आलेख : प्रतिबंधित हिंदी नाटकों की अंतर्वस्तु / डॉ. भावना

 प्रतिबंधित हिंदी नाटकों की अंतर्वस्तु
 - डॉ. भावना

भारत में नाटकों की परम्परा प्राचीन काल से रही है। भरतमुनि का नाट्यशास्त्र इसका प्रमाण है। भरतमुनि ने नाटक की मूल प्रेरणा लोकजीवन, लोकमानस और लोकप्रवृत्ति को माना और नाट्यशास्त्र में नाटक को ‘पंचमवेद’ की संज्ञा दी। हिन्दी साहित्य के आधुनिककाल की शुरुआत अर्थात उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध का साहित्य भी नाट्य साहित्य से ही आरंभ होता है। हिंदी भाषा, हिंदी गद्य, सांस्कृतिक जागरण, सामाजिक उत्थान, ब्रिटिश दासता से मुक्ति, राष्ट्रीयता और आधुनिकता के प्रश्नों से गहरे जुड़ता हुआ नाटक साहित्य की केंद्रीय विधा बना। हिंदी में नाटक के कई रूप विकसित हुए। नाटक कला की दृष्टि से गीतिनाट्य, एकांकी, रेडियो नाटक आदि। समय-समय पर राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक तथा घटना प्रधान ऐतिहासिक नाटक लिखे और खेले जाते रहें परन्तु जिस किसी ने यथास्थिति को तोड़ने की कोशिश की, उसे पीछे धकेल दिया गया या उसके नाम को ही इतिहास से वंचित कर दिया गया। इसका प्रमाण वे प्रतिबंधित रचनाएं हैं, जिन्होंने यथार्थ से परिचय कराने का प्रयास किया। क्या कारण था कि अधिकांश लेखक नाट्यलेखन की ओर प्रवृत्त हुए। चूंकि नाट्यकला जीवन के अधिक निकट है। नाटक एक ऐसी कला है जिसमें सभी की रूचि संभव है। इसलिए नाटक को सामाजिक और लोकतांत्रिक कला भी कहा जाता है। नाटक में सब कुछ प्रत्यक्ष होने के कारण बोधगम्यता अधिक होती है। नाट्यकला का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि उसके द्वारा किसी भी देश की सभ्यता, संस्कृति, आदर्श मान्यताओं तथा सम्पूर्ण सांस्कृतिक परम्परा को प्रस्तुत किया जा सकता है। इतिहास के अलग-अलग चित्र साहित्य, राजनीति, मनोविज्ञान, नीति आदि प्रत्यक्ष रूप से जनता के सामने प्रस्तुत किये जा सकते हैं। भारतेंदु, प्रसाद, हरिकृष्ण प्रेमी आदि रचनाकार नाटक की इस शक्ति से भली भांति परिचित थे। प्रेमचंद ने भी नाटक की इस क्रांतिकारी भूमिका को पहचानते हुए ‘कर्बला’ जैसे राजनीतिक नाटक की रचना की। 

दृश्य–श्रव्य होने के कारण नाटक में अपार शक्ति का समावेश हो जाता है। इस शक्ति का प्रयोग ब्रिटिश शासन काल में ऐसे अनेक नाटककारों ने किया, जो जन-जन तक राष्ट्रीय भावना का सन्देश पहुँचाना चाहते थे। किसी देश की जनता और उसके चरित्र की विशेषताओं से साहित्य का क्या सम्बन्ध है? इस पर प्रेमचंद कहते हैं “विश्व की आत्मा के अंतर्गत भी राष्ट्रीय या देश की आत्मा होती है इसी आत्मा की प्रतिध्वनि है साहित्य।” यह प्रश्न उद्वेलित करता है कि राजनीतिक चेतना क्यों बार बार प्रतिबंधित हुई? इसका कारण स्पष्ट था, अंग्रेजी राज हमेशा से ऐसे साहित्य के खिलाफ़ रहा जिसका संबंध राजनीति से हो। साहित्य लेखन से अंग्रेजी सरकार को परहेज नहीं था। उनके लिए जनता का जागरूक होना घातक था। ब्रिटिश सरकार कभी नहीं चाहती थी कि आम जनता देश की राजनीतिक पृष्ठभूमि से परिचित हो। सत्ता की हर उस गतिविधि पर नजर रखना, जो देश के हित और अहित का कारण बनती है, साहित्य की यही राजनीतिक चेतना अंग्रेजों के लिए घातक थी। निश्चित रूप से प्रतिबंधित रचनाओं में इसी उथल-पुथल का स्वर व्यंजित हुआ था जिससे ब्रिटिश सरकार भयभीत थी। प्रेमचंद ने अपने भाषण में साहित्यिक मानदंड बदलने की मांग की। साहित्यकार से मैदान में आकर समाज का नेतृत्व करने के लिए कहा, उन्होंने नए साहित्य के लिए मांग की; कि जिसमें “उच्च चिंतन हो ,स्वाधीनता का भाव हो ,सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो ,जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो ,जो हममे गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं; क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।” जिन नाटकों पर प्रतिबन्ध लगा, उनका विचार प्रछन्न नहीं प्रत्यक्ष है। सत्येन्द्र कुमार तनेजा ने ‘सितम की इन्तिहा क्या है’ पुस्तक में जिन सात प्रतिबंधित नाटकों की चर्चा की है, उन नाटकों में इसी प्रत्यक्ष भाव से यथास्थिति के चित्र वर्णित हैं।  लक्ष्मण सिंह द्वारा रचित ‘कुली प्रथा’ का लेखन 1913 में और प्रकाशन 1916 में हुआ। प्रारम्भ में यह नाटक धारावाहिक रूप में ‘प्रताप’ में छपता रहा। इसे पुस्तकाकार स्वरूप मिला 1917 में। तभी इस नाट्य कृति पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। ‘कुली प्रथा’ नाटक में दास्य वृक्ष के सवाल पर विचार करते हुए लक्ष्मण सिंह ने राष्ट्रीय फलक को आधार बनाया है कि किस प्रकार सीधे-साधे लोगों को बहकाकर बंधुआ मजदूरी और गुलाम व्यापार के लिए फ़िजी ले जाया जाता था। फ़िजी में निरंकुशता का उन्माद छाया हुआ था। ‘कुली प्रथा’ नाटक अपने युग की इसी त्रासदी का दस्तावेज़ है। यह नाटक जिस समय लिखा गया था उस समय एक ओर देश में स्वाधीनता आंदोलन की लहर उमड़ रही थी, वहीं दूसरी ओर फ़िजी, त्रिनिदाद आदि उपनिवेशों में गुलामों के खरीद की खबरें  सुर्खियों में थी। अखबारों ने भी इस ज्वलंत प्रश्न को प्रमुखता से उठाया। देशवासियों की ऐसी अमानुषिक दुर्गति और नए प्रकार की गुलामी की दर्द भरी बातें खुलने लगी थी। देशाभिमान जाग उठा था और चारों ओर विरोध की अग्नि धधकने लगी थी। स्वाधीनता के लिए संघर्षरत अग्रणियों के सामने भी यह समस्या एक राष्ट्रीय चुनौती बनकर आई। पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ कहानी का केंद्र बिन्दु भी कहीं न कहीं गुलामों की त्रासद दशा से जुड़ा हुआ है। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि यदि यह एक प्रेम कहानी है तो घटनाक्रम में युद्ध के इतने ज्यादा प्रसंग क्यों हैं? इस कहानी का कथानक जहां एक ओर अमृतसर की गलियों के बीच दो बालक बालिकाओं के सहज प्रेम को प्रकट करता है वहीं फ़्रांस और बेल्जियम की युद्ध भूमि के दृश्यों को भी हमारे सामने रखता है। इस युद्ध मे भारतीय सिपाही विदेशी सत्ता के तहत लड़ रहे थे। अंग्रेजी हुकूमत यह मानती थी कि उसके उपनिवेशों के गुलामों को उसकी खातिर लड़ना चाहिए। इसी प्रकार दिल्ली में बनी इमारत ‘इंडिया गेट’ भी प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजी साम्राज्य की रक्षा के लिए मरने वाले सिपाहियों का स्मारक है। इंडिया गेट पर शिलांकित नाम इस बात का साक्ष्य हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं कि अंग्रेजों की रक्षा के लिए न जाने कितने लहना सिंह शहीद हो गए। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारतीयों में जबर्दस्त मोहभंग हुआ क्योंकि अंग्रेजों की सहायता के बदले उन्हें सिर्फ बर्बरता, जुल्म और दमन का ही सामना करना पड़ा । हिंदुस्तान की जनता अब आजादी के लिए बेचैन थी। यह  सब कड़ियाँ उसी गुलाम व्यापार की ओर इशारा करती हैं जिसे ‘कुली प्रथा’ नाटक में दिखाया गया है। 

कुली प्रथा प्रसंग इतना मर्मभेदी था कि  जिसने अंग्रेजों के कुकृत्यों को तो सामने रखा ही, साथ ही एक ऐसी कारुणिक स्थिति को भी जन्म दिया, जिसने भारतीयों में आजादी की ललक पैदा कर दी। यही ललक अंग्रेजी सरकार के लिए चिंता का विषय थी। लेकिन साहित्य के इतिहास में नाट्य विधा को हाशिए के रूप में ही स्वीकार किया जाता रहा है। “भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने हिन्दी नाटक की जो नींव डाली, उसका स्वरूप निर्माण किया, उसे एक निश्चित रूप प्रदान किया, उनके समकालीन नाटककारों ने नए मार्ग को  प्रशस्त किया, सहयोग भावना से हिन्दी नाटक को परिपक्व स्वरूप देना चाहा किन्तु उसे वे पूर्ण विकास तक पहुंचाने में असमर्थ रहे ।”  दरअसल जब्तशुदा नाटकों पर विचार न होने के कारण इतिहास में यह मान लिया गया है कि यह परंपरा निरंतर क्षीण होती गयी। 

प्रतिबंधित नाटकों की अंतर्वस्तु जनसाधारण की पीड़ा को अभिव्यक्त करती है। ‘किशनचंद ज़ेबा’ द्वारा रचित ‘ज़ख्मी पंजाब’ अपने युग के राजनैतिक आंदोलनों की नाट्य स्थितियों के ताने-बाने में गूंथा गया है। मानवीय संवेदना से शून्य ब्रिटिश शासन प्रणाली बेरहम और ज़ालिम हो चुकी थी। इन जघन्य घटनाओं के कारण अपमानित महसूस कर रही पंजाब की अवाम में और सारे देश के वातावरण में प्रतिकार की उत्तेजना व्याप्त थी।

 “संतरी ही चोर हो, तो कौन रखवाली करे।
चमन का क्या हाल जब,माली ही पामाली करे।” 
‘जख्मी पंजाब’ नाटक में नाटककार ने जलियांवाला बाग़ हत्याकांड के भयावह परिदृश्य को प्रस्तुत किया है। इसी तड़प का नतीजा था कि 1922 में यह नाटक जब्त कर लिया गया। नाटककार अपनी अंतर्ज्वाला को प्रकट करते समय निर्भ्रान्त रहते हैं। नाटक में गांधी, असहयोग आन्दोलन, आत्मिक शक्ति एवं स्वराज की निर्णायक भूमिका है। ज़ेबा ने जलियांवाला बाग हत्या-काण्ड को एक नया मोड़ देते हुए यह दावा किया कि इसके आघात से हम गुलामी की गफलत से उठें और संभलें। एक तरह से ज़ेबा ने समाज के व्यापक फलक और उसके वैविध्य को समेटना चाहा है। 

“अगर गोली न चलती, खून के नाले गर न बहते,
न जाने कब तलक हम, ख़्वाब गफ़लत में पड़े रहते।”

    जलियाँवाला बाग़ का दहशतनामा नज़ारा इस नाटक में प्रस्तुत किया गया है। जिसके अंतर्गत एक तरफ जनरल डायर और ओडवायर के अमानुषिक व्यवहार को प्रदर्शित किया गया है, वहीं दूसरी ओर भारत की आज़ादी के लिए जान कुर्बान करने वाली जनता के बलिदान की मार्मिक झांकियां हैं। ‘ज़ख्मी पंजाब’ नाटक में गाँधी और उनके सिद्धांतों को नई पहचान के साथ प्रस्तुत किया गया है। साम्राज्यवादी ताक़तें इन क्रांतिकारियों से जितना भय खाती थीं उतना ही क्रांतिकारी साहित्य से भी। भारतीय साहित्य को बदलने का जज्बा इन रचनाओं में था। 

नाटक की सबसे बड़ी विशेषता होती है कि वह किस प्रकार दर्शकों के मन में अनुभूतियों को जगा सकता है। चूंकि नाटक जब मंचित होता है तो उसे दर्शकों का एक समूह देखता है। दर्शकों की प्रतिक्रिया व्यक्तिगत न होकर सामूहिक रूप से होती है। प्रतिबंधित नाटक सामूहिक प्रभाव को व्यक्त करने में सक्षम है। देवदत्त पाठक द्वारा रचित ‘शासन की पोल’ जिसका रचनाकाल 1922 ईस्वी है। यह रचना असहयोग आन्दोलन से अनुप्राणित है। यह पहला देशव्यापी आन्दोलन था जिसने जनमानस में गुलामी के दर्द का अहसास पैदा किया। इस नाट्यलेख की अंतर्वस्तु का सीधा संबंध असहयोग आन्दोलन और उससे जुड़ी घटनाओं से है। स्वयं लेखक ने यह देखा और पाया कि आम आदमी पर गाँधी का इतना जादुई असर पड़ा कि अपार भीड़ जेल जाने के लिए तैयार हो गयी। सम्भवतः इसलिए यह नाटक उन महात्माओं को समर्पित है जो देश के दु:ख में अपना दु:ख और देश के सुख में अपना सुख मानते हैं और उसको आज़ाद करने के लिए वर्तमान शासन प्रणाली की जड़ को तन, मन, और धन से काटने के लिए कटिबद्ध हैं। ‘शासन की पोल’ आख्यानपरक लघु नाटक है जिसमें लेखक ने सहयोग और असहयोग दोनों वस्तुस्थितियों का विश्लेषण किया है। ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग और असहयोग की भावना को लेखक ने दो भाइयों की मनःस्थिति और विचारशीलता के माध्यम से नाटक में वर्णित किया है। देश में व्यापक स्तर पर होने वाला यह पहला आंदोलन था जिसमें पूरे देश ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। इस आंदोलन को आधार बनाकर देवदत्त पाठक ने सर्वप्रथम ब्रिटिश शासन के अन्यायपूर्ण चेहरे को बेनकाब किया और साथ ही उस एक चिंगारी के महत्व को भी प्रदर्शित किया है, जो सम्पूर्ण देश में मुक्ति संग्राम का भाव जगाने में सक्षम है। नाटक की रचना मुख्य रूप से देश और युगविशेष की जनता के लिए की जाती है। इस नाटक में एक ओर देशवासियों को जाग्रत करने का प्रयास किया गया है वहीं दूसरी ओर शासन को हिराकत के भाव से देखकर उसे ललकारा भी गया है। सम्पूर्ण नाटक में विभिन्न स्वरों के माध्यम से साम्राज्यवादी शासन से मुक्ति की चेतना को ही प्रबल रखा गया है। 

ब्रिटिश सरकार के लिए यह बेहद संकट का समय था, क्योंकि वह आंदोलनकारियों को तो कुचल रही थी लेकिन क्रांतिकारी रचनाओं को पढ़कर फिर खिलाफत के स्वर खड़े हो जाते थे। सरकार ने भरपूर कोशिश की, कि जनता तक ये रचनाएँ न पहुंचे। पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ द्वारा रचित ‘लाल क्रांति के पंजे में’ एक ऐसी ही लघु नाट्यकृति है जिसका आधार 1917 की रुसी क्रांति है। यह एक ऐसी युगांतकारी घटना थी, जिसने इतिहास की गति को बदल दिया। इस क्रांति ने इतिहास में प्रचलित इस विश्वास को ध्वस्त किया कि साम्राज्यावादी सत्ता अपराजेय है और पूंजीवाद का कोई विकल्प नहीं। आठ दृश्यों में सुबद्ध ‘लाल क्रांति के पंजे में’ की अंतर्वस्तु का फलक और चरित्रांकन का स्वरुप एक सम्पूर्ण नाटक का अनुभव कराता है। रूस की जनक्रांति, बोल्शेविकों की विजय, ज़ार निकोलस की हत्या तथा सम्राट एवं साम्राज्यवाद का विनाश और उसी के आश्रय में फल-फूल रहे पूंजीवाद की समाप्ति आदि बड़े-बड़े सवालों का निदान इस नाटक में किया गया है। उग्र द्वारा इस नाट्यकृति की रचना करने का सबसे बड़ा कारण था कि भारत देश में भी साम्राज्यवादी वृत्ति और पूंजीवादी शक्तियों के गठबंधन से ही ब्रिटिश सत्ता का निरंकुश शासन चल रहा था। 1917 की क्रान्ति में बोल्शेविक आदर्शों की अभूतपूर्व सफलता ने हिंदी प्रदेश के समाचार जगत को भी आंदोलित कर दिया था। उग्र पहले ऐसे रचनाकार थे, जिन्होंने 1917 की क्रांति पर लघु नाटक लिखने का साहस दिखाया। बोल्शेविकों का मकसद वंचितों के लिए एक ऐसे राज्य का गठन करना था, जिसे जनमत प्राप्त होगा और जिसका नेतृत्वकर्ता होगा जननेता लेनिन। इसी प्रवाह में उग्र अपने पराधीन देशवासियों को यह नसीहत देते हैं कि “पूंजीपतियों, सत्ताधारियों के संहार से बढ़कर कोई दूसरा पुण्य नहीं है।” उग्र के इसी साहसी कार्य के कारण उनकी रचना जब्त कर ली गई। 

1920-1925 की समयावधि में हिंदी नाट्य-साहित्य की वस्तुस्थिति को सामने रखकर यदि इन नाटकों  का मूल्यांकन किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि नाटक का कथ्य एक ओर गंभीर तत्वों को समेटे हुए है, दूसरी ओर कृति में जनप्रिय भावनाओं को उद्वेलित करने की यथेष्ट क्षमता भी निहित है। उग्र ने बहुआयामी विषय को उठाया, और कुशलता के साथ शिल्पबद्ध किया। नाटक का संघर्ष इसे विविध आयाम प्रदान करता है। अंतर्विरोधों में जी रहे ज़ार का चरित्र सजीव होकर कृति को एक सशक्त त्रासदी का रूप देता है। जबकि यह एक सुखांत रचना है। इस प्रकार उग्र ने इस क्रांति में ज़ार को अपनी व्यथा-कथा प्रकट करने के यथेष्ठ अवसर दिए। एक सुपरिचित क्रूर शासक के मानवीय पक्ष को पूरी तरह से उग्र ने नाटक में उभारा है। ज़ार की मृत्यु एक विचार की मृत्यु है और बोल्शेविक क्रांति एक वैचारिक सफलता का प्रतीक है। इस प्रकार इस नाटक का प्रयोजन बोल्शेविक क्रांति की अभूतपूर्व विजय को दिखाकर अपने देशवासियों को मुक्ति संग्राम के लिए आश्वस्त करना है। रूसी क्रांति से प्रभावित होकर आक्रोशपूर्ण शैली में लिखा यह नाटक ब्रिटिश सरकार को नागवार गुजरा और उग्र के इस नाटक को जब्त कर लिया गया।

प्रतिबंधित नाटकों की अंतर्वस्तु यथार्थवादी है। इसी के अनुरूप नाट्यस्थितियों का संयोजन भी यथार्थपूर्ण है। गोबिन्द राम ‘सेठी’ द्वारा लिखित ‘बरबादिए हिन्द’ जिसका प्रकाशन 1929 में हुआ। लेखक ने प्रतिबद्ध भाव से इतिहास की खोज इस सच को जानने के लिए की है कि हम ‘बर्बाद’ क्यों हुए, हमारा ‘सर्वनाश’ क्यों हुआ, हम ‘गुलाम’ कैसे बने? इसके लिए 1929 के आसपास की परिस्थितियों को और मुक्ति संग्राम में चले विविध आंदोलनों को एक पुष्ट आधार बनाया गया। लेखक ने इतिहास और नाटक के आपसी संबंध को एक नई दिशा देने का प्रयत्न किया है। पूरे नाटक मे हिंदुस्तानियों और अंग्रेजों के बीच चले स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास है। नाटक में पराधीनता से मुक्ति की तीव्र छटपटाहट प्रकट हुई है। जिसका मूल प्रश्न अंग्रेजी साम्राज्य द्वारा भारत का सर्वनाश अर्थात् पराधीनता है। लेखक ने उन ऐतिहासिक परिस्थितियों को आधार बनाया है जिसका सीधा प्रभाव स्वाधीनता आंदोलन पर पड़ा। ‘बरबादिए हिन्द’ में तीन ऐतिहासिक प्रसंगों को चुना गया है, जो इतिहास के निर्णायात्मक मोड़ पर हुए और जिन्होंने भारत की दिशा बदल दी। शाहजहां द्वारा अंग्रेजों को व्यापार के लिए आमंत्रित करना, प्लासी का युद्ध, तथा 1857 की जनक्रांति। जिस समय इस नाटक की रचना हुयी, वह देश में राजनीतिक उथल-पुथल का समय था। लेखक ने इतिहास में हुई राजनीतिक भूलों को शब्दबद्ध करने के साथ-साथ राजनीतिक आकांक्षाओं से उत्पन्न होती क्रांतिकारी देशप्रेम की भावना को भी अभिव्यक्त किया। सामान्यतः इस नाटक में नाटककार ने इतिहास और नाटक को एक साथ रखकर नया मोड़ देने का प्रयास किया है। ऐतिहासिक घटनाओं को आधार बनाकर यथास्थिति को व्यंजित करने की एक परंपरा हिन्दी साहित्य में दिखाई देती है। जयशंकर प्रसाद भी इसी परंपरा से जुड़े रचनाकार थे। प्रसाद ने अपने नाटकों में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को आधार बनाकर एक ओर जहां भारत देश की गौरवगाथा को प्रस्तुत किया है, वहीं दूसरी ओर भारत की जर्जर होती मान्यताओं को भी अभिव्यक्त किया है। 

ऐतिहासिक नाटककार का उद्देश्य केवल विगत घटनाओं को दिखाना नहीं होता, अपितु उस परिप्रेक्ष्य में अपने समकालीन जीवन को उपस्थित करना होता है। हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि  “ऐतिहासिक नाटक पीछे लौटने की सलाह लेकर नहीं आए, आगे बढ़ने की प्रेरणा लेकर आए थे।” इसलिए साहित्य में ऐसी किसी भी घटना को वर्णित करने पर अंग्रेजी सरकार ने कड़ा रुख अपनाया ताकि आम जनता इससे प्रेरित होकर अपने अधिकारों के लिए जागरूक न हो सके। ‘रक्तध्वज’ अज्ञात नाटककार की एकमात्र ऐसी अधूरी नाट्यकृति है, जिसमें राष्ट्रीय मुक्ति के लिए विरोध नहीं, सीधे मुक्ति का आह्वान है। नाटक में लेखक ने अपने युग के ज्वलंत प्रश्नों और उनसे उभरी स्थितियों को उठाया है। इसकी अंतर्वस्तु समकालीन यथार्थ से जुड़ी हुई है। आज़ाद और भगतसिंह की अंतर्ज्वाला को बुलंद करते हुए एक गीत में राजद्रोह के स्वर सुने जा सकते हैं-

 “उबल रहा है खून आज माँ। रण में मुझे उतरने दे ।
 क्रुध्द केसरी सा दहाड़ कर निर्भय अरि से लड़ने दे।”

यह नाटक भगतसिंह को समर्पित है। नाटक के शीर्षक से ही नाटककार का मन्तव्य स्पष्ट हो जाता है। ‘रक्तध्वज’ शीर्षक देकर नाटककार ने सीधे क्रांति की ओर इशारा किया है, चूंकि लाल रंग क्रांति का प्रतीक है। नाटक के पहले भाग में भूख की विकराल समस्या को दिखाते हुए लेखक ने ऐसे कारुणिक चित्र खींचे हैं जो अत्यंत ही मर्मभेदी हैं। भूख एक ऐसी समस्या है जो व्यक्ति को अंदर से कमजोर कर देती है क्योंकि ऐसी स्थिति में व्यक्ति स्वयं को असहाय समझने लगता है। नाटक में लेखक ने भूखे बालकों की दारुण दशा दिखाकर किसानों की दयनीय स्थिति का वर्णन किया है। 1920-22 का किसान आंदोलन किस तरह सामंतवाद का शिकार होकर निरंतर शोषित हो रहा था इसका भी चित्रण लेखक ने बड़ी ही नाटकीयता के साथ किया है। दूसरी ओर युवा मंडलियों द्वारा भारत की दयनीय स्थिति से साक्षात्कार भी कराया गया है। नाटक में युवा मंडली के बीच हो रही बहस का चित्र नाटककार ने खींचा है जो क्रांति करने के लिए सदा तत्पर रहना चाहता है। यही कारण है कि लेखक ने मुख पृष्ठ पर भगतसिंह के चित्र को अंकित किया है, जो युवाओं मे क्रांति की चेतना के प्रतीक हैं। यह नाटक भले ही अधूरा है लेकिन ज्वलंत प्रश्नों की जो कड़ी इस नाटक में प्रदर्शित की गयी है वह नाटक को पूर्णता प्रदान करती है। 

प्रतिबंधित हिंदी नाटक रंगदृष्टि और नाट्यपरम्पराओं से कटे हुए नहीं हैं। इन नाटकों के संवाद नाट्य स्थिति के अनुरूप कार्य व्यापार को गति एवं दिशा देते हैं। ये नाटककार भारतेन्दु और प्रसाद के समकालीन थे। जिस राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि को आधार बनाकर भारतेन्दु आदि ने नाट्य लेखन किया उससे भी सटीक अभिव्यक्ति हमें इन जब्तशुदा नाटकों में दिखाई देती है। ऐसा नहीं था कि इन जब्तशुदा नाटकों पर पारसी रंगमंच या समकालीन नाटककारों का प्रभाव नहीं था, बल्कि एक जब्तशुदा नाटक ‘बर्बादिए हिन्द’ पारसी शैली में लिखित नाट्यकृति है, जिसका कथानक बेजोड़ है। पारसी रंगमंच की सबसे बड़ी विशेषता है-संवाद योजना। वास्तव में नाटक के सभी रूप यहाँ मिलते हैं। समकालीन नाटकों की तुलना यदि जब्तशुदा नाटकों से की जाए, तो यह बात साफ़ हो जाती है, कि सभी नाट्यकृतियों का एक ही उद्देश्य था, स्वाधीनता आंदोलन के दौरान क्रांति की ज्वाला को प्रखर करना।  ‘लवणलीला’ बुध्दिनाथ झा ‘कैरव’ द्वारा 1931 में रचित नाटक एक ऐसे ही ज्वलंत प्रश्न को हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। जिसमें साम्राज्यवादी क्रूरता की पराकाष्ठा को दिखाया गया है। नमक बनाना व्यक्ति का मूल अधिकार है और इस लक्ष्य प्राप्ति के लिए ही नमक सत्याग्रह किया गया। लेखक ने आंदोलन से जुड़ी घटनाओं को दृश्यानुरूप एक क्रमिक श्रृंखला में प्रस्तुत किया है। आंतरिक स्फूर्ति और उल्लास से भरे क्रांतिकारियों का यह सत्याग्रह है। सत्याग्रही तैयार नमक को बेचते हैं- गांधी नमक, राष्ट्रीय नमक, गुलामी हजम करने का नमक, देश को आज़ाद करने वाला नमक आदि। नाटक में लेखक ने नमक सत्याग्रह का आश्रय लिया है। लेखक का प्रयोजन जनता के बीच राजनीतिक जागृति और आज़ादी की ललक को अलग-अलग तरीके से रेखांकित करना रहा है। सम्पूर्ण नाटक में सत्याग्रहियों और पुलिस के बीच चली टकराहट का वर्णन है। नाटकीय व्यापार में वैविध्य और ताजगी लाने के लिए गीतों का सहारा भी लिया गया है। सभी गीतों के स्वर अलग-अलग हैं। गीतों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि गांधीवादी कवच की ओट में ये गीत क्रांतिमूलक मुखर भावों से सत्याग्रहियों में एक नई उमंग का संचार करते हैं। इस नाटक के आधार पर कहा जा सकता है कि यह वह दौर था जब देश आजादी के लिए हुंकार भर रहा था। प्रत्येक के दिल में ब्रिटिश सरकार के लिए अलग तरह की कसक थी, जो कभी भी बड़े आंदोलन का रूप ले सकती थी। नमक सत्याग्रह इसी कसक का परिणाम था। नाटक के लेखक स्वयं इस आंदोलन में सम्मिलित थे, इसलिए ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों को उन्होने बहुत करीब से देखा था।  इस नाटक की सबसे बड़ी विशेषता है, कि लेखक ने स्त्रियों की भूमिका को भली- भांति व्यंजित किया है, इस आंदोलन को नाटक का विषय बनाकर लेखक ने हर उस अनछुए पहलू को व्यक्त करने का प्रयास किया है जो देशवासियों में आत्मसम्मान का भाव जगा सके, तथा सामूहिक शक्ति को पहचानकर जीवन में कुछ करने की उमंग पैदा करे।

इस प्रकार प्रतिबंधित नाटक क्रांति का वह दस्तावेज़ हैं, जिसने ब्रिटिश सरकार को हिलाकर रख दिया। जनता को जागरूक करने और गुलामी से मुक्ति पाने की छटपटाहट इन जब्तशुदा नाटकों में दिखाई देती है। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की दशा और दिशा को बदलने का साहस इन रचनाओं में किया गया है। अंग्रेजों के लिए साहित्य की इस शक्ति को पूरी तरह से रोक पाना आसान नहीं था। क्योंकि एक व्यक्ति को समाप्त करना जितना आसान है उतना ही मुश्किल है उसके विचारों को समाप्त करना। नाटक एक सामाजिक क्रियाशील कला है जो सीधे दर्शक से जुड़ती है। उपन्यास, कविता की तुलना में नाटक की भाषा भिन्न होती है। मंच द्वारा नाटक में प्रयुक्त संवादों को दर्शक तक संप्रेषित करना होता है। जब्तशुदा नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता है सामान्य बोलचाल की भाषा। इन लेखकों का आंतरिक ज्वार इतना प्रबल था, कि ऐसे विपरीत समय में भी इनकी लेखनी की कोई सीमा नहीं रहीं। यही कारण है कि पूरे प्रतिबंधित साहित्य में लेखन केंद्र में रहा, लेखक नहीं।

संदर्भ :
  1. सत्येंद्र कुमार तनेजा, सितम की इंतिहा क्या है?, नई दिल्ली : राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, 2010.
  2.  डॉ. रामविलास शर्मा, प्रेमचंद और उनका युग, नई दिल्ली : राजकमल, 1993.
  3. गिरीश रस्तोगी, हिन्दी नाटक सिद्धान्त और विवेचन, कानपुर : ग्रंथम प्रकाशन, 2010.
  4. डॉ. मैनेजर पाण्डेय, लोकगीतों और गीतों में 1857, नई दिल्ली : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ,भारत, 2015. 
  5. नेमिचन्द्र जैन, आधुनिक हिन्दी नाटक और रंगमंच, नई दिल्ली : दि मैकमिलन कंपनी ऑफ इंडिया लिमिटेड, 1978.
  6. रामस्वरुप चतुर्वेदी, हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, इलाहाबाद : लोकभारती, 2010.
  7. भारत यायावर, द्विवेदी रचनावली-14
  8. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, इलाहाबाद : लोकभारती, 2012. 
  9. डॉ. सीताराम झा ‘श्याक’, हिन्दी नाटक समाजशास्त्रीय अध्ययन, बिहार : हिंदी ग्रंथ अकादमी, 1908.

 डॉ. भावना
 हैदराबाद विश्वविद्यालय
Bhawnakaushik9911@gmail.com


  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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