शोध आलेख :- दिनकर की शुद्ध कविता की खोज़ : एक अध्ययन / डॉ. विमलेश शर्मा

 दिनकर की शुद्ध कविता की खोज़ : एक अध्ययन
डॉ. विमलेश शर्मा

शोध सार : दिनकर ओज के कवि के रूप में हिन्दी साहित्य में समादृत हैं, परन्तु शुद्ध कविता की खोज पुस्तक के माध्यम से वे भारतीय परिप्रेक्ष्य में  कविता के विकास-क्रम और उसमें शुद्धता के मानक ,उसके आग्रह  और गंभीर चिंतन को प्रस्तुत करते हैं। दिनकर इस परिप्रेक्ष्य में शुद्ध कविता के इतिहास, पाश्चात्य विचारकों के मत, कला का संन्यास, कला में व्यक्तित्व और चरित्र आदि बिन्दुओं पर बात करते हैं। शुद्ध कविता की खोज’, पुस्तक के माध्यम से  दिनकर ने भारतीय और पाश्चात्य साहित्य की कविता विषयक सैद्धान्तिकी  और अवधारणाओं का परिचय प्रस्तुत करने की चेष्टा की है।
 
बीज शब्द : शुद्ध कविता, मनीषी और समाज, दुरूह कविता, परिभाषाहीन विद्रोह, शुद्ध काव्य की सीमाएँ, कविता का शुद्धतावादी आंदोलन।
 
मूल आलेख : राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' (23 सितंबर 1908-24 अप्रैल 1974)  शौर्य -सामाजिक पीड़ा - आक्रोश और पूर्ण स्वतंत्रता की अभिलाषा के रचनाकार हैं। दिनकर का जन्म सिमरिया, मुंगेर, बिहार में हुआ था। उन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। यदि यह कहा जाए कि रामधारी सिंह दिनकरहिन्दी साहित्य में छायावादोत्तर काल के प्रमुख कवि हैं तो यह बात एकांगी ही है। प्रत्युत  दिनकर ओज और आधुनिक युग के जनचेतना के गायक के साथ-साथ एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार भी थे। पद्म विभूषण की उपाधि से अलंकृत दिनकर संस्कृति के चार अध्याय के लिये  साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार  से भी सम्मानित हुए।  यह सत्य है कि उनकी रचनाओं में शब्द-दर-शब्द भारतीय संस्कृति मुखरित होती है। लेखन के प्रारंभ से ही उन्होंने राष्ट्र और जीवन, राष्ट्र की संवेदना और उनके समय में राजनीतिक चेतना में आ रहे परिवर्तनों को सजगता के साथ रूपायित किया है। एक ओर जहाँ वे ओजपूर्ण और क्रांति के स्वर वाला काव्य-लेखन करते हैं तो दूसरी और इस भाव के सर्वथा विपरीत श्रृंगारपूर्ण कोमल भावनाओं वाली कविताओं का चरमोत्कर्ष, ‘कुरूक्षेत्रऔर उर्वशीमें लिखते हैं।
 
    गांधी भारतीय प्रज्ञा के ऐसे नायक हैं जो हर कदम पर चिंतन के प्रवाह को प्रभावित करते हैं। दिनकर के अंतःकरण में भी गांधी के लिए एक अहम स्थान था। जून, 1947 में दिनकर का एक काव्य-संग्रह छपा। केवल चार कविताओं वाले इस संग्रह का नाम था- बापू।. इसके छह महीने के भीतर ही गांधी की हत्या हो गई। उनकी हत्या के बाद दिनकर का हृदय क्षोभ से भर उठा। उनकी कलम फिर से चल पड़ी। जीवित गांधी के प्रति व्यक्त किए गए अनुराग भरे शब्दों में उनके कुछ और कठोर शब्द भी जुड़ते चले गए। इन शब्दों का स्रोत थी गांधी की हत्या से उपजी मर्मांतक पीड़ा और आत्मग्लानि। जल्दी ही इस संग्रह का दूसरा संस्करण मई, 1948 में छापा गया।1 दिनकर गांधी में तमाम  जातीय-सामाजिक-राष्ट्रीय प्रसंगों   में उपस्थित भय का निवारण खोजते हैं। गांधी एक मात्र आशा की किरण हैं और उनमें इसी निश्चिंतता को टटोलते हुए दिनकर लिखते हैं-

कोई न भीत, कोई न त्रस्त; सब ओर प्रकृति है प्रेम भरी,
निश्चिन्त जुगाली करती है, छाया में पास खड़ी बकरी।
 
    दिनकर के यहाँ काव्य-संदर्भ गहरे हैं वे यहाँ स्पष्ट रूप से उद्घोषित करते हैं कि मानवता की जो कब्र वही गांधी की भी होगी समाधि। यही भाव कविता और विशुद्ध कविता के बीच की खाई को पाटने का काम भी करते हैं जिसे वे शुद्ध कविता की खोज पुस्तक में उठाते हैं। एक उदाहरण के माध्यम से ही यदि इस कविता की पड़ताल करें तो हम पातें हैं कि कवि का उद्देश्य गांधी की ऐसी तस्वीर खींचना रहा है, जिससे गांधी की देह नहीं वरन् उनके विचार, सिद्धान्त और जीवनादर्श प्रकट हों। दिनकर के विचार में यही कविता विशुद्ध कविता है। समय और विभिन्न विचारधाराओं (वादों) की गलियारों से गुजरते हुए  कविता की विभिन्न संज्ञाओं और आन्दोलनों के बीच शुद्ध कविता और उसके तत्त्वों की खोज अनवरत जारी रही है। एक कविमन ही कविता के विशुद्ध प्रदेय को समझ सकता है। इसीलिए वह कविता और शुद्ध कविता को परिभाषित भी करता है। इसी क्रम में शुद्ध कविता की खोज’, दिनकर का एक बहुचर्चित ग्रंथ है, जिसमें उन्होंने काव्य के प्रयोजन के आधार पर कविता के शुद्धतावादी आंदोलन का शोधपूर्ण इतिहास प्रस्तुत किया है। यदि इस पुस्तक में गुंफित विचार सरणियों और इसकी विषयवस्तु की बात करें तो दिनकर लिखते हैं कि यह पुस्तक निबंधों का संग्रह नहीं है। इस के सभी निबंध एक ही ग्रंथ के विभिन्न अध्याय हैं और वे विभिन्न दिशाओं से एक ही विषय पर प्रकाश डालते हैं। कविता की चर्चा केवल कविता की चर्चा नहीं रहती, वह समस्त जीवन की चर्चा बन जाती है। ईश्वर कविता और क्रांति के जीवन के समूचे में प्रवेश किए बिना समझे नहीं जा सकते। आगे लिखते हैं, नहीं, कविता हमेशा शुद्ध कविता नहीं होती, न सभी श्रेष्ठ का विशुद्ध काव्य के उदाहरण होते हैं। फिर भी मुझे यही दिखाई पड़ा की शुद्धता को लक्ष्य मानकर चलने से काव्य का नया आंदोलन समझ में कुछ ज्यादा आता है। इसलिए मैंने जहाँ-तहाँ से सामग्री या बटोरकर शुद्धतावादी आंदोलन का इतिहास खड़ा किया है और कविता की अनेक समस्याओं पर उसी दृष्टिकोण से विचार किया है। कविता लिखने की बनिस्पत कविता के बारे में लिखना कहीं मुश्किल काम है। कविता के नए आंदोलन की व्याप्ति या इतनी दुरुह है कि उन्हें एक पुस्तक के भीतर समेटने का काम असंभव पाया गया है।2  कविता के प्रयोजन को कवि व चिंतक दिनकर स्पष्ट करते हुए इस पुस्तक में कहते हैं कि कविता अगर यह व्रत ले ले कि वह केवल शुद्ध होकर जियेगी, तो उस व्रत का प्रभाव कविता के अर्थ पर भी पड़ेगा , कवि की सामाजिक स्थिति पर भी पड़ेगा, साहित्य प्रयोजन पर भी पड़ेगा। वस्तुतः शुद्ध कविता की खोज पुस्तक के माध्यम से  दिनकर ने भारतीय और पाश्चात्य साहित्य की कविता विषयक सैद्धान्तिकी का परिचय प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। इस पुस्तक में शुद्ध कविता विषयक विचारों को निम्न बिंदुओं के माध्यम से सहज ही समझा जा सकता है-
 
1. शुद्ध कविता क्या है - जिसे हम शुद्ध कविता कहते हैं, वह साहित्य की कोई सर्वथा नवीन विधा नहीं है।  जब से मनुष्य ने काव्यकला का आविष्कार किया, शुद्ध कविता की रचना वह तभी से करता आ रहा है। किन्तु, पहले उसे यह पता नहीं था कि जो कुछ वह लिखता है,उसमें दो प्रकार की कविताएँ होती हैं। एक वे जिनका उद्देश्य केवल आनन्द होता है और दूसरी वे जिनमें आनन्द के साथ कुछ ज्ञान भी रहता है, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कुछ उपदेश भी रहते हैं तथा दूर पर कहीं किसी कर्तव्य की प्रेरणा रहती है। शुद्ध कविता को अब शुद्ध कविता कहने का रिवाज है, किन्तु जो कविताएँ परिभाषा के अनुसार ठीक-ठीक शुद्ध नहीं है,उन्हें क्या कहा जाना चाहिए? उनका एक ढीला-ढाला सामान्य नाम सोद्देश्य काव्य चलता है।3  साहित्य के प्रारंभ में विद्या और ज्ञान, भाव और ज्ञान में विभाजन नहीं था।  तदनन्तर साहित्यशास्त्र के प्रादुर्भाव से यह स्पष्ट हुआ कि कविता भावों का आख्यान है। भाव और ज्ञान की यह जद्दोजहद अनवरत चलती रही जिसके तहत यह मान्यता चल पड़ी कि कविता का प्रयोजन आनन्द दान है और वह उपदेश भी देती है।
 
2. काव्य का सोद्देश्य होना गुण या दोष-  प्राचीन काल और हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक-मध्यकालीन युग में  सोद्देश्यता काव्य का दोष नहीं मानी जाती थी , किन्तु आधुनिकता जिस तरह साहित्य में घुलती जाती है, सोद्देश्यता काव्य का दुर्गुण बनती जाती है। बकौल रामधारी सिंह दिनकर, संदेशवाही कवि  पहले के समाज में आदरणीय व्यक्ति था और लोग चर्चा के दौर में उसके विचारों का हवाला देते थे, उसकी पंक्तियों को उद्धृत करते थे, किंतु अब जो कविताएं जितनी ही अधिक आधुनिक होती है, वो उतनी ही जीवन और कर्म से अधिक दूर होती है। उनका उद्देश्य मनुष्य को ज्ञान देना नहीं, उसकी चेतना को चौंकाना होता है, अतएव कर्मरत समाज उनके भीतर अपने लिए कोई प्रेरणा नहीं पा सकता, न वह इन कविताओं के प्रति कोई श्रद्धा रखता है। जैसे पहले के साहित्य में शुद्ध और स्वदेशी के बीच भेद नहीं था, उसी प्रकार पुरानी कविताओं में भाव और विचार के बीच विभाजन नहीं चलता था। साहित्य विचारों से नहीं भावों से उत्पन्न होता है। ये मान्यता पहले भी चलते थे किंतु जो विचार भावों की सहायता करने को अथवा उनकी लपेट में आते हैं उनका वजन या बहिष्कार पहले नहीं किया जाता था। कविता का प्रतिलोम गति नहीं विज्ञान है और जो बातें वैज्ञानिक तर्कों के साथ कही जाती है वे संयुक्त होने पर भी कार्य नहीं हो सकती है। इस सिद्धांत में लोग दृढ़ता के साथ विश्वास करते थे। इसका प्रमाण यह है कि छंदोबद्ध होने पर भी आयुर्वेद और ज्योतिष भारत में काव्य नहीं विज्ञान ही माने जाते हैं।4 कितनी खूबसूरत बात है कि ना भाविक व्यापार तर्क में ही बाधा बन सकता है और ना ही भावना केवल कविता की ही विषयवस्तु है , वह ललित निबंध में भी चित्रोपम शैली में अभिव्यक्त हो सकती है और गूढ ज्ञान भी छन्दोबद्ध होकर सहज रूप में अभिव्यक्त हो सकता है।
 
3.कविता भाव है या विचार?- जब तक रचनाकार भाव और विचार के द्वंद से अपरिचित था। तब तक कविता, केवल कविता थी, लेकिन आधुनिक काव्यशास्त्र ने भाव और विचार कि खाई को और गहरा कर दिया है। यहाँ आकर भाव और विचार का द्वंद्व अत्यधिक प्रखर हो उठा है। यद्यपि, सैद्धांतिक रूप से यह पता लगाना दुष्कर है कि यह भाव है और यह विचार या कि किसे कविता में रहना चाहिए और किसे नहीं रहना चाहिए। टी.एस.इलियट इसका समाधान इस प्रकार सुझाते हैं। “The poet who ‘thinks’ is merely the poet who can express the emotional equivalent of thoughts, but he is not necessarily Interested in the thought itself, we talk as if thought was precise and emotion was vague.  In reality there is precise emotion and there is vague emotion. To express precise emotion requires as great intellectual power as to express precise thought.”5 इलियट विचारणा शक्ति को भावना के समकक्ष रखते हैं। वे कहते हैं कि भावों की सटीक अभिव्यक्ति के लिए बहुत बड़ी बौद्धिक शक्ति की आवश्यकता होती है। दिनकर के अनुसार कविता में ज्ञान जहाँ भी प्रवेश करता है वह किसी न किसी कर्म की प्रेरणा से समाप्त होता है किंतु तब भी ऐसे कभी हुए हैं जो यह मानते थे कि कविता चाहे 100 देश से ही हो किंतु रचना उसके स्वांतःसुखाय ही की जाती है। ऐसे कभी गोस्वामी तुलसीदास थे जिनके यहाँ विचारों का बहिष्कार नहीं है। यद्यपि गान व अपने ही अन्त: सुख के लिए करते हैं और यही लक्षण उन सभी महाकवियों पर घटता है जिन्हें हम शताब्दियों से पूजते आए हैं। जो कवि स्वांत: सुखाय रचना करता है, उसकी कविताओं में यदि विचारों का प्राचुर्य दिखाई पड़े। तब भी ये कहने का कोई आधार नहीं है कि ये कभी स्वांत है। सुख की बात व्यर्थ करता है। असल में वह जीवन पर अपना प्रभाव डालने को बेचैन हैं क्योंकि जीवन को प्रभावित करने की उम्मीद भी, यद्यपि अंतः सुख देने वाली उमंग हो सकती है। लेकिन कभी के आत्मा नन्द का कारण ये कभी नहीं होता कि संसार को वह अपनी कल्पना से प्रभावित होते देखता है बल्कि उसका आनंद रचना की प्रक्रिया से आता है। अपने भावों को ठीक से समझने और उन्हें मूर्त रूप देने से उत्पन्न होता है। कला के लिए कला का सिद्धांत बार- बार खंडित किए जाने पर भी सत्य है।6 दिनकर की यह बात तुलसी स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा,भाषा निबंध यति मञ्जुलमा तनोति।।,  जायसीऔ मैं जानि गीत अस कीन्हा। मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा ॥7  और अनेक कवियों के अध्ययन से स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है। हर कवि रीतिकालीन कवि नहीं है जो केशव की तरह पाण्डित्य प्रदर्शन में ही रुचि रखता हो।
 
4.कला उपयोग का यंत्र है या आनंद जगाने वाली वस्तु- टॉलस्टॉय हो, इकबाल हो, या आचार्य  रामचन्द्र शुक्ल, इतिहास के ये सभी लोग कवि  के पक्षपाती रहे हैं। वे उपयोगिता में विश्वास नहीं करते थे। मोसे का कहना था कि कला उपयोग का यंत्र नहीं। वर्ण आनंद जगाने वाली वस्तु है। यदि कला की कृतियों से समाज में कदाचार फैलता हो तो भी कलाकार पर प्रतिबंध लगाना गलत काम है। वैसी हालत में सरकार को चाहिए कि वह पुलिस की संख्या में वृद्धि कर दे। रवींद्रनाथ ने लिखा है कि कला व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति को कहते हैं, किंतु मनुष्य जब तक उपयोगिता के घेरे में है तब तक वह उसका व्यक्तित्व नहीं है। व्यक्तित्व हमारा तब प्रारंभ होता है, जब हम उपयोगिता के घेरों को लांघने लगते हैं। जब हम ऐसे कार्य आरंभ करते हैं, जिनका हमारी जैविक आवश्यकताओं से कोई संबंध नहीं होता है। माता-बहन-सखी और देश सेविका के रूप में नारियों का अपरिमित उपयोग है किंतु यह उनका व्यक्तित्व नहीं है। नारी का व्यक्तित्व उसकी भंगिमा में है। सिपाही का उपयोग युद्ध भूमि में जाकर मारने और मरने में है, किंतु यह उसका व्यक्तित्व नहीं है। व्यक्तित्व उसका तब उभरता है जब वर्दी पहन कर बाजो के ताल पर कवायद की चाल में चलता है। उपयोगिता का धरातल वह धरातल है जिस पर मनुष्य और पशु दोनों समान हैं।8   कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य की मनुष्यता तभी प्रारंभ होती है जब वह अपनी जैविक आश्यकताओं से मुक्त होकर कर्म करता है। और इसी से यह भी परोक्ष रूप से सिद्ध होता है कि, “श्रेष्ठ साहित्य वह नहीं है जिसका जीवन में कोई प्रत्यक्ष उपयोग है, श्रेष्ठ साहित्य हम उसे कहेंगे जो सभी उपयोगों की सीमा के पार जन्म लेता है। जिसकी आवाज़ हम शिखर की उस ऊँचाई से सुनते हैं जो कर्म की तलहटी से दूर है। जो उपयोग की सभी सीमाओं से परे है और जहाँ पहुँचने के लिए तर्कों के सोपान नहीं बनाए जा सकते।”9 इसी विचारणा को लेकर दिनकर रहस्यवाद की सभी कविताओं को शुद्ध  कवित्व की श्रेणी में रखते हैं , क्योंकि उनके भीतर कोई उपदेश नहीं है, कर्म की कोई प्रेरणा नहीं है, न मनुष्य -समाज के सुधार तथा राष्ट्र की कोई चिंता है। कबीर जब कहते हैं, हम वासी उस देश कौ, जहाँ अविनाशी की आन।सुख-दुख कोइ ब्यापै नहीं, सब दिन एक समान ॥हम वासी उस देश कौ, जहाँ बारा मास बिलास।प्रेम झरै बिलसै कँवल, तेज पुंज परकास ॥तो दिनकर इसे शुद्ध कविता की श्रेणी में रखते हैं लेकिन जब कबीर साहब कहते हैं, हद में रहे सो मानवी, बेहद रहे सो साध। हद-बेहद दोनो तजै ताके मता अगाध10  तो यह शुद्ध कविताई नहीं है क्योंकि यहाँ विशुद्ध उपदेश है। भक्ति-रीति- छायावाद की भावना और अनुभूति प्रधान अभिव्यक्ति और प्रकृति के तटस्थ वर्णन जहाँ कोई उपदेश नहीं हो या नायिका की दशा का चित्रण करना कवि का मंतव्य नहीं हो, शुद्ध कविता का उदाहरण है।
 
5.कविता अनुभूति की विषय वस्तु है - कविता सुनाई नहीं जा सकती , मंच से सस्वर उच्चरित नहीं की जा सकती। इस प्रक्रिया में उसका बहुत कुछ छूट जाता है। इसलिए दिनकर कहते हैं, कविता गाने कि नहीं बिसूरने की चीज़ है। कविता ताली बजाने की नहीं सुन कर अपने भीतर डूब जाने की  वस्तु है।  कविता आदमी का सुधार नहीं करती वह उसे चौंकाना जानती है, धक्के देना जानती है, उसकी चेतना की मूँदी आँखो को खोलना जानती है।कविता सीढ़ियाँ नहीं छलाँगों की राह है। कविता विचारों के परवान पर चढ़कर अपने आकार को बढ़ाना नहीं जानती। वह भावना की सच्चाई के बाद एक शब्द भी नहीं बोलती है। जहाँ भावना खत्म होती है वहीं कविता का भी स्वाभाविक अंत है। इसलिए शुद्ध कविता छोटी ही हो सकती है क्योंकि भावना के प्रगाढ़ क्षण ज़्यादा देर तक नहीं टिकते। 11 स्पष्ट है विशुद्ध कविता वह है जो अनुभूति का गहन तारल्य भीतर समेटे हुए हो, जहाँ कम शब्दों में स्पष्ट भाविक- चित्र उकेरा गया हो।
 
6. शुद्ध कविता का इतिहास और मुक्तक काव्य- प्राचीन समय में कविता ने धर्म, युद्ध, प्रेम और वीरता को लेकर लिखी जाती थी। और उस समय मम्मट की यह अवधारणा सर्वसम्मति से स्वीकार थी कि सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजेपूर्व में महाकाव्य अधिक प्रचलित रहे क्योंकि उनका महनीय उद्देश्य था परन्तु कालान्तर में उनके सुभाषित अधिक लोकप्रिय और प्रभावी हुए। समय के साथ इस सोच में भी बदलाव आया कि जो कवि जितने ही अधिक महान् विषय पर कार्य करता है उसका काव्य उतना ही अधिक ऊँचा और श्लाघ्य होता है। मुक्तक इसीलिए अधिक प्रभावी होता है कि वह कथा में रहते हुए भी कमल-पात के समान उससे विलग रहकर अपना प्रभाव उत्पन्न करता है। मुक्तक की महिमा यह भी है कि एक समय वे लगभग शुद्ध काव्य के प्रतीक थे। वे छोटे होते थे, उनमें भावों का वर्णन सूत्र शैली में किया जाता था और वे वहीं समाप्त हो जाते थे, जहाँ भावों की समाप्ति होती थी। किंतु, कथाकाव्य संक्षिप्त काव्य नहीं होता, वह लंबा होता है और लम्बा वह कवित्व के कारण नहीं, कथा के कारण होता है।  किंतु, शुद्ध कविता की पंक्तियाँ कथा काव्यों में भी उतरती थी और कवि तथा पाठक उन पंक्तियों को बाकी कविता से श्रेष्ठ भी समझते थे। कविता रचते समय कवि की और उसका पाठ करते समय पाठक की दृष्टि उस समय भी इस बात पर ज़रूर जाती होगी कि कविता में सूक्ष्म सौंदर्य की ऐसी भी पंक्तियाँ उभरती है जिनका विषय से कोई खास संबंध नहीं है, जो कवि की व्यक्ति प्रतिभा की कौध से उत्पन्न होती है या जो महज शिल्प और कारीगरी के परिणाम हैं।12
 
7.शुद्ध कविता और कवि स्वभाव- यद्यपि कालान्तर में भारत में काव्य को कला का पर्याय मानने की प्रथा नहीं थी, किन्तु, कविता के प्रति यहाँ व्यवहार वही किया जाता था, जो कला के प्रति किया जाना चाहिए। भारत में कला की गणना उपविद्याओं में की गई थी और कविता की साहित्य में। आधुनिक आलोचना के सिलसिले में एक यह बात भी उल्लेखनीय है कि जिसे हम कविता के भीतर कवि का प्रच्छन्न व्यक्तित्व कहते हैं, उस व्यक्तित्व की खोज की पद्धति प्राचीन काल में नहीं चली थी, किन्तु इस विचार का बीज वामन के रीतिवाद में खोजा जा सकता है। वामन में रीतियाँ तीन ही मानी जाती है, किन्तु, वामन को यदि कुन्तक के प्रकाश में समझा जाए तो यह शिक्षा निकाली जा सकती है कि रीति केवल भूगोलवाचक न होकर कवि की वैयक्तिक भंगिमा की ओर इंगित करती है। कुंतक ने काव्य-भेद का कारण भूगोल को नहीं, कवि-स्वभाव को माना है और कहा है कि, यद्यपि कवि-स्वभाव भेद-मूलक होने से (कवियों और उनके स्वभावों के अनन्त होने से) मार्गों का भी आनन्त्य अनिवार्य है, परन्तु उसकी गणना असम्भव होने से साधारणतः वैविध्य ही युक्ति संगत है। अर्थात् रीतियाँ तीन ही नहीं हैं, वे अनन्त भी हो सकती हैं, क्योंकि दो कवियों की भंगिमा एक नहीं होती है।13 कविता कवि-स्वभाव का प्रतिबिम्ब होती है। एक कवि की कविता दूसरे कवि की कविता से भिन्न होती है, उसी प्रकार एक युग की कविता दूसरे युग की कविता से कुछ भिन्न हो सकती है। जैसे एक कवि की सभी कविताएँ परस्पर भिन्न होती हुई भी लगभग समान दिखाई देती हैं। उसी प्रकार, युग-विशेष की सभी कविताएँ परस्पर समान होती हैं। कवि के समान युग भी व्यक्तित्वशाली हुआ करते हैं। प्रत्येक युग अपने कवियों के भीतर कुछ न कुछ नयी दृष्टि पैदा करता है, कुठ-न-कुछ नयी अनुभूतियाँ जगाता है और प्रत्येक युग अपनी अनुभूतियों के अनुरूप नवीन शैली को जन्म देता है। प्रत्येक कवि की शैली एक नवीन रीति है, क्योंकि वह उसकी अपनी मनोदशा का प्रतिनिधित्व करती है।14
 
8.कविता बनाम भाव और भाषा - भारतीय साहित्यक सैद्धान्तिकी यह मानती है कि कवि की प्रधान आस्था शब्दों के प्रति होनी चाहिए।  शब्द साकार हैं और भाव निराकार। भाव कवि के अनुभव संसार और संस्कार से उत्पन्न होते हैं। अतएव कवि का कर्तव्य यही रह जाता है कि वह अपने भावों को ठीक से पहचाने और तद्नुरूप शब्दों का चुनाव करे। कविता रचते समय कवि को दो धरातलों पर जगना पड़ता है। पहला धरातल वह है, जहाँ पर भाव जगते, सुगबुगाते या तूफान बनकर खड़े होते हैं। दूसरा धरातल भाषा का धरातल है, जहाँ शब्द होते हैं, भाषा होती है, मुहावरे होते हैं। पहले धरातल पर कवि के जगने का उद्देश्य यह होता है कि जो भाव जगे हैं, उन्हें वह ठीक से पहचान सके। जहाँ कवि अपने आवेगों को ठीक से पहचान नहीं पाता, वहीं वह लिखत सुधाकर लिखि गा राहूकी उक्ति चरितार्थ कर देता है।15  स्पष्ट है कि भावों की पहचान जितनी ज़रूरी है उतना ही ज़रूरी है उन्हें भावों के अनुरूप शब्दों में बाँधना। संस्कृत के आचार्यों ने भी कवि को दोनों की ज़िम्मेदारियों के प्रति सावधान रहने को कहा है। उन्होने कहा है कविता कवि के आन्तरिक भावों का प्रस्वेद है।  कविता कवि की आत्मा का रंग है।

निष्कर्ष: दिनकर की कविता विषयक अवधारणा आज भी मानीखेज और सत्य है कि विशुद्ध काव्य आत्मा में हिलकोर उठाने वाला होता है। कविता में जीवन होता है,उसकी गतिमयता होती है।  कला एक साध्य है जो तकनीकी पूर्णता,मानवतावादी ध्येय और नैतिक आदर्शों के योग से पूजित होती है। दिनकर का कविता विषयक यह मत समीचीन है कि हर युग की कविता कुछ न कुछ नयी दृष्टि पैदा करने का सामर्थ्य रखती है। यह नयापन उसके परिवेश से उसके भीतर उपजता है। हर युग की अनुभूतियाँ कवि के प्रातिभ से अभिव्यक्ति पाती हैं और यही कविता की शुचिता है, यह शुचिता भावपरक अधिक है कलागत कम।
 
संदर्भ:
2. रामधारी सिंह दिनकर, शुद्ध कविता का इतिहास–भूमिका से उद्धृत https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.309059/page/n5/mode/2up?view=theater
3.   वही, पृ.3
4.  वही,  पृ.4
5.   T. S. Eliot: The Illusion of Reaction The Kenyon Review,Vol. 3, No. 1 (Winter, 1941), pp. 7-30 (24 pages)
6.   दिनकर, रामधारी सिंह, शुद्ध कविता का इतिहास , पृ.6
8.   रामधारी सिंह दिनकर, शुद्ध कविता का इतिहास, पृ.8
9.  वही, पृ. 9, कविता और शुद्ध कविता
10. हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,नौवीं आवृत्ति -2008,पृ.169
11. रामधारी सिंह दिनकर, शुद्ध कविता का इतिहास ,पृ.17, कविता और शुद्ध कविता
12. वही पृ.21, कविता और शुद्ध कविता
13. वही, पृ.24, कविता और शुद्ध कविता
14. वही, पृ.24, कविता और शुद्ध कविता
15. वही,पृ.26, कविता और शुद्ध कविता
 
डॉ. विमलेश शर्मा
सहायक आचार्य (हिन्दी), राजकीय कन्या महाविद्यालय, अजमेर
 
 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या कुमारी (पटना)

1 टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही बढ़िया आलेख। भाषा अत्यंत प्रभावी है।👍👍जो भी पढ़ेगा उसके ज्ञान में वृद्धि निश्चित है।

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