, एक ही कपड़ा पहनती थी, कहाँ वह बच्ची और कहाँ पचास वर्ष का बूढ़ा गिद्ध। रोज रात में लक्ष्मी रोती थी-ऐसा रोना कि जिसे सुनकर पत्थर भी पिघल जाए।’’[6] रेणु ने यहाँ इस सत्य को उजागर किया है कि स्त्री को धर्म के स्तर पर भी वस्तु से अधिक कुछ नहीं समझा गया है। रेणु ने लक्ष्मी के बहाने धार्मिक क्षेत्रों में चलने वाली स्त्री शोषण की पूरी प्रक्रिया को प्रस्तुत किया है। मठों की व्यवस्था पर पितृसत्तात्मक पूर्णतः हावी रहती है। मठों में कोठारिन बनकर भी स्त्रियाँ पुरुषों के अधीन ही रहती है। ‘‘लक्ष्मी की समस्त अस्मिता का ठेकेदार यह पद है कदाचित् बिहार में भी देवदासी प्रथा का एक रूप स्वातंत्र्य-पूर्व काल में विद्यमान रहा है।’’[7] वह मठ और ग्रामीण समाज का सेतू का कार्य करती है। लक्ष्मी के चरित्र में स्वाभिमान की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। लक्ष्मी के चरित्र के माध्यम से फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने परिस्थिति, परिवेश और भारतीय नारी के एक स्वरूप को प्रस्तुत किया है।

            फुलिया निम्न वर्ग की स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है जो पुरूष-प्रधान समाज में उच्च वर्ग के पुरुषों के शोषण का शिकार है। रेणु ने फुलिया के रूप में एक कामुक एवं परिस्थिति की शिकार नारी का चित्रण किया है। यह निम्न वर्ग की साधारण नारी की दयनीय स्थिति का चित्र है। फुलिया के रूप में रेणु ने ऐसी स्त्री का चित्रण किया है जो निम्न वर्ग में जन्मी होने के कारण उच्च वर्ग के शारीरिक शोषण का शिकार है और निरन्तर अपनी स्थिति में परिवर्तन लाने हेतु प्रयत्नशील है। रेणु इस ओर भी विचार करने पर मजबूर करते हैं कि जानते समझते हुए भी स्त्री ऐसे सम्बन्धों में खुद को वस्तु बनाकर पुरुष समाज में अपने आपको क्यों परोसती है। इसका कारण पारिवारिक सम्बन्धों में स्वार्थ का हावी होना और पति-पत्नी सम्बन्धों में तनाव का बढ़ना है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि भारतीय समाज में निम्नवर्गीय स्त्रियों का शोषण परम्परा से चला आ रहा है। चोरी छिपे स्थापित इन सम्बन्धों ने स्त्री में अस्तित्व बोध उत्पन्न नहीं होने दिया, इसलिए वह शारीरिक और मानसिक रूप से पुरुष की इच्छा पर निर्भर होती गई। सामाजिक सुधारों के बावजूद स्त्री की आधारभूम स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आये।

            मैला आँचल के अन्य पात्रों में मंगला भी आती है। वह मेरीगंज में स्थापित होने वाले चरखा सेन्टर की अध्यापिका के रूप में आती है। ‘चरखा सेंटर’ नामक संस्था, जो कि गाँधी के आदर्षों से निर्मित थी और इसका उद्देष्य आम भारतीय स्त्री को सक्षम बनाना था। रेणु ने इस संस्था में कार्यरत मंगलादेवी के माध्यम से इन संस्थाओं के स्त्रीवादी परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत किया है। ‘‘मंगलादेवी ने दुनिया को अच्छी तरह पहचाना है। आदमी के अंदर के पशु को उसने बहुत बार करीब से देखा है। विधवा-आश्रम, अबला-आश्रम और बड़े बाबूओं के घर आया की जिंदगी उसने बिताई है। अबला नारी हर जगह अबला ही है। रूप और जवानी? ... नहीं, यह भी गलत औरत होना चाहिए, रूप और उम्र की कोई कैद नहीं। एक असहाय औरत देवता के संरक्षण में भी सुख-चैन से नहीं सो सकती। मंगलादेवी के लिए जैसा घर वैसा बाहर। उसका कौन है अपना? कोई नहीं।’’[8] मंगलादेवी के इस कथन के माध्यम से रेणु उन सुधारवादी संस्थाओं का सत्य प्रकट करते हैं, जो स्त्री-उद्धार के नाम पर उनका शोषण करने में संलग्न हैं। साथ ही रेणु गाँधी के उस आदर्श को भी यहाँ धूमिल होते पाते हैं, जिसमें उन्होंने स्त्री को घर की चारदीवारी से बाहर निकालकर मुख्यधारा की राजनीति से जोड़कर सक्षम एवं स्वावलम्बी बनाने का स्वप्न देखा था। मंगलादेवी और चम्पा दोनों सामाजिक सुधारवादी संस्थाओं के कटु सत्य को उजागर करती हुई, इन संस्थाओं को स्त्री-कल्याण के विपरीत उद्देश्य दैहिक शोषण की संस्थाओं के रूप में देखती हैं, क्योंकि दोनों इन संस्थाओं की भुक्त भोगी है।

            फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने स्त्री को राष्ट्रीय राजनीति से प्रभावित होते तो दिखाया है परन्तु ये भी संकेत कर दिया कि राजनीति में विषेश भूमिका निभाकर भी स्त्री राजनैतिक क्षेत्र में पितृसत्तात्मक मानसिकता से मुक्त नहीं हैं। रेणु ने गाँधी के स्वदेशी आंदोलन को भारतीय ग्रामीण जनता की आर्थिक स्थिति में सुधार के विकल्प के रूप में देखा है। जिसमें स्त्रियों की भागीदारी को महत्त्वपूर्ण माना है। उन्होंने मंगलादेवी के रूप में ऐसी स्त्री पात्रों का गठन किया है, जो चरखे से अपने अस्तित्व को जोड़कर स्वदेश-प्रेम के प्रति समर्पित दिखाई देती है। रेणु ने गाँधीवादी आंदोलन के उस स्त्री-पक्ष को भी रखा है, जिसमें गाँधी के साथ स्त्रियों ने सक्रिय भूमिका दर्ज की थी। ‘‘नमक कानून तोड़ने के समय श्रीमती तारावती देवी पटना आई थीं। उनकी बोली में मानो जादू था। वह जहाँ जाती, लोग उनका भाषण सुनने के लिए उमड़ पड़ते।’’[9] पवित्रा के प्रसंग में ये और अधिक स्पष्ट होता है। पवित्रा भारत-विभाजन की त्रासदी की शिकार स्त्री है। बाद में वह रिफ्यूजी कैंप की लीडर और जिला कमिटी की सदस्य बनती है। पाकिस्तानी टोले और गोडियर गाँव के बीच भोज करवाकर वह भारत-पाकिस्तान के लोगों के बीच सौहार्द पैदा करने का प्रयास करती है। फिर भी वो आलोचना का शिकार होती है। यहां लेखक सिद्ध करते हैं कि राजनीति में सक्रिय शिरकत करने के बावजूद स्त्री के प्रति सामाजिक सोच में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है।

            फणीश्वरनाथ ‘रेणु' ने सामाजिक संस्थाओं के अन्तर्गत स्त्री की स्थिति को अन्य आयामों से देखने का प्रयास किया है। रेणु ने स्त्री कल्याणकारी संस्थाओं के राजनीतिकरण की प्रक्रिया में स्त्री शोषण की कहानी कही है। यह कहानी एक वृहत् परिवेश को अपने भीतर समेटती हुई, स्वतन्त्रता के दौर में उदित हुई स्त्री स्वावलम्बन की चरखा सेंटर जैसी संस्थाओं से लेकर स्वतन्त्रता के बाद बनी वर्किंग वुमेन हॉस्टल जैसी संस्थाओं में होने वाले स्त्री शोषण एवं राजनीति को उजागर किया है। रेणु सामाजिक संस्थाओं का सत्य प्रस्तुत करते हुए परिवेशगत प्रवृत्ति को अपनाते हैं। उनके उपन्यासों में परिवेश प्रमुख होता है, जिसके सजीव चित्रण में समस्याएँ स्वतः ही आ जाती है। यही उनकी स्त्री-दृष्टि में भी देखने को मिलता हैं। वे इन संस्थाओं में घटित होती राजनीति एवं राजनैतिक परि वेश को प्रस्तुत करते हैं, जिसमें स्त्री शोषण की गाथा स्वतः ही अनिवार्य अंग बनकर प्रस्तुत हो जाती हैं।

            फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने उपन्यासों में नारी-पुरुष के अन्तःसम्बन्धों का चित्रण विस्तारपूर्वक किया है। साथ ही विवाह के परम्परागत जातिवादी ढाँचे के प्रति स्त्रियों में विद्रोह भी अंकित किया गया है। मलारी अपने माता-पिता के निर्णय से ऊपर अपनी इच्छा और सन्तुष्टि को रखती हुई। समाज की जर्जर रूढ़ियों को तोड़कर सुवंशलाल के साथ अन्तर्जातीय विवाह करती है। मलारी के माध्यम से रेणु ने विवाह के जातिवादी ढाँचे को तोड़ने का प्रयास किया है। मलारी निम्नजाति की लड़की थी और सुवंश सवर्ग था। विवाह के इस अन्तर्जातीय स्वरूप में रेणु ने जातिवाद के परम्परागत ढाँचे के ढूटने के विकल्प प्रस्तुत किए हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि रेणु ने सीधे-सीधे तो स्त्री सम्बन्धी किसी कुरीति का उल्लेख नहीं किया, न ही अपने उपन्यासों का विषय बनाया, फिर भी इस प्रसंग में उन्होंने मलारी के बाल-विधवा होने पर भी पुनर्विवाह का निर्णय लेती आधुनिक जागृत स्त्री का परिचय दिया है, जिसमें सर्वण पुरुष निम्नजाति की स्त्रियों के साथ शारीरिक सम्बन्ध तो बना सकते हैं परन्तु उनसे विवाह नहीं करते। स्त्री के परम्परागत वैवाहिक दृष्टिकोण में परिवर्तन ही इस स्थिति में परिवर्तन का कारण था। इसी प्रकार ‘जुलूस’ की संध्या और हरिप्रसाद, मैला आँचल के कमली और प्रशान्त का विवाह भी क्रांतिकारी कदम था।

            ‘मैला आँचल’ में फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने तीन वर्ग की नारियों को प्रस्तुत किया है। सामान्यतः निम्न वर्ग की महिलाओं का सफल चित्रण बखूबी किया गया है। मध्य वर्ग की नारियों ने इसमें कलंक मुक्ति की चेष्टा की है और सुधारने का उपक्रम किया है। फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने नारी के देवी, सामान्य, निष्कृट तीनों रूपों में विभिन्न व्यक्तित्व को प्रस्तुत किया है। ‘मैला आँचल’ की नारी सृष्टियाँ स्वतन्त्रता पूर्व और पश्चात की नारियों के मूल्यबोध को भी विज्ञापित करती है। मेरीगंज के नारी पात्रों में जहाँ आदर्श का उज्ज्वल चरित्र है वहीं वे भ्रष्टता के निम्न स्तर को भी छूते हैं। ‘‘रेणु के नारी पात्र देवी, सामान्य, निकृष्ट तीनों रूपों के विभिन्न घालमेल वाले व्यक्तित्व भी प्रस्तुत करते हैं। ग्रामीण समाज का इनसे यथार्थ रूप प्रकट हुआ है।’’[10] रेणु के उपन्यास मध्यवर्ग प्रधान साहित्यिक धारा में एक अवरोध था। उन्होंने आँचलिकता के माध्यम से मध्यवर्गीय स्त्री के बीच निम्नवर्गीय एवं ग्रामीण स्त्री को स्थापित किया था।

            मेरीगंज के सामाजिक जीवन की नारियों की स्थिति स्वातंत्र्य-पूर्व काल में और आज जैसी है, उसमें कोई बहुत अधिक अंतर नहीं आया है। ‘‘प्रकारान्तर से यह कहा जा सकता है कि ‘मेरीगंज’ के बहाने बिहार की नारियों की दशा का चित्रण रेणु ने किया है जो व्यापक परिप्रेक्ष्य में देश के किसी भी अंचल की नारियों पर भी लागू होता है।’’[11] वे नारियों के यथातथ्य स्थिति के पक्षधर नहीं है। उनकी नारियों में न्यूनतम आदर्शवाद है, पर प्रेमचन्द की नारियों की तुलना में वे भाग्यवादी अथवा निष्क्रिय न होकर स्थितियों की चुनौती स्वीकार करती है।

            फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने अपने दूसरे उपन्यास ‘परती परिकथा’ में नारियों की समस्त जातियों को-चाहे वे पक्षी हों, अथवा प्रकृति के अंग, उनको भी प्रमुखता के साथ चित्रित किया है। पंडुकी और जित्तू, रानी और पंडुकी के प्रसंगों में भी नारी की सामान्य शाश्वत व्यथा है। इन्हीं को रेणु ने कोसी मैया और उनकी ननदों के प्रतीक में ढ़ालकर एक अन्य शाश्वत सत्य को प्रस्तुत किया है, जो प्रत्येक युग के पारिवारिक यथार्थ को प्रक्षेपित करता है। लोकगायक आश्चर्यजनक तथ्यों से उसे मंडित करते हैं, परती और कोसी, नारी की दलित स्थितियों की प्रतीक बन गई हैं और कल्पना के क्रोड़ में बैठकर धार्मिकता से आप्लावित हुई तथा जन-जन के मानस में बस गई।     

            ‘परती परिकथा’ की कथा का आरम्भ चिरई-चुनमुन’ की करूण स्थिति से होता है। लेखक ने उपन्यास के माध्यम से सांस्कृतिक चेतना को पुनर्जीवित करने का सफल प्रयत्न किया है।’’[12] ‘परती परिकथा’ स्वातंत्र्योत्तर काल में नारी की स्थितियों और प्रकृति में पर्याप्त अंतर आया। रेणु परती धरती को ही नहीं तोड़ते हैं उन रूढ़ परम्पराओं, मिथकों, कथाओं, अंधविश्वासों को ध्वस्त करते हैं जो धरती रूपी नारी से जुड़े हैं।’’[13] ‘परती परिकथा’ में सम्पन्न अभिजात्य परिवार की स्त्री को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। शिवेन्द्र मिश्र की पत्नी को अपने घर में ‘रानी साहिबा’ का आदर प्राप्त है। वह अपने पति के समस्त कार्यों की प्रेरणा एवं सिद्धि होती है। परन्तु ऐसे सम्पन्न समृद्धशाली परिवार मेरीगंज और परागपुर दोनों ही गाँवों में बहुत कम हैं। मलारी परानपुर की उन लड़कियों का प्रतिनिधित्व करती है, जिन्होंने परिवार पर बोझ समझा जाता है। अधिकांश स्त्रियों की स्थिति परिवार में ऐसी ही होती है। रेणु ने इसके यथार्थ को पूरी ईमानदारी से प्रस्तुत किया है।

            ‘मैला आँचल’ की अपेक्षा ‘परती परिकथा’ का स्त्री-जगत अधिक सक्रिय एवं शिक्षा सम्पन्न है। शिक्षा के बावजूद स्त्री की स्थिति में अधिक सुधार नहीं हुआ। मलारी, सेमिया और परानपुर की अन्य लड़कियों ने प्रगति की राह पर कदम बढ़ाने आरम्भ तो कर दिए थे, परन्तु समाज इस प्रगति को बाधित करने से पीछे नहीं हटता। ऐसे में स्त्री निम्नवर्ग की हो या उच्चवर्ग की, पढ़ी-लिखी हो या अनपढ़ वह हमेशा पुरुष की विलासिता का साधन ही बनी रही है। ‘परती परिकथा’ में रेणु ने नारी की विभिन्न छवियों को उभारा है। इतना ही नहीं ‘‘नारी की विविधता के साथ-साथ उसके बदलते मूल्य, उसका त्याग, स्वार्थ, प्रेम, कपट और क्रोध आदि सभी का प्रक्षेपण विभिन्न नारी-पात्रों में हुआ है।’’[14] सम्पूर्ण उपन्यास में ताजमनी, मिसेज गीता मिश्र, सामबत्ती पीसी, इरावती, मलारी, गंगा काकी के चरित्र मुख्य हैं। गेंदाबाई, दुलारीराय, छबीला की बेवा, सुन्नरि नैका गौण चरित्र हैं। पंडुकी कोसी मैया के मानवीकरण द्वारा किन्ही विशिष्ट प्रतीकों से नारी के अन्य रूपों को प्रस्तुत किया गया है। ‘‘सम्पूर्ण उपन्यास में ताजमनी का चरित्र एक निष्ठावान प्रेमिका, आराधिका और जिम्मेदार नारी का है। जितेन्द्र की रक्षिता होने पर भी वह किसी प्रकार का गर्व नहीं करती।’’[15] उपन्यास में मलारी आधुनिक युग की ऐसी ग्रामीण युवती है, जो शिक्षा का असर दिखाती है। अपने अधिकारों के प्रति जागृत होती है और जन्म की जाति को सब कुछ नहीं मानती है।’’[16] सामबत्ती पीसी का चरित्र एक ऐसी नारी को प्रस्तुत करता है जिसमें सामाजिक मर्यादा का अभाव है, जो अपनी ही जिद पर कायम रहती है तथा जिसकी स्वार्थ सिद्धि न होने पर किसी भी स्तर तक लड़ने के लिए तैयार हो सकती है।’’[17]

            फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने ‘जुलूस’ उपन्यास में भी बंगाली समाज में स्त्रियों के प्रति लैंगिक विभेद के अनेक आयाम प्रस्तुत किए है। पवित्रा को माँ का दुलार कभी नहीं मिला। उसका मानना है कि लड़की जब ब्याहने योग्य हो जाती है, तो परिवार के लिए आफत बन जाती है। पवित्रा की माँ कहती है, ‘‘यह तो जान-बूझकर साँपिन पालना है।’’[18] लेकिन जहाँ पवित्रा की माँ लड़की को साँपिन मानती है, वही दीपा की माँ दीपा को लड़के से कम नहीं समझती। वह कहती है, ‘‘लोग जो कुछ कहें, मैं दीपा को लड़के का लिबास पहनाती हूँ। पहनाउँगी। बनस्थली विद्यापीठ में भेजकर लाठी, भाला, घुड़सवारी की ट्रेनिंग दिलवाऊँगी। अब लोग जो भी बोले।’’[19] वह लड़के और लड़की में अंतर नहीं समझती। दीपा की माँ के विचार परम्परागत विचारों के विपरीत विचार है। वह कहती है, ‘‘जो बेटी, वहीं बेटा। नेहरू जी को नहीं जानते? एक ही बेटी है, मगर एक सौ बेटे का मुकाबला कर रही है। जानते हो?’’[20] यहाँ रेणु ने एक ओर तो बेटियों के प्रति नवीन विचारों का प्रतिपादन किया है। दूसरी ओर राजनीति के प्रति स्त्रियों की चेतना का भी परिचय दिया है।

            फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने स्वतन्त्रता के बाद औद्योगिकरण एवं स्त्री-शिक्षा के फलस्वरूप कामकाजी या नौकरीशुदा स्त्रियों के सन्दर्भ में भी सामाजिक संस्थाओं का एक अन्य रूप प्रस्तुत किया है। ‘कलंकमुक्ति’ उपन्यास में उन्होंने वर्किंग वुमेन हॉस्टल की लड़कियों को दलालों एवं रसूखदारों के इस्तेमाल के लिए प्रयोग में लाने का सत्य प्रस्तुत किया है। उन्होंने स्त्री कल्याण के नाम पर देह व्यापार में संलग्न समाजसेवी संस्थाओं के मुखौटे को उतारा है, जिसमें व्यवसायियों से लेकर सरकारी पदाधिकारी तक संलग्न रहते हैं। रेणु ने इन संस्थाओं को स्त्री-जीवन के क्रूरतम अंतर्विरोधों का संसार माना है। वर्किंग हॉस्टल जैसी संस्थाओं में फँसी स्त्रियाँ ताउम्र इससे निकल नहीं पाती। ये संस्थाएँ भारतीय समाज के दोहरे चरित्र और लोकतन्त्र की विडम्बनाओं में स्त्री-जीवन के कटुतम पक्ष को उजागर करती है।

            रेणु ने इन संस्थाओं में स्त्री को पुरुष से ही पीड़ित नहीं पाया, बल्कि एक स्त्री भी संवेदनाहीन होकर दूसरी स्त्रियों के दैहिक शोषण को बढ़ावा देती स्त्री से भी पीड़ित पाया है। ‘कलंकमुक्ति’ की ज्योत्स्ना आनन्द ऐसी ही स्त्री है। वह पुरुषवादी व्यवस्था में इस कदर लिप्त है कि वह स्त्री हृदय से सोच ही नहीं पाती। स्त्री के देह व्यापार से पैसा कमाना उसका एक मात्र उद्देश्य होता है। पैसा कमाने की ललक ने उसे खुद अपने आपको भी अनैतिकताओं में झोंकने को मजबूर कर दिया। इसलिए वह अपने व्यापार को सुचारू रूप से चलाने एवं धन प्राप्ति के लिए महापात्र, महांती और आनंद से अपनी आवश्यकताएँ पूरी करती है। रेणु ने इन संस्थाओं में स्त्री को स्वयं पुरुष प्रधान समाज की ‘वस्तु’ के अतिरिक्त कुछ और समझते नहीं पाया है। बेलागुप्त अपने अस्तित्व पर विचार करती हुई सोचती है, ‘‘तुम स्त्री उसके जब जी में आवेगा-तुम्हारा उपयोग करेगा।...चमड़े का थैला तर्क नहीं करता। बेला क्यों तर्क करती है।’’[21] रेणु ने इन संस्थाओं में स्त्री शोषण की कहानी कहकर यह सत्य प्रस्तुत किया है कि जब तक सामाजिक सोच में परिवर्तन नहीं आयेगा, तब तक पैसों की चक्की में बेलागुप्त जैसी स्त्रियाँ पिसती रहेगी।

            रेणु स्वतन्त्रता के पष्चात् विघटित होते जीवन-मूल्यों से टकराती स्त्री और बदलाव को आसानी से आत्मसात् करती स्त्री को आँचलिकता की व्याख्या में साथ लेकर चल रहे थे। उन्होंने आँचलिकता की व्याख्या में ग्रामीण स्त्री को केन्द्र में रखा है। उनके स्त्री पात्रों के चित्रण को देखकर कहा जा सकता है स्त्री चाहे समाज के किसी भी कोने में हो उसके लिए शोषण विहीन समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। उन्होंने स्पष्ट किया है कि सामाजिक मर्यादाओं के कारण स्त्री अपनी स्पष्ट छवि निर्मित नहीं कर सकती। ग्रामीण स्त्री के संदर्भ में यह स्थिति और भी खराब है। जब तक सामाजिक मर्यादा और नैतिक संस्कारों का दोगलापन स्त्री के सामने रहेगा तब तक उसकी स्वतंत्रता के नारे विफल रहेंगे। उनके उपन्यासों में अधिकतर स्त्रियाँ रमजूदास की स्त्री, चिचाय की माँ, माधो की माँ, गणेश की नानी आदि नामों से पहचानी जाती है। इनके नामों तक का जिक्र नहीं किया गया। रेणु ने इन स्त्रियों की पहचान उनके पति और बेटे से जोड़कर देखी है, जो स्त्री का सामाजिक सच भी है।

            रेणु स्त्री के उस यथार्थ का अवलोकन कर रहे थे, जो स्त्री के धरातल से जुड़ा था। उनके उपन्यासों में स्त्री की विकृत परिस्थितियों का ज्यों-का-त्यों चित्रण हैं, जो किसी भी समाज की स्त्री का सच हो सकता है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि स्त्री अपने अधिकारों, स्वतन्त्रता एवं सामाजिक समानता और सम्मान के मुद्दों पर तभी विचार कर सकती है, जब वह मानसिक रूप से स्वतन्त्र एवं जागरूक हो। अधिकांश स्त्रियों को यह तक नहीं पता होता है कि उनकी स्वतन्त्रता उनकी नियति बदल सकती है। इसके लिए रेणु ने स्त्री का स्वयं परिस्थितियों के प्रति जागरूक एवं सजग होने को प्राथमिकता दी है। इसके लिए स्त्री का शिक्षित होना अनिवार्य माना गया है। उनके शिक्षित और शहरी स्त्री पात्रों जैसे ममता श्रीवास्त, बेलागुप्त, मलारी आदि शिक्षा के कारण ही चेतनाशील होती है और अपनी परिस्थितियों को बदलने का प्रयास भी करती है। फिर भी रेणु भारतीय समाज को स्त्री शोषण की संस्था के रूप में देखते हैं।

            रेणु ने अपने साहित्य के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि स्त्री-जीवन के चित्रण में किसी भावुकता का सहारा नहीं लिया जा सकता इसलिए उन्होंने स्त्री के लिए कोई प्रतिमान भी निश्चत नहीं किए हैं। डॉ. नेमिचन्द्र जैन भी लिखते हैं कि, ‘‘उपन्यास-भर में ऐसे स्थल बहुत ही कम हैं, जहाँ अतिनाटकीयता अथवा अतिभावुकता लेखक के विवेक पर हावी हो गई हो। दूसरी ओर कहीं भी ऊपर से थोपी हुई दुराग्रह पूर्ण नैतिकता का सहारा लेखक नहीं लेता। ऐसी नैतिकता के सहारे कभी भी जीवन को संस्कार देने वाले साहित्य का निर्माण नहीं होता।’’[22]

            निष्कर्षतः कह सकते हैं कि रेणु ने अपने उपन्यासों में नारी की पराधीनता का अंधकारमय पक्ष चित्रण किया है। वैसे भी स्त्री मन को जितनी गहराई से रेणु ने समझा है, वैसा अन्य लेखकों में कम मिलता है। रेणु ने स्वयं कहा है, ‘‘नारी हृदय को यथार्थ रूप से पहचानना, किसी पुरुष के लिए सहज नहीं।’’[23] रेणु ने स्त्री-जीवन के लगभग प्रत्येक पहलू को देखा और समझा है। यद्यपि उन्होंने स्पष्ट किया है, ‘‘जीवन और संसार की मंगलकामना मेरे मन में प्रबल रहे तो...तो...नारी क्या...मैं सिरजनहार के हृदय को भी (समझ सकता हूँ)...।’’[24] अतः उन्होंने पढ़ी-लिखी स्त्री, अनपढ स्त्री, स्वयं सेविका, चपरासी, घरेलू परिचारिका, आधुनिक स्त्री, ग्रामीण स्त्री के सभी रूपों एवं उनकी समस्याओं का सफल चित्रण किया है। रेणु यह जानते थे कि स्त्री चाहे समाज के जिस कोने में हो शोषण तो होगा ही इसीलिए शोषण मुक्त स्त्री की कल्पना उनके यहाँ नहीं है। गाँव और शहर के जीवन में स्त्री-जीवन का चित्रण निश्चय ही यथार्थ है, इसमें कोई संदेह नहीं।

सन्दर्भ :
  1. अल्पना तिवारी, रेणु की नारी सृष्टि, प्रकाशक, नई दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन 1994, पृ. 53
  2.  वही, पृ. 45 
  3. गोपालराय, उपन्यास की पहचान : मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 85 
  4. अल्पना तिवारी, रेणु की नारी सृष्टि, पृ. 49 
  5. फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आँचल, राजकमल पेपरबैक, पहली आवृत्ति 2008, पृ. 26 
  6. वही, पृ. 25 
  7. अल्पना तिवारी, रेणु की नारी सृष्टि, पृ. 49 
  8. फणीश्वरनाथ रेणु,  मैला आँचल, पृ. 155 
  9. वही, पृ. 188 
  10. अल्पना तिवारी, रेणु की नारी सृष्टि, पृ. 55 
  11. वही, पृ. 46 
  12. चन्द्रभाणु सोनवणे, कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु,पंचशील प्रकाशन, जयपुर,            1979, पृ. 70
  13. अल्पना तिवारी, रेणु की नारी सृष्टि, पृ. 171
  14. वही, पृ. 67
  15. वही, पृ.70
  16. वही, पृ.80
  17. वही , पृ.74
  18. फणीश्वरनाथ रेणु, जुलूस,राजकमल प्रकाशन, संस्करण - 2019.  पृ. 157
  19. वही, पृ. 168 
  20. वही, पृ. 169 
  21. फणीश्वरनाथ रेणु, कलंकमुक्ति, राजकमल पेपरबैक, संस्करण- 2009, पृ. 352 
  22. भारत यायावर, मैला आँचल: वाद-विाद और संवाद, जैन, नेमिचन्द्र- लेख- ‘हिन्दी उपन्यास की एक नयी दिशा’,आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), 2006, पृ. 58-59
  23. फणीश्वरनाथ रेणु, कलंकमुक्ति, पृ. 413
  24. वही, पृ. 413
 डॉ. सन्तोष विश्नोई
सहायक प्रोफेसर हिन्दी, कॉलेज शिक्षा, दिल्ली
9887547908

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांकअंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue

अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन

सम्पादन सहयोग प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)

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