शोध आलेख :- संत तुकाराम का समाजशास्त्र एवं वर्तमान प्रासंगिकता : समाजशास्त्रीय पाठ / डॉ. विमल कुमार लहरी

संत तुकाराम का समाजशास्त्र एवं वर्तमान प्रासंगिकता : समाजशास्त्रीय पाठ
- डॉ. विमल कुमार लहरी

शोध-सार : प्रस्तुत शोध-आलेख संत तुकाराम के जीवन दर्शन पर आधारित है, जिसके अन्तर्गत संत तुकाराम के जीवन के क्रियापक्षों एवं मानवतावादी कार्य से जुड़े पहलुओं को दृष्टिगत किया गया है। संत तुकाराम ने जीवन को ईश्वर की अनुपम कृति के रूप में स्वीकार किया है। मानव शरीर को हितकारी कर्म की तरफ ले जाने के लिए विशेष बल देते हैं। संत तुकाराम 14वीं शताब्दी में प्रारम्भ भक्ति आन्दोलन की यात्रा की एक प्रमुख कड़ी थे। अस्पृश्यता, छुआछूत, जाति व्यवस्था एवं उनसे उपजे भेद को समाप्त करने के लिए उन्होंने सवाल खड़े किये। संत तुकाराम जहाँ एक तरफ भक्ति और साधना के एक नये स्वरूप को स्थापित करते हैं, तो दूसरी तरफ सभी वर्गों को एक साथ लेकर चलने की वकालत भी करते हैं। संत तुकाराम का पूरा जीवन हाशिए के लोकजन को केन्द्र में लाने के लिए समर्पित रहा है। इसके लिए उन्होंने धर्म के क्रियापक्ष को स्वीकार नहीं किया, बल्कि धर्म के सामाजिक पक्ष को जीवन में शामिल किया, जो कर्म प्रधान था।
 
बीज शब्द : परम्परा, वंचना, सत्संग, आधुनिकता, समन्वय, अपवित्र, अभंग, वारी, वाकरी सम्प्रदाय, प्रजाति, भक्ति एवं साधना।
 
मूल आलेख : परिचय एवं सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य: भारत में भक्ति आंदोलन एक प्रमुख सुधारवादी आंदोलन रहा, जो रूढ़िवादी, जातिभेद, धार्मिक कट्टरता, सामाजिक कुरीतियों एवं अंधविश्वास के खिलाफ था। इस आंदोलन की कड़ी के रूप में संत तुकाराम को भी देखा जाता है। वास्तव में संत तुकाराम दलित संत परंपरा के एक महान वाहक थे। उनका जन्म संवत 1520 एवं सन् 1598 में मुंबई राज्य के पुणे शहर के नजदीक देहु गांव में हुआ था। देहु गांव इंद्रायणी नदी के तट पर स्थित है। वैसे संत तुकाराम के काल निर्धारण के संदर्भ काफी मतभेद है। संत तुकाराम का जीवन भी रैदास और कबीर की ही तरह था। ये भी शूद्र जाति से थे। हाँ इनके बारे में इतना जरूर कहा जाता है कि शूद्र जाति के होते हुए भी इनका व्यवसाय वैश्य का था। बड़ी शालीनता से वे इस संदर्भ में कहते हैं कि- ‘‘मेरी जाति शूद्र है। मैंने वैश्य का व्यवसाय किया। शुरू से ही मेरे कुल में पांडुरंग भगवान की पूजा होती थी।”1
 
    हम तुकाराम कालीन संरचना को देखें तो तत्कालीन संरचना के बीच जनसंख्या का एक बड़ा भाग हाशिए पर था। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मौलिक आवश्यकताओं से वंचित था। स्वयं तुकाराम ने भी अपने पदों से इस तरह की वंचना को स्वीकार किया है। यहाँ तुकाराम संत रविदास के साथ खड़े दिखते हैं। तुकाराम ने अपनी जाति को कभी भी नहीं छुपाया, बल्कि अपने कई पदों में उन्होंनेअपने को शूद्र के रूप में स्वीकार किया है। संत तुकाराम का जीवन आर्थिक रूप से बहुत अधिक समृद्धिशाली नहीं था। इनके परिवार में महाजनी जैसा व्यवसाय था। उसी महाजनी व्यवसाय को संत तुकाराम ने भी आगे बढ़ाया। व्यवसाय में संलिप्त होने के बावजूद भी भगवान बिट्ठल की भक्ति में तल्लीन रहते थे। भगवान बिट्ठल का मंदिर पंढरपुर में था। इनके घर से मंदिर की दूरी काफी थी। इसके बावजूद भी वे पंढरपुर की वारी (यात्रा) नहीं भूलते थे। यहाँ तक कि वे प्रत्येक सप्ताह में पंढरपुर की यात्रा करने लगे। इनकी भक्ति और साधना से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने इन्हे स्वप्न में आदेश दिया कि तुम अपने घर के बगल में खुदाई करो, वहाँ मेरी मूर्ति मिलेगी। संत तुकाराम ने खुदाई किया और सचमुच भगवान बिट्ठल की मूर्ति मिली। तुकाराम ने उसी स्थान पर भगवान बिट्ठल की उस मूर्ति को स्थापित कर एक भव्य मंदिर बनवाया। अब स्वयं अपने बीच, अपने पास भगवान बिट्ठल को पाकर उनके प्रति उनकी श्रद्धा और बढ़ती गयी। संत तुकाराम अब भगवान बिट्ठल की साधना में तल्लीन होकर गाने लगे। इस तरह उन्होंने सात हजार से अधिक ‘अभंग’ लिखा। इनकी बढ़ती ख्याति से दुःखी होकर कुछ कर्मकाण्डियों ने इनके सभी ‘अभंग’ को गंगा में डूबा दिया। इस कृत्य से दुखी होकर संत तुकाराम भगवान बिट्ठल के प्रति और समर्पित हुए। घर-परिवार छोड़कर अनवरत बिट्ठल सेवा में समर्पित रहने लगे। भगवान बिट्ठल प्रसन्न होकर उन्हें स्वप्न दिया एवं कहा कि तुम्हारे सभी अभंग तुम्हें मिल जायेंगे। सुबह संत तुकाराम के लिखे सभी अभंग गंगा में बहते हुए पुनः प्राप्त हो गये। इस स्थिति के बाद उनका जीवन और ख्यातिपूर्ण हुआ। अपने ‘अभंग’ के माध्यम से संत तुकाराम ने सामाजिक परिवर्तन का शंखनाद किया एवं भक्ति आंदोलन की यात्रा को आगे बढ़ाया। इस तरह संत तुकाराम महाराष्ट्र के प्रमुख दलित संत के रूप में अपनी उपस्थिति लोकाजन के बीच दर्ज कराया। महाराष्ट्र की संत परंपरा के संदर्भ में आचार्य परशुराम चतुर्वेदी कहते हैं कि-‘‘संत’ शब्द का प्रयोग किसी समय विशेष रूप से, केवल उन भक्तों के लिए ही होने लगा था जो विठ्ठल या वारकरी संप्रदाय के प्रधान प्रचारक थे और जिनकी साधना निर्गुण-भक्ति के आधार पर चलती। इन लोगों में ज्ञानदेव, नामदेव, एकनाथ व तुकाराम जैसे भक्तों के नाम लिए जाते हैं जो सभी महाराष्ट्र प्रांत से संबंध रखते थे।’’2 संत तुकाराम का जीवन भगवान विट्ठल की श्रद्धा में सदैव गोते लगाता रहता था। विट्ठल सेवा में ही ये संवत 1907 को ब्रह्मलीन  हुए। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि संत तुकाराम संघर्षों के साथ मानवतावादी कार्यों हेतु सदैव समर्पित रहे। उनका पूरा का पूरा जीवन मानवतावादी समाजशास्त्र के रूप में देखा जा सकता है।
 
    संत तुकाराम का समाजशास्त्र- संत तुकाराम के समाजशास्त्र की बात यदि हम करें तो संत तुकाराम का सम्पूर्ण जीवन और कृत्य मानवतावादी समाजशास्त्र की महत्वपूर्ण विषय-वस्तु है। संत तुकाराम ने धर्म को अलग करके जीवन को नहीं समझा, बल्कि उसे एक हितकारी कर्म के रूप में स्वीकार किया। अतएव तुकाराम को एक क्रिया समाजशास्त्री के रूप में भी देखा जा सकता है। सत्संग, आध्यात्मिक जीवन,साधना और समाज सेवा को जीवन का आधार बनाया। संत तुकाराम तत्कालीन समय में समाज में व्याप्त समस्याओं के कारण नहीं गिनाये, बल्कि उसके समाधान का सार्थक प्रयास किया। संत तुकाराम का समाजशास्त्र काम, क्रोध एवं लोभ से दूर विरक्ति की ओर लेकर जाता है। इस संदर्भ में वे कहते हैं कि-‘‘हमारे काम, क्रोध, लोभ आदि विकार जहां के तहां खत्म हो गए हैं। इस लिए हमें अब सारी सृष्टि आनंद रूप हो गयी है।’’3 संत तुकाराम के समाजशास्त्र को कुछ पन्नों में वर्णित करना असम्भव है एवं उनके अवदानों के प्रति अन्याय भी होगा। परन्तु यहाँ शोध आलेख की शब्द सीमा को देखते हुए उनके समाजशास्त्र के महत्वपूर्ण तथ्यों को अधोलिखित बिंदुओं पर उल्लेखित किया गया है :


    सत्य और हितकारी कर्म की अवधारणा पर बल- कर्म की प्रधानता को संत समाज अनादिकाल से स्वीकार करते हुए गतिमान रहा है। संत परम्परा के बीच संत रविदास धर्म-कर्म को एक ही चश्मे से देखते हैं। कर्म के अभाव में जीवन व्यर्थ है, जैसी अवधारणा मानव को सामाजिक प्राणी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। यहाँ हम संत तुकाराम की बात करें तो उन्होंने कर्म को जीवन के एक महत्वपूर्ण हथियार के रूप में स्वीकार किया है और कर्म की पवित्रता पर विशेष बल दिया है। इस संदर्भ में उनका एक पद बहुत प्रचलित है-‘‘सत्य (वचन तथा कर्म) यही धर्म है। असत्य कर्म (पाप) है। इसके सिवाय और कुछ सार नहीं है।’’4 उनका मानना है कि लोकजन को सदैव सत्य और हितकारी कर्म के साथ जीवन को गति देना चाहिए। सत्य और हितकारी कर्म की उनकी अवधारणा मानव जीवन को कल भी राह दिखा रही थी और आज भी राह दिखा रही है।
 
    गृहस्थ जीवन के साथ भक्ति और साधना के नये स्वरूप की स्थापना- गृहस्थ जीवन के साथ भक्ति और साधना के प्रयोग की अवधारणा के संदर्भ हमें अपने प्राचीनतम धर्मग्रन्थों में देखने को मिलते हैं, जहाँ गृहस्थ जीवन के साथ भक्ति और साधना का समन्वय एक सर्वोत्तम जीवन के रूप में स्वीकार किया गया। हमारा पवित्र धर्म ग्रंथ गीता’ भी गृहस्थ जीवन के साथ भक्ति और साधना के समन्वित स्वरूप को स्वीकार करता है। भक्ति और साधना के संदर्भ में रामविलास शर्मा कहते हैं कि-‘‘मन की साधना ही वास्तविक साधना है और भक्ति का सारतत्व प्रेम है।’’5 14वीं शताब्दी के भक्ति आन्दोलन के प्रमुख संत रविदास एवं संत कबीर ने गृहस्थ जीवन के साथ ईश्वर भक्ति और साधना को स्वीकार किया। भक्तिकालीन अधिकांश संतों की कड़ी में ही संत तुकाराम दलित संत परम्परा के एक प्रमुख संत हैं। संत तुकाराम के गृहस्थ जीवन और आध्यात्मिक जीवन के समन्वय के संदर्भ में जवाहिरलाल जैन कहते हैं कि-‘‘सामान्य गृहस्थ साक्षात्कारी संत कैसे बने- तुकाराम का चरित्र इसीका सविस्तार चित्रपट है! इसलिए हृ्रदय को आकर्षित करता है।’’6 इस तरह संत तुकाराम ने भी गृहस्थ जीवन के साथ भक्ति और साधना को स्वीकार किया। तुकाराम का मानना है कि गृहस्थ जीवन में भक्ति एवं साधना का समन्वय जीवन का वास्तविक मर्म हैं। इस संदर्भ में आचार्य श्रीराम शर्मा कहते हैं कि- ‘‘सांसारिक और आध्यात्मिक कर्तव्यों का इस उत्तमता के साथ समन्वय करने से ही वे महान संत बने।’’7 इसके बाद गृहस्थ जीवन के साथ भक्ति एवं साधना का प्रचलन बड़े स्तर पर बढ़ा। आजआधुनिकता के पायदान पर संत परंपरा के बीच गृहस्थ जीवन के साथ भक्ति एवं साधना के स्वरूप देखे जा सकते हैं।
     
    त्याग एवं समर्पण के नये स्वरूप की स्थापना- त्याग एवं समर्पण जीवन का एक महत्वपूर्ण क्रियापक्ष होता है, जो व्यक्ति को एक महान व्यक्तित्व की तरफ अग्रसर करता है। यदि बात करें हम भारत में संत परम्परा के बीच त्याग एवं समर्पण की तो भारतीय संत परम्परा त्याग एवं समर्पण की वैचारिकी के साथ अनादिकाल से गतिमान रही है। संत जीवन की प्रमुख विशेषता ही त्याग एवं समर्पण के साथ जीवन जीना रहा है। संत जीवन भौतिक आकांक्षाओं से दूर प्रेम, समन्वय जैसे जीवन के बीच त्याग और समर्पण के प्रति सदैव कटिबद्ध रहा है। संत तुकाराम के जीवन को हम देखें तो इनका जीवन भी त्याग और समर्पण से पूरी तरह  प्रतिबद्ध रहा है। संत तुकाराम अपने दुश्मनों को भी उचित सम्मान और सहयोग देते हैं। इनका जीवन भगवान बिट्ठल की सेवा में समर्पित रहा है। लेकिन कभी भी ये भगवान बिट्ठल से कोई आकांक्षा नहीं रखे, बल्कि निस्वार्थ, त्याग एवं समर्पण के साथ बिट्ठल सेवा में समर्पित रहे।
 
    अस्पृश्यता एवं छुआछूत का विरोध- अस्पृश्यता एवं छुआछूत की वैचारिकी काफी लम्बे दौर से इस धरा पर विद्यमान रही है। अस्पृश्यता एवं छुआछूत के कारण जनसंख्या का एक बड़ा भाग अपनों से ही दूर हाशिए पर था। अपने ही देश के लोग, अपने ही देशवासियों की परछाईयों तक से भी अपने को अपवित्र समझते थे। वस्तुतः यह कष्ट हाशिए के लोकजन के लिए पराकाष्ठा से ऊपर था। भारत में भी हम छुआछूत की वैचारिकी को मानव सभ्यता की यात्रा के विविध कालखण्डों में बखूबी देख सकते हैं। विविध स्तरों पर जनसंख्या के एक बड़े भाग को अस्पृश्यता का दंश झेलना पड़ता था। ऐसी स्थिति के विरोध में भक्ति आन्दोलन के माध्यम से आवाजें उठनी प्रारम्भ हुईं। उन्हीं आवाजों की कड़ी में हम संत तुकाराम को भी देखते हैं। संत तुकाराम ने अस्पृश्यता एवं छुआछूत की वैचारिकी को पूरी तरह से खारिज किया एवं इसे अवैज्ञानिक माना। इस संदर्भ में तुकाराम कहते हैं कि-‘‘त्रस्त, पीड़ित और दुखी लोगों को जो अपनाता है उसी को साधु जानो। वहां भगवान का ही वास है।’’8 संत तुकाराम स्वयं शूद्र जाति से थे, जिसके कारण उन्हें अस्पृश्यता एवं छुआछूत का दंश बखूबी झेलना पड़ा। संत तुकाराम का मानना है कि इस सृष्टि का निर्माणकर्ता तो स्वयं विट्ठल भगवान हैं। इन्होंने ही सबको निर्मित किया है, फिर मानव को, मानव से भेद करने का अधिकार कैसे? अस्पृश्यता एवं छुआछूत के विरोध में उन्होंने अपने ‘अभंग’ के माध्यम से ढेर सारे सवाल खड़े किये एवं इस अमानवीय व्यवस्था के पुनर्निर्माण हेतु आवाजें उठायीं।
 
अभंग-भक्ति कविता के स्थापित साहित्यकार- भारतीय संत परम्परा के बीच हम देखें तो समाज में व्याप्त असमानता, विविध स्तरों पर भेद जैसी वैचारिकी को समाप्त करने के लिए आवाजें उठती रहीं हैं। हाँ, अंतर इतना जरूर था कि वे आवाजें धर्म की भित्ति का सहारा लेकर ‘अभंग’ पद, छन्द, दोहा एवं गायन आदि का सहारा लेकर आगे बढ़ी, क्योंकि तत्कालीन संरचना के बीच व्यवस्था परिवर्तन हेतु यही सबसे सशक्त एवं मानवतावादी मार्ग था। संत परम्परा के बीच हम साहित्य को देखें तो साहित्य की मजबूत जड़ें वहीं से पूरे पटल पर फैली हैं। हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थ उसके सशक्त प्रमाण हैं। आज हम अपने को काफी शिक्षित और उच्च शिक्षा प्राप्त मानते हैं। लेकिन हम तत्कालीन संत परम्परा के बीच साहित्य का मूल्यांकन करें तो हमसे काफी अधिक वे मूर्धन्य विद्वान थे। यहाँ तक कि बहुतायत संतों ने स्कूली शिक्षा भी प्राप्त नहीं की थी, उसके बावजूद भी उनका लेखन और साहित्य आधुनिकता के पायदान पर एक प्रमुख हस्ताक्षर है। कुछ संत तो स्वीकार करते हैं कि वे ‘हरि’ की पाठशाला में पढ़ें हैं। आज उन्हीं संतों के अकादमिक अवदानों पर भारत में पी.एचडी. लिखी जा रही हैं। उसके पुनर्पाठ किये जा रहे हैं। संत तुकाराम ने अपने ‘अभंग’ के माध्यम से तत्कालीन समाज में व्याप्त समस्याओं का विरोध ही नहीं किया, वरन् अपने ‘अभंग’ के माध्यम से तत्कालीन विद्वानों को साहित्य का पाठ भी पढ़ाया। ‘‘इनकी सब कविता प्रायः अभंग छंद में है।’’संत तुकाराम का ‘अभंग’ महाराष्ट्र में आज भी वहाँ के संतों एवं लोकजन द्वारा बड़े स्तर पर गाये जाते हैं। संत तुकाराम अपने ‘अभंग’ के रूप में आज भी जीवित दिखते हैं।
 
    महाराष्ट्र धर्म का प्रचार- संत तुकाराम और महाराष्ट्र के उनके समकालीन संतों ने ‘महाराष्ट्र धर्म’ को स्थापित किया एवं बड़े स्तर पर उसका प्रचार-प्रसार किया। महाराष्ट्र धर्म का उद्देश्य लोकजन के बीच विविध स्तरों पर समानता स्थापित करना था। सहयोग, योगदान तथा प्रेम एवं समन्वय के साथ जीवन को गति देना था। संत तुकाराम एवं उनके अनुयायियों द्वारा इस धर्म के प्रचार-प्रसार में काफी समय दिया गया। कुछ हद तक विविध स्तरों पर भेद की वैचारिकी कमजोर पड़ी। लेकिन जिन उद्देश्यों को लेकर महाराष्ट्र धर्म को स्थापित किया गया, वह पूरी तरह से मूर्त रूप नहीं ले पाया। हाँ, इतना जरूर कहा जा सकता है कि महाराष्ट्र धर्म ने लोकजन को जीने का एक नया फलसफा जरूर प्रदान किया। मानवीय मूल्यों के साथ जीवन को गतिमान करना सिखाया। सेवा ही सर्वोपरि है, जैसी वैचारिकी को लोकजन के बीच आत्मसात् कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके बारे में कहा जाता है कि-‘‘सारा महाराष्ट्र उनकी प्रसादिक वाणी से उन्नत हुआ।’’10
 
    ईश्वरीय सत्ता के एक नये स्वरूप की स्थापना- वैश्विक पटल पर ईश्वरीय सत्ता को हम देखें तो ईश्वरीय सत्ता को लेकर लोकजन विविध खेमों में अनादिकाल से अद्यतन बँटा हुआ है। कुछ लोग ईश्वरीय सत्ता को साकार रूप में स्वीकार करते है, तो कुछ लोग निराकार स्वरूप में स्वीकार करते हैं। जनसंख्या का एक बड़ा भाग ईश्वर के निराकार स्वरूप को स्वीकार करता रहा है। इसी कड़ी में हम संत तुकाराम को देखते हैं, जिन्होंने ईश्वर के एक ऐसे स्वरूप को स्थापित किया जो निराकार अस्तित्व को स्वीकार करता है। उनका मानना था कि ईश्वर तो कण-कण में विद्यमान हैं। इसलिए वह निराकार है। वे ईश्वर के ऐसे स्वरूप को स्वीकार करते हैं, जो जन-जन में बसता है। संत तुकाराम ईश्वरीय सत्ता की अवधारणा के संदर्भ में कहते हैं कि- ‘‘ईश्वर सर्वव्यापी है-ऐसा मानकर उन्होंने अपने मन के भाव को भी व्यापक बनाने का प्रयत्न किया।’’11 उसी ईश्वरीय सत्ता के कारण मानव सभ्यता गतिमान है। वे भगवान बिट्ठल को अपना ईष्ट मानते हैं, जिसे भगवान विष्णु के रूप में जाना जाता है। लेकिन उनका मानना था कि भगवान बिट्ठल सबके पास रहते हैं, सबका कल्याण करते हैं। उनकी सत्ता के बिना जीवन गतिमान नहीं हो सकता। श्रीतुकाराम की ईश्वर भक्ति  के संदर्भ में हरि रामचन्द्र दिवेकर कहते हैं कि- ‘‘श्रीतुकाराम जी के मत से सारा संसार तीन रूपों में विभक्त था। जनसृष्टि, चैतन्ययुक्त जीव और ईश्वर । ईश्वर जड़सृष्टि तथा सचेतन जीवों का अंतर्यामी अर्थात अंतःसंचालक है।यह दोनों प्रकार की सृष्टि, जो उसी की इच्छा से निर्मित हुई है, ईश्वर की देहस्वरूप है और ईश्वर इस देह का आत्मा है। सृष्टि उत्पन्न होने के पूर्व, ईश्वर अत्यंत सूक्ष्म रूप से रहता है। जैसे देह के विकारादि आत्मा को विकृत नहीं कर सकते, वैसे ही जड़, सृष्टि तथा जीवो के गुणों से ईश्वर-स्वरूप विकृत नहीं होता। यह सब दोनों से तथा अवगुणों से अलिप्त रहता है। यह नित्य है, जीवों तथा जड़-सृष्टि से ओत-प्रोतहै, सबों का अंतर्यामी है और शुद्ध आनंद-स्वरूप है। ज्ञान, ऐश्वर्य इत्यादि सद्गुणों से युक्त है। वही सृष्टि का निर्माण करता है, वही उसका पालन करता है तथा अंत में वही उसका संहार भी करता है।’’12
 
    सत्संग जीवन का आधार- समाज विज्ञान में सत्संग को प्राथमिक सम्बन्धों के पोषक के रूप में देखा जाता है। संत तुकाराम का मानना था कि सत्संग के माध्यम से जीवन को बेहतर गतिमान किया जा सकता है। संत तुकाराम भगवान बिट्ठल की वारी में सदैव तल्लीन रहते थे। यहाँ सत्संग का आशय जीवन के क्रिया पक्ष से है। अर्थात् मानव को एक-दूसरे के साथ प्राथमिक सम्बन्धों में बंधकर रहना चाहिए। वैसे भी प्राथमिक सम्बन्ध के अभाव में सत्संग की कल्पना नहीं की जा सकती। उनके घर पर सायंकाल सत्संग की मंडली जुटती थी। जहाँ भगवान बिट्ठल का भजन-कीर्तन गाया जाता था। संत तुकाराम सत्संग के संदर्भ में कहते हैं कि-
वाराग्याचें  भाग्य संत-संग  हाचि लाभ। संत कृपेचे हे दीप, करी साधका निष्पाप॥13
 
    संत तुकाराम के उपर्युक्त पद के भावार्थ को हम देखें तो व्यक्ति के वैराग्य जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य वास्तव में सत्संग की प्राप्ति है।14 संत-कृपा का यही दीपक साधक को निष्पाप बना देता है। वास्तव में भजन-कीर्तन एक ऐसा वृतान्त है, जो लोगों को एक साथ बांधे रहता है। सभी को साथ लेकर चलने पर बल देता है।
 
    शिष्य परम्परा- संत परम्परा के बीच शिष्य परम्परा एक महत्वपूर्ण कड़ी है, जहाँ संत परम्परा के लोग अपनी वैचारिकी को पुष्पित एवं पल्लवित करने के साथ-साथ लोकजन तक पहुँचाने के लिए शिष्य बनाते हैं। संत तुकाराम ने भी अपनी वैचारिकी तथा अपने सम्प्रदाय के उद्देश्यों को प्रचारित-प्रसारित एवं व्यवहार में क्रियान्वयन में शिष्य परम्परा को आगे बढ़ाया। संत तुकाराम के अनुयायियों की संख्या महाराष्ट्र में ही नहीं, पूरे भारत में बड़े स्तर पर है। लेकिन इनके प्रमुख संतों की बात करे तो कुल 13 संत ऐसे हैं जो इनके अभिन्न संतों के रूप में जाने जाते हैं। जिनमें कुछ प्रमुख नाम ‘‘संताजी जगनड़े, गंगाराम हबुळ मावाळ, शिववा कासार, रामेश्वर भट्ट और संत कवियित्री बहिणाबाई, संत नोलोवा पिंपलनेरकर है।”15
 
    दलित समाज के नायक-आज हम जिस दलित समाज की बात करते हैं उनसे विविध कालखण्डों में गुलाम, दास एवं अस्पृश्य अथवा शूद्र के रूप में इनसे व्यवहार किया गया, जिसके कारण इनका जीवन काफी अभाव, संघर्षपूर्ण एवं कष्टदायी रहा। इस समाज के अगुवा के रूप में हम संत परम्परा के विविध संतों को देखते हैं, जिसमें रामानन्द, कबीर, रविदास के बाद महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में तुकाराम हैं। तुकाराम को तत्कालीन संरचना के बीच दलित परम्परा के एक प्रमुख संत के रूप में भी जाना गया। इन्होंने स्वयं तो दलित होने का दंश झेला एवं बड़े स्तर पर हाशिए के लोकजन को इस तरह के दंश को झेलते हुए देखा। इसीलिए इन्हें अस्पृश्यता का दंश बखूबी पता था। महाराष्ट्र में इन्होंने अपनी आध्यात्मिक अलख जगाई और दलितों, पिछड़ों, शूद्रों एवं हाशिए के लोकजन को समाज की मुख्यधारा में जोड़ने का सार्थक प्रयास किया। जिसके कारण उन्हे दलित समाज के नायक के रूप में भी जाना जाता है।
 
    वाकरी एवं वैष्णव सम्प्रदाय के समर्थक- भारत में संत परम्परा के बीच अलग-अलग मत एवं वैचारिकी के कारण ढेर सारे सम्प्रदाय एवं उससे जुड़े उप-सम्प्रदाय देखे जा सकते हैं। इन्हीं सम्पद्रायों में वाकरी एवं वैष्णव सम्पद्राय भी हैं, जिनमें वाकरी सम्प्रदाय की इन्होंने स्थापना की एवं वैष्णव सम्प्रदाय के प्रबल समर्थक रहे। वैष्णव सम्प्रदाय का समर्थक होने का मूल कारण था, स्वामी रामानन्द द्वारा दलितों, पिछड़ों एवं महिलाओं को अपनी संत परम्परा से जोड़ना। संत तुकाराम ने वाकरी सम्प्रदाय की स्थापना कर एक ऐसे समाज की स्थापना पर बल दिया, जो भेदरहित था, अस्पृश्यता, छुआछूत की वैचारिकी से दूर था। आज संत तुकाराम का भौतिक शरीर नहीं है, परन्तु उनके सम्प्रदाय की यात्रा अपने स्थापत्य काल से आज आधुनिकता के पायदान पर भी जारी है। वाकरी सम्प्रदाय आज भी तोड़ने की बजाय जोड़ने की वैचारिकी पर गतिमान हैं।
 
    संत तुकाराम का समाजशास्त्र : वर्तमान प्रासंगिकता- संत तुकाराम का जीवन काफी संघर्ष भरा रहा है। उन्होने विविध स्तरों पर संघर्ष एवं चुनौतियों का सामना करते हुए जीवन को गतिमान किया। वास्तव में तुकाराम का यह संघर्ष आज के लोकजन को एक स्पष्ट दृष्टि प्रदान करता है। तुकाराम ने गृहस्थ जीवन धारण करते हुए भी साधना एवं भक्ति जीवन का अभिन्न अंग बनाया। आज के कर्मकाण्डियों के लिये यह एक महत्वपूर्ण संदर्भ है, जो धर्म के सामाजिक पक्ष को उद्घाटित करता है। धर्म एवं दर्शन का समाजशास्त्रीय स्वरूप वास्तव में मानव कल्याण पर बल देता है। भारत के साथ-साथ वैश्विक पटल पर हम देखें जनसंख्या का एक बड़ा भाग आज भी मिथ्या कर्मकाण्डों अथवा अतार्किक क्रियाओं में फंसा हुआ हैं। जबकि उसी बीच के कुछ लोकजन मिथ्या कर्मकाण्डों अथवा अतार्किक क्रियाओं की बजाय संत तुकाराम की वैचारिकी ‘मानवतावादी कर्म’ के साथ धर्म के सामाजिक पक्ष को मजबूत कर रहे हैं। आज पूरी दुनियां में सत्य एवं हितकारी कर्म के साथ जीवन को गति देने की बात की जा रही है। वास्तव में यह कृत्य संत तुकाराम ने बहुत पहले अपने जीवन में आत्मसात् कर डाला था। संत तुकाराम ने भक्ति का ऐसा स्वरूप लोकजन के सामने रखा जो आधुनिकता के पायदान पर भी लोकजन को दृष्टि प्रदान करता है- ‘‘भक्ति का मर्म जिन लोगों के हाथ लग गया है शांति, क्षमा और दया सदा उनके साथ रहती हैं।’’16 आज आधुनिक मूल्यों के बीच सामाजिक सम्बन्धों की डोर प्राथमिक सम्बन्धों की बजायद्वितीयक एवं आभाषी सम्बन्धों की तरफ बड़ी तेजी से अग्रसर हुई है। लेकिन यहाँ हम संत तुकाराम के सत्संग की बात करें, तो संत तुकाराम के सत्संग की यात्रा आज टूटते एवं बिखरते सामाजिक सम्बन्धों को मजबूत करने में एक महत्वपूर्ण अभिकरण के रूप में दृष्टिगोचर होती है। संत तुकाराम द्वारा लिखे गये ‘अभंग’ जीवन के सभी पक्षों को प्रदर्शित करते हैं और समस्त लोकजन को परमपिता ईश्वर की संतान के रूप में स्वीकार करते हैं। संत तुकाराम का यह संदर्श आज जाति, प्रजाति, धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग आदि जैसे खेमों में बंटे लोकजन को एक खेमे में लाने में सक्षम दिखता है। बस आवश्यकता है संत तुकाराम की वैचारिकी की तरफ कदम बढ़ाने की, उन्हें आत्मसात करने की।
 
    समापन-अवलोकन- प्रस्तुत शोध-आलेख संत तुकाराम के सामाजिक दर्शन पर आधारित है। यदि इस शोध-आलेख के समापन-अवलोकन की बात करें तो संत तुकाराम ने अपने वैचारिकी के माध्यम से भक्ति आन्दोलन की यात्रा को एक मजबूत आधार प्रदान किया। संत तुकाराम का पूरा का पूरा जीवन मानवता के कल्याण में समर्पित रहा। संत तुकाराम ने वर्ण व्यवस्था एवं जाति व्यवस्था पर करारा प्रहार किया। यद्यपि वे जाति एवं वर्ण व्यवस्था जैसी वैचारिकी को पूरी तरह समाप्त तो नहीं कर पाये, परन्तु इनसे जुड़े निषेध और अनैतिक कृत्यों की वैचारिकी कमजोर जरूर पड़ी। उनकी वैचारिकी वर्ण एवं जाति के खेमों में बिखरे लोगों को मानवता के सूत्र में बांधने का जरूर काम किया। संत तुकाराम का आज भौतिक शरीर नहीं है लेकिन उनकी वैचारिकी आधुनिकता के पायदान पर भी लोकजन को एक साथ लेकर चलने पर बल देती है। संत तुकाराम की वैचारिकी समाजशास्त्र की उपशाखा ‘धर्म का समाजशास्त्र’ को एक मजबूत आधार प्रदान करती है।
 
संदर्भ :
  1. जैन, जवाहिरलाल (1958) : संत तुकाराम जीवनी, राजस्थान खादी संघ, जयपुर, पृ. 2
  2. चतुर्वेदी, परशुराम (2014) : उत्तरी भारत की संत परंपरा, साहित्य भवन प्राइवेट लिमिटेड, इलाहाबाद, पृ. 16
  3. जैन, जवाहिरलाल (1958) : संत तुकाराम जीवनी, राजस्थान खादी संघ, जयपुर, पृ. 64
  4. वही, पृ. 79
  5. शर्मा, रामविलास (2009) : भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 119
  6. जैन, जवाहिरलाल (1958) : संत तुकाराम जीवनी, राजस्थान खादी संघ, जयपुर, पृ. 41
  7. आचार्य, पं. श्रीराम शर्मा : सेवा और सहिष्णुता के उपासक- संत तुकाराम, गायत्री परिवार, पृ. 32, http://literature.awgp.org/book/sant_tukaram/v2.1
  8. जैन, जवाहिरलाल (1958) : संत तुकाराम जीवनी, राजस्थान खादी संघ, जयपुर, पृ. 70
  9. दिवेकर, हरि रामचंद्र (1950) संत तुकारामहिंदुस्तानी एकेडेमी, उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद, पृ. 113
  10. वही, पृ. 26
  11. जैन, जवाहिरलाल (1958) : संत तुकाराम जीवनी, राजस्थान खादी संघ, जयपुर, पृ. 17
  12. दिवेकर, हरि रामचंद्र (1950) संत तुकाराम, हिंदुस्तानी एकेडेमी, उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद, पृ. 197
  13. आचार्य, पं. श्रीराम शर्मा : सेवा और सहिष्णुता के उपासक- संत तुकाराम,गायत्री परिवार, पृ. 20, http://literature.awgp.org/book/sant_tukaram/v2.1
  14. वही, पृ. 20
  15. जैन, जवाहिरलाल (1958) : संत तुकाराम जीवनी, राजस्थान खादी संघ, जयपुर, पृ. 13
  16. वही, पृ. 73
 
डॉ. विमल कुमार लहरी
सहायक प्रोफेसरसमाजशास्त्र विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue

सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन सत्या सार्थ (पटना)

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