आलेख : प्रेमचंद और प्रतिबंधित साहित्य / आशुतोष पार्थेश्वर

प्रेमचंद और प्रतिबंधित साहित्य
- आशुतोष पार्थेश्वर 

मुझे प्रेमचंद के प्रतिबंधित साहित्य पर अपनी बात रखने को कहा गया है। डॉ प्रदीप जैन ने इस संदर्भ में लगभग सभी तथ्य आपके समक्ष रखे हैं। मैं अपनी बात संक्षेप में उनकी कही हुई बातों के साथ कहने की अनुमति चाहता हूँ। प्रतिबंधित साहित्य के अध्ययन के क्या संकट हैं, इससे आप सभी भलीभांति परिचित हैं। यह जानी हुई बात है कि सामग्री और तथ्य संबंधित विधिक और सरकारी कार्रवाइयों की जानकारी की उपलब्धता आसानी से नहीं होती।

कल डॉ प्रदीप जैन जी ने 'सोज़े वतन' के सिलसिले से कुछ बातें रखी थीं। 'सोज़े वतन' ज़ब्त हुआ, कैसे हुआ, ज़ब्ती का स्वरूप क्या था। मैं उनकी कही हुई बातों को आगे बढ़ाने की कोशिश करूँगा और उनसे अपनी सहमतियाँ-असहमतियाँ दर्ज कराने का प्रयास करूँगा। लंबे समय तक यह माना जाता रहा कि 'सोज़े वतन' अंग्रेज़ी राज में ज़ब्त हुआ। यह मानने का आधार स्वयं प्रेमचंद थे। उन्होंने 'जीवनसार' में कहानी सुनाई है कि  ठंड के दिन थे और  'सोज़े वतन' को छपे हुए छह महीने हो गए थे कि अंग्रेज कलेक्टर का उन्हें बुलावा मिला और वे पेश हुए । उन्हें किताब जमा कराने का हुक्म दिया गया । किताब की ज़ब्ती का मामला बना । 
मेरी जानकारी में इस कहानी पर सबसे पहले डॉ. प्रदीप जैन ने सवाल उठाया। उन्होंने इसे सच के बजाय प्रेमचंद की एक कहानी ही माना और इस कहानी में दयानारायण निगम को भी साझेदार बताया। 
2010 में मैंने एक लेख लिखा था-''क्या 'सोज़े वतन' ज़ब्त हुआ था''। इसमें मैंने इस सवाल को समझने की कोशिश की। मेरा लक्ष्य था कि मैं यह समझ सकूँ कि ये कार्रवाई हुई तो कब हुई। और कार्रवाई का स्वरुप क्या था ? 'जीवनसार' में प्रेमचंद के कहे हुए को जस का तस न स्वीकारते हुए भी मैंने ज़ब्ती के विवरण को प्रश्नांकित नहीं किया। जैसा कि उस समय डॉ. जैन कर रहे थे। मैंने यह नहीं कहा कि किताब ज़ब्त नहीं हुई या इस किताब के साथ कुछ घटा ही नहीं। मेरी रुचि मूलतः यह जानने में थी कि जो कुछ घटा, उसकी टाइमिंग क्या थी। और ये जानना मुझे इसलिए आवश्यक लग रहा था कि 2006 में प्रदीप जैन जी ने एक लेख आजकल उर्दू में प्रकाशित करवाया था और उसमें उन्होंने दयानारायण निगम द्वारा संपादित 'ज़माना' उर्दू पत्रिका में प्रकाशित तीन रचनाओं - जुलाई 1908 में छपे लेख 'आबशार-ए-नियाग्रा', जुलाई 1909 में प्रकाशित 'जॉन ऑफ़ आर्क' और नवंबर 1909 में प्रकाशित 'द अंग्रेज़ी फिलॉसफर' शीर्षक तीनों लेखों को प्रेमचंद की अप्राप्य रचनाओं के रूप में प्रस्तुत किया । उनके अनुसार  जून 1908 में 'सोज़े वतन' प्रकाशित हो गया था और अंग्रेजी राज की भृकुटी उस किताब पर तन गई थी। तब प्रेमचंद ने उपनाम धारण करना शुरू कर दिया। 'दाल-रे अज़ अंबाला' के लेखकीय नाम से ये लेख उन्होंने 'ज़माना' में प्रकाशित कराए।  'दाल-रे' से 'धनपतराय' का अर्थ निकलता है । डॉ. जैन का आग्रह है कि तीनों लेखों को प्रेमचंद का माना जाए।

मेरी रुचि इस बात में थी कि आख़िरकार 'सोज़े वतन' के साथ जो कार्रवाई हुई वह कब हुई, इस 'रहस्य' को समझा जाए। क्योंकि शोध के साथ यह बहुत आवश्यक है कि अप्राप्य चीज़ों को खोजने का उत्साह हमारे अंदर हो लेकिन एक अनुशासन, एक धैर्य भी रहे। सब कुछ को स्वीकार लेने की हड़बड़ी हममें न हो। कुछ चीज़ें  'दाल रे' के साथ छपी हैं  या कोई रचना 'नून रे' के नाम से छपी है तो आवश्यक नहीं कि सभी रचनाएं प्रेमचंद की । या, ऐसे ही किसी अन्य उपनाम से, मसलन-बम्बूक, प्रकाशित रचनाओं को दूसरे सन्दर्भों की जांच किए बिना प्रेमचंद का मान लेना, शोध के अनुशासन के विपरीत है। इसलिए मैंने टाइमिंग पर बल दिया। 2006 में डॉ प्रदीप जैन का ये मानना था कि 'सोज़े वतन' से उत्पन्न प्रतिबंधों और उससे उत्पन्न संकटों के कारण प्रेमचंद ने छद्म नाम धारण किया और उपनामों से उन्होंने ये रचनाएँ छपवाईं। 2013 में जैन साहब ने अपने मत में सुधार किया और वे अब कहने लगे कि, 'लमही' पत्रिका में उनका एक लेख प्रकाशित है, ''सोज़े वतन' की ज़ब्ती की असलियत'', प्रेमचंद के छद्म नाम धारण करने में 'सोज़े वतन' की कोई भूमिका नहीं है । यही स्थापना उन्होंने अपनी पुस्तक 'प्रेमचंद की शेष रचनाएँ' और जो हालिया प्रकाशित  ''सोज़े वतन' : ज़ब्ती की सच्चाई'' में भी दुहराई है। 

बहरहाल, तीन लेखों में से एक-'जॉन आफ आर्क' को प्रेमचंद की रचना मानने का संकेत सबसे पहले गोपालकृष्ण मानकटाला ने दिया था। यह 84-85 के आसपास की बात है। मानकटाला ने जब ये संकेत दिया तो उसी समय मालकराम ने आपत्ति दर्ज की। उन्होंने कहा कि जो 'दाल-रे अज़ अंबाला' हैं, वे उत्तर प्रदेश के प्रेमचंद नहीं बल्कि उनके ससुर धनपतराय हैं, जो अंबाला के थे। जब मालकराम ने यह आपत्ति दर्ज की तो मानकटाला ने अपने मत में संशोधन किया और मान लिया कि वह प्रेमचंद की रचना नहीं है। यही विचार मदन गोपाल का भी रहा। लेकिन जैन साहब इस मत से सहमत नहीं हुए और वे अपने शोध के निष्कर्षों में सुधार के बजाय अपनी किताबों में यह कहने लगे कि प्रेमचंद ने 'सोज़े वतन' से उत्पन्न विवाद से पहले ही छद्म नाम अपना लिए थे। 

मैंने अपनी किताब ''प्रेमचंद का 'सोज़े वतन'' (2015) में, 'सोज़े वतन' पर होने वाली कार्रवाई की टाइमिंग को समझने का प्रयास किया। तब तक, मेरी पहुँच आर्काइवल डॉक्यूमेंट तक नहीं थी जहाँ तक जैन साहब की बाद में हुई है। मैंने उसके विज्ञापनों के आधार पर ही यह समझने की कोशिश की, जब तक विज्ञापन प्रकाशित हुआ होगा, लगभग उस समय तब तक उस किताब पर कोई कार्रवाई नहीं हुई होगी। इस तरह तलाश अंतिम विज्ञापन की थी!

'सोज़े वतन' का उल्लेख मुझे ज़माना के अगस्त-सितंबर1909 के अंक में प्रकाशित एक विज्ञापन तक में मिला। इस  अंक में यह सूचना छपी हुई है कि 'ज़माना' पत्रिका की मेंबरशिप लेनेवालों को 'सोज़े वतन' किताब उपहार स्वरूप मिलेगी। रोचक बात है कि अगस्त-सितंबर 1909 का यह अंक अक्टूबर 1909 के बाद आया था। 'ज़माना' में संकेत मिलता है कि संभव है ये नवंबर 1909 या दिसंबर 1909 में आया हो। अगस्त-सितंबर 1909  का अंक तैयार हो गया था और वहाँ सूचना छपी हुई है कि किसी कारण से वह अंक ख़राब हो गया है और उसे फिर से प्रिंट किया जाएगा। 

मैं ये मानकर चल रहा था कि नवंबर-दिसंबर तक तो इस किताब पर कोई विवाद उत्पन्न नहीं हुआ होगा या हुआ भी होगा तो प्रेमचंद को इसकी ख़बर नहीं रही होगी, दयानारायण  निगम को भी इसकी ख़बर नहीं रही होगी। अगर ख़बर रही होती तो इसका विज्ञापन नहीं छपता। आप याद करें 'जीवनसार' को, उसमें प्रेमचंद ने लिखा है कि किताब को छपे हुए छह महीने हुए थे और उन्हें बुलावा आया था। बहुत संभव है कि 24 साल बाद प्रेमचंद मौसम तो याद रखते हैं लेकिन समय थोड़ा भूल जाते हैं। उन्हें जो बुलावा मिलता है वह छह महीने के बाद नहीं लगभग तेरह-चौदह महीने पर मिलता है। 

जो आर्काइवल डॉक्युमेंट जैन साहब की किताब "सोज़े-वतन : ज़ब्ती की सचाई" में है उसके आधार पर हम प्रामाणिक रूप से कह सकते हैं कि यह किताब अक्टूबर 1908 में आई। दूसरी बात, किताब पर खूफिया विभाग की पहली नज़र 1909 में गई। तीसरी बात, किताब पर राजद्रोह की कार्रवाई के पक्ष में इंटेलिजेंस विभाग और शिक्षा विभाग के अंग्रेज़ अधिकारी दोनों थे। लेकिन विधिक सलाहकार ने ऐसी कार्रवाई को न्यायोचित नहीं ठहराया। चौथी बात, अक्टूबर 1909 तक नवाबराय यानी धनपतराय की पहचान खूफिया पुलिस के समक्ष स्पष्ट हो चुकी थी। पाँचवीं बात, जनवरी 1910 में या उससे पहले ही प्रेमचंद को अपनी सफाई देनी पड़ गई थी, संभव है दिसंबर में ही। जो आर्काइवल डॉक्युमेंट हैं वे बहुत स्पष्टता से बताते हैं कि पूरा मामला केवल खूफिया विभाग और शिक्षा विभाग तक सीमित नहीं था, यह मामला लेफ्टिनेंट गवर्नर तक पहुँचा और इस उच्च स्तर पर निर्णय लिया गया कि धनपतराय बिना सेंसर करवाये किसी प्रकार का लेखन नहीं छपवायेंगे। इस निर्णय से भारत सरकार के गृह सचिव को भी अवगत कराया गया और लेफ्टिनेंट गवर्नर के स्तर पर यह कहा गया कि किताब की जो अनबिकी प्रतियाँ हैं उन्हें ज़ब्त किया जाए, उनको प्रसारण से, बेचने से रोक लिया जाए। आर्काइवल डॉक्युमेंट में जो अंतिम प्रविष्टि है वो 28 फरवरी 1910 की है। इसी बीच अगर प्रेमचंद का सर्विस बुक हम देखें, उसमें 8 फरवरी 1910 की प्रविष्टि ध्यान देने लायक है। प्रविष्टि है कि 'Has done very well indeed here'. शिक्षा विभाग का एक अधिकारी अगर ये टिप्पणी कर रहा है तो ये टिप्पणी हमारा ध्यान खींचती है कि एक ओर उनसे 'सोज़े वतन' किताब को जमा कराने के लिए कहा जा रहा है, दूसरी ओर जिस महकमे में वे काम करते हैं, जिसके अधिकारी उन पर कड़ी कार्रवाई चाहते हैं। वहीं एक अंग्रेज अधिकारी यह भी टिप्पणी कर रहा है - Has done very well indeed here. संभव है कि वह अधिकारी कोई और नहीं बल्कि वही डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल हो जिसके संबंध में प्रेमचंद ने जीवनसार में लिखा है कि कार्रवाई के वक़्त उनका व्यवहार उच्च अधिकारियों की तुलना में, बल्कि उनके विपरीत, प्रेमचंद के प्रति सदाशयता से भरा हुआ था।

कार्रवाई की जो पत्रावली उपलब्ध है, वह पूर्ण नहीं है। डॉ जैन ने भी इसे माना है। इस पूरी प्रक्रिया में खूफिया विभाग और शिक्षा विभाग की कार्रवाई में जो मामला संयुक्त प्रांत के मुख्य सचिव और लेफ्टिनेंट गवर्नर तक पहुँचता है उसमें जिलाधिकारी की कोई भूमिका न रही हो, इस पर सहसा विश्वास नहीं होता। संभव है कि अगर पूरी पत्रावली आज हमारे सामने उपलब्ध होती तो जिलाधिकारी की भूमिका भी 
स्पष्ट हो जाती। 

आर्काइवल दस्तावेजों के सामने आने के बाद डॉ प्रदीप जैन ने भी यह संभावना स्वीकारी है की किताब की ज़ब्ती का मामला जिलाधिकारी के स्तर पर क्रियान्वित किया गया होगा। यानी प्रेमचंद ने अपने जीवनसार में जो कहा वो भ्रामक नहीं, असत्य नहीं, वो सत्य के करीब है। 

मैंने पूर्व में कहा है कि 'ज़माना' के अगस्त-सितंबर 1909 के अंक में प्रकाशित विज्ञापन में इस किताब को 'ज़माना' की मेंबरशिप लेने पर गिफ्ट में देने की बात दर्ज है। यह अंक नवंबर के बाद आया था, संभवतः दिसंबर में। और लगभग यही वह समय है जब प्रेमचंद को अपनी सफाई देनी पड़ी थी। और यह भी आप ध्यान रखिएगा कि 1908 के अगस्त में तब जबकि 'सोज़े वतन' का पहला विज्ञापन आता है। वहाँ से लेकर 1909 के इस अंतिम महीने तक, 'सोज़े वतन' के विज्ञापन निरंतरता के साथ छपते रहते हैं । 

'सोज़े वतन' पर कार्रवाई का ये समय मायने रखता है क्योंकि इस समय से पहले नवाब राय यानी धनपत राय के किसी उपनाम चाहे वो 'नून रे' के उल्लेख से हो, चाहे वो 'दाल रे' के उल्लेख से हो, उसे प्रेमचंद की रचना मानना अनुचित है। हम यह मोह छोड़ दें कि इससे पहले 1905 में भी प्रेमचंद ने उपनाम से 'आवाज़ ए खल्क' में 'हुक्का और सिगरेट' लिखा और 1906 में उन्होंने 'महकमा-ए-तालीम में एक अँधेर' शीर्षक लेख लिखा या बाद में  'जॉन आफ आर्क', या 'द अंग्रेज़ी फिलॉसफर' या 'आबशार-ए-नियाग्रा' लिखा। प्रेमचंद को इस विवाद से पूर्व ख़ुद की पहचान छिपाने या किसी उपनाम के सहारे अपनी बात रखने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। अतः डॉ. जैन को अपने मत में सुधार करना चाहिए।

एक बात और जो 'समरयात्रा' के सिलसिले से है, जागरण साप्ताहिक में यह सूचना प्रकाशित है कि आज तारीख़ 24 मार्च को स्थानीय खुफ़िया पुलिस के इंस्पेक्टर श्री दिलीप सिंह प्रेस में आए और श्री प्रेमचंद जी लिखित 'समरयात्रा' नामक राजनीतिक कहानी संग्रह की लगभग 200 प्रतियाँ उठा ले गए। 1908 में  वो पूरा मामला लेफ्टिनेंट गवर्नर तक पहुँचता है लेकिन 'समरयात्रा' के साथ यह भी नौबत नहीं आती और अंग्रेज़ सरकार का एक मुलाजिम आता है और किताब की प्रतियाँ उठाकर ले जाता है। इसकी अपेक्षा कि विधिवत ढंग से सब कुछ किया जाए, यह तो प्रेमचंद को भी नहीं रही होगी। 

'सोज़े वतन' के सिलसिले से एक दूसरी बात रखना चाहूँगा। खुफिया विभाग ने रिपोर्ट की थी कि यह  किताब वहीं बिक रही है, जहाँ पर सरदार अजीत सिंह की किताब बेची जा रही है। विधिक सलाहकार ने इस संकलन की जिस कहानी पर विशेष रूप से टिप्पणी की है वह है- 'यही मेरा वतन है।' 1924 में 'यही मेरी मातृभूमि है' शीर्षक से हिन्दी में यह कहानी 'प्रेमप्रसून' में संकलित हुई थी। इस कहानी के बारे में विधिक सलाहकार ने कहा कि "इस कहानी के बारे में हम कह सकते हैं कि इसमें पश्चिमी राज्य की आलोचना है।" अब आप 1908 में प्रकाशित इस कहानी को और ठीक इसके इसके एक साल बाद प्रकाशित 'हिन्द स्वराज' को साथ-साथ रखकर पढ़िए। यही मेरी मातृभूमि है में 90 वर्ष का वृद्ध जब साठ वर्ष बाद जब अमेरिका से भारत लौटता है तो उसे लगता है कि ये यूरोप है, इंग्लैंड है, अमेरिका है, यह उसका भारत नहीं। और क्यों ? इसलिए कि अंग्रेज़ों ने इन साठ वर्षों में भारत की प्राकृतिक संपदा को, भारत के संस्कार को, भारत की पहचान को नष्ट कर दिया है। भारत की पहचान क्या है? भारत की पहचान है उसकी आस्तिकता। उसका चरित्र। उसकी नैतिकता। उसकी प्रकृति। उसके लोग। इक्कीसवीं सदी के इन वर्षों में यह कहानी इसलिए बहुत मायने रखती है, इसे बार-बार पढ़ा जाना चाहिए। हालांकि, इन दिनों एक कोशिश हो रही है कि इस कहानी को प्रेमचंद के 'हिंदू भारत' के स्वप्न की कहानी के रूप में पढ़ा जाए ! 

याद रहे, कहानी के नब्बे वर्षीय निराश वृद्ध को भारत की अनुभूति कब होती है, जब वह बहुत निराश, थका-हारा है, उसे सुबह के समय गंगा  स्नान करने जाते हुए लोगों की आवाज़ सुनाई देती है जो भजन गाते हुए जा रहे हैं। इस अनुभूति से बड़ा प्रश्न यह है कि क्योंकर उसे अपनी ज़मीन, अपना मुल्क अपना नहीं लगता। प्रेमचंद जिसकी अपेक्षा कर रहे थे । तीस वर्षीय युवक अमेरिका जाता है और साठ वर्ष बिताकर वापस लौटता है, उसे जो चीज़ भारत में खटकती है, वह क्या है? अब भारत की वह प्रकृति नहीं है, भारत का स्वभाव खो चुका है, भारत का चरित्र खो चुका है इसलिए बहुत ज़रूरी है कि इस कहानी को अपने समय के साथ पढ़ा जाए।  एक बड़ा विमर्श इस कहानी में है। प्रेमचंद रेल की आलोचना करते हैं, पश्चिमी शिक्षा की आलोचना करते हैं, पश्चिम से उभरकर भारत में पसरते हुए बाजारवाद की आलोचना करते हैं, क्योंकि भारतीय उसका शिकार हो रहे हैं। अतः 'हिंद स्वराज' के साथ इस कहानी को पढ़ा जाना चाहिए। इस कहानी के बारे में विधिक सलाहकार ने बड़ी मार्के की टिप्पणी की, कि ऊपर से इस संकलन की कहानियों में ऐसा कुछ नहीं जिसे राजद्रोह कहा जाए लेकिन यह कहानी जिनके पास 'इनसाइट' है, अंतर्दृष्टि है, वे इस कहानी से प्रेरित और प्रभावित हो सकते हैं। प्रेमचंद 'सोज़े वतन' के दीबाचे में इसी इनसाइट की ही बात करते हैं । वे कहते हैं कि दो दौर गुजर चुके हैं। एक दौर था जब इश्क़ और माशूका की बात होती थी, एक दौर आया जब सुधार की बात आई। यह तीसरा दौर है जब हुब्बुलवतनी ने  क़ौम के दिमाग और क़ौम के दिल को मुतहर्रिक करने की कोशिश की है। अब लिटरेचर वह हो जिससे इनसाइट पैदा हो। जो इनसाइट बढाए। हिंदी-उर्दू साहित्य में इस 'इनसाइट' बढ़ानेवाले रचनाओं में 'सोज़े वतन' का उल्लेखनीय स्थान है। 

शुक्रिया!

आशुतोष पार्थेश्वर 
हिन्दी विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय 
सम्पर्क : parthdot@gmail.com  

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

1 टिप्पणियाँ

  1. प्रेमचंद की सोजो वतन के बारे में पढ़ा था कि वह जप्त हुआ था और उन्होंने दूसरे उपनाम से लिखना शुरू किया था। मगर इसके बारे में इतनी वास्तविकता पता नहीं थी जो इस लेख से चली है। वाकई लेख काबिले तारीफ और तथ्यपरक है।

    शोधकर्ता को मेरी ओर से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

    ओमप्रकाश क्षत्रिय 8827985775

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