- धर्मवीर
शोध-सार : हिंदी के आँचलिक उपन्यासों में ‘रेणु’ का महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। ‘मैला आँचल’ में आँचलिक उपन्यास परंपरा की सभी विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। इस उपन्यास में ‘मेरीगंज’ अंचल के प्रत्येक पक्ष को सूक्ष्मता से प्रस्तुत किया गया हैं। रेणु ने अपने साहित्य में अंचल विशेष के जनमानस की संवेदनाओं, स्वानुभूतियों, संवेगों और सौन्दर्य भावनाओं को चित्रित किया हैं। ‘मैला आँचल’ में भारत की आजादी के बाद फैले अज्ञान के अंधकार, गरीबी, भूखमरी, जातिवाद, अन्याय, अत्याचार, स्वार्थ, संघर्ष आदि का सूक्ष्मता से वर्णन देखने को मिलता है।
बीज शब्द : अंचल, आँचलिकता, समाज, लोक-जीवन, लोक-कथा, किसान, स्वाधीनता, ध्वन्यात्मकता, जन-भाषा।
मूल आलेख : हिंदी आँचलिक उपन्यास परंपरा में ‘मैला आँचल’ पर बात करने से पहले हमें ‘अंचल’ और ‘आँचलिक उपन्यास’ के तात्पर्य से परिचित होना समुचित होगा। ‘अंचल’ शब्द से तात्पर्य है - किसी क्षेत्र का विशेष भाग जिसकी अपनी एक संस्कृति हो, अपनी एक भाषा हो, अपनी समस्याएं हो, वहाँ स्थानीय रंग, त्योहार आदि अन्य क्षेत्रों से भिन्न हो। हिंदी उपन्यास परंपरा में आँचलिक शब्द रेणु जी ने दिया है। आँचलिकता से तात्पर्य है – किसी अंचल विशेष के प्राकृतिक सौंदर्य का सजीव चित्रण के साथ-साथ लोक संस्कृति का विविधतापूर्ण चित्रण हुआ हो। इन उपन्यासों में अंचल विशेष की जन चेतना को दिखाया दिखाया गया है, और साथ ही अंचल विशेष की बोली का विशेष प्रयोग हुआ है।
डॉ. रामदरश मिश्र के अनुसार – “आँचलिक उपन्यास मानो हृदय में किसी प्रदेश की कसमसाती हुई जीवनानुभूति को वाणी देने का अनिवार्य प्रयास है।”1
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी लिखते हैं कि – “आँचलिक उपन्यास वे हैं, जिनमें अविकसित अंचल विशेष के आदिवासियों तथा आदिम जातियों का विशेष रूप से चित्रण किया गया हो।”
‘मैला आँचल’ आँचलिक उपन्यास परंपरा का सर्वोत्तम उदाहरण है। इसका स्वयं रेणु जी ने समर्थन किया है। वे लिखते हैं कि “यह है मैला आँचल, एक आँचलिक उपन्यास। कथानक है पूर्णिया। पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला है... मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर- इस उपन्यास-कथा का क्षेत्र बनाया हैं।”2
‘मैला आँचल’ रेणु का प्रथम उपन्यास है, इसका प्रकाशन 1954 में राजकमल प्रकाशन, दिल्ली से हुआ। इस उपन्यास का प्रकाशन ही हिंदी दुनिया में एक विशिष्ट घटना है जिससे हिंदी उपन्यास परंपरा में आँचलिक उपन्यास की अवधारणा का उद्भव हुआ। इसमें कथा को दो भागों में विभाजित किया गया है, प्रथम भाग में 23 परिच्छेद और दूसरे भाग में 67 परिच्छेद है। ‘मैला आँचल’ हिंदी के आँचलिक उपन्यासों की परंपरा में एक सफल उपन्यास सिद्ध होता है। यद्यपि सन् 1954 से पहले ‘शिवपूजन सहाय’ कृत ‘देहाती दुनिया’ में आँचलिकता के पुट देखने को मिलते है, किंतु ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन के साथ ही आँचलिक उपन्यासों की परंपरा समृद्ध हुई।
‘मैला आँचल’ में अनेक समस्याओं को उजागर किया गया है जिसमें जातिवाद भी है। ग्रामीण परिवेश में जातिवादी चेतना के विषाक्त वातावरण का निर्माण किया है, जिसे निरंतर तोड़ने की कोशिश ‘रेणु’ करते हैं। रेणु की आँचलिकता में आधुनिकता का बोध होता है। राष्ट्रीय पतन पर ‘मैला आँचल’ का पात्र बावनदास कहता हैं – ‘भारत माता जार बेजार रो रही है।’ वे भारत को नवीन दिशाओं में ले जाने के लिए स्वप्न देखते है। भूख, गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास, सांप्रदायिकता राष्ट्रीय चिंतन के विषय हैं जो उनकी आँचलिकता में समाहित है। इसमें समस्याएं स्थानिक होते हुए भी राष्ट्रीय है।
रेणु जी लिखते हैं – “मैंने जमीन, भूमिहीनों और खेतीहर मजदूरों की समस्याओं को लेकर बातें की। जातिवाद, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार की पनपती हुई बेल की ओर मात्र इशारा नहीं किया था, इसके समूल नष्ट करने की आवश्यकता पर भी बल दिया था।"
मैला आँचल गोदान की परंपरा में हैं। गोदान की तुलना में मैला आँचल में कुछ अपनी सीमाएँ हैं। मैला आँचल का पात्र बिहार का एक छोटा सा अंचल है, पर गोदान का पात्र समग्र भारतीय जीवन है। रेणु ने ग्रामीण अंचल को और वहाँ रहने वालों को बारीकी से जाना और पहचाना हैं। जिससे मैला आँचल को मूर्त्त रूप मिला है।
रेणु इस उपन्यास की भूमिका में लिखते हैं – “इसमें फूल भी हैं, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चन्दन भी, सुन्दरता भी है, कुरूपता भी - मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।”3 ये पंक्तियाँ ग्रामीण अंचल पर व्यापक दृष्टि के साथ पूर्णत: उचित प्रतीत होती है। उपन्यास के लिए शीर्षक में मैला आँचल सार्थक सिद्ध होता है। रेणु जी प्रेमचंद की तुलना में लेखक ने कथांचल को सीमित रखा है लेकिन उपन्यास हर वर्ग के पात्रों को स्थान दिया है।
“इनकी (मैला आँचल) भाषा से हिंदी भाषा समृद्ध हुई है। उन्होंने कुशलता से ऐसी शैली का प्रयोग किया है, जिसमें आँचलिकता भाषा-तत्त्व परिनिष्ठित भाषा में घुल मिल जाते हैं।”4
मैला आँचल में बिहार के पूर्णिया जिले के एक पिछड़े और ग्रामीण परिवेश’ मेरीगंज’ अंचल के जीवन का चित्रण किया गया है। इसमें मेरीगंज अंचल की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि समस्याओं को उजागर किया गया है। इस उपन्यास में सामजिक संदर्भ में अशिक्षा, जातिवाद, धार्मिक अंधविश्वास आदि समस्याओं को उठाया गया हैं । राजनीतिक संदर्भ में उस समय के सभी दलों जैसे- कांग्रेस, जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी के स्वरूप का सूक्ष्मता से विवेचन किया हैं । आर्थिक संदर्भ में किसानों और मजदूरों की गरीबी, शोषित वर्ग से शोषण आदि को दिखाया गया हैं । ‘मैला आँचल’ में गांधीवादी दर्शन को केंद्र में रखकर कथा कही गई है। उपन्यास के अंत में आदर्शवादी मोड़ देखने को मिलता है। रेणु के रचना जगत में गरीबों, किसानों, भूमिहीनों, शोषित और वंचित वर्गों के प्रति सहानुभूति के स्वर मिलते हैं।
रेणु ने लोकगीतों के माध्यम से ‘मेरीगंज’ की आँचलिकता को अद्भुत रूप में दर्शाया हैं। ‘मेरीगंज’ में व्याप्त रोग को डॉ.प्रशांत ने पहचाना - गरीबी और जहालत इस रोग के दो कीटाणु हैं - पेट इनकी सबसे बड़ी कमजोरी है तथा मौजूदा सामाजिक न्याय विधान ने उन्हें अपने सैकड़ों बाजुओं में जड़कर ऐसा लाचार कर रखा है कि वे चूं तक नहीं कर सकते। ‘मैला आँचल’ न सिर्फ घोषित तौर पर इस परंपरा का प्रस्थान बिंदु है अपितु आज के रचनाकारों के समक्ष सृजनात्मक चुनौती का स्तंभ बनकर भी खड़ा है।
इससे स्पष्ट है रेणु जी का जीवन और समाज के प्रति सरोकार प्रेमचंद की तरह देखने को मिलते है। सन् 1942 से लेकर गांधी जी के निधन तक के ‘मेरीगंज’ के जनजीवन और परिस्थितियों का जीवंत चित्रण मिलता है।
उपन्यास में एक युवा डॉ. प्रशांत है जो अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद पिछड़े गाँव को अपने कार्य क्षेत्र के रूप में चुनता है तथा इसके साथ ही ग्रामीण जीवन के पिछड़ेपन, दु:ख –दैन्य, अज्ञान, गरीबी, अंधविश्वास के साथ सामाजिक शोषण के चपेट में आये हुए लोगों की पीड़ाओं और संघर्षों से साक्षात्कार होता है। अंत में दिखाया गया है कि कई सदियों से सोई हुई ग्रामीण चेतना जागृत हो रही है। आँचलिक उपन्यासों में भौगोलिक वर्णन का अहम योगदान होता हैं। रेणु जी ने ‘मेरीगंज’ के भौगोलिक परिवेश का वर्णन सूक्ष्मता के साथ किया है। उपन्यास को पढ़ते हुए पाठकों के समक्ष भौगोलिक दृश्य प्रकट हो जाते हैं - जैसे रेणु ने उपन्यास के प्रारंभ में ‘मेरीगंज’ गाँव पहुँचने का रास्ता बताते हुए लिखते हैं – “ऐसा ही गांव है मेरीगंज, रोतहट स्टेशन से सात कोस पूरब बूढी कोशी को पार करके जाना होता है।... वन्ध्या धरती का विशाल अंचल... कोस भर मैदान पार करने के बाद पूरब की ओर काला जंगल दिखाई पड़ता है वही है – मेरिगंज कोठी।”5
रेणु जी की यही विशेषता अन्य रचनाकारों से विशिष्ट बनाती है। ‘मैला आँचल’ की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है - मेरीगंज की विशिष्ट सांस्कृतिक वर्णनों का बारीकी से चित्रण और साथ ही आँचलिकशब्दों का प्रयोग उल्लेखनीय है।
लोकगीत एक निराली छटा बिखेरते हुए प्रतीत होते है। सांस्कृतिक पहचान के कुछ प्रसंग द्रष्टव्य हैं जो उपन्यास को सार्थक बनाते हैं। इस उपन्यास गीतात्मकता का सजीव रूप देखने को मिलता है। गीतों का वर्णन – जब बारिश नहीं होती है तो इंद्र को मनाने के लिए जाट- जट्टीन खेल खेला जाता है।जैसे - “नायक जी हो नायक हो,खोल देहो किवड़िया हो नायक जीढूंढे देहो जटिनियां हो नायक जी ...”(जाट-जट्टीन अभिनय)6
इस उपन्यास में लोक-गीतों का अद्भुत दृश्य देखने को मिलता है। इसमें पक्की सड़कों पर गाड़ीवानों का दल गीत गाते हुए गाड़ी हाँक रहे है।
“हथवा रंगाये सैयां देहरी बैठाई गइले,फिरहू न लिहले उदेश रे भउजिया…”(भउजिया गीत)7
इस उपन्यास में ध्वन्यात्मकता की भी स्पष्ट अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। लोकगीतों से दृश्यों को और ध्वन्यात्मक बना दिया है। लोकगीतों के माध्यम से रेणु ने ‘मैला आँचल’ को बुना है, इससे हम देख सकते हैं कि रेणु को संगीत और लय का गहरा ज्ञान था।
“धिन्ना धिन्ना धिन्ना निन्ना निन्ना!धिन तक धिन्ना, धिन तक धिन्ना।” (बिदापत नाच का मृदंग–ध्वनि )8
अज्ञेय ने रेणु को ‘धरती का धनी’ कहा हैं। इसमें ग्रामीण पृष्ठभूमि का यथार्थता के साथ चित्रण है। सामाजिक और सांस्कृतिक रूप में प्रकट होती है।
सामाजिक जीवन, धार्मिक, अंधविश्वास, आर्थिक पहलुओं राजनीतिक अंतर्विरोध को अभिव्यक्त किया है। प्रथम उपन्यास में आँचलिक उपन्यास की संज्ञा देकर हिंदी उपन्यास परंपरा में एक नवीन शैली का प्रवर्तन किया है। मुख्यधारा में लोकप्रिय बनाया।
लोकगीत ग्रामीण जनता की भावना, उसके संवेगों अनुभूतियों एवं सौन्दर्य भावना का प्रतिनिधित्व करते है। मैला आँचल में ग्रामीणों के सुख-दु:ख, हर्ष-विषाद, संस्कृति, रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार, मिलन-विरह, खान-पान, धर्म आदि समाहित है। ‘मैला आँचल’ संपूर्ण भारत के ग्रामीण जन-जीवन का अंकन करता है। इसमें लेखक ने सभी पात्रों के अंतर्मन की पीड़ाओं को व्यक्त किया है।
“गांव में गरीबी, रोग और रूढ़ियाँ हैं, पर इन सब के साथ और बावजूद, एक नये जीवन की आशा पल रही है। आँचल मैला भले ही हो गया हो पर उसकी ममता में कमी नहीं है।”9
रेणु जी की पहचान हिंदी के आँचलिक उपन्यासकार के रूप में हैं। वे प्रेमचंद की औपन्यासिक परंपरा को गति देने का काम बखूबी किया है। इन्होंने लोक की बात को लोक भाषा में कहने का सफल प्रयास किया है। इनकी भाषा सशक्त, संवेदनशील और भावानुकूल है। ‘मैला आँचल’ में प्रचलित तत्सम शब्दों के साथ-साथ आँचलिक शब्दों एवं मुहावरों के प्रयोग से भाषा विलक्षण रूप ग्रहण करती है। स्थानीय शब्दों के प्रयोग मनमोहित करते है एवं भाषा दृश्य का चित्र पेश करने में सफल रही है। चित्रात्मक शैली के प्रयोग दृश्य, घटना का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। तमाम दु:खों एवं अभावों से दु:खी जनता की बेबसी के प्रति गहरी संवेदना से ही ग्रामीण परिवेश का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं। रेणु ने आजादी के समय हमारे देश ग्रामीण अंचल की यथार्थता को परत- दर-परत खोल कर रख दिया। जाति प्रथा और गरीबी गाँवों की बुनियादी समस्याएँ है। आर्थिक शोषण ग्रामीण जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है। ‘मैला आँचल’ में तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद के माध्यम से किसानों का शोषण तथा उनकी बदहाली का सजीव चित्रण करता है। अशिक्षा और अंधविश्वास एक-दूसरे से जुड़े हुए है। अंधविश्वास ग्रामीण संस्कृति में प्रवेश कर लोक जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। इसमें लोकगीत और संगीत कथा के प्रवाह को आगे बढ़ाते है। लोग जीवन में सिर्फ लोकगीतों, लोक कथाओं और पर्वों का ही समावेश नहीं होता बल्कि उसमें वहाँ की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थितियाँ भी सम्मिलित होती है। पूरी निर्ममता के साथ वहाँ की कुरूपताओं, विरूपताओं और विसंगतियों को उजागर किया है। यह उपन्यास कला संगम के कारण ही कालजयी रचना बन पाया है। रेणु जी ने एक कहा था कि ‘देश की ताकत है किसान और मजदूर’। किसान और मजदूरों के प्रति सहानुभूति देखने को मिलती है।
भारत आजादी के बाद राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक दृष्टि से किस ओर अग्रसर हो रहा था? इसको रेणु ने ठेठ ग्रामीण देशज भाषा में जिस तरह से दिखाया है वह अद्भुत है। रेणु का गाँव से गहरा लगाव था। पहली बार किसी अंचल का नायक पद पर प्रतिष्ठापन उपन्यास में हुआ था। नायक के रूप में ‘मेरीगंज’ प्रतिष्ठित होता है। इसमें जन्म से मृत्यु तक की गीत उपस्थित है। ग्रामीण संस्कृति का चित्रण – 'धरती स्वर्णाँचल है हम ज्यादातर मैला आँचल मैला आँचल करते रहते है।' 'मैला आँचल' में जातिगत भावना, अशिक्षा - अंधविश्वास, जातिगत मान्यता, दलगत राजनीति, आर्थिक -सामाजिक विषमता, धार्मिक पाखंड और काम कुंठा को दिखाया गया है। यह जीवनोत्सव की रचना है। इसमें लोक भाषा का प्रयोग प्रशंसनीय है। “तंत्रिमा टोला में आज घमाघम पंचायत हो रही है।” (जनभाषा का उदाहरण) इस उपन्यास के कथानक में बिखराव है। आँचलिकता, उपन्यास लेखन परंपरा की एक विशिष्ट शैली है। आँचलिक उपन्यासों में ग्रामीण चेतना के विभिन्न आयामों की गहरी समग्रता से अभिव्यक्ति हुई है।
नलिन विलोचन शर्मा जी रेणु जी बारे में लिखते हैं कि “अपने ह्रदय की सारी ममता और करुणा उंडेलकर ही अपने गाँव और वहाँ रहने वालों को जाना होगा।”10
नामवर सिंह कहते हैं कि “रेणु ने अपनी कलम से कैमरे का काम लिया है।” रेणु कहते हैं कि 'भारत माता' भारत के गांवों में वास करती है। उसका मैला आँचल धूल से भरा हुआ।
“भारत माता ग्रामवासिनी।खेतों में फैला है श्यामलधूल भरा मैला सा आँचल…" (‘भारत माता’ कविता – पंत जी)11
‘रेणु’ के ‘मैला आँचल’ उपन्यास ‘भारत माता’ के उसी धूल भरे आँचल की कहानी है। ‘भारत माता’ जो गाँवों में निवास करती है उसका आँचल मैला हो गया है। उपन्यास का प्रमुख पात्र डॉ. प्रशांत 'मेरीगंज' गांव में प्रेम और मानवता को ज़िंदा करने का प्रयत्न करते है। वे कहते हैं कि “मैं प्यार की खेती करना चाहता हूँ। आँसू से भीगी हुई धरती पर प्यार के पौधे लहलहाएँगे। मैं साधना करूंगा; ग्रामवासिनी भारतमाता के मैले आँचल तले।”12
निष्कर्ष : ‘मैला आँचल’ आँचलिक उपन्यासों की कसौटी पर खरा उतरता है। हम आँचलिक उपन्यासों की कसौटी ‘मैला आँचल’ से ही गढ़ी मान सकते हैं। इस उपन्यास से ही अन्य रचनाकार आँचलिक दृष्टि की सूक्ष्मता से परिचित होते है। इसमें ‘रेणु’ ने पूरे भारत के ग्रामीण जीवन का चित्रण करने की कोशिश की है। मैला आँचल का मुख्य उद्देश्य है – मिट्टी और मनुष्य से प्रेम। इस उपन्यास की सबसे ख़ास बात है - इसका सहज, सरल और उसी परिवेश का होना है। इसमें लोकगीतों के प्रयोगों ने इसको अमर कर दिया है। साहित्य में कम ही ऐसी रचनाएँ देखने को मिलती है जो किसी विशिष्ट शैली का प्रतिमान बन जाती है और परवर्ती लेखकों के लिए मार्गदर्शन और प्रस्थान बिंदु की भूमिका अदा करती है। इस समग्र दृष्टि में मैला आँचल की रचनाशीलता और सृजनशीलता में सर्वश्रेष्ठ हैं।
संदर्भ :
1.रामदरश-मिश्र हिंदी उपन्यास: एक अंतर्यात्रा, राजकमल प्रकाशन, नई
दिल्ली, पृ.1542.फणीश्वरनाथ रेणु - मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन- नई दिल्ली, भूमिका, पृ.33.फणीश्वरनाथ रेणु-मैला आँचल- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, भूमिका, पृ.34.नलिन विलोचन शर्मा, रेणु जी का ‘मैला आँचल, निबंध।5.फणीश्वरनाथ रेणु-मैला आँचल- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.126.फणीश्वरनाथ रेणु-मैला आँचल- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.1817.फणीश्वरनाथ रेणु-मैला आँचल- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली पृ.698.फणीश्वरनाथ रेणु-मैला आँचल- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.769.रामस्वरूप चतुर्वेदी-हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती
प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.24810.नलिन विलोचन शर्मा, रेणु जी का ‘मैला आँचल, निबंध।11.फणीश्वरनाथ रेणु-मैला आँचल- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.13812.फणीश्वरनाथ रेणु-मैला आँचल- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.312 धर्मवीर शोधार्थी, हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद।
शोध-सार : हिंदी के आँचलिक उपन्यासों में ‘रेणु’ का महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। ‘मैला आँचल’ में आँचलिक उपन्यास परंपरा की सभी विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। इस उपन्यास में ‘मेरीगंज’ अंचल के प्रत्येक पक्ष को सूक्ष्मता से प्रस्तुत किया गया हैं। रेणु ने अपने साहित्य में अंचल विशेष के जनमानस की संवेदनाओं, स्वानुभूतियों, संवेगों और सौन्दर्य भावनाओं को चित्रित किया हैं। ‘मैला आँचल’ में भारत की आजादी के बाद फैले अज्ञान के अंधकार, गरीबी, भूखमरी, जातिवाद, अन्याय, अत्याचार, स्वार्थ, संघर्ष आदि का सूक्ष्मता से वर्णन देखने को मिलता है।
बीज शब्द : अंचल, आँचलिकता, समाज, लोक-जीवन, लोक-कथा, किसान, स्वाधीनता, ध्वन्यात्मकता, जन-भाषा।
मूल आलेख : हिंदी आँचलिक उपन्यास परंपरा में ‘मैला आँचल’ पर बात करने से पहले हमें ‘अंचल’ और ‘आँचलिक उपन्यास’ के तात्पर्य से परिचित होना समुचित होगा। ‘अंचल’ शब्द से तात्पर्य है - किसी क्षेत्र का विशेष भाग जिसकी अपनी एक संस्कृति हो, अपनी एक भाषा हो, अपनी समस्याएं हो, वहाँ स्थानीय रंग, त्योहार आदि अन्य क्षेत्रों से भिन्न हो। हिंदी उपन्यास परंपरा में आँचलिक शब्द रेणु जी ने दिया है। आँचलिकता से तात्पर्य है – किसी अंचल विशेष के प्राकृतिक सौंदर्य का सजीव चित्रण के साथ-साथ लोक संस्कृति का विविधतापूर्ण चित्रण हुआ हो। इन उपन्यासों में अंचल विशेष की जन चेतना को दिखाया दिखाया गया है, और साथ ही अंचल विशेष की बोली का विशेष प्रयोग हुआ है।
डॉ. रामदरश मिश्र के अनुसार – “आँचलिक उपन्यास मानो हृदय में किसी प्रदेश की कसमसाती हुई जीवनानुभूति को वाणी देने का अनिवार्य प्रयास है।”1
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी लिखते हैं कि – “आँचलिक उपन्यास वे हैं, जिनमें अविकसित अंचल विशेष के आदिवासियों तथा आदिम जातियों का विशेष रूप से चित्रण किया गया हो।”
‘मैला आँचल’ आँचलिक उपन्यास परंपरा का सर्वोत्तम उदाहरण है। इसका स्वयं रेणु जी ने समर्थन किया है। वे लिखते हैं कि “यह है मैला आँचल, एक आँचलिक उपन्यास। कथानक है पूर्णिया। पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला है... मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर- इस उपन्यास-कथा का क्षेत्र बनाया हैं।”2
‘मैला आँचल’ रेणु का प्रथम उपन्यास है, इसका प्रकाशन 1954 में राजकमल प्रकाशन, दिल्ली से हुआ। इस उपन्यास का प्रकाशन ही हिंदी दुनिया में एक विशिष्ट घटना है जिससे हिंदी उपन्यास परंपरा में आँचलिक उपन्यास की अवधारणा का उद्भव हुआ। इसमें कथा को दो भागों में विभाजित किया गया है, प्रथम भाग में 23 परिच्छेद और दूसरे भाग में 67 परिच्छेद है। ‘मैला आँचल’ हिंदी के आँचलिक उपन्यासों की परंपरा में एक सफल उपन्यास सिद्ध होता है। यद्यपि सन् 1954 से पहले ‘शिवपूजन सहाय’ कृत ‘देहाती दुनिया’ में आँचलिकता के पुट देखने को मिलते है, किंतु ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन के साथ ही आँचलिक उपन्यासों की परंपरा समृद्ध हुई।
‘मैला आँचल’ में अनेक समस्याओं को उजागर किया गया है जिसमें जातिवाद भी है। ग्रामीण परिवेश में जातिवादी चेतना के विषाक्त वातावरण का निर्माण किया है, जिसे निरंतर तोड़ने की कोशिश ‘रेणु’ करते हैं। रेणु की आँचलिकता में आधुनिकता का बोध होता है। राष्ट्रीय पतन पर ‘मैला आँचल’ का पात्र बावनदास कहता हैं – ‘भारत माता जार बेजार रो रही है।’ वे भारत को नवीन दिशाओं में ले जाने के लिए स्वप्न देखते है। भूख, गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास, सांप्रदायिकता राष्ट्रीय चिंतन के विषय हैं जो उनकी आँचलिकता में समाहित है। इसमें समस्याएं स्थानिक होते हुए भी राष्ट्रीय है।
रेणु जी लिखते हैं – “मैंने जमीन, भूमिहीनों और खेतीहर मजदूरों की समस्याओं को लेकर बातें की। जातिवाद, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार की पनपती हुई बेल की ओर मात्र इशारा नहीं किया था, इसके समूल नष्ट करने की आवश्यकता पर भी बल दिया था।"
मैला आँचल गोदान की परंपरा में हैं। गोदान की तुलना में मैला आँचल में कुछ अपनी सीमाएँ हैं। मैला आँचल का पात्र बिहार का एक छोटा सा अंचल है, पर गोदान का पात्र समग्र भारतीय जीवन है। रेणु ने ग्रामीण अंचल को और वहाँ रहने वालों को बारीकी से जाना और पहचाना हैं। जिससे मैला आँचल को मूर्त्त रूप मिला है।
रेणु इस उपन्यास की भूमिका में लिखते हैं – “इसमें फूल भी हैं, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चन्दन भी, सुन्दरता भी है, कुरूपता भी - मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।”3 ये पंक्तियाँ ग्रामीण अंचल पर व्यापक दृष्टि के साथ पूर्णत: उचित प्रतीत होती है। उपन्यास के लिए शीर्षक में मैला आँचल सार्थक सिद्ध होता है। रेणु जी प्रेमचंद की तुलना में लेखक ने कथांचल को सीमित रखा है लेकिन उपन्यास हर वर्ग के पात्रों को स्थान दिया है।
“इनकी (मैला आँचल) भाषा से हिंदी भाषा समृद्ध हुई है। उन्होंने कुशलता से ऐसी शैली का प्रयोग किया है, जिसमें आँचलिकता भाषा-तत्त्व परिनिष्ठित भाषा में घुल मिल जाते हैं।”4
मैला आँचल में बिहार के पूर्णिया जिले के एक पिछड़े और ग्रामीण परिवेश’ मेरीगंज’ अंचल के जीवन का चित्रण किया गया है। इसमें मेरीगंज अंचल की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि समस्याओं को उजागर किया गया है। इस उपन्यास में सामजिक संदर्भ में अशिक्षा, जातिवाद, धार्मिक अंधविश्वास आदि समस्याओं को उठाया गया हैं । राजनीतिक संदर्भ में उस समय के सभी दलों जैसे- कांग्रेस, जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी के स्वरूप का सूक्ष्मता से विवेचन किया हैं । आर्थिक संदर्भ में किसानों और मजदूरों की गरीबी, शोषित वर्ग से शोषण आदि को दिखाया गया हैं । ‘मैला आँचल’ में गांधीवादी दर्शन को केंद्र में रखकर कथा कही गई है। उपन्यास के अंत में आदर्शवादी मोड़ देखने को मिलता है। रेणु के रचना जगत में गरीबों, किसानों, भूमिहीनों, शोषित और वंचित वर्गों के प्रति सहानुभूति के स्वर मिलते हैं।
रेणु ने लोकगीतों के माध्यम से ‘मेरीगंज’ की आँचलिकता को अद्भुत रूप में दर्शाया हैं। ‘मेरीगंज’ में व्याप्त रोग को डॉ.प्रशांत ने पहचाना - गरीबी और जहालत इस रोग के दो कीटाणु हैं - पेट इनकी सबसे बड़ी कमजोरी है तथा मौजूदा सामाजिक न्याय विधान ने उन्हें अपने सैकड़ों बाजुओं में जड़कर ऐसा लाचार कर रखा है कि वे चूं तक नहीं कर सकते। ‘मैला आँचल’ न सिर्फ घोषित तौर पर इस परंपरा का प्रस्थान बिंदु है अपितु आज के रचनाकारों के समक्ष सृजनात्मक चुनौती का स्तंभ बनकर भी खड़ा है।
इससे स्पष्ट है रेणु जी का जीवन और समाज के प्रति सरोकार प्रेमचंद की तरह देखने को मिलते है। सन् 1942 से लेकर गांधी जी के निधन तक के ‘मेरीगंज’ के जनजीवन और परिस्थितियों का जीवंत चित्रण मिलता है।
उपन्यास में एक युवा डॉ. प्रशांत है जो अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद पिछड़े गाँव को अपने कार्य क्षेत्र के रूप में चुनता है तथा इसके साथ ही ग्रामीण जीवन के पिछड़ेपन, दु:ख –दैन्य, अज्ञान, गरीबी, अंधविश्वास के साथ सामाजिक शोषण के चपेट में आये हुए लोगों की पीड़ाओं और संघर्षों से साक्षात्कार होता है। अंत में दिखाया गया है कि कई सदियों से सोई हुई ग्रामीण चेतना जागृत हो रही है। आँचलिक उपन्यासों में भौगोलिक वर्णन का अहम योगदान होता हैं। रेणु जी ने ‘मेरीगंज’ के भौगोलिक परिवेश का वर्णन सूक्ष्मता के साथ किया है। उपन्यास को पढ़ते हुए पाठकों के समक्ष भौगोलिक दृश्य प्रकट हो जाते हैं - जैसे रेणु ने उपन्यास के प्रारंभ में ‘मेरीगंज’ गाँव पहुँचने का रास्ता बताते हुए लिखते हैं – “ऐसा ही गांव है मेरीगंज, रोतहट स्टेशन से सात कोस पूरब बूढी कोशी को पार करके जाना होता है।... वन्ध्या धरती का विशाल अंचल... कोस भर मैदान पार करने के बाद पूरब की ओर काला जंगल दिखाई पड़ता है वही है – मेरिगंज कोठी।”5
रेणु जी की यही विशेषता अन्य रचनाकारों से विशिष्ट बनाती है। ‘मैला आँचल’ की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है - मेरीगंज की विशिष्ट सांस्कृतिक वर्णनों का बारीकी से चित्रण और साथ ही आँचलिकशब्दों का प्रयोग उल्लेखनीय है।
लोकगीत एक निराली छटा बिखेरते हुए प्रतीत होते है। सांस्कृतिक पहचान के कुछ प्रसंग द्रष्टव्य हैं जो उपन्यास को सार्थक बनाते हैं। इस उपन्यास गीतात्मकता का सजीव रूप देखने को मिलता है। गीतों का वर्णन – जब बारिश नहीं होती है तो इंद्र को मनाने के लिए जाट- जट्टीन खेल खेला जाता है।जैसे - “नायक जी हो नायक हो,खोल देहो किवड़िया हो नायक जीढूंढे देहो जटिनियां हो नायक जी ...”(जाट-जट्टीन अभिनय)6
इस उपन्यास में लोक-गीतों का अद्भुत दृश्य देखने को मिलता है। इसमें पक्की सड़कों पर गाड़ीवानों का दल गीत गाते हुए गाड़ी हाँक रहे है।
“हथवा रंगाये सैयां देहरी बैठाई गइले,फिरहू न लिहले उदेश रे भउजिया…”(भउजिया गीत)7
इस उपन्यास में ध्वन्यात्मकता की भी स्पष्ट अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। लोकगीतों से दृश्यों को और ध्वन्यात्मक बना दिया है। लोकगीतों के माध्यम से रेणु ने ‘मैला आँचल’ को बुना है, इससे हम देख सकते हैं कि रेणु को संगीत और लय का गहरा ज्ञान था।
“धिन्ना धिन्ना धिन्ना निन्ना निन्ना!धिन तक धिन्ना, धिन तक धिन्ना।” (बिदापत नाच का मृदंग–ध्वनि )8
अज्ञेय ने रेणु को ‘धरती का धनी’ कहा हैं। इसमें ग्रामीण पृष्ठभूमि का यथार्थता के साथ चित्रण है। सामाजिक और सांस्कृतिक रूप में प्रकट होती है।
सामाजिक जीवन, धार्मिक, अंधविश्वास, आर्थिक पहलुओं राजनीतिक अंतर्विरोध को अभिव्यक्त किया है। प्रथम उपन्यास में आँचलिक उपन्यास की संज्ञा देकर हिंदी उपन्यास परंपरा में एक नवीन शैली का प्रवर्तन किया है। मुख्यधारा में लोकप्रिय बनाया।
लोकगीत ग्रामीण जनता की भावना, उसके संवेगों अनुभूतियों एवं सौन्दर्य भावना का प्रतिनिधित्व करते है। मैला आँचल में ग्रामीणों के सुख-दु:ख, हर्ष-विषाद, संस्कृति, रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार, मिलन-विरह, खान-पान, धर्म आदि समाहित है। ‘मैला आँचल’ संपूर्ण भारत के ग्रामीण जन-जीवन का अंकन करता है। इसमें लेखक ने सभी पात्रों के अंतर्मन की पीड़ाओं को व्यक्त किया है।
“गांव में गरीबी, रोग और रूढ़ियाँ हैं, पर इन सब के साथ और बावजूद, एक नये जीवन की आशा पल रही है। आँचल मैला भले ही हो गया हो पर उसकी ममता में कमी नहीं है।”9
रेणु जी की पहचान हिंदी के आँचलिक उपन्यासकार के रूप में हैं। वे प्रेमचंद की औपन्यासिक परंपरा को गति देने का काम बखूबी किया है। इन्होंने लोक की बात को लोक भाषा में कहने का सफल प्रयास किया है। इनकी भाषा सशक्त, संवेदनशील और भावानुकूल है। ‘मैला आँचल’ में प्रचलित तत्सम शब्दों के साथ-साथ आँचलिक शब्दों एवं मुहावरों के प्रयोग से भाषा विलक्षण रूप ग्रहण करती है। स्थानीय शब्दों के प्रयोग मनमोहित करते है एवं भाषा दृश्य का चित्र पेश करने में सफल रही है। चित्रात्मक शैली के प्रयोग दृश्य, घटना का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। तमाम दु:खों एवं अभावों से दु:खी जनता की बेबसी के प्रति गहरी संवेदना से ही ग्रामीण परिवेश का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं। रेणु ने आजादी के समय हमारे देश ग्रामीण अंचल की यथार्थता को परत- दर-परत खोल कर रख दिया। जाति प्रथा और गरीबी गाँवों की बुनियादी समस्याएँ है। आर्थिक शोषण ग्रामीण जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है। ‘मैला आँचल’ में तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद के माध्यम से किसानों का शोषण तथा उनकी बदहाली का सजीव चित्रण करता है। अशिक्षा और अंधविश्वास एक-दूसरे से जुड़े हुए है। अंधविश्वास ग्रामीण संस्कृति में प्रवेश कर लोक जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। इसमें लोकगीत और संगीत कथा के प्रवाह को आगे बढ़ाते है। लोग जीवन में सिर्फ लोकगीतों, लोक कथाओं और पर्वों का ही समावेश नहीं होता बल्कि उसमें वहाँ की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थितियाँ भी सम्मिलित होती है। पूरी निर्ममता के साथ वहाँ की कुरूपताओं, विरूपताओं और विसंगतियों को उजागर किया है। यह उपन्यास कला संगम के कारण ही कालजयी रचना बन पाया है। रेणु जी ने एक कहा था कि ‘देश की ताकत है किसान और मजदूर’। किसान और मजदूरों के प्रति सहानुभूति देखने को मिलती है।
भारत आजादी के बाद राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक दृष्टि से किस ओर अग्रसर हो रहा था? इसको रेणु ने ठेठ ग्रामीण देशज भाषा में जिस तरह से दिखाया है वह अद्भुत है। रेणु का गाँव से गहरा लगाव था। पहली बार किसी अंचल का नायक पद पर प्रतिष्ठापन उपन्यास में हुआ था। नायक के रूप में ‘मेरीगंज’ प्रतिष्ठित होता है। इसमें जन्म से मृत्यु तक की गीत उपस्थित है। ग्रामीण संस्कृति का चित्रण – 'धरती स्वर्णाँचल है हम ज्यादातर मैला आँचल मैला आँचल करते रहते है।' 'मैला आँचल' में जातिगत भावना, अशिक्षा - अंधविश्वास, जातिगत मान्यता, दलगत राजनीति, आर्थिक -सामाजिक विषमता, धार्मिक पाखंड और काम कुंठा को दिखाया गया है। यह जीवनोत्सव की रचना है। इसमें लोक भाषा का प्रयोग प्रशंसनीय है। “तंत्रिमा टोला में आज घमाघम पंचायत हो रही है।” (जनभाषा का उदाहरण) इस उपन्यास के कथानक में बिखराव है। आँचलिकता, उपन्यास लेखन परंपरा की एक विशिष्ट शैली है। आँचलिक उपन्यासों में ग्रामीण चेतना के विभिन्न आयामों की गहरी समग्रता से अभिव्यक्ति हुई है।
नलिन विलोचन शर्मा जी रेणु जी बारे में लिखते हैं कि “अपने ह्रदय की सारी ममता और करुणा उंडेलकर ही अपने गाँव और वहाँ रहने वालों को जाना होगा।”10
नामवर सिंह कहते हैं कि “रेणु ने अपनी कलम से कैमरे का काम लिया है।” रेणु कहते हैं कि 'भारत माता' भारत के गांवों में वास करती है। उसका मैला आँचल धूल से भरा हुआ।
“भारत माता ग्रामवासिनी।खेतों में फैला है श्यामलधूल भरा मैला सा आँचल…" (‘भारत माता’ कविता – पंत जी)11
‘रेणु’ के ‘मैला आँचल’ उपन्यास ‘भारत माता’ के उसी धूल भरे आँचल की कहानी है। ‘भारत माता’ जो गाँवों में निवास करती है उसका आँचल मैला हो गया है। उपन्यास का प्रमुख पात्र डॉ. प्रशांत 'मेरीगंज' गांव में प्रेम और मानवता को ज़िंदा करने का प्रयत्न करते है। वे कहते हैं कि “मैं प्यार की खेती करना चाहता हूँ। आँसू से भीगी हुई धरती पर प्यार के पौधे लहलहाएँगे। मैं साधना करूंगा; ग्रामवासिनी भारतमाता के मैले आँचल तले।”12
निष्कर्ष : ‘मैला आँचल’ आँचलिक उपन्यासों की कसौटी पर खरा उतरता है। हम आँचलिक उपन्यासों की कसौटी ‘मैला आँचल’ से ही गढ़ी मान सकते हैं। इस उपन्यास से ही अन्य रचनाकार आँचलिक दृष्टि की सूक्ष्मता से परिचित होते है। इसमें ‘रेणु’ ने पूरे भारत के ग्रामीण जीवन का चित्रण करने की कोशिश की है। मैला आँचल का मुख्य उद्देश्य है – मिट्टी और मनुष्य से प्रेम। इस उपन्यास की सबसे ख़ास बात है - इसका सहज, सरल और उसी परिवेश का होना है। इसमें लोकगीतों के प्रयोगों ने इसको अमर कर दिया है। साहित्य में कम ही ऐसी रचनाएँ देखने को मिलती है जो किसी विशिष्ट शैली का प्रतिमान बन जाती है और परवर्ती लेखकों के लिए मार्गदर्शन और प्रस्थान बिंदु की भूमिका अदा करती है। इस समग्र दृष्टि में मैला आँचल की रचनाशीलता और सृजनशीलता में सर्वश्रेष्ठ हैं।
संदर्भ :
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वरनाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)