शोध आलेख :- थेरीगाथा : स्त्री अस्मिता का आख्यान / संजय यादव

थेरीगाथा : स्त्री अस्मिता का आख्यान
संजय यादव

शोध सार : प्राचीन भारत के सामाजिक जीवन, विशेष रूप से स्त्रियों की दशा को जानने हेतु 'थेरीगाथा' में चित्रित इनके वास्तविक जीवन के चित्रण अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इस प्रकार के चित्रण इन गाथाओं को सजीव बनाते हैं। पालि का 'थेर' शब्द संस्कृत के 'स्थविर' शब्द से निकला है। इस प्रकार 'थेरगाथा' शब्द स्थविरों अर्थात् वृद्ध, पुराने या प्राथमिक बौद्धों के गीतों का बोधक है। इसी प्रकार प्राथमिक बौद्ध साधिकाओं के गीत 'थेरीगाथा' कहलाते हैं।

भिक्षुणियों ने अपने जीवन अनुभवों को थेरीगाथा के रूप में लिपिबद्ध किया। इन भिक्षुणियों को 'थेरी' कहा गया एवं इनकी रचना को 'थेरीगाथा' कहा गया। बौद्ध साहित्य में 'थेरीगाथा' त्रिपिटक में सुत्तपिटक के खुद्दकनिकाय के नवें खंड के रूप में संकलित की गयी हैं। इस ग्रंथ में बुद्धकालीन भिक्षुणियों के पद्यबद्ध जीवन संस्मरण हैं। भिक्षुणियों के उद्गारों में व्यक्तिगत विशिष्टता की पूरी ध्वनि विद्यमान है। उन्होंने अपने पारिवारिक जीवन और सामाजिक जीवन के विषय में हमें बहुत कुछ बतलाया है। अपने पूर्व जीवन के सुख- दुख, हर्ष- विषाद, विषमताओं और कटुताओं आदि के बारे में भी उन्होंने बहुत कुछ कहा है।

इस प्रकार अपने गृहस्थ-जीवन की समस्याओं की ओर मुक्ता, गुप्ता और शुभा नामक भिक्षुणियों ने संकेत किये हैं। उब्बिरी, किसा गोतमी और वाशिष्ठी भिक्षुणियों के वचनों में उनके संतान-वियोग की पूरी झलक है। सुन्दरी नन्दा और चन्दा ने पति आदि संबंधियों की मृत्यु के पश्चात् प्रव्रज्या प्राप्त की, इसकी सूचना हमें प्राप्त होती है।

बीज शब्द : थेरीगाथा, स्त्री, अस्मिता, भिक्षुणी संघ, गणिका, वैदिक काल, उत्तर वैदिक काल, रूढियाँ, अंधविश्वास, कर्मकांड।

मूल आलेख : विश्व की विभिन्न संस्कृतियों के निर्माण में नारी का योगदान महत्वपूर्ण रहा है तथा सभी युगों में किसी भी राष्ट्र की संस्कृति का मुख्य मापदंड भी नारी की स्थिति ही रही है। स्त्रियों की दशा युग के अनुरूप परिवर्तित होती रही है। उनकी स्थिति में वैदिक युग से लेकर पूर्व मध्य युग तक अनेक उतार - चढ़ाव आते रहे हैं तथा अनेक अधिकारों में निरंतर परिवर्तन भी होते रहे हैं। वर्तमान समय में स्त्री, दलित, आदिवासी, किन्नर आदि विमर्शों के द्वारा उनकी समस्याओं को समाज के सम्मुख प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। तत्कालीन समय में भी थेरीगाथा के अंतर्गत भिक्षुणियों से संबंधित वैयक्तिक एवं सामाजिक आयाम दृष्टिगोचर होते हैं।

विश्लेषण : वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत उन्नत थी। वैदिक काल से लेकर ईसवी शताब्दी के प्रारम्भ तक कन्या का वेदाध्ययन उपनयन संस्कार से प्रारम्भ होता था। सूत्र युग में भी स्त्रियाँ वेदों का अध्ययन तथा मंत्रोच्चारण करती थीं। "पूर्व वैदिक काल में लोपामुद्रा, विश्वावारा, सिकता तथा घोषा आदि अनेक विदुषी स्त्री कवियों ने वैदिक मंत्रों की रचना भी की थी।"1

उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की अवनति आरंभ हुई। जिसका प्रमुख कारण राजनीतिक अस्थिरता एवं सामाजिक संकीर्णता थी। महाजनपद काल (600 . पू.- 325 . पू.) के दौरान विभिन्न धार्मिक आंदोलनों का उदय हुआ। जिनमें जैन धर्म , बौद्ध धर्म, वैष्णव धर्म, शैव धर्म आदि प्रमुख थे। बौद्ध धर्म की उत्पत्ति के संदर्भ में रामधारी सिंह दिनकर का कथन दृष्टव्य है- “बौद्ध धर्म का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ जब नारी पुरुष के अत्याचारों से दबी जा रही थी, शास्त्रकारों ने जिसे कोई व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं दी, उसके लिए बौद्धकाल में अमर संवेदना का संदेश मिला।"2 महात्मा बुद्ध द्वारा आरंभ किये गए बौद्ध धर्म में सभी को निर्वाण प्राप्ति का अधिकार था, जिसमें किसी भी प्रकार के भेदभाव की आज्ञा नहीं थी। सर्वप्रथम उन्होंने ही महिलाओं को भी बौद्ध संघ में प्रवेश करने की आज्ञा दी और निर्वाण प्राप्ति का अधिकार भी दिया।

जहाँ तक इन भिक्षुणियों के वंश या सामाजिक कुल- शील आदि का संबंध है, ये प्रायः सभी परिस्थितियों की थीं। उदाहरणतः खेमा, सुमना, शैला और सुमेधा कोसल, मगध और आलवी के राजवंशों की महिलाएँ थीं। महापजापती गौतमी, तिष्या, अभिरूपा नंदा, सिंहा, धीरा आदि शाक्य और लिच्छवि आदि सामंतों की लड़कियाँ थीं। मैत्रिका, अन्यतरा, चाला, उपचाला, रोहिणी आदि ब्राह्मण वंश की थीं। गृहपति और वैश्य (सेठ) वर्ग की महिलाओं में पूर्णा, चित्रा, श्यामा, उर्विरि, शुक्ला आदि थीं। अड्ढकासी, अभय -माता, विमला और अम्बपाली जैसी गणिकाएँ भी थीं। इसी प्रकार शुभा सुनार की पुत्री और चापा एक बहेलिये की लड़की थी। पूर्णिका एक दासी पुत्री थी। 'थेरीगाथा' में सन्निहित इनके उद्गारों और उनमें प्रतिध्वनित इनकी पूर्व जीवनचर्याओं से पाँचवीं-छठीं शताब्दी ईस्वी पूर्व के भारतीय समाज में नारी के स्थान पर प्रकाश पड़ता है।

विचार एवं काव्यगत सौंदर्य भी यहाँ देखे जा सकते हैं जैसे 'आज मेरी भव- रज्जु कट गयी, ' 'मेरे हृदय में बिंधा तीर निकल गया, ' 'तृष्णा की लौ सदा के लिए बुझ गयी, 'मैं सब मलों से विमुक्त हूँ, ' 'अब मैं सर्वथा शांत हूँ, 'निष्पाप हूँ' आदि भिक्षुणियों के उद्गार, अपना गंभीर और शांत प्रभाव लिए हुए हैं और मानव- मन को पवित्रता की उच्च भूमि में ले जाते हैं।

"बौद्ध भिक्षुणियाँ तो अशेष संस्कारों को ही अनित्य, दुःख और अनात्म मानती हैं, वासना के क्षय के लिए प्रयत्न करती हैं, सौंदर्य में अशुभ की भावना करती हैं। फिर इन बंधनों से मुक्ति प्राप्त कर लेने पर उनके सुख के गीत क्यों न हों? यही आधुनिक गीतों और इन भिक्षुणियों के आध्यात्मिक गीतात्मक उद्गारों की मुख्य विशेषताएँ हैं।"3

निराशा, दुःख और स्वच्छंदता की प्रवृत्तियाँ जो विश्व के अधिकांश गीति-साहित्य की विशेषताएँ हैं, वह यहाँ नहीं मिलेंगी। भिक्षुणियों के उद्गारों में निराशावाद का निराकरण है, पुरुषार्थ की विजय है, साधनालब्ध इंद्रियातीत सुख  का साक्ष्य है और नैतिक ध्येयवाद की प्रतिष्ठा है। स्त्रीत्व को वे सत्य प्राप्ति में बाधक नहीं मानतीं। वह कहती भी हैं- 'जब चित्त अच्छी प्रकार समाधि में स्थित है, ज्ञान नित्य विद्यमान है और अन्तर्ज्ञानपूर्वक धर्म का सम्यक दर्शन कर लिया गया है, तो स्त्रीत्व हमारा क्या करेगा? 'थेरियों ने अपने जीवन के दुःख को समझा और उसे व्यक्त भी किया और उस दुःख से मुक्त होकर जिस परम शांति का अनुभव किया, उसको भी व्यक्त किया। "थेरियों ने अपने सामाजिक जीवन को, अपने पारिवारिक जीवन को, नारी के रूप में समाज में उनके स्थान को, तत्कालीन सामाजिक धार्मिक मान्यताओं को अच्छी तरह काव्यमय शैली में गाया है।"4

थेरीगाथा केवल जीवनानुभवों का काव्य मात्र नहीं है, बल्कि प्राचीन भारत में नारी की स्थिति, नारी की ओर देखने का समाज का दृष्टिकोण आदि कई बातों का वर्णन थेरीगाथा में मिलता है। यह थेरियाँ ऐतिहासिक थेरियाँ हैं, पौराणिक या काल्पनिक थेरियाँ नहीं हैं। इस थेरीगाथा में जितनी थेरियाँ हैं, वह तत्कालीन समाज के अधिकांश वर्गों से आई हैं। दुखी सभी हैं, समाज व्यवस्था से सभी प्रताड़ित हैं। सभी का दुःख सामाजिक व्यवस्था द्वारा निर्मित है। इसे ही थेरीगाथा में भिक्षुणियों ने व्यक्त किया है कि भिक्षुणी बनने से पहले उनका जीवन निराशाओं से भरा हुआ था। जब उन्होंने प्रत्यक्ष या किसी के द्वारा बुद्ध वचनों को सुना तो उनकी निराशा दूर हो गयी। इस कारण उनके जीवन में बुद्ध के ज्ञान का प्रकाश छा गया और वह बुद्ध के पथ पर चल पड़ीं।

थेरीगाथा में भिक्षुणी सोमा और मार का संवाद तत्कालीन समाज में स्त्री की स्थिति को दर्शाता है मार कहता है- "जो स्थान ऋषियों के द्वारा भी प्राप्त करने में अत्यंत कठिन है, उसे दो अंगुली मात्र प्रज्ञा वाली स्त्री प्राप्त कर लेगी, यह कभी संभव नहीं।"5 सोमा मार को फटकारते हुए कहती है- "देख ! मैंने सभी जगह से अपनी वासना का संपूर्ण विनाश कर दिया है। पापी मार ! प्राणियों का अंत करने वाले! समझ ले! आज तेरा ही अंत कर दिया गया! तू मार दिया गया।"6

इन भिक्षुणियों ने अपने पथ स्वयं तैयार किये हैं। इन्हें अपनी साधना पर पूर्ण विश्वास है। ये अपने जीवन में उपस्थित सभी कठिनाइयों को पार करते हुए आगे बढ़ती हैं तथा सत्य की प्रक्रिया के साथ महात्मा बुद्ध की शरण में जाती हैं। इनकी आत्मा पूर्ण रूप से ईश्वर भक्ति में विलीन हो गयी है। हम देखते हैं कि यह समाज के विभिन्न वर्गों तथा जातियों से आती हैं किन्तु भिक्षुणी संघ में आकर इनके कर्म एवं उद्देश्य एक हो जाते हैं। वे जीवन पर्यंत कठोर साधना में लगी रहती हैं तथा उनकी कठोर साधना एवं ब्रह्मचर्य के बल पर वह प्रवृज्या धारण करती हैं। हम कुछ उदाहरणों के माध्यम से इसे समझने का प्रयास करेंगे-

मुत्ताथेरी अपने पारिवारिक जीवन की त्रासदी का वर्णन करते हुए कहती है-

"सुमुत्ता साधुमुत्ताम्हि, तीहि खुज्जेहि मुत्तिया।
उदुक्खलेन मुसलेन पतिना खुज्जकेन च।
मुत्ताम्हि जातिमरणा भवनेति समहताति।।"7

( अर्थात्-मैं सुमुक्त हो गयी, भली प्रकार से विमुक्त हो गयी। तीन टेढ़ी वस्तुओं से मैं भली प्रकार से विमुक्त हो गयी। ओखली से, मूसल से और अपने कुबड़े स्वामी से, मैं भली प्रकार से मुक्त हो गयी। किन्तु इससे भी एक और महान मुक्ति मुझे मिल गयी, मैं आज जरा और मरण से भी मुक्त हो गयी।)

मुत्ताथेरी भिक्षुणी संघ में जाने के पश्चात् अपने पारिवारिक जीवन का वर्णन करते हुए कहती है कि घर के निरंतर कार्यों से मैं मुक्त हो गयी साथ ही अयोग्य पति जो उसे कोई महत्व नहीं देता था, उससे भी मुक्त हो गयी। इस प्रकार वह वृध्दावस्था एवं मृत्यु से भी मुक्त हो गयी है। यह उसके निरंतर संघर्षों का ही परिणाम है जिस कारण वह इन समस्त बाधाओं से मुक्त हो पायी। इस प्रकार हम देखते हैं कि वह सांसारिक दुःखों से मुक्त हो गयी और उसने अपने जीवन को एक नई दिशा प्रदान की।

सुमंगलमाता भी अपने पारिवारिक जीवन का दुःखद वर्णन करते हुए कहती है-

"सुमुत्तिका सुमुत्तिका, साधुमुत्तिकाम्हि मुसलस्स।
अहिरिको मे छत्तकं वा पिता, उक्खलिका मे देड्डुभं वाति।।8

( अर्थात्-अहो! मैं मुक्त नारी! मेरी मुक्ति कितनी धन्य है! पहले मैं मूसल लेकर धान कूटा करती थी, आज उससे मुक्त हुई। मेरी दरिद्रावस्था के वे छोटे-छोटे खाना पकाने के बर्तन, जिनके बीच में मैं मैली -कुचली बैठती थी और मेरा निर्लज्ज पति मुझे उन छातों से भी तुच्छ समझता था, जिन्हें वह अपनी जीविका के लिए बनाता था।)

प्रस्तुत काव्यांश में भी सुमंगलमाता अपने घर की दारिद्र्य अवस्था का चित्रण करती है, जहाँ वह दरिद्रता के कारण स्वच्छता की कमी का चित्रण रसोई घर के माध्यम से करती है साथ ही यहाँ अयोग्य पति का चित्रण देखा जा सकता है, जो अपनी पत्नी को तुच्छ समझता है। इस प्रकार वह अपनी पारिवारिक समस्याओं से मुक्त हो जाती है, जहाँ उसका कोई सम्मान नहीं होता। यह समस्या आज भी हमें आधुनिक समय में दिखाई देती है, जहाँ महिलाएँ घरेलू हिंसा जैसी समस्याओं का सामना करती हैं।

पटाचारा भिक्षुणियों को पारिवारिक जीवन में मृत्यु के विषय में उपदेश देते हुए कहती है-

"यस्स मग्गं न जानासि, आगतस्स गतस्स वा।
तं कुतो चागलं सत्तं, मम पुत्रों ति रोदसि"।।"9

( अर्थात्-वह किस पथ से आया , किस पथ से चला गया! इतना तक जिसके विषय में तू नहीं जानती, तब उसके लिए जो तेरे पास कुछ समय के लिए था, तू 'मेरा पुत्र! मेरा पुत्र! ' कह- कहकर क्यों रोदन करती है?)

पटाचारा भिक्षुणियों को संतान की मृत्यु के पश्चात् जीवन की क्षणभंगुरता को यहाँ चित्रित करती हुई कहती है कि जो भी हमारे पास है, वह कुछ क्षण के लिए ही है तथा जो यहाँ इस पृथ्वी पर आया है, उसे एक दिन जाना ही है। वह कुछ क्षण के लिए ही हमारे पास था, तो फिर किस बात का मोह, जिसके विषय में हमें ज्ञात है। यहाँ इस बात का भी अभिज्ञान होता है कि मनुष्य को मोह से मुक्त होना चाहिए अन्यथा वह दुःखों से ग्रसित रहेगा।

पुण्णाथेरी एक ब्राह्मण के साथ हुए अपने संलाप का प्रत्यवेक्षण करती हुई कहती है उसे गाथाबद्ध कर कहती है-

"उदहारी अहं सीते, सदा उदकमोतरि।
अय्यानं दणडभयभीता, वाचादोसभयट्टिता।।"10

( अर्थात्-मैं पनिहारिन थी। सदा पानी भरना ही मेरा काम था, स्वामिनियों के दण्ड के भय से , उनके क्रोध-भरे कुवाच्यों से पीड़ित होकर, मुझे कड़ी सर्दी में भी सदा पानी में उतरना पड़ता था।)

पुण्णाथेरी एक दासी पुत्री थी जिसे समाज में निम्न स्थान प्राप्त था , जिस कारण वह केवल दास जीवन जीने को अभिशप्त थी, अपनी जीवनचर्या का चित्रण करते हुए वह कहती है कि पनिहारिन का कार्य अत्यंत दुष्कर था क्योंकि अत्यंत शीत ऋतु में भी उसे ठंडे जल में उतरना पड़ता था ताकि उसे स्वामिनियों के कुवाच्य सुनने को न मिलें। इस कारण वह सदैव भयभीत रहती थी।

वह एक ब्राह्मण से चर्चा करते हुए आगे कहती है-

"सग्गं नून गमिस्सन्ति, सब्बे मण्डूककच्छपा।
नागा च सुसुमारा च, ये चन्ने उदके चरा"।।11

(अर्थात्-यदि जल से ही शुद्धि होती है, तब तो मेंढक, कछुए, जल के सर्प, मगर और अन्य जलचरों का स्वर्गगमन निश्चित है। )

पुण्णाथेरी एक ब्राह्मण से चर्चा करते हुए जल से शुद्धि की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहती है कि यदि जल से ही शुद्धि होती तब तो जल में रहने वाले जलीय जंतु भी शुद्ध हो जाते और वे स्वर्ग की ओर अवश्य प्रस्थान करते। इस कारण वह कहना चाहती है की यदि मनुष्य का हृदय निर्मल हो तो जल से शुद्धि की कोई आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार वह आगे कहती है-

"ओरब्भिका सूकरिका, मच्छिका मिगबन्धका।
चोरा च वज्झघाता च, ये चन्ने पापकम्मिनो “II"12

( अर्थात्- यदि जल स्नान से पाप मुक्ति होती है, तो फिर भेड़ -बकरी, सूअर और मृगों को मारने वाले या उनका मांस बेचने वाले मछुआरे, चोर, जल्लाद और अन्य पापी लोग, सभी पाप-कर्म करने के बाद जल में स्नान कर, क्या पाप मुक्त नहीं हो जायेंगे?)

पुण्णाथेरी आगे कहती है कि यदि जल स्नान से ही मुक्ति संभव है तो व्यक्ति को पाप कर्म करने के पश्चात् जल से स्नान कर लेना चाहिए ताकि वह सभी पाप कर्म से मुक्त हो जाए। इस कारण वह जल से शुद्धि की प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह लगाती है।

भद्दाकापिलानीथेरी स्वयं तथा अपने पति के साथ सामाजिक जीवन को त्याग कर भिक्षुणी संघ में प्रव्रज्या लेती है, वह कहती है-

"दिस्वा आदीनवं लोके, उभो पब्बजितो मयं।
त्यम्ह खीणासवा दन्ता, सीतिभूतम्ह निब्बुताति I13

(अर्थात्- सांसारिक जीवन के दोषों और दुष्परिणामों को देखकर हम दोनों ने संसार से संन्यास ले लिया। आज हम दोनों ही आत्म- विजयी हैं, सर्वथा निष्पाप हैं, निर्वाण प्राप्त कर हम दोनों परम शांत हैं। निर्वाण की परम शांति का हमने साक्षात्कार किया है।)

भद्दाकापिलानीथेरी मानती है की इस जीवन में विभिन्न प्रकार के दोष हैं जैसे कि रूढ़ियाँ एवं धार्मिक कर्मकांड जिनके कारण जीवन में दुष्परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं। इस कारण व्यक्ति विभिन्न प्रकार के पाप कर्मों में संलिप्त हो जाता है। इसलिए वह और उसका पति  इस संसार से मुक्त होकर संघ में प्रवेश करते हैं।

खेमा अंधविश्वासों की आलोचना करते हुए कहती है-

"नक्खत्तानि नमस्सन्ता , अग्गिं परिचरं वने।
यथाभुच्चमजानन्ता, बाला सुध्दिममन्नथ”II14

(अर्थात्- सत्य को यथार्थ रूप से न जानते हुए ही, मूढ़ जन नक्षत्रों को नमस्कार करते हैं, वनों में अग्नि- पूजा करते हैं और इस प्रकार शुद्धि-प्राप्ति की आशा करते हैं। )

खेमा कहती है कि समाज में शुद्धि प्राप्ति हेतु मूर्ख जन नक्षत्रों पर विश्वास करते हैं जबकि वे सत्य को ढूँढने का प्रयत्न ही नहीं करते हैं तथा साथ ही यज्ञ आदि के माध्यम से शुद्धि का प्रयास करते हैं किन्तु शुद्धि के ये सारे प्रयास निरर्थक हैं। थेरीगाथा की थेरियाँ आंतरिक परिवर्तन का प्रतीक हैं। इसलिए डॉ. अंबेडकर ने कहा थामैं समाज की उन्नति का अनुमान इस बात से लगाता हूँ कि उस समाज की महिलाओं की कितनी प्रगति हुई है। नारी की उन्नति के बिना समाज एवं राष्ट्र की उन्नति असंभव है।"15

निष्कर्ष : अंततः यह कहा जा सकता है कि थेरीगाथा में इन भिक्षुणियों के उद्गार और उनमें प्रतिध्वनित इनकी पूर्व जीवनचर्याओं से पाँचवीं-छठी शताब्दी ईसा पूर्व के भारतीय समाज में नारी के स्थान पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। उनके जीवनानुभव उनकी कविताओं के माध्यम से प्रस्फुटित होते हैं। चाहे वह उनके पारिवारिक जीवन जुड़े हों जहाँ वह गृहस्थ जीवन की समस्याओं को लेकर दुःखी हैं या सामाजिक जीवन से जहाँ उस जीवन में व्याप्त रूढ़ियाँ, अंधविश्वास, कर्मकांड आदि का चित्रण भली प्रकार से देखने को मिलता है। यह चित्रण पौराणिक कथावस्तु के अंश नहीं हैं अपितु यथार्थ रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। इस कारण हम कह सकते हैं कि यह समस्याएँ आज भी हमारे समाज को जकड़े हुई हैं तथा उनसे मुक्ति के प्रयास आज भी देखे जा सकते हैं।

संदर्भ :
1. उर्मिला प्रकाश मिश्र, प्राचीन भारत में नारी, हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर-1978, पृ.  2
2. रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली-1956, पृ. 155
3. भरत सिंह उपाध्याय, वस्तुकथा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली-1967
4.विमलकीर्ति, थेरीगाथा, भूमिका, सम्यक प्रकाशन, दिल्ली-2018
5. भरत सिंह उपाध्याय, थेरीगाथाएँ, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली-1967, पृ.  26
6. वही, पृ. 27
7. काश्यप, जगदीश भिक्षु, खुद्दकनिकाये, नव नालंदा महाविहार, बिहार-2017, पृ.  405
8.वही, पृ. 407
9.वही, पृ. 422
10.वही, पृ. 43
11.वही
12.वही
13.वही, पृ. 414
14.वही, पृ. 423
15. मेघवाल, कुसुम, भारतीय नारी के उद्धारक बाबा साहेब डॉ.बी. आर. आंबेडकर, सम्यक प्रकाशन, दिल्ली-2014, पृ. 101

संजय यादव
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग, मेघालय
sanzyad@gmai.com, 9899879831

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue

सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन सत्या सार्थ (पटना)

Post a Comment

और नया पुराने