शोध आलेख : समसामयिक अर्मूत कला में सम्प्रेषण : एक विवेचना / प्रो. अजय कुमार जैतली एवं मंजू यादव

समसामयिक अर्मूत कला में सम्प्रेषण : एक विवेचना
- प्रो. अजय कुमार जैतली एवं मंजू यादव
 
शोध सार : कला हमारे मनोभावों को व्यक्त करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है। जिसके द्वारा हम अपनी अनकही, अमूर्त भावनाओं को बहुत ही सरलता पूर्वक एक से दूसरे तक पहुँचा सकते हैं। कला अभिव्यक्ति की उपयोगिता का प्रमाण हमें प्रागैतिहासिक कालीन कला से ही देखने को मिलने लगा, जब आदिम मानवों को शब्दों तथा भाषाओं का ज्ञान नही था, तब उन्होंने भी अपनें भावों को एक - दूसरे तक सम्प्रेषित करने के लिए चित्रण का सहारा लिया। कला के शास्त्रीय व परम्परागत नियमों से अनभिज्ञ होने के बावजूद भी उन्होंने अपनी भावनाओं को जिस तरीके से अमूर्त चित्राकृतियों द्वारा एक - दूसरे तक प्रेषित किया, वह अद्भुत था। उनके द्वारा बनायी गयी मूर्त, अमूर्त चित्राकृतियाँ आज भी बखूबी उनके संघर्षों की कहानियाँ हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं। अतः कलाएं सदैव ही हमारे अमूर्त व अनकहे संदेशो को प्रेषित करने में सहायक रहीं हैं। कला की यह प्रवृत्ति आज के आधुनिक युग में भी अनवरत् रुप से जारी है।

बीज शब्द - कला सम्प्रेषण, कला अभिव्यक्ति, अमूर्त कला, कला बाजार, कला दीर्घा व संग्रहालय की भूमिका। 


मूल आलेख :  कोई भी कलाकृति सर्वप्रथम देखने अर्थात् अनुभव करने का एक माध्यम है। किसी भी अनुभव का वैशिष्ट्य अनुभूति करने के ढंग में अंतर्निहित है। चूँकि ‘‘कला जीवन का, सत्य का, आत्मा का अनुभूत्यात्मक सर्जना है। अतः कला का उद्देश्य सिर्फ ब्योरों को प्रस्तुत करना नहीं
बल्कि उन में से व्यंजित हो रही किसी अनुभूतियों का सम्प्रेषण करना भी है।[1] प्रसिद्ध रूसी साहित्यकार टॉलस्टाय ने भी ‘‘कला को मानव के मध्य संचार का एक माध्यम माना हैं।‘‘ [2] कलाकृतियाँ चाहें मूर्त रुप में हों या अमूर्त रुप में उनका अन्तिम लक्ष्य है - भावों की अभिव्यक्ति (सम्प्रेषण)। हालांकि आज समकालीन भारतीय कला जगत में कलाकारों द्वारा मूर्तआकारों को त्यागकर अमूर्त रुपाकारों को प्रमुखता से अपनाया जा रहा है। इसके पीछे का कारण यह है कि इसमें सौन्दर्यानुभूति कराने की असीम स्वतंत्रता रहती है। साथ ही चित्रकारो द्वारा अपने सृजनात्मक भावों को व्यक्त करने के लिये विभिन्न तकनीकों का प्रयोग भी किया जा सकता है। आधुनिक अमूर्त कलाकारों ने कलाकृतियों में सौन्दर्य दिखाने के लिये रेखा, रंग, रूप, तान, पोत, अन्तराल आदि तत्वो का समायोजन कर सृजन करना आरम्भ किया। कलाकार का सदैव यह उद्देश्य रहा कि वह कुछ नया सृजन करे, जिसमें सुख व सौन्दर्य की अनुभूति हो। कलाकारों को नये सृजनात्मक मनोभावों के लिये परम्पराओं की ओर देखना पड़ा और कलाकारों ने प्रागैतिहासिक कला एवं संकेतों से सीख ली। कलाकारों ने व्यक्तिगत दृष्टिकोण अपनाकर उन प्रतीकों एवं संकेतो के माध्यम से नवीन कला शैली को जन्म दिया, जो समकालीन है, जिन्हें अमूर्त चित्रण शैली कहा जा सकता है। जिसमें समकालीन कलाकार अवचेतन मन की व्यथा को अपनी कलाकृति के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। एब्स्टैक्ट या अमूर्त चित्रों की रचना करते हुए चित्रकार संसार में उपलब्ध आकृतियों को नकारता नही है, बल्कि वह उन संसार में मौजूद आकृतियों, रूपाकारों को अपनी व्यक्तिगत इच्छानुसार किन्हीं रूप में ढालता है और उसे सम्प्रेषण के माध्यम के रुप में प्रयोग करता है।

 

अमूर्त कला - कला में अमूर्तन पर चर्चा करने से पहले हमें अमूर्त चिंतन को समझना होगा कि अमूर्त चिंतन क्या है ? और इसके मायने क्या है ? अमूर्त चिंतन पूर्णतः ज्ञान पर आधारित है। जहाँ किसी वस्तु का प्रत्यक्ष रूप में सामने होना जरूरी नही होता। बल्कि इस प्रकार के चिंतन में दर्शक अपनी बुद्धि एवं कल्पना शक्ति का उपयोग करता है। जिसमें कोई वस्तु या समस्या प्रत्यक्ष रूप से सामने नही हो, फिर भी उसके बारे में चिंतन करना, अमूर्त चिंतन कहलाता है। यहीं दर्शन अमूर्त चित्रकला के संदर्भ में भी लागू होता है। जहाँ तक कला में अमूर्तन के प्रयोग का प्रश्न है तो इसकी शुरूआत हमें आदिम कला से ही दिखायी देने लगती है। लेकिन बात यदि इसके स्वीकार्यता की करें तो कलाकारों व कला विद्वानों ने न केवल आज इसे स्वीकार कर लिया है, बल्कि उन्हें विश्व कला विरासत की एक बहुमूल्य परम्परा भी मान लिया है। चूँकि अमूर्त अभिव्यंजना की प्रवृत्ति निश्चित रूप से पश्चिम के कलाकारों व कला विचारकों के चिंतन का ही परिणाम है। सर्वप्रथम पश्चिमी कलाकारों व कला विचारकों ने ही कलाओं को अपने परिप्रेक्ष्य, पद्धति व आवश्यकताओं के अनुरूप परिभाषित करने की लगातार चेष्टा करते रहें हैं। जिसके फलस्वरूप पूर्व व पश्चिम के कला विद्वानों ने इसे मान्यता प्रदान की है। [3] इस प्रवृत्ति को तब और अधिक बल मिला जब कला - संग्रहालयों और कला - दीर्घाओं का विकास होना शुरू हुआ। यहाँ यह भी समझना होगा कि संग्रहालयों और दीर्घाओं के द्वारा आरम्भ हुए ‘कला - विमर्श‘ का ‘‘चिंतन‘‘ से और ‘‘व्यवसायिकता‘‘ से गहरा सम्बन्ध था। जहाँ पर बौद्धिक या वैचारिक ‘कला - विमर्श‘ पर चर्चाओं से संग्रहालयों की प्रतिष्ठा बढ़ने लगी, वहीं दूसरी तरफ कलाकारों को भी कहीं न कहीं आर्थिक सहयोग मिलना प्रारम्भ हुआ। संग्रहालयों व कला दीर्घाओं के इस तरह के हस्तक्षेप से कलाकार की कुशलता, उसका व्यक्तिगत अनुभव व सौन्दर्य अभिव्यक्तियों पर सकारात्मक व नकारात्मक दोनो प्रकार का प्रभाव पड़ा।


      हालांकि कला जगत में संग्रहालय व कला - दीर्घाओं की बढ़ती भागीदारी अनेक कलाकारों को नागवार गुजरी। फलस्वरुप संग्रहालयों व कला - दीर्घाओं को कलाकारों के रोष का सामना करना पड़ा। इस प्रकार की व्यवस्था के प्रति विरोध जताते हुए 1947 में मार्शल दूशां ने चीनी मिट्टी के एक यूरिनल को न्यूयॉर्क की एक प्रदर्शनी में प्रदर्शित करने के लिये ‘‘फव्वारा‘‘ शीर्षक से भेजा। जहाँ उसे दर्शकों के जबरदस्त प्रतिरोध का सामना भी करना पड़ा। इस कलाकृति के विषय एवं प्रस्तुतीकरण पर उसका स्पष्ट कहना था कि - ‘‘जब कला एक अवधारणा मात्र ही रह गयी है और वह कला दीर्घाओं व संग्रहालयों तक में ही सीमित होकर स्वंय को सर्वोच्च समझने लगी है, तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि कलाकार क्या सृजित कर रहा है तथा उसे क्या नाम दे रहा है।‘‘[4] कलाकारों द्वारा संग्रहालयों व कला दीर्घाओं के प्रति बाजार तंत्र का प्रतिरोध पिछले कई सालों से जारी है, किन्तु आज तक इस प्रकार की समस्या का कोई निष्कर्ष नहीं निकला। आज कला के क्षेत्र में जिस प्रकार माध्यम, शैली, तकनीक इत्यादि में बदलाव हो रहे हैं,  इस विषय पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने पर हमें पता चलता है कि यह कहीं न कहीं कला की व्यवसायिकता को बढ़ाने और कलाकारों को आर्थिक मजबूती प्रदान करने का एक माध्यम बन रहा है। यद्यपि अनेक कला विद्वान इस प्रकार की प्रवृत्ति को गलत या नकारात्मक मानते हैं। किन्तु यहाँ हमें यह भी समझना होगा कि कला दीर्घाएं व संग्रहालय ही किसी कलाकार की कलाकृति के लिये वह साधन है, जो उसकी कला एवं उसको अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के साथ - साथ सफल व आर्थिक रुप से मजबूत कलाकार बनने में मदद कर सकते हैं। चूँकि आधुनिक कला जगत व कलाकार आज किसी भी प्रकार की सीमा से बाहर आ गया है। यहाँ तक की रंग और रेखाओं की सीमायें भी सभी प्रकार के विचारों से स्वाधीन है। इस संदर्भ में सेजां का कथन उपयुक्त उदाहरण प्रतीत होता है कि ‘‘कला में रंगों के अलावा किसी भी चीज का महत्त्व नहीं है, न मनोविज्ञान का न रेखाओं का। आज जो असंभव है, वह कला में संभव है, कला आज पूरी तरह से स्वतंत्र है।‘‘ [5]

 

अमूर्त कला में संम्प्रेषण - कला किसी भी कलाकार की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम होती है और उस अभिव्यक्ति में सौन्दर्य, आकर्षण और अलौकिकता लाने का कार्य कलाकार की सृजनात्मक कला द्वारा ही सम्भव हो पाता है। अभिव्यक्ति व कल्पना के माध्यम से एक रचनाकार अपने अवचेतन मन में उठ रहे मनोभावों को अपनी कला द्वारा मूर्त रुप प्रदान करता है। यही मूर्त रुप दर्शक तक कुछ संदेश, भाव, सौन्दर्य भावना इत्यादि पहुँचाते हैं। इस प्रकार कलात्मक रुपाकृतियों के द्वारा दर्शक तक कलाकार के कलात्मक भाव तथा सौन्दर्य प्रसारित होते हैं। यही प्रक्रिया (कलाकार की कल्पना, अभिव्यक्ति से निर्मित कृति द्वारा दर्शक के मन में उसी प्रकार का भाव, विचार अनुभव कराना) सम्प्रेषण कहलाती है।            


कला सम्प्रेषण की इस प्रक्रिया द्वारा रचनाकार सृजन की प्रक्रिया में प्राप्त हुए अनुभव को दर्शक तक पहुँचाना चाहता है। किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि दर्शक कलाकार के अनुभव की सीमाओं में ही रहकर सम्प्रेषण की अनुभूति करे। क्योंकि कलाकार और दर्शक का कल्पना लोक सदैव एक जैसा नही होता
, इसलिए कलाकार  की भाँति भाव दर्शक में ‘‘ज्यों का त्यों‘‘ उत्पन्न नहीं हो सकते। इसका कारण यह हो सकता है कि कलाकार व दर्शक का स्वभावउनका दृष्टिकोण, वैचारिक क्षमता एक जैसी नहीं होती।



उपर्युक्त चित्र में आवश्यक नहीं है कि चित्रकार ने जिस भाव व कल्पना के अनुसार इसको चित्रित किया हो
, प्रायः इसके दर्शक भी कलाकार के उसी भाव व कल्पना को ग्रहण कर सके। प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तिगत स्वभाव और उस समय उत्पन्न हुई मानसिक स्थिति के अनुसार ही चित्राकृति का अर्थ - विस्तार करता है और कभी - कभी दर्शक कलाकार की कल्पना से बहुत आगे बढ़ जाता है। अतः कलाकृति की सम्प्रेषणीयता के लिये दर्शक के अनुभव करने की क्षमता महत्त्वपूर्ण तथा उत्तरदायी होती है। उदाहरणार्थ - किसी चित्र में नीला, नीला -हरा, पीले रंगों की हल्की व गहरी तानों का संयोजन, संयोजन के सिद्धान्तों के अनुसार हुआ हो, तो यह आवश्यक नही है कि यह चित्र एक समान रुप से सभी दर्शकों को आनन्दित ही करेगा, कुछ दर्शकों को यह रंग योजना आकर्षक लग सकती हैं परन्तु कुछ को उदासीन भी लग सकती हैं । यह पूर्ण रुप से दर्शक की मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है। अभिव्यंजनावादी कलाकार वॉन गॉग ने अपने जीवन काल में जिन व्यथाओं को पूर्ण रुप से अभिव्यक्त नहीं कर पाया, वह उसके चित्रों में प्रयुक्त उदासीन रंग व रेखाओं के प्रभाव ने दर्शकों के मानस पटल पर उसके दुखों एवं संघर्षो की छाप छोड़ दी। जिसके कारण वर्तमान में वॉन गॉग के जीवन काल से अधिक महत्वपूर्ण उसके चित्र हो गये।

 


अमूर्त कला एवं सम्प्रेषण - यदि हम आधुनिक समकालीन कला परिदृश्य पर गौर करेंगे तो देख पायेंगे कि समकालीन कला जगत में जो प्रवृत्ति हावी है, वह अमूर्त रुपाकारों की है। सदैव से ही अमूर्त रूपाकारों एवं अमूर्त कला के विषय - वस्तुओं में सम्प्रेषण की समस्या विद्यमान रही है, जिसकी समय - समय पर चर्चा भी होती रही है। इसके विषय में यह भी कहा जाता रहा है कि अमूर्त चित्रण को देखने व समझने के लिये दर्शकों का बौद्धिक ज्ञान भी मायने रखता है। तभी वह अमूर्त कलाकृति का रसास्वादन कर पायेगा। वर्ना उसके लिये ऐसी कृतियाँ सदैव ही उबाऊ होगी। अतः अमूर्त कला को समझने के लिये केवल रंग, टेक्स्चर, माध्यम, तकनीक, कलाकार की मनःस्थिति व बौद्धिक कौशल को महसूस करना ही र्प्याप्त नहीं है, बल्कि इसको देखने वाले दर्शकों का मानसिक व वैचारिक स्तर भी कलाकार के मनः स्थिति से मेल खाता हो, तभी वह अमूर्त कलाकृतियों से तादात्म्य स्थापित कर पायेगा वर्ना नहीं। एक आम दर्शक जो हमारे  पारिस्थ्तिकी  तंत्र में घटित होने वाली रोजमर्रा की घटनाओं को किन्हीं यथार्थ रूपाकारों द्वारा कलाकार की अभिव्यक्ति में देखने की इच्छा रखते होंगे तो उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी। अमूर्तन की समझ के अभाव में कलाकृति सम्भवतः विसंगत प्रतीत होगी और सम्प्रेषण शून्य होगा।

     आधुनिक कलाकारों को असीमित स्वतंत्रता प्राप्त होने के बावजूद वर्तमान समय में कला सम्प्रेषण की समस्या आधुनिक अमूर्त कला में एक गम्भीर चिंता का विषय हो गयी है। जिस पर विश्व के कलाविद्  और कला समीक्षकों ने अपनी चिंता व्यक्त की है। यह समस्या केवल ललित कला तक ही सीमित नहीं है, बल्कि समग्र कला रूपों को भी प्रभावित किया है। 


 निष्कर्ष: कलाओं को नित नये आयाम तथा विकास सामान्य जनजीवन व दैनिक संघर्षो के अनुभवों से ही मिलता हैं। 20वीं शताब्दी में सूचना तथा संचार प्रौद्योगिकी में हुए परिवर्तन एवं विकास का प्रभाव हमारी कलाओं में भी दिखाई देता है। ये परिवर्तन हमारे जनजीवन तथा विचारधारा को भी प्रभावित किये जिससे सामाजिक चेतना तथा राजनैतिक विकास हुआ और कलाकारों को स्वतंत्र चिंतन एवं नये प्रयोग करने की स्वतंत्रता प्रदान की। आधुनिक युग में बदलती हुई दैनिक परिस्थितियों तथा हमारे चारो ओर के वातावरण में घट रही आधुनिक घटनाओं का प्रभाव हमारी कला में भी दिखायी देने लगा, जिसके फलस्वरूप आधुनिक कला रूपों में बदलाव आने लगे और कला समय के साथ - साथ मूर्त से अमूर्त हो गयी। कला में हुआ यह बदलाव कहीं न कहीं हमारे बदलते हुए जनजीवन के मूल्यों का ही संवाहक है।

 

आज भूमण्डलीकरण के दौर में भारतीय समकालीन कला राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी ख्याति अर्जित कर चुकी है जहाँ अमूर्त या अनाकार, सभी शैलियों का विकास परिलक्षित हो रहा है। इसमें समस्त देशों की कलाएँ मूर्त एवं अमूर्त के बीच की दूरी को त्याग कर एक -  दूसरे देश की कलाओं से जुड़ कर स्वंय को समृद्ध कर रही हैं। जहाँ तक अमूर्तन कला और उसमें निहित सम्प्रेषणात्मक चुनौती का प्रश्न है तो यहाँ यह समझना आवश्यक है कि आज अमूर्त कला वैश्विक स्तर पर स्वयं को प्रतिष्ठित कर चुकी है और यह वैश्विक कला प्रवृत्ति के रुप में स्वीकार भी की जा चुकी है।  कलाकृति जो सम्प्रेषित करती है, उसकी अनुभूति का प्रभाव किसी भी काल में तथा मानव जाति की किसी भी सभ्यता में देखा जा सकता है। यह कलाकार की कला, निजी विशेषता को प्रदर्शित करने के साथ ही कलाकार के कालक्रम में मानव जाति की सभ्यता को भी प्रदर्शित करती है। इसी संदर्भ  में  आज भारतीय समकालीन कला विश्व स्तर पर भारतीय कलाकार, समाज, मानव - सभ्यता को प्रस्तुत कर रही हैं।  

संदर्भ                             

[1]नंद किशोर , आचार्य, समकालीन कला : आत्म का अनुभूत्यात्मक सर्जन , प्रकाशन  : ललित कला अकादमी नई दिल्ली , अंक 49 , पृ. 13-15
[2] राजेन्द्र , वाजपेयी , सौन्दर्य प्रकाशन : मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी , संस्करण षष्ठ 2012, पृ. 77
[3] ज्योतिष , जोशी , रूपंकर : उपभेक्तावाद और सम्प्रेषण का संकट , प्रकाशन : यश पब्लिकेशन , दिल्ली , पृ. 33-36
[4] ज्योतिष , जोशी , समकालीन कला : नया उपभोक्ता समाज और सम्प्रेषण का संकट , प्रकाशन : ललित कला अकादमी , नई दिल्ली , अंक 21, फरवरी - मई 2002 , पृ. 5 - 7
[5] अशोक , आत्रेय , कला त्रैमासिक , कला चितंन : मूर्त - अतमूर्त के बीच , प्रकाशन : ललित कला अकादेमी , लखनऊ , अपैल - जून 2018 , वर्ष 43 , अंक 40 , पृ. 13
6 - प्रयाग , शुक्ल , समकालीन कला : गायतोण्डे की कला , प्रकाशन : ललित कला अकादमी , नई दिल्ली , अंक 21 , फरवरी - मई 2002 , पृ. 29 - 31
7 - सच्चिदानन्द  , सिन्हा , समकालीन कला : आधुनिकता की चुनौतिया , प्रकाशन : ललित कला अकादमी , नई दिल्ली , अंक 21 , फरवरी - मई 2002 , पृ. 32 - 36
8 – प्राणनाथ , मागो , भारत की समकालीन कला : एक परिप्रेक्ष्य , प्रकाशन:  नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया , नई दिल्ली , दूसरी आवृत्ति 2011 , पृ. 195 - 205
9 – ज्योतिष , जोशी , रूपंकर : कला और बाजार , प्रकाशन : यश पब्लिकेशन , दिल्ली , पृ. 87 - 90
10 – अखिलेश , दरसपोथी : (अ)मूर्तन , प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली , पटना , इलाहाबाद , प्रथम संस्करण 2011 , पृ. 171 - 175
11 – पी॰एन॰ , चोयल , कला त्रैमासिक : कला का बदलता स्वरूप और शिक्षा , प्रकाशन : राज्य ललित कला अकादमी , उत्तर प्रदेश , पृ.17 -  19
12 – प्रभ , जोशी , कला दीर्घा : दृश्य कला की अन्तरदेशीय पत्रिका , समकालीन कला का युवा परिदृश्य , अक्टूबर 2015 , वर्ष 16 , अंक 31, पृ. 6 - 11
13 - वेद प्रकाश , भारद्वाज , कला दीर्घा : दृश्य कला की अन्तरदेशीय पत्रिका , कला देखना ही नहीं विचार करना भी , अक्टूबर 2015 , वर्ष 16 , अंक 31 , पृष्ठ संख्या 6 -  11
14 – प्रो॰ रामचन्द्र , शुक्ल , आधुनिक चित्रकला : अज्ञात चित्रण अथवा अन्तः  प्रज्ञात्मक शैली, प्रकाशन : साहित्य संगम इलाहाबाद , प्रथम संस्करण 2006 , पृ. 89 - 94
15 – मुकुन्द  , लाठ , कला - भारती (खण्ड: एक) - कला में अमूर्त की भारतीय धारणा और परम्परा, प्रकाशन : ललित कला अकादमी , नई दिल्ली , प्रथम संस्करण 2010 , पृ. 13 - 22
 

प्रो. अजय कुमार जैतली
विभागाध्यक्ष, दृश्य कला विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज

मंजू यादव
शोध छात्रा, दृश्य कला विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

Post a Comment

और नया पुराने