शोध आलेख : शांता कुमार के उपन्यासों में सामाजिक सरोकार / धर्म चन्द

शांता कुमार के उपन्यासों में सामाजिक सरोकार
-धर्म चन्द


शोध-सार : अद्यतन समाज में उपन्यास अपनी लोकप्रियता के कारण आधुनिक साहित्य की अन्य विधाओं  की अपेक्षा अधिक प्रतिष्ठित एवं प्रौढ़ विधा के रूप में उभरकर सामने आया है। उपन्यास की लोकप्रियता उसकी आवश्यकता का प्रमाण है, क्योंकि जो विधा समाज के जितने करीब होती है, उसकी दृढ़ता उतनी अधिक बनी रहती है। साहित्य और समाज एक-दूसरे के  पूरक हैं, एक का प्रभाव दूसरे पर दिखाई देना स्वाभाविक  है । साहित्य को समाज के अभाव में और समाज को साहित्य के अभाव में परिलक्षित कर पाना बेहद कठिन एवं दुष्कर कार्य है।साहित्य समाज का दर्पण हैऔर साहित्यकार इस दर्पण का सजग, सचेत अंग। लेखकश्यामाचरण दुबेरचनाकर के बारे में लिखते हैंरचनात्मक लेखक समाज का विशेष अंग होता है, उसकी प्रतिभा और उसका कार्य उसे एक विशिष्ट सामाजिक श्रेणी में स्थान दिलाते हैं। कम-से-कम यह तो कहा ही जा सकता है कि उसकी संवेदना और दूरदृष्टि सामान्य नहीं होती।1 साहित्यकार समाज का अति संवेदनशील प्राणी होता है। जो समाज  में नित्य-प्रति घटित होने वाली घटनाओं उसके अनुकूल-प्रतिकूल प्रभावों एवं अनुभवों को आधार बनाकर अपनीसृजन मूलक इमारत खड़ी करता है ताकि समाज में व्याप्त विषमताओं, विसंगतियों, विकृतियों, रूढ़ियों और जड़ता के पक्षों उसके रहस्यों को अनावृत करके, समाज का पथ प्रेम सौहार्द, समता एवं अपनेपन से  दीप्तिमान कर सके। कथा सम्राट ने उपन्यास को जिस प्रगतिशील और यथार्थवादी धरातल पर खड़ा करके एक सकारात्मक सन्देश देने का कार्य किया, उस सन्देश को आगे बढ़ाने और संचारित करने का कार्यशांता कुमारसरीखे संवेदनशील और यथार्थवादी लेखकों ने किया।

 

बीज-शब्द : शांता कुमार, साहित्य, समाज, असामनता, विधवा, जाति, धर्म, विषमता, भ्रष्टाचार, राजनीति, अपराध।

 

मूल आलेख : कथाकारशांता कुमारसाहित्य को समाज के मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि समाज के सुधार एवं परिष्कार का साधन मानते हैं। इनके उपन्यास किसी रहस्मय लोक में विचरण करते दिखाई नहीं देते, अपितु समाज की असमानताओं उसकी अव्यवस्थाओं से लोहा लेते हुए नजर आते हैं। आज के इस विज्ञान एवं तकनीक के दौर में भी यदि हमारी सामंतवादी मनोवृत्ति  यथावत बनी हुई हो और आज भी हम उन्हीं  सड़ी-गली मान्यताओं से ग्रसित होकर समाज को देखते हैं तोलाजोजैसे उपन्यास की प्रासंगिकता और भी अधिक बढ़ जाती है।लाजोवैधव्य जीवन की त्रासद गाथा को केन्द्रीभूत करके लिखी गई एक ऐसी रचना है जो समाज में स्त्री की यथास्थिति से अवगत करवाती है। लाजो एक पीड़ित, दमित और शोषित विधवा की पुकार है जिसे समाज की खोखली मान्यताओं एवं प्रथाओं पर बलि चढ़ाया जाता  रहा है। लेखक इसकी सच्चाई से अवगत करवाते हुए लिखते हैं- “वह किसी विवाह या शुभ काम में सब जगह शामिल नहीं हो सकती थी। गाँव की रीति-नीति के अनुसार शुभ काम में विधवा का दिखाई देना अपशगुन समझा जाता था।2  प्रगतिशीलता के इस दौर में संवैधानिक दृष्टि से भले ही एक स्त्री को सभी अधिकार दिए गए हों, उसे ऊँचा उठाने के लिए भले ही अनेक कदम उठाए गए  हो, लेकिन वास्तविक धरातल पर यह अधिकार कितने समाज द्वारा व्यवहार में अंगीकृत किए जा रहे हैं, यह देखने और जानने योग्य है। आज भी स्त्री  का तिरस्कार उसका अपमान उसकी प्रताड़ना बदस्तूर जारी है । ना जाने कितनीलाजोआज भी इन भोथरी और कुंद मान्यताओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटा रही है। समाज का यह रूढ़िवादी और तंग नजरिया उसे दुगुनी पीड़ा से गुजरने के लिए आज भी मजबूर करता है। एक और जीवन का अकेलापन उसे खोखला और जर्जर बनाता है, तो वहीं दूसरी और समाज का यह अमानवीयता से भरा रवैया उसे महरूम करता है हर उस चीज से जो स्त्री को स्त्री होने का भान करवाती है। आख़िरकार क्यों छीन ली जाती हैं उसकी सारी खुशियाँ उसके सारे सुकून जिसे अभी तक उसने सही जाना भी नहीं होता है। कथाकार कुछ अनुत्तरित प्रश्न जहन में छोड़ते हुए नजर आते हैं कि जिस समाज की बुनियाद स्त्री और पुरुष दोनों एक साथ रखते हों उसी समाज में दोनों को देखने-परखने और संचालित करने वाली नियमावली कैसे इतनी अलग हो सकती है। जहाँ एक को उपेक्षित जीवन जीने के लिए मजबूर किया जाता है तो दूसरे को इन सब से रियायत दी जाती है।

 

समाज के यह दकियानूसी विचार न केवल स्त्री को समाज से अलग-थलग होने पर मजबूर करते हैं अपितु उसेवेश्यावृत्तिके रास्ते पर भी धकेल देते हैं जो उपन्यास में देखा जा सकता है- “रामू की भाभी विधवा है । कुछ वर्ष वह सत्ती-साध्वी बनी रही, पर अब वह क्या है? उसका घर क्या बना है? सब बुरे लोगों का वह बदनाम अड्डा बन गया है। यह दोष उसका नहीं बल्कि इस समाज का है, जिसने एक नव-युवती को विधवा रहने पर विवश किया।3  हर एक छोटी समस्या दूसरी बड़ी समस्या को जन्म देती है क्योंकि कड़ी के रूप में वह एक दूसरे के साथ जुड़ी हुई होती है । समाज का रूढ़िवादी और दकियानूसी तबका विधवा को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं देता क्योंकि उन्हें यह अपनी रीति-नीति, कुल और धर्म के खिलाफ़ लगता है, जो इस बड़ी समस्या को समर्थन देता है। विधवा स्त्री एक और जहाँ आर्थिक-असुरक्षा की वजह से इस पथ का अनुगमन करती है तो वहीं दूसरी और शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए, जिसका जिम्मेवार समाज का यह जड़ तबका है। जो उसके पाक तन और मन को दुश्चरित्र बनने के लिए मजबूर करता है, क्योंकि मनोविज्ञान भी इस बात को स्वीकृति प्रदान करता है कि मन और तन को स्वस्थ रखने के लिए इसकी आवश्यकताओं का परिपूर्ण होना जरुरी है। 

 

संकीर्ण मानसिकता से ग्रसित तबका न केवल लैंगिक असामनता की स्थिति उत्पन्न करता है अपितु जातिगत भेदभाव को भी तूल देने का कार्य करता है, क्योंकि वह समाज को समग्रता की अपेक्षा बाँट कर देखने का आदि हो जाता है। जिसकी झलक उपन्यास में देखी जा सकती है- “हमारा श्रेष्ठ ब्राम्हण कुल है। हमारा रिश्ता तो साधारण ब्राम्हण परिवार में भी नहीं हो सकता । केवल उच्च कुल के ब्राम्हण से ही हमारा रिश्ता हो सकता है। समानता के इस देश में आज भी जातिगत खाई पाटी नहीं गई है। आज भी समाज एकीकृत होने के लिए कराह रहा है। इस जातिगत प्रथा ने न केवल समाज को कमजोर किया है अपितु समाज को खोखला एवं निष्क्रिय बना दिया है। संकुचित एवं जड़ मानसिकता के चलते जातीयता न केवल  मानवीयता पर हावी होती जा रही है, बल्कि उसको दरकिनार करती हुई भी नजर आती है। लेखक अतीत की इन सड़ी-गली एवं दुर्गन्ध जनित मान्यताओं के केंचुल को हमेशा-हमेशा के लिए उतार देना चाहता है ताकि मनुष्य को उसकी मनुष्यता से जाना जा सके, न कि उसकी जाति से। तथाकथित सभ्यता का आवरण ओढ़े उच्च वर्ग की मानसिकता का केंद्र अभी भी जाति बना हुआ जिसका परिष्कार और परिमार्जन होना अति आवश्यक है।

 

आज के इस भोगवादी समाज कोअपराधऔरभ्रष्टाचारअपने चंगुल में फंसाता चला जा रहा है। अपराध और भ्रष्टाचार के इस मनोविज्ञान को समझने और समझाने के लिए लेखक नेकैदीऔरमन के मीतउपन्यासों की आधारशिला रखी है, ताकि अपराधी की वास्तविक स्थिति से परिचित हो सके। लेखक न केवल अपराधी मन को विश्लेषित करते हैं अपितु अपराध करने के पीछे जो मनोवृत्ति जो प्रवृत्ति छिपी है, उसे भी अनावृत करने की पूरी कोशिश करते हैं। इन उपन्यासों के माध्यम से कथाकार ने जेल जीवन के यथार्थ, कैदियों के प्रति प्रशासन की क्रूरता जेल में व्याप्त भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी, दाम्पत्य जीवन की लड़खड़ाती बुनियाद इन सारे पक्षों को देखने का प्रयास किया है। लेखक पूरे उपन्यास में बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि मानव के भीतरईश्वरऔरराक्षसदोनों प्रवृत्ति विराजमान है। बस आवश्यकता है तो उन्हें जगाने की जिसको जैसी परिस्थितियाँ मिलती जाती हैं, वह उसी के रंग में रंगता जाता है  क्योंकि कोई भी व्यक्ति जन्म से अपराधी नहीं होता। अपराध तो बस परिस्थितियों की उपज होती है। लेखक लिखते हैं- “मूल स्वभाव से कोई भी मनुष्य अपराधी नहीं होता। समाज और उसकी परिस्थितियाँ मनुष्य को अपराध के रास्ते पर धकेलती हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अपराधी जन्म नहीं लेता अपितु अपराधी को बनाया जाता है। कोई भी अपराधी माँ की कोख से बनकर नहीं आता बल्कि परिस्थितियों के कोड़े मार-मार कर उसे मजबूर और उत्तेजित कर दिया जाता है, गलत मार्ग का अनुसरण करने के लिए। जिसके लिए जिम्मेवार सिर्फ वह अकेला नहीं होता अपितु समाज और व्यवस्था सभी होते हैं। ईश्वर का बनाया हुआ व्यक्ति इतना नृशंस और आततायी कैसे हो सकता है? क्या उसके मन में इज्जत और समान भरा जीवन जीने का विचार नहीं आता? अगर आता है और वह उस मार्ग पर चलना चाहता है तो क्या समाज उसे मौका देता है? क्या समाज उसे स्वीकार करता है? या ताने दे देकर उसे जघन्य अपराधी बनने के लिए मजबूर करता है ऐसे कई सवाल लेखक पाठक के मन में  छोड़ जाते हैं।

 

कथाकार इस बात को बड़ी ही गहराई और सूझबूझ से उठाते नजर आते हैं कि जिस प्रकार शरीर की अन्य व्याधियों को ठीक करने के लिए चिकित्सालय की आवश्यकता पड़ती है। ठीक उसी प्रकार मन की इस अपराध जनित व्याधि को ठीक करने के लिए सुधारगृह यानि कारागारों की आवश्यकता पड़ती है, लेकिन क्या सही मायने में उन्हें सुधारने का प्रयास किया जाता है? क्या उनके रोग का उपचार प्रशासन करता है? या उन्हें मजबूर किया जाता है और भी बड़ा अपराधी बनने के लिए लेखक कुछ यूँ  पीड़ा जाहिर करते हैं- “यदि कैदी को भी समाज में आदमी समझा गया होता तो जेलखाने अपराधी पैदा करने वाले कारखाने न बनते, जेल में से चोर बड़े-चोर, ठग बड़े-ठग, हत्यारे बड़े-हत्यारे बनकर न निकलते।6  जेल जिसे सुधारगृह जैसे अलंकरणों से विभूषित किया जाता रहा है । उसकी वास्तविक स्थिति से जब कोई छोटा-मोटा अपराधी रू--रू होता है । तब उसे जेल का समीकरण समझ आता है कि उसको इसलिए जेल में नहीं आना पड़ा है कि उसने किसी अपराध को अंजाम दिया है, अपितु इसलिए जेल आना पड़ा है क्योंकि उसने सावधानी से अपराध नहीं किया है। जेल में प्रशासन का उनके प्रति हिंसात्मक रवैया और कुछ भ्रष्ट अधिकारियों के द्वारा जो उनकी लूट-खसूट और प्रताड़ना की जाती है। वह उन्हें और भी अधिक क्रूर और निर्दय बना देता है। जिसकी वजह से वह अपराध के दलदल में कहीं गहरे धंसते चले जाते हैं।

 

आज के इस अर्थतंत्र में रिश्तों का ताप ठण्डा हो गया है, इसलिए संबंधों को वस्तुओं के तराजू में तोला जाने लगा है। हस्ते-खेलते परिवार अतिशय भौतिकता की वेदी पर बलि चढ़ते जा रहे हैं। कुछ ऐसा ही दृश्यराजीवऔररेखाके दाम्पत्य जीवन में भी देखने को मिलता है । रेखा की बढ़ती हुई आकांक्षाएं एवं भौतिक भूख न केवल दाम्पत्य जीवन को तनावपूर्ण और दुःखदायी बना देती है अपितु पूरे परिवार को बिखेर कर रख देती है। जो परिवार पहले प्यार और अपनेपन की सम्पन्नता से सराबोर होता है, वह अब भौतिक चाह के तले व्यर्थ लगने लगता है।वह अंदर ही अंदर अपने घर को अभाव के एक मनहूस साए तले देखने लगी । उसे अब यह अनुभूति कचोटने लगी की उसका घर हर दृष्टि से अभावों से भरा है। उसके पास आधुनिक जीवन की सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं है। अद्यतन समाज अपनी सफलता एवं संपूर्णता भौतिक वस्तुओं के उपभोग में दृष्टिगोचर करने लगा है यानि वह हर उस चीज का सहवास करना चाहता है, जिससे वह वंचित है। व्यक्ति की यह असीमित एवं नई-नई इच्छाएँ ना केवल व्यक्ति से उसका सुख-चैन छीनती हैं बल्कि उसे गहरे अवसाद एवं हीनता भाव से भर देती हैं, जिसके कारण उसे अपना जीवन व्यर्थ एवं बेबुनियाद लगने लगता है। सब कुछ पा लेने की चाह उसे ऐसेअधूरेपनमें धकेल देती है जो जीवन पर्यन्त उसका पीछा नहीं छोड़ती।

 

कथाकार शांता कुमार न केवल समाज की सामंतवादी मनोवृत्ति का समूल नाश करना चाहते हैं, अपितु राजनैतिक दुश्चरित्रता की सफाई करना भी अपना नैतिक और लेखकीय दायित्व समझते हैं।मृगतृष्णइनकी सामाजिक-राजनीतिक चेतना से सराबोर उपन्यास है। प्रस्तुत उपन्यास का कथानक व्यापक फ़लक लिए है। जिसमें धराशाही होता दाम्पत्य जीवन है, राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं मूल्यहीनता है, प्रशासन तंत्र की विकृति, क्रूरता एवं अमानवीयता है, प्रभुत्व संपन्न लोगों की षड्यंत्रकारी  नीतियाँ है इसके अलावा सामाजिक जीवन की विसंगतियों और जटिलताओं का यथार्थ चित्रण उपन्यास में देखा जा सकता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ वर्षों बाद सत्ता पर काबिज होने के लिए राजनैतिक चरित्रों में जो ढोंग, धूर्तता और मूल्यहीनता आई उसने समूचे समाज की जड़ों को हिला कर रख दिया। अब देश और समाज के लिए राजनेता नहीं बल्कि कुर्सी के लिए राजनेता हो गए हैं। राजनीति की इस मूल्यहीनता को देखते और अनुभव करते हुए कथाकार लिखते हैं- “सत्ता और कुर्सी की दौड़ इतनी तीव्र हो गई है कि नैतिक मूल्यों की मर्यादाएँ चकनाचूर होकर मिट्टी में मिल रही हैं। आजादी से पहले हमारी मंजिल देश था। हम देश के लिए काम करते थे। आज ऐसा लग रहा है कि हमारी मंजिल देश नहीं, सत्ता और कुर्सी बन गई है। लेखक यह इंगित करते हैं कि भारतीय राजनीति ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठता, नैतिकता और दायित्व-बोध से कोसों दूर आ गई है। अब राजनेतायेन-केन-प्रकारेणसत्ता का भोग करना चाहते हैं, अब जनता उनके लिए साध्य नहीं अपितु भौतिक लिप्सा और निजी स्वार्थ की पूर्ति करने के लिए साधन बन गई है। नैतिक पतन का आधिक्य इस स्तर तक हो गया है कि राजनेताओं के लिए जनता और पार्टी महत्वपूर्ण नहीं है, आवश्यक है तो बसपदजिसको प्राप्त करने के लिए वह इतने रंग बदलते हैं किगिरगिटको भी पीछे छोड़ दे। सत्तारूढ़ पार्टी बनने और बड़ा पद हासिल करने के लिए विधायकों की किस कदर खरीद-फरोक्त की जाती है, इसका एक नमूना लेखक दिखाते हैं-“ फर्क सिर्फ इतना है कि किसी का मूल्य कम है, किसी का अधिक। पर मूल्य लगभग सबका है।  आज के इस बिकाऊ परिवेश में सब कुछ ख़रीदा जा सकता है, बस कीमत सही होनी चाहिए। राजनीति इस कदर भ्रष्ट और भ्रमित हो गई है कि आत्मगौरव और आत्मसमान जैसी कोई परिभाषा इनके चरित्र में दिखाई नहीं पड़ती। राजनेताओं के आदर्श इतने बिकाऊ हो गए हैं कि उन्होंनेगणिकाओंको भी पीछे छोड़ दिया है। इन सारे महत्वपूर्ण बिंदुओं को लेखक अपने लेखन के माध्यम से उजागर करते हैं।      

 

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कथाकार शांताकुमार के व्यक्तितव में लेखक और राजनेता का अद्भुत संगम है। राजनीति में रहकर वहअन्तोदयऔरपानी वाले मुख्यमंत्रीके रूप में जनता के दिलों में राज करते हैं और अपने राजनैतिक कर्तव्य का निर्वहन करते हैं। वहीं लेखक जीवन में अपनी लेखनी के माध्यम से सामाजिक विषमताओं, असंगतियों और विकृतियों का पर्दाफाश करते हुए, समाज के दकियानूसी और रूढ़िगत विचारों के साथ-साथ हाशिये जनित वर्गों की पीड़ा उनकी अभावग्रस्तता और असमानता को दूर करने की भी गुहार लगाते हैं। कथाकार शांता कुमार कर्तव्यनिष्ठता के ऐसे अभिनेता रहे हैं जिन्होंने बखूबी अपने अभिनय की भूमिका को निभाया है भले ही वह भूमिका एक लेखक की हो या एक राजनेता की ।

 

सन्दर्भ :

  1. दुबे, श्यामाचरण.(2014) परम्परा इतिहास-और संस्कृति. पृ.सं.155 
  2. कुमार, शांता. (2019) लाजो. हिन्दी पॉकेट बुक्स. पृ. सं.34
  3. वही पृ. सं.36
  4. वही पृ. सं 136
  5. कुमार, शांता. (2020) कैदी. सुहानी बुक्स. पृ. सं. 48
  6. वही पृ. सं. 93
  7. वही पृ. सं.17
  8. कुमार, शांता. (2020) मृगतृष्णा. अमरसत्य प्रकाशन. पृ. सं.155
  9. वही पृ. सं. 146
  10. कौशिक, हेमराज. (2016) साहित्यसेवी राजनेता शान्ता कुमार. अमरसत्य प्रकाशन  

 

धर्म चन्द
शोधार्थी(हिन्दी), हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय
ajaykumarcuhpmahindi@gmail.com, 8219216683

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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