आलेख : उदारीकरण के बाद हिन्दी कहानी में संरचनात्मक परिवर्तन / कुमकुम यादव एवं डॉ. दीनानाथ मौर्य

उदारीकरण के बाद हिन्दी कहानी में संरचनात्मक परिवर्तन
- कुमकुम यादव वं डॉ. दीनानाथ मौर्य

            नवें दशक के आरम्भ के साथ ही हिन्दी कहानी को समकालीन कहानी के नाम से अभिहित किया जाने लगा। इस दौर में पहले से लिखते आ रहे कहानीकार भी हैं, साथ ही ऐसे कहानीकार भी हैं, जो इसी दौर में उपस्थित हुए। इनमें उदय प्रकाश, संजीव, शिवमूर्ति, स्वयं प्रकाश, महेश दर्पण, चित्रा मुद्गल, कमल कुमार, सुरेन्द्र तिवारी आदि का नाम प्रमुख रूप से आता है। इन कहानीकारों पर समय का दबाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। समय के खलबलाते प्रश्नों, समस्याओं, स्थितियों और अन्तर्विरोधों को इन कहानीकारों ने अभिव्यक्ति दी है। नवें दशक का वस्तु जगत् कई अर्थों में स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद बीते अन्य दशकों से भिन्न और महत्त्वपूर्ण रहा है। पहले से चली आ रही उलझनों को न सुलझा सकने की हद तक पेचीदा करने के साथ ही साथ इसने अनेक न उलझनों को जन्म दिया और एक छलाँग में विकट विभीषिका तक पहुँचा दिया। वस्तु जगत् अपने आप में ही एक बेमिसाल दबाव है। इस पर एक और दबाव संचार माध्यमों का आतंक भी है। इस परिवेश में लिखी गयी कहानियाँ इतिवृत्तात्मक न होकर वृत्तात्मक हो गयी है, चेतना प्रवाह में ‘फ्लैशबैक’की अलग-अलग न से न शैलियाँ हैं, द्वन्द्वात्मक या सापेक्षता के लिए भाषा-शिल्प के नये-नये पैंतरे, संश्लेषण-विश्लेषण, संकोचन-विमोचन, आरोह-अवरोह, प्राचीन से प्राचीन, अर्वाचीन से अर्वाचीन शिल्प का प्रयोग आवश्यक हो गया। इस काल की कहानियों के कई केन्द्र हैं- ‘‘एक केन्द्र है दलित, जिसने मूल केन्द्र के बारे में पुनर्विचार का दबाव पैदा किया, दूसरा केन्द्र है औरत और तीसरा केन्द्र सांस्कृतिक है।" नवें दशक की दलित कहानियों के संदर्भ में ओम प्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं, ‘‘नवें दशक की दलित कहानियों में भारतीय गाँव में व्याप्त वर्ण व्यवस्था और सामन्ती व्यवस्था में पिसते दलितों का हाहाकार है, तो छोटे शहरों, महानगरों में बसे सरकारी कर्मचारियों की व्यथा-कथाएँ हैं। इसी के साथ दलितों में उभरते आक्रोश, विरोध, संघर्ष की तीव्र चेतना छवि भी है, जो बदलाव के संकेत हैं।"   
           
    सन् 1990 के बाद नवउदारवाद की विचारधारा का प्रसार हुआ, जिसके तहत बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की स्थापना एवं विस्तार, भूमंडलीकरण, उत्तर-आधुनिकता आदि का तीव्र गति से विकास हुआ हिन्दी कहानियों पर भी इस परिवेश का प्रभाव पड़ना लाजमी था। वैश्वीकरण की द्रुतगति से बढ़ते हुए चरण, प्रौद्योगिक-सूचनातंत्र की क्रान्ति एवं उपभोक्तावादी संस्कृति के वर्चस्व के कारण कहानीकारों के लिए आवश्यक और अनिवार्य हो गया था कि वे अपनी कहानियों के माध्यम से राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चेतना जागृत करने हेतु ऐसी कहानियों की अपनी रचनाधर्मिता का साध्य बनाएँ जो मानवीय मूल्यों और जीवनादर्शों की स्थापना में सहायक सिद्ध हो सकें। नब्बे के बाद के अनेक कहानीकारों ने पारम्परिक मूल्यों, सामाजिक मूल्यों, सांस्कृतिक मूल्यों एवं जीवनादर्शों का दुबारा स्थापित करने का भरसक प्रयास किया है। सामाजिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करना, राष्ट्रीय लक्ष्य प्राप्ति हेतु राष्ट्रहित में परमावश्यक है, जिसको कहानीकार ही कर सकते हैं। कहानी के लिए एक समानान्तर चुनौती ‘लघु कथा’के रूप में उभर चुकी है तथा सभी छोटी-बड़ी पत्रिकाएँ लघु कथा के प्रचार-प्रसार में योगदान कर रही हैं, फिर भी साहित्यिक-विधाएँ अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है, वे कालक्रम के चक्र में सिमट भले ही जाती है, लेकिन मिट नहीं सकती।
           
    कथाकार संजीव की कुछ कहानियाँ नवउदारवाद एवं भूमण्डलीकरण के विषय पर आधारित है। ‘नस्ल’में भूमण्डलीकरण का रहस्योद्घाटन हुआ है। उदय प्रकाश की कई कहानियों में भी भूमण्डलीकरण का प्रभाव देखने को मिलता है। ‘और अन्त में प्रार्थना’के आत्मकथ्य में वे लिखते हैं, ‘‘यह हर कोई जानता है कि औद्योगिक क्रांति के आस-पास यूरोप में पूँजीवाद ‘व्यक्ति की स्वतन्त्रता’का नारा लेकर सामने आया था। समाज के आर्थिक धरातल पर यह ‘स्वतन्त्रता’इजारेदारी तथा कथित पूँजीवादी लोकतांत्रिक निरंकुशता के रूप में प्रकट हुई और रचनात्मक स्तर पर आत्मकेन्द्रित, समाज विमुख व्यक्तिवाद के रूप में। लेकिन आज के इस ‘उत्तर औद्योगिक’या प्राविधिक युग के यथार्थ पर रा गौर कीजिए, उसी पूँजीवाद ने जिस तरह से ‘मास कल्चर’और ‘मास सोसाइटी’को जन्म दिया है, वह बुनियादी तौर पर व्यक्ति की स्वतन्त्रता, निजता और वैयक्तिकता का सबसे बड़ा शत्रु है। आज के युग में जो कुछ भी ‘पर्सनल है, कम से कम संस्कृति में उसकी जगह नहीं है। व्यक्ति की जगह पर संस्थाएँ हैं, अकादमियाँ हैं, भवन हैं, प्रकाशन उद्योग है, सरकारें है और देशी-विदेशी फाउंडेशन हैं। 'मास मीडिया' है, जो सारे मनुष्यों को दर्शक-श्रोता मानकर उनमें एक जैसी रूचि और आस्वाद की आदत डाल रहा है। ऐसे में अपने नितान्त एकान्तिक और निपट अकेले अनुभव को व्यक्त करना इस पूँजीवादी समूहवाद का सार्थक प्रतिकार है।"

            ‘पॉल गोमरा का स्कूटर’कहानी में भाग-दौड़ भरी महानगरीय जीवन शैली में कहानी का नायक पॉल गोमरा पश्चिमी सभ्यता से आक्रान्त होकर हीनता का अनुभव करता है और उस जीवन शैली को अपनाने के चक्कर में अपनी पहचान गँवा बैठता है। कथाकार ने इस कहानी में दिल्ली की महानगरीय जीवन शैली को बारीकी से उकेरा है। कहानी का नायक पॉल गोमरा स्कूटर चलाना न जानते हुए भी आर्थिक तंगी में भी किस्तों पर स्कूटर खरीद लाता है, जो उसकी विक्षिप्तता का कारण बनता है। कहानी की प्रासंगिकता पर प्रकाश डालते हुए अरूण माहेश्वरी लिखते हैं- ‘पॉल गोमरा का स्कूटर’उपभोक्तावाद के साहित्य की दुनिया में पाँव पसारने की अनोखी कहानी है, जो तथ्य भी है, कल्पना भी है और वर्तमान युग का बखान भी। उपभोक्तावाद की आँधी में पॉल गोमरा सरीखा बेचारा कवि उसी प्रकार हतप्रभ और अनिर्णय की दशा में है, जिस प्रकार आर्थिक उदारवाद के दौर में आम आदमी। ‘वारेन हेस्टिंग्स का सांड’कहानी में नव औपनिवेशीकरण का सांस्कृतिक द्वन्द्व चित्रित है। कहानी में लेखक ने चोखी और सां के माध्यम से औपनिवेशिक ताकतों के प्रति तीव्र विद्रोह दिखाया है। चोखी वारेन हेस्टिंग्स के बच्चे को पैदा करने से मना करते हुए अपने पेट में खंजर चुभो लेती है तो साँ हेस्टिंग्स की बग्धी को अपने सींग में फँसाकर उछाल देता है और अन्ततः गोलियों द्वारा मारा जाता है। अतः यह कहानी रचनाकार द्वारा औपनिवेशिक सत्ता की दासता के नकारने का एक महनीय प्रयत्न है। कहानी के संदर्भ में सरबजीत का कथन है कि, ‘‘यह उस समय की कहानी है जब साम्राज्यवादी फिरंगी इस देश को अपना गुलाम बना चुका था और इसी एजेंसी के तहत हमारे वतन व समाज में आधुनिक युग और आधुनिकता ने एक युगान्तर पैदा कर दिया था और अब पूँजी ग्लोबलाइज होकर इस देश, समाज की दुनिया को बदल रही है और उत्तर आधुनिकता आ चुका है।"
           
    ‘पूँछ में पटाखा’और उत्तर आधुनिक उपभोक्तावाद में पूँजीवादी व्यवस्था में मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं की दुविधा जनक दयनीय स्थिति को विवेचित किया गया है। आज का भारतीय समाज न तो पूरी तरह पश्चिमी संस्कृति को अपना पा रहा है और न ही उसे तिलांजलि दे पा रहा है। ‘उत्तर आधुनिक उपभोक्तावाद’में रचनाकार कहता है कि एक कुत्ते की पूँछ में पटाखे की लड़ी बाँधकर उसमें आग लगा दी जा और उसके सामने हड्डी का टुकड़ा डाल दिया जा। वह लालच के कारण सामने पड़ी हड्डी को न खा पाता है और न ही छोड़ पाता है। कुछ ऐसी ही स्थिति हमारे मध्यवर्गीय समाज की है, जो न तो पश्चिमी बन पा रहा है और न ही स्वदेशी ही बन पा रहा है।
 
            कहानीकार विजय की कहानी ‘घोड़ा बाजार’में आर्थिक उदारीकरण और बाजारवाद के प्रभावों का उत्कृष्ट चित्रण हुआ है। कहानी के अंत में कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं, ‘‘मैं सोचता हूँ कि महान ध्यात्म का केन्द्र भारत अब यूरोपीय बाजार में सजी एक कठपुतली है। घोड़ा बाजार है, जहाँ घोड़ा नहीं होता। आदमी आदमी को ठग रहा है, पर आदमी नहीं है। हर तरफ बन्दूकें हैं, जिन पर मौत की कीमत टंगी है। फर्श पर गाँधी, बुद्ध और क्राइस्ट तथा लेनिन के चित्र पड़े हैं, जिन्हें रौंदते हर रंग की टोपी पहने लोग चल रहे हैं।"
 
            जयनन्दन की कहानियों में भी आर्थिक उदारीकरण का प्रभाव नगरों में ही नहीं गाँवों पर भी पड़ा है, जिससे ज़िन्दगी उथल-पुथल हो ग है। ‘पानी बीच मीन पियासी’में आर्थिक उदारवाद की नीति के फलस्वरूप पूँजीपतियों की मनमानी के प्रति आक्रोश और मजदूरों की छंटनी आदि के प्रति विरोध भाव का चित्रण किया गया है। लेखक में स्थिति को बदलने की बेचैनी दिखती है, इसलिए कहीं-कहीं वह उग्रवाद का पक्षधर होता हुआ भी दिखाई पड़ता है। ‘विश्व बाज़ार का ऊँट’कहानी में आर्थिक उदारीकरण और तकनीकी सुधारों के नाम पर मिल-कर्मचारियों की छंटनी और समयपूर् अवकाश ग्रहण की बाध्यता के कारण उसके जीवन में आने वाली त्रासद बदलाव का चित्रण किया गया है। इसके फलस्वरूप पति-पत्नी बच्चों के सम्बन्ध में आ बदलाव का चित्रण कर कहानी को संवेदना से युक्त बनाने का प्रयास भी दिखाई पड़ता है।
 
            जयनन्दन की ‘छोटा किसान’कहानी में आर्थिक उदारवाद के कारण पैदा हुई गाँव के छोटे किसानों की बदहाली का चित्रण किया गया है। गाँव के ऐसे किसान अपनी मीन बेचकर शहर में रोगार करने जा रहे है। यह उदारीकरण की नीति का परिणाम है। आज पुराने ढंग की खेती में कोई बरकत नहीं रह गयी है। पानी, खाद, उन्नत बीज, कीटनाशकों आदि के लिए पूँजी आवश्यक हो गयी है। किसान यदि इनके लिए ग्रामीण महाजनों से कर्ज लेते हैं तो उसे चुका नहीं पाते और कर्ज चुकाने के लिए उन्हें अपनी मीन रेहन रखने या बेचने की विवशता हो जाती है। इस कारण छोटे किसानों का गाँव से पलायन हो रहा है। शहर में रोगार मिलने का जो चित्र लेखक ने खींचा है वह यथार्थ नहीं है। इस कारण किसानों को वहाँ भी निराशा ही हाथ लगती है और वे आत्महत्या के लिए बाध्य हो जाते हैं। आज जो किसान बड़ी संख्या में आत्महत्याएँ कर रहे हैं, इसका यही कारण है।
 
            ‘‘सन् 1991 का दशक नव उदारवादी विचारधाराओं और आर्थिक नीति से पैदा हुए उपभोक्तावाद, समाज के बरक्स व्यक्ति को महत्त्व देने की प्रवृत्ति, अतीत को भूलकर केवल वर्तमान को देखने के नजरिये के प्रसार के लिए जाना जाता है। साहित्य पर इस दृष्टि का प्रभाव इस रूप में पड़ता है कि उसमें संवेदना के स्थान पर विमर्श, सामाजिक सरोकार के स्थान पर व्यक्तिवाद और संजीदगी के स्थान पर खिलवाड़ का बाहुल्य हो जाता है। अरूण प्रकाश का ‘छायायुद्ध', ‘आखिरी रात का दुःख’एवं ‘गजपुराण’आदि कहानियों पर उत्तर आधुनिकता का प्रभाव देखा जा सकता है।"
 
            नमिता सिंह ने ‘मिशन जंगल और गिनीपिन’कहानी में अनियंत्रित वैज्ञानिक आविष्कारों के दुष्प्रभाव को दर्शाया है। कहानी का नायक बायोटेक्नोलॉजी विशेषज्ञ है। वह चूहों के स्नायुतंत्र और उनके हारमोन में परिवर्तन करके चूहों के मस्तिष्क के केन्द्र को अपने आविष्कारों के द्वारा निष्क्रिय कर देता है। इससे चूहों के अंदर डरने की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है और वे दी गई हर आज्ञा का पालन करते हैं। तत्पश्चात् उन्हें बिल्ली के पिंजरे में प्रवेश करने की आज्ञा दी जाती है और चूहा बिना डरे हुए मौत के आगोश में समा जाता है। जब यही क्रिया सैनिकों पर प्रयोग की जाती है तो नायक का सिर चकराने लगता है- ‘‘यह उन जवानों का दिमागी परीक्षण था जिनके ऑपरेशन हो चुके थे। जिनके दिमागों की इंजीनियरिंग की जा चुकी थी। वे शत-प्रतिशत सफल थे। आज्ञाकारिता सौ फीसदी पूरी थी। उसका सिर चकराने लगा। ये जीते-जागते इसान थे या उसकी प्रयोगशाला के चूहे थे। वह भी तो अपने चूहों के साथ ऐसे ही परीक्षण करता रहा है। चूहों की संवेदना ने स्नायु केन्द्रों को नष्ट करके और थोड़ी सी दिमागी कतरब्योत करके भी तो चूहों से मनमाफिक काम कराता रहता है। उसके प्रयोग भी सफल होते रहे हैं। वही प्रयोग यहाँ नसानों पर कि गए हैं, सौ फीसदी सफल। उसे अब समझ में आया उन प्रयोगों का सफल परीक्षण देखने और सफलता के स्तर को आँकने, जाँचने, परखने के लिए उसे यहाँ लाया गया है। उसे अपने आगे के काम को यहाँ तय करना होगा। इसी प्रोजेक्ट को विस्तार देना होगा। उसकी प्रयोगशाला में चूहे के बदले क्या ये नौजवान लड़के होगे। उसके चूहे क्या अब लड़के में तब्दील किये जाएँगे।"
 
            उदारीकरण की समस्याएँ हमारे सामने मुँह फैला खड़ी हैं। पंकज सिन्हा की कहानी ‘किस्सा एक कोहिनूर’नव औपनिवेशीकरण के युग का बखूबी चित्रण करती हैं। इस कहानी की नायिका ब्रिटेन में रह रही है। वह भावुक स्त्री न होकर संतुलित स्वभाव वाली स्त्री है। हर प्रवासी भारतीय की भाँति उसके अंदर भी देशप्रेम की भावना विद्यमान है। संग्रहालय में वह कोहिनूर के हीरे को देखती है जो कभी भारत का हुआ करता था, परन्तु अब ब्रिटेन के संग्रहालय की जान है। कहानी में ‘कोहिनूर’पलायन करती भारतीय प्रतिभाओं का प्रतीक है जो रोजी-रोटी की तलाश में अपनी मिट्टी से अलग होते जा रहे हैं।
 
            मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी ‘स्वांग’विलुप्त होती लोक कथाओं पर चिन्ता व्यक्त कराती है। बाजार और उत्पाद से जूझ रही आज की कहानियाँ दो राहे पर खड़ी हैं। ‘टेकना है तो टेक न तो गो’कहानी में नीलाक्षी सिंह ने बाज़ार के ख़िलाफ़, उसके प्रतिरोध में लिखा है। इसमें पति पहले मिठाई की दुकान करता था, लेकिन अब उसने दुकान की जगह एक बड़ा-सा मिठाई भण्डार बना लिया और वह चाहता है कि उसकी पत्नी भी उसके साथ काम में हाथ बंटाए, लेकिन पत्नी गर्व और स्वाभिमान के साथ वहीं रहकर अपना काम करती है और ग्राहकों से स्पष्ट कहती है कि ‘टेकना हो तो टेक न तो गो’यानी सामान लेना हो तो लो, नहीं तो जाओ। आज बाज़ार पर अधिकार के लिए पति-पत्नी आपस में प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। दुलारी बाज़ारवाद के इस युग में अपनी जलेबी बचाने का प्रयास करती दिखाई देती है।"
 
            चन्दन पाण्डेय की कहानी ‘जंक्शन’उपनिवेशवादी युग की सच्ची तसवीर प्रस्तुत करती है। क्षमा शर्मा ने अपनी कहानियों में आतंकवाद, बाज़ारवाद और उदारीकरण की चकाचौंध और उसके प्रतिफल की ऐसी झाँकी प्रस्तुत की है, जो आदमी को झकझोर कर रख देती है। सन् 1984 में लिखी गयी‘कस्बे की लड़की’से लेकर वर्ष 2006 की कहानी ‘रसोई घर तक’अनेक कहानियों ने क्षीण होती मानवीय संवेदना को उभारा है जो आज की भागदौड़ भरी ज़िन्दगी का दुष्परिणाम है। उपभोक्तावाद ने न केवल मध्यवर्ग को अपना शिकार बनाया अपितु छोटे किसान, मजदूर और बच्चे भी इसकी चपेट में आते चले जा रहे हैं। हिन्दी के समकालीन कथाकारों ने इस कहानी को लेकर अपनी लेखनी चला
 
            कैलाश बनवासी का कहानी संग्रह ‘बाजार में रामधन’हमारी कृषि योग्य भूमि पर उद्योगपतियों के आधिपत्य की दास्तान बयाँ करती है। संग्रह की कहानी बाजार में रामधन कृषकों का शोकगीत गाती हुई प्रतीत होती है। बनवासी जी की ही कहानी ‘पीले कागज की अगली इबादत’प्रकाशित हुई। संग्रह की कहानी ‘झुका हुआ गाँव’में ऋण से दबे कृषकों की दयनीय स्थिति का चित्रण हुआ है। धीरेन्द्र अस्थाना की कहानी ‘पिता’ नव औपनिवेशिक युग में भारतीय जीवन और पारिवारिक सम्बन्धों पर पड़ते प्रभाव की दारुण कथा बयान करती है। कहानी में नव उपनिवेशवादी प्रभाव में फँसे भारतीय युवाओं का सजीव चित्रांकन हुआ है-‘‘मुम्बई जैसी मायावी नगरी में वह टू बेडरूम हॉल के एक सुविधा और सुचारू सम्पन्न फ्लैट में जीवन बसर कर रहा था। वह मारुति जेन में चलता था। रेमण्ड और ब्लैक बेरी की पैण्टें, पार्क एवेन्यू और वेनह्यूजन की शर्टें और रेड चीफ के जूते पहनता था।"
 
            रणेन्द्र ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’में भारतीय जनजातियों के सम्मुख खड़े नव-औपनिवेशिक संकट का चित्रण किया है। ग्लोबल देवता पूँजीपतियों के प्रतीक हैं और अपनी पैसे की भूख मिटाने के लिए बाक्साइट का खनन करते हैं। खनित स्थल पर रहने वाली जन जातियों को बिना उनका ह दिये उन्हें विस्थापित कर देते हैं। रणेन्द्र ने यह उपन्यास असुर जनजाति को केन्द्र में रखकर लिखा है। इस प्रकार ‘‘सन् 1990 के बाद की कहानियों में भी परम्परा और नवीनता, विश्वास और आडम्बर, अभाव और धोखा, चकाचौंध और मटमैलापन, प्रकृति और मनुष्य, साहित्य और बाजार, सभी कुछ अपने-अपने अस्तित्व के साथ एक-दूसरे से गूँथे हुए मौजूद हैं। इस समय की कहानियों में भी प्रेम, घृणा, आक्रोश और कुढ़न के बीच प्रेम का द्वन्द्व है, स्मृतियों में उभरते आकर्षक दृश्य है। यहाँ भी स्वातन्त्र्योत्तर भारत की राजनीति का चेहरा बेनकाब होता है। आज का प्रभुत्ववादी बाजार छल, प्रपंच, झूठ, तार-तार करने वाली संवेदनहीनता इन कहानियों में झाँकती-सी प्रतीत होती हैं। इन कहानियों में भी ‘वस्तु’और ‘बाजार’में विन्यस्त हो गये मनुष्य को बचा लेने की मुहिम है।"
 
            अतः कहा जा सकता है कि सन् 1990 के बाद वैश्विक परिवर्तन से साहित्य भी अछूता नहीं है। सूचना संचार के इस युग में विश्व के किसी भी कोने में घट रही घटना का हम साक्षात्कार तो करते ही है, परन्तु इसके साथ-साथ उनसे प्रभावित हुए बिना भी नहीं रहते। हिन्दी के साहित्यकार भी इससे प्रभावित हुए जो उनकी लेखनी में स्पष्ट दिखाई देता है। आज के नव-औपनिवेशिक संकट को समझते हुए हमारे साहित्यकारों ने देश की जनता को इसके अच्छे और बुरे दोनों तरह के प्रभावों का दिग्दर्शन कराया है। आज की रचनाएँ बाज़ारवादी संस्कृति के कुचक्र से लड़ती हुई दिखाई देती हैं। इन रचनाओं में नव-उदारवादी स्थितियों का भरपूर वर्णन प्राप्त होता है।
 
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि औपनिवेशिक एवं उत्तर औपनिवेशिक युगीन हिन्दी कहानी की प्रवृत्ति एवं संरचना अलग-अलग युगों में भिन्न-भिन्न हैं। पूर्व प्रेमचंद्र युगीन कहानियों की संरचना में कल्पना, रहस्य एवं रोमांच की प्रधानता है, वहीं प्रेमचंद्र युगीन कहानियों में यथार्थ भी आदर्शवादी रूप में प्रस्तुत हुआ है। प्रेमचन्दोत्तर युग में कहानियों की संरचना आधुनिकता एवं मनोवैज्ञानिकता से प्रभावित दिखती हैं। उत्तर-औपनिवेशिक युग अर्थात् स्वातन्त्र्योत्तर युग की कहानियाँ कहानी आंदोलनों से प्रभावित रहीं। नयी कहानी, अकहानी, सचेतन कहानी, जनवादी आदि कहानी आंदोलनों ने कहानी की संरचना एवं  प्रवृत्ति को अलग-अलग सोच, परिवेश एवं तेवर के साथ प्रस्तुत किया। इन कहानियों पर पत्रिकाओं में सर्वाधिक चर्चा हुई तथा कहानी विधा को समर्पित अनेक पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। इसी वातावरण में हिन्दी कहानी के विकास क्षितिज पर इन आंदोलनों का उदय और अवसान हुआ। सन् 1990 के पश्चात् नव उदारवाद का प्रभाव भी हिन्दी कहानी पर रहा, यहाँ कहानी भूमण्डलीकरण एवं बाज़ारवाद से विशेष रूप से प्रभावित रही।

 

संदर्भ :
1. यादव, डा0  राजेन्द्र-जनसत्ता सबरंगः साहित्य विशेषांक, 1994, पृ0 77
2. वाल्मीकि, ओम प्रकाश-दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण, 2005, पृ0 112
3.उदय प्रकाश-और अन्त में प्रार्थना, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण, 2006, पृ0 आत्मकथ्य लेख से।
4.सिंह, डा0 विजय मोहन-पल-प्रतिपल, मार्च-जून-1998, पृ0 32
5.राय, गोपाल-हिन्दी कहानी का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण, 2016, पृ0 395
6.वही, पृ0 359
7.स्वयं प्रकाश-संपादक-श्रेष्ठ हिन्दी कहानियां, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृ0 139-140
8.सिंह, डा0 धर्मेन्द्र प्रताप-नव उपनिवेशवाद और उदय प्रकाश का साहित्य, चिन्तन प्रकाशन, कानपुर, संस्करण, 2016, पृ0 46
9.स्वयं प्रकाश-संपादक-श्रेष्ठ हिन्दी कहानियां, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृ0 107
10.वही, पृ0 110

कुमकुम यादव
शोधार्थी, (हिन्दी विभाग), इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज

 डॉ. दीनानाथ मौर्य, शोध निर्देशक
  असि. प्रोफेसर (हिन्दी विभाग),इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज

 
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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