- डॉ. प्रमोद कुमार प्रसाद
शोध सार : लोक जीवन की दैनिक अनुभूतियाँ हमारे हास - विलास एवं सुख-दुख की भावामय अभिव्यक्ति जब संगीतात्मक परिवेश में लयात्मक शब्दावली के माध्यम से अभिव्यक्त होती है, तो उसे लोक-गीत कहा जाता है। लोक-गीत, लोक-जन द्वारा विशेष परिस्थिति, स्थल, कर्म और संस्कार के समय हुई अनुभूतियों की लयपूर्ण सामूहिक अभिव्यक्ति है। जीवन के सभी पहलुओं एवं भिन्न परिस्थितियाँ में मनुष्य के मानसिक तथा शारारिक व्यापार जैसे भी होते हैं, उनका यथार्थ चित्रण इन्हीं में मिलता है। देश का कोई भी भू-भाग रहा हो, कोई भी सांस्कृतिक विरासत रही हो, कोई भी भाषा, धर्म, जाति रहे हों, लोकगीतों ने सभी को परे रखकर अपने माधुर्य से समूचे देश का मन मोहा है।
आज लोकगीतों की प्रगतिशील चेतना के पीछे ढकेलते हुए,
उन पर गंवारूपन का मुलम्मा चढ़ाकर उसे स्त्री-विरोधी और अश्लीलता का पर्याय बताया जा रहा है। अश्लीलता लोकगीतों का मूल चरित्र नहीं है। यह लोकगीतों का बाजारीकारण है। इन्हें बिकाऊ बनाने की लिए अश्लील बनाया जा रहा है। इनकी जनपक्षधरता तोड़ी जा रही है। इसकी संवेदना को क्षीण करने, नष्ट करने के निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं। विकास के नाम पर लोक को मटियामेट किया जा रहा है। टेलीविजन के माध्यम से वह सब परोसा जा रहा है जो उसके रहन-सहन और उसकी कार्य संस्कृति के अनुकूल नहीं है। उसे वह आचरण करने के लिए मजबूर किया जा रहा है जिसमें सदियों पुरानी लोक-हत्या की धज्जियाँ उड़ रही हैं। उसे वह गाने बजाने को कहा जाता है जिसे मुंबई में बैठे संगीतकार तैयार करते हैं। उसके भीतर अपनी लयों, अपने गीतों और वाद्यों के प्रति हिकारता का भाव पैदा किया जा रहा है। उसे बताया जा रहा है कि अब तक जो तुम्हारे पास था, वह तुम्हें जाहिल-जपाट बनाये हुए था। सभ्यता की दौड़ में तुम बहुत पीछे छूट गए हो। तुम पिछड़े, गैर-कायदों वाले अक्लहीन जन हो। इन सबके बावजूद लोकगीतों का आकर्षण कम नहीं हो रहा है क्योंकि लोक गीत, सिर्फ गीत नहीं है, सामाजिक-सांस्कृतिक धरोहर है। लोक-गीत, लोक-कथाएँ, लोक-नृत्य, लोक-नाट्य आदि भी गाँव की मूल्यवान परम्पराएँ हैं। ये हमारी अक्षय निधियाँ हैं जिनसे जुड़कर अधिक समृद्ध होता है क्योंकि इनमें लोक-जीवन के गहरे सुख-दुख, आकांक्षाएँ, प्रश्न और जिज्ञासाएँ, स्वपन और कठोर यथार्थ बड़े सहज भाव से व्यक्त हुए हैं और वे काल के प्रवाह में भी मैले नहीं हुए हैं, बल्कि नित नयी दीप्तियाँ धारण करते हुए चलते रहते हैं। इसलिए जो साहित्य और कलाएँ इनसे जुड़ती हैं, उनकी नवता में अद्भुत छवि दिखाई पड़ती है, इनसे काटा हुआ साहित्य और कलाएँ कुछ अभिजनों के बीच बौद्धिक विलास या विमर्श बन कर रहा गया है।
बीज शब्द : लोक-गीत, लोक-नृत्य, लोक-कथाएँ।
मूल आलेख : लोक-संस्कृति के उपादानों में लोकगीतों का महत्त्व सर्वोपरि होता है। इन्हीं गीतों के बयार से वर्ष के विभिन्न ग्रामीण अंचलों का वातावरण सुरभित हो उठता है। लोकगीत के लोक के आनंद दुख-सुख आदि का उद्गार है। इन गीतों में लोक जीवन की असंख्य ध्वनियाँ गूँजती हैं। यह हमारे जीवन के अभिन्न अंग हैं। इनमें मानव हृदय के सच्चे उद्गार व्यक्त होते हैं। इनमें जीवन का निष्कपट अभिव्यंजन होता है। लोकगीत के प्रत्येक शब्दों में जीवन की यथार्थ चेतना घुली-मिली रहती है। लोकगीत ग्रामीण जनता की भावनाओं, उनके संवेगों, अनुभूतियों एवं उनकी सौन्दर्य-भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं। लोकगीत लोकमानस की मौखिक परंपरा की धरोहर है। जीवन के सभी पहलुओं एवं भिन्न–भिन्न परिस्थितियों में मनुष्य के मानसिक तथा शारीरिक व्यापार जैसे भी हों, उनका यथार्थ चित्रण इन्हीं में मिलता है। लोक-गीतों में सामूहिक चेतना की पुकार मिलती है तथा जीवन में समय-समय पर होने वाले सामाजिक बदलावों का आभास मिलता है। लोक-गीतों में जनता के जीवन का इतना विशद चित्रण होता है कि आपको उनमें किसी भी देश की मूल संस्कृति तथा जन-जीवन के दर्शन का प्रमाण मिल जाएगा। सुमन राजे के शब्दों में, “लोकगीत के उन्मुक्त स्वरों में लोकचेतना अपने समूचे उल्लास और अवसाद को लेकर उमड़ती है।”1 इसमें लोक-जीवन के सुख-दुख, माधुर्य और करुणा का भावपूर्ण चित्रण रहता है। केवल प्रेम और विरह ही नहीं, जीवन के अन्य पक्षों की भी मार्मिक अभिव्यक्ति इन गीतों मे होती है। लोकगीत ग्राम्य-संस्कृति के जागरूक प्रहरी कहे जाते हैं।
‘लोक गीत’ अंग्रेजी भाषा के ‘Folk
Song’ शब्द का पर्याय है। अपने परिवेश की गंध को उद्घाटित करने में लोक गीत सहायक होते हैं। कुछ विद्वानों ने लोक गीतों को अर्धसभ्य तथा असभ्य मानस की उपज मन है। इस संदर्भ में श्री कुंजबिहारी दास ने कहा है, “लोक गीत उन लोगों के जीवन की अनायास प्रवाहत्मकता की अभिव्यक्ति है जो सुसंस्कृत तथा सुसभ्य प्रभावों से बाहर रहकर कम या अधिक रूप में आदिम अवस्था में निवास करते हैं।”2 परंतु इस प्रकार की व्याख्या अनुचित होगी। मानव-आत्मा की विविध भावनाओं की अनुभूति को सहज सुंदर गीत के रूप में व्यक्त करने के लिए लोक गीत से अधिक सुगम अन्य कोई दूसरा माध्यम नहीं हो सकता। भारतवर्ष का कोई भी अन्य रूप भारतीय प्रथाओं, रीति-रिवाजों और हमारे आंतरिक जीवन की मनोवैज्ञानिक गहराई को इतने स्पष्ट तथा सशक्त ढंग से व्यक्त नहीं कर सकता जितना की लोक गीत कर सकते हैं।
लोक-गीतों का प्रयोग आंचलिक उपन्यासों के लिए एक अनिवार्यता की तरह प्रतीत होती है। आँचलिक उपन्यास ग्रामीण जीवन को उसकी समग्रता में पकड़ना चाहता है तो लोक गीत उसके पकड़ से बाहर कैसे रह सकता है?
लोक-गीत हमारी ग्रामीण-जीवन-चर्या में रमा हुआ है। गाँव के उत्सव, पर्व, ऋतुओं, सभी लोकगीत गाते हैं। लोक-गीत स्थितियों की वास्तविक विधान भी करते हैं। श्रम का परिहार भी करते हैं और लोक-मन की परतों को भी खोलते हैं। वे उसके अवसाद और उल्लास, अंधकार और उजास की अभिव्यक्ति करते हैं। यानी कि वे ग्राम जीवन की पूर्ण पहचान के प्रमुख कारकों में से हैं। लेकिन उपन्यासों में अब तक गाहेबगाहे ही उनका प्रयोग हुआ है, क्योंकि वे जिस धरती और जीवन की पहचान के लिए जरूरी हैं, उन्हें अब तक कम ही उपन्यासों में अपना आधार बनाया है। यदि आधार बनाया भी है तो उनकी समस्त छवियों को देखने के स्थान पर उनकी कुछ प्रमुख समस्याओं को ही केंद्र में रखा है। हिन्दी उपन्यास में रेणु ने लोकगीतों की समृद्ध परंपरा को कथा के साथ पहली बार इस यथार्थ को प्रभावी रूप से प्रस्तुत किया है। रेणु ने ‘मैला आँचल’ में गाँव को उसकी समग्रता और संश्लिष्टता में देखा इसलिए उन्होंने लोक तत्त्वों का प्रयोग विपुल मात्र में किया है। लोकगीतों के साथ हिन्दी के लोकप्रिय लेखक रेणु का बहुत गहरा संबंध है। यह स्वाभाविक भी है। असल में ग्रामीण संस्कृति, लोकगीत-संगीत, नृत्य, बोलचाल, रहन-सहन आदि से रेणु को बेहद लगाव था। मैथिली और भोजपुरी के पचासों लोकगीत उन्हें याद थे। लोक गीतों के संदर्भ में रेणु की भावात्मक समरसता महत्त्वपूर्ण है। उनका कहना है, “मैं लोकगीतों की गोद में पला हूँ। इसलिए हर मौसम में मेरे मन के कोने में उस ऋतु के लोक गीत गूँजते रहते हैं। मैं कहीं भी रहूँ- इन लोक गीतों की स्मृति-ध्वनियाँ मुझे अपने गाँव में कुछ क्षण के लिए पहुँचा देती है।’’3
भारतीय समाज में कई पर्व-त्योहार मनाये जाते हैं,
पर उसमें होली का अपना विशेष महत्त्व है। बसंतोंत्सव का उल्लास साकर रूप ग्रहण कर के होली के रूप में फूट पड़ता है। ढोल, मिरदंग और कर्तारों की तुमुल ध्वनि के बीच गाने वालों की उठती गिरती स्वर लहरी मन को हठात आकर्षित कर लेती है। वर्ष के विभिन्न पर्वों पर ग्रामीण अंचल, विशेषतः मैथिल अंचल का वातावरण गीतमय हो उठता है। प्रस्तुत उपन्यास में होली का रंग सबसे अधिक गाढ़ा है। यह रंग जिंदगी का सूचक है - ‘जो जिए सो खेले फागा। ’ डॉक्टर मेरीगंज को प्यार करने लगा है, जिन्दगी को खुल कर जीना चाहने लगा है। इसीलिए उसकी इच्छा है कि कोई उसे भी रंग दे।
होली की एक लोकप्रिय गीत है ‘जोगीडा।’ वैसे इस गीत को पुरुष समाज द्वारा अश्लील रूप में गाए जाने की भी परंपरा रही है,
परंतु रेणु ने इनको सामाजिक-राजनीतिक चेतना का रंग दे दिया है,
बेंग हजारों उसमें करते हैं टर्र
वैसे ही राज आज कांग्रेस का है
लीडर बने हैं सभी कल के गीदड़ ... जोगी जी सर...र र.... !
जोगी जी, ताल न टूटे
जोगी जी, तीन ताल पर ढोलक बाजे
जोगी जी, ताक धिना धिन !
चर्खा कातो, खध्धड़ पहनो, रहे हाथ में झोली
दिन दहाड़े करो डकैती बोल सुराजी बोली ...
जोगी जी सर...रर... !”4
सच कितना भी सच हो,
उसे कहा नहीं जाता, लेकिन रेणु ऐसी बातों को कहने के लिए होली का अवसर चुनते हैं और हास्य-विनोद के साथ जात-पाँत पर हल्ला-बोल देते हैं। जोगीड़ा की तरह ही भँड़ौवा भी होली का पारंपरिक गीत है। मैला आँचल में ‘भँड़ौवा’ द्वारा तत्कालीन मेरीगंज की सामाजिक स्थिति का निर्मम उद्घाटन द्रष्टव्य है। ‘भँड़ौवा’ में सामाजिक जिन्दगी के पक्षों पर कड़ी आलोचना सुनाई पड़ती है। सवर्ण या ऊँची कही जाने वाली जातियों के पुरुषों के निम्न जाति की स्त्रियों के साथ काम-संबंधों के उद्घाटन के साथ ही, उनकी अस्पृश्यता और अनैतिकता की पोल इस लोकगीत में खोली गयी है। रेणु मेरीगंज गाँव के यौन संबंधों के चित्रण से वहाँ की बीमार सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों पर व्यंग्य कर हमें उसके मूलभूत कारणों की ओर हमें सोचने को मजबूर करते हैं।
सुपति-मउनियाँ लाए डोमनियाँ, माँगे पियास से पनियाँ
कुआँ के पानी न पाए बेचारी, दौड़ल कमला के किनरियाँ,
तेकरे खातिर दौड़ले बौड़हवा, छोड़के घर में बभनिया ……….
दिन भर पूजा पर आसन लगाके पोथी-पुरान बँचनियाँ
रात के ततमाटोली के गलियन में जोतखी जी पतरा गननियाँ।
भकुआ बभना, चुम्मा लेवे में जात नहीं रे जाए।’’5
उपन्यास में ‘भउजिया लोकगीत’ का भी जिक्र है। हमारे समाज में भौजी का संबंध मजाक एवं हँसी-ठिठोली से लिया जाता है। ऐसे में कमली की दशा का वर्णन करने के लिए लेखक भउजिया गीत की पंक्तियों के माध्यम से उसकी मनोदशा की अभिव्यक्त का काम कर लेता है –
कब होइहैं गवना हमार रे भउजिया।
हथवा रँगाये सैयाँ देहरी बैठाई गइले
फिरहू न लिहले उदेश रे भउजिया!’’6
यह गीत एक गाड़ीवान गा रहा है। गाड़ीवान राह चलते गाते ही रहते हैं,
लेकिन यह मात्र चलते का गाना है क्या? नहीं। ननदिया के दिल की हूक गाड़ीवान के दिल की कूक बनकर निकल रही है। भउजिया? कमली की तो कोई भौजी भी नहीं है, किससे दिल की बात कहे। भउजिया की ननदिया की तो शादी हो चुकी है, कमली का तो हाथ भी पीला नहीं हुआ है। गाड़ीवान का गीत यों ही हवा में विलीन होने के लिए नहीं उठता, वह तो कमली के भीतर समा जाता है और उसके भीतर डॉक्टर को लेकर जो मौन प्रेमकथा चलती रहती है, उसे छेड़ देता है और डॉक्टर के साथ घटित कई प्रसंगों के साथ कमली को जोड़कर एक ऐसे संवेदनालोक को खोलता है जो अब तक अदृश्य-सा था।
पानी बरस रहा है और सोनाई यादव अपनी झोपड़ी में बारहमासे की तान छोड़े हुए है –
सावन हे सखी, सबद सुहावन,
यह भी गाये जाने के लिए गाया गया बारहमासा नहीं है। यह बारहमासा सोनाई के कंठ से फूटकर पूरे परिवेश में गूँजता है और सुहावने सावन का स्वर अनेक लोगों के दर्द से टकराता है।
लेखक की दृष्टि फिर बिरसा माई पर जाती है और वह संथालों की विडंबनाओं से होता हुआ आगे बढ़ता है और इस बारहमासे के रस में डूबता हुआ लोक-जीवन के विविध पहलुओं को खोलता चलता है। बारहमासा बारह महीनों का गीत है और बारह महीने लोक जीवन के बाहरी और भीतरी यथार्थ के विविध संदर्भों से जुड़े होते हैं। इन महीनों के गीत उन्हीं संदर्भों को खोलते हैं।|
ये गीत किसी न किसी पात्र के दर्द से जुड़ जाते हैं,
दूर ही से गर्जात मेघ रे।”8
सैकड़ों कंठों में एक विरहिणी है। यह इलाका अभावग्रस्त है,
जहाँ के लोग अर्थोपार्जन के लिए बाहर जाते हैं। बिरह दुहरा है। विरहिनियों के अर्थाभावग्रस्त स्वर में प्रियतम के विछोह का स्वर मिल जाता है। दुहरे दर्द से दंशित यह गीत खेतों में काम करते सैकड़ों कंठों से फूट रहा है। मिथिला की पूरी जमीन दर्द में गाने लगती है।
जन्म,
मरण आदि के अवसरों पर गीत गाए जाते हैं। नीलोत्पल के जन्मोत्सव में सोहर गाया गया है और गाँधीहत्या के बाद गाए समदाउन को सुन कर गाँव वालों के दिल कलप उठे हैं, ‘आँरे काँचहि बाँस के खाट के खटोलना...।’ जन्म मरण के गीतों के साथ -साथ इस उपन्यास में निर्गुणिया गीत का भी प्रयोग देखा जा सकता है। निर्गुणिया गीतों से मठ का वातावरण सृजित किया गया है। महंथ जी दिवंगत हो गये हैं। किरतनिया लोग समदाउन शुरू करते हैं –
हाँ रे, से हो रे सुगना बिरिछी चढ़ि बैठल
पिंजड़ा रे धरती लोटाए ......?”9
यह गीत वातावरण में एक दर्द तो भरता ही है साथ ही एक सनातन सत्य की ओर भी हमें ले जाता है। इस विडंबना की ओर भी संकेत करता है कि जिस महंत साहब को माटी देने के प्रसंग में यह गीत गाया जा रहा है,
वे स्वयं आध्यात्मिक सत्य के विपरीत कितना गंदा आचरण करते रहे हैं – तथाकथित अध्यात्म – पुरुष होकर भी।
‘मैला आँचल’ के लोकगीतों में लोकजीवन यथार्थ के साथ राष्ट्रीय चेतना से संबंधित प्रेरक गीत भी खूब गाए गए हैं। यहाँ यह देखना दिलचस्प होगा कि किस तरह परंपरागत लोकगीत नयी गति, ढाल-तर्ज से जुड़कर जन-चेतना को अभिव्यक्ति देकर लोकसंपदा को समृद्ध करते हैं। अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष करनेवाले स्वाधीनता सेनानियों का प्रवेश लोकगीतों में उल्लेखनीय ढंग से उपस्थित है,
महँगी पड़त हर साल कृसक अकुलाय रहे।
का करे गाँधीजी अकेले, तिलक परलोक बसे,
अरे देसवा के खातिर मजहरूलहक भइलै फकिरवा से।
दी भइलै राजेन्दर प्रसाद देशवासियो।’’10
बालदेव मिनिस्टर के पूर्णिया आने पर जुलूस में ‘नमक सत्याग्रह’ के समय का गीत गाने लगता है - ‘आधो वीरो मरद बनो अब जेहल तुम्हें भरना होगा।’ स्वराज से जमींदार और पूंजीपति जुड़े। मैला आँचल के सुराजी गीत भी काफी महत्त्वपूर्ण रहे हैं। सुराज उत्सव के अवसर पर गाये गए गीतों में गाँव के लोगों का अज्ञान तो झलकता ही है, कहीं गहरे में इस स्वतंत्रता के प्रति उनकी असंपृक्ति भी उजागर होती है,
एक लाख हाथी सजिलो, दुई लाख घोड़ा
चार लाख पैदल, दुलहा बाला लखिदर !’’11
इसी तरह सर्वे सेटलमेंट की सच्चाई का पर्दाफाश वे लौकायदास के इस गीत के माध्यम से करते हैं। लौकायदास सर्वे सेटलमेंट की सच्चाई का पर्दाफाश इन गीतों में करता है-
‘‘सर्वे जब होने लगा !
दस हाथ के लग्गा बनैलके
पाँचे हाथ नपाई !
.. पाँच हाथ पार ? हा...हा...हा ! ...
गल्ली-कुची सेहो नपलकै,
‘तब?’ ..
बाकी थोड़ेक लिखाई जे रहलै,
सृष्टि के प्रारंभ से ही लोक गीतों का नृत्य से बड़ा गहरा संबंध रहा है। ऐसे में बिना नृत्य के लोक गीतों में सजीवता नहीं आ पाती है। नृत्य में लय,
सुर और ताल के साथ विभिन्न मुद्राओं का चित्रण होता है, जिसकी जानकारी रेणु जी को भली-भांति थी। ‘बिदापत नाच’ मिथिला की ग्राम -संस्कृति का अभिन्न अंग है। गाँव-गाँव में, रात में जबकि किसानों को फुर्सत-ही-फुर्सत होती है ‘बिदापत नाच’ होता है। ‘बिदापत नाच’ में भादेसपन तो बहुत होता है, पर उसमें ग्रामीण जीवन की आत्मा गूँजती है। गीतों की मार्मिक कड़ियों के साथ -साथ जीवन की आलोचना, किसानों -मजदूरों का अपने शोषण के प्रति विरोध का भाव भी इस लोकनृत्य में अभिव्यक्त होता है। रेणु इसके लिए अनुकूल अवसर और प्रसंग का इस्तेमाल किया है। टोले के मूलगैन लिबडू के नेतृत्व में बिदापत नाच हो रहा है - तहसीलदार साहब के दरवाजे पर। ऊँचे समाज के सभी लोग विराजमान हैं। दलितों के नाच में एक पात्र होता है बिकटा (विदूषक) उसे छूट होती है कि वह चाहे जिस पर जो टिप्पणी कर सकता है। इस छूट का लाभ उठाकर रेणु ने बिकटा के व्यंग्यात्मक गीतों के माध्यम से बड़े लोगों के प्रति छोटे लोगों के मन के भीतर घुटते विद्रोह को स्वर दिया है। इसी प्रकार होली के प्रसंग में कालीचरण के साथ चलता हुआ सामान्य लोगों का दल अपने समय की राजनीतिक और सामाजिक असुंदरता पर चोट करता है। ‘बुरा न मानो होली है’ का लाभ उठाकर कालीचरण का दल अपने होली गीत में न जाने किन-किन पर चोट कर गया है।
हमारी लोक परंपरा में यह मान्यता रही है कि जब गाँवों में वर्षा कम होती थी तो गाँव की औरतें वर्षा के देवता इन्द्र भगवान को खुश करने के लिए जात-जाट्टिन का खेल खेलती थी। रेणु मैला आँचल में इसका सुंदर वर्णन करते हैं। ततमाटोला, पासवान टोला, धानुक - कुर्मी टोला और कोयरी टोला की औरतें इन्द्र महाराज को रिझाने के लिए, बादल बुलाने के लिए ‘जाट जट्टिन’ खेलती हैं। इस अवसर पर उन्हें छूट होती है कि वे बड़े लोगों को जी भर कर गालियाँ दें। जिन्हें गाली नहीं देती वे समझते हैं कि उन्हें महत्त्व नहीं दिया गया। बस इस अवसर का लाभ उठाकर औरतें अपने गीतों में बड़े लोगों के प्रति संचित आक्रोश को व्यक्त कर देती हैं। एक तरह उनकी आलोचना हो जाती है जो सामान्य स्थिति में संभव ही नहीं।
लोकगीतों की समृद्ध परंपरा में सिर्फ गान नहीं है,
बल्कि लोकजीवन की परंपरा का आख्यान भी है। इसका एक उदाहरण सारंग सदाब्रिज की कथा से लिया जा सकता है। फुलिया का खलासी के साथ चुमौना हो गया है, खलासी जी विदाई कराने आये हैं। वे लोगों के आग्रह पर सारंगा सदाब्रिज की कथा सुना रहे हैं। लोग सुनते हैं, आनन्द लेते हैं और बात खत्म हो जाती है। लेकिन यहाँ यह गीत-कथाएँ यों ही नहीं है। वह प्रतीक बन जाती है। खलासी जी आज दिल खोल कर गा रहे हैं। उन्हें आज ऐसा लग रहा है कि वे खुद सदाब्रिज हैं। फुलिया भी समझती है कि सारंगा वही है। खलासी जी उसी के लिए गा रहे हैं, लेकिन वह कुछ कह नहीं पाती। वह बड़ों के सामने मौन है, भीतर-भीतर बेचैनी से छटपटाती हुई,
शाले करेजवा में तीर जी......!”13
खलासी जी का तीर खाया हुआ दिल तड़प रहा है। फुलिया क्या करे?
सारंग और सदाब्रिज की यह कथा खलासी जी और फुलिया की कथा बनकर चलती रहती है। उनकी मौन प्रणय-संवेदना का स्वर बनकर झनझनाती रहती है। यानी यह गीत दो पात्रों की मनःस्थितियों तक सीमित न रह कर परिवेश के कुछ रहस्यों को भी खोल देता है।
निष्कर्ष : ‘मैला आँचल’ में लोकगीतों की अर्थवत्ता पर विचार करते हुए यह कहा जा सकता है। ‘मैला आँचल’ में लोकगीत भरे पड़े हैं, पर वे कहीं भी इकहरे नहीं हैं। वे प्रसंगानुकूल तो हैं ही, सर्वत्र सर्जनात्मक भी हैं। ‘रेणु’ लोकगीतों की पंक्तियों का उपयोग कहीं वातावरण सृष्टि के लिए तो कहीं पात्रों के मनोभावों को व्यक्त करने के लिए बड़े सटीक ढंग से करते हैं। इन लोकगीतों का एक विशेष सामाजिक संदर्भ है। ये गीत सिर्फ गीत नहीं हैं, सामाजिक–सांस्कृतिक धरोहर हैं, क्योंकि इनमें सामाजिक प्रश्नों की गंभीरता भी निहित है। लोकगीतों के बहाने रेणु ने बड़ी कुशलता से अपनी विचारधारा को पिरोया है। रेणु ने लोकगीतों के माध्यम से जनजीवन का दर्द ही नहीं व्यक्त किया है, प्रत्युत उसके भीतर घुटते विद्रोह को भी स्वर दिया है। रेणु ने कथा विन्यास के लिए गद्य के साथ लोकगीतों का प्रचुर प्रयोग करते हुए मैला आँचल को ज्यादा प्रेषणीय एवं आत्मीय ग्रंथ में परिणत किया है।
1. सुमन राजे : हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2004, पृ. 46
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, विद्यासागर विश्वविद्यालय मिदनापुर, पश्चिम बंगाल
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)