शोध आलेख : फणीश्वर नाथ रेणु के आंचलिक संसार में विचरण करती स्त्री ('मैला आँचल' एवं 'दीर्घतपा' उपन्यासों के विशेष संदर्भ में) / एकता देवी

 फणीश्वर नाथ रेणु के आंचलिक संसार में विचरण करती स्त्री
('मैला आँचल' एवं 'दीर्घतपा' उपन्यासों के विशेष संदर्भ में)
- एकता देवी

शोध सार : हिंदी उपन्यास साहित्य में फणीश्वर नाथ रेणु का आगमन एक धूमकेतु के समान हुआ। उनका पहला उपन्यास 'मैला आँचल' अपनी आंचलिकता के कारण अत्यंत प्रसिद्ध हुआ। यह उपन्यास जितना अपनी आंचलिकता के कारण प्रसिद्ध हुआ उतनी ही अलग-अलग व्यक्तित्व का आवरण ओढ़े स्त्री पात्रों को लेकर भी इसने चर्चा बटोरी। साहित्य में समाज के ताने-बाने का चित्रण होता है, बिना समाज के साहित्य का सृजन असंभव है और समाज स्त्री और पुरुष दोनों से मिलकर बनता है। रेणु के रचना संसार में समाज के इन दोनों आधार स्तंभों स्त्री और पुरुष का समान रूप से चित्रण मिलता है। रेणु ने अपने कथा साहित्य में अधिकतर स्वतंत्र भारत की ग्रामीण स्त्री को स्वयं निर्णय लेने वाली, मन की कोमल, प्रतिभा संपन्न, संघर्षों का सामना करने वाली के रूप में चित्रित करने के साथ-साथ एक शोषित स्त्री के रूप में भी चित्रित किया है। कई स्थानों पर तो यह स्त्री पात्र अपने तर्कों से पुरुष पात्रों पर भारी पड़ती हुई दिखाई देती है। रेणु का आंचलिक संसार इन स्त्री पात्रों के बिना ना केवल अधूरा है बल्कि अस्तित्वविहीन है। इनके आंचलिक संसार में यह आधी आबादी अपने पूरे व्यक्तित्व के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती हुई प्रतीत होती है।

बीज शब्द : पितृसत्ता, मठ, दासी, मनोवैज्ञानिक, नैतिकता आदि।

मूल आलेख : रेणु ने जहां स्त्री के संपूर्ण व्यक्तित्व को खोलकर पाठक के सामने रखा है वहीं पर उन्होंने इस बात का भी चित्रण किया है कि गांव में कैसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था हावी रहती है और इस व्यवस्था के सामने स्त्री की प्रतिभा कहीं दब कर दम तोड़ देती है। उनके लिए उनके वजूद का निर्धारणकर्ता पुरुष ही रहता है। स्वतंत्रता के पश्चात बनाई गई विकास योजनाओं में स्त्री की भूमिका को स्थान ही नहीं दिया गया या फिर बहुत कम स्थान दिया गया। रेणु ने अपने आंचलिक उपन्यासों के माध्यम से किसी विशेष विषय को ना उठाकर उस समय की गांव की स्थिति को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दिया। उन्होंने स्त्रियों की स्थिति को भी आदर्शवादी रूप में प्रस्तुत ना करके उसी रूप में प्रस्तुत किया जिस रूप में उनकी स्थिति वास्तव में होती है फिर भले ही वह किसी भी वर्ग से आती हो। गांव में प्रत्येक स्त्री की स्थिति चाहे वह किसी भी वर्ग की हो लगभग एक जैसी ही होती है। प्रसिद्ध समकालीन लेखिका अनामिका के अनुसार -"स्त्री समाज एक ऐसा समाज है जो वर्ग, नस्ल, राष्ट्र आदि संकुचित सीमाओं के पार जाता है और जहां कहीं दमन है, चाहे जिस वर्ग, जिस नस्ल की स्त्री त्रस्त है-वह उसे अपने परचम के नीचे लेता है।"1 इनके उपन्यासों में वर्ग-भेद, पारस्परिक कलह, जाति-भेद, नारियों का यौन शोषण, भोग-विलास सभी प्रकार के दृश्य देखे जा सकते हैं। इनके उपन्यासों के सभी स्त्री पात्र अपने में आंचलिकता लिए हुए हैं। उदाहरण के लिए 'मैला आँचल' की कमली, लछमी, मंगला आदि ऐसी ही पात्र है जो इस क्षेत्र की आंचलिकता को उभारने में सक्षम है। रेणु ने इन सभी पात्रों के रहन-सहन, खान-पान, बोलचाल,आदत आदि का बड़ी तन्मयता के साथ अंकन किया है। ये सभी विभिन्न वर्गों, विभिन्न जातियों और विभिन्न विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। इस उपन्यास में उन्होंने मठ का चित्रण करते हुए मठ की दासी लछमी के माध्यम से बाल यौन शोषण एवं दासी-प्रथा का चित्रण करके  उसकी दयनीय स्थिति पर प्रकाश डाला है। महंत सेवादास अबोध बालिका लछमी के साथ दुराचार करता है। महंत रामदास जी लक्ष्मी को अपनी दासी बनाना चाहता है। मठ की संपत्ति और लछमी को देखकर लरसिंघदास स्वयं वहां का महंत बनना चाहता है। नागा साधु भी लछमी का अपमान करता हुआ उसे गालियां देता है।

 इस तरह हम देखते हैं कि लछमी का हर कोई शोषण करना चाहता है। भारत यायावर के अनुसार,"जबकि रेणु ने इन सताए हुए शोषित पात्रों की सांस्कृतिक संपन्नता, मन की कोमलता और रागात्मकता तथा कलाकारोचित्त प्रतिभा का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।"2 लेकिन रेणु ने लछमी को अनवरत रूप से शोषण की शिकार दिखाकर भी उसके बदले हुए चरित्र को एक सशक्त सामाजिक कार्यकर्ता, समाज के लिए समर्पित और बालदेव की आदर्श प्रेमिका और पत्नी के रूप में चित्रित करके यह साबित करने का प्रयास किया है कि अगर स्त्री अपने मन में यह ठान ले कि उसे उसके शोषण का विरोध करना है तो वह अपने आप को एक सशक्त महिला भी बना सकती है। मठ में वह महंत रामदास को जिस तरह से लताड़ती है और अपना विद्रोहिणी रूप दिखाती है उसे देखकर रामदास डर जाता है। 'मैला आँचल' उपन्यास की ही एक पात्र है- कमली जो उपन्यास के नायक डॉ प्रशांत से प्रेम करती है और विवाह से पूर्व ही उसके बच्चे की मां बन जाती है। डॉ. प्रशांत से मिलने से पूर्व कमली का रिश्ता तीन जगह से टूट जाता है जिससे परेशान होकर वह बीमार रहने लगती है। कमली के माध्यम से रेणु ने कामकुंठाग्रस्त एवं मनोवैज्ञानिक रूप से परेशान ग्रामीण युवती का चित्रण किया है। उसका वर्णन करते हुए डॉ. प्रशांत अपनी दोस्त ममता को लिखता है-"केस अजीब है। केस हिस्ट्री और भी दिलचस्प है। तुम्हारी शीला रहती तो आज खुशी से नाचने लगती; हिस्टीरिया, फोबिया, काम-विकृति और हठ प्रकृति जैसे शब्दों की झड़ी लगा देती।"3 मैला आँचल उपन्यास की ही एक और पात्र है-ममता जो कि उपन्यास में बहुत ही कम स्थानों पर चित्रित हुई है। लेकिन सीमित समयावधि में रहते हुए भी वह अपनी आदर्शवादिता, निस्वार्थ भावना एवं मानवता की भावना के कारण पाठकों के हृदय पर अपनी एक छवि छोड़ने में सफल होती है। उपन्यास का नायक डॉ. प्रशांत ममता की प्रेरणा से ही फिर से अपने अनुसंधान के कार्य में जुट जाता है। वह ममता को कहता है -"ममता ! मैं फिर काम शुरू करूंगा। ग्रामवासिनी भारत माता के मैले आँचल तले।"4 इसी उपन्यास की एक पात्र है-मंगला जो चरखा सेंटर की मास्टरनी है और अपने निजी स्वार्थ की भावना से परे हटकर जब गांव में बीमारी फैलती है तो अपने स्वास्थ्य की परवाह करते हुए सभी की देखभाल करती है। लेकिन जब वह स्वयं बीमार पड़ती है तो कालीचरण के अलावा उसकी देखभाल करने कोई नहीं आता। उसकी इसी सेवा भावना के कारण स्त्रियों से पांच हाथ दूर रहने वाला कालीचरण उसके प्रति आकृष्ट हो जाता है।

            अपने उपन्यास 'मैला आँचल' में रेणु यह भी बताते हैं कि मजदूर घरों की औरतें भी काम करती है क्योंकि केवल पुरुषों की कमाई से घर नहीं चल सकता। इस स्थिति का चित्रण करते हुए रेणु लिखते हैं-"हल-फाल काम-काज बंद करने से मालिक लोग मजदूरी तो नहीं देंगे। एक-दो दिन की बात रहे तो किसी तरह खेया भी जा सकता है। सात दिन तक बिना मजदूरी के? ततमा और दुसाध टोली के लोगों की बात जाने दीजिए। उनकी औरतें हैं, सुबह से दोपहरिया तक कमली में कादोपानी हिल-डुल कर एक-दो शेर गैंची मछली निकाल लाऍगी।5 इस तरह से हम देखते हैं कि ग्रामीण परिवेश की मजदूर वर्ग की स्त्रियां आर्थिक रूप से भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। इन सबके अलावा प्रस्तुत उपन्यास में अनेक स्त्री पात्र हैं जैसे- चिचाय की मां जिसका व्यवसाय अवैध गर्भपात कराना है। पार्वती की मां के माध्यम से लेखक ने ग्रामीण समाज में व्याप्त डायन प्रथा पर भी प्रकाश डाला है। पार्वती की मां के पति, देवर- देवरानी, बेटा-बेटी किसी बीमारी के चलते काल का ग्रास बन जाते हैं जिससे गांव के पाखंडी लोग उसे डायन कहते हैं -"डाइन है। तीन कुल में एक को भी नहीं छोड़ा। सब को खा गई। पहले भतार को, इसके बाद देव-देवरानी, बेटा-बेटी सब को खा गई। अब एक नाती है उसको भी खा रही है।"6

उपन्यास की एक अन्य पात्र फुलिया के अनेक मर्दों के साथ अवैध संबंध है। वह मुक्त काम संबंध में विश्वास रखती है तथा नैतिक बंधनों को स्वीकार नहीं करती। सहदेव मिश्र के साथ उसके संबंध होने पर भी वह  खलासी के साथ विवाह करना चाहती है और फिर खलासी से विवाह करके उसको छोड़ कर पैरमान के साथ रहती है और अपने पुराने प्रेमी सहदेव मिश्र से भी मिलती रहती है। फुलिया की बहन रमपियरिया भी अपनी बहन का ही अनुसरण करती है। इस तरह से फणीश्वर नाथ रेणु ने उपन्यास की स्त्री पात्रों में भी आंचलिकता का समावेश करने के साथ-साथ वास्तविक स्थितियों का चित्रण किया है। अपनी कहानियों की भूमिका में वे लिखते हैं-"मैंने भारतीय गांवों में व्याप्त घिनौने-विषाक्त वातावरण का अपनी कहानियों में यथार्थपरक चित्रण किया है।"7

            बेला गुप्त रेणु के तीसरे आंचलिक उपन्यास 'दीर्घतपा'की प्रमुख स्त्री पात्र है। बेला की तप से भरी हुई जिंदगी और परोपकार की भावना के कारण उपन्यास का नामकरण भी बेला को ध्यान में रखकर किया गया है। बेला गुप्त व्याभिचारी कुप्रवृत्ति का शिकार होकर भी हिम्मत नहीं हारती और नर्स बनकर लोगों की सेवा करती है। वह अपने जीवन में आने वाले अंधेरों और दु:खों पर रोने वाली अबला बनकर सबला बनकर पाठक के मन-मस्तिष्क पर अपनी अमिट छाप छोड़ती है। बेला के पिता भी यही कहते हैं - "बेटी! अबला नहीं शक्ति की आराधना करके सबला बनना है तुम्हें।"8इसी को चरितार्थ करते हुए वह विपरीत से विपरीत परिस्थितियों का भी सामना करती है और परोपकार के कार्यों से प्रकाश बिखेरती रहती है। अंत में वह गबन करने, व्याभिचार का अड्डा चलाने जैसे आरोपों को सिर्फ इसलिए स्वीकार कर लेती है ताकि विभावती को अपमानित ना होना पड़े। अगर वह चाहती तो स्वयं बच सकती थी लेकिन उसके ऐसा करने पर उसकी कीमत विभावती और गौरी को चुकानी पड़ती और इस तरह वह अपने चरित्र के उच्च सोपान पर पहुंच जाती है। इसी उपन्यास की पात्र हैं-ज्योत्सना आनंद जिसे हम उपन्यास की खलनायिका के रूप में देखते हैं। श्रीमती आनंद पैसों के लिए कुछ भी कर सकती है, इसके लिए वह घृणित से घृणित काम करने में भी संकोच का अनुभव नहीं करती। वह बेला गुप्त को भी पथभ्रष्ट करने की कोशिश में लगी रहती है। पाठकों के मन में इस पात्र के प्रति घृणा ही पैदा होती है। वह नारी निकेतन, नारी गृह जैसे संस्थानों में अनैतिक कार्यों को अंजाम देने से भी नहीं चूकती।

डॉक्टर गोपाल राय के अनुसार- "इस उपन्यास में इन छात्रावासों के अंदर पनपने वाले भ्रष्टाचार, स्त्रियों के काम-शोषण आदि का अंकन हुआ है।9 इसी उपन्यास की एक अन्य सशक्त स्त्री पात्र है-जिसके मार्गदर्शन की छत्रछाया में ही बेला गुप्त परमार्थ की सेविका बनकर भलाई का उजाला समाज में फैलाती है। दूसरी तरफ यह श्रीमती ज्योत्सना आनंद के कार्यों को बिल्कुल पसंद नहीं करती है। लेखक ने रमला बनर्जी के रूप में एक करुणा, दया, त्याग, समर्पण, प्रेरणास्पद नारी की मूर्ति को एक सजीव साकार रूप दिया है। उपन्यास की एक पात्र वीणा रमला बनर्जी के लिए कहती है- "रमला मौसी नहीं होती तो अब तक किसी साहू के आध दर्जन बच्चों की बीमार मां होती और रमला मौसी के किसी मेटरनिटी सेंटर में दवा के लिए रिरियाती फिरती।"10 इसी उपन्यास की अन्य पात्रों में विभावती, गौरी, कुंती, तारा, अंजू, मंजू इत्यादि शामिल है जो अपनी विशेषताओं के कारण पाठक को प्रभावित करती है। फणीश्वर नाथ रेणु का यह कथन उपन्यासों की इन पात्रों पर लागू होता हुआ जान पड़ता है- "इसमें फूल भी हैं, शूल भी,धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरुपता भी- मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।"11

निष्कर्ष : इस तरह से हम देखते हैं रेणु के दोनों आंचलिक उपन्यासों 'मैला आँचल' एवं 'दीर्घतपा' उपन्यासों की सभी स्त्री पात्र अपनी पूरी योग्यताओं, विशेषताओं एवं अपनी कमजोरियों के साथ-साथ अपने क्षेत्र की पूरी आंचलिकता को अपने में समेटे हुए हमारे सामने उपस्थित होती है। रेणु के आंचलिक सागर में गोते लगाती हुई कोई स्त्री पात्र अत्यंत उदार है तो कोई क्रूर है, कहीं पर वह नैतिकता के उच्च आयाम स्थापित करती हुई दिखती है तो कोई नैतिकता की दृष्टि से निकृष्टता के गड्ढे में गिरी हुई दिखाई देती है। कोई नितांत स्वार्थी है तो कोई परमार्थ को ही अपने जीवन का ध्येय मानती है। इन पात्रों में अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार उदारता, परमार्थ, हृदय की कोमलता, धैर्य, एकनिष्ठ प्रेम, स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता है तो वहीं पर स्वार्थ, अनैतिकता, छल-कपट, धूर्तता, लालच, निर्णय लेने का अभाव, व्याभिचारी व्यवहार भी है।

संदर्भ :
1. अनामिका : स्त्रीत्व का मानचित्र, सारांश प्रकाशन, दिल्ली, 1999, पृष्ठ संख्या-15
2. भारत यायावर (सं.) : रेणु रचनावली, भाग-1, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या-17
3. फणीश्वर नाथ रेणु : मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
4.वही
5.वही
6.वही
7. रेणु की लोकप्रिय कहानियां, पुस्तक की भूमिका- अपनी कहानियों में मैं अपने को ढूंढता फिरता हूं।
8. फणीश्वर नाथ रेणु : दीर्घतपा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2008, पृष्ठ संख्या- 53
9. गोपाल राय : हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2014, पृष्ठ संख्या- 251
10. फणीश्वर नाथ रेणु : दीर्घतपा,  राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2008, पृष्ठ संख्या- 25
11. फणीश्वर नाथ रेणु : मैला आँचल,  राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण की भूमिका।

एकता देवी
 सहायक आचार्य, हिंदी साहित्य, श्रीमती नर्बदा देवी बिहाणी राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नोहरहनुमानगढ़
aktadevi1987@gmail.com, 9351299272

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांकअंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue

अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन

सम्पादन सहयोग प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)

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