आलेख : भारतीय इतिहास और प्रतिबंधित हिंदी साहित्य में दलित चेतना / डॉ. मधुलिका बेन पटेल

भारतीय इतिहास और प्रतिबंधित हिंदी साहित्य में दलित चेतना
-  डॉ. मधुलिका बेन पटेल

भारतीय इतिहास में ब्रिटिश युग का एक लम्बा दौर रहा है. इसी के साथ ही यह वह समय है जब ‘प्रजा’ धीरे-धीरे ‘जन’ में बदल रही थी. यह समय जन आकांक्षाओं को आन्दोलन में बदलने का भी समय है. इसके बारे में जितनी जानकारी इतिहास की  पुस्तकों से होती है उतनी ही साहित्य की पुस्तकों  से भी. एक तरह से हम सीधे-सीधे यह कह सकते हैं कि इस समय की साहित्यिक पुस्तकों में तमाम ऐतिहासिक सामग्री भरी पड़ी है और इतिहास में उसका बहुत बड़ा अवदान है. यह बात अलग है कि इन्हें सीधे तौर पर इतिहास की पुस्तक  नहीं कह सकते. इन रचनाओं ने दो स्तरों पर मोर्चा खोल रखा था. एक ओर वे तत्कालीन साम्राज्यवादी शक्तियों को खुली चुनौती दे रही थीं तो दूसरी ओर सदियों से  देश में जड़ जमाये ब्राह्मणवादी, रूढ़िवादी तत्वों को भी बेनकाब कर रही थीं. ऐसी  रचनाओं को तमाम कानूनों का सहारा लेकर ज़ब्त कर दिया जाता. ये रचनाएँ लगभग सभी भारतीय भाषाओँ में हैं. हिंदी भाषा में भी तमाम रचनाएँ जब्त की गयी थीं. इनमें किसान, मजदूर, स्त्री मुक्ति के अतिरिक्त दलित मुक्ति के स्वर भी हैं. ऐसी बहुत सी कविताएँ हैं जो दलित चेतना की आवाज बुलंद कर रही थी और वे जब्त घोषित कर दी गयीं . 

ब्रिटिश शासन से देश को आज़ादी दिलाने में दलितों का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है. ये दलित जातियां दोहरी लड़ाई लड़ रही थीं, एक ओर अंग्रेजों से तो दूसरी ओर अपने देश की शोषणकारी व्यवस्था से. जुल्म के साये में जीते रहने पर भी दलितों ने अभूतपूर्व साहस का परिचय दिया. उन्होंने अंग्रेजों को कड़ी टक्कर दी. समाज में उपेक्षित मानी जाने वाली जातियों ने देश की आज़ादी में अपना सर्वस्व बलिदान करने में कोई कोर-कसर न छोड़ा. “इतिहास में बहुत सारे ऐसे विवरण मिलते हैं , जबकि दलित और शोषित समाज की महिलाओं ने अपने-अपने गाँव, कस्बों, शहरों में ब्रिटिश सेना से जम कर मोर्चा लिया”.  प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में दलित स्त्रियों की वीरता विशेष उल्लेखनीय है. रामगढ़ की रानी अवंतीबाई की ललकार हर ओर गूंज उठी थी. अवंतीबाई का कथन है, ‘देश की रक्षा करने के लिए या तो कमर कसो या फिर चूड़ियाँ पहन कर घर में बैठ जाओ. तुम्हें शर्म और ईमान की सौगंध है जो इस कागज की पुड़िया का पता बैरी को दो.” 

उस समाज में तथाकथित निम्न वर्ग की स्थिति अत्यंत दयनीय थी. “यों तो सभी जगह दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार होता था, किन्तु पूना के पेशवा राज्य में दलितों की बड़ी दुर्गति थी. दलितों को गले में हांड़ी टांगकर चलना पड़ता था जिससे वे उसी में थूकें, जमीन पर नहीं. पीछे झाड़ू लटका कर चलना पड़ता था जिससे उनके पैरों का निशान मिटता जाये....दलितों को गले में काला धागा बाँधकर चलना होता था जिससे दूर से ही देख कर उसे पहचान कर दूर हट जाया जा सके. प्रदेश के सभी मंदिरों में इनका प्रवेश वर्जित था. कुएं से पानी लेना तो दूर तालाब का पानी भी, जिसे पशु पी सकते थे, उसे दलित नहीं पी सकता था.”

प्रतिबंधित हिन्दी रचनाओं में समाज में हीन समझे जाने वाले लोगों की वेदना को उकेरा गया है. बलभद्र प्रसाद गुप्त ‘विशारद’ की कविता ‘विषम व्यौहार’ में इसकी अभिव्यक्ति की गयी है-

“पशु तुल्य हे जगदीश ! हम हैं विश्व में देखे गये /  कृमि, कीट से भी तुच्छ जग में हाय ! हम लेखे गये / हमने किया संसार का उपकार भरपूर है / अवलोक लो, अपकार हमसे इस समय भी दूर है.”

दलित समाज सदियों से उत्पीड़न और हिंसा का शिकार रहा है. धर्म के शिकंजे में बंधा वह अन्याय सहने का आदी हो चुका था. उसे अपने ऊपर किये जाने वाले अत्याचारों का कारण अपने द्वारा किये गये पूर्व जन्म के पाप लगते थे.  मूक प्राणी की तरह वह सब कुछ सहता जाता था. उसके हाड़तोड़ श्रम से अन्यायी समाज अपने दौलत का खजाना भरता आ रहा था. ब्रिटिश राज में प्रतिबंधित कविता ‘ कुचली काया चीर फेंकती, जुल्मों के इतिहास पुरातन’ में इन्हीं भावों को अभिव्यक्त किया गया-

“सहते सहते बन जाती है / मूक, अरे! जीवन-मरण छोड़कर कुछ भी / नहीं जनता कुचला प्राणी/ हिंसक पशु सी नर को भूलीं / ये बर्बर अभिमानी काया / मजलूमों पर टिकी हुई है / जिनकी दौलत की माया.” 

वंचितों की सहन शक्ति भी आश्चर्यजनक है. सदियों से कुचले जाकर भी वे उसी दमनकारी सत्ता का पूजन करते आये. इस व्यवस्था ने उन्हें मूक मनुष्य में परिणित कर दिया. प्रतिबंधित कविता में यही कहा गया-

“कुचले जा कर भी सदियों से / उनका पूजन करते आये / उनके द्वार मिट-मिट कर भी / बनवंदन करते आये / मेरे भोले मूक मनुज! तुम, / सचमुच ही दैवत्व भरे हो  / मुझे महा आश्चर्य ! युगों से , / उजड़-उजड़ भी हरे-भरे हो.”

भारत में अंगरेजी राज स्थापित होने से सामाजिक व्यवस्था में हलचल की शुरुआत हुई. विभिन्न जातियों के लोगों ने अपनी सामाजिक स्थिति पर ध्यान देना शुरू किया. भारत में अंग्रेजों के आगमन के पश्चात् दलितों में अपनी शोषित दशा के प्रति नवीन चेतना का संचार हुआ. इस चेतना से लैस होकर उन्होंने अपनी लड़ाई को अपने ढंग से लड़ना शुरू किया. ऐसी कविताएँ जब्त की गयी जो दलितों के पक्ष में लिखी गयी थी. प्रतिबंधित की गयी ‘अछूत’ शीर्षक कविता में उनकी बदहाली, बेबसी और समाज से बहिष्कृत जीवन का अंकन किया गया है. सामाजिक स्थिति में बदलाव शुरू होने से लोगों के विचारों में भी परिवर्तन होने लगा था. कविता में उन लोगों को अपनाने और समाज में उन्हें शामिल कर लेने की बात कही गयी-

“कोई कहता है अछूत नहीं छूने योग्य/ शशि-अंक के कलंक कालिमा किनारे हैं / कोई कहता है अपने ही पूर्व पापों द्वारा / ‘रसिक’ रमेश से भी गये ये बिसारे हैं / कोई कहता है ‘तन करते अपावन ये’/ पावस के बड़े गंदे जल के पनारे हैं / किन्तु कहने में लज्जा लेश भी न होती हमें / हम अन्त्यजों के और अन्त्यज हमारे हैं.”  

इस व्यवस्था में तथाकथित निम्नवर्ग की जातियां छुआछूत का शिकार थीं. धर्म की बागडोर संभालने वालों ने उनका जीवन पशुओं के जीवन से भी बदतर बना रखा था. जब्त रचनाओं में इसकी मुखालफत की गयी. जब्त कहानी ‘नेता का स्थान’ में पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ लिखते हैं, “मुट्ठी भर धर्म के ठेकेदारों ने, पण्डे-पुरोहितों और ईश्वर के नाम पर संसार को ठगने वालों ने , प्रथा, पुराण और धर्म के नाम पर और भी भयानक उत्पात मचा रखा था. उनमें से कोई अपने को नहीं पहचानता था पर ईश्वर-दर्शक होने का दावा सबका था. ईश्वर के निवास-स्थानों (देवालयों, मठों) को उन्होंने होटल और वेश्यालय बना रखा था. त्यागियों और सन्यासियों की विभूति देख कर गृहस्थ चकरा जाते थे. विरागियों का वासनानुराग संसारियों को दहला देता था. सच्चे साधू, सच्चे पण्डे और सच्चे धर्माध्यक्षों का कहीं पता न था. चारों ओर धूर्तों, कामुकों, आतताइयों और दुष्टों का बोलबाला था. ये पुरोहित पुजारी भी सरकार से मिले हुए थे. कारण ये सब भी धनी थे. ये सरकार की मदद करते थे, राजा और राजा के प्रतिनिधियों को ईश्वर का अवतार या अंश बता कर. सरकार इनकी मदद करती थी-प्रथा की, पुराण की दोहाई देकर. धर्म की आड़ में उस धर्माध्यक्षों- ने न जाने कितने घर तबाह कर डाले, न जाने कितनी कुमारियों का कौमार्य नष्ट कर डाला, न जाने कितने सतियों का सतीत्व लूट लिया, न जाने कितने गरीबों का गला.रेत डाला.” 

    अंग्रेजों का उद्देश्य यहाँ धन की लूट करना था. अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने तमाम रणनीतियां तैयार की. यहाँ की अछूत मानी जाने वाली जनता को उनकी सरकार से कोई विशेष फायदा न हुआ. वे रचनाएँ जो दलितों की दशा उजागर करती थीं, उन्हें जब्त कर लिया गया. “छुआछूत का भेद मिटने में सबसे आगे कदम अंग्रेजी सरकार ने नहीं, राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रगतिशील लोगों ने उठाया है. बहुतों को वह घटना याद आएगी जब दक्षिण भारत के बहुत से मंदिर, जहाँ अछूतों को घुसने न दिया जाता था, गाँधी जी के आन्दोलन करने से उनके लिए खोल दिए गये थे. लेकिन उस समय सरकार ने यह कह कर पुलिस भेजी थी कि अछूतों के मंदिर प्रवेश से लोगों की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचेगी और उस धार्मिक भाव की रक्षा करना सरकार का परम कर्तव्य है.”  कहना न होगा कि गाँधी जी के आंदोलनों का व्यापक असर था. प्रतिबंधित कविताओं में इस भाव की अभिव्यक्ति की गयी. प्रह्लाद पाण्डेय ‘शशि’ की रचना ‘विद्रोहिणी’सरकार द्वारा जब्त की गयी. इस कविता संग्रह की ‘गाँधी की आंधी’ शीर्षक कविता में वंचितों की स्थिति को सामने रखा गया-

“निद्य-निरंकुश अन्यायों में / जीवन उन्हें काटते देखा / द्वार-द्वार पर जूठे पत्ते  / मैंने उन्हें चाटते देखा / शूद्र ! अछूत !! नीच !!! संबोधन / से अपमानित होते देखा / भीषण भल अरे सदियों की / चिर विमुक्ति बरसाती आई / गाँधी की जब आंधी आई .”    

  वर्ण व्यवस्था की शोषणकारी नीतियों के खिलाफ आवाज उठने लगी थी. यह वर्ग ऐसे समाज की स्थापना के लिए लड़ रहा था जहाँ मनुष्य का सम्मान हो. देश में सुधार के नाम पर जो संगठन चल रहे थे, उनके भीतर भी अंतर्विरोध मौजूद थे. “आर्य समाजियों में स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ जो फर्रुखाबाद में दलित के घर 1979 ई. में पैदा हुए थे, सम्मिलित हो गये. कुछ दिनों के बाद उन्हें अनुभव हुआ कि आर्य समाज में भी दलितों के साथ भेदभाव होता है इसलिए उन्होंने आर्य समाज से किनारा कर लिया और अध्ययन के आधार पर दलितों को ‘भारत का आदि हिन्दू’ बताया. उन्होंने ग़ज़ल लिखीं, संत रैदास और शम्बूक पर नाटक लिखे और संत रैदास की जयंतियां मनाना शुरू किया. इन जयंतियों के बाद रात में नाटक खेले जाते थे.” दलितों, वंचितों को उनका अधिकार दिलाने हेतु प्रयत्न शुरू हो गये थे.उनके आन्दोलन को देश व्यापी बनाने की मुहीम छिड़ गयी थी. “दलितों की विभिन्न जातियों ने अपनी-अपनी सभाएं बनानी शुरू कीं. चमार जाति के लोगों ने चमार महासभा, रविदास महासभा, पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाटवों ने जाटव महासभा, लखनऊ  के आसपास के पासियों ने पासी महासभा, धोबियों ने धोबी महासभा,  वाल्मीकियों ने वाल्मीकि महासभा बनाई.” इसी प्रकार पूरे देश में सभाएं, संगठन बनने लगे जो उन्हें उनके अधिकारों के प्रति सजग करते. कर्णाटक में ‘साऊथ इन्डियन बुद्धिस्ट एसोशियेशन’ तमिलनाडु , द्रविड़ियन कणगम’ आदि संगठन बने. सदियों से दबे-कुचले जनों के अधिकारों की लड़ाई शुरू हो गयी थी. झूठे धर्म, आडम्बर के खिलाफ मुहिम छिड़ गयी थी. प्रतिबंधित कविताओं में इसकी गूंज साफ सुनाई देती है-

“ओ हिन्दू कहलाने वाले/ निज विनाश की गहरी खाई / अपने हाथों निर्मित करता / उर में महा क्रूरता छाई / तेरी निष्ठुरता से काँपे / अतल-वितल पाताल रसातल / धसक चली रे धरा महीसुर / गुरु हडकंप मचाती आई/ गाँधी की जब आंधी आई.”

दलितों के बस्तियां गाँव के किनारे सबसे अलग रहा करती थीं. प्रतिबंधित ‘गीत’ की पंक्तियाँ इसी को अभिव्यक्त करती हैं-

“धीरे-धीरे ढल रही रात / हरिजन की टूटी कुटीर/ जो कि ग्राम्य के पूर्व तीर.”

इसी प्रकार एक अन्य कविता ‘देख सको तो मानव देखो’ में वंचितों पर होने वाले अत्याचारों की मार्मिक अभिव्यक्ति है-

“मंदिरों के घंटों की ध्वनि में / धर्म विलुप्त होता देखो /अधिकारों की दृढ़ ओटो में / चोट भरे हथकंडे देखो / निरपराध नर पर पशुओं से / आज बरसते डंडे देखो.”

    इसी क्रूरता के खिलाफ समाज की तमाम बहिष्कृत जातियां एक जुट होने लगीं थीं. तमाम विरोधों के बावजूद उनका आन्दोलन देश व्यापी होने लगा था. इस सिलसिले में बाबू रामचरण जी का योगदान महत्वपूर्ण है.  “1920 ई. में उन्होंने अखिल भारतीय निषाद महासभा की स्थापना की और उसके जनरल सक्रेटरी रहे. 1920 में उन्होंने ‘निषाद समाचार’ नमक पात्र निकाला. -1925 में आदि हिन्दू आन्दोलन में शामिल हुए और 1927 में आदि हिन्दू सभा के अध्यक्ष बने. वे दलितों को भारत का मूल निवासी मानते हुए उनको अपनी मातृभूमि में सभीं अधिकारों का हकदार मानते थे.” 

वंचितों को अधिकार दिलाने के लिए एक ओर विभिन्न सभायें, संगठन सक्रिय थे तो दूसरी ओर प्रतिबंधित की गयी रचनाएँ भी व्यापक प्रभाव डाल रही थीं. उनके शब्दों में एक ओर वंचितों के जीवन की मार्मिक अभिव्यक्ति है तो दूसरी ओर उनमें आग की लपट है, जो उन्हें ललकार रही थी. इस दिशा में रचनाकारों का एक बड़ा वर्ग भी सक्रिय था जो दमनकारी तत्वों से लड़ते हुए वंचित समुदाय के भीतर चेतना भरने का काम कर रहा था. ब्रिटिश राज में जब्त की गयी कविता ‘कवि के प्रति’ एक ऐसी तान का आह्वान कर रही थी जो जीवन को मुक्त करे-

“पद-दलित, शोषित मनुज दल / जे बना जर्जर भिखारी / फेंक भिक्षा पात्र दे निज / मुक्ति लाये क्रांतिकारी / ये तदाताद टूट जाएँ /दासता के जटिल बंधन / कवि! सुनाओ तान ऐसी / आज हो स्वच्छंद जीवन.” 

    कहना न होगा कि इन रचनाओं ने अपने स्तरों पर जन सामान्य को जागरूक करने का काम किया. देश में उठ रही हलचलों को आवाज देने की कोशीश की गयी. दबे-कुचले मनुष्यों के बीच जागरण की चेतना, अपने अधिकारों को पाने की चाह तथा अन्याय से मुक्त होने की प्रबल आकांक्षा को जगाने का काम तमाम रचनाओं के माध्यम से किया गया. 

डॉ. मधुलिका बेन पटेल
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग
तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय, तिरुवारुर, तमिलनाडु 
सम्पर्क : ben.madhulika@gmail.com, 9486994988

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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