शोध आलेख :- हिन्दी में साहित्यिक विवादों का स्वरूप (संदर्भ : ‘अनस्थिरता’ शब्द और दिनकर का ‘उर्वशी’ विवाद) / उर्वशी कुमारी

हिन्दी में साहित्यिक विवादों का स्वरूप (संदर्भ : अनस्थिरता शब्द और दिनकर का उर्वशी विवाद)

- उर्वशी कुमारी


शोध-सार : साहित्य में वाद-विवाद, तर्क-वितर्क की एक लम्बी परंपरा रही है। यह कभी प्रचलित स्थापनाओं के विरोध में, तो कभी नई स्थापना की तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप में चलती रहती है। जो नई स्थापना ज़्यादातर लोगों को कन्विंस नहीं कर पाई होती है, तो कई बार उसका विरोध तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आता है। लेकिन वाद-विवाद हो जाने से उसकी स्वीकृति और विरोध दोनों पर एक औपचारिक मुहर-सी लग जाती है। हालाँकि फिर भी उसकी पुनर्व्याख्या की गुंजाइश बनी रहती है। आलोचनात्मक विवेक के लिए वैचारिक असहमतियों से सार्थक संवाद होना बेहद ज़रूरी होता है। यह संवाद सार्थक वाद-विवाद में देखने को मिलता है। साहित्यिक विवादों ने विभिन्न विद्वानों को तर्क-वितर्क के लिए प्रेरित किया है। इससे विवादित विषय के संदर्भ में कई नये तथ्य सामने आए। पक्ष-विपक्ष की तार्किकता से पाठकों का भी बौद्धिक विकास  हुआ है। विवाद किसी जड़ स्थापना में हलचल पैदा करके केवल कालगत दोष सुधारने का नाम नहीं है बल्कि उसके माध्यम से वर्तमान की अनेक समस्याओं, चुनौतियों आदि पर समसामयिक दृष्टि से विचार करने के लिए भी प्रेरित करता है। वाद-विवाद, तर्क-वितर्क, जिरह-बहस अपने वर्तमान के सवालों से मुठभेड़ किए बिना अपनी सार्थकता पूरी नहीं कर सकते।

 

बीज शब्द : वाद-विवाद, अनस्थिरता, अस्थिरता, ऐतिहासिकता, साहित्यिकता, प्रतिमान, व्याकरणसम्मत, मानकीकरण, परिनिष्ठित, कालविरुद्धदोष, मूल्य-बोध, दार्शनिकता, समकालीनता, कृत्रिम मनोविज्ञान, आध्यात्मिकीकरण, भाव-बोध, अस्वाभाविकता, काव्येत्तर, संदर्भ रहित  इत्यादि

 

मूल आलेख : महावीर प्रसाद द्विवेदी वाद-विवाद, तर्क-वितर्क या किसी रचना में दोष निकालने को साहित्य के अनिवार्य अंग के रूप में देखते हैं। उनका मानना है कि इससे पूर्ववर्ती लेखकों की अवमानना नहीं होती बल्कि यह मूल्यांकन की एक पद्धति है। वे कहते हैं— स्वर्गीय और गोलोकवासी महात्माओं के कृत्यों की समालोचना करना क्या उनकी अवमानना करना है? यह कहाँ लिखा है? कहाँ का न्याय है? काव्य-प्रकाश, साहित्यदर्पण, रसगंगाधर, औचित्य विचारचर्चा, काव्यानुशासन आदि में किसकी समालोचना नहीं हुई? किसके दोष नहीं दिखलाए गए? प्रायः सभी प्राचीन कवियों के जो, एक नहीं अनेक, दोष दिखलाए गए तो उससे क्या उन पर से लोगों की श्रद्धा कम हो गई?”1

 

विवादों की उपयोगिता इस मायने में बढ़ जाती है कि विवादास्पद लेखन विद्वानों को तर्क-वितर्क के लिए प्रेरित करता है। इन्हीं कारणों से प्राचीन काल से ही संस्कृत साहित्य में वाद-विवाद, तर्क-वितर्क आदि की एक लम्बी परंपरा देखने को मिलती है। संस्कृत काव्यशास्त्र की पूरी परंपरा ही वाद-विवाद पर आधारित है। संस्कृत काव्यशास्त्र के जो छह अंग हैं (अलंकार, रस आदि), उनमें से कौन कितना महत्त्वपूर्ण है, किसे काव्य का प्राण माना जाए; ये सब विद्वानों के बीच वाद-विवाद से ही तय होता था।

 

विवादों की यह परंपरा संस्कृत साहित्य से होते हुए हिन्दी साहित्य में भी आई। साहित्य के इन विवादों के कई आधार हैं— भाषा के स्वरूप निर्धारण को लेकर (पुरानी हिन्दी और अपभ्रंश मिश्रित हिन्दी को मान्यता देने को लेकर विवाद), रचनाकार विशेष की श्रेष्ठता-हीनता का विवाद (सिद्ध-नाथ, कबीर, बिहारी-देव विवाद, हिन्दी नवरत्न संबंधी विवाद आदि), साहित्यिकता की कसौटी को लेकर विवाद(धार्मिक साहित्य आदि), गद्य-पद्य की भाषा का विवाद(खड़ीबोली, ब्रजभाषा आदि), व्याकरणिक अशुद्धि को लेकर विवाद (बालमुकुंद गुप्त द्वारा भाषा की अनस्थिरता पर बहस आदि), रचना विशेष की श्रेष्ठता-हीनता का विवाद (कल्पना का उर्वशी विवाद आदि), राजनैतिक पार्टी लाइन को लेकर विवाद (हंस का कॉमरेड का कोट विवाद) इत्यादि।

 

अनस्थिरता शब्द पर हुए विवाद- अनस्थिरता शब्द पर हुए विवादों को भारत यायावर ने हिन्दी की अनस्थिरता : एक ऐतिहासिक बहस नाम से सम्पादित किया है। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका के नवम्बर, 1905 के अंक में भाषा और व्याकरणनामक लेख में अपनी भाषा संबंधी चिंता जताई थी। उस लेख में अपने पूर्ववर्ती गद्य लेखकों से लेकर समकालीन लेखकों तक की व्याकरणिक गलतियाँ बताई गई थी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द, गदाधर सिंह, काशीनाथ खत्री, बालकृष्ण भट्ट आदि के अवतरणों की गलतियाँ उद्धृत करके उन पर टिप्पणी की गई थी। उन्हीं टिप्पणियों में से बालकृष्ण भट्ट के उद्धरण पर भी एक टिप्पणी थी, जहाँ से विवाद की शुरूआत होती है—

जब तुम कुछ कर ही नहीं सकते तब मूँड़ मारकर घर क्यों नहीं बैठे रहते?’

'हिन्दी प्रदीप (पं. बालकृष्ण भट्ट)

 

इस पर द्विवेदी जी की टिप्पणी थी— विच्चार्य शब्दों के प्रयोग में विधि-निषेध का कुछ भी बंधन नहीं देख पड़ता। यहाँ तक कि जोके आगे कोई-कोई तबका भी प्रयोग करते हैं। भाषा की यह अनस्थिरता बहुत ही हानिकारिणी है।2

 

इसी अनस्थिरता शब्द को लेकर बालमुकुंद गुप्त ने भारतमित्र पत्रिका में उसके व्याकरणिक औचित्य पर प्रश्न उठाया। उन्होंने आत्माराम नाम से द्विवेदी जी की तीखी आलोचना की और अनस्थिरता शब्द को व्याकरणसम्मत सिद्ध करने की चुनौती के रूप में कुल दस लेख लिख डाले। लेखों के अंत में अनस्थिरता शब्द की व्याकरणिक शुद्धि को लेकर सवाल उठाये जाते रहे। जैसे, (पहले लेख में)— अब द्विवेदी जी अनस्थिरता को व्याकरण से सिद्ध करें और अपने राम उनके लिए एक और लेख तैयार करें।3, (दूसरे लेख में),इस समय कृपा करके इतना बताते जाइये कि अनस्थिरता का क्या अर्थ है? स्थिरता और अस्थिरता के बीच में यह कहाँ से पैदा हो गई?”4, (तीसरे लेख में), दो सप्ताह हो गए इससे आशा होती है कि अगली हाजिरी तक द्विवेदी जी अनस्थिरता को व्याकरण से सिद्ध कर डालेंगे। दो सप्ताह में उन्होंने व्याकरण भली भाँति उलट-पलट लिया होगा।5 (पाँचवे लेख में), कहिए अनस्थिरता की क्या दशा है? वह व्याकरण से सिद्ध हुई कि नहीं? अच्छा और एक सप्ताह की मोहलत। पर मुहावरे का अर्थ भी पूछ रखना।6, दसवें और अंतिम लेख में भी बालमुकुंद गुप्त उसी अनस्थिरता का जवाब ढूढते रहे— आपसे तो अग्निहोत्रीजी अच्छे हैं, जो अपने लेख में अस्थिरता लिख गए हैं। आत्माराम को उन्होंने खूब डाँटा है, पर आपकी भाँति न्याय और सत्य को नहीं छोड़ा। इससे आत्माराम उनका धन्यवाद करके आज की टें-टें समाप्त करता है।7

 

बालमुकुंद गुप्त अपने लेखों में सिर्फ अनस्थिरता की व्याकरणिकता पर ही प्रश्न नहीं उठा रहे थे बल्कि उसके बहाने से सरस्वती पत्रिका में छपने वाले द्विवेदी जी के लेखों की अशुद्धियों की तरफ ध्यान खींचना चाह रहे थे। वे हर लेख में द्विवेदी जी के कुछ उद्धरण देकर अपनी टिप्पणी करते थे, जैसे, आपका (द्विवेदी जी का) पहला ही वाक्य है,मन में जो भाव उदित होते हैं, वे भाषा की सहायता से दूसरों पर प्रकट किए जाते हैं!’ क्यों जनाब, भाषा की सहायता से मन के भाव दूसरों पर प्रकट किये जाते हैं या भाषा से? आप टाँगों की सहायता से चलते हैं या टाँगों से? आँखों की सहायता से देखते हैं या आँखों से?”8

 

द्विवेदी जी द्वारा राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द पर की जाने वाली टिप्पणी पर बालमुकुंद गुप्त प्रतिक्रिया देते हैं—

हरिश्चन्द्र की भूलों को ठीक करके द्विवेदी जी अपने उदाहरणरूपी अस्त्र से राजा शिवप्रसाद की इसलाह करते हैं । आप उनकी बालबोध नामक पोथी से नीचे लिखे वाक्य उद्धृत करते हैं—

धरती पर अनेक देश हैं और उनमें मनुष्य बसते हैं। परन्तु सब देश के लोगों की एक-सी बोली नहीं है।

 

द्विवेदी जी कहते हैं कि सब देश की जगह सब देशों क्यों न हो? ठीक है, जो आप कहते हैं वही होना चाहिए। पर इसे आप राजा साहब की भूल समझेंगे या असावधानी? सुनिये, राजा साहब उर्दू से हिन्दी में आये थे, कदाचित इसी कारण उनसे यह असावधानी हुई। राजा साहब ने हर का तरजमासब किया है। हर देश याहर मुल्क होता तो ठीक होता। आप भी कुछ न कह सकते। हर को सब बनाने ही में देश कोदेशों बनाने की जरूरत पड़ी। स्वयं द्विवेदी जी ने भी एक मौके परहर की जगहसब लिख मारा है। आपका वह वाक्य इस प्रकार हैं—

जिस अखबार को उठाइए, जिस पुस्तक को उठाइए, सबकी वाक्य-रचना में आपको भेद मिलेगा। यहाँ हरेक की की जगह द्विवेदी जी नेसबकी लिख डाला।

जब द्विवेदी जी भूल सकते हैं तो एक भूल राजा शिवप्रसाद की भी माफ होना चाहिए।9

 

उक्त कथन से स्पष्ट होता है कि द्विवेदी जी जिन शब्दों को व्याकरणसम्मत नहीं मानते उन शब्दों का स्वयं प्रयोग कर बैठते हैं। बालमुकुंद गुप्त की इच्छा पर निर्भर करता है कि वे राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द की इस व्याकरणिक अशुद्धि को अशुद्धि मानें या एक भूल। यानी तब तक भाषा का स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पाया था। व्याकरणिक शुद्धियों-अशुद्धियों के लिए कोई मानक तय नहीं हुआ था।

 

महावीर प्रसाद द्विवेदी सरस्वती के फरवरी, 1906 में अनस्थिरता का जवाब कुछ इस तरह देते हैं— भाषा की परिवर्तनशीलता के विषय में अस्थिरता की जगहअनस्थिरता शब्द लिखना अनुचित नहीं। अस्थिरता केवल स्थिरता के प्रतिकूल अर्थ का बोधक है, जिसमें अस्थिरता की मात्रा अत्यंत अधिक है, उसके लिए अनस्थिरता ही का प्रयोग हम अच्छा समझते हैं।10

 

बालमुकुंद गुप्त, द्विवेदी जी के तर्कों से सहमत नहीं हुए और व्याकरण विचार तथाहिन्दी में आलोचना नामक लेखों के माध्यम से फिर से उनकी तीखी आलोचना की। द्विवेदी जी सरस्वती के फरवरी, 1906 में बालमुकुंद गुप्त के आक्षेपों का जवाब देते हुए नये-पुराने लेखकों की व्याकरणिक अशुद्धियों के लिए हिन्दी में अब तक व्याकरण विकसित नहीं हो पाने को जिम्मेदार मानते हैं। इस पर व्याकरण विचार में बालमुकुंद गुप्त प्रतिकार करते हैं— जितने पुराने लेखक थे, सब अशुद्ध लिखते थे। नये भी अशुद्ध और बेठिकाने लिखते हैं। जितने व्याकरण हिन्दी में हैं, वह किसी काम के नहीं, शुद्ध हिन्दी लिखना कोई जानता नहीं। जो कुछ जानते हैं सो केवल उस लेख के लेखक! यदि हिन्दी में अच्छे व्याकरण नहीं हैं और द्विवेदी जी को यह अभाव मेटने की भगवान ने शक्ति दी है तो एक अच्छा व्याकरण लिखने से उनको किसने रोका? और अब कौन रोकता है? पर व्याकरण लिखना तो शायद चाहते नहीं। चाहते हैं, अपनी सर्वज्ञता का डंका बजाना।11

 

दोनों संपादकों के बीच अनस्थिरता को लेकर विवाद जारी था। इसी बीच हिन्दी बंगवासी में गोविन्दनारायण मिश्र ने आत्माराम की टें टें लिखकर द्विवेदी जी का पक्ष लिया। वे द्विवेदी जी द्वारा किए जाने वाले व्याकरणिक परिष्कार के पक्ष में थे जिनसे हिन्दी भाषा का मानकीकरण हो सके। वे लिखते हैं, बिचारे, सरस्वती सम्पादक ने व्याकरण के नियमों पर ध्यान रख सावधानता से विशुद्ध हिन्दी लिखने की परिपाटी के सुदृढ़ करने को और असावधानता से अशुद्ध नियम विरुद्ध लिखने की कुचाल के रोकने को शत बार क्षमा प्रार्थनापूर्वक अपने उस दोष का सबसे पहले उल्लेख कर, कतिपय प्रसिद्ध हिन्दी लेखकों के लेखों का अवतरण अपनी पत्रिका में किया। निरपेक्ष विचार की दृष्टि से द्विवेदी जी के इस कार्य को कोई भी न तो बुरा ही कह सकता है, और न इससे उनका उद्देश्य ही हरिश्चन्द्रादि हिन्दी के परम प्रधान लेखकों की अवमानना करना ही कहा जा सकता है।12

 

वे द्विवेदी जी के पक्ष में अनस्थिरता को व्याकरणसम्मत ठहराने की कोशिश करते हैं—संस्कृत के व्याकरण अनुसार जिन शब्दों की आदि में स्वर वर्ण रहते हैं, उनके आगे युक्त होने वाले निषेधात्मक कोअन्, परन्तु व्यंजनों के आगे आना पड़े तो हो जाता है। हिन्दी के व्याकरण के नियमों में ऐसी कैद नहीं है। इसलिए हिन्दी शब्दों में व्यंजन के आगे आने वाले निषेधवाचक को भीअन् होता है। इससे हिन्दी मेंअनरीति,अनरस, अनहोनी, अनमिल, अनमोल, अनपढ़, अनहित, अनगणित, अनसुनी, अनहुई आदि अनेकों शब्द सर्वथा विशुद्ध ही माने जाते हैं। ऐसी अवस्था में हिन्दी के लेख में द्विवेदी जी ने अनस्थिरता लिख दी तो अनर्थ क्या हुआ?”13

 

सरस्वती, भारतमित्र तथा हिन्दी बंगवासी जैसी पत्रिकाओं में अनस्थिरता को लेकर चले विवाद सिर्फ शब्द विशेष की शुद्धि-अशुद्धि तक ही सीमित नहीं थे। बल्कि उसके माध्यम से हिन्दी भाषा की अशुद्धियों पर गहन बहस की जा रही थी। पक्ष-विपक्ष में जितने भी उदाहरण दिए जा रहे थे और उनमें जिन अशुद्धियों की तरफ ध्यान खींचने की कोशिश हो रही थी वह व्यक्ति विशेष की व्याकरणिक अशुद्धियाँ नहीं थी। बल्कि हिन्दी भाषा की प्रचलित अशुद्धियाँ थी जिनके निराकरण के लिए भाषा का मानकीकरण होना बेहद ज़रूरी था। इस विवाद का जो उद्देश्य था वह भाषा की शुद्धता को लेकर सावधानी बरतने के रूप में सामने भी आया। कृपाशंकर चौबे इसकी सकारात्मकता, भाषा शुद्धीकरण के रूप में आने वाली अतिरिक्त सावधानी के रूप में देखते हैं— डेढ़ साल तक चले उस ऐतिहासिक विवाद ने एक काम यह किया कि व्याकरणसम्मत भाषा और वर्तनी की एकरूपता के प्रति तब के लेखक और संपादक सजग-सचेत रहने लगे।14

 

अनस्थिरता संबंधी विवादों के संपादक भारत यायावर भी इस विवाद का सकारात्मक परिणाम देखते हैं— इस ऐतिहासिक वाद-विवाद ने सबसे बड़ा यह काम किया कि उस समय के तमाम लेखकों को भाषा के प्रति सजग कर दिया। स्वयं द्विवेदी जी की भाषा भी इस विवाद के बाद काफी परिनिष्ठित अवस्था में दिखाई पड़ती है, जो इस विवाद के पहले पूरी तरह नहीं थी।15

 

उर्वशी पर हुए विवाद—

इस विवाद को गोपेश्वर सिंह ने कल्पना का उर्वशी विवाद नाम से संपादित किया है। इस संकलन में कल्पना पत्रिका में रामधारी सिंह दिनकर की रचना उर्वशी पर हुए विवादों को संकलित किया गया है। कल्पना(अप्रैल, 1963) में भगवतशरण उपाध्याय ने उर्वशी पर एक विवादित लेख लिखा। इसके विरोध में जून, 1963 में कुछ पत्र छपे। उक्त विवाद पर पत्रिका को एक सार्थक बहस कराने की ज़रूरत महसूस हुई ताकि समकालीन लेखकों के विभिन्न दृष्टिकोणों से उर्वशी पर संवाद किया जा सके। फलतः कल्पना के जनवरी, 1964 में बाइस लेखकों की समीक्षाएँ और प्रतिक्रियाएँ सामने आईं। नामवर सिंह इतनी बड़ी संख्या में किसी एक विषय पर परिचर्चा में हिस्सा लेने को एक घटना की तरह देखते हैं— जनवरी, 1964 की कल्पना में प्रकाशित उर्वशी-परिचर्चा ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है जिससे समकालीन साहित्य में मूल्यों की सीधी टक्कर का पता चलता है। उर्वशी के निमित्त इस चर्चा में विभिन्न पीढ़ियों और विचारों के इतने कवि-आलोचकों का भाग लेना एक घटना है। एक केन्द्र पर इतने प्रकार के विचारों की टकराहट के ऐसे अवसर कम ही आते हैं।16

 

भगवतशरण उपाध्याय ने उर्वशी पर कई गंभीर सवाल उठाये हैं। इनमें कालविरूद्ध दोष, मौलिकता का अभाव, दर्शन का प्रदर्शन आदि शामिल है। वे मौलिकता पर सवाल उठाते हैं— गरज की हिन्दी उर्वशी संस्कृत विक्रमोर्वशी का कथानुवाद है।17 वे दर्शन के प्रदर्शन का भी आरोप लगाते हैं— वह (उर्वशी) भी अधिकतर दर्शन के प्रदर्शन के लिए ही, और इस दिशा में कामायनी से बाजी मार लेने के लिए ही लिखी गई है।18

 

भगवतशरण जी उर्वशी को जीवन के यथार्थ से कटी हुई रचना मानते हैं। उसमें वर्णन की भी अस्वाभाविकता देखते हैं। वे काम संबंधों के वर्णन में भी दार्शनिकता की कोई गहराई नहीं तलाश पाते बल्कि उसमें एक तरह की विसंगति और अस्वाभाविकता ही पाते हैं।

 

इन्हीं आरोपों के जवाब में विभिन्न लेखकों ने अपनी प्रतिक्रियाएँ दी। उनमें से ज़्यादातर भगवतशरण जी की आलोचना से असहमत ही रहे। अधिकतर लोगों को  भगवतशरण जी की आलोचना में शिष्टता, संयम, संतुलन का अभाव लगा तो कइयों को आलोचना के प्रतिमान काव्येतर कसौटियों पर कसे हुए लगे। संदर्भरहित और काव्येतर प्रतिमान के लिए सभी ने आपत्ति भी जताई।

 

मुक्तिबोध को उर्वशी का मूल दोष उसका कृत्रिम मनोविज्ञान पर आधारित होना लगता है और उसमें काम-संबंधों का जो आध्यात्मिकीकरण किया गया है वह भी वायवीय लगता है— उर्वशी का मूल दोष यह है कि वह एक कृत्रिम मनोविज्ञान पर आधारित काव्य है। कामात्मक इन्द्रिय-संवेदनाओं के जाल में खो जाने के क्षणों में, उनका आध्यात्मिकीकरण नहीं किया जा सकता। न किसी धार्मिक भावना का, न ही धर्म-भावना का बोध उस समय होता है।19

 

नेमिचन्द्र जैन उर्वशी में आधुनिक चेतना का अभाव देखते हैं। साथ ही प्राचीन मूल्यों की अभिव्यक्ति को लेकर भी उसमें एक चूक देखते हैं जो आधुनिक मन को संतुष्टि दे सके। उनका मत है— उर्वशी आधुनिक चेतना का काव्य नहीं है— उस रूप में भी नहीं जिसमें कुरुक्षेत्र है— साथ ही, उसमें किसी पिछले युग की महत्त्वपूर्ण जीवन-दृष्टि, भाव-बोध या कला-संस्कार की ऐसी अन्वितिपूर्ण अभिव्यक्ति भी नहीं है कि आज के काव्य प्रेमी पाठक को पूरी परितृप्ति दे सके।20

 

भारतभूषण अग्रवाल उर्वशी को आधुनिक-चेतना से वंचित काव्य मानने वालों से इत्तेफाक नहीं रखते और उसकी कथा संबंधी मौलिक उद्भावनाओं के कारण उसे प्रौढ़ कवि की प्रौढ़ कृति मानते हैं— पुरूरवा-उर्वशी की प्रणय-कथा को आधुनिक संदर्भों में व्यक्त कर दिनकर ने हिन्दी काव्य-परम्परा को एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि प्रदान की है। कुरुक्षेत्र में पहले उन्होंने महाभारत की कथा को आधुनिक संदर्भ दिया था, और सामाजिक संगठन की न्यायोचित भूमि खोजनी चाही थी। उर्वशी के द्वारा उन्होंने अब व्यक्ति-जीवन को विकसित विचारों का धरातल प्रस्तुत किया है। यह एक प्रौढ़ कवि की प्रौढ़ कृति है जो हिन्दी काव्य की प्रौढ़ता की घोषणा करती है।21

 

रामविलास शर्मा उर्वशी में आधुनिक जीवन बोध देखते हैं। वे रामधारी सिंह दिनकर की प्रशंसा करते हैं कि उन्होंने शृंगारिक भावबोधों का प्रयोग आधुनिक जीवन मूल्यों की अभिव्यक्ति के लिए मौलिक ढंग से किया है— उनके (दिनकर के) स्वरों में ढलकर उर्वशी की प्राचीन कथा सहज ही रीतिकालीन शृंगार परम्परा से ऊपर उठ गयी है। निराला जी के बाद मुझे किसी वर्तमान कवि की रचना में ऐसा मेघमन्द्र स्वर सुनने को नहीं मिला जैसा दिनकर की उर्वशी में। इस काव्य में जीवन संबंधी ऐसे अनेक प्रश्न प्रस्तुत किए गये हैं जिन्हें वर्तमान युग का कवि ही प्रस्तुत कर सकता था।22

 

देवी शंकर अवस्थी उर्वशी पर होने वाले विवाद को विरोध और समर्थन के दो खाँचे में बँटा हुआ पाते हैं। दरअसल यह दो गुट नहीं बल्कि नये-पुराने दो पीढ़ियों के जीवन मूल्यों और उसके दृष्टिकोणों में आए अंतर की तरह है। उर्वशी को लेकर दोनों गुटों में एक हद तक मूल्य संबंधी पूर्वाग्रह है जिसे देवीशंकर अवस्थी बयान करते हैं— सुमित्रानंदन पन्त एवं बच्चन जैसे यशस्वी कृतिकारों से लेकर नगेन्द्र(एवं एक सीमा तक हजारीप्रसाद द्विवेदी तक) जैसे आचार्य समीक्षकों तक के उसकी(उर्वशी की) प्रशंसा में स्वर लिखे-छपे रूप में मिलते रहे हैं। गो कि इनमें से एकाध से मैंने जब सीधे-सीधे प्रश्न किया तो उसकी भाषा, छन्द-योजना या मूल दृष्टि के प्रति उनके मन में कोई महत्त्व का भाव नहीं दिखा। दूसरी ओर, नवलेखन से सम्बन्धित अधिकांश व्यक्तियों ने उर्वशी के विरुद्ध एक प्रकार का कानाफूसी आन्दोलन चला रखा था।23

 

नामवर सिंह भी उर्वशी पर विभिन्न लेखकों के मतों और दृष्टिकोणों के परस्पर विरोध को मूल्यों की टकराव की तरह देखते हैं। इस विवाद में दो परस्पर विरोधी मूल्य एक-दूसरे से टकरा रहे हैं और यही टकराव उन्हें परस्पर विरोधी निष्कर्षों तक पहुँचा रही है। वे कहते हैं— "उर्वशी की आलोचना के प्रसंग में यदि रामविलास शर्मा एक छोर पर हैं और मुक्तिबोध दूसरे छोर पर— तो केवल संयोग की बात नहीं। अंतर भाषा-बोध का ही नहीं बल्कि मूल्यबोध का भी है। एक के लिए जो भाषा उदात्त है, दूसरे के लिए कोरा वागाडंबर है। एक को जहाँ आस्था का स्वर सुनाई देता है, दूसरे को थोथी दार्शनिकता। दोनों ही तार सप्तक के कवि हैं और साथ ही प्रगतिशील विचारधारा से संबद्ध भी, काव्यबोध में इतना अंतर! स्पष्ट ही यह व्यक्तिगत रुचि-भेदमात्र नहीं बल्कि दो भिन्न सुसंगत मूल्य-प्रणालियों का अंतर है।24

 

प्रो. सुधा सिंह कल्पना के उर्वशी विवाद में हिस्सा लेने वाले लेखकों-समीक्षकों के काम संबंधी दृष्टिकोणों का पुनर्मूल्यांकन करती हैं। वे काम को जीवन का अनिवार्य अंग मानती हैं और उसे नैतिकता के खांचे में फिट करने वाले सामंतवादियों से लेकर प्रगतिवादियों तक की आलोचना करने से बाज नहीं आतीं। वे उर्वशी में उठाए गए काम-प्रसंगों को एक साहसिक कदम मानती हैं, तो उसे आम आदमी के जीवन के अभिन्न अंग के रूप में स्थापित नहीं कर पाने को एक कमजोरी की तरह देखती हैं। वे अपने लेख स्त्री यौनिकता से भयभीत हिन्दी आलोचना और उर्वशी में कहती हैं— उर्वशी की ख्याति काम को प्रधान विषय बनाने के कारण है लेकिन इसका सबसे कमजोर पक्ष काम को आध्यात्मिक रंगत दे देना है। कवि अगर भौतिक सुख की विशेषकर संभोग और रति सुख को ही अपने काव्य का विषय बनाता है तो रचना श्रेष्ठ नहीं कहलाएगी, कहीं-न-कहीं रचनाकार की चेतना में यह भाव है। जबरदस्ती के अध्यात्म के कारण एक प्रकार का उथला दर्शन उर्वशी की सबसे बड़ी कमजोरी है।25

 

उर्वशी विवाद से संबंधित उक्त मतों में उसके सम्पादक गोपेश्वर सिंह दो भिन्न काव्यधाराओं का आपसी संवाद देखते हैं। वे पक्ष-विपक्ष में बिना किसी पूर्वाग्रह के, इन संवादों का होना आवश्यक मानते हैं। वे ऐसे विवादों को निंदा-स्तुति की परिधि में देखने के बजाए विभिन्न विरोधी मतों के परस्पर संवाद के हिमायती लगते हैं— कल्पना का उर्वशी-विवाद ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है, जिसके पृष्ठों पर स्वस्थ, सार्थक एवं खुली बहस के साहित्यिक साक्ष्य भरे पड़े हैं। यहाँ साहित्यिक मूल्यों की टकराहट से उत्पन्न वे चिंगारियाँ हैं जिनके आलोक में एक समय में दो भिन्न काव्य-धाराओं की पहचान तो होती ही है, यह सच भी सामने आता है कि एक ही समय में कैसे उनका सार्थक सह-अस्तित्व भी बनता है और उनके बीच सार्थक संवाद भी संभव हो पाता है।26

 

निष्कर्ष : अतः कहा जा सकता है कि विवाद साहित्य का एक अनिवार्य तत्त्व है । जब तक किसी भी स्थापना, प्रवृत्ति, मत आदि पर प्रश्नचिन्ह नहीं खड़ा किया जाता तब तक उनका एक ही पक्ष सामने आता है। इस एकपक्षीयता से उन स्थापनाओं, प्रवृत्तियों, मतों आदि का सार्थक विकास नहीं हो पाता। तब यह ज़रूरी हो जाता है कि उनका एक प्रतिपक्ष भी हो जिससे उनमें संतुलन आ सके। यह इसलिए भी ज़रूरी होता है कि दो परस्पर विरोधी मतों को जानने से अपनी तीसरी लकीर खींचना आसान हो जाता है, जिनमें दोनों के सार्थक तत्त्व मौजूद हों। विवादों के उक्त विषयों पर गौर करने से हम पाते हैं कि जिन संदर्भों को लेकर विवाद हुए उसके दृष्टिकोण में एक कसाव और चुस्ती सामने आयी। अनस्थिरता जैसे विवादों का ध्येय व्याकरणिक अशुद्धि की तरफ ध्यान दिलाना था तो बाद के दिनों में व्याकरणिक सावधानियों के रूप में उस उद्देश्य की पूर्ति भी हुई। यही बात उर्वशीसंबंधी विवाद के संदर्भ में देखने को मिलती है। इस विवाद में एक ही चीज़ किसी के लिए प्रशंसनीय थी तो किसी के लिए घोर आलोचना का विषय। तब महसूस किया गया कि साहित्य के प्रतिमान तय करने होंगे जिन पर किसी भी साहित्य का मूल्यांकन हो तो एक आम राय बनाने में मदद मिले। अगर अनस्थिरता संबंधी विवादों की परिणति व्याकरणिक शुद्धता के रूप में सामने आयी तो उर्वशी संबंधी विवादों की परिणति भी साहित्य के प्रतिमान की माँग के रूप में सामने आयी।

 

संदर्भ :

  1. महावीरप्रसाद द्विवेदी : ‘भाषा और व्याकरण निबन्ध पर किये गये आक्षेपों के उत्तर, हिन्दी की अनस्थिरता : एक ऐतिहासिक बहस, (सं. भारत यायावर), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1993, पृ. 46
  2. महावीरप्रसाद द्विवेदी : ‘भाषा और व्याकरण, हिन्दी की अनस्थिरता : एक ऐतिहासिक बहस, (सं. भारत यायावर)  पृ. 22
  3. बालमुकुन्द गुप्त : भाषा की अनस्थिरता, हिन्दी की अनस्थिरता : एक ऐतिहासिक बहस, (सं. भारत यायावर), पृ. 62
  4. वही, पृ. 66
  5. वही, पृ. 69
  6. बालमुकुन्द गुप्त : राजा शिवप्रसाद की इसलाह, हिन्दी की अनस्थिरता : एक ऐतिहासिक बहस, (सं. भारत यायावर), पृ. 75-76
  7. वही, पृ. 91
  8. बालमुकुन्द गुप्त : भाषा की अनस्थिरता, हिन्दी की अनस्थिरता : एक ऐतिहासिक बहस, (सं. भारत यायावर), पृ. 60
  9. बालमुकुन्द गुप्त : राजा शिवप्रसाद की इसलाह, हिन्दी की अनस्थिरता : एक ऐतिहासिक बहस, (सं. भारत यायावर), पृ. 73
  10. महावीरप्रसाद द्विवेदी : ‘भाषा और व्याकरण निबन्ध पर किये गये आक्षेपों के उत्तर, हिन्दी की अनस्थिरता : एक ऐतिहासिक बहस, (सं. भारत यायावर), पृ. 29-30
  11. बालमुकुन्द गुप्त : व्याकरण-विचार, हिन्दी की अनस्थिरता : एक ऐतिहासिक बहस, (सं. भारत यायावर), पृ. 56
  12. गोविन्दनारायण मिश्र : ‘आत्माराम की टें टें, हिन्दी की अनस्थिरता : एक ऐतिहासिक बहस, (सं. भारत यायावर), पृ. 129
  13. वही, पृ. 130
  14. कृपाशंकर चौबे, महावीर प्रसाद द्विवेदी और सरस्वती http://www.hindisamay.com/content/11292
  15. भारत यायावर (सं.) : हिन्दी की अनस्थिरता : एक ऐतिहासिक बहस, पृ. 6 (भूमिका)
  16. नामवर सिंह : कविता के नए प्रतिमान, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सत्रहवाँ संस्करण, 2016, पृ. 66
  17. भगवतशरण उपाध्याय : दिनकर की उर्वशी, कल्पना का उर्वशी विवाद (सं. गोपेश्वर सिंह ), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010, पृ. 25
  18. वही, पृ. 38
  19. गजानन माधव मुक्तिबोध : उर्वशी : दर्शन और काव्य, कल्पना का उर्वशी विवाद, (सं. गोपेश्वर सिंह), पृ. 61
  20. नेमिचन्द्र जैन : उर्वशी : एक भाव-विश्लेषण, कल्पना का उर्वशी विवाद (सं. गोपेश्वर सिंह), पृ. 83
  21. भारतभूषण अग्रवाल : उर्वशी का आधुनिक परिप्रेक्ष्य, कल्पना का उर्वशी विवाद, (सं. गोपेश्वर सिंह), पृ. 98
  22. वही, पृ. 117
  23. वही, पृ. 105
  24. नामवर सिंह, कविता के नए प्रतिमान, पृ. 71-72
  25. प्रो. सुधा सिंह, स्त्री यौनिकता से भयभीत हिन्दी आलोचना और उर्वशी, http://streekaal.com/2019/03/women-sexuality-and-literary-criticism/
  26. कल्पना का उर्वशी विवाद, (सं. गोपेश्वर सिंह), पृ. 17 (भूमिका)

 

उर्वशी कुमारी

शोधार्थी- पीएच.डी.

हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली

urwashipandey21@gmail.com 


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue

सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या कुमारी (पटना)

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