आलेख : ब्रितानी हुकूमत और किस्सागो की बगावत - निरंजन सहाय व हरिभूषण यादव

ब्रितानी हुकूमत और किस्सागो की बगावत
हरिभूषण यादव  निरंजन सहाय

(इस लेख के आरम्भिक हिस्से में दो शिल्प–युक्तियों का इस्तेमाल किया गया है। विचारों को कथा शैली में गुम्फित कर जरूरत के मुताबिक  किस्सागो प्रेमचंद की कहानियों में प्रयुक्त संवादों का सहारा लिया गया है जिससे किस्सागोई की तासीर भी बरकरार रहे और विचारों की सान और भी धारदार बने।  साथ ही हुकूमत–ए–ब्रितानिया और राजद्रोह से संबंधित देश-काल की परिस्थितियों का पुख्ता अवलोकन हो। प्रेमचंद के जब्तशुदा कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ एवं `समर-यात्रा व अन्य कहानियाँ’ को लेख के मुख्य उपजीव्य के रूप में चयनित किया गया है।)

1. किस्सागो की यमपुरी में पेशी -
 
प्रेमचंद अपनी खटिया बिछा इत्मीनान से पाँव फैलाए ही थे कि अचानक एक कारिंदा आ धमका। 
‘चलो तुम्हारा बुलावा आया है।’
अरे नहीं नहीं भाई कोई ग़लती हुई होगी अभी तुरंत ही तो आया हूँ! देखो शरीर से अभी तेल भी नहीं सूखा।
कारींदा – मैं कुछ नहीं जानता सीधी तरह चलते हो या…..।
अच्छा -अच्छा चलता हूँ| लेकिन दो चार सासें ले लेने दो।
कारिंदा – काहे?

अभी मिनट भर पहले मेरा ही तो नंबर था| कड़ाही संख्या 305 पे सींक कबाब बनने के वास्ते।
कारींदा– ए मंगरू गुरु ! देखो ई बकैती कर रहा है ; बुलावा आया है और ये जा नही रहा।
इतना सुन मंगरू बाज की तरह झपटा और बोला ‘जाता काहे नहीं बे!’
मंगरू उस हल्के का जल्लाद था।

धरती के बड़े-बड़े सूरमा उससे भय खाते थे और खाए भी क्यों ना कल्पना से भी परे जाकर नयी-नयी  यातनाएँ गढ़ता।
 किसी में इतनी जुर्रत ना थी कि उसकी नज़रों में चढ़ जाए।
प्रेमचन्द – अरे सरकार आपने क्यों जहमत उठाई मैं आप ही चलता हूँ।
कचहरी में हाज़िर 

अर्दली आवाज लगाता है-
प्रेमचंद उर्फ धनपत राय वल्द अजायब राय हाजिर हों ….
आंखें मुश्ताक़,हाथ जुड़े,चेहरे पर मासूमियत ( कटघरे में )
आपको स्वर्ग भेजा जा रहा है।  ( फैसला )
बोरिया बिस्तर समेट कर चल पड़े स्टेशन।
गाड़ी में अभी देरी थी तो वहीं फर्श पर ही आसन जमा लिया।
एक नवयुवक कुर्ता पजामा चढ़ाए पीछे से हल्की आवाज़ लगाता है।
लेकिन कोई जवाब नही आता। क्या देखता है जिस्म बेजान सा आँखें खुली और पुतलियाँ फैली हुई हैं।
कंधो को हल्के से झकझोरते हुए| ‘जनाब!कहाँ खोए हैं?’
प्रेमचंद–सकपकाते हुए ' बस यूँ ही ' (थूक गटककर) आप मशहूर पत्रकार मि.विनय है न?
पत्रकार – जी हाँ! और आप ज़रूर उपन्यास सम्राट प्रेमचंद!
ठहाके वाली हँसी…… दोनो हँसते हैं।

पत्रकार– आप यमपुरी में कैसे ये तो निरा उचाट नरक है। सुना है कि यहाँ दुर्गुणों के हिसाब से सज़ा मुकर्रर होती है?
प्रेमचंद– ‘निंदा, क्रोध और घृणा यह सभी दुर्गुण है; लेकिन मानव–जीवन में से अगर इन दुर्गुणों को निकाल दीजिए,तो संसार नरक हो जाएगा। खैर छोड़िए; मुल्क में हाले सहाफ़त बयान करें।
पत्रकार–  बस ताबूते सहाफ़त में आखिरी कील ठोकनी बाक़ी है।
दोनो मुस्कुराते हुए ठंडी साँस लेते हैं।

कुछ पल खोए रहने के बाद प्रेमचंद पूछते हैं की ‘हंस’ का क्या समाचार है। पत्रकार बाबू कुछ जवाब देते उससे पहले पीछे से दो कारिंदे आ मिस्टर विनय को रस्सों में बांध घसीटते हुए ले जाते हैं।
 गाड़ी स्टेशन पर आती है और प्रेमचंद स्वर्ग के लिए रवाना होते हैं।

नई जगह में मन नहीं लग रहा था ऊपर से मन बड़ा व्याकुल था। कह सकते हैं कि कुछ हद तक व्याकुलता का कारण मिस्टर विनय से साथ हुई वह छोटी सी भेंट भी थी।
मारे व्याकुलता के स्टेशन  से उतर कर पास में लगी एक बेंच पर बैठ जाते हैं।
हाय! कैसा होगा ‘हंस’?

फिर वहीं बिना पलके झपकाए एकटक कहीं देख रहे हैं हर थोड़ी देर में चेहरे की भंगिमा बदल रही है कभी खुश,कभी दुखी, कभी आक्रोशित और कभी शांत।
इसी बीच अपना छोटा झोला उठा गोद में रख लंबी साँस लेते हैं। और सोचते हैं वो भी क्या दिन हुआ करते थे मैं एक सरकारी कर्मचारी था| हाल ऐसा कि ‘मजदूरों को ऑंखें दिखाओ, तो वह त्योरियाँ बदल कर खड़ा हो जाएगा। कुली को एक डाँट बताओं, तो सिर से बोझ फेंक कर अपनी राह लेगा। किसी भिखारी को दुत्कारो, तो वह तुम्हारी ओर गुस्से की निगहा से देख कर चला जायेगा। यहाँ तक कि गधा भी कभी-कभी तकलीफ पाकर दुलत्तियाँ झाड़ने लगता है; मगर बेचारे सरकारी कर्मचारी को आप चाहे ऑंखे दिखायें, डॉँट बतायें, दुत्कारें या ठोकरें मारों, उसके माथे पर बल न आयेगा। उसे अपने विकारों पर जो आधिपत्य होता है, वह शायद किसी संयमी साधु में भी न हो।’
अभी मौलाना सर और मिर्ज़ा रुसवा के साहित्य का खुमार भी नहीं उतरा था की बड़े जोश–जोश में ‘इश्के दुनिया व हुब्बे वतन’ लिखी जो अप्रैल 1908 में जमाना में छपी। ऐसी हौसला अफजायी हुई कि उसी मिज़ाज का एक कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ तैयार कर डाला जिसका प्रकाशन उसी बरस जमाना में हुआ।इसका असर ऐसा हुआ की हिंदुस्तान के क़ौमी ख्याल ने बुलूग़ियत के जीने पर एक कदम और बढ़ाया है और हुब्ब-ए-वतन के जज्बात लोगों के दिलों में उभरने लगे मुझे लगा हमारे मुल्क को ऐसी किताबों की अशद जरूरत है, जो नई नस्ल के जिगर पर हुब्ब-ए-वतन और प्रेम की अजमत का नक्शा जमाए।
बद-क़िस्मती ही कहें कि मैं पकड़ा गया खुफिया पुलिस ने सुराग पा लिया कि यह नवाब राय कौन है।
मैं अभी डेरे पर पहुँच कर हाथ मुंह धोया ही था कि समाचार मिला; चपरासी आया है।

बड़ी जोरों से भूख लगी थी भोजन भी पकाना था। एक मुट्ठी दालमोठ उठाई एक कौर मुँह में ही डाला था कि बाहर से चपरासी ने आवाज़ लगाई ‘बाबू जी, हमें बड़ी देर हो रही है।’ बाहर आकर पता चला कि कलेक्टर ने तलब किया है। चपरासी बोला ‘जरा लपक कर चलिए’ इतना सुन गुस्सा तो बड़ा आया पर खम साधते हुए मैं बोला ‘चलेंगे तो भाई आदमी ही की तरह चाहे डाँट लगायें या दाँत दिखाये। हमसे दौड़ा नहीं जाता।’शाम हो चुकी थी सूरज अपना बोरिया बिस्तर समेट पश्चिम की ओर हो–लिया था। बड़ी मुश्किल से एक बैलगाड़ी का प्रबंध हुआ। रात हो चुकी थी झिंगुरों की आवाज़ सड़क की खामोशी का बयान कर रहीं थीं। गाड़ीवान कलेक्टर के बंगले से एक मील पहले ही बोला ‘ ईते से आगे नहीं जाने ’ | हमने बड़ी मिन्नते कीं पर उसके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी। रात का पहला पहर बीत चुका था सियार हुँवास लेने लगे थे। चपरासी गाड़ी से कूदा और तेज़ कदमों से बंगले की तरफ चल पड़ा। मर्द तो हम भी थे कैसे कहते कि भाई जरा धीरे चलो।

आधे रास्ते तक तो हमने क़दमताल किया| लेकिन उसके बाद पैरों ने उठने से जवाब दे दिया, जांघों में दर्द होने लगा था, शरीर पसीने से तर था और आँखों के सामने तितलियाँ उड़ने लगीं। इसी प्रकार गिरते पड़ते बंगले पर पहुंचे देखा कि कलेक्टर चहलकदमी कर रहा है बार-बार दरवाज़े की तरफ देखता और झल्लाता।

साहब को सिर झुक कर सलाम किया।
साहब ने कड़कर कहा—अब तक कहाँ था?
 मुआफ़ी सरकार आने में थोड़ी देर हो गई !
साहब ने हाथ की छड़ी घुमाकर कहा—शट आप यू ब्लडी , हम घण्टा-भर से खड़ा है, अपना कान पकड़ो!
मैं हक्का–बक्का चुपचाप खड़ा रहा।

साहब—हम कहता है,कान पकड़ो, नहीं हम तुमको हंटरों से मारेगा।
मैं फिर चुपचाप खड़ा बंगले के आहते में बंधे उन चार भीमकाय कुत्तों की ओर देख रहा था।
उनके पास आकर और दोनों कान पकड़कर हिला दिए। बोला—‘यू ब्लडी फूल, गुस्ताखी करता है?’
‘ खैर मनाओ की अंग्रेजी अमलदारी में हो, सल्तनत–ए–मुगलिया का जमाना नहीं है, वरना तुम्हारे हाथ काट लिए जाते! तुम बगावत फैलाता है!’
सरकारी छानबीन पक्की थी और अपना जुर्म इकबाल करने के अलावा मेरे पास कोई दूसरा चारा न था।
मैं अपने आप को बहुत खुशनसीब समझ रहा था कि कलेक्टर ने मेरे पीछे कुत्ते नहीं छोड़े; मुझे न तो कोई सजा हुई ना कोई जुर्माना लगा। उस समय वर्नाकुलर प्रेस एक्ट 1874 का चाबुक बड़े जोरों से चल रहा था। सभी बागी पत्रिका और अख़बार-नवीसों की नसें ढीली हो चुकी थीं।
लौटते हुए मैने सोचा ‘अपने को हार से इस तरह बचाना गोया हम इहलोक–परलोक की दौलत खो बैठेंगे, लेकिन हारने के बाद, पटखनी खाने के बाद, गर्द झाड़ कर खड़े हो जाना चाहिए और खम ठोकर हरीफ़ से कहना चाहिए कि एक बार और।’

2. सलामत रहा कारवाँ ज़ुल्मतो-सितम के दौर में भी -

    आज़ाद भारत में शायद यह ताज्जुब लगे, पर सच है कि बरतानिया हुकूमत से आजादी के लिए भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन ने जो अभियान शुरू किए उनमें से ज्यादातर बोलने की आजादी के मसले को लेकर शुरू किए गए| इतिहासकार बिपिन चन्द्र ने उस दौर का दस्तावेजीकरण करते हुए लिखा, `1883 में सबसे पहले जेल जाने वाले लोग लोकमान्य तिलक, आगरकर और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी – प्रेस की आज़ादी के सवाल को लेकर जेल गए। पहला बड़ा राजनीतिक मुकदमा यानी तिलक का मुकद्दमा, प्रेस की आज़ादी के मसले से ही जुड़ा था| नाटू बंधुओं को प्रेस की आज़ादी के सवाल पर ही देश निकाला दे दिया गया| जब तिलक पर दुबारा मुकदमा चलाया गया और उन्हें छह साल की क़ैद की सज़ा देकर 1908 में देश निकाला दे दिया गया| असहयोग आन्दोलन छेड़ने का बुनियादी कारण अली भाइयों के हिन्दुस्तानियों से पुलिस और सेना में काम न करने को कहने के हक के सवाल से जुड़ा हुआ था| 1922 में गांधी जी के लेखों को लेकर उनपर मुकदमा चलाया गया और उन्हें सज़ा दी गयी| 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह बोलने की आजादी के मसले को लेकर छेड़ा गया| इस तरह भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन ने नागरिक स्वतंत्रता और लोकतंत्र को भारत की जनता के सपने का एक बुनियादी हिस्सा बना दिया।  ......
कहना न होगा आज़ादी की बुनियाद में उन आवाजों की पुरनूर कोशिशें शामिल हैं जिन्होंने बोलने के मसले को अपनी जिंदगी का सबसे अहम फलसफा बनाया। 

1907 से लेकर 1947 के बीच ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीय भाषाओं में लिखे जाने वाले प्रतिबंधित साहित्य की सूची भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार एवं ब्रिटिश संग्रहालय में मौजूद है साथ ही ‘ 1976 में प्रकाशित एन. जेराल्ड वैरीयर की किताब ‘बैण्ड कण्ट्रोवर्सियल लिटरेचर एण्ड पोलिटिकल कण्ट्रोल इन ब्रिटिश इण्डिया 1907-1947’ में एम.जेराल्ड लिखते हैं  बंग्ला में 226, गुजराती में 158, हिन्दी में 1391,हिन्दुस्तानी में 320, मराठी में 185, अंग्रेजी में 273, पंजाबी में 135, उर्दू में 468, द्रविड़ भाषाओं में 224 और अन्य में 538 रचनाओं को ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत प्रतिबन्धित किया गया था।’

2. बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे -

किस्सागो प्रेमचन्द इस दुनिया की बेहद मकबूल आवाज़ थे, उनके `सोजे वतन’ को बरतानी हुकूमत ने जब्ती की सज़ा मुकर्रर की| `सोज़े वतन’ की सभी कहानियाँ नवाब राय नाम से लिखी गयीं हैं| ये सभी कहानियाँ 1907 से 1908 के बीच लिखी गयीं| तस्वीर का स्याह हिस्सा यह है कि संग्रह की जब्ती ने धनपतराय को भीतर तक हिलाकर रख दिया| असामान्य रूप से गिरी हुई आर्थिक दशा और बढ़ी हुई पारिवारिक जिम्मेदारियों ने उन्हें मजबूर कर दिया| और उन्होंने  कुछ दशकों  तक ऐसी कहानियों से तौबा कर लिया  यह सिलसिला टूटा साल 1932 में| बनारस के सरस्वती प्रेस ने इसी साल `समरयात्रा व अन्य कहानियाँ’ संग्रह छापा| कहना न होगा इसे भी बरतानी हुकूमत ने जब्त कर लिया|       
 
इस संग्रह की कहानियों से रू-ब-रू होना लाजमी है| संग्रह की  पहली कहानी है`दुनिया का सबसे अनमोल रतन’| आमतौर पर हिन्दी-उर्दू संसार इसे प्रेमचंद की पहली कहानी मानता  है। इसमें दिलफ़रेब दिलफ़िगार से कहती है कि ‘अगर तू मेरा सच्चा प्रेमी है, तो जा दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ लेकर मेरे दरबार में आ।’ दिलफ़रेब दो बार नाकाम हो कर लौटता है मगर तीसरी बार जब वह आता है तो वह रत्न खोजने में कामयाब हो जाता है जिसके सामने दुनिया की हर चीज़ फीकी है। दिलफिगार इस सच को जान लेने में कामयाब होता है कि “वो आख़िरी क़तरा-ए-ख़ून जो वतन की हिफ़ाज़त में गिरे, दुनिया की सब से बेश-क़ीमत शय है।” दुनिया का सबसे अनमोल रतन कहानी में दिलफरेब और दिलफिगार का प्रेम सिर्फ साधन मात्र है। जब दिलफिगार हिंदुस्तानी सर जमीन पर पैर रखता है तो देखता है यह मुल्क हुकूमते बर्तानिया के खिलाफ संघर्ष कर रहा है संघर्ष भी ऐसा कि परिचय पूछने पर मरणासन्न सैनिक कहता है ‘मैं अपनी माँ का बेटा और भारत माता का सपूत हूं।’ इसी सैनिक के ह्रदय से बहा खून का आखरी कतरा वह ले जाता है। दिलफरेब द्वारा निकाली गई तख्ती से यह बात स्पष्ट हो जाती है ‘खून का वह आखरी कतरा जो वतन की हिफाजत में गिरा दुनिया का सबसे अनमोल रतन है।’ कहना गलत ना होगा की यही वह विस्फोटक कहानी थी जिसके धमाके से हुकूमते बर्तानिया की आंखों के सामने अंधेरा छा गया और उसके हाकिमों के हाथ पाँव फूल गए। तभी तो सेडिशन एक्ट की धाराओं में ‘सोज़े वतन ’ ज़ब्त कर लिया गया।

    ‘सांसारिक प्रेम और देश प्रेम’ (उर्दू नाम- इश्के दुनिया और हुब्बे वतन)  कहानी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की है जिसमें इतालवी क्रांति का जिक्र है। इसमें इतालवी क्रांति के एक महत्वपूर्ण नेता जोसेफ मैजिनी का जीवन संघर्ष है जो निर्वासन काट रहा है। वह हर मुमकिन कोशिश कर रहा है जिससे वह अपने देश इटली को गुलामी की चंगुल से छुड़ा सके। इस कहानी के दो केंद्र है एक मैजिनी का निर्वासित जीवन दूसरा मैग्डलीन का प्रेम। सिर्फ मैगडेलीन का प्रेम ही है जो जोसेफ मेजिनी को टूट कर बिखरने नहीं देता। कमल किशोर गोयनका का मानना है, सोज़ेवतन का प्रकाशन जून 1908 में हुआ था जबकि सांसारिक प्रेम और देशप्रेम अप्रैल 1908 में प्रकाशित हो चुकी थी।उनके अनुसार,  सांसारिक प्रेम और देश- प्रेमचंद की पहली प्रकाशित कहानी है। 

    `यही मेरा वतन है’ कहानी में प्रेम का जो रूप है वह पारम्परिक प्रेम की अवधारणा से  अलग है| यहाँ प्रेम स्थूल शृंगारिक  ना हो कर वतन से बेइंतहा लगाव से सम्बद्ध  है| कहानी एक ऐसे उम्रदराज़ आदमी की है जो साठ सालों के निर्वासन के बाद आपने देश यानी हिन्दुस्तान में लौटता है| यहाँ प्रेम अपनी मिट्टी से, अपनी मातृभूमि से है ना की किसी सुंदरी की खूबसूरती, अदाओं या गुणों से। तभी तो वह बूढ़ा आदमी कहता है कि ‘मातृभूमि का अंतिम दर्शन करने के लिए कदम उठाया। मैंने बेशुमार दौलत, वफादार बीवी, सपूत बेटे और प्यारे-प्यारे जिगर के टुकडे, ऐसी अनेकों अनमोल नेमतें छोड़ दीं।’ कहानी का केंद्रीय पात्र हुकूमत–ए –बर्तानिया द्वारा ढाए गए सितमो का शिकार है। उस दौर में उसकी तरह ही न जाने कितनों को काले पानी एवं निर्वासन की सजा हुई। उसने जीवन भर अपनी मातृभूमि के दर्शन का जो यूटोपिया रचा था भारत आने पर वह किसी कांच की तरह टूटकर बिखर जाता है। वह बार-बार कहता है नहीं यह मेरा वतन नहीं ‘यह कोई और देश है, यह यूरोप है, अमेरिका है, पर मेरा प्यारा देश नहीं, हरगिज़ नहीं।’  वह कहते हैं ना कि डूबते को तिनके का सहारा भी काफी है तभी तो जब वह गंगा किनारे पहुंचता है उसके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं और जोर से कह उठता है ‘हां हां यही मेरा देश है यही मेरा प्यारा वतन है यही मेरा भारत है और इसी के दर्शन की इसी की मिट्टी में मिल जाने की आरजू मेरे दिल में थी।’

    ‘शेख मखमूर ’ कहानी में महत्वपूर्ण मल्लिका शेर अफगान और शेख मखमूर कि मोहब्बत नहीं बल्कि मसउद का त्याग है। क्योंकि वो हर वह चीज त्याग देता है जिसे उसने अपनी हिम्मत और काबिलियत से पाई थी। यहां तक की वह ताजोतख्त का दावा भी नहीं पेश करता जबकि वह जन्नतनिशा मरहूम बादशाह का इकलौता वारिस था। उसके इस त्याग के पीछे उसके मन में मातृभूमि के लिए प्रेम था जो सर्वोपरि था। वह यह कतई नहीं चाहता था कि समर कमजोर हो।

4. वतन परस्ती में बेशुमार नियामतों का तोहफा बरास्ते समर यात्रा -

    प्रेमचन्द का उद्देश्य सिर्फ उपनिवेशवाद से मुक्ति ही नहीं बल्कि आत्मपरिष्कार भी था| इसीलिए अपने साहित्य के द्वारा उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों की जमकर भर्त्सना  की। उनकी समर-यात्रा संग्रह की जेल कहानी में गोदावरी और मिस्टर सेठ दोनों पति-पत्नी है लेकिन स्वभाव विरोधाभासी गोदावरी जहां स्वराज की समर्थक है वहीं मिस्टर सेठ सरकार के हिमायती एवं वफादार कर्मचारी। यह भारतीयता की ही पहचान है कि विरोधाभासी गुण होने के बावजूद दोनों पति-पत्नी साथ हैं।पति की इच्छा के बावजूद गोदावरी कांग्रेस की सभाओं में जाती है। मिस्टर सेठ मिस फ्रैंक का गुलदस्ता पाँच खपये में खरीदें वही गोदावरी स्वयं द्वारा अंधे को दिया गया घिसा हुआ एक पैसा दो सौ रुपये में लेती है क्योंकि दिन भर का भूखा रहने के बावजूद भी अंधा उस पैसे से कुछ नहीं खाता बल्कि उसे स्वराज के लिए दान कर देता है। लगान वसूल करने के लिए सरकार अपने पुलिसिया तंत्र का किस तरह से दुरुपयोग करती है उसकी यह बानगी भर ही है,‘भैरोगंज का सारा इलाका लूटा जा रहा है। मरता क्या न करता, किसान भी घर-बार छोड़-छोड़ कर भागे जा रहे हैं। एक किसान के घर में घुस कर कई कांस्टेबलों ने उसे पीटना शुरू किया। बेचारा बैठा मार खाता रहा। उसकी स्त्री से न रहा गया। शामत की मारी कांस्टेबलों को कुवचन कहने लगी। बस, एक सिपाही ने उसे नंगा कर दिया।’ 12 अत्याचार का प्रेमचन्द प्रतिकार करते हैं ‘मिस्टर सेठ भी मजबूत आदमी थे। यों वह हर तरह की खुशामद किया करते थे, लेकिन यह अपमान स्वीकार न कर सके। उन्होंने रूल को तो हाथ पर लिया और एक डग आगे बढ़ कर ऐसा घूँसा साहब के मुँह पर रसीद किया कि साहब की आँखों के सामने अँधेरा छा गया।’ ‘समर यात्रा ’मर्द औरत बच्चे बूढ़े सभी का सत्याग्रहियों के स्वागत में पलके बिछाए बैठे हैं लेकिन झोपड़ियों का मुस्कुराना एक नया शिल्प है। नोहरी उन तमाम औरतों का प्रतिनिधित्व करती है जिन्होने सत्याग्रह का नेतृत्व किया। आज के समय में यह आम विचार है कि औरतों को मयखाने और मैकशों से काफी दूरी बना कर रखना चाहिए लेकिन ‘शराब की दुकान’ कहानी में मिसेज सक्सेना नशेडियों द्वारा किए जा सकने वाले संभावित दुर्व्यवहार की चिन्ता नहीं करती और कहती हैं ‘तो क्या आप का विचार है कि कोई ऐसा जमाना भी आएगा ,जब शराबी लोग विनय और सील के पुतले बन जाएंगे? यह दशा तो हमेशा ही रहेगी। आखिर महात्मा जी ने कुछ सोच कर ही तो औरतों को यह काम सौंपा है।‘ अंततः मिसेज सक्सेना अपना खून बहाकर शराब की उस दुकान की पिकेटिंग करने में सफल होती हैं।

    इतिहास साक्षी रहा है कि जिस कौम ने अपने विद्वेषों को मिटा कर विकास की राह पकड़ी वे आगे बढ़े और संपन्न हुए जबकि वह कौमें जो धर्म की अफीम खा सिर्फ कट्टरता का ही पोषण करती रही पिछड़ गई नफरत की ऐसी परत उनकी आंखों पर पड़ी कि अपनी अधोगति का भान तक ना रहा। बर्तानिया हुकूमत ने भारतीय राजनीति में जो विषवृक्ष बोया उसका फल हमें पार्टिशन और दंगों के रूप में मिला। कुछ इसी प्रकार के उद्देश्य से बंगाल का बटवारा सरकार द्वारा किया गया पर उनके मनसूबों पर पानी फिर गया। सांप्रदायिकता के विषवृक्ष की जड़ खोदने के लिए ही तो ‘जुलूस' कहानी में इब्राहिम अली जैसे पात्र हैं। ‘उन्होंने मरते समय वसीयत की थी कि मेरी लाश को गंगा में नहलाकर दफन किया जाय और मेरे मजार पर स्वराज्य का झंडा खड़ा किया जाय।’15 हंस के 8 जनवरी 1934 के अंक में प्रेमचन्द लिखते हैं कि ‘हिंदू–जाति का सबसे घृणित कोढ़, सबसे लज्जाजनक कलंक यही टकेपंथी दल हैं, जो एक विशाल जोंक की भांति उसका खून चूस रहा है, और हमारी राष्ट्रीयता के मार्ग में यही सबसे बड़ी बाधा है. राष्ट्रीयता की पहली शर्त है, समाज में साम्य–भाव का दृढ़ होना. इसके बिना राष्ट्रीयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती. जब तक यहां एक दल, समाज की भक्ति, श्रद्धा, अज्ञान और अंधविश्वास से अपना उल्लू सीधा करने के लिए बना रहेगा, तब तक हिंदू समाज कभी सचेत न होगा।’कृष्ण कृपलानी अपनी पुस्तक गांधी: एक जीवनी में स्वरज के आंदोलनों का चित्रण करते हुए लिखते हैं ‘सदियों से सोई पड़ी जनता अपनी मानवीय गरिमा को नई चेतना से प्रफुल्लित होकर, साहस और बलिदान की भावना से भरकर जाग उठी। नगरों, कस्बों और गाँवों की गलियों में, चौराहों पर विदेशी कपड़ों की होलियों जलने लगी। सदियों से चारदीवारी के अंदर ही घरेलू दुनिया में कैद स्त्रियों, पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सड़कों पर निकल पड़ीं और इसी प्रसंग में उन्होंने सदियों पुराने बंधनों से खुद को मुक्त करा लिया।’

    प्रयागराज के आनंद भवन में एक तस्वीर जिसमें हजारों हजार औरतें आजादी के संघर्ष का नेतृत्व करती और भाग लेती हुए दिखाई देती हैं। उसी के साथ चस्पा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का एक नोट है ‘जब भारत के अधिकतर पुरुषों को जेलों में ठूँस दिया गया था तो भारत की इन्ही औरतों ने सरकारी लाठियों को चुनौती दी।’बीसवीं शताब्दी का वह प्रथम गोलार्ध जिसमें हम पाते हैं कि प्रेमचंद हुकूमते ब्रितानिया  द्वारा बनाए शोषण के कानूनों को धता बताते हुए एक श्रेष्ठ भारत की परिकल्पना तैयार करते हैं जिसमें भारतीय औरते घरों से बाहर निककलर सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेती हैं। सुहाग की साडी, सिंदूर, बिंदी आभूषण व अन्य शृंगार प्रसाधनो के उपर उठकर स्वराज को महत्व देती हैं। औरतें मुक्त होती है अपनी स्वतंत्र सोच रखती हैं और सबसे बड़ी बात पति की संपत्ति में अपना हिस्सा समझती हैं।

हरिभूषण यादव
शोधार्थी, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी
  
निरंजन सहाय
प्रोफेसर एवम अध्यक्ष, हिंदी एवम आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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